Tuesday, May 7, 2019

बंगालः कुछ वोटर बम बनाते हैं, कुछ बम खाते हैं

सच यह है कि बंगाल का नेता बहुत जागरूक है और उससे भी अधिक जागरूक है वह कैडर, जो बंगाल में अधिक से अधिक वोटिंग को सुनिश्चित करने के लिए सबकुछ करता है. हत्याएं भी.

मेरे एक दोस्त ने मुझसे पूछा, बंगाल के लोगों की सेहत कैसी है? तभी से मैं सोच रहा हूं कि बंगाल में किसकी सेहत के बारे में बयान किया जाए? बंगाल में दो तरह के लोग हैं. एक वोटर, दूसरा नेता. वोटरों में कुछ कैडर हैं, कुछ गैर-कैडर समर्थक हैं, तो कुछ विरोधी हैं. और सबकी सेहत का हाल तकरीबन एक जैसा है.

कैडर का क्या है, जिन कैडरों को वाम ने 34 साल तक पाला-पोसा, उनमें से बेहद प्रतिबद्ध को छोड़कर, बाकी लोग तृणमूल की तरफ मुड़ गए.

जहां तक वोटर का सवाल है, कुछ वोटर बम बना रहे, तो कुछ खा रहे हैं. पिचके हुए गाल, और पेट के साथ राजनीतिक प्रतिबद्धता बरकरार है. उन्हें लगातार कायदे से प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि जीवन व्यर्थ है और उसे अपने पितृदल-मातृदल के लिए निछावर कर देना ही मानव जीवन का सही उपयोग है. सेहत सिर्फ नेताओं की सही है, सभी दल के नेता गोल-मटोल-ताजे-टटके घूम रहे हैं.

आम वोटर, भकुआय़ा हुआ देखता रहता है. वह अपनी झोंपड़ी पर किसी एक दल का या ज्यादा कमजोर हुआ तो सभी दल के झंडे लगा रहा है. स्वास्थ्य सबका ठीक है. बस, खून की कमी है. क्योंकि बंगाल की राजनीति में उसे सड़कों पर बहाने की बड़ी गौरवपूर्ण परंपरा है. आज भी उस परंपरा को शिद्दत से निभाया जा रहा है.

आम वोटर तब तक सही निशान पर उंगली नहीं लगा पाता, जब तक उसे कायदे से धमकाया न जाए. बंगाल में धमकी देना, राजनीति का पहला पाठ है. इसे सियासत के छुटभैय्ये अंजाम देते हैं, जो चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद, अगले 48 घंटों में संपन्न किया जाता है. इसके तहत ज़मीनी पार्टी कार्यकर्ता घर-घर जाकर बाकायदा धमकी देने की रस्म पूरी करते हैं कि अलां पार्टी को बटन दबा देना, बिलकुल सुबह जाकर. इवीएम से बिलकुल सही पार्टी के पक्ष में ‘पीं’ निकलना चाहिए वरना तुम्हें ‘चीं’ बुलवा दिया जाएगा. इसके बाद कार्यकर्ता वोटर को प्यार से समझाता है कि वोट विरोधी पार्टी को देने पर हाथ भी काटे जा सकते हैं, और फिर इसके बाद वह बंगाल के विभिन्न इलाकों में हुए ऐसे महत्वपूर्ण और इतिहास में स्थान रखने वाले उदाहरण गिनाता है.

वोटर का ब्लड प्रेशर सामान्य हो जाता है. वह समझ जाता है कि राजनीतिक हिंसा की इस गौरवपूर्ण परंपरा और इतिहास में उसके हाथ काटे जाने को फुटनोट में भी जगह नहीं मिलेगी.

बंगाल के वोटर की आंखें कमजोर हैं क्योंकि दूरदृष्टि - निकट दृष्टि के साथ विकट दृष्टि दोष भी है. यादद्दाश्त समय के साथ कमजोर हो गई है. हिप्नोटिज़म का उचित इस्तेमाल किया जा रहा है. वोटरों की आंखों के सामने उन्हें याद दिलाया जा रहा है कि हमने उनके लिए क्या-क्या किया है, क्या-क्या किया जा सकता है.

वोटर गजनी की तरह शॉर्ट टर्म मेमरी लॉस का शिकार हो गया है. उसे दो महीने पहले की बात याद नहीं रहती, यह बात सभी पार्टियों को पता है. सीपीएम को पता है, कांग्रेस के पास विकल्प नहीं है. डायनासोर बनने से अच्छा है, खुद को बदल लिया जाए. कांग्रेस जानती है कि वोटर को यह कत्तई याद नहीं होगा कि वर्धवान जिले में 1971 में साईंबाड़ी में सीपीएम के कैडरों ने उसके कार्यकर्ता के साथ क्या किया था.

असल में पार्टी को मजबूत बनाना हो तो ऐसे कारनामे करने होते हैं. साईं बाड़ी में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की हत्या कर उसके खून में भात सानकर उसकी मां को जबरन खिलाया गया था. बंगाल की क्रांति में ऐसी वारदातें बहुत आम हैं.

ज़मीनी कार्यकर्ता रूठ भले जाए लेकिन सियासी खेल में एंटीजन-एंडीबॉडी की तरह फ्रेंडली फाइट उर्फ दोस्ताना संघर्ष होते रहना चाहिए. ज़मीनी कार्यकर्ता का क्या है, वो तो झक मारकर आएगा ही.

बंगाल में वोटर को नेता-कार्यकर्ता सधे हुए डॉक्टर की तरह दवा लेने का नुस्खा समझाते हैं, हंसिया-हथौड़ा दिए चो कि फूल छाप? कोन फूल टा? एकला फूल ना जोड़ा फूल? अभी प्रधानमंत्री मोदी कह कर आए हैं- चुपेचाप, फूले छाप. माकपा का सेकुलर वोटर ममता के मुस्लिम प्रेम से भौंचक्का होकर धार्मिक बनने की कोशिश कर रहा है. उसे दिख रहा है कि जन्मजात ब्राह्मणी ममता बंधोपाध्याय दुर्गा पूजा विसर्जन को नजरअंदाज कर रही हैं. मुर्शिदाबाद में कार्तिकेय की मूर्ति को पंडाल में ही पानी की बौछारों से गलाकर विसर्जित करना पड़ा, ऐसा भाजपा के एक नेता ने किस्सा सुनाया. बंगाल में ममता की तुष्टीकरण की नीतियों से सींची हुई जमीन भाजपा को बहुत उपजाऊ रूप में मिलने की उम्मीद है. सूबे में धीरे-धीरे पार्टी की सेहत सुधरती जा रही है. इस सुधरती सेहत ने ठीक से सौष्ठव नहीं दिखाया तो दिल्ली में भावी एनडीए सरकार की सेहत पांडु रोग से ग्रस्त हो जाएगी.

कुपोषण से ग्रस्त वोटर के पास दाल-रोटी की चिंता है. राइटर्स में ममता बैठें या बुद्धो बाबू, उसके लिए सब बराबर हैं. बंगाल के नेता के लिए वोटर महज सरदर्द के बराबर है. दिल्ली में बैठे पत्रकार अपनी बातचीत में कहते जरूर हैं, कि बंगाल का वोटर बहुत जागरूक है.

लेकिन सच यह है कि बंगाल का नेता बहुत जागरूक है और उससे भी अधिक जागरूक है वह कैडर, जो बंगाल में अधिक से अधिक वोटिंग को सुनिश्चित करने के लिए सबकुछ करता है. अब इसमें कुछ मृतक वोटरों के भी वोट डल जाएं तो इस कार्यकर्ता का क्या कुसूर? 

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Monday, May 6, 2019

साथ पर न बात पर, मुहर लगेगी जात पर

भारत की राजनीति के विश्लेषक आम तौर पर यह मानकर चलते हैं कि भारतीय वोट डालते वक्त अपनी ही जाति को वोट देते हैं. यह मोटे तौर पर सही भी है. पर 2014 के चुनाव से जाति के भीतर वर्ग से जुड़े तत्व की अहमियत की झलक मिलती है. जो कुछ हद तक इन जति समूहों की सामाजिक -आर्थिक भिन्नता का नतीजा है. लेकिन यह जानना क्या दिलचस्प नहीं होगा कि किसी तरह कुछ खास जातियां प्रमुख राज्यों में सत्ता का पलड़ा किसी के पक्ष में झुका सकती हैं.

सबसे पहले बात राजस्थान की. इस सूबे में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने जाति के गणित को ध्यान में रखकर उम्मीदवार चुने हैं. भाजपा विधानसभा चुनाव में हार के बाद अपने राजपूत वोट बैंक को वापिस हासिल करने को बेताब है. उसने गुर्जर नेता किरोड़ी सिंह बैंसला और जाट नेता हनुमान सिंह बेनीवाल को भी शामिल किया है ताकि ग्रामीण इलाकों में दबदबा रखने वाली इन दो और जातियों को साथ ला सके. कांग्रेस राजपूत वोटों को लाने के लिए भाजपा छोड़कर आए मानवेंद्र सिंह पर भरोसा कर रही है. मुसलमान अगर एकमुश्त वोट डालते हैं तो 2019 में अहम हो सकते हैं. राजस्थान में गुर्जर 5 फीसदी हैं जो कांग्रेस और भाजपा में बंटते हैं. राजपूत करीबन 9 प्रतिशत है, मेघवाल 5 प्रतिशत और जाट 11 प्रतिशत हैं. जाटों का समर्थन कांग्रेस भाजपा के अलावा आरएलपी बांट सकती है.

राजस्थान से सटे हरियाणा में 2016 के जाट आंदोलन के बाद दूसरे समुदाय जाटों के खिलाफ एकजुट होने को राजी हो गए हैं. अभी तक चौटाला की इनेलोद और कांग्रेस के बीच बंटा जाट वोट और ज्यादा बंट गया है. चौटाला के बड़े बेटे अजय सिंह के बाहर निकल कर जननाय़क जनता पार्टी बना लेने के हबाद इनलोद दोफाड़ हो चुकी है. जाटों में फूट का फायदा भाजपा को मिल सकता है, पर उसे ओबीसी नेता राजकुमार सैनी की लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी के अब बहुजन समाज पार्टी के साथ चले जाने का खामियाजा भुगतना होगा. राज्य में जाटों की तादाद करीबन 22 फीसदी है, अनुसूचित जाति करीब 20 फीसदी हैं और अहीर य़ा यादव 16 फीसदी. इनमें से जाटों का वोट इनेलोद, जेजेपी और कांग्रेस की तरफ झुक सकता है.

उधर, मध्य प्रदेश में प्रमुख असरदार जातियों में यादर और लोध हैं. यादवो की आबादी में हिस्सेदारी करीबन 5-7 फीसदी है, जबकि इस वोट बैंक में भाजपा और कांग्रेस का हिस्सा है. दूसरी तरफ लोध हैं उनकी भी आबादी 7 फीसदी के आसपास ही है.

मध्य प्रदेश में इस लोकसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ओबीसी वोटों पर ही निगाह लगाए हुए है जो सूबे में 50 फीसदी के आसपास हैं. ओबीसी पहले भाजपा के साथ रहे हैं मगर उनके लिए आरक्षण का कोटा बढ़ाने (14 फीसदी से 27 फीसदी) के कांग्रेस के ऐलान से समुदाय में उसकी संभावनाओं पर इजाफा होना चाहिए. ओबीसी में यादव और लोध जो असरदार जातियां हैं.

मध्य प्रदेश से अलग हुए राज्य छत्तीसगढ़ में वोटिंग पैटर्न पर असर डालने वाली तीन प्रमुख जातियां कुरमी, साहू और सतनामी हैं. कुर्मी राज्य में कोई 10 फीसदी, साहू 8 फीसदी और सतनामी 10 फीसदी हैं. इनमें भी सतनामी (एससी) और साहू (ओबीसी) यहां दो सबसे मजबूत जाति समूह हैं. सतनामियों की समुदाय के तौर पर पहचान मजबूत है जबकि साहुओं को राजनीति में आम तौर पर बहुत ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला है. कुरमी एक और बड़ा जाति समूह है. इस चुनाव में कुर्मी (मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कुर्मी हैं) और सतनामी कांग्रेस के साथ जा सकते हैं और साहू भाजपा के पीछे गोलबंद हो सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के कद्दावर जाति समूहों की बात करें तो जाहिर है यादवों, जाटवों, ब्राह्मणों और ठाकुरों का नाम आएगा. यादव करीब 11 फीसदी हैं जाटव 14 फीसदी, ब्राह्मण 9 फीसदी और ठाकुर 5 फीसदी हैं. प्रदेश में भाजपा की घोषित 77 सीटों में से अगड़ी जातियों (20 फीसदी वोट) को 32 (ब्राह्मण 16, ठाकुर 13) और गैर-यादव ओबीसी को 28 टिकट मिले हैं. बसपा ने 38 उम्मीदवारों का ऐलान किया है, जिनमें 10 दलित आरक्षित सीटों पर और 10 ओबीसी उम्मीदवार हैं. उसने ब्राह्मणों (6), वैश्यों (3) ठाकुरों (2) और भूमिहारों (1) को भी टिकट दिए हैं.

बिहार में यादव 14 फीसदी हैं और उसे राजद का वोटबैंक माना जाता है. कुर्मी 3 फीसदी हैं और उसे जद-यू का वोटबैंक माना जाता है. पासवान 5 फीसदी हैं और उस पर रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा का कब्जा रहता है. मुसहरों की आबादी 4 फीसदी के आसपासा है और जीतनराम मांझी उनके नेता माने जाते हैं. जबकि कुशवाहा के 7 फीसदी वोटों पर उपेंद्र कुशवाहा अपना दावा जताते हैं.

भाजपा के ऊंची जाति-ओबीसी गठजोड़ वोटों में इजाफा करने के वास्ते एनडीए अत्यंत पिछड़ी जतियों के 30 फीसदी वोटों के बड़े हिस्से के लिए जेडी-यू और 5 फीसदी पासवान वोट के लिए लोजपा पर भरोसा कर के चल रहा है. राजद का आधार (16.5 फीसदी मुसलमान, 14 फीसी यादव) विपक्ष के उस महागठबंधन की बुनियाद है जिसमें कांग्रेस, रालोसपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी शामिल है.

थोड़ा दक्षिण चलें तो कर्नाटक में मूलतः दो असरदार जाति समुदाय हैं. वोक्कालिगा और लिंगायत. वोक्कालिगा की आबादी राज्य में अनुमानतः 13 फीसदी है और लिंगायतों की 17 फीसदी. आम तौर पर लिंगायत भाजपा का समर्थन करते हैं और वोक्कालिगा जेडी-एस का. वोक्कालिगा ग्रामीण इलाकों में जेडी-एस का समर्थन करते हैं और शहरी इलाकों में वे कांग्रेस और भाजपा के बीच बंटे हैं. कांग्रेस और जेडी-एस को एससी और एसटी (23 फीसदी) ओबीसी (21 फीसदी) और अल्पसंख्यकों (13 फीसदी) का समर्थन हासिल है.

इसी तरह आंध्र प्रदेश में रेड्डी 5 फीसदी हैं. कम्मा 4.8 फीसदी और कापू 18 फीसदी हैं. तेलुगुदेशम पार्ट में कम्मा जाति का और वाइएसआर कांग्रेस में रेड्डियों का दबदबा है. पवन कल्याण की जन सेना को मुख्य रूप से कापू समुदाय का समर्थन हासिल है, जिसे नौकरियों और शिक्षा में उपजातियों के लिए राज्य सरकार के प्रस्तावित 5 प्रतिशत का आरक्षण का फायदा मिलेगा. जनसेना ने बसपा, भाकपा और माकपा के साथ गठबंधन किया है.

तमिलनाडु में पल्लार जाति 17 फीसदी है, पेरियार 9 फीसदी और वनियार 10 फीसदी हैं. पट्टालि मक्काल काच्चि सबसे ज्यादा पिछड़े वनियारों की नुमाइंदगी करती है और नौ सीटों पर असरदार खिलाड़ी है. पीटी पल्लार दलित उपजाति की नुमाइंदगी करती है, जिनकी 28 जिलों में अहम मौजूदगी है. डीएमके के साथी दल विदुतलाई चिरुतैगल काच्चि और कोंगुनाडु मक्कल देसिया काच्चि पेरियारों और गौंडरों (मुख्यमंत्री ई.के. पलानीसामी का समुदाय) की नुमाइंदगी करते हैं.

खैर जो भी हो, जाति के आधार पर वोटिंग का यह चलन देश के सियासी तबके की मायूस करने वाली तस्वीर से रू ब रू कराती है और हमें भारत की चुनावी राजनीति के मुक्तिदाता होने के वादे और साथ ही सियासी पार्टियों के समावेशी होने के दावों पर सवाल भी खड़े करती है.


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Saturday, May 4, 2019

चंद्रशेखर मायावती की आंख की किरकिरी क्यों है

युवा दलित नेता चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण चाहे मायावती का विरोध करते नहीं दिखते हैं पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती शायद उनकी मौजूदगी से खतरा महसूस कर रही हैं. मायावती ने सीधे-सीधे भीम आर्मी के अगुआ चंद्रशेखर को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का गुप्तचर घोषित कर दिया है. भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर के बनारस से चुनाव लड़ने की घोषणा पर मायावती ने भाजपा को निशाने पर लिया और कहा कि," दलितों का वोट बांटकर भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए ही भाजपा भीम आर्मी के चन्द्रशेखर को वाराणसी लोकसभा सीट से चुनाव लड़वा रही है ". मायावती ने अपने हमले में चंद्रशेखर को भाजपा का गुप्तचर बताया और कहा कि दलितों के वोट बांटने के मकसद से ही भाजपा चंद्रशेखर को चुनाव लड़वा रही है. मायावती ने यह भी आरोप लगाया है कि भीम आर्मी को भाजपा ने ही बनवाया है. मायावती का आरोप है कि भाजपा ने गुप्तचरी करने के लिए पहले चन्द्रशेखर को बसपा में भेजने की कोशिश की.

चंद्रशेखर को लेकर मायावती का ऐसा बयान पहली बार नहीं आया है. इससे पहले भी उन्होंने चंद्रशेखर से किसी भी तरह का राजनीतिक रिश्ता रखने से इनकार किया था. तो क्या बुरे दौर से गुजर रही मायावती और बसपा को सियासी संजीवनी की जरूरत नहीं थी? क्या बसपा को नेमतों की तरह मिल रहा चंद्रशेखर जैसा ऊर्जावान नेता नहीं चाहिए? क्या मायावती कांशीराम से विरासत में मिली अपनी राजनीति का खजाना भी बाकी वंशवादियों की तरह अपने परिवार को ही सौंपना चाहती हैं या उन्हें चंद्रशेखर में अपने वारिस की बजाए प्रतिद्वंद्वी और खतरा नजर आऩे लगा है.

सी वोटर में इलेक्शन और मीडिया रिसर्च के सीनियर फैलो और राजनीतिक टिप्पणीकार देवेंद्र शुक्ला इस घटना को ऐसे समझाते हैं, "उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी लगभग 21% से 23% है. दलितों का यह समाज दो हिस्सों में बंटा है. एक, जाटव जिनकी आबादी करीब 14% है और जो मायावती की बिरादरी हैं. चंद्रशेखर भी जाटव हैं. तो मायावती का डरना लाजिमी है. मंडल आंदोलन में दलितों के जाटव वोट वाले हिस्से की राजनीति से बसपा मजबूत बन. ठीक वैसे ही जैसे ओबीसी में यादवों के समर्थन से सपा. मंडल आंदोलन तक दलित, ओबीसी और मुस्लिम कांग्रेस के वोट थे. पर यह इन दोनों पार्टियों में बंट गए. गैर-जाटव वोटों की आबादी करीबन 8% है. इनमें 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं और यह वोट विभाजित होता है."

यह विभाजित वोट ही कभी भाजपा को तो कभी कांग्रेस को मजबूती देता है. तो फिर मायावती ने बसपा के कार्यकर्ताओं को चंद्रशेखर से बचकर रहने की सलाह क्यों दी थी? पिछले तीन चुनावों में हार का मुंह देख रही और लगातार वोट शेयर और आधार में छीजन से मायावती पार पाने के लिए चिर शत्रु पार्टी समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाने को तो तैयार हैं पर चंद्रशेखर जैसे नेताओं से दूरी क्यों बनाए रख रही हैं?

शुक्ला याद दिलाते हैं, "इस बार चंद्रशेखर को जेल से बाहर भाजपा लाई लेकिन उसे कांग्रेस ले उड़ी. मायावती के मुकाबले भाजपा मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. जाटव वोटों में विभाजन रोकने के लिए मायावती ने चंद्रशेखर को भाजपा का एजेंट बताया. क्योंकि अगर वह उन्हें कांग्रेस का एजेंट बताती तो इससे दलित कांग्रेस के पक्ष में एकजुट ही होते. दलित कांग्रेस के खिलाफ नहीं रहे कभी."

तो क्या क्या चंद्रशेखर से दूरी बनाए रखने में मायावती का अतीत आड़े आ रहा है? कांशीराम के बाद बसपा पर नियंत्रण के लिए मायावती को बहुत कुछ करना पड़ा था. क्यों मायावती ने बसपा में दूसरी पांत का कोई नेता नही तैयार होने दिया? क्यों जिस भी नेता का कद बड़ा होता गया, वह बसपा में टिक नहीं पाया?

क्या वजह रही है कि बसपा से बीसेक बड़े नेता बाहर किए जा चुके हैं? मायावती किससे हमेशा आशंकित रहती हैं? जवाब एक ही हैः असुरक्षा. मायावती की बसपा में कोई नंबर दो नहीं है. नेतृत्व की दूसरी पांत नहीं है. मायावती अगर कांग्रेस से दूरी बनाकर चल रही हैं तो उसके पीछे भी यही सोच है कि कोई उनके दलित वोट बैंक में सेंध न लगा ले जो 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के सिफर रहने पर भी करीबन 19 फीसदी तक साबुत था. यह काम कांग्रेस कर सकती है. खासकर, प्रियंका गांधी वाड्रा के चुनावी मैदान में खुलकर आ जाने के बाद से मायावती ने कांग्रेस पर हमले तेज कर दिए हैं क्योंकि मायावती के दलित वोट बैंक में सपा सेंध नहीं लगा सकती. पर कांग्रेस की तरफ से ऐसी आशंका उन्हें हमेशा सालती रहती है. इसके साथ ही उन्हें यही डर भाजपा से भी लगा रहता है. 2017 के विधानसभा चुनावों में दलित वोट भाजपा की तरफ भी मुड़ा था और 2014 में भी उत्तर प्रदेश में यह हुआ था.

तो क्या यही वजह है कि सपा के अखिलेश यादव की इच्छा के बावजूद मायावती उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने में अनिच्छुक रही हैं. गरीबों के लिए न्यूनतम आय योजना पर भी मायावती ट्वीट के जरिए हमले कर रही हैं. मायावती ने रुपए देकर गरीबी दूर करने के कांग्रेस के दावे पर भी सवाल उठाए हैं.

असल में सपा-बसपा गठजोड़ के पीछे सेफोलॉजी का एक सिद्धांत काम कर रहा है जिसे इंडेक्स ऑफ अपोजिशन यूनिटी (विपक्षी दलों में एकता/बिखराव का सूचकांक) कहा जाता है. विपक्षी दलों का जितना अधिक बिखराव होगा उतना आइओयू उतना ही कम होगा. यानी किसी सीट पर त्रिकोणीय संघर्ष हो तो विजेता दल को एक तिहाई वोट ही चाहिए होंगे. पर कांग्रेस के आने से गणित खराब हो गया है और मायावती को आशंका है कि उसके वोट बैंक पर कांग्रेस न दावा ठोंक दे.

शुक्ला कहते हैं, भाजपा को घेरने से क्या होगा? चंद्रशेखर के बहाने भले ही निशाना भाजपा पर हो पर आखिरी फायदा भाजपा को होगा और नुक्सान बसपा को. वह आगे समझाते हैं, "सवर्ण आधार वाली भाजपा को घेरने से 17 अनुसूचित जातियों वाली आरक्षित सीटों पर दलित और मुस्लिम वोटों को एकजुट किया जा सकेगा. लेकिन इससे सामान्य सीटों पर सवर्ण वोट खिसक जाएगा. अगर ध्रुवीकरण हुआ तो बसपा को सबसे अधिक नुकसान होगा"

वह साथ में जोड़ते हैं, बसपा सभी आरक्षित सीटों पर चुनाव नहीं जीतती है. उसे हमेशा ऐसी सीटों पर जीत मिली है जहां दलित आबादी अधिक हो पर वह सीट आरक्षित न हो. वहां दलित आबादी उमड़कर बसपा को वोट करती है.

जानकारों की माने, तो बसपा सुप्रीमो का यह रवैया आखिरकार भाजपा की उम्मीदों को परवान देगा और नफा भाजपा को ही मिलेगा.

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Thursday, May 2, 2019

मोदी के बायोपिक पर बैन और अक्षय के साथ साक्षात्कार

अब इस बात में बहुत संदेह नहीं हो सकता कि इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी हमारी सबसे ताकतवर राजनैतिक शख्सियत हैं. थोड़ा और गहराई में जाएं तो यह कह सकते हैं कि वे अब तक के सबसे दबंग और आवेगपूर्ण नेता हैं. मारग्रेट थैचर के संदर्भ में आवेगपूर्ण नेता की परिभाषा एक ऐसे नेता की थी जो अपनी ही धारणा से चलता है और आम राय से जिसे कोई लेना-देना नहीं होता. इसके अलावा, मोदी हमारे सबसे अच्छे वक्ता भी हैं. आप पिछले पांच साल में संसद में उनके भाषणों में हाव-भाव और इशारों को लेकर या सवालों के जवाब सीधे न देने को लेकर बेशक शिकायत कर सकते हैं, लेकिन एक ऐसे वातावरण में वे बेहद वाचाल हो जाते हैं जो उनके पूरे नियंत्रण में हो. एक बार जब वे अपने श्रोता चुन लेते हैं तो अपने भाषण से ऐसा समां बांधते हैं कि हमने आज तक इस देश में नहीं देखा. वाजपेयी महान वक्ता थे, लेकिन वे हमेशा ऐसे नहीं होते थे. उन्होंने कभी भी अपने विचारों या फिर विचारधारा का प्रचार करने के लिए किसी बड़े मंच का इस्तेमाल नहीं किया.

पिछले पांच साल में हम बारंबार मोदी के इन गुणों से हम वाबस्ता हुए हैं. और, अक्षय कुमार के साथ मोदी के गैर-राजनीतिक और पारिवारिक किस्म के इंटरव्यू की आप चाहे जितनी छीछालेदर कर दें, आम की गुठलियों वाले सवाल पर विमर्श का पोटला खोल दें. पर सच यही है कि मोदी बुधवार को दिन पर स्क्रीन पर छाए रहे. गुरुवार को वाराणसी में रोड शो में उनका स्क्रीन पर छाया रहना तय था और शुक्रवार को वो नामांकन का परचा दाखिल करेंगे. 27 अप्रैल के शाम 5 बजे प्रचार बंद हो जाएगा, तो गौर करिए कि आखिर चर्चा में कौन रहा? चुनाव के इस गलाकाट दौर में मीडिया में स्क्रीन पर कब्जा कर लेना कितना अहम है?

आपको नहीं लगता कि मोदी की बायोपिक को चुनाव आयोग किसी संत के जीवन पर बनाई गई फिल्म करार दे, और फिल्म में मोदी को पूजनीय दिखाया गया है. ठीक है, यह आचार संहिता के दायरे में आता है. पर राहुल गांधी या सोनिया या शरद पवार की जीवन वृत्त पर कोई फिल्म बने तो उसमें क्या उनकी आलोचना होगी? बाल ठाकरे पर बनी फिल्म याद करिए, उनके विचारों को क्या उसमें जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं की गई है? मुक्केबाज मेरी कॉम हो या पान सिंह तोमर जैसा डकैत, उनके जीवन को क्या फिल्मों ने ग्लोरीफाइ करने की कोशिश नहीं की है?

कांग्रेस को फिल्म का जवाब फिल्म से देना चाहिए था. बहरहाल, बायोपिक पर रोक मोदी को रोक नहीं पाई और अक्षय कुमार के साथ साक्षात्कार एक तरह से सवा घंटे का मोदी का बायोपिक ही तो था.

क्या वह इंटरव्यू देखकर आपको नहीं लगा कि लंबी दूरी तय करने वाला कोई चालक अपनी गाड़ी को संभालने की कोशिश कर रहा हो. इसमें कोई नया नुस्खा नहीं उछाला गया है. मोदी के चुनावी रैलियों पर ध्यान दें. अब वे पुराने नुस्खों, खासकर शौचालय, स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया के मामले में कुछ खास नहीं कहते. क्योंकि वह जानते हैं वोट इनसे नहीं मिलते. मोदी भारतीयों की नब्ज जानते हैं कि लोग आवेगों पर वोट करते हैं. ताकतवर नेता घटनाओं के आधार पर अपनी नीतियां तय नहीं करते और आवेगपूर्ण नेता दूसरों की उम्मीदों के हिसाब से नहीं चलते. इसकी बजाए, वे आपको चौंकाते हैं.

ताकतवर और आवेगपूर्ण नेता दूसरों को अपना मंच छीनने का मौका नहीं देते. अगर मोदी को दूसरे नेताओं का मंच छीनना था, तो बुधवार की सुबह साक्षात्कार रिलीज करवाकर उन्होंने वाकई मंच छीन ही लिया.

तृणमूल के नारों में मां के लिए 'ममता' नहीं

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सत्ता तक के अपने सफर में मां, माटी और मानुष का नारा दिया था. माटी और मानुष को छोड़ दीजिए, आज सिर्फ मां की बात करें. नीले किनारों वाली सफेद साड़ी में ममता वात्सल्य और दया की मूर्ति मदर टेरेसा जैसी दिखती हैं. पर आंकड़े यही बताते हैं कि विधि-व्यवस्था पर ममता की पकड़ बदतर है. खासकर, महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले मे बंगाल शर्मनाक रूप से टॉप पर है.

चुनाव में नारे चलते हैं, तथ्य पीछे रह जाते हैं. क्या ऐसे आरोप सिर्फ खास पार्टियों के नेताओं पर ही लगते हैं? नहीं. ममता बनर्जी इसकी एक खास और विशिष्ट किस्म की मिसाल हैं.

पश्चिम बंगाल में 2011 से 2014 के बीच क्या बदला? राइटर्स बिल्डिंग का रंग बदला, लाल रंग नीले और सफेद में बदल गया. बदला तो 2016 तक भी नहीं. कुर्सी माकपा की बजाए तृणमूल कांग्रेस को मिल गई. बंगाल नहीं बदला.

बंगाल सिर्फ कोलकाता नहीं है. कोलकाता से बाहर बांकुड़ा भी है. वीरभूम भी. वीरभूम में शांति निकेतन भी है और सुबलपुर भी. शांति निकेतन से सुबलपुर ज्यादा दूर नहीं है. मुख्य सड़क से बाईं तरफ मुड़ने पर एक नहर के किनारे-किनारे जंगल में दाहिनी ओर एक गांव है. वहां अब भी कुछ नहीं बदला बजाए इसके कि गांव में अब मीडिया वाले नहीं पहुंच रहे हैं. वहां कोई 2014 के जनवरी महीने में हुई घटना के बारे में बात नहीं करना चाहता. जो भी बात करता है फुसफुसाकर बात करता है. आखिर लव जिहाद जैसा मसला फुसफुसाकर बात करने वाली चीज ही तो है. बंगाल तो पढ़े-लिखे लोगों का सूबा है. लव जिहाद यूपी वालों की विरासत है. पर, सचाई है कि घटना हुई और बड़े घिनौने तरीके से हुई.

एक जनजातीय लड़की को समुदाय के बाहर के लड़के से प्यार हो गया. नतीजतन, सालिशी सभा बुलाई गई. सालिशी सभा यानी जनजातीय पंचायत, जिसे सुविधा के लिए आप इलाके की खाप पंचायत मान सकते हैं. यह खाप की तरह ताकतवर भी है. बंगाल जैसे राज्य में खाप? पर सच यही है. बहरहाल, प्रेम करने के एवज में उस आदिवासी लड़की पर पचास हजार रू. का जुर्माना ठोंक दिया गया. लड़की गरीब थी, जुर्माना नहीं दे सकी तो सालिशी सभा के मुखिया के आदेश पर, बारह लोगों ने उस लड़की के साथ बलात्कार किया. बलात्कार करने वालों में मुखिया महोदय भी थे.

यह बात मीडिया की नजरों में आई और हंगामा हुआ तो बाद में वे लोग गिरफ्तार हुए. यह घटना पश्चिम बंगाल में तब हुई थी जब मुख्यमंत्री पद पर एक महिला थीं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सत्ता तक के अपने सफर में मां, माटी और मानुष का नारा दिया था. माटी और मानुष को छोड़ दीजिए, आज सिर्फ मां की बात करें.



नीले किनारों वाली सफेद साड़ी में ममता वात्सल्य और दया की मूर्ति मदर टेरेसा जैसी दिखती हैं. लोग कहते हैं वह बड़ी कड़क हैं. होंगी. पर आंकड़े यही बताते हैं कि विधि-व्यवस्था पर ममता की पकड़ बदतर है.

सालिशी सभा वाला सुबलपुर कांड सिर्फ एक मिसाल है. उसी दौर में कई ऐसी घटनाएं हुईं जिनके लिए ममता बनर्जी को एक मुख्यमंत्री के तौर पर शर्मसार होना चाहिए था.

जरा गिनिएगा, फरवरी 2012 में कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में रेप कांड हुआ, ममता ने इस बलात्कार को झूठा बताया, वर्धमान के कटवा में रेप कांड हुआ जिसमें महिला का उसकी बेटी के सामने बलात्कार किया गया, मुख्यमंत्री ममता ने कहाः यह झूठी साजिश है. पीड़िता माकपा की सदस्या है. दिसंबर 2012 में उत्तरी 24 परगना में बारासात में सामूहिक बलात्कार हुआ, असली बलात्कारी की बजाए पुलिस ने ईंट भट्ठे के मजदूर को गिरफ्तार कर लिया. जुलाई, 2013 मुर्शिदाबाद के रानी नगर में शारीरिक रूप से अशक्त लड़की का रेप, आरोपी था तृणमूल का नेता-पुत्र. अक्तूबर, 2013 में उत्तरी 24 परगना में मध्यमग्राम में एक नाबालिग के साथ सामूहिक बलात्कार, लड़की का परिवार डर कर मकान बदल लेता है, अपराधी वहां भी उसका पीछा करते हैं. जनवरी, 2014 में दक्षिणी कोलकाता के फिटनेस सेंटर की कर्मचारी को ट्रक में अगवा कर लिया जाता है और 5 लोग उसके साथ रेप करते हैं. जून 2014 में कामदुनी में कॉलेज छात्रा का रेप कर उसकी हत्या कर दी जाती है. मुखालफत पर उतरी महिलाओं को ममता बनर्जी माओवादी बता देती हैं.

यह उन बलात्कारों की सूची है जो मीडिया की नजर में आए, और मीडिया के जरिए लोगों की निगाह-ज़बान पर चढे. पर 2014 के आंकड़े 2015 और 2016 में और भयावह होते जाते हैं. नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के साल 2016 के आंकड़े पश्चिम बंगाल में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों की तरफ इशारा करते हैं. इन अपराधों में महिला तस्करी से जुड़े बढ़ते मामलों की फेहरिस्त भी है और यह खतरनाक ट्रेंड है.

जानकार कहते हैं कि पश्चिम बंगाली की राजनीति में तेज़ाबी बयानबाजियां होती हैं. पर वहां तेजाबी हमले भी महिलाओं के खिलाफ उतने ही कारगर ढंग से इस्तेमाल में लाए जाते हैं. 2016 में, एनसीआरबी कहता है. देश भर के कुल एसिड अटैक के 283 में से 76 सिर्फ बंगाल में हुए. यानी 26 फीसदी. महिलाओं के खिलाफ क्रूरता के देश भर में 1,10,434 मामले दर्ज किए गए हैं और उनमें से 19,305 मामले यानी करीब 17 फीसदी सिर्फ बंगाल में हुए हैं.

मानव तस्करी में भी बंगाल पीछे नहीं है और देश भर में मानव तस्करी का 44 फीसदी मामले बंगाल से ही हुए हैं. 2016 में देश भर में कुल 8,132 केस दर्ज किए गए और बंगाल में यह 3,579 केस थे.

महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बंगाल ने हमेशा अपनी शर्मनाक ऊंची पायदान बरकरार रखी है. साल 2016 में, 32,513 मामलों के साथ महिलाओं के खिलाफ अपराधों की ऊंची संख्या के साथ बंगाल में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का करीब 10 फीसदी (9.6 फीसदी) हिस्सा होता है. हालांकि तर्क यह होगा कि इस पायदान पर भाजपा शासित उत्तर प्रदेश पहले पायदान पर है और पश्चिम बंगाल दूसरे पायदान पर, लेकिन बंगाल में देश की कुल महिला आबादी का महज 7.5 फीसदी ही है, जबकि यूपी में देश की 17 फीसदी महिलाएं ही रहती हैं.

बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के ऊंची दर के बावजूद प्रशासन ने इसे लेकर कुछ खास किया नहीं है. खतरनाक बात यह है कि पश्चिम बंगाल में न तो राज्य सरकार को इसकी परवाह है और न ही तृणमूल कांग्रेस को चुनौती दे रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए कोई चुनावी मुद्दा.

राज्य में पश्चिम बंगाल महिला आय़ोग और पश्चिम बंगाल बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी इस दिशा में कुछ ठोस करने की पहल नहीं की है.

भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में सजा देने की दर 18.9 फीसदी है, पर हैरतअंगेज तरीके से पश्चिम बंगाल में यह महज 3.3 फीसदी ही है.

पर हैरत यह है कि, जैसा मैंने शुरू में कहा, सियासत में नारे आगे चलते हैं तथ्य पीछे छूटते जाते हैं. भावनाएं भारी होती हैं और असलियत को दरकिनार कर दिया जाता है. बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अपराध पर मैंने शांति निकेतन की एक प्राध्यापिका और कोलकाता में एक महिला पत्रकार से टिप्पणी चाही, तो दोनों ने एक ही जवाब के साथ बंगाल का बचाव कियाः आखिर अपराध किस सूबे में नहीं होते?

मैंने कहा था न, सियासत में नारे तथ्यों पर भारी हों तो वैचारिकता की टेक लिए लोग उसकी हिमायत में आएंगे ही, बचाव में भी.

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