युवा दलित नेता चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण चाहे मायावती का विरोध करते नहीं दिखते हैं पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती शायद उनकी मौजूदगी से खतरा महसूस कर रही हैं. मायावती ने सीधे-सीधे भीम आर्मी के अगुआ चंद्रशेखर को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का गुप्तचर घोषित कर दिया है. भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर के बनारस से चुनाव लड़ने की घोषणा पर मायावती ने भाजपा को निशाने पर लिया और कहा कि," दलितों का वोट बांटकर भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए ही भाजपा भीम आर्मी के चन्द्रशेखर को वाराणसी लोकसभा सीट से चुनाव लड़वा रही है ". मायावती ने अपने हमले में चंद्रशेखर को भाजपा का गुप्तचर बताया और कहा कि दलितों के वोट बांटने के मकसद से ही भाजपा चंद्रशेखर को चुनाव लड़वा रही है. मायावती ने यह भी आरोप लगाया है कि भीम आर्मी को भाजपा ने ही बनवाया है. मायावती का आरोप है कि भाजपा ने गुप्तचरी करने के लिए पहले चन्द्रशेखर को बसपा में भेजने की कोशिश की.
चंद्रशेखर को लेकर मायावती का ऐसा बयान पहली बार नहीं आया है. इससे पहले भी उन्होंने चंद्रशेखर से किसी भी तरह का राजनीतिक रिश्ता रखने से इनकार किया था. तो क्या बुरे दौर से गुजर रही मायावती और बसपा को सियासी संजीवनी की जरूरत नहीं थी? क्या बसपा को नेमतों की तरह मिल रहा चंद्रशेखर जैसा ऊर्जावान नेता नहीं चाहिए? क्या मायावती कांशीराम से विरासत में मिली अपनी राजनीति का खजाना भी बाकी वंशवादियों की तरह अपने परिवार को ही सौंपना चाहती हैं या उन्हें चंद्रशेखर में अपने वारिस की बजाए प्रतिद्वंद्वी और खतरा नजर आऩे लगा है.
सी वोटर में इलेक्शन और मीडिया रिसर्च के सीनियर फैलो और राजनीतिक टिप्पणीकार देवेंद्र शुक्ला इस घटना को ऐसे समझाते हैं, "उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी लगभग 21% से 23% है. दलितों का यह समाज दो हिस्सों में बंटा है. एक, जाटव जिनकी आबादी करीब 14% है और जो मायावती की बिरादरी हैं. चंद्रशेखर भी जाटव हैं. तो मायावती का डरना लाजिमी है. मंडल आंदोलन में दलितों के जाटव वोट वाले हिस्से की राजनीति से बसपा मजबूत बन. ठीक वैसे ही जैसे ओबीसी में यादवों के समर्थन से सपा. मंडल आंदोलन तक दलित, ओबीसी और मुस्लिम कांग्रेस के वोट थे. पर यह इन दोनों पार्टियों में बंट गए. गैर-जाटव वोटों की आबादी करीबन 8% है. इनमें 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं और यह वोट विभाजित होता है."
यह विभाजित वोट ही कभी भाजपा को तो कभी कांग्रेस को मजबूती देता है. तो फिर मायावती ने बसपा के कार्यकर्ताओं को चंद्रशेखर से बचकर रहने की सलाह क्यों दी थी? पिछले तीन चुनावों में हार का मुंह देख रही और लगातार वोट शेयर और आधार में छीजन से मायावती पार पाने के लिए चिर शत्रु पार्टी समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाने को तो तैयार हैं पर चंद्रशेखर जैसे नेताओं से दूरी क्यों बनाए रख रही हैं?
शुक्ला याद दिलाते हैं, "इस बार चंद्रशेखर को जेल से बाहर भाजपा लाई लेकिन उसे कांग्रेस ले उड़ी. मायावती के मुकाबले भाजपा मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. जाटव वोटों में विभाजन रोकने के लिए मायावती ने चंद्रशेखर को भाजपा का एजेंट बताया. क्योंकि अगर वह उन्हें कांग्रेस का एजेंट बताती तो इससे दलित कांग्रेस के पक्ष में एकजुट ही होते. दलित कांग्रेस के खिलाफ नहीं रहे कभी."
तो क्या क्या चंद्रशेखर से दूरी बनाए रखने में मायावती का अतीत आड़े आ रहा है? कांशीराम के बाद बसपा पर नियंत्रण के लिए मायावती को बहुत कुछ करना पड़ा था. क्यों मायावती ने बसपा में दूसरी पांत का कोई नेता नही तैयार होने दिया? क्यों जिस भी नेता का कद बड़ा होता गया, वह बसपा में टिक नहीं पाया?
क्या वजह रही है कि बसपा से बीसेक बड़े नेता बाहर किए जा चुके हैं? मायावती किससे हमेशा आशंकित रहती हैं? जवाब एक ही हैः असुरक्षा. मायावती की बसपा में कोई नंबर दो नहीं है. नेतृत्व की दूसरी पांत नहीं है. मायावती अगर कांग्रेस से दूरी बनाकर चल रही हैं तो उसके पीछे भी यही सोच है कि कोई उनके दलित वोट बैंक में सेंध न लगा ले जो 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के सिफर रहने पर भी करीबन 19 फीसदी तक साबुत था. यह काम कांग्रेस कर सकती है. खासकर, प्रियंका गांधी वाड्रा के चुनावी मैदान में खुलकर आ जाने के बाद से मायावती ने कांग्रेस पर हमले तेज कर दिए हैं क्योंकि मायावती के दलित वोट बैंक में सपा सेंध नहीं लगा सकती. पर कांग्रेस की तरफ से ऐसी आशंका उन्हें हमेशा सालती रहती है. इसके साथ ही उन्हें यही डर भाजपा से भी लगा रहता है. 2017 के विधानसभा चुनावों में दलित वोट भाजपा की तरफ भी मुड़ा था और 2014 में भी उत्तर प्रदेश में यह हुआ था.
तो क्या यही वजह है कि सपा के अखिलेश यादव की इच्छा के बावजूद मायावती उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने में अनिच्छुक रही हैं. गरीबों के लिए न्यूनतम आय योजना पर भी मायावती ट्वीट के जरिए हमले कर रही हैं. मायावती ने रुपए देकर गरीबी दूर करने के कांग्रेस के दावे पर भी सवाल उठाए हैं.
असल में सपा-बसपा गठजोड़ के पीछे सेफोलॉजी का एक सिद्धांत काम कर रहा है जिसे इंडेक्स ऑफ अपोजिशन यूनिटी (विपक्षी दलों में एकता/बिखराव का सूचकांक) कहा जाता है. विपक्षी दलों का जितना अधिक बिखराव होगा उतना आइओयू उतना ही कम होगा. यानी किसी सीट पर त्रिकोणीय संघर्ष हो तो विजेता दल को एक तिहाई वोट ही चाहिए होंगे. पर कांग्रेस के आने से गणित खराब हो गया है और मायावती को आशंका है कि उसके वोट बैंक पर कांग्रेस न दावा ठोंक दे.
शुक्ला कहते हैं, भाजपा को घेरने से क्या होगा? चंद्रशेखर के बहाने भले ही निशाना भाजपा पर हो पर आखिरी फायदा भाजपा को होगा और नुक्सान बसपा को. वह आगे समझाते हैं, "सवर्ण आधार वाली भाजपा को घेरने से 17 अनुसूचित जातियों वाली आरक्षित सीटों पर दलित और मुस्लिम वोटों को एकजुट किया जा सकेगा. लेकिन इससे सामान्य सीटों पर सवर्ण वोट खिसक जाएगा. अगर ध्रुवीकरण हुआ तो बसपा को सबसे अधिक नुकसान होगा"
वह साथ में जोड़ते हैं, बसपा सभी आरक्षित सीटों पर चुनाव नहीं जीतती है. उसे हमेशा ऐसी सीटों पर जीत मिली है जहां दलित आबादी अधिक हो पर वह सीट आरक्षित न हो. वहां दलित आबादी उमड़कर बसपा को वोट करती है.
जानकारों की माने, तो बसपा सुप्रीमो का यह रवैया आखिरकार भाजपा की उम्मीदों को परवान देगा और नफा भाजपा को ही मिलेगा.
चंद्रशेखर को लेकर मायावती का ऐसा बयान पहली बार नहीं आया है. इससे पहले भी उन्होंने चंद्रशेखर से किसी भी तरह का राजनीतिक रिश्ता रखने से इनकार किया था. तो क्या बुरे दौर से गुजर रही मायावती और बसपा को सियासी संजीवनी की जरूरत नहीं थी? क्या बसपा को नेमतों की तरह मिल रहा चंद्रशेखर जैसा ऊर्जावान नेता नहीं चाहिए? क्या मायावती कांशीराम से विरासत में मिली अपनी राजनीति का खजाना भी बाकी वंशवादियों की तरह अपने परिवार को ही सौंपना चाहती हैं या उन्हें चंद्रशेखर में अपने वारिस की बजाए प्रतिद्वंद्वी और खतरा नजर आऩे लगा है.
सी वोटर में इलेक्शन और मीडिया रिसर्च के सीनियर फैलो और राजनीतिक टिप्पणीकार देवेंद्र शुक्ला इस घटना को ऐसे समझाते हैं, "उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी लगभग 21% से 23% है. दलितों का यह समाज दो हिस्सों में बंटा है. एक, जाटव जिनकी आबादी करीब 14% है और जो मायावती की बिरादरी हैं. चंद्रशेखर भी जाटव हैं. तो मायावती का डरना लाजिमी है. मंडल आंदोलन में दलितों के जाटव वोट वाले हिस्से की राजनीति से बसपा मजबूत बन. ठीक वैसे ही जैसे ओबीसी में यादवों के समर्थन से सपा. मंडल आंदोलन तक दलित, ओबीसी और मुस्लिम कांग्रेस के वोट थे. पर यह इन दोनों पार्टियों में बंट गए. गैर-जाटव वोटों की आबादी करीबन 8% है. इनमें 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं और यह वोट विभाजित होता है."
यह विभाजित वोट ही कभी भाजपा को तो कभी कांग्रेस को मजबूती देता है. तो फिर मायावती ने बसपा के कार्यकर्ताओं को चंद्रशेखर से बचकर रहने की सलाह क्यों दी थी? पिछले तीन चुनावों में हार का मुंह देख रही और लगातार वोट शेयर और आधार में छीजन से मायावती पार पाने के लिए चिर शत्रु पार्टी समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाने को तो तैयार हैं पर चंद्रशेखर जैसे नेताओं से दूरी क्यों बनाए रख रही हैं?
शुक्ला याद दिलाते हैं, "इस बार चंद्रशेखर को जेल से बाहर भाजपा लाई लेकिन उसे कांग्रेस ले उड़ी. मायावती के मुकाबले भाजपा मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. जाटव वोटों में विभाजन रोकने के लिए मायावती ने चंद्रशेखर को भाजपा का एजेंट बताया. क्योंकि अगर वह उन्हें कांग्रेस का एजेंट बताती तो इससे दलित कांग्रेस के पक्ष में एकजुट ही होते. दलित कांग्रेस के खिलाफ नहीं रहे कभी."
तो क्या क्या चंद्रशेखर से दूरी बनाए रखने में मायावती का अतीत आड़े आ रहा है? कांशीराम के बाद बसपा पर नियंत्रण के लिए मायावती को बहुत कुछ करना पड़ा था. क्यों मायावती ने बसपा में दूसरी पांत का कोई नेता नही तैयार होने दिया? क्यों जिस भी नेता का कद बड़ा होता गया, वह बसपा में टिक नहीं पाया?
क्या वजह रही है कि बसपा से बीसेक बड़े नेता बाहर किए जा चुके हैं? मायावती किससे हमेशा आशंकित रहती हैं? जवाब एक ही हैः असुरक्षा. मायावती की बसपा में कोई नंबर दो नहीं है. नेतृत्व की दूसरी पांत नहीं है. मायावती अगर कांग्रेस से दूरी बनाकर चल रही हैं तो उसके पीछे भी यही सोच है कि कोई उनके दलित वोट बैंक में सेंध न लगा ले जो 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के सिफर रहने पर भी करीबन 19 फीसदी तक साबुत था. यह काम कांग्रेस कर सकती है. खासकर, प्रियंका गांधी वाड्रा के चुनावी मैदान में खुलकर आ जाने के बाद से मायावती ने कांग्रेस पर हमले तेज कर दिए हैं क्योंकि मायावती के दलित वोट बैंक में सपा सेंध नहीं लगा सकती. पर कांग्रेस की तरफ से ऐसी आशंका उन्हें हमेशा सालती रहती है. इसके साथ ही उन्हें यही डर भाजपा से भी लगा रहता है. 2017 के विधानसभा चुनावों में दलित वोट भाजपा की तरफ भी मुड़ा था और 2014 में भी उत्तर प्रदेश में यह हुआ था.
तो क्या यही वजह है कि सपा के अखिलेश यादव की इच्छा के बावजूद मायावती उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने में अनिच्छुक रही हैं. गरीबों के लिए न्यूनतम आय योजना पर भी मायावती ट्वीट के जरिए हमले कर रही हैं. मायावती ने रुपए देकर गरीबी दूर करने के कांग्रेस के दावे पर भी सवाल उठाए हैं.
असल में सपा-बसपा गठजोड़ के पीछे सेफोलॉजी का एक सिद्धांत काम कर रहा है जिसे इंडेक्स ऑफ अपोजिशन यूनिटी (विपक्षी दलों में एकता/बिखराव का सूचकांक) कहा जाता है. विपक्षी दलों का जितना अधिक बिखराव होगा उतना आइओयू उतना ही कम होगा. यानी किसी सीट पर त्रिकोणीय संघर्ष हो तो विजेता दल को एक तिहाई वोट ही चाहिए होंगे. पर कांग्रेस के आने से गणित खराब हो गया है और मायावती को आशंका है कि उसके वोट बैंक पर कांग्रेस न दावा ठोंक दे.
शुक्ला कहते हैं, भाजपा को घेरने से क्या होगा? चंद्रशेखर के बहाने भले ही निशाना भाजपा पर हो पर आखिरी फायदा भाजपा को होगा और नुक्सान बसपा को. वह आगे समझाते हैं, "सवर्ण आधार वाली भाजपा को घेरने से 17 अनुसूचित जातियों वाली आरक्षित सीटों पर दलित और मुस्लिम वोटों को एकजुट किया जा सकेगा. लेकिन इससे सामान्य सीटों पर सवर्ण वोट खिसक जाएगा. अगर ध्रुवीकरण हुआ तो बसपा को सबसे अधिक नुकसान होगा"
वह साथ में जोड़ते हैं, बसपा सभी आरक्षित सीटों पर चुनाव नहीं जीतती है. उसे हमेशा ऐसी सीटों पर जीत मिली है जहां दलित आबादी अधिक हो पर वह सीट आरक्षित न हो. वहां दलित आबादी उमड़कर बसपा को वोट करती है.
जानकारों की माने, तो बसपा सुप्रीमो का यह रवैया आखिरकार भाजपा की उम्मीदों को परवान देगा और नफा भाजपा को ही मिलेगा.
***
No comments:
Post a Comment