Thursday, May 2, 2019

मोदी के बायोपिक पर बैन और अक्षय के साथ साक्षात्कार

अब इस बात में बहुत संदेह नहीं हो सकता कि इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी हमारी सबसे ताकतवर राजनैतिक शख्सियत हैं. थोड़ा और गहराई में जाएं तो यह कह सकते हैं कि वे अब तक के सबसे दबंग और आवेगपूर्ण नेता हैं. मारग्रेट थैचर के संदर्भ में आवेगपूर्ण नेता की परिभाषा एक ऐसे नेता की थी जो अपनी ही धारणा से चलता है और आम राय से जिसे कोई लेना-देना नहीं होता. इसके अलावा, मोदी हमारे सबसे अच्छे वक्ता भी हैं. आप पिछले पांच साल में संसद में उनके भाषणों में हाव-भाव और इशारों को लेकर या सवालों के जवाब सीधे न देने को लेकर बेशक शिकायत कर सकते हैं, लेकिन एक ऐसे वातावरण में वे बेहद वाचाल हो जाते हैं जो उनके पूरे नियंत्रण में हो. एक बार जब वे अपने श्रोता चुन लेते हैं तो अपने भाषण से ऐसा समां बांधते हैं कि हमने आज तक इस देश में नहीं देखा. वाजपेयी महान वक्ता थे, लेकिन वे हमेशा ऐसे नहीं होते थे. उन्होंने कभी भी अपने विचारों या फिर विचारधारा का प्रचार करने के लिए किसी बड़े मंच का इस्तेमाल नहीं किया.

पिछले पांच साल में हम बारंबार मोदी के इन गुणों से हम वाबस्ता हुए हैं. और, अक्षय कुमार के साथ मोदी के गैर-राजनीतिक और पारिवारिक किस्म के इंटरव्यू की आप चाहे जितनी छीछालेदर कर दें, आम की गुठलियों वाले सवाल पर विमर्श का पोटला खोल दें. पर सच यही है कि मोदी बुधवार को दिन पर स्क्रीन पर छाए रहे. गुरुवार को वाराणसी में रोड शो में उनका स्क्रीन पर छाया रहना तय था और शुक्रवार को वो नामांकन का परचा दाखिल करेंगे. 27 अप्रैल के शाम 5 बजे प्रचार बंद हो जाएगा, तो गौर करिए कि आखिर चर्चा में कौन रहा? चुनाव के इस गलाकाट दौर में मीडिया में स्क्रीन पर कब्जा कर लेना कितना अहम है?

आपको नहीं लगता कि मोदी की बायोपिक को चुनाव आयोग किसी संत के जीवन पर बनाई गई फिल्म करार दे, और फिल्म में मोदी को पूजनीय दिखाया गया है. ठीक है, यह आचार संहिता के दायरे में आता है. पर राहुल गांधी या सोनिया या शरद पवार की जीवन वृत्त पर कोई फिल्म बने तो उसमें क्या उनकी आलोचना होगी? बाल ठाकरे पर बनी फिल्म याद करिए, उनके विचारों को क्या उसमें जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं की गई है? मुक्केबाज मेरी कॉम हो या पान सिंह तोमर जैसा डकैत, उनके जीवन को क्या फिल्मों ने ग्लोरीफाइ करने की कोशिश नहीं की है?

कांग्रेस को फिल्म का जवाब फिल्म से देना चाहिए था. बहरहाल, बायोपिक पर रोक मोदी को रोक नहीं पाई और अक्षय कुमार के साथ साक्षात्कार एक तरह से सवा घंटे का मोदी का बायोपिक ही तो था.

क्या वह इंटरव्यू देखकर आपको नहीं लगा कि लंबी दूरी तय करने वाला कोई चालक अपनी गाड़ी को संभालने की कोशिश कर रहा हो. इसमें कोई नया नुस्खा नहीं उछाला गया है. मोदी के चुनावी रैलियों पर ध्यान दें. अब वे पुराने नुस्खों, खासकर शौचालय, स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया के मामले में कुछ खास नहीं कहते. क्योंकि वह जानते हैं वोट इनसे नहीं मिलते. मोदी भारतीयों की नब्ज जानते हैं कि लोग आवेगों पर वोट करते हैं. ताकतवर नेता घटनाओं के आधार पर अपनी नीतियां तय नहीं करते और आवेगपूर्ण नेता दूसरों की उम्मीदों के हिसाब से नहीं चलते. इसकी बजाए, वे आपको चौंकाते हैं.

ताकतवर और आवेगपूर्ण नेता दूसरों को अपना मंच छीनने का मौका नहीं देते. अगर मोदी को दूसरे नेताओं का मंच छीनना था, तो बुधवार की सुबह साक्षात्कार रिलीज करवाकर उन्होंने वाकई मंच छीन ही लिया.

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