गुस्ताख़ को पिछले फुरसत के दिन याद आ रहे हैं। क्यों याद आ रहे हैं॥इसका जवाब भी है कि शनिवार को दफ्तर में सत्रह घंटे तक लगातार काम करने के बाद आराम के दिन याद आने ही थे।
मेरा जो गृहनगर है॥झारखंड का छोटा-सा क़स्बा.. लाल मिट्टी वाला। सुबह उठने के विषाणु (वायरस) मुझमें कभी नहीं थे। बड़े भाई साहब जूता लेकर दचकने उठते थे, तब ही बिस्तर छोड़ता था। आंखे मलता बाहर निकलता तो देखता कि हर घर के मुखिया हाथों में खुरपी लेकर घास खोद रहे हैं, बागीचे में पानी दे रहे हैं, आंगन में झाड़ू दे रहे हैं या यूं ही फुरसतिए कि तरह क्रोटन के पौधों से सूखी पत्तियां ही नोच रहे हैं। अस्तु.. थोडी़ देर बाद उनकी जब ये काम खत्म होता तो किसी एक के घर के बाहर सब जमा होते... कुरसियां डल जातीं।
घर के स्वामी छोटी बिटिया या मेरे जैसे नाकारा बेटे को चाय का आदेश देते। चाय आ जाती। आकाशवाणी पर समाचार सुने जाते। पहले दिल्ली वाले, पटना वाले फिर रांची से मतलब कम-अज-कम दो बुलेटिन तो सुने ही जाते। फिर बीबीसी वाले समाचारों का चर्वण होता। गांव की राजनीति से फिलीस्तीन मसला सब सुलझा लिया जाता। कुछ भाईबंद खेल के जानकार होते। नए लड़के सचिन के क्रिकेटिय टैलेंट की बात होती। कपिल के इनस्विंगर की॥ रवि शास्त्री के धीमे खेलने की.. ऐसी ही बातें। विधायक जी के चावल चुराने से लेकर स्थानीय एमपी साहब पहले कोयले की मालगाडियो से कोयले चुराया करते थे इसका रहस्योद्घाटन भी।
ऐसी ही बातों में चाय का एक और दौर चलता। बातों के अंतहीन सिलसिले... जो तभी टूटता जब गृहस्वामिनी परदे के पीछे से डांटने की-सी मुद्रा में कहती - क्यों जी स्कूल (या दफ्तर जो भी लागू हो) नहीं जाना। फिर जमात धीरे-धीरे बिखरती । अपने-अपने घर में नहाने खाने के बाद एक हाथ से साइकिल और दूसरे से धोती का छोर पकड़ के लोगबाग दफ्तर को निकल लेते।
दप्तर में काम की कमी या काम करने की इच्छा की कमी के मद्देनज़र पहले शान से कुरसी झड़वाई जाती। स्कूल के केस में मास्टर साहब प्रार्थना के बाद या उसेक दौरान ही पहुंचते। मुझे याद है प्रार्थना के दौरान मास्टर साहब लोग आंखे मूंद कर पता नहीं किसके खयालों में खो जाते थे। संभवतः अपने इष्ट के खयाल में। लेकिन लड़के इस अवसर का फायदा उठाते। कुछ तो घर को फूट लेते ॥ बाकी जो फूट नहीं सकते वे आपस में लड़कर,एक दूसरे को गाली देकर या पादकर ही अपनी भड़ास निकालते।
फिर हर दो पीरियड के बाद चाय के दौर होते। शाम के वक्त॥यानी पांच बजे दफ्तर के लोग दो हिस्सों में निकलते।। एक जो सब्जी बाजार होते हुए घर लौटेंगे। और दूसरे जिनकी बीवियां वित्त मंत्री हुआ करतीं। लौंडे खेल के मनौदान की तरफ... बरसात होती तो फुटबॉल खेला जाता, जाडों में क्रिकेट और गरमियो में बेल तोड़कर खाए जाते। जिसके अंदर का गोंद हमारे मुंह पर लगा जाया करता था। गरमियों में आम तौर पर हम पतंगे उड़ाते, गोली खेलते या फिर गिल्ली डंडा खेलते। अब तो मौसम के हिसाब से खेल का चलन खत्म हो गया है और बरसात हो या गरमी क्रिकेट ही खेली जाती है।
वह मैदान लड़कियों के स्कूल का पिछवाड़ा था। और उस दौरान हम प्यार-मुहब्बत के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। जब जान गए तो अपना एक पीरियड गोल कर पहले ही मैदान पहुंच जाते थे। टापने। कईयों को उस दौरान ट्रू-लव (सच्चा प्यार) भी हुआ। हमारा चैहरा ही इतना चूतियाटिक था, कि लड़कियां घास नहीं डालती थी।(राज की बात ये कि आज भी नहीं डालती) फिर दसवीं के इम्तिहान के बाद लड़के छिटक गए। कोई पटना कोई रांची निकल गया। एक दोस्त की प्रेम कहानी बडी़ मार्मिक है। वह दसवीं के बाद लखनऊ चला गया। उसकी प्रेमकथा इतनी मार्मिक है कि दिल पर पत्थर रखकर लिखना पड़ेगा। बड़ा पत्थर चाहिए होगा, खोज रहा हूं मिलते ही फिर बताऊगा। लेकिन अभी तो वो पल याद आ रहे हैं, जब चिंता नाम की चीज़ नहीं थी। एक ही चिंता हुआ करती थी संस्कृत की परीक्षा में पास होने की।
कहानी का इंतजार रहेगा
ReplyDeleteबंधुवर गुस्ताख जी,
ReplyDeleteकुछ कहने की गुस्ताखी चाहूँगा......
पहली बात यह की आपने जो लिखा वह बिल्कुल सही बल्कि यह कहें खासा मजेदार लिखा.
पर खेद है कि कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त हुए जिसे मैं ख़ुद अपने स्तर पर पसंद नहीं करता(किसी और कि बात नही जनता,यह विशुद्ध मेरी राय है.).
पता है कभी दौर था कि डेविड धवन कि टूटी बोलती थी पर आज प्रियदर्शन...
आलोक सिंह "साहिल"
अपने दिन याद आ गये और पता चला पूरे भारत में स्कूल के दिन एक ही से होते हैं। अच्छा है। लगे रहिये। दोस्त की मार्मिक कथा का इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteशुभम।
Ghustakh(ji) maaf!!Aapke blogka link kaheense mila jiska maza utha rahi hun!!
ReplyDeleteKabhi mere blogpebhi aaneki kripa kare!!Ummeed rakhti hun,ke niraash nahi lautenge!!
Shama
चूतियाटिक kya visheshan istimal kiya hai ise shabda ne muje mere college ki yaad dilayee aksar hum chutiya naam se dosto ko sambhodit karte they lekine chutiyatik kuch bhari laga ise nayee shabda k liye dhanyavad aur apki dost k prem katha ka intazar hai
ReplyDeleteलूट लेल राजा...दिल गार्डेन-गार्डेन हो गया। यार तुमने ने तो विजुअलाईज ही कर दिया। क्या प्यारे दिन हुआ करते थे।और हां तुम्हारी भाषा पढ़के इर्ष्या होती है।
ReplyDeletejharkhand me kis jagah ke hain yah bataiye, wo kya hain hum bhi jharkhand ke hi hain,dhanbad ke aur aap?
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