सबसे पहले डिस्क्लेमर... इस कहानी का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है और यह कहानी मेरे दोस्त की आपबीती है। उसके साथ घटी मधुर-तिक्त घटनाओं का मैं राज़दार रहा हूं। हां, सावधानी बरतते हुए मैंने पात्रों के नाम बदल दिए हैं।
ये डिस्केमर देना भी ज़रूरी है, क्योंकि लोगों के सवालात उछलने लगते हैं कि दोस्त का नाम लेकर कहीं खुद की कहानी तो नहीं कह रहे हो? ऐसा करके।
खैर जनाब, उन दिनों जब हम पाजामे का नाड़ा बांधना सीख रहे थे और लड़कियों को महज एक झगड़ने की चीज़ माना करते थे, उन्हीं दिनों हमारे एक दोस्त को एक लड़की भा गई। फिल्मों का असर कह ले या पूर्वजन्म के संबंधों का इस जन्म में फलित होना। बात ये रही कि अमृत को लड़की भा गई। और ऐसी-वैसी नहीं भायी.. दीवानगी की हद तक भा गई।
क्लास में जाता तो होमवर्क करके लाने की बजाय उस लड़की को देखता रहता। अब सुविधा के लिए लड़की का नाम भी कहे देते हैं। नाम था मीरा।
अब जनाब, पूरे स्कूल में ऐसी बात फैलते तो देर लगती नहीं। अमृत शनैः शनैः मीरा का मोहन नाम से मशहूर हो गया। फिर हम लोग तेजी से बढ़ने लगे। दसवीं तक आते-आते लड़की को भी पता हो गया, कि कलाकार-सा दीखने वाला लड़का मुझसे प्यार करता है।
हमारा दोस्त गणित की क़ॉपियों में सुंदर-सुंदर आंखों की तस्वीरें बनाने लग गए। बीजगणित में अंडा पाने वाले छोकरे की हाथ की कलाकारी से हम दांतो तले अंगुलियां दबाते। फिर क्या हुआ कि लड़की ने अपनी बायोलजी की प्रैक्टिकल कॉपी उसे बनाने को दी.. लड़का खुशी से बेतरह नाच उठा। हमें शानदार पार्टी मिली।
अमृत अब उसके घर के नीचे से बहुधा गुजरने लगा। लड़की बालकनी में दिख गई तो स्टेशन रोड पर चाय की दुकान पर एक चाय मुहब्बत के साथ (यानी मलाई मार के) हमारे लिए तय होती थी। और कुछ नहीं, तो अलगनी से सूखते कपड़े ही दिख जाते। अमृत उससे भी खुश हो जाता।
फिर दसवीं के बाद, जब हम साइस पढें या कला या कॉमर्स। या साइंस लें भी तो प्योर साइंस या बायोलजी.. इसकी उधेड़बुन में लगे थे.. अमृत अपने प्यार की गहराईयों में खोया हुआ था। फिर अमृत भी निकल गया.. पढने और मैं भी पटना चला गया। छुट्टियों में हम घर आते तो अमृत अपनी महबूबा को देखने के लिए तरसता हुआ मिलता।
हमारा छोटा सा शहर है, लड़के-लड़कियों के मिलने के लिए बुद्धा गार्डन या नेहरु पार्क नहीं हैं। न मॉल थे, न मल्टीप्लेक्सेज़.. तो पंचमंदिर आया करते थे सब.. मैं जन्म से ही नास्तिक था,लेकिन दोस्त के लिए मंदिर चला जाता। फायदा मुझे ये होता था कि कुछ लड़कियां मैं भी लाईन मार लेता। नारियल का प्रसाद मिलता चने के साथ वह फाव में।
उन्हीं दिनों हमारे पिछड़े क़स्बे में पिज्जा हट की आहट हुई और दोनों वहां मिलने लगे। साथ में मेरा होना ज़रूरी था। ठीक वैसे ही जैसे उन दिनों के हिट हो रहे फिल्मों में अक्षय कुमार या उसी तरह के हीरोज़ के साथ दीपक तिजोरी हुआ करत थे। दोनों पता नहीं क्या-क्या बातें करते, और अपनी ब्राह्मण वृत्ति के अनुरुप ही मैं तब तक खूब पित्सा पेलता और कॉफी डकारता।
लेकिन फिर बारहवी के बाद मैं एग्रीकल्चर पढ़ने चला गया..अमृत भी बीएफए पढ़ने लखनऊ विश्वविद्यालय आ गया। मिलना कम हो गया।
गरमी की एक छुट्टियों में जब हम दोनो अपने क़स्बे में ही थे, उस मीरा की शादी की खबर आई। शादी में हम दोनों पहुंचे.. लेकिन न तो हमारी हिम्मत थी, न अमृत की.. हमने कोई नायकत्व नहीं दिखाया। मैं बस खाना खाकर आ गया, अमृत भूखा ही रहा।
उसी तरह फिर कुछ दिन कमरे में बंद रहके और कुछ दिन शेव करने पर बैन लगाकर अमृत वापस लखनऊ गया और मेरा तो एक मूक दर्शक होने का जो दायित्व था वह हम आज तक पूरा करते आ रहे हैं। सवाल ये कि क़स्बाई प्रेम का क्या यही अंत होता है, जिसमें सफल प्रेम कहानियां उन्हें ही माना जाता है, तो असफल रहती हैं।
अमृत के वाकये ने एक सबक मुझे दिया, जो मैं किसी को नहीं बताने जा रहा क्यों कि अगर बता दूं तो प्रेम का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। गुस्ताखी माफ़...
ये डिस्केमर देना भी ज़रूरी है, क्योंकि लोगों के सवालात उछलने लगते हैं कि दोस्त का नाम लेकर कहीं खुद की कहानी तो नहीं कह रहे हो? ऐसा करके।
खैर जनाब, उन दिनों जब हम पाजामे का नाड़ा बांधना सीख रहे थे और लड़कियों को महज एक झगड़ने की चीज़ माना करते थे, उन्हीं दिनों हमारे एक दोस्त को एक लड़की भा गई। फिल्मों का असर कह ले या पूर्वजन्म के संबंधों का इस जन्म में फलित होना। बात ये रही कि अमृत को लड़की भा गई। और ऐसी-वैसी नहीं भायी.. दीवानगी की हद तक भा गई।
क्लास में जाता तो होमवर्क करके लाने की बजाय उस लड़की को देखता रहता। अब सुविधा के लिए लड़की का नाम भी कहे देते हैं। नाम था मीरा।
अब जनाब, पूरे स्कूल में ऐसी बात फैलते तो देर लगती नहीं। अमृत शनैः शनैः मीरा का मोहन नाम से मशहूर हो गया। फिर हम लोग तेजी से बढ़ने लगे। दसवीं तक आते-आते लड़की को भी पता हो गया, कि कलाकार-सा दीखने वाला लड़का मुझसे प्यार करता है।
हमारा दोस्त गणित की क़ॉपियों में सुंदर-सुंदर आंखों की तस्वीरें बनाने लग गए। बीजगणित में अंडा पाने वाले छोकरे की हाथ की कलाकारी से हम दांतो तले अंगुलियां दबाते। फिर क्या हुआ कि लड़की ने अपनी बायोलजी की प्रैक्टिकल कॉपी उसे बनाने को दी.. लड़का खुशी से बेतरह नाच उठा। हमें शानदार पार्टी मिली।
अमृत अब उसके घर के नीचे से बहुधा गुजरने लगा। लड़की बालकनी में दिख गई तो स्टेशन रोड पर चाय की दुकान पर एक चाय मुहब्बत के साथ (यानी मलाई मार के) हमारे लिए तय होती थी। और कुछ नहीं, तो अलगनी से सूखते कपड़े ही दिख जाते। अमृत उससे भी खुश हो जाता।
फिर दसवीं के बाद, जब हम साइस पढें या कला या कॉमर्स। या साइंस लें भी तो प्योर साइंस या बायोलजी.. इसकी उधेड़बुन में लगे थे.. अमृत अपने प्यार की गहराईयों में खोया हुआ था। फिर अमृत भी निकल गया.. पढने और मैं भी पटना चला गया। छुट्टियों में हम घर आते तो अमृत अपनी महबूबा को देखने के लिए तरसता हुआ मिलता।
हमारा छोटा सा शहर है, लड़के-लड़कियों के मिलने के लिए बुद्धा गार्डन या नेहरु पार्क नहीं हैं। न मॉल थे, न मल्टीप्लेक्सेज़.. तो पंचमंदिर आया करते थे सब.. मैं जन्म से ही नास्तिक था,लेकिन दोस्त के लिए मंदिर चला जाता। फायदा मुझे ये होता था कि कुछ लड़कियां मैं भी लाईन मार लेता। नारियल का प्रसाद मिलता चने के साथ वह फाव में।
उन्हीं दिनों हमारे पिछड़े क़स्बे में पिज्जा हट की आहट हुई और दोनों वहां मिलने लगे। साथ में मेरा होना ज़रूरी था। ठीक वैसे ही जैसे उन दिनों के हिट हो रहे फिल्मों में अक्षय कुमार या उसी तरह के हीरोज़ के साथ दीपक तिजोरी हुआ करत थे। दोनों पता नहीं क्या-क्या बातें करते, और अपनी ब्राह्मण वृत्ति के अनुरुप ही मैं तब तक खूब पित्सा पेलता और कॉफी डकारता।
लेकिन फिर बारहवी के बाद मैं एग्रीकल्चर पढ़ने चला गया..अमृत भी बीएफए पढ़ने लखनऊ विश्वविद्यालय आ गया। मिलना कम हो गया।
गरमी की एक छुट्टियों में जब हम दोनो अपने क़स्बे में ही थे, उस मीरा की शादी की खबर आई। शादी में हम दोनों पहुंचे.. लेकिन न तो हमारी हिम्मत थी, न अमृत की.. हमने कोई नायकत्व नहीं दिखाया। मैं बस खाना खाकर आ गया, अमृत भूखा ही रहा।
उसी तरह फिर कुछ दिन कमरे में बंद रहके और कुछ दिन शेव करने पर बैन लगाकर अमृत वापस लखनऊ गया और मेरा तो एक मूक दर्शक होने का जो दायित्व था वह हम आज तक पूरा करते आ रहे हैं। सवाल ये कि क़स्बाई प्रेम का क्या यही अंत होता है, जिसमें सफल प्रेम कहानियां उन्हें ही माना जाता है, तो असफल रहती हैं।
अमृत के वाकये ने एक सबक मुझे दिया, जो मैं किसी को नहीं बताने जा रहा क्यों कि अगर बता दूं तो प्रेम का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। गुस्ताखी माफ़...
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति। साधुवाद।
ReplyDeleteagar kuch pana hai to mehanat to karni hi padati hai. kismat to khud hi likhi jati hai. agar aapke dost ne koshis ki hoti to shayad Mira unhe mil jati. sirf kaha lene se prem nahi hota.
ReplyDeletesahi kaha jasvir ji koshish ki hoti to jarur milti b8 tat was puppy love pyar keh ne layak usemai kuch bhi nai tha
ReplyDeletecomin 2 manjit hmmm to thakur humne aapke bevakuf dost k kathit prem kahani par kaam dhyan diya aur aapki likhne ki style par jyada ....aacha likha maine aapko pehle b kaha tha ki aap Pu La Deshpandey ki yaad dilate ho muje jabi mai aap ka bolg padti hu
मूक अभिव्यक्ति का कस्बे में ही नहीं सब स्थानों पर यही अंत होता है।
ReplyDeleteलगे रहो...वैसे पहले वाली कहानी मुझे ज्यादा पसंद आई।
ReplyDeletejee bilkul nahi yah aant har us prem kahani ka hota hain jiske nayak-nayika kayar ya kamjor hoten hain.
ReplyDeletemjhe wo sabak janna hai...
ReplyDeletemjhe jan na hai wo sabak...
ReplyDeletemjhe wo sabak jan na hai...
ReplyDeleteसवाल ये कि क़स्बाई प्रेम का क्या यही अंत होता है, जिसमें सफल प्रेम कहानियां उन्हें ही माना जाता है, तो असफल रहती हैं। :)
ReplyDeleteसवाल ये कि क़स्बाई प्रेम का क्या यही अंत होता है, जिसमें सफल प्रेम कहानियां उन्हें ही माना जाता है, तो असफल रहती हैं।:)
ReplyDeleteKhair prem pahale pravaan to chada. anant to mooltya aisa hi hota hai aaj kal.
ReplyDeletemohalle ke ladko ka pyaar aksar doctor ya engineer le jaate hain.... :p
ReplyDeleteप्रेम का मर्म बचा रहने के लिए अंत यही मुफ़ीद लगता है. अच्छी कहानी!
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