Thursday, December 26, 2013

बैनीआहपीनाला

बैंगनी रंग का कुरता पहन रखा था शायद कंचनजंघा ने....सूरज पश्चिम में छिपने की कोशिश में था। पहाड़ का तो क्या है, सूरज पहाड़ों के पीछे गया नहीं, कि अंधेरा हुआ...। गंगटोक में भी ऐसा ही हुआ था। सूरज छिपा, अंधेरा हुआ, और इसके साथ ही ठंड ने नश्तर चुभोने शुरू कर दिए।

गंगटोक में मॉल रोड ही है...गुलज़ार रहने वाला। अपने हाफ बाजू के स्वेटर में सिकुड़ता हुआ, काली पृष्ठभूमि में सफेद धुएं के बीच, उस गुलज़ार सड़क पर कपड़ो की एक दुकान पर अटकता हूं....। पीली कुरते वाली लड़की...आंखों में गहरा काजल...।

मेरे चश्में पर भाप जम गई है। मुंह से निकली भाप।  चीजें धुंधली नजर आऩे लगी है। धत्त, ये कोई लड़की नहीं है, मेरी कहानी से निकलकर सामने नहीं आ खड़ी हुई है मेरी नायिका।  ये तो पुतला है, प्लास्टिक का।

बगल में कहीं, चेन्नई एक्सप्रेस का गाना चल रहा है। यो यो हनी सिंह, कोकोनट में लस्सी मिलाकर पीने की गुजारिश कर रहे हैं। लुंगी डांस।

लुंगी डांस राष्ट्रीय गीत की तरह मेरे कानों में बज रहा है...सफदर हाशमी मार्ग पर खड़ा होकर मैं गाड़ियों की भीड़ के खत्म होने का इंतजार कर रहा हूं। दिल्ली की ट्रैफिक मन के अंधेरे और नाउम्मीदी की तरह कभी ना खत्म होने वाली शै है। कार के बेवजह और तेज़ हॉर्न ने टाइम और स्पेस ही बदल दिया। यादों में गंगटोक जीते-जीते, दिल्ली में आ खड़ा हुआ।

सामने है हमारा दफ्तर...गोभी की फूल की तरह नीचे संकरा...ऊपर फूलता चला जाता हुआ। उल्टे पिरामिड जैसी आकृति।

आज सूरज कुछ खास नहीं निकल पाया। बादलों से झड़प हुई थी, या कोहरे को मिल रहे इम्पॉर्टेंस से रूठा हुआ था, वही जाने या आसमान। कोहरा भी कोई पूरी तरह सफेद नहीं है। न कोहरा है, न सूरज है, न उजाला है न अंधेरा है। गजब की नाउम्मीदी है। दिल्ली में सरकार बनाने जैसा अनिश्चय है।

जीवन में अजब गजब रंग देखने को मिलते हैं। आजकल राजनीति रंगीन है। सिर पर सफेद टोपी पहने वाले केजरीवाल ने कहा है, उनकी पार्टी ईमानदार पार्टी है। केजरीवाल ने कहा था उनसे पहले सत्ताधारी पार्टी यानी कांग्रेस भ्रष्ट थी। अब कथित भ्रष्ट पार्टी कथित ईमानदार पार्टी को सपोर्ट दे रही है।

सवाल यह है कि सफेद टोपी वाली पार्टी, भगवा और खाकी रंग वालो, के साथ काली कमाई का आरोप झेल रही कांग्रेस पर क्या कार्रवाई करेगी। दिल्ली की राजनीति का क्या रंग आए गा सामने. यह दिलचस्प होगा। पता है, लाल को कोई रोल नहीं, लेकिन सफेद कितने दिन सफेद बना रहेगा, या धूसर हो जाएगा...लोकसभा चुनाव तक, इसी पर तो सबकी निगाहे हैं।

सोचने का वक्त नहीं है...बैठक शुरू होने ही वाली है...एडिटोरियल मीटिंग। रस्म है। रोजाना। मीटिंग में फिर वही सोच सामने आ जाती है...गाढ़ा बैंगनी कुरते पहनी गंगटोक की बर्फीली कंचनजंघा मेरी फैली हुई बांहों में सिमट गई, तो उस पर छाई हुई बदली सूरज की किरनों से लाल हो गईं थीं....या शरम से।








Tuesday, December 17, 2013

हंपी का माल्यवंत रघुनाथ मंदिरः कुछ तस्वीरें

माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर का शिखर

मंदिर का प्रवेश-द्वार

अहाते के अंदर से प्रवेश-द्वार की छवि

कुछ यूं दिखता है अहाते से मंदिर का चबूतरा

नीम की छांव में मंदिर परिसर

रघुनाथ मंदिर के चबूतरे से पूर्वी द्वार का दृश्य

गर्भगृह में प्रस्थापित रघुनाथ, कमलेश्वरी, लक्ष्मण और हनुमान, सभी फोटोः मंजीत ठाकुर


Tuesday, December 10, 2013

नमो लहर से किसको इनकार है?

नरेन्द्र मोदी निश्चित रूप से ऐसे नेता है, जिनको लेकर कांग्रेस से लेकर तमाम दलों में अजीब सा अनिश्चय है। विधानसभा चुनाव के नतीजे आ ही रहे थे और रूझानों की दौर भी चल रहा था कि बुद्धिजीवियों के एक तबके ने मोदी की लहर को सिरे से इनकार करना शुरू कर दिया। अगर मोदी का विरोध करना है, और लोकतंत्र ऐसे ही चलता है, तो उऩकी कमजोरियों के साथ उनकी ताकत को भी समझना होगा। कांग्रेस और बाकी के दल जितनी जल्दी मोदी से मुंह छिपाने की बजाय उनकी लहर की वजहों को समझने की कोशिश करेंगी, 2014 में उनके लिए उतनी ही आसानी होगी।

8 दिसंबर को तमाम बुद्धिजीवियों ने मोदी की लहर से इनकार करते हुए दिल्ली और छत्तीसगढ़ के परिणामों की मिसालें दी। राजस्थान में कांग्रेस के खिलाफ लहर बताई और मध्य प्रदेश में यह सेहरा शिवराज के सिर बांधा। सच है कि दिल्ली और छत्तीसगढ़ में बीजेपी के वोट शेयर में कोई बढोत्तरी दर्ज नहीं की गई है।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के समर्थक और बीजेपी के विरोधी कहते रहे कि केजरीवाल और उनके दल ने बड़ो-बड़ों को धूल चटा दी। तर्क यह भी दिया गया कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में बीजेपी की जीत के पीछे वहां आप जैसे किसी तीसरे विकल्प का न होना है।

चार राज्यों में चुनाव के नतीजे बाकी कुछ कहें, एक बात तो साफ है कि यहां कांग्रेस विरोधी लहर तो थी। राजस्थान और मध्य प्रदेश के आंकड़े मोदी लहर या नमो लहर की तस्दीक भी करते हैं। दिल्ली में भी जिन लोगों ने आप को विधानसभा के लिए वोट दिया है, लोकसभा में वो मोदी के पक्ष में मतदान करेंगे (ओपिनियन पोल इस आंकड़े को कुल वोटर का आधा, यानी पचास फीसद और आप का खुद का सर्वे एक तिहाई  कह गया है)

दिल्ली के त्रिकोणीय संघर्ष में कांग्रेस के विधायको की संख्या एक इनोवा कार में बैठकर विधानसभा तक जाने तक सीमित रह गई है (थोड़ी कोशिश से इनोवा में आठ लोग बैठ सकते हैं) वैसे बताते चलें कि आपातकाल के ऐऩ बाद हुए चुनाव में भी कांग्रेस को दिल्ली में 10 सीटें मिल गई थीं। तो हालात कांग्रेस के लिए सन सतहत्तर से भी बुरे हैं।

राजस्थान में पिछले तेरह चुनावो में कांग्रेस की औसत सीट संख्या 92 रही है। कांग्रेस अब तक के सबसे कम, यानी आपातकाल के बाद हासिल सीट संख्या से भी आधी रहकर 21 पर सिमट गई। बीजेपी का सबसे बुरा प्रदर्शन राज्य में 1980 में रहा था, जब वह 32 सीटें ही जीत पाई थी।

क्या राजस्थान में बीजेपी को इतनी बड़ी संख्या में इसलिए वोट पड़े क्योंकि वहां विकल्प के रूप में आप नहीं था?
उधर, मध्य प्रदेश में 2008 के अपने प्रदर्शन को और बेहतर करते हुए, बीजेपी ने 22 ज्यादा सीटें हासिल की हैं। हालांकि दिग्विजय सिंह साल 2003 में वहां सिर्फ 38 सीटें हासिल करके कांग्रेस को निम्नतम स्तर तक ले जा चुके हैं, लेकिन 58 सीटें भी बहुत नहीं होती।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को 39 सीटें मिली है। आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में (संयुक्त मध्य प्रदेश के आंकड़ो के साथ) कांग्रेस को 36 सीटें मिली थीं।

दिल्ली में बीजेपी के सौ में छह वोटरों ने आप के लिए वोट किया है, लेकिन कांग्रेस के 36 फीसद वोटर आप की तरफ चले गए।

कल के पोस्ट में कुछ रैलियों और उसके असर का जायज़ा लेंगे कि आखिर, कांग्रेस रागा (राहुल गांधी) और भाजपाई नमो-नमो में किसका असर वोटरों पर ज्यादा पड़ता है, बांहे चढ़ाना ज्यादा असरदार है, ये केसरिया रंग।




Saturday, November 23, 2013

किष्किन्धा कांडः दूसरी किस्त

तथा स बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषच्य च वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणब्रवीत्', वाल्मीकि. किष्किंधा पर्व 27,1। एतद् गिरेमल्यिवतः पुरस्तादाविर्भवत्यम्बर लेखिश्रृंगम्, नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्धिप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम्', रघुवंश 13,26।
 
यानी यही वह पर्वत माल्यवंत है जिसपर राम रूके थे। उत्सुकता बढ़ गई थी। सामने ऋष्यमूक भी दिख रहा था। बनवारी लाल जी अभिभूत हुए जा रहे थे। अगर राम को भगवान न भी मानें, सिर्फ एक दिलेर इंसान भी मान लें, तो भी इन सभी किताबों में वर्णित जुगराफिये का कायल हुआ जा रहा था।



माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर। भई, क्या ही खूबसूरत पत्थर...उनके बीच झुलसती गरमी में उठती दाह..। ज़मीन पर गरमी की वजह से जो तरंगे उठ रही थीं, वो दिख सी रही थीं। परछाईयां हिल रही थी। तकरीबन डेढ़ हज़ार साल पुरानी मंदिर की उस भव्य इमारत में घुसा तो सबसे पहले साए की खोज की हमने। 


कैमरे पर खटाखट तस्वीरें लिए जा रहा था मैं। स्टिल कैमरा घुमाने में कोई लफड़ा नहीं था। मंदिर के गोपुर से भीतर गया तो एक प्रशस्त आंगन था। ऐन सामने मंदिर...मंदिर में स्पीकर पर बजता रामधुन। लेकिन थोड़ा अलग सा। 


गौर किया तो हमारे उत्तर भारत की तरह मानस पाठ नहीं था। 


ठीक सामने तुलसी का पौधा, हरा। तुलसी के पौधे पर उसके मंजर (फूल) लगे थे। ऐसी तुलसी बड़ी गजब की दिखती है। मुख्य मंदिर के बाईं तरफ नीम का पेड़ था। फूलों के कुछ पौधे थे जो गरमी से हलकान हो  रहे थे। मौसमी फूलों की जगह स्थायी किस्म के फूलों को तरजीह मिली थी। जिनको पानी-वानी, देख-रेख की ज्यादा चिंता नहीं रहती। 


मंदिर का चबूतरा चार सीढियों ऊपर था। माथे पर तिलक-त्रिपुंड रचाए दो नौजवान पुजारी रामायण पाठ में लीन थे। शायद दोपहर की वजह से, या शायद गरमी  की वजह से, शायद प्यास से, या उनको नींद सी आ रही थी, या फिर भूख लग आई थी, कतिपय कारणों से पाठ का स्वर धीमा था।

पुजारियों के सुर में ऊब या झल्लाहट थी। पता नही क्यों। पता नहीं शिकायत राम से ही, इत्ती दूर क्यों आ गए थे पहाड़ पे? 

बहरहाल, मंदिर के अंदर हम गए तो हम ही तीन लोग सैलानी के रूप में थे। मैं, कैमरामैन बनवारी जी और कैमरा सहायक विनोद। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में दक्षिण भारतीय स्थापत्य की सारी विशेषताएं हैं। मंदिर में बहुत सारे खंभे हैं। और पुजारी ने अचानक हमारे लिए गर्भगृह का पट भी खोल दिया। 

हमने कहा, दोपहर में पट कैसे खोला तो बुजुर्ग मुख्य पुजारी का कहना था कि आप इतनी दूर से आए हैं राम के लिए तो राम का कर्तव्य है कि आपके लिए दोपहर में जगे। मैं मुस्कुरा उठा...बहरहाल, मैं उस गर्भगृह में मूर्ति देखना चाहता था। 

बुजुर्ग पुजारी ने बताया कि माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में न जाने कितने वर्षों से अखंड वाल्मीकी रामायण का पाठ होता है। मंदिर के गर्भगृह में राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान की मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों की खासियत है कि इनमें राम बुद्ध की तरह भूमि स्पर्श योग मुद्रा में हैं, यानी उनका बायां हाथ भूमि को स्पर्श कर रहा है। दूसरा नाभि स्थल को। सीता यहां कमलेश्वरी के रूप में हैं। 

कमला लक्ष्मी को कहा जाता है। सीता के चार हाथ हैं, जिनमें लक्ष्मी की तरह कमल वगैरह हैं। लक्ष्मण भी यहां धनुषबाण के स्थान पर आशीर्वाद की मुद्रा में हैं। यह आश्चर्यजनक था। मैंने इससे पहले कहीं, लक्ष्मण को बैठे हुए और इस तरह आशीर्वाद की मुद्रा में नही देखा था।

ये तीनों मूर्तियां काले ग्रेनाइट की बनी थीं। मूर्तियों के  बदन पर पर्याप्त, बल्कि पर्याप्त से भी ज्यादा जेवरात थे। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर का गर्भगृह एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया है। इसी पत्थर में उभार कर उकेरे गए हैं, हनुमान। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर के इस एकाश्म गुहा में हनुमान राम दरबार की तरह विनीत भाव में तो हैं, लेकिन वह अपने हाथ से सीता की चूड़ामणि देते दिखाए गए हैं। 

पुजारी जी ने कहा कि प्राचीन मंदिर में सिर्फ हनुमान राम और लक्ष्मण थे। लेकिन बाद में सीता को प्रतिष्ठित किया गया। और एकाश्म मंदिर के ऊपर विशाल माल्यवन्त मंदिर का निर्माण करीब डेढ़ हज़ार साल पहले सन् 650 ईस्वी के आसपास पल्लव राजा नरसिंह वर्मन् प्रथम ने करवाया। 

बहरहाल,  जब रामायण पाठ कर रहे पुजारियों की शिफ्ट बदली, तो पाठ करके उठे पुजारी से मैंने बात करनी चाही। पहले तो नाम जानकर ही हैरत हुई, और बात करने में उच्चारण का लहज़ा। युवा पुजारी की मूंछें अभी कायदे से उगी भी नहीं थी, नाम था मधुसूदन शास्त्री। मैंने चौंककर कहा कि कहां के हो, तो उसने बिहार का नाम लिया। पता चला, साहब बेगूसराय के हैं। 

वाल्मीकी जी को गर्व होता होगा, बेगूसराय के युवा कर्नाट्क की किष्किंधा में रामायण पाठ कर रहे हैं। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में बातें करने पर पता चला कि युवा पुजारियों का एक समूह तिरूपति ट्रस्ट की देखरेख में मंदिरों की देखभाल और पूजा पाठ करता है। ये सभी पुजारी  तिरूपति से प्रशिक्षित थे। 

तभी हमें मुख्य पुजारी ने बातचीत का न्यौता दिया। बातों-बातों में यह भी पता चला कि रामनवमी को छोड़कर माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में लोगों का आना इक्का-दुक्का ही होता है। हम जैसा कोई आवारा सैलानी ही उधर आ निकलता है। लेकिन रामनवमी में काफी भीड़ होती है।

हमने पूछा कि आपका खाना खर्चा कैसे चलता है, तो मुख्य पुजारी ने कहा कि घरबार तो है नहीं, रूपया पैसा क्यों चाहिए। बाकी बचा, मंदिर की देखभाल,तो वह एएसआई के जिम्मे है। ऐतिहासिक इमारत वाला हिस्सा। और जो मंदिर वाला सामान्य हिस्सा है, वहां के पूजा पाठ प्रसाद के खर्चे अगल बगल के किसान खुद साल में एक बार दे जाते हैं अनाज-दालें वगैरह।

विश्राम शाला में कंप्यूटर भी था। मुझे हैरत में पड़ा देखकर मुख्य पुजारी ने कहा था, हिसाब किताब साफ रखने के लिए। एक पैसे की बेईमानी बर्दाश्त नहीं। देश भर में बाबाओं की करतूत ऐसी घिनौनी हो चुकी है,कि पुजारी की ऐसी बातों का सहसा भरोसा नहीं हो पा रहा था।

हमने जाने की इजाज़त मांगी तो बुजुर्गवार पुजारी ने कहा प्रसाद पाते जाओ(खाना खाने का न्यौता था जनाब)। अब आदतन कहें या जन्मना ब्राह्मण होने की वजह से, हम प्रसाद पाने या कुछ भी खाने में कभी संकोच नहीं करते। हम प्रसाद पाने के लिए बैठे, तो भूख, गरमी..या शुद्धता जो भी कारक सबसे प्रबल हो, हमने जो स्वाद पाया उसका जिक्र किया नहीं जा सकता। बस एक ही शब्द हैः दिव्य।

दाल में नमक कम थी, तो छोटू पुजारी जी रामरस ले आए, जो नमक का सधुक्कड़ी नाम है। ऐसी ही कई चीज़े, जिनका नाम सधुक्कड़ी था, पर स्वाद वही था, बिहार के हमारे गांव का। कर्नाटक में घूमते-घूमते नारियल के तेल में पकी सब्जी, और खट्टी सब्जी, रसम खाते-खाते खाना हमारे लिए एक रस्म भर रह गया था। यहां खाने में भात था, दाल थी, लौकी आलू की तरकारी थी, हरी मिर्च थी, और आम का अचार...मित्रो, ऐसा अदुभत स्वाद था कि हमें लगा हमने बरसों से कुछ खाया ही नहीं।

खाने के बाद हमारे जाने की बारी आई, तो मिष्टान्न का प्रबंध भी था...आगे जाने के लिए मुट्ठी भर मेवा भी...सबके हाथों में। मंदिर में खिले पीले कनेर, नीम की फर-फर पत्तियों, कोने के कुएं, माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर के खंभो...इन सबकी परछाईं को मैंने जी भर कर देख लिया. इनकी परछाई में हमने दो घंटे बिताए थे। पता नहीं अब कब मुलाकात हो।

इनकी तस्वीरें अलग से पोस्ट में साझा करूंगा। 

माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर के बाद हमारी मंजिल थी, हम्पी। जहां विजयनगर के खंडहर हमारा इंतजार कर रहे थे। बाहर का तापमान कोई 46 डिग्री सेल्सियस के आसपास था। लेकिन तारकोल की उबलती सड़के पर गाड़ी भागी जा रही थी-सर्रर्रर्रर्र....।

जारी...।

Friday, November 22, 2013

क्या मुलायम हैं अगले प्रधानमंत्री?

बहुत जाहिर सी बात है कि मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इसमें कोई गलत बात भी नहीं। कौन सा नेता होगा जो प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहेगा। बहरहाल, तीन बार उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके नेता के लिए प्रधानमंत्री बनना कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए।

लेकिन, मुलायम प्रधानमंत्री बनेंगे कैसे,क्या वो गफलत में है या हवाई किले बना रहे हैं। फिलहाल, लोकसभा में उनकी जेबी पार्टी समाजवादी पार्टी के बाईस सांसद हैं। चार तो उनके घर से ही हैं। और देवेगौड़ा जब बन सकते हैं तो मुलायम क्यों नहीं। दरअसल, बनना तो मुलायम को देवेगौड़ा वाले वक्त में ही था, लेकिन उस वक्त उनके दो यादव सजातीयों, शरद और लालू ने भांजी मार दी थी।

अब 2012 के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने मुलायम की महत्वाकांक्षाओं को नए पंख दिए। लेकिन जानना दिलचस्प होगा कि आखिर मुलायम के इस सपने की ज़मीनी हकीकत क्या है।

फिलहाल, तो जिसतरह की राजनीतिक गतिविधियां हैं देश की, और जिसतरह देश का मिजाज़ है--हालांकि लोकसभा चुनाव में अभी चार महीने का वक्त है और इतने में तो यमुना में न जाने कितना पानी बह जाना है--कांग्रेस जनाधार खो रही है, भाजपा की  सीटें बढ़ रही हैं, लेकिन मोदी के पास इतनी सीटें नहीं होगी कि वह खुद प्रधानमंत्री बन पाएँ।

खुद मोदी भी इस गफलत में नहीं होंगे कि बिना 200 का आंकड़ा पार किए, उनको कोई 7 रेसकोर्स के आसपास फटकने भी देगा। तो भाजपा अगर सरकार बनाने में नाकाम रही, तो बनेगा तीसरा मोर्चा। लेकिन तीसरे मोर्चे के नेता मुलायम तभी बन सकते हैं, जब उनके पास कम से कम 32-35 सीटें हों।

लेकिन, सपा को इतनी सीटें आएँगी कैसे। 2012 के विधानसभा चुनाव में और 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर काम करेगा, और पूर्वांचल, जहां सपा की अच्छा-खासा जनाधार है, वहां की चुनावी आबोहवा में बदलाव दिख रहा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में26 जिलें हैं और 27 लोकसभा सीटें हैं, पिछली बार बुरे प्रदर्शन के बावजूद सपा ने इस इलाके में 9 सीटें हासिल की थीं।

मध्य उत्तर प्रदेश में कुल 21 में से 5 सीटें सपा के कब्जे में हैं, बुंदेलखंड से सपा के दो, और रूहेलखंड से एक सांसद है। पश्चिमी यूपी में सपा की हालत पिछली बार भी खस्ता ही थी। कुल 24 सीटों में से सपा केो सिर्फ 5 सीटें हासिल हुई थी।

इस बार सपा को पश्चिमी यूपी में मुजफ्फरनगर दंगों से बड़ा नुकसान झेलना पड़ सकता है। दंगो की आंच ने मुलायम की छवि को तार-तार किया है, जो शायद उनके प्रधानमंत्री बनने के इरादों को पलीता लगा सकता है।


--जारी

Sunday, November 10, 2013

एक ठो भारत रत्न हमको भी!

द हो गई है। कैसा देश है ये। छोड़िए देश के बारे में बाद में बात करें, मैं खोज रहा हूं कि इस सवा अरब की आबादी वाले देश में मेरा कोई दूर का रिश्तेदार हो जो सत्ता पक्ष में, विपक्ष में, कहीं भी, सिफारिश करने की पोजीशन पर हो। और सिफारिश ऐसी-वैसी नहीं कि रोज़गार सेवक लगाने वाला काम, या शिक्षा-मित्र की बहाली। भारत रत्न के लिए सिफारिश की जरूरत है। 

इस देश में भाई-भतीजावाद किस क्षेत्र में नहीं है! पता नहीं क्यों लोग फिर भी इसकी बुराई करते हैं। अब ताजा उदाहरण देखिए-इस साल पद्म पुरस्कारों के लिए की गई सिफारिशों की सूची में कुछ लोगों ने कई नाम सुझाए तो कुछ लोगों ने इस प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान के लिए अपने संबंधियों और दोस्तों के नामों को आगे बढाया।

अब पहली कोटि में वो लोग हैं, जो चाहते हैं कि भारत रत्न पुरस्कारों का सम्मान बचा रहना चाहिए। इसलिए वो लोग पता नहीं क्यों ईमानदारी दिखा जाते हैं।

जबकि होना ये चाहिए कि इसमें अपने रिश्तेदारों का नाम आगे किया जाना चाहिए। आखिर, परिवार के प्रति भी तो हमारा फर्ज है कुछ। अब एक सिरफिरे ने गृह मंत्रालय में आरटीआई डाल दिया कि किस महानुभाव ने किसके नाम की सिफारिश की है, भारत रत्न के लिए। 

ऐसे में जो जवाब आया उससे यही साबित होता है कि हम भारत के  लोग वसुधैव कुटुम्बकम् में भरोसा करें या न करें, अपने कुटुम्ब में बहुत भरोसा करते हैं।

गृह मंत्रालय ने आरटीआई आवेदन का जवाब दिया कि सार्वजनिक की गई 1300 नामों की सिफारिशें करने वाली सूची के अनुसार कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा, मंत्री राजीव शुक्ला, सांसद टी सुब्बरामी रेड्डी, शास्त्रीय गायक पंडित जसराज आदि ने इस पुरस्कार के लिए कई-कई नामों की सिफारिशें की थीं।

भारत रत्न से सम्मानित पार्श्व गायिका लता मंगेशकर ने पद्म पुरस्कारों के लिए जिन नामों की सिफारिश की हैं उनमें उनकी बहन उषा मंगेशकर, पार्श्व गायक सुरेश वाडकर और सामाजिक कार्यकर्ता राजमल पारख का नाम था। 


पद्म विभूषण से सम्मानित सरोद वादक उस्ताद अमजद अली ने छह नामों की सिफारिश की थी जिनमें उनके बेटों अमान और अयान के साथ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायक कौशिकी चक्रबर्ती, तबला वादक विजय घाटे, कला प्रोत्साहक सूर्य कृष्णमूर्ति उर्फ नटराज कृष्णमूर्ति और सितार वादक निलाद्री कुमार के नाम सम्मलित थे। 

पूर्व सपा नेता अमर सिंह ने लोकसभा सदस्य जयाप्रदा को यह पुरस्कार देने की सिफारिश की थी। हालांकि, इस साल घोषितपद्म पुरस्कारों की सूची में उषा मंगेशकर, अमान या अयान जगह नहीं बना पाए। विख्यात शास्त्रीय गायक पंडित जसराज ने पद्म पुरस्कारों के लिए नौ नाम, राजीव शुक्ला ने पांच, मोतीलाल वोरा ने आठ, गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने रंगमंच से जुडे दो लोगों, विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने दो और कांग्रेस सांसद विजय दरडा ने तीन नामों की सिफारिश की थी।

अब आपको लग रहा होगा न कि आखिर मेरा नाम क्यों नहीं था इस सूची में...सोच रहा हूं जिस दिन सिफारिश करने लायक बनूंगा, अपने साले को भारत रत्न दिलवाऊंगा, आखिर सारी खुदाई एक तरफ...।

Tuesday, November 5, 2013

किताबः द लास्ट लिबरल एंड अदर एसेज़



किताबः द लास्ट लिबरल एंड अदर एसेज़

भारत और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में उदारवाद की तलाश कैसे करेंगे। रामचंद्र गुहा कि किताब द लास्ट लिबरल एंड अदर एसेज़ के निबंध आपको जानी-मानी हस्तियों से  लेकर फुटपाथ पर लगने वाली पुरानी किताबों की दुकान तक से परिचित करवाती है। अपने अपने तरीक़ों से धर्निरपेक्षता, उदारवाद, ईमानदारी और सामाजिक प्रतिबद्धता की मिसाल बने लोगों के जीवन पर रौशनी डाली गई है। लेकिन, सिर्फ प्रस्तावना को छोड़ दें, जिसमें नेहरू पर रामचंद्र गुहा का पक्षपात झलकता है तो बाकी के निबंध निर्द्वन्द्व होकर लिखे गए हैं।

किताब दो हिस्सों में है, पहला हिस्सा है लोग और जगहें। इसमें सेवाग्राम का जिक्र भी है और राजगोपालाचारी का भी। राजगोपालाचारी के बारे में लिखते समय रामचंद्र गुहा ने उनके परमाणु बम के बारे में विचारों को हवाला दिया है। निश्चित तौर पर एटम बम को लेकर सोचने वाले और उस पर भारतीय रूख को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेश करने वाले राजाजी पहले प्रामाणिक नेता थे। राजाजी एटम बम के विरोध में सेमिनारों में हिस्सा लेने अमेरिका गए, जहां उनकी मुलाकात राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी से भी होनी थी। वक्त मिला था 25 मिनट का। लेकिन केनेडी राजाजी से इस कदर प्रभावित हुए कि एक घंटे से ज्यादा वक्त तक बातें होती रहीं।


बाद में जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ निशस्र्तीकरण परिषद् में राजा जी के बारे में अमेरिकी प्रतिनिधमंडल के एक सदस्य ने वी शिवाराव से कहा कि निशस्त्रीकरण पर भारत का पक्ष रखने के लिए आप इस शख्स को जेनेवा क्यों नहीं भेजते? शिवाराव ने इस बाबत नेहरू को खत भी लिखा। लेकिन तब तक नेहरू और राजाजी के संबंध खराब हो चुके थे, और नेहरू ने राजाजी को जेनेवा नहीं भेजा।

चिपको के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट पर भी बढ़िया जानकारी परक लेख है। लेकिन बंगाली भद्रलोकः देशी मुरगी विलायती बोल खटकता है। वी पी कोईराला पर लिखे गए लेख में कोईराला पर दिया गया ब्योरा कम है। लेख पढ़ने के बाद पूरी संतुष्टि नहीं हो पाती।

किताब का आखिरी निबंध महात्मा गांधी की मार्क्सशीटें हैं। इसमें गुहा स्थापित करते हैं कि स्कूलों में हासिल किए गए बढ़िया अंक मेधाविता का परिचायक नहीं होते। मिसाल उन्होंने कई दिए हैं, मुझे मशहूर वैज्ञानिक आइन्स्टीन का याद आ रहा है। कि वह नौ साल की उम्र में बोलना सीख पाए थे। कि, वह डिप्लोमा हासिल नहीं कर पाए थे। कि म्युनिख में वह ल्योपॉल्ड जिम्नेजियम में पिछड़ गए थे। रामचंद्र गुहा इसी तरह मैट्रिक परीक्षा में गांधी के मार्क्सशीट का हवाला देते हैं, जिसमें कुल 40 फीसद अंक गांधी को हासिल हुए थे।

इस लेख के बाद मुझे गुहा की मार्क्सशीट देखने की जरूरत महसूस हो रही है, और लग रहा है कि वह भी मेरे, गांधी और आइंस्टीन की कतार के ही हैं।

बहरहाल, इस किताब को पेंग्विन ने छापा है और इसका हिंदी अनुवाद आख़री उदारवादी और अन्य निबंध नाम से मनीष शांडिल्य ने किया है। अनुवाद बाकी जगहों ठीक है लेकिन वर्तनी की अशुद्धियां खटकती हैं। मिसाल के तौर पर वीपी कोईराला के भाई मातृका प्रसाद कोईराला को माितृका लिखा गया है।

किताब 291 पृष्ठो की है, पेपरबैक संस्करण का मूल्य 399 रूपये मात्र है। खरीद कर न पढ़ने की इच्छा रखते हों तो किसी लाइब्रेरी से हासिल करें। किताब अच्छी है।


Wednesday, October 30, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः किष्किन्धा कांड!!

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान किसी जगह टिककर रहने का मौका नहीं मिला। बीजापुर, गुलबर्गा वगैरह में सूखे और किसानों की आत्महत्या की ख़बरें कर चुका था, मन और तन दोनों क्लांत हो चुके थे।

हॉसपेट थोड़ा दक्षिण है गुलबर्गा से। बेल्लारी ज़िले में। अरे वही बेल्लारी ज़िला, अवैध खनन और रेड्डी बंधुओं के लिए आप उत्तर भारत में जानते होंगे। हॉसपेट में हमें राहुल गांधी और जगदीश शेट्टर की रैलियां कवर करनी थी। मेरा लालच कुछ और था। मैं विजयनगर साम्राज्य के खंडहर देखना चाहता था।

हंपी, यानी वह जगह जहां विजयनगर साम्राज्य के अवशेष है, हॉसपेट से महज सोलह किलोमीटर दूर है। राहुल की रैली के बाद शेट्टार की रैली थी, और जगदीश शेट्टार की रैली सुबह-सुबह निपट गई थी। अपने ऑफिस के काम से फारिग होने के बाद हम विजयनगर के भग्नावशेष देखने चल दिए थे।

चाय की दुकानपर किसी दोस्ताना से स्थानीय शख्स ने बताया, कि अगर असल में विजयनगर की झलक देखना चाहते हो तो सीधे हंपी पर धावा मत बोल दो। दोपहर की तेज़ धूप में चाय का आस्वाद लेते हुए हम स्थानीय ज्ञान भी लेते रहे, चाय का भी। क्योंकि चाय का तो क्या है, टी इज़ कूल इन समर....एंड वॉर्म इऩ विंटर।

हंपी जाने के रास्ते में किसी पहाड़ी पर भग्नावशेष फोटोः मंजीत

तो कर्नाटक में होसपेट में उस दिन तकरीबन 46 डिग्री सेल्सियस तापमान था। खाल झुलसी जाती थी, चाय ने पसीने की बूंदों का आमंत्रित कर खाल को सुरक्षा कवच दिया।

उन मित्र ने यह भी बताया कि आप इधर आए हैं तो रीछों की एक सेंचुरी भी देखते जाएँ। लेकिन तपते दोपहर में जब हम दोर्जे में स्थित उस सेंचुरी गए तो वन संरक्षकों ने बताया कि अव्वल तो गेट से अंदर जाने को नहीं मिलेगा। जाने भी दिया तो कुछ दिखेगा नहीं, क्योंकि रीछ दोपहर को आराम करते हैं। इसलिए इधर सुबह को आने का।

 हम सुबह की योजना बनाकर खाली हाथ, खाली आंख लौट चले।
सड़क किनारे बोर्ड दिखा तो रूक गए थे हम

बहरहाल, जब उस अपरिचित मित्र के बताए अनुसार हम पचीस किलोमीटर के दायरे में घूमने निकले, तो सड़क के किनारे कई ऐसी खंडहर देखने को मिले, जो हमने किताबों में देखे थे। विजयनगर मार्का अवशेष।

हर जगह गाड़ी रोकी जाती, हम उतर कर फोटो उतारते। फिर गाड़ी आगे बढ़ती।

अचानक एक जगह मेरी नजर गई, तेज़ धूप में सड़क के किनारे बोर्ड लगा था--माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर। मंदिरो में मेरी दिलचस्पी तभी होती है जब वहां भीड़ हो। हमारे कैमरामैन बनवारी लाल का नज़रिया अलग है, बुजुर्ग हो चले हैं। पुण्य कमाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।

हमारी गाड़ी चढाई पर चल दी। एक बोर्ड और लगा था, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का था। बोर्ड में लिखा था कि मान्यता के अनुसार, रामायण में वर्णित किष्किन्धा यही था....
सामने रहा सुग्रीव के छिपने का ठौर ऋष्यमूक फोटोः मंजीत
मंदिर अभी कुछ दूर था। रास्ते में एक प्रवेश द्वार टाइप का बन रहा था। वहां एक बुजुर्गवार भी मिले जो एएसआई की तरफ से उस मंदिर का प्रवेश द्वार बनवा रहे थे।


मैंने उनसे पूछा कि यह कौन सी जगह है तो उनने बताया कि यह इलाका है किष्किन्धा का। और आप जिस जगह पर खड़े हैं वह है माल्यवान या प्रस्रवण गिरि। किष्किन्धा के राजा बालि को मार कर राम ने इसी पर्वत पर वर्षाकाल के चार महीने बिताए थे। मैंने पूछा, तब तो ऋष्यमूक भी होगा?

बुजुर्गवार ने तर्जनी सामने कर दी। सामने पत्थरों के आधिक्य वाला पर्वत था, जिसकी ऊंचाई तो बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन वह वही पर्वत था जिसका वर्णन वाल्मीकी रामायण और रघुवंश में है।
माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर का गोपुर फोटो- मंजीत ठाकुर


'तथा स बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषच्य च वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणब्रवीत्', वाल्मीकि. किष्किंधा पर्व 27,1।

एतद् गिरेमल्यिवतः पुरस्तादाविर्भवत्यम्बर लेखिश्रृंगम्, नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्धिप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम्', रघुवंश 13,26।

यानी यही वह पर्वत माल्यवंत है जिसपर राम रूके थे। उत्सुकता बढ़ गई थी। सामने ऋष्यमूक भी दिख रहा था। बनवारी लाल जी अभिभूत हुए जा रहे थे। अगर राम को भगवान न भी मानें, सिर्फ एक दिलेर इंसान बी मान लें, तो भी इन सभी किताबों में वर्णित जुगराफिये का कायल हुआ जा रहा था।



जारी।

Wednesday, October 23, 2013

किताबः द अलकेमी ऑफ़ डिज़ायर

किसी ने मुझे एक किताब उपहार में दिया था...द अलकेमी ऑफ डिज़ायर। लेखकः तरूण तेजपाल। पहली ही पंक्ति पढ़ी, दो जनों को बीच से जोड़ने वाला गोंद प्यार नहीं है, सेक्स है। ( लव इज़ नॉट द ग्रेटेस्ट ग्लू बीटविन टू पीपल। सेक्स इज़। )

किताब की पहली पंक्ति की इस स्थापना से हैरत हुई। पढ़ता चला गया। कुछ ऐसा हुआ कि अंग्रेजी की किताब को लगातार पढ़ नहीं पाया। व्यस्तताओं का दौर था। लेकिन पूरा पढ़ा, तो आखिरी पंक्ति, पहली पंक्ति की एंटी-थीसिस लगी।

दो लोगों को बीच से जोड़ने वाला गोंद प्यार है, सेक्स नहीं। (सेक्स इज़ नॉट द ग्रेटेस्ट ग्लू बिटविन टू पीपल, लव इज़।)

पूरी किताब इन्ही दो स्थापनाओं के बीच की कहानी है।

मैं शैली की इस किताब का नायक लेखक खुद ही लगते हैं, क्योंकि किताब के आखिरी पन्नों तक आते-आते नायक पोनी टेल वाला और दाढ़ी वाला हो जाता है। किताब प्रेम, कर्म, अर्थ, काम, सत्य के खंडों में बंटा है।

प्रेम से शुरूआत होती है, नायक और नायिका के हर पल के शारीरिक प्रेम से...इक दफा यौनसंबंध बनाने मे नाकाम नायक के साथ संबंध टूटने की शुरूआत होती है।

नायक लेखक ही है और उसकी नायिका फिज़ प्रेरणा। हर पल उसे लिखने की प्रेरणा देती हुई। इसी में बाद में आकर कैथरीन का प्रकरण भी जुड़ता है। शाही खानदान की गोरी अमेरिकन बहू अपने नौकर के साथ अराजक यौन संबंधों में लिप्त होती है। उस संबंध का अंत भी होता है।

इतिहास के एक टुकड़े को नायक जीता है और आखिरकार विभिन्न यौन आसनों, यौनांगो के विवरणों के बाद लेखक आखिरी पन्नों में स्थापित करता है कि सेक्स नहीं, प्रेम ही लोगों को जोड़ता है।

किताब की भाषा शैली सहज है, प्रवाहमान है। लेकिन कई जगह विवरण काफी बोझिल हो जाते हैं। और कई घटनाक्रम तो ऐसे हैं जिनका होना-न होना किताब के कथ्य पर कोई फर्क नहीं डालता। मसलन, एक लघु चित्र देने के लिए लेखक  का अमेरिका जाना।

सबसे बेहतर है, नायक और फिज़ का आपसी रिश्ता। किताब में एक जगह नायिक लेखक के लिए रोज़मर्रा के कामकाज की तालिका बनाती है, 

"सुनो तुम बहुत अच्छा लिखते हो, फिज़ ने लाल रंग की चमचमाती टाइपराइटर, बढिया कागज का रिम, पेंसिले जमाते हुए कहा। दैनंदिनी लिख कर टंग गई। हफ्ते में लेखन के पांच दिन, कोई फिल्म नहीं, काफ्का, जायस और फाकनर की रचनाएं नहीं पढ़नी हैं। सेक्स के बारे में नहीं लिखना है, क्यों कि इसका सही चित्रण मुश्किल है, हां गंदगी फैलाना आसान होता है। जो लिख रहे हो, उसकी चर्चा न करो...दुनिया में अपठनीय कूड़े की भरमार है, उसमें बढोत्तरी न करो। फिज़ की इस कठोर नियमावली के नीचे मैंने नोट लिख रखा था, लिखन जिंदगी नहीं, लेकिन फिज़ जिंदगी है। फिज़ ने पढ़ा, तो उसने 'नहीं' लफ्ज को काट दिया। दूसरे वाक्य में फिज़ जोड़ दिया। वाक्य बना, लिखना जिंदगी है, फिज़, फिज़ है।" --पुस्तक अंश।

नायक नायिका जब हिमालय की घाटी के गेथिया नामक जगह पर रहने के लिए आते हैं, तब उसे घर की पुरानी मालकिन की डायरियों से भरी पेटी मिलती है। तब खुलता है एक दूसरी दुनिया का, दूसरे वक्त का दरवाजा। अलकेमी ऑफ डिजायर एक दर्जन से ज्यादा भाषाओं में अनूदित हो चुका है। 

यह किताब सेक्स के बारे में बात करने से बचने की हमारी हिपोक्रेसी पर गहरे चोट करती है। यह एक ऐन्द्रिक किस्म का उपन्यास है। 

इस किताब का हिन्दी अनुवाद राजकमल ने छापा है, शिखर की ढलान नाम से. राजकमल से शिकायत इस बात की है कि अनुवादक का नाम महीन अक्षरों में कहीं छिपाकर छापा है, परिचय वगैरह भी नहीं है। दोयम, देवेन्द्र  कुमार ने अनुवाद तो तकरीबन ठीक किया है। लेकिन, यौनांगों के नाम जहां अंग्रेजी में धडल्ले से लिखे हैं, वहां उन्होंने डॉट्स छोड़ दिए हैं। 

हिंदी वालों को इस हिपोक्रेसी से बचना चाहिए। 

कुल मिलाकर अलकेमी ऑफ डिजायर को पढ़ना बनता है। आप चाहें, अंग्रेजी में पढ़ें या हिंदी में, बहुत ज्यादा फर्क नहीं है..लेकिन मूल अंग्रेजी की किताब अलग जायका देती है। अनुवाद तो अनुवाद है। 




Sunday, October 13, 2013

रामलीलाः चीर कर रख दूंगा लकड़ी की तरह

मंच  सजा था, बिजली की लड़ियों ने चकाचौंध मचा रखी थी। महागुन मेट्रो मॉल की विशाल इमारत की छत पर मैकडॉनल्ड का लाल रंग का निशान चमक रहा था। इस मॉल की आधुनिकता की चमक के ऐन पीछे मैदान में था मंच. बल्बों की नीली-पीली रौशनी के बीच भगवा रंग के कपड़ो में एक किशोर-सा अभिनेता लक्ष्मण बना हुआ था।

मंच पर मौजूद सारे अभिनेता, जिनमें एक विदूषक, कई वानर लड़ाके और कई राक्षस थे। हनुमान भी। सारे अभिनेता मंच पर हमेशा चलते रहते, तीन कदम  दाहिनी तरफ, फिर वापस मुड़कर, तीन कदम बाईं तरफ।

बीच बीच में कोई पंडितजीनुमा आदमी कोई निर्देश दे आता मंच पर जाकर। फिर मंच पर आवाज आती, उद्घोषक की, जिसे अपनी आवाज़ सुनाने में ज्यादा दिलचस्पी थी।

काले कपड़ो में सजे मेघनाद की आवाज़ में ज़ोर था, भगवा कपड़े में सजे लखन लाल की आवाज़ नरम थी। लेकिन तेवर वही...दोनों के बीच संवाद में शेरो-शायरी थी। एक ललकारता...दूसरा उसका जवाब देता।

लखन लाल चीखे, अरे क्या बक-बक करता है बकरी की तरह, चीर कर रख दूंगा, लकड़ी की तरह
भीड़ ने जोरदार ताली बजाई।  एकदिन पहले हुई बारिश की वजह से मैदान गीला था...लेकिन मैदान में खासी भीड़ थी।

सोच रहा था कि क्या दिल्ली में भी लोग इतने खाली हैं, या फिर कुछ तो ऐसा है इन आधुनिक शहरियों को अपनी ओर खींच रहा है। रामलीला के बगल में, एक जगह ऑरकेस्ट्रा का आय़ोजन है। लडकी बांगला गाने गा रही है, और लगभर सुर के बाहर गा रही है।

वह भीड़ से पूछती है, केनो, हिंदी ना बांगला...भीड़ के अनुरोध पर वह हिंदी में गाती है। लौंडिया पटाएंगे, फेविकोल से...मेरे मित्र सुशांत को पूजा के पवित्र पंडाल में यह शायद अच्छा नहीं लगा होगा। मैं तर्क देता हूं कि यह मास कल्चर है। मास को पसंद कीजिए, हर जगह तहज़ीब की पैकेजिंग नहीं चलेगी।

यह सही है। यही सही है। आम आदमी, जिसके लिए राम लीला के पात्रों ने हिंदुस्तानी बोलना शुरू  कर दिया। संवादों के बीच में ही, मानस की चौपाईयां आती है, जो माहौल में भक्ति का रंग भरने के सिवा कुछ और नहीं करतीं।

अगल बगल गुब्बारे, हवा मिठाई, गोलगप्पे...प्लास्टिक के खिलौने...चाट, भेलपूरी। मुझे मधुपुर की याद आई।

दृश्य़ दोः हमारे घर के पास ही एक दुर्गतिनाशिनी पूजा समिति है। दुर्गा की मूर्त्ति के सामने बच्चों के नाच का एक कार्यक्रम है। यह समिति पहले उड़िया समुदाय के लोगों के हाथ में थी, अब उस समिति में बिहारी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, यूपी के सभी समुदायों के लोग है।

सभी घरों के बच्चे नाच रहे हैं, महिलाएं हैं...मेयर साहब आते हैं..। जय गणेशा गाने पर नाचने वाला लड़का बहुत अच्छा नाच रहा है। मैं पहचानता हूं उसे, वह बिजली मिस्त्री है। रोज पेचकस कमर में खोंसे शिवशक्ति इलेक्ट्रिकल्स पर बैठा रहता है। मुसलमान है।

अब किसी को फर्क नहीं पड़ा कि  नाचने वाला लड़का किस धर्म का है। किसी को फर्क नहीं पड़ा कि दुर्गा जी ने जिस महिषासुर को मारा है मूर्ति में...उसकी जाति और उसके समुदाय को लेकर बौद्धिक तबका बहस में उलझा है। जनता को फर्क नही पड़ता कि दुर्गा ने किसको मारा है।

देश उत्सवधर्मियों का है, उत्सव मनाते हैं हम।

इसमें विचारधारा को मत घुसेडिए। दुर्गा पूजा को एक प्रतीक भर रहने दीजिए। इसके सामाजिक संदर्भों को देखिए, इसमें और समुदायों को मिलाइए...और सांप्रदायिकता, राम को सांप्रदायिक बना दिया है आपने, अब दुर्गा को भी मत बनाइए।

यह आम लोगों को उत्सव है...उत्सव ही रहे। ऑरकेस्ट्रा बजता रहे, सुर बाहर लगे, कोई दिक्कत नहीं, जय गणेसा पर नाचते रहें लोग...बस।

Thursday, October 3, 2013

बिहारी होने की परिभाषा को बदलिए मीलॉर्ड!



भगवान की कसम खा कर कहता हूँ भाई, हम वो बिहारी नहीं हैं जो लालू बताते रहे हैं आपको। हम वो बिहारी हैं जैसा दिनकर, नागार्जुन, विद्यापति ने आपको बताया होगा।

सच कह रहा हूँ भाई, हम वैसे नहीं ठठाते हैं जैसा लालू ठठाते थे, हम वैसे मुस्कुराते हैं जैसे बुद्ध मुस्कुराते थे। आप तय मानिए भाई, वो लाठी हमारी पहचान कभी नहीं रही जिसे लालू ने चमकाया था। हमारे पास तो वो लाठी थी जिसे थाम कर मोहनदास, 'महात्मा' बन गए।

अब तो मान लीजिये प्लीज़ कि हमारी वीरता 'भूराबाल' साफ़ करने में नहीं थी, हम तो 'महावीर' बनना सीखते रहे थे। माटी की कसम खा कर कह रहा हूँ साहब, हम कभी 'बिहारी टाईप' भाषा नहीं बोलते रहे हैं। हम मैथिली-भोजपुरी-मगही-अंगिका-बज्जिका बोलते हैं सर। 

तय मानिए सर हम चारा नहीं खाते, गाय पालते हैं। सच कह रहा हूँ मालिक, हम लौंडा नाच नहीं कराते, सोहर-समदाउन और बटगबनी गाते हैं भाई। 

हम घर नहीं जलाते भाई, सच कह रहा हूँ, सामा-चकेवा के भाई-बहन के पावन त्योहार में हम चुगले (चुगलखोर) को जलाते हैं। आप मानिए प्लीज़ कि लालू हमारे 'कंस' महज़ इसलिए ही नहीं हैं की वे पशुओं का चारा खा गए। वे हमारे लिए बख्तियार खिलजी इसलिए हैं क्यूंकि उन्होंने हमारी पहचान को जला डाला, हमारी पुस्तकें जला डालीं, हमारी सभ्यता, संस्कृति सबको लालूनुमा बना डाला। 
 
तय मानिए प्रिय भारतवासियों, हम भी उसी देश के निवासी हैं जिस देश में गंगा बहती है। लालू के 'बथानीटोले' का बिहार दूसरा था जहां खून की नदियाँ बह गयी थी, हमारा तो दिनकर वाला सिमरिया है जहां के गंगा किनारे कोई विद्यापति गाते थे 'बर सुखसार पाओल तुअ तीरे....! 

नयनों में नीर भर कर हम अपने उसी बिहार को उगना की तरह तलाशते हुए द्रवित हो पुकार रहे हैं 'उगना रे मोर कतय गेलाह.' ठीक है अब चारा वापस नहीं आयेगा. हम जैसे लोगों का भविष्य लौट कर नहीं आयेगा. लेकिन प्लीज़ सर, प्लीज़ प्लीज़ हमारी पहचान लौटा दीजिये. 'भौंडे बिहारीपना' की बना दी गयी मेरी पहचान को सदा के लिए बिरसा मुंडा जेल में ही बंद कर दीजिये मेरे भाई. त्राहिमाम.

--पंकज कुमार झा के फेसवुक वॉल से
Top of Form
Bottom of

Wednesday, September 25, 2013

हमारा नवाज़!

सिनेमा के परदे पर, हर चेहरा चमकता है। कुछ ही चेहरे होते हैं जिनको देखकर आंखों में चमक आती है। लगता है कि यार, सामने जो ऐक्टिंग कर रहा है, बंदा मुझ-सा ही दिखता है। नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी तुम ऐसे ही हो।

पहले भी देखा था तुम्हें, लेकिन ग़ौर किया था फिल्म 'कहानी' में। ख़ान का किरदार, वो बेसाख़्ता अदा, वो दिल में नश्तर लगा देने वाली अदाकारी, लगा, यार इस आदमी में दम है।

आदत है कि कई दफ़ा, देखी हुई और पसंदीदा फिल्में दोबारा-तिबारा देखता हूं। तो एक दिन पीपली लाइव में तुम दिख गए, पहली बार पीपली में गौर नहीं कर पाए थे। हम आम आदमी हैं, रघुवीर यादव में उलझकर रह गए थे। बाकी बचा माल नत्था ले उड़ा था। राजेश नाम के स्ट्रिंगर के किरदार में, जब पहचान में आए तब से नवाजुद्दीन, तुम एक अदाकार नहीं रहे, हमारे हो गए। अपने। हमारा नवाज़।

फिर तो तुम को हर जगह खोजा, तलाश में मिले। फिराक़ में भी दिख गए और न्यू यॉर्क में भी। और तब आई, गैंग्स ऑफ वासेपुर। पहली फिल्म मनोज के वास्ते देखी थी, तो तुम्हारे लिए भी। दूसरे हिस्सें में तो यार तुम ही तुम थे। तुम ही तुम।

ऐसे कैसे चंट गंजेड़ी थे तुम, कैसे महबूबा का हाथ पकड़ने के दौरान तुम जैसे शातिल क़ातिल की आंखों में आंसू आ गए थे। बताओ तो ज़रा। अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे भी याद आई, तुम उसी के तेवर वाले हो। अनुराग कश्यप के साथ फिल्में करना, उसका मिजाज़ और तुम्हारी अदाकारी में एक साम्य है। 

क़ातिल तो हो तुम। बढ़िया अदाकारों की तलाश जिन्हे है, वो तुम्हारी हर फिल्म देखेंगे। हमने तो वो भूत वाली भी फिल्म देखी। फिर एक दिन यूट्यूब पर झांकते वक्त पता चला, आमिर की सरफरोश में तुम 45 सेंकेंड के एक किरदार में थे। फिर पता चला, मुन्ना भाई एमबीबीएस में तुमने एक जेबकतरे की भूमिका निभाई थी, जिसे पिटने से सुनील दत्त बचाते हैं।

45 सेंकेंड का किरदार, और अब तुम्हारी फिल्में, 45 हफ्ते चला करेंगी। हम तुम्हारे दीवाने हो गए हैं नवाज़, काहे कि हमने तुम्हें पतंग में भी देखा और लंचबॉक्स में भी। हमने तो तुम्हे उस शॉर्ट फिल्म बाईपास में भी देखा, यार इरफान को कोई टक्कर दने वाला, उसकी आंख से आंख मिलाकर एक्टिंग करने वाला कोई शख्स है तो तुम हो।
चाहे बाईपास हो, पान सिंह तोमर हो या फिर लंचबॉक्स। इरफ़ान के साथ तुमको देखना अच्छा लगता है।

दोनों ही आम इंसानों जैसे लगते हो ना, यही वजह है। वरना, लिपस्टिक लगाकर रोमांस करने वाले हीरो को देखता हूं, हंसी कम आती है गुस्सा ज्यादा आता है।

अच्छा, याद आय़ा, बॉम्बे टॉकीज़ में भी तुम थे...लेकिन तुम्हारे सामने चुनौती है कि तुम करन जौहर किसी फिल्म में आकर दिखाओ। एक्टर के लिए हर चुनौती पार करना जरूरी है। तुम्हारी कला फिल्मों के लिए तो हम तैयार हैं ही, हम देखना चाहते हैं कि चमक-दमक वाली फिल्मों में एक आदमी, कैसा दिखता है। कैसा दिखेगा, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने वाला हमारा नवाज़।

 आर्कलाइट की चमक में इतने सहज कैसे रहते हो यार। यहां तो छुटके टीवी कैमरे के डिम-की लाईट में लोग चौंधिया जाते हैं, असहज हो जाते हैं और उल्टा-सीधा न जाने क्या बक जाते हैं।

एक अलग सा स्कूल है ना, बलराज साहनी, ओम पुरी, अनुपम खेर, अमरीश पुरी, इरफ़ान वाली परंपरा...तुम थियेटर वाले उन लोगों की परंपरा के अगले वाहक हो। 

एनएसडी को नाज़ है तुम पर। हमें भी। अभिषेकों, शाहरूखों और हृतिक रौशनौं के दौर में तुम परदे पर हम जैसे आम इंसानो का अक्स हो, नवाज़। तुम, तुम नहीं हम हो।


Wednesday, September 18, 2013

गुलाबों के दौर में कैक्टस काया!

बारिश का मौसम था। कार सांप की तरह बलखाई काली कोलतार की सड़क के किनारे खड़ी थी। मिट्टी लाल रंग की थी, और बारिश की वजह से और ज्यादा लाल हो गई थी। लड़का हरी झाड़ियों में घुस गया।

झाड़ियों में घुसकर पता नहीं धतूरा, भटकटैया, ओक और न जाने क्या-क्या अलाय-बलाय फूल बटोर लाया। लड़की को भेंट दी। लड़की ने रख लिया। डायरी के पन्नों में छिपाकर रख लिया।

लड़के ने वायदा किया कि उसके जन्मदिन पर गेहूं की दो बालियां भेंट करेगा। लड़का गेहूं की बालियां भेंट नहीं कर पाया। क्यों, ये सवाल अलहदा है। लेकिन वह एक सवाल छोड़ गया।

प्रेमिका के कोमल हाथों में जाने का सुख सिर्फ गुलाब ही को हासिल क्यों हो। यह भावनाएं भटकटैया या धतूरे या ओक को हासिल क्यों न हो। और बात सिर्फ प्रेमिका के हाथों में जाने की ही नहीं है।

बात है कि लोग कैक्टसों, नागफनियों, भटकटैयों, धतूरों से डरते क्यों है। धार्मिकों को तो इनसे प्रेम होना चाहिए। आपके आराध्य महादेव के प्रिय फूल हैं ये। लेकिन नहीं, महादेव से कुछ मांग लेना, और बेलपत्रो से बेल से भांग से लिंग की पूजा या मूर्त्ति की पूजा कर लेना एक बात है, जीवन में उतार लेना दूसरी।

ज़हर पीना हो, तो पिएं खुद महादेव, बनें नीलकंठ। हमें क्या। हम सुविधाभोगी लोग है, खुद में से कैक्टस चुनकर उनको जहर पीने के लिए आगे कर देते हैं। हर युग में नीलकंठों की जरूरत होती है, ऐसे नीलकंठो की जिनको नाग पसंद होते हैं, नागफनी पसंद होती है, जिनका कपड़ों से नहीं, छाल से काम चल जाता है, जिनको बेलपत्र-भंग-बेल ही नसीब होता है। और बाद में अमृत हासिल करने वाला समुदाय जहर उनके हवाले कर जाता है। हर युग में बंदर पुल बनाते हैं, राम जाकर रावण मार आते हैं, पुल तो राम के नाम का हो जाता है।

बंदर मर जाते हैं। उनका नामलेवा तक कोई नहीं, कितने बंदर पत्थरों में दब गए। युद्ध में कितने मरे, कोई इंडिया गेट नहीं बना, कहीं नाम नहीं खुदा। कैक्टस थे सबके सब। खुद उग आए थे। खुद उगगें तो कौन रखेगा खयाल।

कैक्टस होना, सरकारी स्कूलो में पढ़ने वाले बच्चों की तरह है। जड़ में कौई खाद डाल रहा है, पानी डाल रहा है, या कौन जाने दोपहर के खाने के नाम पर जहर ही परोस रहा हो, कौन जाने पोलियो की बजाय हेपेटाटिस का टीका ड्रॉप बनाकर पिला जाए। देवताओं की कमी नहीं, गुलाबों की कमी नहीं.. ये दुनिया ही गुलाबों ने अपनेलिए बनाई है। ये दुनिया देवताओं ने अपने लिए गढ़ी है।

इसमें नागफनियों के लिए स्पेस नहीं है।

देवताओं की दुनिया में गुलाबो की दुनिया में फ्लाईओवर हैं, वहां साइकिल के लिए स्पेस नहीं है। गुलाबों की दुनिया में नजाकत है नफासत है, वहां भदेस होना बेवकूफी है, वैसे ही जैसे हाथ से खाना।

 कैक्टस को आजकल गमलों में लगाते हैं। नहीं, गमलों में लगने के लिए बना ही नहीं है कैक्टस।

बिना खाद बिना पानी, बिना माली के खुद उगता है कैक्टस। इसकी नियति है, सुनसान में उगना, औरजब फूलता है तो इसका सौन्दर्य किसी कदर गुलाब से कम नहीं होता। निराला ने इसी वजह से तो गरिआया है गुलाब को,

अबे सुन बे गुलाब,
भूल मत गर पाई खुशबू
रंगो-आब।
---
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर बैठा इतरा रहा कैपिटलिस्ट।

कैक्टस को देखिए, कांटों से भरा होता है। कांटे तो गुलाब मे भी होते हैं, लेकिन वो होते है गुलाब की रक्षा के लिए। उन कांटो की जो नज़ाकत होती है ना फूल तो फूल, कांटा भी नफीस-सॉफिस्टिकेटेड लगता है। नागफनी का कांटा छू लीजिए कभी। बिच्छू के दंश सा होता है। नानी जीवित हो दिवंगत, याद आनी तय है।

तो ग़िला किस बात का, किस बात की शिकायत, अगर आपके अंदर है नागफ़नी तो फिर किसी की परवाह क्यों...शान से सर उठा कि जिएं। बाजुओं में ताकत तो होगी ही, फिर काहे के लिए किसी को मुंह जोहना...।

लड़का इत्ता भाषण देकर सड़क के किनारे बैठ गया। लाल मिट्टी में अदरक बहुत बढ़िया होती है, हल्दी भी। देसी जंगली हल्दी औषधीय गुणो की होती है। उसकी खुशबू...पैकेट वाली हल्दी से एकदम अलहदा। लड़की के हाथ में एक और भटकटैया का फूल थमाया उसने, शीशे पर नज़र गई तो देखा उसका खुद का गला नीला-नीला सा हो रहा था।





Sunday, September 15, 2013

अनंत पथः दो तस्वीरें

Road to Nowhere! अनंत पथ फोटोः रोहन सिंह

Standing Tall  गर्वोन्नत (फोटोः रोहन सिंह)

Monday, September 2, 2013

एक शाम होटल ताज पैलेस वाया गांव जारपा, नियामगिरि

दिल्ली। जगहः दरबार हॉल, होटल ताज पैलेस। वातानुकूलित हॉल, रंग-बिरंगी रोशनी। मेरी औकात को अच्छी-तरह समझता बूझता वेटर मेरे पास आकर मुझे जूस, और रोस्टेड चिकन के लिए पूछता है। किसी ट्रैवल मैगजीन ने पुरस्कारों का आयोजन है।

आयोजन शुरू होने में देर है। कई होटल वालों को पुरस्कार मिलना है। कयास लगाता हूं कि ये वो लोग होंगे जो उक्त पत्रिका में विज्ञापन देते होंगे। एक मंत्री भी आने वाले हैं, दो फिल्मकार हैं। जिनमें से एक के नाम पर पुरस्कार है, दूसरे को पुरस्कार दिया जा रहा है।

बिजली की चमक मुझे चौंधियाती है। बगल की टेबल पर बैठी एक लड़की ने काफी छोटी और संकरी हाफ पैंट पहनी है। उसके पेंसिल लेग्स दिख रहे हैं। उसकी किसी रिश्तेदार ने पता नहीं किस शैली में साड़ी पहनी है, ज्यादा कल्पना करने के लिए गुंजाईश नहीं छोड़ी है। साथ में तेरह-चौदह साल का लड़का अपनी ही अकड़-फूं में है।

दोनों सम्माननीया महिलाओं के बदन पर चर्बी नहीं है। हड्डियां दिख रही हैं, कॉलर बोन भी। डायटिंग का कमाल है। जी हां, मैं उक्त महिला के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए उनके बदन की चर्बी नाप रहा था। वो बड़ी नज़ाकत से जूस का सिप ले रही हैं। वो हाफ पैंट वाली कन्या बार टेंडर से कुछ लाकर पी रही है...शायद वोदका है। वो  कैलोरी वाला कुछ नहीं खा रहीं।

मै शरीर से दरबार हॉल में हूं। मन मेरा अभी भी नियामगिरि में हूं, जरपा गांव में। मेरे दिलो-दिमाग़ में अभी जरपा गांव ताजा़ है। हरियाली का पारावार। जीवन में इतनी अधिकतम हरियाल एक साथ देखी नहीं थी। नियामगिरि  के जंगलो में डंगरिया-कोंध जनजाति रहती है। मर्द औरतें दोनों नाक में नथें पहनती हैं, महिलाएं भी कमर के ऊपर महज गमछा लपेटती हैं कपड़े के नाम पर। दो वजहें हैं--अव्वल तो उनकी परंपरा है, और उनको जरूरत भी नहीं। दोयम, तन ढंकने भर को कपड़े उपलब्ध हैं।

तन भी कैसा। कुपोषण से गाल धंसे हुए। डोंगरिया-कोंध लोगों की आबादी नहीं बढ़ रही क्योंकि छोटी बीमारियों में भी बच्चे चल बसते हैं। गांव में सड़क नहीं, पीने का पानी नहीं, बिजली वगैरह के बारे में तो सोचना ही फिजूल है। जारपा तक जाने में हमें जंगल में बारह किलोमीटर चढ़ना पड़ा।

अभी तो नियामगिरि बवाल बना हुआ है। वहां का किस्सा-कोताह यह है कि वेदांता नाम की कंपनी को लान्जीगढ़ की अपनी रिफाइनरी के लिए बॉक्साइट चाहिए। नियामगिरि में बॉक्साइट है। लेकिन नियामगिरि में आस्था भी है। डोंगरिया-कोंध जनजाति के लिए नियामगिरि पहाड़ पूज्य है, नियाम राजा है।

तो छियासठ साल बाद, सरकार को सुध आई कि इन डोंगरिया-कोंध लोगों का विकास करना है, उनको सभ्य बनाना है। इसके लिए इस जनजाति को जंगल से खदेड़ देने का मामला फिट किया गया। योजना बनाने वाले सोचते हैं कि भई, जंगल में रह कर कैसे होगा विकास?

लेकिन डोंगरिया-कोंध को लगता है विकास की इस योजना के पीछे कोई गहरी चाल छिपी है। कोंध लोगों को अंग्रेजी नहीं आती, विकास की अवधारणा से उनका साबका नहीं हुआ है, उनको ग्रीफिथ टेलर ने नहीं बताया कि जल-जंगल-जमीन को लूटने वाली मौजूदा अर्थव्यवस्था आर्थिक और पर्यावरण भूगोल में अपहरण और डकैती अर्थव्यवस्था कही जाती है।

डोंगरिया कोंध जनजाति के इस लड़ाके तेवर पर नियामगिरि सुरक्षा समिति के लिंगराज आजाद ने कहा था मुझसे, आदिवासियों के बाल काट देना उनका विकास नहीं है। आदिवासी अगर कम कपड़े पहनते हैं और यह असभ्यता की निशानी है,तो उन लोगों को भी सभ्य बनाओ जो कम कपड़े पहन कर परदे पर आती हैं।

लिगराज आजाद को शायद यह इल्म भी न रहा होगा कि कम कपड़े पहने लोग सिर्फ सिनेमाई परदे पर ही नहीं आते। कम कपड़े पहनना सच में सभ्यता की निशानी है, कम कपड़ो से व्यक्तिगत तौर पर मुझे कोई उज्र नहीं है। लेकिन किसी को इसी आधार पर बर्बर-असभ्य कहने पर मुझे गहरी आपत्ति है।

दरबार हॉल की महिला के उभरे हुए चिक-बोन्स और डंगरिया लड़की के गाल की उभरी हुई हड़्डी में अंतर है। वही अंतर है, जो शाइनिंग इंडिया में है, और भारत में। इन्ही के भारत का निर्माण किया जा रहा है। 66 साल बाद याद आया कि भारत का निर्माण किया जाना है।

मन में सवाल है, अब तक किस भारत का उदय हुआ, किसकों चमकाया आपने, जो शाइनिंग है वो किसकी है। वेदांता, पॉस्को, आर्सेलर मित्तल ने किसके लिए लाखों करोड़ लगाया है भला।

मेरे खयालों का क्रम टूटता है, वह वोदका पीने वाली कम कपड़ो वाली कन्या और सिर्फ साड़ी (ब्लाउज स्लीवलेस था) कहने आदरणीया महिला मेरी तरफ देख रही हैं...मैं उनकी मुस्कुराहट पर नज़र डालता हूं, नकली है, बनावटी है। कसरत की वजह से धंसे गालों में रूज़ की लाली है, नकली है। जरपा गांव में मेरे पत्तल पर भात और पनियाई दाल डालने वाली आदिवासी कन्या की मुस्कुराहट याद आ रही है...उसके धंसे गालों में से सफेद दांत झांकते थे, तो लगा था यही तो है मिलियन डॉलर स्माइल। उसकी मुस्कुराहट...झरने के पानी की तरह साफ, शगुफ़्ता, शबनम की तरह पाक।

जरपा तुम धन्य हो।




Saturday, August 24, 2013

अथ तिलचट्टा लव स्टोरी

एक था तिलचट्टा। एक थी तितली। तिलचट्टा, कत्थई रंग का। उसे कत्थई रंग बहुत पसंद था। तितली पीले रंग की थी। जहां बैठती, पंख ऊपर करके। नब्बे डिग्री पर। पंख थे कि फूलों की पंखुड़ी...पीला रंग था या फूलों का पराग, आसमान ही जाने।

तिलचट्टा उड़ भी सकता था। लेकिन उड़ान छोटी हुआ करती। तितली को जिस दिन से देखा ता तिलचट्टे ने, बस दीवाना हो गया था। डरता भी था, कहां तितली, कहां तिलचट्टा। कहां गुलाब, कहां कुकुरमुत्ता। कहां ट्यूलिप, कहां धतूरा।

तितली उड़ती तो यूं बलखाती कि देखने वाले देखते रह जाते।

तिलचट्टा, कूड़े में पैदा हुआ था। उसकी सोच का विस्तार भी कूड़े तक ही था। कूड़े में रहने वालों तक, कूड़ा बीनने वालो तक, कूड़ा पैदा करनेवालों से उसे कत्तई सहानुभूति न थी...लेकिन कूड़े में रहने वालों के लिए वह संघर्ष करता रहता। तिलचट्टा था भी अजीब...इंटेलेक्चुअल किस्म का।

लेकिन कैसा भी इंटेलेक्चुअल क्यों न हो, ससुरा दिल तो दिल है। तितली को देखा तो बस वो भी वैसे ही देखता रहा गया। लेकिन उसके देखने और बाकियों के देखने में फर्क था। तिलचट्टे ने ज्यों ही तितली को देखा, लगा इसको तो देखा है कहीं...कभी। जबकि सच बात ये थी कि दोनों कभी मिले नहीं थे।

तिलचट्टे की तमाम उम्र फाकाकशी में कटी थी। तितली देखकर हिम्मत जवाब दे गई। तितली का चेहरा धूसर  रंग का था, नुकीले टेंटाकल्स थे...आंखें कत्थई थीं। यही कत्थई रंग तिलचट्टे को अपना-सा लगा था। तितली की आंखों में सच्चाई थी। तिलचट्टे का दिल साफ-सुथरा था।

प्रेम तो साफ-सुथरा ही होता है।

लेकिन एक दिन यूं ही, जब मौसम सावन का था और अंधे को भी हरियाली सूझ रही थी, तिलचट्टे ने टुकड़ों-टुकड़ो में अपने दिल का हाल बयां कर दिया। चाय में चीनी घुलाते हुए तितली ने रीझकर रूमानियत का सबब पूछा था, तो जवाब में तिलचट्टा भी बस मुस्कुरा ही पाया था।

पेड़ बारिशों में धुल चुके थे। लताओं ने पेड़ों को भी छांव दे रखी थी। कांच के बाहर बारिश की बूंदो ने मोतियों की माला जड़ दी थी, और तिलचट्टे को लगा कि ये माहौल कितना दौलतमंद हो गया है।

तिलचट्टे ने देखा था, बरस रहे बादल थोड़ी देर के लिए सुस्ताने लगे थे, बारिश खत्म नहीं हुई थी, रूकी भर थी। उसे लगा कि ये जो तितली है वह तो रवानी वाली ऐसी दरिया है जिसके पानी की प्यास नहीं उसे।

तिलचट्टे और तितली घड़ी भर साथ रहे, दो घड़ी भर।  लेकिन, तिलचट्टा अब जब भी पंख फैलाता, फड़फड़ाहट की जगह संगीत सा उठता। तिलचट्टा उड़ तो सकता था, लेकिन लंबी उड़ान नहीं। तितली ने कहा, तुम्हे लंबा उड़ना होगा। गोकि तुम तिलचट्टे हो, लेकिन उड़ना तो तुम्हें होगा ही, तेरी किस्मत में कूड़े का ढेर नहीं है।

तिलचट्टा उड़ने की कोशिश में लगा रहा। पीली तितली साथ रहती। वह उड़ने लगा। भाग मिल्खा भाग के मिल्खा सरीखा, टायर पीछे बांधकर। ताकि कभी, जब वो तितली के साथ उड़े तो कदम पीछे न रह जाएं।

एक शाम जब तितली के पीछे से सूरज को रौशनी आ रही थी, तितली का पीला रंग आफताबी हो गया। तितली पिघलने लगी। तितली का रंग भी तिलचट्टे सरीखा होने लगा।

तितली पिघलकर गिलास में ढल गई। तिलचट्टे को ऐसा नशा कभी न हुआ था। नशा ऐसा मानो, दुनिया भर की तमाम शराब की बोतलें गटक गया हो...। प्रेम का नशा कुछ ऐसा ही होता है बरखुरदार, एक बुढाए तिलचट्टे ने कहा।

तिलचट्टा अब कुछ किरदार गढ़ रहा है। कुकुरमुत्तों, धतूरे के फूलों, भटकटैया को जमा कर रहा है, चींटियों की सेना खड़ा कर रहा है। तितली ने कहा है, प्यारे तिलचट्टे, तुम दुनिया बदल सकते हो। तिलचट्टा इन्हीं से दुनिया बदलेगा...तिलचट्टा उड़ने लगा है, उसके पंखों में तितली की सी चपलता आ गई है, भौंरो की ताकत आ गई है, उसके पास तितली का रंग है।

तितली की दोस्त फूलों ने अपनी गंध दी है। उसे कूड़े का ढेर भी पसंद है, और तितली की नजाकत भी।

बादल गहरे रंग के हो गए हैं। बारिश का पानी फिर है। रेल की पटरियां समांतर दूरी पर तो हैं, लेकिन साथ हैं...सूरज डूब रहा है, आसमान सिंदूरी हो रहा है। दुनिया बदल रही है...


--जारी

Thursday, August 15, 2013

जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं...



शिकायत करना हम देशवासियों का शगल है। मैं कोई शिकायत करने नहीं जा रहा। हिलती-डुलती गाड़ी के एसी के दूसरे दर्ज़े में बैठा हूं। उड़ीसा जा रहा हूं। सामने की सीट पर एक बुजुर्गवार बैठे हैं। साथ में उनका घरेलू कामगार है, किसी उड़िया जनजाति का लड़का है। बच्चा ही है। बुजुर्गवार की पत्नी साथ में है

बुजुर्ग दंपत्ति के कपड़ों से लगता है काफी साधारण घरों के हैं। खादी का मोटा कुर्ता, धोती कभी सफेद रही होगी। गले में खादी का मोटा गमछा। रंग ताम्रवर्णी। बाल श्वेत हो चले। भौंहे तक सफ़ेद। बीवी के हाथों में कांच की चूड़ियां। बैंगनी रंग की साधारण सूती साड़ी। दोनों के पांव में हवाई चप्पलें हैं। नौकर के पैरों में जो हवाई चप्पल है उस पर फेसबुक लिखा है।

मैं भी गपोड़ हूं और शायद सामने बैठे बुजुर्गवार भी। हम दोनों के बीच आईटीओ पार करते ही बातचीत शुरू हो गई थी। अभी हम भद्रक पहुंचने वाले हैं पत्नी सारे रास्ते चुप बैठी है। एक गंवई पत्नी की तरह।

कोच अटेंडेंट आता है। मुझसे बात करते वक्त उसके एक वित्तीय आदर है। उस आदर में शाम को मेरे उतरने के वक्त मिलने वाली टिप की उम्मीद का बोझ है। वही अटेंडेंट आकर उनसे ऐसे बात करता है मानो बहुत दिनों से जानता हो। पूछता है, बहुत दिनों बाद आए।

मैं पूछता हूं, आप दिल्ली बार-बार आते हैं क्या। हां। इसके बाद बातचीत महंगाई, नक्सल, जनजातियों की समस्या, वेदांता, कोरापुट, नक्सल, राहुल गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह तक पहुंच जाती है। बुजुर्गवार को महीन जानकारियां हैं।

मेरे बारे में बहुत पूछताछ करते हैं। कहां के हो, कौन है घर में...लेकिन इस पूछताछ में एक बुजुर्गाना लाड़ और आह्लाद है। अब मैं पूछता हूं आप..? तब बताते हैं कि उनका नाम अनादिचरण दास है। पांच बार सांसद रह चुके हैं। आखिरी बार सन् 91 लोकसभा जीते थे। पहली बार 71 में जीते थे। अपने बारे में बस इतना ही बताते हैं।

मैं सादगी देखकर दंग हूं। अब तो हाल यह है कि पहली बार विधायक बनकर लोग खदानें खरीद रहे हैँ। पांच बार सांसद चुना जा चुका शख्स हवाई चप्पल पहन रहा है। एसी के दूसरे दर्जे में सफर कर रहा है। चेहरे पर दबंगई का कोई भाव नहीं है।

मैं सोचता हूं आजादी का जश्न पूरे भारत में मनाया जा रहा होगा। लेकिन, पटवारी से लेकर विभिन्न मंत्री भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। वह बुझे मन से कहते हैं, किसी ने कहा है राज्यसभा की सीट सौ करोड़ में बिकती है। हामी भरने के सिवा कोई चारा नहीं है मेरे पास।

रात में गूगल किया था मैंने, अनादि चरण दास को खोजा गूगल पर। मिल गए। उड़ीसा के जाजपुर सीट से सन् 1971, 1980 और 1984 में कांग्रेस के टिकट पर चुने गए थे, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ी, विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ जनता दल गए, वहीं से दो बार 1989 और 1991 में चुनाव जीता। 1996 में फिर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन जनता दल की आंचल दास से चार हजार वोटों से हार गए। फिर उम्र के तकाजे के साथ राजनीति छोड़ दी। जाजपुर-कोरापुट इलाके में अनादिचरण दास एक मजबूत उम्मीदवार माने जाते थे। लेकिन, उनके पास आज दौलत के नाम पर कुछ नहीं।

कहते हैं कि हर महीने वंचितों, गरीबों, जनजातियों के आर्थिक उत्थान के लिए हर महीने योजना आयोग और सोनियां गांधी को चिट्ठी लिखते हैं। पता नहीं पढ़ी भी जाती है या नहीं। पेट्रोल के दाम बढ़ाने के पक्ष में हैं, कहते है इसका पैसा एससी-एसटी बच्चों की शिक्षा के लिए करना चाहिए।

गुरूदत्त की फिल्म प्यासा का एक गीत याद आ रहा है, जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं....ईमानदारी को गूगल पर खोजता हूं। इसे खोजने में तो गूगल भी नाकाम है।

Saturday, August 10, 2013

किसान आत्महत्याः कर्नाटक भी है किसानों की क़ब्रगाह

कर्नाटक में गुलबर्गा जिले के जाबार्गी बाजार में हूं...दरअसल बाजार से थोड़ी दूर है वह जगह। आप चौराहा जैसी जगह कह सकते हैं। सड़के के किनारे बीजेपी के निवर्तमान मुख्यमंत्री (चुनाव के वक्त के मुख्यमंत्री) और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लिंगायत नेता जगदीश शेट्टार की रैली है।

सूरज ढल रहा है, गरमी बरकरार है। जगदीश शेट्टर मंच पर हैं, सड़कों पर धूल उड़ रही है, रैली खचाखच भरी है। आसपास अपनी गहरी नज़र से देखता हूं, क्या यह भीड़ खरीदी हुई है...लोगों के चेहरे से पता नहीं लगता। हर चेहरा पसीने से लिथड़ा है...किसी चेहरे पर कुछ नहीं लिखा है। सौम्य जगदीश शेट्टर मंच से कन्नड़ में कुछ कहते हैं, (बाद में पता चला, वो कह रहे थे एक लिंगायत को वोट देंगे ना आप?) जनता की तरफ से आवाज़ आती है आवाज नहीं, हुंकार।

स्थान परिवर्तन। जगहः बेल्लारी जिला. हासनपेट, राहुल गांधी की रैली। बांहे चढ़ाते हुए राहुल हिंदी में भाषण दे रहे हैं। पूछते हैं, घूसखोर और बेईमान येदुयरप्पा और उनकी पार्टी (चुनाव से पहले की) बीजेपी को हराएँगे ना आप..जनता फिर हुंकार भरती है। 

यहां भी लोगों के चेहरे पर उदासीनता थी। लेकिन हेलिकॉप्टर की आवाज ने  एक उत्तेजना तो फैलाई ही थी।

इस दौरे में उत्तरी कर्नाटक के जिस भी जिले में गया, चुनावी भागदौड़ के बीच हर जगह एक फुसफुसाहट चाय दुकानों पर सुनने को मिली। कन्नड़ समझ में नहीं आता था, लेकिन स्वर-अनुतानों से पता चल जाता था कि खुशी की बातें तो हैं नहीं।

कारवाड़, बीजापुर, गुलबर्गा, बीदर...सूखा था। किसानों की आत्महत्या के किस्से भी। 

बीजापुर के एक गांव नंदीयाला गया। इस गांव में पिछले साल एक किसान लिंगप्पा ओनप्पा ने आत्महत्या की थी। उसके घर जाता हूं, दिखता है भविष्य की चिंता से लदा चेहरा। रेणुका लिंगप्पा का। अब उनपर अपने तीन बच्चों समेत सात लोगों का परिवार पालने की जिम्मेदारी आन पड़ी है। पिछले बरस इनके पति लिंगप्पा ने कर्ज के भंवर में फंसकर और बार-बार के बैंक के तकाज़ों से आजिज आकर आत्महत्या का रास्ता चुन लिया। 

लिंगप्पा ने खेती के काम के लिए स्थानीय साहूकारों और महाजनों और बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन ये कर्ज लाइलाज मर्ज की तरह बढ़ता गया। बीजापुर के बासोअन्ना बागेबाड़ी में आत्महत्या कर चुके चार किसानों के नाम हमारे सामने आए। इस तालुके के मुल्लाला गांव शांतप्पा गुरप्पा ओगार पर महज 31 हजार रूपये का कर्ज था। नंदीयाला वाले लिंगप्पा पर साहूकारों और बैंको का कुल कर्ज 8 लाख था। इंगलेश्वरा गांव के बसप्पा शिवप्पा इकन्नगुत्ती  और नागूर गांव के परमानंद श्रीशैल हरिजना को भी मौत की राह चुननी पड़ी।


पूरे बीजापुर जि़ले में पिछले साल अप्रैल के बाद से अब तक 13 किसानों ने आत्महत्या की राह पकड़ ली है। पूरे कर्नाटक में यह आंकड़ा इस साल 187 तो 2011 में 242 आत्महत्याओं का रहा था। इस साल, बीदर में 14, हासन मे दस, चित्रदुर्ग में बारह किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। गुलबर्गा, कोडागू, रामनगरम, बेलगाम कोलार, चामराजनगर, हवेरी जैसे जिलों से भी किसान आत्महत्याओं की खबरें के लिए कुख्यात हो चुके हैं।

खेती की बढ़ती लागत और उत्तरी कर्नाटक का सूखा किसानों की जान का दुश्मन बन गया है। पिछले वित्त वर्ष में कुल बोई गई फसलों का 16 फीसद अनियमित बारिश की भेंट चढ गया। और कर्नाटक सरकार ने सूबे के 28 जिलों के 157 तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था। लेकिन राहत कार्यो में देरी ने समस्या को बढ़ाया ही। किसानों की आत्महत्या कर्नाटक में नया मसला नहीं है। पिछले दस साल में 2886 किसानों ने अपनी जान दी है। 

पिछले दशक में बारह ऐसे जिले हैं जिनमें सौ से ज्यादा किसान आत्महत्याएं हुई हैं, ये हैं. बीदर, 234. हासन 316, हवेरी 131, मांड्या 114, चिकमंगलूर 221, तुमकुर 146, बेलगाम 205, शिमोगा 170 दावनगेरे, 136, चित्रदुर्ग 205 गुलबर्गा 118, और बीजापुर 149
लेकिन, किसानों की आत्महत्याएं अब आम घटना की तरह ली जाने लगी हैं और विकास की अंधी दौड़ में हाशिए पर पड़े गरीब किसानों की जान की कीमत अखबार में सिंगल कॉलम की खबर से ज्यादा नही रही हैं। 

कर्नाटक दौरे में यह इलाका, अब मुझे परेशान करने लगा है। गरमी तो झेल लेगा कोई, लेकिन समस्याओं की यह तपिश नहीं झेली जाती।


Thursday, August 8, 2013

कुछ तस्वीरें गुजरात कीः रोहन सिंह

End Of The World! दुनिया का छोर फोटोः रोहन सिंह

Absolute Barren! बंजर है सब बंजर है फोटोः रोहन सिंह

Tuesday, July 23, 2013

कर्नाटक के विकास की अंतर्गाथा



गरमी झेलता हुआ, गुलबर्गा में अपनी बालकनी से डूबते सूरज को देखता हूं। गुलबर्गा में डूबता हुआ सूरज भी दहकता हुआ लगता है। 

दिल्ली से बंगलोर को चले थे, तो मन में कर्नाटक के विकास की एक तस्वीर थी। कर्नाटक के मायने बंगलोर था। 

लेकिन बंगलोर ही पूरा कर्नाटक नहीं है। बंगलोर का तो मौसम भी पूरे कर्नाटक से अलहदा है और विकास की गाथा भी। 

कर्नाटक के विकास को हमेशा एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है लेकिन विकास की अंतर्गाथा कुछ और ही है। उत्तरी कर्नाटक के जबर्गी और गुलबर्गा के इलाको में पीने का पानी एक बड़ी समस्या है। इस तस्वीर की तस्दीक करते हैं सूखे हुए खेत, जिनका अनंत विस्तार देखने को मिलता है। 

अप्रैल में गुलबर्गा के पास सूखी नदी, फोटोः मंजीत ठाकुर

कपास की फसल पिछले दो साल से खराब हो रही है, क्योंकि दो साल से बारिश ने साथ नहीं दिया। अब तो आस पास के इलाके के लोगों को पीने के पानी के लिए मशक्कत करनी होती है।

लोग छोटे ठेलों पर प्लास्टिक के रंग-बिरंगे मटके लेकर आते हैं। कोई पांच किलोमीटर ले जा रहा है पानी ढोकर, तो कोई सात किलोमीटर, एक बंधु ने तो मोपेड ही खरीद ली है पानी ढोने के लिए ।

पूरा उत्तरी कर्नाटक, खासकर हैदराबाद-कर्नाटक के इलाके में सूखी नदियां और सूखी नहरें सूखे की कहानी कह रही हैं। 

नलों के किनारे लगे प्लास्टिक के घड़ों की कहानी भी अजीब है, प्लास्टिक युग में मोबाइल तो उपलब्ध है लेकिन पीने का पानी मयस्सर नहीं। लोगबाग तालाब का पानी पीने पर मजबूर हैं, यह पानी भी तभी आता है जब बिजली हो। बिजली का भी अजीब रोना है, जो दोपहर बाद डेढ़ घंटे के लिए आती है और अलसुबह डेढ़ घंटे के लिए।
 
जाबार्गी में नलों के पास दुहपरिया से ही मटकों की लग जाती है कतार, फोटोः मंजीत ठाकुर


दरअसल, लोगों ने तालाब में पानी का मोटर लगवा रखा है। हैंडपंप खराब हैं तो कम से कम तालाब का पानी तो मिले। भूमिगत जल तो न जाने कब पाताल जा छुपा है। 

बिजली आती नहीं तो मोटर कैसे चले। ऐसे में दोपहर से ही, मटके नलों के किनारे जमा होने शुरू हो जाते हैं। उस दुपहरिया में जब छांव को भी छांव की जरूरत थी।

चुनाव का वक्त था, जब हम वहां थे। कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए स्थायित्व एक अजेंडा था, लेकिन उत्तरी कर्नाटक के गांवों में पीने का पानी मुहैया कराना किसी पार्टी के घोषणापत्र में नहीं था। 

जाहिर है कर्नाटक की विकास गाथा की पटकथा में कहीं न कहीं भारी झोल है। 

हम पसीनायित हैं...लेकिन हम पानी खरीद कर पी रहे हैं। लेकिन गांववाले...चुनावी दौरे-दौरा में पता नहीं क्या-क्या सब्ज़बाग़ थे...जिक्र नहीं था तो किसानों के लिए सिंचाई के पानी का, न पीने के पानी का।