Sunday, February 28, 2016

अकेला पलाश

आगे जाने का रास्ता बहुत थका देता है कभी। मन करता है सुस्ता लूं, छांव के नीचे। हमारे शहर मधुपुर के पास एक पहाड़ी है। गौर किया था मैंने, पूरे पहाड़ की चोटी पर अकेला खड़ा पलाश का ऊंचा-सा पेड़ था। 

पहाड़ पर झाड़ियां भी थीं, और भी पेड़ थे। लेकिन चोटी पर अकेला था पलाश। गरमी में खिलता था, तो लगता था पहाड़ी को चोटी पर आग लगी हो। पलाश को ऐसे भी जंगल की आग कहते ही हैं। आज भी याद है मुझे, पलाश के फूलों को देखकर कितना बढ़िया लगता था।

पहाड़ी पर एक-दम से लाल-चटख पेड़। 

आज ध्यान देता हूं तो एक बात और समझ में आती है। पेड़ अकेला था। अकेलापन दुखदायी होता है। मैं फेसबुक पर भी हूं, ट्विटर पर भी, इंस्टाग्राम में भी हूं, टीवी में काम करता हूं, लिखता हूं, अखबार में भी, ब्लॉग पर भी। लिखना पेशा भी है, शगल भी।

संवाद के माध्यम है सारे। लेकिन फिर भी अकेलापन क्यों महसूस होता है। भीड़ है। दिल्ली में जहां घूमिए भीड़ ही भीड़ तो है। दिल्ली से बाहर जाएं तो कोई ऐसी जगह नहीं मिलेगी, जहां भीड़ नहीं। तो इतनी भीड़ में भी आदमी अकेला कैसे महसूस करता है। 

ऐसा कहां है कोई जिससे मन की सारी बातें बताईँ जा सकें। कुछ बातें हैं जो आप परिवार के साथ भी नहीं बांट सकते। बेटे के सामने अच्छा पिता बनने की, पत्नी के साथ अच्छा पति बनने की, अच्छा बेटे बनने की, अच्छा भाई बनने की न जाने कितनी सारी परीक्षाएं हैं। किसी में फेल हुए तो जीवन भर की कमाई लुट गई समझिए। 

हर परीक्षा में उत्तीर्ण होना जरूरी। कंपलसरी। 

ऐसा नहीं कि इन परीक्षाओं से मुझे ही दो-चार होना पड़ रहा है। मेरे जैसा हर कोई होता होगा। हो सकता है मिड लाइफ क्राइसिस हो। पैंतीस साल का हो गया हूं, अधिक का। 

लेकिन उम्र के हर मोड़ पर समझौते करते जाने के बाद, कई बार लगता है कि एक बार कोई एक ऐसा हो, जिसके साथ आप अपने सारी बातें शेयर कर सकें। 

ब्लॉग पर यह लिख रहा हूं तो शायद अकेलापन महसूस कर रहा हूं, वह हल्का हो जाए। इतना तो समझ में आ गया है कि रिश्तों को जोड़ने वाला जो सीमेंट पैसा है, उसको कमाने के चक्कर में दिन-रात की भागदौड़ में हमारे हाथ में हासिल बचने वाला अंडा ही है। 

ऐसे में लाजिम है कि पहाड़ी का वह पलाश याद आए, अभी मधुपुर में वह खिला होगा। पहाड़ी पर उस पलाश को किसी ने काट न फेंका हो, तो यही तो मौसम है टेसू के खिलने का। 

पलाश मैं तुम्हें बहुत याद करता हूं. मधुपुर तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है। 

Thursday, February 25, 2016

आजादी की लक्ष्मण रेखा

रोहित वेमुला का किस्सा खत्म न होने पाया था कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक नया बवाल खड़ा हो गया। इस विवाद की ज्यादा जड़ में न जाते हुए बस इतना समझा जाए कि छात्रों के एक समूह ने वहां पर भारत विरोधी नारे लगाए और अफजल गुरू की मौत का बदला लेने की बात की साथ ही कहा कि भारत के टुकड़े-टुकड़े किए जाएंगे।

बात जंगल की आग की तरह फैल गई। जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष कन्हैया गिरफ्तार कर लिया गया।

इतना तो सच है कि किसी ने नारे लगाये थे। हो सकता है, कन्हैया ने नारे नहीं लगाए हों। या वहां मौजूद किसी ने नारे नहीं लगाए, ऐसा भी नहीं है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ही देश में एक अजीब किस्म का हमलावर रुख देखा जा रहा है। दोनों तरफ से। सियासत जहरीली हो गई है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर देश विरोधी नारों पर एक राष्ट्र के रूप में भारत का क्या रूख है?

फिलहाल स्थिति यह है कि कन्हैया के समर्थक इन राष्ट्रविरोधी नारों को सही बता रहे हैं और इन नारों का जो भी विरोध कर रहा है उसे सीधे भाजपाई कह दिया जा रहा है। यह सही है किराष्ट्रविरोधी नारे लगाना देशद्रोह नहीं होना चाहिए, और इसी आधार पर कि कन्हैया उस वक्त वहां मौजूद थे, और चूकि वह छात्र संघ के अध्यक्ष हैं तो उन्हें गिरफ्तार कर लेना गलत है।

कानून में साफ है कि नारे लगाना या बगावत के लिए उकसाना तब तक देशद्रोह नहीं है, जब तक कि वाकई हिंसा भड़क न जाए।

भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए और 120-बी के दुरुपयोग को लेकर आजादी के पहले से बहस चली आ रही है। लोकसभा में शशि थरूर ने इसको संशोधित करने के लिए एक निजी विधेयक भी पेश किया है। असल में 124-ए को ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से निबटने के लिए बनाया था।

फिर भी एक जिम्मेदार लोकतंत्र के रूप में हम अभिव्यक्ति की आजादी को महत्वपूर्ण मानते हैं। लेकिन सोचने की बात है कि क्या जिस देश के लिए अनगिनत सेनानियों ने अपनी कुरबानी दी है, और जिस भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल या खुदीराम बोस को वामपंथ अपना शुरूआती पुरोधाओं में मानती रही है, तो उसी भगत सिंह ने देश के लिए जान दे दी, खुदीराम बोस कहते रहेः एक बार बिदाई दाऊ मा घूरे आसि।

समझना होगा कि राष्ट्रवाद का रंग सिर्फ भगवा और प्रगतिशीलता का सिर्फ लाल नहीं है। देश को सिर्फ अपने हिसाब से चलाना कत्तई उचित नहीं। चाहे वह राष्ट्रवाद हो या कथित उदारवाद। सोशल मीडिया के भारत में विस्तार के बाद दोनों पक्ष अपनी तरफ को लेकर अधिक कट्टर भी हुए हैं।

भारत जैसे आतंक-पीड़ित देश में यह खुली बात है कि पाकिस्तान ने देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकी गतिविधियों को प्रायोजित किया है। ऐसी परिस्थिति में, नक्सली हों या कश्मीर-खालिस्तान-पूर्वोत्तर के अलगाववादी उग्रवादी, इसमें से हर हिंसा को रोकने की पूरी कोशिश की जाती रही है। कुछ लोग इनको सियासी गतिविधि भी मानते हैं। तो फिर उन लोगों को आईएसआईएस की हिंसक कार्रवाईय़ों को भी सियासी गतिविधि ही मानना चाहिए।

वैसे एक सवाल यह भी है कि क्या पाकिस्तान के समर्थन में लगे ऐसे नारों की तरह के नारे खुद पाकिस्तान में लगाए जा सकते हैं? या फिर रूस या चीन में? बलूचिस्तान के आंदोलन को ऐसा समर्थन क्यों नहीं दिया जा रहा?

वामपंथी समर्थन देने के मामले में तुलना उन्हीं उदार पश्चिमी देशों से करते हैं जिनसे उनका घोर विरोध है।

जेएनयू के घटनाक्रम पर कोई राय बनाने के पहले कुछ बातें साफ कर लेना बेहतर है। नारेबाजी करने के पीछे कोई बड़ी साजिश लग रही है मुझे। दिल्ली में प्रेस क्लब में भी नारेबाजी हुई थी। क्या दोनों के पीछे एक ही या एक ही तरह के लोग थे?

जो भी हो, अभिव्यक्ति की आजादी अपनी जगह पर है और देश का सम्मान और उसकी संप्रभुता अपनी जगह। पहले देश होगा तभी अभिव्यक्ति की आजादी बची रहेगी। निजी तौर पर मुझे तो यही लग रहा है कि भाजपा के प्रचंड बहुमत ने सियासत को एक दूसरा कोण दे दिया है और विरोधी तबका बिलो द बेल्ट वार कर रहा है। सियासी लड़ाई कीजिए, कानून के हिसाब से देशद्रोह नहीं होगा कुछ। लेकिन देश के टुकड़े करने की बात करेंगे तो हम तो इसे बगावत कम, घटिया राजनीति ज्यादा कहेंगे।

मंजीत ठाकुर

Wednesday, February 24, 2016

दूरदर्शन को चिट्ठी

विजय देव झा ने दूरदर्शन को एक पाती लिखी है। फेसबुक पर। यह चिट्ठी मैं यहां शेयर कर रहा हूं। विजय देव झा, द टेलिग्राफ में पत्रकार हैं। 

दूरदर्शन समाचार हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।

मैंने भी तुम्हें कभी सुस्त धीमी गति कह कर मजाक उड़ाया था. मुझे उन नए खबरिया चैनलों और उनके एंकर से प्यार हो गया था।ये चैनल और इनके एंकर चौबीस घंटे उत्तेज़ना के साथ न्यूज़ देने का वादा करते थे। मैं खुद में प्रणव राय और विनोद दुआ को देखता था राजदीप मुझे दुनिया का सबसे स्मार्ट आदमी लगता था और रविश किसी संत से कम नहीं। इन सुन्दर महिला एंकरों को पुरे अदा और जलवे के साथ न्यूज़ पढ़ते देख मुझे लगता था की न्यूज़ प्रजेंटेसन का यही तरीका है. आज तो वह बजाप्ते वॉकी टॉकी लेकर न्यूज़ पढ़ती पढ़ते हैं. 

लेकिन मैं गलत था तुम उस वक़्त भी संत थे और आज भी हो. 

तुम्हें इस बात की रत्ती भर परवाह नहीं है की तुम टीआरपी में कहीं नहीं हो. अर्णव क्यों चीखते हैं, रविश क्यों रह रह कर बौद्धिक सिसकारियाँ लेते रहते हैं वह न्यूज़ कम पढ़ते हैं हम दर्शकों यह बताते हुए दिख पड़ते हैं की वह इस पेशे में बस इसलिए हैं की हम लोगों का बौद्धिक उन्नयन कर सकें, नीरा राडिया केस और वसूली के केस एक्सपोज़ हो चुके बरखा दत्त और सुधीर चौधरी मेरे नैतिक पहरेदार कैसे हो सकते हैं, लेकिन तुम्हारे एंकर आज भी शांत तरीके से न्यूज़ पढ़ते हैं. 

मुझे अक्सरहां तुम्हारे रिपोर्टर और कैमरामैन से मुलाकात होती रहती है. वह आम खबरिया चैनल के रिपोर्टर की तरह झाँउ झाँउ नहीं करते करते। 

टीवी रिपोर्टिंग का भी एक संस्कार होता है जो टीआरपी और तमाशे से नहीं आते. मैं मानता हूँ की तुम पर प्रो-इस्टैब्लिशमेंट का इलज़ाम लगाया जाता है लेकिन तुम इन निजी चैनलों की तरह उत्तेज़ना और अफवाह नहीं फैलाते। 

मेरा बेटा महज तीन महीने का है लेकिन टीवी की तरफ टुकुर-टुकुर ताकते रहता है यह जेनेटिकली ट्रांसफर्ड आदत है. लेकिन न्यूज़ चैनल देखते ही वह असहज हो जाता है. मुझे डर है की वह जब बड़ा होगा तो मुझसे पत्रकार होने की वजह से नफरत न करना शुरू कर दे. तुम देश के उन महान टीवी रिपोर्टर और एंकर की तरह खुद को सर्वज्ञानी और जज नहीं कहते और दूसरों को सत्ता या फिर विपक्ष का दलाल नहीं कहते। खबरिया चैनल अब तनाव और नफरत उतपन्न कर रहे हैं. देश में 

यह अलग बात है की सोनिया गांधी से आशीर्वाद प्राप्त मनमोहन सिंह की सरकार ने तुम्हारे सूत्र वाक्य "सत्यम शिवम सुंदरम" को हटा दिया था शायद देश को इस सूत्र वाक्य की जरुरत ही नहीं रह गयी. देश को तो जरूरत है बस जेएनयू टाइप रिपोर्टिंग की जो खबरिया चैनल दिखा रहे हैं। 

देश ने पहली बार देखा की देश के बड़े बड़े स्वनामधन्य टीवी पत्रकार खुलेआम एक दूसरे को खुलेआम गालियाँ दे रहे हैं जिसमे बीप की कोई भी गुंजाइस नहीं है। सबने अपने एजेंडा तय कर लिए हैं अब पत्रकार कम पैरोकार अधिक दिखते हैं। और यह एजेंडा तय करते हैं कुछ प्रमुख पत्रकार और उनके मालिक। 

देश की जनता को इन्होंने राष्ट्रवाद और फ्री स्पीच के अपने नकली और खोखले तर्क से ऐसा फँसा रखा है की अब गृह युद्ध जैसे हालात पैदा हो रहे हैं। सत्ता संस्थान से कड़े सवाल जरूर पूछे जाने चाहिए लेकिन आपने तो ये हिसाब और सुबिधा के अनुसार सवाल पूछते हैं। चैनल वही दिखाते और सुनाते हैं जो उनके और उनके राजनितिक मित्रों के इंट्रेस्ट का हो। 

दूरदर्शन मुझे याद है की शायद तुमने एक बार अपने स्क्रीन को ब्लैक किया था जब इंदिरा गाँधीजी की हत्या हुई थी। लेकिन अब तो फैशन हो गया है। हमें बताया जाता है की फलाना पत्रकार देश और पत्रकारिता के गिरते स्तर पर कितना चिंतित है। लेकिन असली बात यह है की कुल योग्यता इस बात में हैं की इन्होंने देश में कितने उत्पात और इंटलरेंस बढ़ाये। इनकी कृपा से आज सैकड़ों चिरकुट नेता बन बैठे। इनका ब्रेकिंग और फलाने का एक और विवादास्पद बयान देश को ले बैठा है। 

खबरिया चैनल बौद्धिकता से दूर एक विध्वंसकारी समूह बन चुका है जो किसी के लिए जिम्मेदार नहीं है। दूरदर्शन समाचार यह सब लिखते हुए मैं अपने पापों का प्रायश्चित कर रहा हूँ। देश का सहनशील वर्ग आज फिर से तुम्हारी तरफ देख रहा है। तुम सुस्त ही सही लेकिन शैतान नहीं हो।

Saturday, February 20, 2016

आभूषण उद्योग की फीकी पड़ती चमक

सामान्य ज्ञान की किताबों में हम-आप बरसों से पढ़ते आ रहे हैं कि भारत के निर्यात में बड़ा हिस्सा रत्न और आभूषण उद्योग का है। इस उद्योग में करीब बीस लाख लोग सीधे या परोक्ष रूप से रोज़गार पाते हैं। लेकिन देश के विदेशी मुद्रा भंडार में हर साल करीब 16 फीसद का योगदान करने वाला रत्न और आभूषणों का कारोबार इन दिनों मंदी की मार से ठिठका हुआ है। बाज़ार के जानकारों को उम्मीद थी कि साल 2016 तक रत्न और आभूषणों का भारतीय निर्यात करीब 58 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचेगा। हम भारतीय भी गहनों और रत्नों के बड़े खरीदार हैं लिहाजा घरेलू कारोबार के भी 40 अरब डॉलर के स्तर तक पहुंचने की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन अब इस उद्योग को थोड़े संरक्षण की दरकार लग रही है।

जयपुर रत्नों और आभूषणों का बड़ा केन्द्र माना जाता रहा है। वहां घर-घर में आभूषणों की कटाई का काम चलता है। लेकिन नई पीढ़ी को इस उद्योग में कम रूचि है, क्योंकि नफे का मार्जिन कम होता जा रहा है।

भारत में रत्नों का कटाई का कारोबार श्रम आधारित है। इसका मतलब हुआ कि इस काम में बड़े पैमाने पर मजदूर लगे हुए हैं। लेकिन इस उद्योग में भी चीन का हौव्वा आन खड़ा हुआ है। भारत में जितनी देर में एक रत्न की कटाई होती है, चीन में उतनी ही देर में मशीनों से सौ रत्नों की कटाई कर दी जाती है। यह बात और है कि कटाई में महीन काम भारत में ही मुमकिन है। और मशीनों से जिन रत्नों की कटाई की जाती है उनमें वो खास बात पैदा नहीं होती है। शायद इसलिए भारत का रत्न उद्योग अभी तक बाजार में टिका हुआ है। लेकिन अब चीन के हौव्वे से मुकाबला करने के लिए तकनीक का साथ चाहिए तो सस्ती बिजली की मांग भी उत्पादक कर रहे हैं।

सस्ती बिजली की जरूरत इसलिए भी है कि कुटीर उद्योग के रूप में रत्नों की कटाई करने वाले परिवार 8 रूपये यूनिट की दर से बिजली की कीमत चुकाने के बाद अपने लिए कुछ खास बचा नहीं पाते।

अब इस उद्योग को स्पेशल टर्नओवर टैक्स में छूट मिलने की उम्मीद है। सरकार ने 2 लाख रूपये के हर लेनदेन के लिए पैन कार्ड की जरूरत को जरूरी बना दिया है। पहले यह सीमा 5 लाख रूपये थी। यह रोक इस साल की पहली जनवरी साथ ही लागू हुआ है और इससे कारोबार पर उलटा असर हुआ है और लेनदेन करीब बीस फीसद तक कम हो गया है।

रत्न और आभूषणों के कारोबार को आप सिर्फ बड़े लोगो का कारोबार न मानिए। इसमें ऐसे लोग भी लगे हैं जिनकी दो जून को रोटी भी बमुश्किल मिल जाती है। दुनिया भर में आई मंदी से रत्न और आभूषण कारोबार को झटका लगा है। ऐसे में निर्यात में अव्वल रहे इस उद्योग को बढ़ावा देने के वास्ते बाहर से आने वाले तैयार आभूषणों पर आयात शुल्क बढ़ाना उद्योग के लिए मरहम का काम करेगा। गौरतलब है कि सोने के आभूषणों पर मौजूदा आयात शुल्क 15 फीसद और चांदी पर 20 फीसद है लेकिन निर्यातकों की मांग है कि इसे बढ़ाकर 20 और 25 फीसद किया जाए।

इसके साथ ही रत्न कारोबारियों की मांग है कि इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए वित्त मंत्री इसे फौरी तौर पर टैक्स में कुछ छूट दें।

आखिर, सोने पर आय़ात शुल्क 10 फीसद है। इसे कम करने के बाद आभूषण निर्माताओं को कच्चे माल पर लागत कम करने में मदद मिलेगी।

आखिर, सोन-चांदी और रत्नों को बाहर से मंगाकर भारत में तैयार किया जाता है और इन तैयार माल को दुबई, सिंगापुर, बैंकाक, जर्मनी, रूस और फ्रांस जैसे कई देशों को भेजा जाता है। जाहिर है, भारत में हम सिर्फ उत्पाद तैयार करते हैं। इस लिहाज से यह कारोबार मेक इन इंडिया की बेहतरीन मिसाल है। इसलिए केन्द्र सरकार को बजट में इसके लिए कुछ करना ही चाहिए। आखिर इस उद्योग में रोज़गार की भी अपार संभावनाएं जो हैं।


मंजीत ठाकुर

Sunday, February 14, 2016

मोहब्बत एक चीज़ है

मेरे लिए मधुपुर मालगुडी जैसा क़स्बा है। मेरी यादों का शहर। तो इस कहानी है गुड्डू भैया की। मधुपुर के एक लड़के गुड़्डू भैया को हर हफ्ते प्यार हो जाया करता था, लेकिन एक बार जब उनको रेखा से असली वाला प्यार हुआ तो फिर क्या हुआ, सुनिए मंजीत ठाकुर की कहानी, नीलेश मिसरा की आवाज़ में, वही, याद शहर।
सुनने के लिए नीेच के लिंक पर चटखा लगाएं---

मोहब्बत एक चीज़ है.

Monday, February 8, 2016

खेती के विकास का टिकाऊ रास्ता

इन दिनों एक लंबी यात्रा पर हूं। इस सफ़र के ज़रिए भारत के विकास की रफ़्तार को नापने की कोशिश कर रहा हूं। इस सफ़र में चार राज्यों में घूमने की योजना है। लेकिन आज किस्सा पंजाब का।

देश में हरित क्रांति आई तो पंजाब और हरियाणा खेती के नए तरीकों को गले लगाया और अनाज की कमी से जूझ रहे देश का पेट भरने के लिए भरपूर पैदावार दी। लेकिन हरित क्रांति के हल्ले में एक गलती हो गई, होती चली गई।

पैदावार बढ़ाने के लिए रासायनकि खाद और कीटनाशकों का भरपूर इस्तेमाल हुआ। वैज्ञानिकों ने उस समय बताया, और खेतिहर अपनाते गए। संकर बीज, रसायन, रासायनिक खाद। उपज बढ़ गई, लेकिन उसका असर पड़ा ज़मीन पर, लोगों पर, उनकी सेहत पर और पानी पर।

आज की तारीख में देश में रासायनिक खाद के इस्तेमाल का औसत 128 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। लेकिन दक्षिणी पंजाब और उत्तरी हरियाणा में उर्वरकों के इस इस्तेमाल का आंकड़ा कुछ ज्यादा ही है। पूरे पंजाब राज्य में औसत रूप से 250 किलो प्रति हेक्टेयर और हरियाणा में 207 किलो की खपत होती है।

नतीजा यह हुआ कि सिंचाई के लिए खेतों में खुला पानी छोड़ देने की आदत और पंजाब-हरियाणा में पहले से पानी की कमी से रासायनिक खाद और कीटनाशकों का जहर जानवरों से होता हुआ और अनाज के ज़रिए भी इंसानों में प्रवेश कर गया।

पंजाब में इस जहर के असर लोगों की सेहत पर पड़ना शुरू हो गया। कैंसर के रोगियों की तादाद यहां सबसे अधिक है। बठिंडा के आसपास के कई गांव तो ऐसे हैं जहां कैंसर के रोगी सैकड़ों की तादाद में हैं। बठिंडा से चलकर बीकानेर तक जाने वाली एक ट्रेन का नाम ही कैंसर एक्सप्रेस हो गया है। इस ट्रेन में सफर करने वालों में कैंसर के रोगियों की संख्या बहुत अधिक होती है। यह लोग इलाज के लिए बीकानेर जा रहे होते हैं।

बहरहाल, कैंसर एक्सप्रेस के बारे में फिर कभी। आज तो पंजाब के इस विकास को अब टिकाऊ शक्ल देने के बारे में सोचने वाले कुछ किसानों की कहानी।

हम बठिंडा के कलालवालाँ गांव पहुंचे तो वहां मुलाकात हुई भोला सिंह, जगदेव सिंह और उनके भतीजे रॉबिन सिंह से। इन लोगों ने जैविक खेती शुरू की। सब्जी हो या गेहूं, या फिर गुलाब, इन लोगो ने रासायनिक खादों का इस्तेमाल बंद कर दिया।

लेकिन जैविक खेती तो बहुत सारे लोग करते हैं। जगदेव सिंह के परिवार ने ऐसा खास क्या किया? खास है उनका जैविक कीटनाशक। इन लोगों ने जीव अमृत नाम से एक ऐसा खास घोल तैयार किया है, जो मिट्टी के पोषक तत्वों को बढ़ा देता है।

हमारे कहने पर इन लोगों ने वह मिश्रण बनाना हमें भी सिखा दिया है। उनके मुताबिक, यह मिश्रण को कोई कोकाकोला का रहस्य नहीं और देश के हर राज्य के किसानों के काम आना चाहिए।

जीव अमृत के लिए 10 किलो देसी (संकर नहीं) गाय का गोबर, 10 किलो गोमूत्र, दो मुट्ठी नदी या नहर की बिना रसायन वाली मिट्टी, एक किलो गुड़ या दो लीटर गन्ने का रस, एक किलो फलीदार आटा, (समझिए सोयाबीन), और इसमें 200 लीटर पानी मिलाकर छाया में 48 घंटे के लिए छोड़ दीजिए और हर बारह घंटे में एक बार लकड़ी से चला दें। ठीक 48 घंटे बाद इस जीव अमृत को 15 लीटर पानी में 2 लीटर मिलाकर एक एकड़ में छिड़काव करने से फसल पर दस दिनों के भीतर असर दिखने लगता है।

मेरी सलाह है कि इसको बनाने का खर्च बेहद कम है तो क्यों न इस्तेमाल कर के देखा जाए। रसायनों पर सब्सिडी के लिए हो-हल्ला नहीं होगा। सरकार का बोझ दो तरफ से कम होगा। रसायनों के इस्तेमाल से होने वाले सेहत के नुकसान पर दवाओं का खर्च कम होगा सो घलुए में।



Monday, February 1, 2016

कैसी अभिव्यक्ति, ऐसी स्वतंत्रता!

गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में राष्ट्रपति महोदय ने देश के लोगों से अपील की हिंसा और असहिष्णुता के तत्वों के खिलाफ हमें खुद खड़ा होना होगा। लेकिन लगता है देश के कथित बौद्धिक तबके में इस अपील का असर कुछ ज्यादा ही हो गया।

वाकया जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का है। उम्मीद थी कि जब देश भर के बुद्धिजीवी जयपुर में जमा होंगे तो गुलाबी शहर की गुलाबी ठंडक में लोग देश की समस्याओँ को दूर करने पर चर्चा करेंगे। लेकिन, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने साबित किया कि बुद्धिजीवी तबका भी गाली-गलौज और तू-तड़ाक में हम-आप जैसा ही है।

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का पूरा सत्र तो कुशल-मंगल ही बीता था लेकिन आखिरी दिन ऐसी ज़बानी आतिशबाज़ी हुई कि पूछिए मत। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का मंच गालियों, बाप के नाम की ललकारों और राजनीतिक नारों और जुमलों का गवाह बन गया।

पत्रकार मधु त्रेहन अभिनेत्रियों की तरह बरताव करने लगीं तो अभिनेता अनुपम खेर नेता की तरह, आम आदमी पार्टी के नेता कपिल मिश्रा तो पहलवानों की तरह खैर ताल ठोंक ही रहे थे।

अभिव्यक्ति की आजादी पर शुरू हुई बहस में कोई भी दूसरे की बात सुनने को राजी नहीं था। सब उदारवादी भी अपने उदारवाद को लेकर कट्टर हुए जा रहे थे।

अनुपम खेर ने मंच से सवाल पूछा था कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के साथ जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए? क्या घर में लोग ***** (बहन की गाली) दे सकते हैं? क्या आप अपने पिता से कह सकते हैं कि थप्पड़ मार दूंगा? अनुपम ने इसके बाद भारत में अभिव्यक्ति की आजादी और यहां मिली छूट के कशीदे पढ़े।

दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के विधायक कपिल मिश्रा का दुख था कि क्या मन की बात एक ही आदमी कर सकता है? कपिल का कहना था कि वह क्या खाएंगे क्या बोलेंगे इस पर दूसरे यह तय न करें। उनका दुख यह भी था कि उनके नेता केजरीवाल को लोग थप्पड़ मार देते हैं, मुंह पर स्याही फेंक देते हैं, उनके नाम को बिगाड़ सकते हैं। लेकिन वह अगर बीजेपी के नेता (प्रधानमंत्री) और कांग्रेस के नेता (राहुल) का नाम बिगाड़े तो लोग उन्हें गालियां देने लगते हैं।

मधु त्रेहन बाबा गुरमीत राम रहीम की नकल उतारने वाले कॉमिडियन कीकू के पक्ष में बोलीं तो स्तंभकार सुहैल सेठ ने आम आदमी पार्टी नेता को आड़े हाथों लिया कि वह इसी फ्रीडम ऑफ स्पीच की वजह से सत्ता में है। उन्होंन कपिल मिश्रा को कहा कि वह बार-बार यह नहीं होने देंगे, वह नहीं होने देंगे न कहा करें।

बहरहाल, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के मंच पर होनी वाली इस गाली-गलौज भरी बहस ने एक बार फिर यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि क्या हम सच में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ज्यादा छूट ले रहे हैं?

आप एक बार टीवी की तरफ नजर दौड़ाएं। जिन चैनलों को, और अखबारों को भी अंधविश्वास और दकियानूसी चीजों के खिलाफ मोर्चा खोलना चाहिए वह अपने बहुमूल्य एयर टाइम और कीमती कागज पर राशिफल दिखाते-छापते हैं। बेसिर-पैर की खबरें और खबरों से ज्यादा सनसनी, जिन टीवी चैनलो को समाचार दिखाने का लाइसेंस सरकार से हासिल हुआ है वह सीरियलों, खासकर कॉमिडी शो के टुकड़े क्यों दिखा रहा है? जाहिर है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ही।

अगर धारावाहिको की भी बात करें, तो इच्छाधारी नागिन, भूत-प्रेत, जादू-टोने पर आधारित सीरियलों की बाढ़ आई हुई है। यह सब इस नाम पर कि दर्शकों की यही मांग है।

मैंने तो देश के किसी हिस्से में यह आंदोलन होते नहीं देखा कि दर्शक किसी खास किस्म के सीरियल या खबरें दिखाने की मांग को लेकर सड़क जाम कर रहे हों या धरने पर बैठे हों।

केन्द्र की पिछली सरकार ने चैनलों और अखबारों के लिए स्व-नियमन यानी अपना अनुशासन खउद करने की नीति अपनाई थी। यह सरकार भी लगभग वही कर रही है।

लेकिन, यह सवाल टीवी से लेकर सिनेमा तक और खबरिया चैनल से लेकर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे आयोजन तक, हर जगह से उठ रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिल भी जाए, तो अभिव्यक्ति कैसी होनी चाहिए। बाकी जो है सो तो हइए है।