आगे जाने का रास्ता बहुत थका देता है कभी। मन करता है सुस्ता लूं, छांव के नीचे। हमारे शहर मधुपुर के पास एक पहाड़ी है। गौर किया था मैंने, पूरे पहाड़ की चोटी पर अकेला खड़ा पलाश का ऊंचा-सा पेड़ था।
पहाड़ पर झाड़ियां भी थीं, और भी पेड़ थे। लेकिन चोटी पर अकेला था पलाश। गरमी में खिलता था, तो लगता था पहाड़ी को चोटी पर आग लगी हो। पलाश को ऐसे भी जंगल की आग कहते ही हैं। आज भी याद है मुझे, पलाश के फूलों को देखकर कितना बढ़िया लगता था।
पहाड़ी पर एक-दम से लाल-चटख पेड़।
आज ध्यान देता हूं तो एक बात और समझ में आती है। पेड़ अकेला था। अकेलापन दुखदायी होता है। मैं फेसबुक पर भी हूं, ट्विटर पर भी, इंस्टाग्राम में भी हूं, टीवी में काम करता हूं, लिखता हूं, अखबार में भी, ब्लॉग पर भी। लिखना पेशा भी है, शगल भी।
संवाद के माध्यम है सारे। लेकिन फिर भी अकेलापन क्यों महसूस होता है। भीड़ है। दिल्ली में जहां घूमिए भीड़ ही भीड़ तो है। दिल्ली से बाहर जाएं तो कोई ऐसी जगह नहीं मिलेगी, जहां भीड़ नहीं। तो इतनी भीड़ में भी आदमी अकेला कैसे महसूस करता है।
ऐसा कहां है कोई जिससे मन की सारी बातें बताईँ जा सकें। कुछ बातें हैं जो आप परिवार के साथ भी नहीं बांट सकते। बेटे के सामने अच्छा पिता बनने की, पत्नी के साथ अच्छा पति बनने की, अच्छा बेटे बनने की, अच्छा भाई बनने की न जाने कितनी सारी परीक्षाएं हैं। किसी में फेल हुए तो जीवन भर की कमाई लुट गई समझिए।
हर परीक्षा में उत्तीर्ण होना जरूरी। कंपलसरी।
ऐसा नहीं कि इन परीक्षाओं से मुझे ही दो-चार होना पड़ रहा है। मेरे जैसा हर कोई होता होगा। हो सकता है मिड लाइफ क्राइसिस हो। पैंतीस साल का हो गया हूं, अधिक का।
लेकिन उम्र के हर मोड़ पर समझौते करते जाने के बाद, कई बार लगता है कि एक बार कोई एक ऐसा हो, जिसके साथ आप अपने सारी बातें शेयर कर सकें।
ब्लॉग पर यह लिख रहा हूं तो शायद अकेलापन महसूस कर रहा हूं, वह हल्का हो जाए। इतना तो समझ में आ गया है कि रिश्तों को जोड़ने वाला जो सीमेंट पैसा है, उसको कमाने के चक्कर में दिन-रात की भागदौड़ में हमारे हाथ में हासिल बचने वाला अंडा ही है।
ऐसे में लाजिम है कि पहाड़ी का वह पलाश याद आए, अभी मधुपुर में वह खिला होगा। पहाड़ी पर उस पलाश को किसी ने काट न फेंका हो, तो यही तो मौसम है टेसू के खिलने का।
पलाश मैं तुम्हें बहुत याद करता हूं. मधुपुर तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है।
पहाड़ पर झाड़ियां भी थीं, और भी पेड़ थे। लेकिन चोटी पर अकेला था पलाश। गरमी में खिलता था, तो लगता था पहाड़ी को चोटी पर आग लगी हो। पलाश को ऐसे भी जंगल की आग कहते ही हैं। आज भी याद है मुझे, पलाश के फूलों को देखकर कितना बढ़िया लगता था।
पहाड़ी पर एक-दम से लाल-चटख पेड़।
आज ध्यान देता हूं तो एक बात और समझ में आती है। पेड़ अकेला था। अकेलापन दुखदायी होता है। मैं फेसबुक पर भी हूं, ट्विटर पर भी, इंस्टाग्राम में भी हूं, टीवी में काम करता हूं, लिखता हूं, अखबार में भी, ब्लॉग पर भी। लिखना पेशा भी है, शगल भी।
संवाद के माध्यम है सारे। लेकिन फिर भी अकेलापन क्यों महसूस होता है। भीड़ है। दिल्ली में जहां घूमिए भीड़ ही भीड़ तो है। दिल्ली से बाहर जाएं तो कोई ऐसी जगह नहीं मिलेगी, जहां भीड़ नहीं। तो इतनी भीड़ में भी आदमी अकेला कैसे महसूस करता है।
ऐसा कहां है कोई जिससे मन की सारी बातें बताईँ जा सकें। कुछ बातें हैं जो आप परिवार के साथ भी नहीं बांट सकते। बेटे के सामने अच्छा पिता बनने की, पत्नी के साथ अच्छा पति बनने की, अच्छा बेटे बनने की, अच्छा भाई बनने की न जाने कितनी सारी परीक्षाएं हैं। किसी में फेल हुए तो जीवन भर की कमाई लुट गई समझिए।
हर परीक्षा में उत्तीर्ण होना जरूरी। कंपलसरी।
ऐसा नहीं कि इन परीक्षाओं से मुझे ही दो-चार होना पड़ रहा है। मेरे जैसा हर कोई होता होगा। हो सकता है मिड लाइफ क्राइसिस हो। पैंतीस साल का हो गया हूं, अधिक का।
लेकिन उम्र के हर मोड़ पर समझौते करते जाने के बाद, कई बार लगता है कि एक बार कोई एक ऐसा हो, जिसके साथ आप अपने सारी बातें शेयर कर सकें।
ब्लॉग पर यह लिख रहा हूं तो शायद अकेलापन महसूस कर रहा हूं, वह हल्का हो जाए। इतना तो समझ में आ गया है कि रिश्तों को जोड़ने वाला जो सीमेंट पैसा है, उसको कमाने के चक्कर में दिन-रात की भागदौड़ में हमारे हाथ में हासिल बचने वाला अंडा ही है।
ऐसे में लाजिम है कि पहाड़ी का वह पलाश याद आए, अभी मधुपुर में वह खिला होगा। पहाड़ी पर उस पलाश को किसी ने काट न फेंका हो, तो यही तो मौसम है टेसू के खिलने का।
पलाश मैं तुम्हें बहुत याद करता हूं. मधुपुर तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है।