Monday, December 17, 2018

किताब ये जो देश है मेरा पर साकेत सहाय की प्रतिक्रिया

डॉ साकेत सहाय राष्ट्रपति जी के हाथों हिंदी की सेवा के लिए पुरस्कृत हो चुके हैं. खुद लेखक और अनुवादक भी हैं. पर साथ ही मेरे मित्र भी हैं. उन्होंने मेरी किताब ये जो देश है मेरा पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया फेसबुक के जरिए पोस्ट की, तो उसे यहां बांटने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. मेरे मित्र हैं तो तारीफ भी ज्यादा की होगी. साकेत भाई का शुक्रियाः मंजीत

आज, भाई मंजीत ठाकुर जी की रचना ‘ये जो देश है मेरा’ पढ़ी. सच मायनों में किसी पुस्तक का शीर्षक ही उसके भीतर के पन्नों का आईना होती है. इस मायने में यह पुस्तक अपने शीर्षक के साथ न्याय करती नजर आती है. जनसामान्य की समस्याओं को समर्पित उनकी यह रचना विशिष्ट कही जा सकती है. रिपोर्ताज की शक्ल में उन्होंने अपने पत्रकारीय जीवन के अनुभवों एवं जनजुड़ाव के पक्ष को इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत किया है.

वास्तव में सच्चा पत्रकार वही होता है जो अपनी रिपोर्टों के माध्यम से उस खबर को जीता है. इस नजरिए से देखें तो पत्रकार समाज के नायक, सुधारक के रूप में उभरता है. क्योंकि वह अपनी सार्थक रिपोर्टों के माध्यम से समाज के समक्ष वास्तविक चित्र प्रस्तुत करता है. पुस्तक ‘ये जो देश है मेरा’ के माध्यम से लेखक इन दायित्वों का निर्वहन करते हुए उभरते हैं. पुस्तक में लेखक ने बुंदेलखंड, कूनो पालपुर, नियमागिरि, सतभाया, लालगढ़ आदि क्षेत्रों की विभिन्न समस्याओं को रेखांकित किया है. जो कि विकास की नई परिभाषा के कारण इन क्षेत्रों में उपजी है. 

पुस्तक में सामाजिक-विकासात्मक रिपोर्टिंग को भी नए ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिसे विकासशील देशों के संचार माध्यमों को समझना होगा. साथ ही वे अपनी रिपोर्टिंग के माध्यम से सांस्कृतिक पहुलूओं की भी बात करते है.

देश में उदारीकरण के बाद से एक लंबी विभाजक रेखा खिंचती चली जा रही है. पुस्तक वनवासी, आदिवासी, दलित, वंचित आबादी, जो इस विभाजक रेखा से ज्यादा प्रभावित हुए हैं की समस्याओं के बारे में सही चित्र प्रस्तुत करती है.
एक अच्छी रिपोर्ताज पुस्तक के लिए बधाई! पुस्तक अमेजॉन पर उपलब्ध है.

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Friday, December 14, 2018

कल्पित वास्तविकताएं ही इस युग का सच हैं.

कल्पित वास्तविकताएं क्या है? एक साझा मिथक. ये झूठ नहीं होते. इस साझा मिथक में विश्वास करते हुए हम करोड़ों की संख्या में आपसी सहयोग कर सकते हैं. भारतीय चुनावों के संदर्भों में आप इसे इंदिरा लहर, राम लहर, मोदी लहर, सत्ता विरोधी लहर की मिसालों में समझ सकते हैं. जब पूरा देश एक खास नेता या विषय की लहर की चपेट में होता है. आखिर यह लहर पैदा कैसे होती है? क्या यह लहर भावनात्मक मुद्दों पर नहीं होती? इंदिरा लहर क्या उनकी हत्या से जुड़ी सहानुभूति से नहीं उपजी थी? या राम लहर एक खास स्थान पर मंदिर बनाने के भावुकता पर आधारित नहीं थी?


म और आप, बल्कि दुनिया के हर हिस्से में, हर समाज के पास अपने-अपने मिथक हैं. हर समाजे के अपने ईश्वर हैं. सिर्फ धर्मों के ही नहीं, बल्कि विभिन्न जनजातीय समुदायों के भी. पर जरा सोचिए कि एक होमोसेपियंस (यानी हम बुद्धिमान इंसान) जो शुरू में चिंपाजी जैसे ही थे, आखिर इन मिथकों की कल्पना कैसे कर सके? ईश्वर भी उन मिथकों में से एक है. पर थोड़ी देर के लिए अन्य बातों पर गौर कीजिए. आखिर जंगलों में भोजन खोजने के लिए भटकने वाले खाद्य संग्राहक, और आदिम खेतिहर लोग हजारों बाशिंदों से भरो शहरों और करोड़ो की आबादी वाले साम्राज्यों की स्थापना कैसे कर सके?

यह भी सोचिए कि आखिर, हम भारतीयों को कौन सी एक चीज है जो बतौर राष्ट्र एक सूत्र में बांधती है? या ब्रिटिशों को? या इन इस्लामिक जेहादियों को, जो पूरी दुनिया को दारुल-उलूम में बदलना चाहते हैं?

यह मैं ईश्वर के संदर्भ में नहीं, बल्कि विकासवाद के संदर्भ में पूछ रहा हूं.

असल में इसका रहस्य कल्पना के प्रकट होने में है. एक साझा मिथक में विश्वास करते हुए हम करोड़ों की संख्या में आपसी सहयोग कर सकते हैं. भारतीय चुनावों के संदर्भों में आप इसे इंदिरा लहर, राम लहर, मोदी लहर, सत्ता विरोधी लहर की मिसालों में समझ सकते हैं. जब पूरा देश एक खास नेता या विषय की लहर की चपेट में होता है. आखिर यह लहर पैदा कैसे होती है? क्या यह लहर भावनात्मक मुद्दों पर नहीं होती? इंदिरा लहर क्या उनकी हत्या से जुड़ी सहानुभूति से नहीं उपजी थी? या राम लहर एक खास स्थान पर मंदिर बनाने के भावुकता पर आधारित नहीं थी?

असल में बड़े पैमाने पर इंसानी सहयोग की जड़ें उन साझा मिथकों में फैली होती हैं, जिनका अस्तित्व सिर्फ समाज की सामूहिक कल्पना में होता है. दो मुस्लिम, या कैथोलिक इसाई कभी एक दूसरे से मिले भी न हों पर धर्मयुद्ध में एक साथ जा सकते हैं. अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए महाराष्ट्र और बिहार के कारसेवक हाथ मिला सकते हैं. या केरल बाढ़ राहत के लिए चंदा दे सकते हैं. क्योंकि इन दो इंसानों को विश्वास होता है कि ईश्वर ने इंसान के रूप में, या ईश्वर के पुत्र के रूप में अवतार लिया था और हमारे पापों से बचाने के लिए खुद को सूली पर लटका लिया था या केरल भी उनके राष्ट्र का एक हिस्सा है.

राष्ट्र राज्यों की कल्पना राष्ट्रीय मिथकों में फैली हैं. दो भारतीय जो आपस में कभी नहीं मिले, वो पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में एकदूसरे की जान बचाने के लिए खद को जोखिम में डाल सकते हैं. क्योंकि दोनों को भारतीय राष्ट्र, भारत माता और इसके तिरंगे में विश्वास है. 1947 के पहले यह स्थिति अकल्पनीय होती. जबकि 1965 में पूर्वी पाकिस्तान के लोग भारत के दुश्मन थे और 1971 में यह स्थिति बदल गई. इसी तरह न्यायिक व्यवस्था भी है. न्याय भी सामाजिक मिथकों का पारंपरिक संकलन ही है. डेढ़ हजार साल पहले हम्बूराबी के न्याय, 1776 के अमेरिका के स्वतंत्रता की घोषणा वाले न्याय और भारतीय संविधान के निर्माण में न्याय की दृष्टि बदली हुई है क्योंकि हमारे मिथक बदल गए.

हालांकि कुछ भी हो, इन सबका अस्तित्व उन कहानियों के बाहर नहीं होता है, जो लोगों ने गढ़ी होती है. जिन्हें वे एक दूसरे को सुनाते हैं. मनुष्यों की साझा कल्पना से बाहर विश्व में कोई और देवता नहीं है, कोई राष्ट्र, कोई पैसा, कोई मानव अधिकार, कोई कानून या न्याय नहीं है.

यह सब किस्सा है. कारगर किस्से कहना आसान नहीं होता. मुश्किल किस्सा सुनाने में नहीं, बल्कि उस पर विश्वास करने के लिए हर किसी को राजी करने में होता है. ज्यादातर इतिहास इस प्रश्न के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता हैः ईश्वर, या राष्ट्रों, या सीमित दायित्वों वाली कंपनियों के बारे में गढ़े गए खास किस्सों पर विश्वास करने के लिए कोई व्यक्ति लाखों लोगों को किस तरह राजी करता है? जब भी इसमें कामयाबी मिलती है तो सेपियंस को अपरिमित शक्ति प्रदान करती है, क्योंकि यह लाखों अजनबियों को आपस मे सहयोग करने तथा साझा लक्ष्यों की दिशा में काम करने के लिए सक्षम बनाती है.

जरा यह कल्पना कीजिए कि अगर हम सिर्फ नदियों, वृक्षों, शेरों या उन्हीं जैसी सिर्फ वास्तविक चीजों पर बात कर सकते तो हमारे लिए राज्यों, राष्ट्रों और वैधानिक व्यवस्था का निर्माण करना कितना मुश्किल हो जाता.

किस्सों के नेटवर्क के माध्यम से लोग जिस तरह की चीजें रचते हैं, उन्हीं को कल्पना, सामाजिक निर्मितियों, या कल्पित वास्तविकताओं का नाम दिया जाता है. कल्पित वास्तविकताएं झूठ नहीं हैं. झूठ मैं तब कह सकता हूं कि दिल्ली में एक शेर इंडिया गेट के पास है. जबकि मैं जानता हूं कि इंडिया गेट पर कोई शेर नहीं है. झूठ में कोई विशेष बात नहीं होती है.

झूठ से उलट, कल्पित वास्तविकता एक ऐसी चीज होती है जिस पर हर कोई भरोसा करता है. जब तक यह सामूहिक विस्वास बना रहता है, तब तक यह कल्पित वास्तविकता संसार में अपने बल का प्रयोग करती रहती है. हम सब वैदिक देवताओं समेत नरसिंह और वराह जैसे अवतारों के अस्तित्व में यकीन करते हैं. कुछ ओझा धूर्त होते हैं लेकिन अधिकतर लोग ऐसे होते हैं जो सच्चे मन से देवों और दानवों के अस्तित्व में यकीन करते हैं.

संज्ञानात्मक क्रांति के बाद सेपियंस लगातार दोहरी वास्तविकता में रह रहे हैं. समझिए कि हम पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण मानते हैं लेकिन यह तो सिर्फ धरती के संदर्भ में है. अगर हम अंतरिक्ष में चले जाएं तो यह दिशाएं किधर जाएंगी? नदियों, वृक्षों, शेरों की वस्तुनिष्ठ वास्तविकता, और दूसरी तरफ देवताओं, राष्ट्रों और कंपनियों की कल्पित वास्तविकता. समय के साथ कल्पित वास्तविकताएं शक्तिशाली होती गईं. यहां तक कि वस्तुनिष्ठ  वास्तविकताओं का जीवन कल्पित वास्तविकताओं की कृपा पर निर्भर रहने लगा है.

जारी रहेगा...

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Wednesday, December 12, 2018

राजपूत, गुर्जर और जाट के गुस्से ने ढहाया महारानी का किला

अगर पार्टी ने वसुंधरा का साथ दिया होता तो तस्वीर थोड़ी और बेहतर होती. मोदी अपनी जनसभाओं में कांग्रेस, राहुल, नीम कोटेड यूरिया की बात करते रहे, लेकिन वसुंधरा का नाम लेने से बचते रहे. अमित शाह ने भरे मंच से कहा था कि वसुंधरा आपने काम तो किया है, लेकिन अपना काम बता नहीं पाईं.


राजस्थान में कुल 200 सीटें हैं, इसमें से 199 सीटों पर चुनाव हुए थे. एक उम्मीदवार की मौत हो जाने के कारण 1 सीट पर मतदान नहीं कराया जा सका था.

आंकड़ों के मुताबिक कांग्रेस और उसके साथी 101 सीटें जीत गए हैं. वहीं, बीजेपी 75 सीटों पर आगे चल रही है. राजस्थान में 26 सीटों पर निर्दलीय और छोटी पार्टियों के उम्मीदवार आगे हैं जिससे तय है कि भाजपा से नाराजगी वाले सारे वोट कांग्रेस को ट्रांसफर नहीं हुए हैं. अगर ऐसा होता तो कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिल सकता था.

दूसरा, ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि राजस्थान में भाजपा का सूपड़ा साफ हो जाएगा, वैसा भी होता नहीं दिख रहा है. रुझानों को देखकर तो ऐसा लग रहा है कि अगर पार्टी ने वसुंधरा का साथ दिया होता तो तस्वीर थोड़ी और बेहतर होती. मोदी अपनी जनसभाओं में कांग्रेस, राहुल, नीम कोटेड यूरिया की बात करते रहे, लेकिन वसुंधरा का नाम लेने से बचते रहे.

अमित शाह ने तो भरे मंच से कह दिया था कि वसुंधरा आपने काम किया है, लेकिन अपना काम बता नहीं पाईं. राजस्थान में कांग्रेस को सीटें भले ही ज्यादा मिलती दिख रही हों, लेकिन दोनों के वोट प्रतिशत में मामूली अंतर है. कांग्रेस को 39.2 फीसदी मत मिले हैं वहीं भाजपा को 38.8 फीसदी वोट मिले हैं.

तो फिर भाजपा की संभावित हार की वजहें क्या रही हैं?

वसुंधरा राजे और भाजपा ने राजस्थान में पिछले चार साल में अपने वोट बैंक (जाट, गुर्जर और राजपूत) को हर तरह से दुलारकर रखने की कोशिश की. पर यह तीनों ही जातियां (जो राजस्थान की आबादी में करीबन 20 फीसदी हैं और जिनका असर पड़ोसी राज्यों हरियाणा और मध्य प्रदेश में भी है) भाजपा से नाराज हैं. सचिन पायलट के आने से गुर्जर समुदाय भी भाजपा से दूर हो रहा है.

जाटः मारवाड़ क्षेत्र समेत राज्य के 100 विधानसभा सीटों पर जाटों का असर है. यह समुदाय भाजपा से गुस्सा है, क्योंकि पार्टी में इनकी कोई खास जगह नहीं है. किसान होने की वजह से कृषि संकट भी एक सबब है. राजपूतों के मुकाबले कम तवज्जो मिलने से भी इस समुदाय में नाराजगी थी.

राजपूतः यह समुदाय अमूमन भाजपा का वफादार रहा है. हर विधानसभा में 15-17 राजपूत भाजपा के टिकट पर विधायक बनते रहे हैं. 2013 में कुल 27 राजपूत विधायकों में से 24 भाजपा से थे. पर इस जाति में बेचैनी है क्योंकि राजपूत नेताओं के खिलाफ मुकदमे किए गए. गैंगस्टर आनंदपाल की मुठभेड़ में मौत के बाद भी इस समुदाय में रोष है और करणी सेना पद्मावत मसले के बाद से सरकार से नाराज है.

जाटों के साथ राजपूतों का संघर्ष भी चल रहा है. भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे जसवंत सिंह की उपेक्षा और मानवेंद्र सिंह का कांग्रेस में जाना भी बड़ा फैक्टर है. राजपूत समुदाय करीब 100 विधानसभा सीटों पर मौजूद है.

गुर्जरः 50 सीटों पर इस समुदाय की मौजूदगी है. आरक्षण के मुद्दे पर गूजर भाजपा से नाराज थे. पुलिस फायरिंग और आपसी संघर्ष में 2007 के बाद से 70 से अधिक गूजर मारे गए हैं. सचिन पायलट को भावी मुख्यमंत्री के रूप में संभावना से कांग्रेस की तरफ इनका चुनाव अभियान में झुकाव बढ़ता देखा गया था. इन सारे फैक्टर भाजपा की संभावनाओं में पलीता लगाने वाले साबित हुए हैं.

चुनावी लिहाज से राजस्थान को मोटे तौर पांच क्षेत्रों में बांटा जाता है.

इनमें से एक तो जयपुर ही है. इस क्षेत्र में 19 सीटें हैं जिनमें शाम 6 बजे तक के रुझानों के मुताबिक, भाजपा के पास 6, कांग्रेस के पास 11 और अन्य के पास 2 सीटें जाती दिख रही हैं.

दूसरे चुनावी क्षेत्र मध्य राजस्थान में भी तीन इलाके हैं. धूंधड़ इलाके में अजमेर, सवाई माधोपुर, करौली, टोंक और दौसा 5 जिले हैं. इस इलाके में मीणा फैक्टर प्रभावी है. ऐसा माना जाता है कि मीणाओं का झुकाव भाजपा की तरफ था लेकिन इस इलाके में भाजपा को 8, कांग्रेस को 13 और अन्य को 3 सीटों पर बढ़त/जीत हासिल हुई है. ऐसे में आंकड़े कुछ और ही कहानी बयान करते हैं.

मध्य राजस्थान के मत्स्यांचल में 3 जिले हैं, भरतपुर, अलवर और धौलपुर. इनमें 22 सीटें हैं. यह इलाका सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का इलाका है. मीणा फैक्टर भी यहां काम करता है. फिर भी, यहां भाजपा 4, कांग्रेस 10 और अन्य 7 सीटों पर आगे है. तो इसका अर्थ है कि मंदिर मुद्दा यहां चला नहीं.

तीसरे क्षेत्र हाड़ौती में 4 जिले हैं, जिनमें कोटी बूंदी बाराँ और झालावाड़ हैं. इसमें 17 सीटें हैं और कांग्रेस बनाम भाजपा के सीधी टक्कर वाली 13 सीटें हैं, 4 सीटें बहुकोणीय मुकाबले वाली रही हैं. लेकिन भाजपा 9 और कांग्रेस 8 सीटों पर जीतती दिख रही है. यानी बाकी को कोण वाली पार्टियों को कुछ खास हासिल नहीं हुआ है.

तीसरा चुनावी इलाका, दक्षिणी राजस्थान है, जिसे मेवाड़ भी कहा जाता है.

यह इलाका हर पांच साल पर जनादेश बदल देता है. माना जाता है कि जो पार्टी मेवाड़ जीत लेती है वही सरकार बनाती है. खासकर सालुम्बर सीट खास सलिए है क्योंकि 1977 से जो पार्टी यह सीट जीतती है सरकार उसी की बनती आई है. मेवाड़ में 7 जिले हैं और 35 सीटें हैं. इनमें उदयपुर, डुंगरपुर, भीलवाड़ा, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा के इलाके हैं. यहां 27 सीटों पर सीधी टक्कर थी. भीलवाड़ा सीपी जोशी के प्रभाव का इलाका है. 2009 में यहां भाजपा 9 और कांग्रेस 24 सीटों पर जीती थी. लेकिन इस बार भाजपा 19, कांग्रेस 13, अन्य 3 सीटों पर जीतती नजर आ रही है.

पश्चिमी राजस्थान का इलाका कांग्रेस के दिग्गज नेता अशोक गहलोत का है. यहां किसी तीसरी सियासी पार्टी का कोई वजूद नहीं है. कुल 43 सीटें इस इलाके में हैं जिनमें से 33 सीटों पर सीधी टक्कर थी. इस इलाके में ओबीसी और जाट वोट बेहद निर्णायक होते हैं. इसके अलावा मेघवाल, राजपुरोहित और राजपूतों का वोट भी अहम होता है.

इस इलाके के तहत जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, नागौर, जालौर, पाली और सिरोही जिले आते हैं. 2008 में भाजपा को 19 और कांग्रेस को 20 सीटें मिली थीं. अन्य को 4 सीटें हासिल हुई थीं. लेकिन इस बार 2018 में भाजपा को 15, कांग्रेस को 26 और अन्य को 3 सीटें मिलती दिख रही हैं.

उत्तरी राजस्थान में शेखावटी और बीकानेर दो जोन हैं. शेखावटी में सीकर, झूंझनूं और चुरू जिले हैं जिनमें 21 सीटें हैं. इस जोन में कांग्रेस को 14, भाजपा को 5 और अन्य को 2 सीटें मिलती दिख रही हैं.

बीकानेर जोन में बीकानेर, गंगानगर और हनुमानगढ़ जिलों में कुल 18 सीटें हैं. यहां भाजपा को 9, कांग्रेस को 6 और अन्य को 2 सीटें मिलती दिख रही हैं.

इस इलाके के जाट वोटबैंक का कांग्रेस की तरफ झुकाव था जबकि राजपूत अमूमन भाजपा को वोट करते रहे है.

वैसे, राजस्थान में अब बहस यह है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बनेंगे या सचिन पायलट, लेकिन कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, सीटों की संख्या के मद्देनजर जादूगर कहे जाने वाले गहलोत को ही कमानी सौंपी जा सकती है. युवा सचिन थोड़ा और इंतजार करने के लिए कहे जा सकते हैं.

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Friday, November 23, 2018

क्या सारे मनुष्य आनुवंशिक रूप से एक हैं या हमारी नस्लें अलग हैं?

आज की दुनिया में मौजूद सभी मनुष्य होमो सेपियन्स (आत्मश्लाघा से ग्रस्त हम लोगों ने खुद को होमो जीनस से ताल्लुक रखने वाले सेपियन्स यानी बुद्धिमान मान लिया है) हैं. लेकिन इसके अलावा और भी आदिम प्रजातियां रही हैं जो हम जैसी थीं.

25 लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका में वानरों का प्रारंभिक जीनस ऑस्ट्रालोपीथिकस था. मजबूत कद-काठी के निएंडरथल्स थे. इंडोनेशिया के होमो सोलोऐंसिस थे. इसके अलावा होमो रुडोल्फेंसिस, होमो एर्गास्टर (कामकाजी मनुष्य) और सीधे खड़े होने वाले होमो इरेक्टस थे. अमूमन भ्रांतिवश इन सबको एक ही सीधी वंशावली के पूर्वज मान लिया जाता है, जिससे हम विकसित हुए. (मनु-शतरूपा, आदम-हव्वा, एडम-ईव वाले प्लीज इस पोस्ट को नजरअंदाज करें)

पाठ्यपुस्तकों में अभी तक माना जाता है कि एर्गास्टर ने इरेक्टस को जन्म दिया, इरेक्टस ने निएंडरथल्स को और फिर निएंडरथल्स से हम लोग हुए. यह एकरैखीय मॉडल इस गलत धारणा को जन्म देता है कि किसी खास क्षण में किसी एक ही किस्म के मनुष्य पृथ्वी रहते थे.

तो फिर उनका क्या हुआ? इस बारे में दो परस्पर विरोधी सिद्धांत है या ठीक-ठीक कहें तो अनुमान हैं. पहला है संकरण सिद्धांत (इंटरब्रीडिंग थियरी) जो आकर्षण, सेक्स और दो प्रजातियों के आपस में घुलने-मिलने की कहानी है. जैसे ही अफ्रीका से आए लोग दुनिया में फैले (कैसे, यह अगली किसी पोस्ट में) उन्होंने दूसरी मनुष्य आबादियों के साथ मिलकर प्रजनन किया और आज के लोग इसी संकरण का नतीजा हैं.

इसके उलट, प्रतिस्थापन सिद्धांत (रिप्लेसमेंट थियरी) बिलकुल अलहदा कहानी कहता है--असामंजस्य, विकर्षण और शायद जाति संहार की कहानी. इस अनुमान के मुताबिक, सेपियन्स और दूसरे मानव प्रजातियों की शारीरिक रचनाएं भिन्न थीं, संभावना है कि इनके सहवास के ढंग और शारीरिक गंध भी अलग रही होगी. अगर एक निएंडरथल जूलिएट और सेपिसन्स रोमियो के बीच इश्क़ भी हो जाता तो वे जननक्षम बच्चे पैदा नहीं कर सकते थे. दोनों आबादियां पूरी तरह विलग बनी रहीं और निएंडरथल या तो मार दिए गए या मर गए और उनके जीन भी उन्हीं के साथ मर गए. यानी सेपियन्स ने पिछली तमाम प्रजातियों की जगह ले ली. इस तरह आज के हम सब मनुष्यों का उद्गम पूरी तरह पूर्वी अफ्रीका में आज से 70 हजार साल पहले हुआ.

लेकिन अगर प्रतिस्थापन सिद्धांत सही है तो हम सब जिंदा लोगों का आनुवंशिक वजन एक जैसा है और इसतरह नस्लीय रूप से भेदभाव गलत ठहरता है. लेकिन अगर संकरण सिद्धांत सही है तो अफ्रीकियों, यूरोपियनों और एशियाईयों के बीच हजारों साल पुराने आनुवंशिक भेद हैं. यह राजनैतिक डायनामाइट है, जो विस्फोटक नस्लभेदी सिद्धांतों के लिए पर्याप्त बारूद मुहैया करा सकता है.


Thursday, November 15, 2018

राजनीतिक पार्टियों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती सरकार?

अभी हाल ही में एक मीम आया था, जिसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लोगों से चंदा मांगते दिखते थे और बाद में वेलकम-2 का एक सीन और परेश रावल का एक संदे्श आता है. यह मीम अरविंद केजरीवाल की हंसी उड़ाने के लिए था. और कामयाब रहा था. 

पर आपको और हमें, सोचना चाहिए कि आखिर राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, उनका खर्च कैसे चलता है? आपने कभी किसी पार्टी को चंदा दिया है? कितना दिया है? चुनावों पर उम्मीदवार और सियासी दल कितना खर्च करते है? जितना करते हैं उतना आपको बताते है और क्या वह चुनाव आयोग की तय सीमा के भीतर ही होता है? और अगर आपके पसंदीदा दल के प्रत्याशी तय स्तर से अधिक खर्च करते हैं (जो करते ही हैं) तो क्या वह भ्रष्टाचार में आएगा? प्रत्याशी जितनी रकम खर्च करते हैं वह चुनाव बाद उन्हें वापस कैसे मिलता है? और आपके मुहल्ले को नेता, जो दिन भर किसी नेता के आगे-पीछे घूमता रहता है उसके घर का खर्च कौन चलाता है?

अभी चार महीनों के बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. इन दिनों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में चुनाव प्रक्रिया चल रही है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले चुनावी वादा किया था, न खाऊंगा न खाने दूंगा. ऐसा नहीं कि सरकार ने शुचिता के दायरे में राजनीतिक दलों को लाने की कोशिश नहीं की, पर प्रयास नाकाफी रहे. सरकार के हालिया प्रयासों के बावजूद भारत में चुनावी चंदा अब भी अपारदर्शी और काले धन से जुड़ी कवायद बना हुआ है. इसकी वजह से चुनाव सुधारों की प्रक्रिया बेअसर दिखती है.

अभी आने वाले लोकसभा चुनाव में अनुमान लगाया जा रहा है कि 50 से 60 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे. यह खर्च 2014 में कोई 35,000 करोड़ रु. था. जबकि हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 9.5 से 10 हजार करोड़ रु. खर्च हुआ. 2013 में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में इसकी ठीक आधी रकम खर्च हुई थी. 

जरा ध्यान दीजिए कि राजनैतिक पार्टियां चंदा कैसे जुटाती हैं. आमतौर पर माना जाता है कि स्वैच्छिक दान, क्राउड फंडिंग (आपने कभी दिया? मैंने तो नहीं दिया) कूपन बेचना, पार्टी का साहित्य बेचना (उफ) सदस्यता अभियान (कितनी रकम लगती है पता कीजिए) और कॉर्पोरेट चंदे से पार्टियां पैसे जुटाती हैं. 

निर्वाचन आयोग के नियमों के मुताबिक, पार्टियां 2000 रु. से अधिक कैश नहीं ले सकतीं. इससे ज्यादा चंदे का ब्योरा रखना जरूरी है. ज्यादातर पार्टियां 2000 रु. से ऊपर की रकम को 2000 रु. में बांटकर नियम का मखौल उड़ाती हैं क्योंकि 2000 रु. तक के दानदाता का नाम बताना जरूरी नहीं होता. एक जरूरी बात है कि स्थानीय और ठेकेदार नकद और अन्य सुविधाएं सीधे प्रत्याशी को देते हैं न कि पार्टी को.

कंपनियां चुनावी बॉन्ड या चुनाव ट्रस्ट की मार्फत सीधे चंदा दे सकती हैं, दानदाता के लिए यह बताना जरूरी नहीं है चंदा कि पार्टी को दिया, पार्टियों के लिए भी किससे चंदा लिया यह जाहिर करना जरूरी नहीं है.

तो अब यह भी जान लीजिए कि सियासी दल पैसे को खर्च कहां करती हैं. दल, पार्टी और इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में, चुनावी रैली, खाना, परिवहन, और ठहरने में, कार्यकर्ताओं को तनख्वाह देने में, प्रिंट, डिजिटल और टीवी में विज्ञापन देने में खर्च करते हैं. चुनाव के दौरान प्रत्याशी नकद, सोना, शराब और अन्य चीजें भी बांटते हैं. मसलन फोन, टीवी. फ्रिज वगैरह. नया तरीका लोगों के मोबाइल रिचार्ज कराना और बिल भरना भी है. अब आप बताएं कि यह किसी एजेंसी की पकड़ में नहीं आएगा.

मोदी सरकार के उपाय

नरेंद्र मोदी सार्वजनिक जीवन में शुचिता का समर्थन करते रहे हों, पर उनकी सरकार के उपायो से भी यह शुचिता आई नहीं है. मसलन, सरकार ने पार्टियों द्वारा बेनामी नकद चंदे की सीमा पहले के 20,000 रु. से घटाकर 2,000 रु कर दी लेकिन नकद बेनामी चंदा लेने के लिए पार्टियों के लिए एक सीमा तय किए बगैर यह उपाय किसी काम का नहीं है.

पहले विदेशों से या विदेशी कंपनियों से चंदा लेना अपराध के दायरे में था. कांग्रेस और भाजपा दोनों पर विदेशों से धन लेने के आरोप थे. मोदी सरकार ने 1976 के विदेशी चंदा नियमन कानून में संशोधन कर दिया है जिससे राजनीतिक दलों के विदेशों से मिलने वाले चंदे का जायज बना दिया गया. यानी 1976 के बाद से राजनैतिक पार्टियों के चंदे की जांच नहीं की जा सकती. राजनैतिक दल अब विदेशी कंपनियों से चंदा ले पाएंगे. लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इससे दूसरे देश हमारे चुनावों में दखल देने लायक हो जाएंगे? 

शायद भारतीय चुनाव अभी तक विदेशी असरात से बचा रहा है, लेकिन चुनावों पर कॉर्पोरेट के असर से इनकार नहीं किया जा सकता. पार्टियों को ज्ञात स्रोतों से मिले चंदे में 2012 से 2016 के बीच कॉर्पोरेट चंदा कुल प्राप्त रकम का 89 फीसदी है.

मोदी सरकार ने 2017 में कॉर्पोरेट चंदे में कंपनी के तीन साल के फायदे के 7.5 फीसदी की सीमा को हटा दिया. कंपनी को अपने बही-खाते में इस चंदे का जिक्र करने की अनिवार्यता भी हटा दी गई.  हटाने से पार्टियों के लिए बोगस कंपनियों के जरिए काला धन लेना आसान हो जाएगा. लग तो ऐसा रहा है कि यह प्रावधान फर्जी कंपनियों के जरिए काले धन को खपाने का एक चोर दरवाजा है.

कुल मिलाकर राजनैतिक शुचिता को लेकर भाजपा से लेकर तमाम दलों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसको लेकर भी एक आंकड़ा है, 2016-17 में छह बड़ी राजनैतिक पार्टियों के कुल चुनावी चंदे का बेनामी स्रोतो से आया हिस्सा 46 फीसदी है. समझ में नहीं आता कि अगर सरकार वाक़ई पारदर्शिता लाना चाहती है तो सियासी दलों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती?

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Thursday, November 8, 2018

दीवाली-होली का विरोध महज हिंदुफोबिया है

 सत्ताओं के पास आम आदमी को लड़ाने के लिए जब भूगोल नहीं बचता, तो वह इतिहास के नाम पर लड़ाता है. द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद भूगोल कमोबेश स्थिर हो गया है. इसलिए सत्ताओं के पास हमने लड़ाने के लिए कोई चारा नहीं, सिवाए इतिहास के. इसलिए आने वाले संघर्ष अस्मिताओं के होंगे.


''उमराव जान का फ़ैज़ाबाद अब अयोध्या कहलाया जायेगा...हिंदुस्तान की रगों में सांप्रदायिकता का ज़हर भरकर, सैकडों साल पुरानी मुस्लिम विरासत को तबाह करने की ये साज़िश कामयाब नहीं होगी... ‪शहरों के नाम बदलने से तारीख़ नहीं मिटा करती. ‪हिंदुस्तान जितना हिंदू है, उतना मुस्लिम भी है.''


फेसबुक पर यह स्टेटस एक मशहूर मुस्लिम महिला एंकर और पत्रकार न लिखा. मुझे मुस्लिम नहीं लिखना चाहिए था, पर उनका यह पोस्ट वाकई मुस्लिम विरासत के लिए था. एकपक्षीय़ था इसलिए लिखना पड़ा. बहरहाल, मुझे भी शहरों, नदियों के नाम बदलने पर दिक्कत थी. लेकिन मेरी दिक्कत के तर्क अलग थे. मसलन मैं चाहता हूं कि कोलकाता का नाम भले ही लंदन कर दिया जाए, लेकिन फिर उसके साथ विकास के तमाम काम किए जाएं. हमारे मधुबनी का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया जाए पर वहां तरक्की भी हो.

शहरों और राजधानियों के नाम तय करना हमेशा सत्ताधारी पक्ष के हिस्से में होता है. पहले भी नाम सियासी वजहों से बदले गए थे. मसलन कनॉट प्लेस का राजीव चौक. बंबई का मुम्बई और मद्रास का चेन्नै. अब भी सियासी वजहों से बदले जा रहे हैं. आपके मन की सरकार आए तो वापस अय़ोध्या को फैजाबाद, प्रयागराज को इलाहाबाद कर दीजिएगा. 

यकीन कीजिए, रोटी की चिंता करने वाले लोगों को बदलते नामों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आपको पड़ेगा. जिनके लिए धर्म और दीन रोटी से ऊपर है, उनको उस विरासत की चिंता होगी. आप जैसों के स्टेटस से ही किसी गिरिराज सिंह को दहाड़ने का मौका मिलता है कि इनको पाकिस्तान भेजो. भारतीय संस्कृति की जो दुहाई आप दे रही हैं न, वह सिर्फ एक संप्रदाय की विरासत की बात नहीं करता. जैसा कि फैजाबाद के नाम पर आपको एक नगरवधू का इतिहास भर दिखा.

जैसा कि ऊपर के उद्धृत पोस्ट में, फैज़ाबाद का नाम अयोध्या पर उक्त एंकर को कष्ट हुआ, और उन्हें लगा कि यह सैकड़ों साल की मुस्लिम विरासत को तबाह करने की साजिश है. मोहतरमा, आपको पुराने नाम बदलने पर दिक्कत है, तो आप यह तो मानेंगी कि फैजाबाद कोई नया शहर नहीं था. अयोध्या उससे पुराना मामला है. (खुदाई में एएसआइ कह चुका है) तो फैजाबाद भी किसी को बदलकर रखा गया था.

और जिस तारीख पर इतना नाज है न आपको, भारत में वह हजार साल पुरानी ही है. आपकी ही बात, अयोध्या का नाम फैजाबाद रखने से उसका इतिहास नहीं बदल गया. वैसे भी हिंदुस्तान नाम का यह देश ही नहीं है. यह भारत दैट इज इंडिया है.

आप काफी विद्वान हैं, पर पूर्वाग्रहग्रस्त लग रही हैं. आप जैसे विद्वानों की वजह से खीजे हुए हिंदुओं ने कल दिल्ली में रिकॉर्ड आतिशबाजी की. मान लीजिए कि यह हिंदुओं की गुस्सैल प्रतिक्रिया थी. मुझे जैसे इंसान ने, जिसने करगिल के युद्ध के बाद आतिशबाजी बंद कर थी, कल तय समय सीमा में ही सही, खूब पटाखे छुड़ाए. पता है क्यों? क्योंकि सेकुलर जमात की न्यायिक सक्रियता एकपक्षीय है. दीवाली पर प्रदूषण सूझता है. होली पर पानी की कमी दिखती है.

आपको तो पता भी नहीं होगा कि जिस विदर्भ में पानी की कमी की वजह से किसान रोजाना आत्महत्य़ा कर रहे हैं वहां सरकार ने 47 नए तापबिजली घरों के निर्माण को मंजूरी दी है. पहले ही वहां बहुत सारे तापबिजलीघर हैं. ताप बिजलीघरों में एक मेगावॉट बिजली बनाने के लिए करीबन 7 क्यूबिक मीटर पानी खर्च होता है. यानी, ताप बिजलीघरों का हर 100 मेगावॉट सालाना उत्पादन पर करीबन 39.2 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी का खर्च है. देश भर में 1,17,500 मेगावॉट के कोयला आधारित ताप बिजलीघरों को पर्यावरणीय मंजूरी दे दी गई है. इतनी मात्रा में बिजली पैदा करने के लिए 460.8 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी खर्च होगा. इतने पानी से 920,000 हेक्टेयर खेतों की सिंचाई की जा सकती है, या 8.4 करोड़ लोगों की सालभर की पानी की जरूरते पूरी की जा सकती हैं.

होली पर पानी की बचत का ज्ञान तो घर में जेट पंप से कार धोने वाले भी देने लगते हैं. लगता है देश में होली की वजह से ही सूखा पड़ता है. इसे सेकुलरिज्म नहीं, हिंदुफोबिया कहते हैं. एसी में बैठकर हमें कार्बनफुट प्रिंट का ज्ञान दिया जा रहा है. कभी सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल नहीं करेंगे, घर में चार कारें रखेंगे और चिंता प्रदूषण की करेंगे. अब इस हिप्पोक्रेसी का क्या किया जाए. आपके वैचारिक पतन की यही वजह है.

आपकी नजर इस पर गई ही नहीं होगी, क्योंकि आपको होली-दीवाली के आगे कुछ दिखेगा ही नहीं. अगर प्रदूषण के मामले में दिल्ली दीवाली से पहले एकदम साफ-सुथरी होती तो पटाखों के खिलाफ सबसे पहले मैं खड़ा होता. पर, दीवाली को साफ-सुथरा मनाने की सलाह देने के पीछे मंशा उतनी ही कुत्सित है जितनी सबरीमला में खून से सना सैनिटरी पैड ले जाने की, तो यकीन मानिए, आपके विरोध में उठी पहली आवाज भी मेरी होगी.

वैसे यह भी मानिए कि सत्ताओं के पास आम आदमी को लड़ाने के लिए जब भूगोल नहीं बचता, तो वह इतिहास के नाम पर लड़ाता है. द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद भूगोल कमोबेश स्तिर हो गया है और दुनिया के कुछेक इलाकों, इज्राएल-फिलीस्तीन, पाकिस्तान-बारत सरहद जैसे क्षेत्रों को छोड़ दें तो भूगोल के नाम पर लड़ाईय़ां नहीं होती. इसलिए सत्ताओं के पास हमने लड़ाने के लिए कोई चारा नहीं, सिवाए इतिहास के. जनता लड़ेगी नही तो सत्ता के लिए प्रेरणाएं कहां से हासिल होंगी. इसलिए आने वाले संघर्ष अस्मिताओं के होंगे. इसलिए कभी शहरों के नाम बदले जाएंगे, कभी सदियों पहले के अत्याचारों का बदला लिया जाएगा और कभी आप अपनी कथित मुस्लिम विरासत की रक्षा के लिए जिहाद को उठ खड़ी होंगी.

विरासत को छोड़िए, भविष्य बचाइए. शहरों के नाम बदलने पर आपको जिस संप्रदाय की विरासत के खत्म होने का खतरा महसूस हो रहा है, उनके भविष्य के लिए रोजगार और शिक्षा की मांग कीजिए. वैसे चलते-चलते एक डिस्क्लेमर दे ही दूं, खैर छोड़िए उससे कोई फायदा तो है नहीं.











Monday, November 5, 2018

बिहार में भाजपा जद-यू के आगे क्यों झुकी?

एक और सहयोगी को खो बैठने के डर से बिहार में भाजपा 2019 के लिए संसदीय सीटों की नीतीश की मांग के आगे झुकी 

बिहार के मामले में आखिरकार, भाजपा और उसके अध्यक्ष अमित शाह को नरम होना पड़ा. अमित शाह और जद (यू) प्रमुख और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह घोषणा की कि वे बिहार में 2019 लोकसभा चुनाव में बराबर सीटों पर लड़ेंगे. सीटों पर बराबरी की यह बात गौर से देखें तो साफ लगता है कि भगवा पार्टी काफी झुक गई. फिलहाल राज्य में उसके पास लोकसभा की सबसे ज्यादा सीटें हैं. जीत के लिहाज से उसे सीटें ज्यादा मिलनी चाहिए थीं.

राज्य में 2014 में भाजपा को 40 में से 22 पर जीत मिली थी, जबकि अकेले लडऩे वाले जद (यू) को सिर्फ दो सीटें हासिल हुई थीं. नए तालमेल का मतलब यह है कि भाजपा के कम से कम पांच मौजूदा सांसदों का टिकट कट सकता है. राज्य में एनडीए के पास फिलहाल 33 सीटें हैं, जिनमें रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के पास छह और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के पास तीन सीटें हैं.

खबर है कि भाजपा को यह घोषणा करने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि नीतीश कुमार ने गठबंधन की किसी भी बैठक में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था. मौजूदा गणित में भाजपा और जद-यू 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. इस तरह लोजपा के लिए सिर्फ चार और आरएलएसपी के लिए सिर्फ दो सीटें बचेंगी. आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा तो खुलकर खीर बनाने की कोशिशें करते नजर आ सकते हैं. दो सीटों के विकल्प के साथ उनके पास नाक बचाने के लिए एनडीए छोड़ने के सिवा ज्यादा चारा है नहीं.

भाजपा के झुकने की वजह यह मानी जा रही है कि बिहार में अच्छे नतीजों के लिए भाजपा नीतीश कुमार पर निर्भर है. तो क्या यह माना जाए कि चंद्रबाबू नायडू के कांग्रेस के पाले में चले जाने के बाद भाजपा नहीं चाहती कि नीतीश से उनका ब्रोमांस खत्म हो जाए.

बिहार में नीतीश अपरिहार्य हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि 2005 से 2015 के बीच (सिर्फ 2014 में नरेंद्र मोदी लहर को छोड़ दें तो) हुए चार विधानसभा और दो लोकसभा चुनाव के दौरान जीत उसी धड़े को हासिल हुई जिसकी तरफ नीतीश कुमार थे. साथ ही यह बात भी समझिए कि 2014 में जहां भाजपा मोदी लहर और सत्ताविरोधी रूझान को साथ लेकर उड़ रही थी अब 2019 में हमें उसे खुद सत्ताविरोधी रुझान का सामना करना है. जनता के एक तबके में मोदी से मोहभंग जैसा माहौल भी है, उससे निपटना भी आसान नहीं होगा.

शायद यही वजह है कि भाजपा ने बिहार में एनडीए के लोकसभा अभियान का नेतृत्व नीतीश को सौंप दिया है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की हार और मोदी लहर के ठंडे पड़ते जाने से भगवा पार्टी के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है. इसके साथ ही कीर्ति आजाद जैसे कई कमजोर खिलाड़ियों का पत्ता साफ हो सकता है. दरभंगा के मौजूदा सांसद आजाद वैसे भी अरूण जेटली की हिट लिस्ट में हैं. आजाद उन पांच भाजपा सांसदों में होंगे जिनकी जगह जद-यू के किसी प्रत्याशी को दी जा सकती है. संजय झा जद-यू के महासचिव और नीतीश कुमार के काफी करीबी हैं.

जो भी हो, फिलहाल भाजपा ने ध्वज नीतीश के हाथों में पकड़ा दिया है.

Wednesday, October 31, 2018

भूख से लड़ने में हम अभी भी नाकाम हैं

हाल ही में ग्लोबल हंगर इंडेक्स (वैश्विक भूख सूचकांक) जारी हुआ है. भारत इसमें कोई खास उपलब्धि हासिल करने में नाकाम रहा. हालांकि विपक्ष के उस दावे को सही नहीं माना जा सकता कि 2014 के बाद नई सरकार आने के बाद भारत की स्थिति ज्यादा बदतर हुई है, लेकिन यह सही है कि प्रगति बेहद मामूली हुई है. खासकर नेपाल और बांग्लादेश जैसे देशों की तुलना में. विश्व बैंक के मानव पूंजी सूचकांक में भारत काफी निचले पायदान पर है. 

वित्त मंत्रालय के मुताबिक, विश्व बैंक के आंकड़ों में काफी खामियां हैं और उसकी गणना की विधि खराब है. वैसे कुछ तथ्य पेश-ए-नजर हैंः
1. वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान 119 देशों की सूची में 103वां रहा. चीन 25वें, श्रीलंका 67वें, म्यांमार 68, नेपाल 72, बांग्लादेश 86वें स्थान पर रहा. मित्रों को खुशी होगी, पाकिस्तान 106 स्थान के साथ भारत से नीचे रहा. नहीं?
2. विश्व बैंक के नए मानव पूंजी सूंचकांक में भारत 157 देशों की सूची में 115वें स्थान पर रहा.
3. 2018 के वैश्विक भूख सूचकांक में भूख के गंभीर स्तर वाले 45 देशों में भारत भी शामिल है.
4. 21 फीसदी भारतीय बच्चे, जिनकी उम्र 5 साल से कम है, अत्य़धिक कम वजन के हैं. साल 2000 में यह 17 फीसदी थी,
5.भारत के 14.8 फीसदी लोग कुपोषण के शिकार हैं, जो 2000 के 18.2 फीसदी की तुलना में कम है, बाल मृत्यु दर 9.2 से घटकर 4.3 रह गई है और बाल बौनापन 54.2 से घटकर 38.4 रह गई है.
6. भारत के 19.4 करोड़ लोग रोज भूखे रहते हैं, यह आंकड़ा यूएन का FAO का है. जबकि भारत के लोग सालाना 14 अरब डॉलर का भोजन बर्बाद करते हैं.


सभी मित्रों की सरदार पटेल की प्रतिमा, जो दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा है के अनावरण की बधाई. इसकी लागत कोई 2400 करोड़ रु. है 650 करोड़ रु. इसके रखरखाव पर खर्च होंगे.


Sunday, September 23, 2018

क्या कोई आकर हमें हिंदुत्व का पाठ पढ़ाएगा?

ध्रुवीकरण और एकता की संघीवादी खोज के पीछे हिंदू धर्म को वह सब बनाने की ललक भी है जो वह नहीं हैरू उसे 'सेमिटाइज' करने की ललक, ताकि वह 'आक्रमणकारियों' के धर्मों की तरह दिखाई दे—संहिता और रूढ़ सिद्धांतों से बंधा धर्म, जिसका एक पहचानने लायक भगवान (संभवतः राम) हो, एक प्रधान पवित्र ग्रंथ (गीता) हो.

अमूमन माना जाता है कि हिंदुओं को सहिष्णु होना चाहिए. इसलिए जब हिंदुओं को ग़ुस्सा आता है तो लोग स्तब्ध रह जाते हैं. वो समझते हैं कि ये तो हिंदू धर्म का मूल नहीं है. ऐसे में एक तबका सामने आता है, जो ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, पर असल में वे हिंदू धर्म के विरुद्ध हैं. इन लोगों के लिखने में या बोलने में हिंदू विरोधी पूर्वाग्रह दिखाई देता है.

बीबीसी हिंदी में लिखे एक स्तंभ में पौराणिक कहानियों के लेखक देवीदत्त पटनायक कहते हैं, "अगर आपको ईसाइयत को समझना हो तो आप बाइबिल पढ़ सकते हैं, इस्लाम को समझना है तो क़ुरआन पढ़ सकते हैं, लेकिन अगर हिंदू धर्म को समझना है तो कोई शास्त्र नहीं है जो यह समझा सके कि हिंदू धर्म क्या है. हिंदू धर्म शास्त्र पर नहीं बल्कि लोकविश्वास पर निर्भर है. इसका मौखिक परंपरा पर विश्वास है."

वो आगे कहते हैं कि इन्हीं कतिपय कारणों से हिंदुओं में गुस्सा है. मुझे लगता है कि अगर हिंदुओं में कोई हीन भावना है, या गुस्सा है, और आज के दौर में जिस तरह वॉट्सऐप के जरिए गलतबयानियां फैलाना आसान हो गया है, उसमें हिंदुओं की छवि आक्रामकता भरी हो गई है. पर मेरा एक और सवाल है, क्या आज के हिंदुत्व में बहुलदेववाद (समझ में न आए तो कमेंट बॉक्स में कूड़ा न फैलाएं, आपको आपके इष्ट देव की कसम) का स्थान है?

क्या मांसाहार करना हिंदुओं के लिए वर्जित है? लेकिन भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाले ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि असल में भारतीय संस्कृति है क्या? संस्कृति का प्रस्थान बिंदु कहां से तय किया जाएगा? क्या आज भी, और पहले भी, उत्तर भारत का हिंदू धर्म, दक्षिण भारत के हिंदू धर्म से अलग नहीं है? यकीन मानिए, हजार बरस पहले का हिंदू धर्म आज के हिंदू धर्म से बहुत अलग था. हर जाति, हर प्रांत और भाषा में हिंदू धर्म के अलग-अलग रूप हैं. यह विविधता ज़्यादातर लोगों की समझ में नहीं आती. या आती भी होगी तो उसे मानना उनके लिए सुविधाजनक नहीं होगा.

आज कारों के पीछे गुस्साए हुए हनुमान कुछ लोगों को प्रिय लग रहे होंगे. पर सच यह है कि हमारे प्यार हनुमान तो वह है जो तुलसी के मानस पाठ में चुपचाप बैठकर रामकथा श्रवण करते थे. जो संजीवनी लाए वह थे हनुमान. राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा...

पर आज अगर हिंदू आक्रामक है या उसे आक्रामक बनाने में कुछ लोगों को समर्थन मिल रहा है तो उसके पीछे वह वामपंथी बुद्धि है जिसने एक पूरे धर्म को हमेशा अपमानित किया है. एक पूरे धर्म को समझने की बजाए उसको सुधार कर एक नया रूप देने की कोशिश की गई.

आज भी हिंदू संगठन वैसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं. इसके नियम और शास्त्र स्पष्ट करने की कोशिश की जा रही है. राम के एकमात्र देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है. (सीता तस्वीरों से गायब हैं) गीता को एकमात्र धार्मिक किताब के रूप में स्थापित किया जा रहा है (मानस व्यापक स्वरूप में है उसे भाव नहीं दे रहे, जबकि वाल्मीकि रामायण तो उन लोगों ने देखी भी नहीं होगी जो इस पोस्ट पर रायता फैलाने कल आएंगे, और वाल्मीकि रामायण में देवत्व वाला भाव भी कम है.)

ध्रुवीकरण और एकता की संघीवादी खोज के पीछे हिंदू धर्म को वह सब बनाने की ललक भी है जो वह नहीं हैरू उसे 'सेमिटाइज' करने की ललक, ताकि वह 'आक्रमणकारियों' के धर्मों की तरह दिखाई दे—संहिता और रूढ़ सिद्धांतों से बंधा धर्म, जिसका एक पहचानने लायक भगवान (संभवतः राम) हो, एक प्रधान पवित्र ग्रंथ (गीता) हो.

क्या मांसाहार करना हिंदुओं के लिए वर्जित है? लेकिन भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाले ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि असल में भारतीय संस्कृति है क्या? संस्कृति का प्रस्थान बिंदु कहां से तय किया जाएगा? क्या आज भी, और पहले भी, उत्तर भारत का हिंदू धर्म, दक्षिण भारत के हिंदू धर्म से अलग नहीं है? यकीन मानिए, हजार बरस पहले का हिंदू धर्म आज के हिंदू धर्म से बहुत अलग था. हर जाति, हर प्रांत और भाषा में हिंदू धर्म के अलग-अलग रूप हैं. यह विविधता ज़्यादातर लोगों की समझ में नहीं आती. या आती भी होगी तो उसे मानना उनके लिए सुविधाजनक नहीं होगा.


हिंदुत्व के पोस्टरों में कृष्ण को राधा के बिना, राम को सीता के बिना और शिव को पार्वती के बिना दिखाया जाता है. उनकी बहसों में शंकराचार्य के ब्रह्मचर्य का गुणगान किया जाता है जिनके बारे में वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने एक हजार साल पहले लड़ाकू नागाओं का जत्था तैयार किया था ताकि विदेशी हमलावरों से विनम्र साधुओं को बचाया जा सके.

यही वह दावा है जिससे हिंदुत्व गुंडों या ''हाशिये के समूहों" के अस्तित्व को वाजिब ठहराता है. हालांकि वे उस किंवदंती को नजरअंदाज कर देंगे जब उसी शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती की सलाह पर अपनी गुप्त शक्तियों का इस्तेमाल करके राजा अमारु के शरीर में जाकर यौन अनुभव लिया था.

हिंदुत्व का स्त्रैण भाव और कामुकता को खारिज करना उन अब्राहमी मिथकों को ही प्रतिध्वनित करता है जिनमें ईश्वर स्पष्ट रूप से पुरुष है, उसके दूत भी पुरुष हैं और जहां उसका पुत्र बिना किसी यौन संबंध के किसी कुंआरी महिला से पैदा होता है.

लेकिन एक हिंदू के रूप में मैं उनकी बंदिशें क्यों स्वीकार करूं? मैं एक सवर्ण हूं, ब्राह्मण हूं, मेरे खानदान में सैकड़ों सालों से शिव, भैरव, काली और दुर्गा के विभिन्न रूपों की उपासना होती रही है. मिथिला हमारा इलाका है. जहां हम लोग सगर्व मांसाहार करते हैं और मछली हमारे भोजन के अहम हिस्सा है. जबकि देश के दूसरे हिस्सों में (जैसे पश्चिमी यूपी, राजस्थान गुजरात में मांसाहार का प्रचलन कम है) तो यही विविधता है न.

विडंबना यह है कि हिंदुत्व का नए सिरे से बढ़-चढ़कर दावा आत्मविश्वास के बजाए असुरक्षा की झलक देता है. यह अपमान और पराजय की बार-बार याद दिलाने की बुनियाद पर खड़ा किया जाता है, मुस्लिम फतह और हुकूमत की गाथाओं से इसे मजबूत किया जाता है, तोड़े गए मंदिरों और लूटे गए खजानों के किस्से-कहानियों से इसे हवा दी जाती है.

इस सबने बेहद संवेदनशील हिंदुओं को नाकामी और पराजय के अफसाने में कैद कर दिया है, जबकि उन्हें आत्मविश्वास से भरे उस धर्म की उदार कहानी का हिस्सा होना चाहिए था जो दुनिया में अपनी जगह की तलाश कर रहा है. अतीत की नाकामियों की तरफ देखने से भविष्य की कामयाबियों के लिए कोई उम्मीद नहीं जागती.

मैं हिंदू धर्म के एकेश्वरवादी बनाए जाने की कोशिशों का विरोध करता हूं.


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Friday, September 14, 2018

हैप्पी हिंदी डे डूड

हिंदी को लेकर कई तरह की दुकानदारियां चल रही हैं, चलती आ रही हैं और चलती ही रहेंगी. आम जन हिंदी में लिखने को साहित्य समझता है. साहित्यकार भी मठाधीशी करते हुए हिंदी को अपनी बपौती समझने लगे हैं. विश्व हिंदी दिवस से लेकर तमाम विमर्श हैं हिंदी में, पर ज्ञान की भाषा अभी भी अंग्रेजी क्यों है?

Wednesday, August 15, 2018

मैंने वीएस नायपाल को शब्दों में देखा है

सर विदियाधर सूरजप्रकाश नायपॉल यानी वीएस नायपॉल नहीं रहे. भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिकता प्राप्त इस उम्दा लेखक का जन्म त्रिनिदाद में में 17 अगस्त 1932 को हुआ था. लेखक वह उम्दा थे उनके विचार अनोखे थे और यह कत्तई जरूरी नहीं था कि आप उनके विचारों से हमेशा इत्तफाक रखें. पर उनकी दो किताबों के अनुवादक के तौर पर मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि सर विदिया की विद्वता उनके लिखने की शैली और एकदम गजब का माहौल सिरज देने की उनकी क्षमता वाकई कमाल थी.

वीएस नायपॉल को भारत में जितना पढ़ा नहीं गया उससे अधिक उनके बारे में अफसाने बने. बमुश्किल लोगों ने उन्हें पढ़ा होगा और बिना पढ़े ही उनके बारे में राय कायम कर ली गई. मैं कह सकता हूं कि उनको लेकर बनी धारणाएं पूर्वाग्रहग्रस्त थीं. खासकर भारत को लेकर उनकी दृष्टि पर सबसे अधिक भृकुटियां टेढ़ी हुई थीं. उनकी निगाहों ने भारत को भले ही बाहर से देखा हो, लेकिन क्या यह सच नहीं कि उनके अवचेतन में भारत गहरे बसा हुआ था?

क्या किसी विषय पर लिखने के लिए वहां बसकर या रहकर लिखना जरूरी है? क्या प्रसव पीड़ा पर कविता लिखने के लिए किसी को खुद बच्चे को जन्म देना होता है?

शायद भारतीय बुद्धिजीवियों ने उनकी किताब ‘इंडिया: ए वुंडेड सिविलाइजेशन’ पर सबसे ज्यादा हैरानी और मुखालफत दर्ज कराई है. इस किताब में आजादी के बाद के भारत की सामाजिक–राजनीतिक परिस्थितियों,आन्दोलनों और नेताओं की बहुत खाल छीलने वाली पर बहुत तथ्यात्मक आलोचना है.

नायपॉल को संभवतया इस्लाम-विरोधी भी माना जाता है. पर उसको लेकर उनकी भी अपनी दलीलें थीं. पर ऐसी ही दलीलें दूसरे लेखकों के पास भी हैं, उनके अपने विचारों के पक्ष में.
द लॉस ऑफ एल दोरादो वेनेजुएला की खाड़ी के आसपास के इलाकों का इतिहास है. 
हम भारतीयों ने जिस इस्लाम के विरोध में खड़े होने वाले सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन को अपने सर माथे पर बिठाया, उसके बरअक्स हम नायपॉल को लेकर तटस्थ रुख अपनाए रहे.  बहरहाल, मैंने उनकी जिस पहली किताब का अनुवाद किया था, वह थी द लॉस ऑफ एल दोरादोः एक औपनिवेशिक इतिहास. इस किताब में दो जुड़ी हुई कथाएं हैं. एल दोरादो के बेहूदा खोज अभियानों में हुई लंबी प्रतिद्वंद्विताओं के दौरान मैक्सिको के आसपास के इलाकों के मूल निवासियों पर चला दमन चक्र और फिर दो सौ साल बाद, मानव जनित निर्जन वन प्रांतर में नई गुलाम बस्तियों में पैदा किया गया इंसानी आतंक. कैरीबियाई दास बागानों के बारे में कहा जाता है कि वो अमेरिका की बनिस्बत ज्यादा क्रूर हैं. बेहद शानदार शोध के साथ लिखी गई यह किताब अनौपचारिक और नृशंस ब्योरों के साथ हमें गुलाम उपनिवेशों की रोजमर्रा की जिंदगी की हरमुमकिन नजदीकी तक ले जाती है.
नायपॉल के साथ अपना नाम एक ही पन्ने पर देखना मेरे लिए सबसे खुशी का दिन था


कुलीनता की तमाम उपाधियों के बावजूद यहां कुछ भी शालीन नहीं थाः महज एक अवसरवादी और तकरीबन स्वेच्छाचारी कानून से परे तुनकमिजाज समुदाय था, जिसे हमेशा किसी न किसी गुलाम के खुदकुशी कर लेने या जहर देकर मार दिए जाने का डर बना रहता था. जिसे हमेशा अफ्रीकी जादू-टोने और बगावत का, बदनाम पोर्ट ऑफ स्पेन जेल और रोज-ब-रोज की भयावहता का भी डर था. यह समुदाय हमेशा नेपथ्य में रहा, जो इसके लिए अराजकता से बचने का एकमात्र सुरक्षा कवच था.

त्रिनिदाद और टोबैगो की इस कहानी का, असल में नॉन-फिक्शन का, जिसे नायपाल औपनिवेशिक इतिहास का दर्जा दे चुके थे, अनुवाद करते समय मुझे लगा कि असल में नायपॉल जीनियस हैं. मुझे पता है कि यह छोटी मुंह बड़ी बात होगी. पर शब्द दर शब्द, पन्ना दर पन्ना आगे बढ़ते हुए मैं नतमस्तक होता रहा.



वीएस नायपॉल की दूसरी जिस किताब का मैंने अनुवाद किया था उसका अंग्रेजी नाम थाः द नाइटवॉचमैन्स अकरंस बुक और अन्य हास्य रचनाएं.  असल में यह एक संग्रह है जिसमें दो उपन्यास थे और एक कथा संग्रह था. संग्रह का पहला उपन्यास था एलविरा में चुनाव. यह त्रिनिदाद के अंदरूनी इलाकों में चुनावी प्रचार पर हास्य-विनोद से भरा किस्सा है. जिसमें उम्मीदवारों द्वारा खुल्लमखुल्ला वोट खरीदने की तरकीबों और अलौकिक हथकंडो का जिक्र है.

संग्रह का दूसरा उपन्यास था, मि. स्टोन ऐंड द नाइट्स कंपेनियन जिसका केंद्रीय चरित्र मि. स्टोन एक ऐसा बुढ़ाता हुआ अंग्रेज है जिसकी कुछ आदतें बेहद फूहड़ किस्म की हैं. और अचानक हुए ब्याह से जिसकी जिंदगी में भारी उलट-फेर हो जाता है और पेशे में अप्रत्याशित तरक्की हो जाती है.

द नाइटवॉचमैन्स अकरंस बुक एक संग्रह है जिसमें दो उपन्यास और ग्यारह कहानियां हैं.

कहानी संग्रह टापू पर परचम में ग्यारह कहानियां हैं, जो हमें त्रिनिदाद की एक ऐसी चीनी बेकरी की कहानी सुनाती हैं जिसका अश्वेत मालिक तब तक दिवालिया रहता है जब तक वह चीनी नाम नहीं अपना लेता.

मैं वीएस नायपॉल से कभी मिल नहीं पाया. मेरी हसरत थी कि काश मैं उनसे मिल पाता. पर उनके लिखे कुछेक लाख शब्दों को मैंने हिंदी में फिर से जिया है. मुझे ताउम्र उन से नहीं मिल पाने का मलाल रहेगा और ताउम्र उनके लिखे को फिर से लिखने का अभिमान भी.


Friday, July 27, 2018

नीलोत्पल मृणाल का उपन्यास डार्क हॉर्स साहित्य के लोकतंत्रीकरण का सुबूत है

डार्क हॉर्स उपन्यास में आपको वही धारा नजर आएगी जो यूपी 65 या बनारस टॉकीज या मुसाफिर कैफे में दिखाई दी थी. असल में चेतन भगत की लोकप्रियता ने हिंदी में नए रचनाकारों की एक पौध शुरू की है और नीलोत्पल मृणाल सृजनाशीलता की बेचैनी को कागज पर उड़ेलते दिखते हैं.
डार्क हॉर्सः एक अनकही दास्तां


पहली बात कि हिंदी में नई पीढ़ी के रचनाकारों ने अपनी मौजूदगी दर्ज करानी शुरू की है. उनमें दिव्य प्रकाश दूबे से लेकर निखिल सचान तक और सत्या व्यास से लेकर अजीत भारती तक हैं. इसी पीढ़ी ने नई हिंदी का शिगूफा भी छोड़ा है. पर अभी तो यह पारिभाषित नहीं हो पाया है कि नई हिंदी क्या है? बहरहाल, डार्क हॉर्स नीलोत्पल मृणाल की पहली कृति और पहला उपन्यास है.


इस उपन्यास में आपको वही धारा नजर आएगी जो यूपी 65, बनारस टॉकीज या मुसाफिर कैफे जैसे उपन्यासों में दिखाई दी थी. असल में चेतन भगत की लोकप्रियता ने हिंदी में नए रचनाकारों की एक पौध शुरू की है और नीलोत्पल मृणाल सृजनाशीलता की बेचैनी को कागज पर उड़ेलते दिखते हैं. यह पीढ़ी खम ठोंक रही है कि हिंदी अब मठाधीशों की जागीर नहीं है और इसलिए लोग बिना आलोचकों की परवाह किए, मनमर्जी का लिख रहे हैं और छप रहे हैं. यह साहित्य के लोकतांत्रिकरण का दौर है.


अपनी भूमिका में ही मृणाल लिखते हैं कि उन्होंने उपन्यास के रूप में कोई साहित्य नहीं रचा है. अच्छा! क्या यह आलोचकों की नजर से बचने के लिए दिया गया बयान है या एक विनम्र दावा? बहरहाल, इस कृति को साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार मिल चुका है. इस लिहाज से यह कहा जा सकता है कि लेखक ने इस कृति को वाकई साहित्य माना होगा और उसे इस पुरस्कार के लिए नामित भी किया होगा. तो भूमिका और पुरस्कार मिलाकर एक संभ्रम की स्थिति है. काहे कि, अगर यह उपन्यास, बकौल लेखक, साहित्य नहीं है, तो उन्हें यह पुरस्कार लेने से इनकार कर देना चाहिए था.


इस उपन्यास को शैली या कथ्य के लिहाज से परखा नहीं जा सकता. कई दफा पढ़ते हुए आपको इसमें मौजूदा धारा के बनारस केंद्रित आधा दर्जन उपन्यासों की झलक दिखेगी, संवादों में क्षितिज रॉय के उपन्यास गंदी बात का अक्स दिखेगा. पर अगर आपने या आपके परिवार में किसी ने कभी पटना, इलाहाबाद, दिल्ली के नॉर्थ या साउथ कैंपस में विजयनगर, मुखर्जी नगर और कटवारिया सराय में कभी सिविल सेवा की तैयारी की होगी, तो यह उपन्यास एक दफा आपको जरूर पढ़ना चाहिए.


उपन्यास के 95 फीसदी पन्नों में अभ्यर्थियों के नाकामियों का दास्तान है. और नायक के, यानी डार्क हॉर्स की लंतरानियों का भी. पर उसके संघर्ष को बिना दिखाए डेढ़ पैराग्राफ में निपटाकर मृणाल ने सीधे उसे सफल घोषित कर दिया. यहां शैलीगत जर्क दिखाई देता है.


पर, सिविल सेवा अभ्यर्थियों के मानसिकता और मनोविज्ञान को मृणाल ने करीने से पकड़ा है. उपन्यास में एक संवाद है, ‘जेतना दिन में लोग एमए-पीएचडी करेगा, हौंक के पढ़ दिया तो ओतना दिन में तो आईएसे बन जाएगा.’ यह संवाद समझिए अभ्य़र्थियों के मनोविज्ञान को पकड़ता है, जो साल-दर-साल किस तरह तैयारियों में जुटे रहते हैं.


डार्क हॉर्स में अभ्यर्थियों के ऊंचे और खूबसूरत ख्वाब हैं, जिम्मेदारियों का जिक्र है. ठसक है. परिवार और गांव में अपनी इज्जतअफजाई और अगली कई पीढ़ियों का उद्धार कर देने का उत्साह है. मुखर्जी नगर को उकेरते हुए मृणाल एकदम ईमानदार तस्वीर पेश करते हैं. मानो आप एक खिड़की पर बैठकर सारे किरदारों और दृश्यों को सामने साकार होते देख रहे हों. पर साथ ही, इसमें एक फिल्मी और बॉलीवुडीय नाटकीयता भी है. उसी नाटकीयता में गांव से आए चाचा भी हैं, जो दिल्ली दिखाने की जिद करते हैं. उसी में गरीबी भी है, गांव की बिकती हुई जमीन भी है. कई दफा हो जाने वाला नवयुवकीय प्रेम भी है. पर उपन्यास में उस तनावपूर्ण क्लाइमेक्स की कमी है, जो एक कृति को बेहतर बनाती है. अगर आपने हाल-फिलहाल के हिंदी उपन्यासों को उचटती निगाह से भी पढ़ा हो तो आपको नए किस्म के किरदार बमुश्किल ही मिलेंगे. आपको बनारस केंद्रित उपन्यासों के ही पात्र दिखेंगे, बस लगेगा कि थियेटर में पीछे का सेट बदल दिया गया हो. कैनवास बदल गया है किरदार बस अलग कपड़ों में नजर आते हैं. हो सकता है हमारे युग का सत्य यही हो.


वैसे, मृणाल की तारीफ इस बात में है कि उन्होंने अपने किरदारों को कॉलर पकड़ कर नहीं चलाया है. उनके पात्र जब जो चाहा, बोलते है. शायद इसलिए मृणाल अपनी रचना को साहित्य के दर्जे में नहीं रखते. हालांकि, साहित्य में शुचिता जैसी चीजें बेमानी हैं (गोकि साहित्य समाज का दर्पण होता है) पर, किरदारों में विभिन्नता, उनके भावात्मक यात्रा में आरोह-अवरोह में वैविध्य की उम्मीद तो की ही जा सकती है.



कुल मिलाकर उपन्यास पठनीय तो है, बिकाऊ भी. पर कथ्य के लिहाज से औसत है. मृणाल संभावनाएं जगाने वाले लेखक हैं, इसलिए दिलचस्प होगा कि वह अगली दफा कैसी कहानी लेकर आते हैं.


किताबः डार्क हॉर्सः एक अनकही दास्ताँ... (उपन्यास)


लेखकः नीलोत्पल मृणाल


प्रकाशकः हिन्द युग्म


कीमतः 175 रु. पेपरबैक


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Monday, July 23, 2018

मैं तो एक मुश्ते गुबार हूं, आजाद और भगत सिंह को याद करते बटुकेश्वर दत्त का संस्मरण

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कमांडर इन चीफ चन्द्रशेखर आज़ाद का आज जन्मदिवस है. पंडित जी के सपनों का समाजवादी भारत था, जिसमें सभी को रोटी, कपड़ा, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार का प्रबंध होना था. आज़ाद को याद करते हुए उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के संस्मरणों का एक आलेख पढ़ें




मैं तो एक मुश्ते गुबार हूं...

बटुकेश्वर दत्त

सरदार की गुनगुनाहट आज भी मेरे कानों से टकरा रही है- मैं तो एक मुश्ते-गुबार हूं... धोकर निचोड़े गए कपड़ों को झटके दे-देकर जैसे वह धूप में फैला रहा हो और पूरी तन्मयता के साथ गुनगुना रहा हो. कानपुर स्थित सुरेश दादा के मेस की दूसरी मंजिल की छत पर किशोर सरदार के कपड़े धोने का दृश्य अब भी उसी तरह अम्लान है-कंधे सहित सिर पर लिपटा केश-गुच्छ, कमर में एक कच्छा छोड़कर पूरा नंगा बदन, जल की धार पर वह लगातार कपड़े पटक रहा है. साबुन के शुभ्र फेन उड़-उड़कर इधर-उधर फैल रहे हैं. मैं बगल में बैठा अन्य कपड़ों पर साबुन घिस रहा हूं और सरदार बार-बार वही एक पंक्ति दुहराये जा रहा है- मैं तो...

सन् उन्नीस सौ चौबीस के शुरू का कोई महीना. मैं उन दिनों कानपुर के बंगाली मिडिल स्कूल का विद्यार्थी और पारिवारिक अनुशासन की आंखें बचाकर क्रांतिकारी दल की शाखा का एक सक्रिय कार्यकर्त्ता. श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र 'प्रताप' से सम्बध्द, दल के प्रमुख नेता श्री सुरेशचंद्र के निर्देशानुसार एक शाम उनसे मिलने कम्पनी बाग गया. क्यों और किसलिए बुलाया गया था, यह पूछना दलीय अनुशासन के विरुध्द था और आदेश पर आंख मूंदकर चलना ही हमारे विप्लवी जीवन का प्रथम पाठ. इसलिए हर तरह की परिस्थिति के प्रति अपने को तैयार कर समय से वहां पहुंचा. सुरेश दादा नहीं थे. बाग के एक छोर से दूसरे तक मेरी चंचल निगाहें ढूंढ़ गयीं, पर कहीं पर भी वह नजर नहीं आया. मुझे आश्चर्य हुआ क्रांतिकारियों के कार्यक्रम में इस तरह की भूल पहले कभी देखने को नहीं मिली थी. घनघोर अंधेरी रात में भी मूसलाधार वर्षा सिर पर झेलते हुए, सीआईडी की निगाहें बचाता निर्दिष्ट कार्य के लिए ठीक जगह निर्धारित समय पर हाजिरी बजाने में इसके पहले मुझसे कभी भूल नहीं हुई थी. फिर आज प्रमुख क्रांतिकारी नेता के निर्देश और कार्य में यह अंतर क्यों?

इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि मेरी आंखें एक घनी, कांटेदार झाड़ी से जाकर उलझ गयीं. क्या ही अजीब, रोंगटे खड़े कर देने के साथ-साथ हंसाने वाला दृश्य! झाड़ी केऊपर एक सफेद पगड़ी का सिरा लगातार दायें से बायें और बायें से दायें मोर की पखी की तरह डोल रहा था. मैं नजर गड़ाये उसे देखता रहा. बीच-बीच में वह स्थिर हो जाता और फिर घड़ी के पेंडुलम की तरह अपनी चाल पकड़ लेता. बाग के निस्तब्ध वातावरण में, जबकि संध्या का रक्तिम प्रकाश रात के अंधेरे में अपना मुंह छिपाने की तैयारी कर रहा हो, कांटेदार झाड़ी के ऊपर से सफेद पगड़ी का वह हिलता सिरा इशारे से जैसे मुझे अपने पास बुला रहा था. मैं आगे बढ़ा. झाड़ी के समीप पहुंचते ही उस सफेद पगड़ी का अधिकारी साढ़े पांच फुट से भी लंबा एक सिख युवक मेरी आहट पर उछलकर खड़ा हो गया. उसकी काली चमकती आंखों में शंका की भावना और लम्बी लटकती दोनों भुजाओं पर कमीज के चढ़े आस्तीन, दृढ़ मुट्ठियों में बंद लंबी उंगलियां, दोनों गालों पर दाढ़ी की हल्की रेखा, सिर पर पगड़ी में कैद केश-गुच्छ, जिसकी कुछ लटें बाहर झूल रहीं थीं. 

मेरे सामने वह सिख युवक चैलेंज का भाव चेहरे पर लिए खड़ा था और मैं उसकी तात्कालिक मुद्रा के प्रति उदासीन, कि तभी बगल में निश्चल गिरिराज की भांति बैठे विप्लवी सुरेश दादा पर ध्यान गया. मुझे देखकर उनके चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कराहट खेल गयी और सरदार शांत पड़ा. उसकी दृढ़ मुट्ठियों की उंगलियां सहज और शिथिल हुई. मुझ नवागंतुक को देखते ही जो चमक और खून उसकी आंखों में उतर आया था, सुरेश दादा की मुस्कराहट से जैसे पूरे चेहरे पर लालिमा बन फैल गया और मुझे लगा अपनी अनावश्यक दृढ़ता के लिए वह कुछ झेप-सा रहा है. सुरेश दादा ने हंसते हुए हम दोनों को आमने-सामने बैठाया और उस तरुण सरदार से मेरा परिचय कराया नाम- बलवंत सिंह पंजाब के नेशलनल कालेज में बीए के छात्र हैं. 

प्रमुख क्रांतिकारी नेता रासबिहारी बोस निकटतम सहयोगी शचींद्रनाथ सान्याल 'बंदी जीवन' के लेखक एवं बाद में काकौरी षड़यंत्रा के प्रमुख अभियुक्त उस समय उत्तरी भारत में क्रांतिकारी दल के प्रमुख संगठनकर्त्ता थे. पंजाब नेशनल कालेज के अध्यापक श्री जयचंद्र विद्यालंकार की मार्फत शचींद्र दादा से उस सिख नवयुवक का परिचय हुआ और वह क्रमश:विप्लवी संगठन में खिंच आया. उसकी क्रांतिकारी विचारधारा देखते हुए परिवार के लोग छात्रावस्था में ही उसका विवाह कर देने का निर्णय कर चुके थे, लेकिन क्रांतिपथ के पथिक उस तरुण को अपने विवाह का प्रस्ताव मंजूर नहीं था और उसी से मुक्ति पाने के लिए तमाम पारिवारिक आत्मीयता एवं परिवार के लोगों से संबंध-विच्छेद कर वह लाहौर से सुरेश दादा के आश्रय में कानपुर भाग आया था. 

रूसी विप्लवियों का प्रभाव उसकी स्मृतियों में था और उन्हीं की तरह उसने भी शपथ ले रखी थी कि जीवन में न किसी से प्रेम करेगा, न किसी का प्रेम-पात्र बनेगा, न विवाह करेगा, न किसी का विवाह रचायेगा. उससे संबंधित ये तमाम बातें मुझे धीरे-धीरे बाद में मालूम हुईं जब अपने पहले परिचय के बाद प्रत्येक दिन, प्रत्येक घड़ी हम एक-दूसरे के करीब आते गए. और उसी वर्ष यानी 1924 में ही! जीवनदायनी गंगा का प्रलयंकारी प्लावन! दोनों तटों पर बसे कानपुर शहर के साथ-साथ अनगिनत गांव उस प्लावन के शिकार हुए थे. प्लावन के शिकार ग्रामवासियों ने वृक्ष की ऊंची डाल पर आश्रय लिया. बहते हुए लोगों को सहारा देने के लिए गंगा पुल पर मोटी-मोटी रस्सियां बांधकर लटकायी गयीं थीं, ताकि धारा के साथ बहते हुए लोग उन रस्सियों को पकड़कर अपने प्राण बचा सकें. 

शहर में बाढ़ पीड़ितों की सेवा के लिए कैम्प डाले गएं. 'तरुण संघ' नाम की एक संस्था काम कर रही थी और हमें भी सेवा दल में काम करने की पुकार मिली. बाढ़ से क्षतिग्रस्त लोगों की सेवा में मैं जुट गया. बलवंत सिंह साथ था. घर के अनुशासन की उपेक्षा कर किसी सार्वजनिक सेवा कार्य के लिए घर छोड़ दिन-रात काम करने का मेरा वह पहला मौका था. बलवंत का नाता घर से पहले ही टूट चुका था, इसलिए उसे किसी तरह के पारिवारिक अनुशासन की चिंता थी नहीं. सेवा कार्य में जुट जाना उसके लिए अनायास था जबकि उसी काम के लिए मेरे किशोर मन ने घर के विरुध्द पहली दफा विद्रोह का रास्ता अपनाया. 

हम दोनों की डयूटी प्राय: एक साथ ही पड़ती. रात में हम दोनों गंगा के अंधेरे तट पर खड़े होकर हाथों में जलती लालटेन लिए शून्य में अविराम हिलाया करते ताकि प्लावन की तीक्ष्ण धारा में बहते हुए मनुष्य-मवेशी अंधेरी रात में किनारे का संकेत पा सकें और जब कभी मवेशियों का कोई झुंड उस रोशनी के सहारे हमारे पैरों के पास पहुंच जाता, हम उसे बाहर निकालते, फिर उसे रखने की व्यवस्था की जाती थी. दिन के समय हम दोनों मल्लाहों के साथ निकलते और बाढ़ग्रस्त निराश्रित परिवारों को उनकी बची हुई सामग्री के साथ नाव पर लादकर गंगा तट के कैम्पों में पहुंचाते किशोर सरदार का हृदय यह सब देख-देखकर पसीजता रहता और उसकी आंखों में उस वक्त एक अव्यक्त-सी करुणा समायी होती थी. शहर के पास ही कल्याणपुर के बाढ़ पीड़ित कैम्प का वह दृश्य आज भी मेरी आंखो में सुरक्षित है. 

बाढ़ की प्रलंयकारी लीला में सबकुछ गंवा कर हताश, भूखे-असहाय लोगों का वह हुजूम! उनकी हृदय वेधी चीख पुकार से पूरा इलाका गूंज रहा था. भोजन की प्रतीक्षा करते स्त्री-पुरुष अलग-अलग कतारों में पत्तल के सामने बैठे थे कि तभी गर्म पूड़ियों की टोकरी दोनों हाथों से ऊपर उठाये तरुण सरदार दिखाई पड़ा. सिर पर सफेद रेशमी पगड़ी, बदन में साधारण कपड़े की कमीज जिसकी दोनों आस्तीनें ऊपर चढ़ी थीं. मुझसे आंखें मिलते ही उसके होठों पर स्वत: स्फूर्त मुस्कान एवं आंखों में चमक कौंध उठी, लेकिन बातचीत का समय कहां.वह उत्साह एवं उमंग के साथ भूख से बेचैन लोगों की कतार की तरफ बढ़ गया. 

बाढ़ पीड़ितों की सहायता-सेवा के उस दौर ने हम दोनों को एक-दूसरे के करीब लाने में काफी मदद की. उस दिन क्षुधित, सर्वहारा जनों के बीच पूड़ियां बांटने का सरदार का अंदाज, काम के प्रति उसकी लगन एवं निष्ठा आज भी मैं नहीं भूल पा रहा हूं. पूड़ियां परोसने वाले उसके हाथों ने बाद के क्रांतिकारी जीवन में उसी निष्ठा के साथ पिस्तौल या बम भी चलाये. उस रोज किसे मालुम था कि परवर्ती क्रांतिकारी जीवन में हमें अति साधारण भोजन भी नियमित रूप से नसीब न होगा या यह कि पूड़ियां परोसने वाले उन हाथों पर सूखी रोटी और नमक ही शेष जीवन के आधार होगें. 

उन दिनों हम दोनों के किशोर जीवन में एक-दूसरे के प्रति आकर्षण भाव के साथ-साथ जो सबसे बड़ा आकर्षण था, वह शहर (कानपुर) के पास कनालफाल के समीप गंगा के तट पर बैठ उसकी सुषमा को अनवरत निरखते रहना और बीच-बीच में किसी विषय, किसी बात या योजना पर परस्पर विचार-विमर्श करना. इसी सिलसिले में अकसर हम क्रांतिकारी जीवन के आने वाले दिनों की कल्पना में तल्लीन हो जाया करते. प्रसिध्द क्रांतिकारी जीवनियों या क्रांति से संबंधित साहित्य का पाठ हम यहीं बैठकर किया करते. 

एक ओर गंगा की अश्वेत जलधारा गरज के साथ लगातार आगे की ओर बढ़ती और दूसरी ओर क्रांतिकारी साहित्य का प्रभाव हमारी किशोर रंगों में खून की रफ्तार बढ़ा जाता. पानी का प्रचंड वेग एवं उसकी अथक गतिशीलता की छाप हमारे ऊपर सर्वाधिक पड़ी और शायद इसीलिए गंगा के तट का आकर्षण हम दोनों के मन में सदैव बना रहा. 

एक शाम हम गंगा के तट पर बैठे अपनी क्रांति संबंधी कल्पनाओं को अमली जामा पहनाने के तरीकों पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि अचानक ही आकाश काले बादलों से पटने लगा. गंगा पार की बस्तियां धुधली पड़ने लगीं, हवा का वेग बढ़ गया और थोड़ी ही देर में बादलों की भीषण गड़गड़ाहट से लगा आसमान फट जायेगा. क्षण भर में ही प्रकृति ने भयंकर रूप धारण कर लिया था. इससे पहले कि हम उठकर वहां से शहर की ओर चल देते, बूंदाबांदी शुरू हो गयी थी और शहर के फूलबाग स्थिति 'एडवर्ड मेमोरियल हॉल' पहुंचते-पहुंचते जमकर वर्षा होने लगी थी. यहां आकर हमें मालूम हुआ कि साथ की बहुमूल्य पुस्तक 'हीरो एंड हीरोइन ऑफ रशिया' तो हम जल्दबाजी में गंगा किनारे ही छोड़ आए हैं. 

रूस पर जारतन्त्र के विरुध्द रूसी युवक-युवतियों के सशस्त्र संग्राम की वह इतिहास-पुस्तक दुर्लभ होने के कारण हमारे लिए बहुत ज्यादा मूल्यवान थी, लेकिन उस घने अंधकार में वर्षा के साथ प्रचंड वायु का वेग सम्भालता हुआ दो मील का रास्ता तय करके उसे लाये कौन. मेरे जाने की बात सरदार को नागवार सी लगी. शरीर में वह मुझसे निश्चित रूप से तगड़ा था और अपने उसी तगड़ेपन की दलील देकर उस वक्त उसने मुझे जाने से रोक दिया और खुद लम्बी डग भरता हुआ अंधेरे में गुम हो गया.उसे जाते हुए कुछ ही क्षण गुजरे होंगे कि मेरी भावुकता ने मुझे झिंझोड़ा और मैं भी उस बीहड़ अंधकार में सरदार के पीछे हो गया. 

घने अंधकार में बेतहाशा भागते मेरे पैरों को अपने भागने का अहसास तब हुआ जब वे बीच सड़क पर बैठे सरदार से टकराये. सिर की रेशमी पगड़ी आधी खुलकर कीचड़ में सनी थी, एक हाथ से पुस्तक एवं दूसरे से अपने पैर का अंगूठा थामे वह लथपथ पड़ा था. पैर के अंगूठे का नाखून उखड़ गया था. पगड़ी चीरकर मैंने पट्टी बांधी और उसे सहारा देकर सुरेश दा के मेस भीगते हुए वापस आया. उससे अलग अपने घर लौटकर मेरा मन सरदार के दुख से बेचैन था. मैं वहां से रूई-पट्टी, जैम्बक की डिबिया लेकर उसी मूसलाधार वर्षा में सरदार के पास पहुंचा, उसके अंगूठे का खून साफ कर उस पर मरहम पट्टी की और रात भर उसके पास बैठा रहा. सुबह होते ही घर के अनुशासन की सुधि आयी. 

उस दिन परिवार से मिलने वाली तमाम यंत्राणाएं मैं धैर्यपूर्वक सह गया सिर्फ इस तसल्ली पर कि अपने प्रिय मित्र के प्रति अपना छोटा-सा कर्त्तव्य निभाया. और सरदार का वह स्नेहयुक्त आवेश- 'पीओ, देर न करो. तुम्हें पीना ही पडेग़ा. दूध वाले की दुकान के सामने गर्म दूध से भरा गिलास लिए वह मुझे आदेश दे रहा है. दूध से उन दिनों अरुचि नहीं थी लेकिन भरपेट भोजन के बाद पक्का आधा सेर दूध चढ़ा जाना मेरे पेट के लिए मुश्किल था. आज भी दिल्ली और आगरा स्थित दूध की दुकानों के दृश्य मेरी आंखों के सामने आ जाते हैं. उन्हीं दुकानों के मालिक बाद में हमारी उपस्थिति दिल्ली और आगरा में सिध्द करने के लिए हमारे मुकदमों में आए थे. दरअसल, भोजन के बाद गर्मागर्म दूध का गिलास चढ़ा जाने का पाठ मुझे सरदार ने ही दिया. जब कभी पैसा पास होता वह दूध पीने के विलास से नहीं चूकता था. 

जहां रोटी का लुकमा भी निश्चित न हो वहां दुग्धपान विलास की ही श्रेणी में आएगा न? और उसे सिर्फ तीन पाव गर्मागर्म दूध से ही संतोष नहीं था बल्कि गिलास के दूध पर कम-से-कम डेढ़ छटांक मोटी मलाई का टुकड़ा भी अलग से पड़ना चाहिए. मलाई न रहने पर घी का तडका (छोंक) वह गर्म दूध में दे लेता था. शरीर में खून बढ़ाने का उसका यही उपयुक्त नुस्खा था. 

दूध के प्रति एक असीम आसक्ति उसके मन में थी. स्वास्थ्य के प्रति वह कभी उदासीन न रहा, हालांकि बाद के पार्टी जीवन में नियमित रूप से हमें भोजन भी नसीब नहीं हुआ. विप्लवी जीवन की अनिश्चित परिस्थिति एवं जीवन-धारण के लिए सीमित साधन और व्यवस्था के अभाव में भी वह शरीर और स्वास्थ्य के प्रति हमेशा सचेत रहा. यद्यपि जीवन के प्रति उसके मन में जबरदस्त आसक्ति थी, तथापि उसका कहना था कि जीवन जब अधिक सुंदर और प्रिय मालूम पड़ने लगे, तभी अपने आदर्श के लिए उसे बलिदान करना चाहिए. 

संस्मरण की इस कड़ी के रूप में एक और दृश्य मेरी आंखों के सामने अब भी कौंध जाता है... कानपुर स्टेशन का जन-प्लावित प्लेटफार्म, 'जो बोले सो निहाल.... सत्श्री ..अ...का....ल...' के गगनभेदी नारे से दिग-दिगंत गूंज उठा है. गुरु के बाग के सत्याग्रही सिख मोर्चा डालने के लिए पंजाब जा रहे हैं. उन दिनों हर स्टेशन पर, जहां ट्रेन रुकती थी, अधीर जनता सत्याग्रहियों के दर्शनार्थ टूट पड़ती थी. प्रत्येक स्टेशन पर वीर सत्याग्रहियों को भोजन कराने के लिए लंगर खोले गए थे. कानपुर स्टेशन पर भी ऐसी ही व्यवस्था थी और सत्याग्रहियों की एक झलक लेने के लिए जनता उमड़ पड़ी थी. फूलों और फूल-मालाओं की वर्षा! मैं भी स्टेशन गया था. अपार जनसमूह के बेग को ठेलकर सत्याग्रहियों के डिब्बों तक न पहुंच पाने की मजबूरी में ओवर-ब्रिज पर जाकर खड़ा हो गया और असंख्य सिरों से पटे प्लेटफार्म का दृश्य वहीं से देखने में तल्लीन था कि भीड़ को चीरती मेरी दृष्टि अपने सरदार मित्र पर पड़ी वही रेशमी पगड़ी और सफेद कमीज दोनों आस्तीनें बांह पर चढ़ी हुईं . एक हाथ में शरबत की बाल्टी और दूसरे में लंबा-सा गिलास. अपने कंधों से भीड़ को ठेलता हुआ वह सत्याग्रहियों के हाथों में शरबत के गिलास पकड़ा रहा था. भीड़ की खींचातानी में पगड़ी सिर से खिसककर कंधें पर लटक आई है जिसकी चिंता उसे नहीं थी. कम-से-कम समय में ज्यादा-से-ज्यादा सत्याग्रहियों की प्यास बुझा पाने की व्यग्रता उसके चेहरे, आंख और चाल में स्पष्ट देखी जा सकती थी. 

ट्रेन के एक सिरे से दूसरे सिरे तक उसकी विश्रामहीन भाग-दौड़! मेरे प्रिय साथी सरदार का यह एक और रूप था. थोड़ी देर ठहरने के बाद ट्रेन चल पड़ी. फिर एक बार सत्श्री अकाल के नारे से आकाश गूंजा और कोलाहल मुखरित स्टेशन का प्लेटफार्म खाली होना शुरू हो गया. भीड़ पिघलने लगी. जो सत्याग्रहियों को देखने, उनसे मिलने-मिलाने आए थे, बाहर कीओर खिसकने लगे और बच गया हाथों में गिलास-बाल्टी लिए मेरा वह सरदार मित्र! मैं ओवर-ब्रिज से उतर उसकी बगल में खड़ा हुआ पर उसे जैसे किसी बात की सुध नहीं थी. ट्रेन जाने की दिशा में मंत्रमुग्ध आंखों में उदासी लिए अब भी वह खाली पटरी देखे जा रहा था. अपने कंधे पर मेरे हाथ का दबाव महसूस कर मुड़ा और मुस्कराकर एक हाथ से मेरे पंजे को दबाया बोटू .... उसकी आंखों में कोई अदृश्य निर्णय कौंध उठा था उस घड़ी. उस दिन लगभग गुमसुम और उदास वह जनशून्य स्टेशन से मेरे साथ बाहर हुआ था और फिर वह दिन भी आया जब दल के आदेशों पर उसे कानपुर, 'प्रताप', सुरेश दादा और मुझे छोड़कर एक छोटे स्कूल का हेडमास्टर बनकर अन्यत्र जाना पड़ा. विप्लव दल के नियमानुसार कुतूहलवश जरूरत से ज्यादा किसी का परिचय प्राप्त करना हमारे लिए मना था और सरदार शायद सब दिन ऐसा अनुभव करता रहा था कि कोई रहस्य वह अपने एकमात्र एवं अनन्य साथी मुझसे छिपाता रहा है, वरना कानपुर से विदाई लेने के दिन ही क्या खुलता. 

शिक्षक का पद ग्रहण करने जाते वक्त मुझसे मिलने आया था और हमारी आत्मीय घनिष्टता के बावजूद दल की मर्यादा रखने के लिए अब वह जिस रहस्य को छिपाये हुए था, विदाई के क्षण उसे व्यक्त किये बगैर न रह सका. 

जिस तरुण बलवंत सिंह के स्नेहपाश में मैं अब तक बंधा था, वही सरदार भगत सिंह के रूप में मुझसे विदा ले गया. यही उसका असली परिचय था लोगों ने उसे बाद में विप्लवी सरदार भगत सिंह के रूप में जाना, लेकिन मेरे लिए तो वह सब दिन मानवीय गुण-सम्पन्न, भाव में गम्भीर भावुकता से ओतप्रोत बलवंत सिंह बना रहा. बाद की हमारी मैत्री परवर्ती क्रांतिकाल में एक-दूसरे के साथ सहयोगी की भूमिका, उसकी फांसी से लेकर मेरे जलावतन तक का प्रसंग इस कड़ी की अगली कहानी है. 

सन् उन्नीस सौ सत्ताईस-अट्ठाईस का समय हमारे राष्ट्रीय जीवन में क्रांति के साथ-साथ संकट का काल भी कहा जा सकता है क्योंकि उन्हीं दिनों हमारी आजादी की लड़ाई का स्रोत एक नये रास्ते की ओर प्रवाहित हुआ. उस वक्त तक देशवासी क्रांतिकारी आंदोलन और उसकी विचारधाराओं से ज्यादा परिचित नहीं थे और अंग्रेज सरकार क्रांतिकारियों को साधारण खूनियों तथा डकैतों की श्रेणी में डालकर देश की जनता को सब दिन गुमराह करने का प्रयत्न करती रही थी. 

ब्रिटिश सरकार का यह कहना था कि विप्लवी देश में संत्रास एवं अराजकता फैलाना चाहते हैं जबकि विप्लवी देश में परिवर्तन के प्रति आग्रही थे. जनसाधारण को विप्लवी के प्रति जागरुक बनाकरआर्थिक परिवर्तनों द्वारा शोषणविहीन समाज की स्थापना ही उनका लक्ष्य था. इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह जरूरी था कि क्रांतिकारियों की ओर से देशवासियों के सम्मुख एक निश्चित कार्यक्रम पेश किया जाए और देश के नेताओं को असेंबली भवन के भीतर वैधानिक कार्यक्रमों के दांव-पेच से मुक्त कर जनांदोलन के प्रति उत्साहित किया जाए, दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में अंग्रेज सरकार की ओर से भारत के लिए स्वायत्ता शासन की मांग बार-बार ठुकरा दी गयी थी. जन नेताओं के लाख विरोध के बावजूद यहां की जनता के मानवीय अधिकारों को विलुप्त करने के लिए केंद्रीय धारा सभा से टे्रड डिस्प्यूट बिल स्वीकृत करा लिया गया था. कानून स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप देश के करोड़ों भूखे-मेहनतकश लोग अपनी आर्थिक दशा सुधारने के प्रारंभिक स्वत्व एवं एकमात्र उपाय हड़ताल से वंचित कर दिए गए थे.

केंद्रीय विधानसभा में हमारे जन-प्रतिनिधियों के उस अपमान और उस अमानुषिक बर्बरतापूर्ण कानून द्वारा देश की करोडों ज़नता पर जो हमला हुआ था उसी के विरोध में भारतीय क्रांतिकारी संस्था 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' द्वारा केंद्रीय असेंबली के सभाकक्ष में बम डालकर गोरी हुकूमत को एक चेतावनी देने के सुझाव पर आगरा हेड क्वार्टर में आलोचना गोष्ठी की बैठक चल रही थी. 

असेंबली में बम डालकर आत्मसमर्पण करना एवं बाद में मुकदमे के दौरान अभियुक्त के कटघरे में खड़े होकर भारतीय क्रांतिकारी दल की ओर से विप्लवियों के विचारों, आदर्शों एवं उद्देश्यों का दिग्गर्शन कराने के लिए एक विशद राजनीतिक वक्तव्य देने की सूझ सरदार भगत सिंह के मस्तिष्क की ही उपज थी. लेकिन इसे निभाये कौन? यानी केंद्रीय असेंबली में बमफेंकने जैसा जोखिम भरा कार्य कौन करे? इसे पूरा करने का सीधा एवं साफ अर्थ था मृत्यु! 

लाख सावधानी के बावजूद असेंबली भवन के फर्श पर बम फटने के साथ किसी की मृत्यु की सम्भावना स्पष्ट थी और उसके बाद वहां नियुक्त सुरक्षा पुलिस या सार्जेंट द्वारा बम फेंकने वाले को तुरंत मौत के घाट उतार देना भी लगभग निश्चित ही था. बावजूद इसके कि हम सभी क्रांतिकारी देश को स्वतंत्र कराने की बलिदानी भावना से प्रेरित हो, प्रियजनों से नाता तोड़, किसी भी क्षण मृत्यु का आलिंगन करने का संकल्प ले, सिर पर कफन बांध, गृह-त्यागी बनकर निकल पड़े थे, फिर भी विचार गोष्ठी में बैठकर अपनी-अपनी सुरक्षा पर नजर गड़ाये दूसरे साथी को निश्चित मौत का फरमान सुनाना किसी के लिए भी संभव न था. ऐसा कोई व्यवहार किसी के भी मन को संदिग्ध बना सकता था. 

सरदार ने सहर्ष आगे बढ़कर निश्चित मौत से खेलने का बीड़ा उठाया, साथ-साथ मैंने भी. वर्षों पहले कानपुर में गंगा के किनारे बैठे-बैठे जिन अनागत दिनों की कल्पनाएं हम बार-बार किया करते थे, कि एक साथ ही दोनों देश की स्वतंत्राता के लिए आत्माहुति देंगे, उसे साकार करने का समय आ गया था... हम दोनों- सरदार और मैं- बम के साथ आगरे से दिल्ली पहुंचे. लगभग महीने भर तक दिल्ली में ही टिके रहे. मैं हाफ पैंट, कमीज और जूता पहनता था और सरदार फ्लैट हैट लगाने लगे थे. प्रत्येक संध्या बम को अखबार में ढंककर कोट की नीचे वाली जेब में रखे हम साथ-साथ असेंबली भवन जाते, वहां का वातावरण परखते, पहरे पर संतरियों की गतिविधि देखते और अनुमान लगाते-कैसे अपने उद्देश्यों में सफल हो सकेंगें. 

इसी बीच एक दिन सरदार ने साथ-साथ फोटो खिंचवाने की बात रखी. कुछ देर तो मैं टालता रहा, लेकिन सरदार जब जिद पर उतर आए तब मुझे भी झुकना पड़ा, और वही एकमात्रा तस्वीर हम दोनों की आखिरी यादगार बनकर रह गयी. फिर आया वह दिन जिसके लिए हम आगरे से चलकर दिल्ली आए थे और लगातार महीने भर तक बिना नागा असेंबली भवन के अगल-बगल चक्कर लगाते रहे थे. यानी 8 अप्रैल, 1928. दिन के ग्यारह बजे स्थान केंद्रीय असेंबली हॉल जिसे अब संसद कहा जाता है. ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल पर जनमत जानने के लिए प्रस्ताव स्वीकृत हो गया था. अध्यक्ष की कुर्सी पर सरदार बल्लभ भाई पटेल विराजमान थे. ट्रेजरी बेंचों पर सर जेम्स क्रेरर एवं सर जार्ज शुस्टर. विशिष्ट व्यक्ति के रूप में वायसराय की सीट पर, दर्शक दीर्घा में, सर जान साइमन.

सरकारी बैंचों के सामने विरोधी सीट पर पंडित मोतीलाल नेहरू, पंडित मदनमोहन मालवीय एवं डा. मुंजे आदि. बम हम दोनों ही की जेब में थे. ऊपर से पीछे की खाली बैंचों को लक्ष्य करके हमने बम फेंके. जोरों का धमाका हुआ, लेकिन चूंकि किसी को मारने का इरादा तो था नहीं, इसीलिए कमजोर बम बनाये गए थे ताकि धमाके पैदा करने के अलावा और किसी तरह का भयंकर, घातक या मारक प्रभाव उससे पैदा न हो सके. 'इंकलाब जिंदाबाद' एवं 'साम्राज्यवादी शासकों के बहरें (राष्ट्रीय मांगों के प्रति) कानों को खोलने के लिए जोरदार आवाज की जरूरत है' के नारों एवं फटे बम के धुएं से हॉल भर गया और भगदड़ मच गयी. डर के मारे सर जेम्स क्रेरर बैंचों के नीचे जा छिपे.

बम के साथ फेंके गए लाल रंग के छपे पर्चें धुएं की सतह पर हॉल में इधर-उधर तैर रहे थे. उस पर्चें में गोरी हुकूमत की आंखें खोलने के लिए भारतीय क्रांतिकारी दल के उद्देश्यों का स्पष्ट हवाला दिया गया था-'दो नगण्य इकाइयां (सरदार भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्त) को कुचलने से राष्ट्र नहीं दबेगा... सरकार इस बात को समझे कि पब्लिक सेफ्टी तथा ट्रेड डिस्प्यूट बिल एवं लाला लाजपत राय की निर्मम हत्या के विरुध्द जनमानस का विरोध प्रदर्शित करने के अतिरिक्त हम इतिहास को भी यह साक्ष्य देना चाहते हैं कि व्यक्तियों का दमन करना आसान है, लेकिन विचारधाराओं का दमन नहीं किया जा सकता. विशाल साम्राज्य नष्ट हो जाते हैं लेकिन विचारधारा नष्ट नहीं होतीं. बोरबोन और जार का पतन हो गया, किंतु क्रांतिकारी आगे बढ़ते गए, हमें, जिनको मनुष्य जीवन से प्रेम है और जो एक बड़े ही गौरवमय भविष्य की कल्पना करते हैं, व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्राता के लिए बाध्य होकर मानव-रक्त बहाना पड़ रहा है यह आवश्यक है क्योंकि जो मनुष्यता के लिए शहीद होते हैं, उनके त्याग से क्रांति की वह वेदी बनती है जहां से मानव द्वारा मानव के शोषण का अंत हो सकेगा-इंकलाब जिंदाबाद'. 

अपनी पूर्व योजनाओं के अनुसार एवं मार्शल लॉ जारी न हो या बम फेंकने के अपराध में निर्दोष व्यक्ति न पकड़ लिए जायें, हम दोनों ही ने आत्मसमर्पण कर दिया. तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने उस घटना का तात्पर्य अच्छी तरह समझा और बम विस्फोट के बाद ही व्यवस्थापिका सभाओं के संयुक्त अधिवेशन में भाषण के समय चर्चा करते हुए बताया कि बमों का यह प्रकार किसी एक व्यक्ति पर नहीं बल्कि एक संस्था (अंग्रेजी शासन) पर किया गया है. हम दोनों को दिल्ली के दो अलग-अलग थाना में रखा गया.

मुकदमे शुरू हुए फिर हमारा स्थानान्तरण दिल्ली जेल में हुआ जहां एक साथ सटी दो अलग-अलग कोठरियों में हमें रखा गया. बीच में खड़ी अभेद्य दीवार. नियाज अली हमारा जेल वार्डन था जिसे एक अरसे तक हम हाड़-मांस का न होकर पत्थर का बना समझते रहे. 

नियाज अली ने कभी मुझे और सरदार को एक साथ न होने दिया. स्पर्शानुभूति की बात तो दूर रही, उसने कभी हम दोनों को एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखने दिया, उन दो-चार दिनों को छोड़कर जबकि इकट्ठे हमें अदालत ले जाया जाता था. दिल्ली की उस विशेष अदालत में न्यायाधीश के सामने प्रविष्ट होते समय अपने-अपने हाथ-पांवों में पड़ी बेड़ियां की झंकार के साथ हम 'क्रांति चिरंजीवी हो' का नारा लगाते. पूरा न्यायालय गूंज उठता था, और तभी से यह नारा राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त हो गया. बम विस्फोट के साथ पहले-पहल सरदार के मुंह से निकली 'इंकलाब जिंदाबाद' की घोषणा जैसे पूरे राष्ट्रीय जनजीवन में व्याप्त हो गयी.
मुकदमे के दौरान न्यायाधीश महोदय ने सरदार से 'क्रांति' शब्द की व्याख्या करने को कहा तो सरदार ने बताया- 'क्रांति या विप्लव खून-खच्चर ही का रास्ता नहीं, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिशोध का कोई स्थान है. बम और पिस्तौल ही क्रांति का धर्म हो, ऐसा भी नहीं है. क्रांति से हमारा मतलब है कि वर्तमान समाज और शासन व्यवस्था जो स्पष्टत: अन्याय एवं अत्याचारों पर आधारित है, परिवर्तित हो. आप पूर्ण परिवर्तन के द्वारा ऐसी व्यवस्था की स्थापना करें जिसमें सर्वसाधारण की सत्ता कायम हो सके.' 

आसिफ अली साहब ने हमारी ओर से वकालत की थी और हमारे गवाह बने थे डॉ. मुंजे एवं पंडित मदनमोहन मालवीय. न्यायालय ने हम दोनों को आजीवन काले पानी की सजा दी. 1930 में 'लाहौर षडयंत्र केस' के अंत में जब मैं सदा के लिए सरदार से बिछुड़कर मुलतान जेल भेज दिया गया, तब सरदार ने मेरी बहन को एक पत्र लिखा था जो आज भी मेरे जीवन की अमूल्य निधि है. 

17 जुलाई, 1930 को लाहौर सेंट्रल जेल से लिखा गया वह पत्र सरदार के व्यथातुर हृदय की अभिव्यक्ति हैं-'बटुक की जुदाई आज मेरे लिए असह्य हो रही है. इस बिछोह से मैं एकदम स्तब्ध सा हो गया हूं... एक-एक पल मेरे लिए असह्य भार बन गया है. सचमुच, अपने भाई एवं परिजनों से भी ज्यादा प्रिय उस मित्र से अलग हो जाना आज मेरे लिए अत्यन्त ही कठिन गुजर रहा है...हमें सबकुछ धैर्यपूर्वक सहन करना है और आपसे भी हिम्मत के साथ परिस्थिति का सामना करने का अनुरोध करूंगा .'

'लाहौर षडयंत्र केस' में जब सरदार को फांसी की सजा का फैसला सुनाया गया तब अपने एक पत्र में उसने मुझे लिखा:

'प्रिय बटुक,

दीर्घकाल तक हम लोगों का विचार-प्रहसन चलने के बाद अब उस पर यवनिका पात हुआ. न्यायाधीशों ने सजाएं घोषित कर दी हैं और उन सजाओं की इत्तला हमें भेज दी गयी है. मुझे फांसी की सजा मिली है. तुम्हें मालूम है कि मैं लाहौर जेल की उन्हीं फांसी की कोठरियों में हूं, जहां चंद रोज पहले तुम मेरे साथ थे. इन फांसी की कोठरियों में कुल पैंतालीस मृत्यु-दंड प्राप्त बंदी हैं जो प्रतिक्षण अपनी अंतिम घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं. वे अभागे बन्दी फांसी के फंदे से छूट पाने के लिए दिन-रात भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं. उनमें से अधिकांश अपने कृत्यकर्म के लिए अत्यंत ही अनुलप्त हैं और इन अभागे बन्दियों के बीच मैं ही एक ऐसा व्यक्ति हूं, भगवान के बदले अपने आदर्शों में ही जिसकी अविचल आस्था है, एवं जिस आस्था के लिए मैं मृत्यु का आलिंगन करने जा रहा हूं, इसके लिए संतुष्ट हूं. तुमसे मेरा बिछोह अत्यंत ही पीड़ादायक है, लेकिन इससे कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति होगी. मैं फांसी के तख्ते पर अपना प्राण विसर्जित कर दुनिया को दिखाऊंगा कि क्रांतिकारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए खुशी-खुशी आत्म-बलिदान कर सकता है. मैं तो मर जाऊंगा, लेकिन तुम आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए जीवित रहोगे और मेरा दृढ़विश्वास है कि तुम यह सिध्द कर सकोगे कि विप्लवी अपने उद्देश्यों के लिए आजीवन तिल-तिल कर यंत्राणाएं सहन कर सकता है. मृत्यु दंड पाने से तुम बचे हो और मिलने वाली यंत्राणाओं को सहन करते हुए दिखा सकोगे कि फांसी का फंदा, जिसके आलिंगन के लिए मैं तैयार बैठा हूं, यंत्रणाओं से बच निकलने का एक उपाय नहीं है. जीवित रहकर विप्लवी जीवन भर मुसीबतें झेलने की दृढ़ता रखते हैं.

तुम्हारा-भगत सिंह'


सरदार अपने विचारों या व्यवहारों में कट्टरपंथी कभी नहीं रहे मस्तक पर सिख धर्म के द्योतक लंबे बाल, कंघा, कच्छा और कड़ा लेकर वह कानपुर आए थे, लेकिन बाद के दिनों में परिस्थिति के अनुसार उन्होंने खुद को दूसरे रूप में ढाल दिया. लंबे-लंबे बाल कटवाकर नीचे से ऊपर तक सूट एवं हैट से लैस उन्होंने अंग्रेज साहबों का रूप धारण किया. हिंसा एवं अहिंसा की उधेड़बुन में उनके विचार उलझे हुए नहीं थे, न ही उनके मन में कभी किसी के प्रति हिंसा या द्वेष पनपा. राजनीतिक बंदियों को युध्दबंदी (प्रिजनर ऑफ बार) की स्वीकृति दिलाने एवं तदनुसार उनके सम्मानपूर्वक व्यवहार की मांग पर बंदियों द्वारा सामूहिक अनशन का संग्राम आरम्भ करना तथा उसी संग्राम के द्वारा देश की मुरझाई हुई चेतना में फिर से स्पंदन जगाने की कल्पना सरदार ने ही की थी और उसी संग्राम के फलस्वरूप पूरे देश में एक अभूतपूर्व परिस्थिति उत्पन्न हुई एवं बाद में 1930 का जनांदोलन जिससे प्रेरित हुआ. खुद सरदार ने जेल के भीतर 14 जून, 1929 से प्रारंभ करके लगातार 127 दिनों तक भूख की अनन्त ज्वाला में घुलते हुए मौत की प्रतीक्षा की थी...

गंभीर मननशीलता, राजनीतिक दूरदर्शिता एवं आत्मबल पर अटूट विश्वास सरदार के अन्य गुण थे. दूसरे देश के क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ पराधीन भारतवर्ष की राजनीतिक परिस्थिति का तुलनात्मक विचार सरदार के चिंतन का एक विशिष्ट पक्ष था.

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Friday, July 13, 2018

उम्मीदों और आशाओं का नया पाठ है 102 नॉट आउट

आसानी से कहे जाने वाली इस फिल्म के खत्म होने पर आप थोड़े भावुक हो सकते हैं. लेकिन आपके पास तब जिंदगी को महज बिताने नहीं बल्कि जीने के कुछ गुर होते हैं. 
फिल्म 102 नॉट आउट की कहानी नएपन के साथ जिंदगी जीने का फलसफा देती है .फोटो सौजन्यः गूगल


भारतीय खासकर हिंदी फिल्मों की कई जरूरतों में से सबसे अहम हैः एक निहायत खूबसूरत नायिका. चलिए '102 नॉट आउट' में नायिका तो नहीं है. दूसरी प्रमुख शर्त हैः कई सारे नाटकीय दृश्य. 102... में यह भी नहीं है. गाने, हम्म...नहीं ही हैं. डायलॉगबाजीः नहीं है. नाचगानेः नहीं है. सीरियल किसिंगः नहीं है. मारधाड़ नहीं है. पात्र भी तीन ही हैं. 

तो आखिर क्या है 102 नॉट आउट में!

इसमें अमिताभ हैं. और हैं ऋषि कपूर. दोनों का सर्वोत्कृष्ट अभिनय है. शानदार सिनेमैटोग्रफी है, उम्दा संपादन है. कसी हुई पटकथा और नयापन लिए कहानी है.

'102 नॉट आउट' मुख्यधारा हिंदी सिनेमा के परिपक्वता की ओर बढ़ने का संकेत देने वाली कई फिल्मों में से एक है. फिर भी अलहदा है.

जिंदगी जीने का तरीका हमारी फिल्में पुराने समय से बताई जाती रही हैं. जागते रहो में राज कपूर ने बिना ज्यादा संवादों के यह कहा था और उसी फिल्म में मोतीलाल सड़क पर, जिंदगी ख्वाब है, ख्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या..कहते हुए फलसफे बता रहे थे.

याद आऩे वाली फिल्मों में ऐसा ही संदेश आनंद ने दिया. मुख्यधारा में थोड़े सतही ढंग से यही कल हो न हो ने कहा...

'102 नॉट आउट' इसी संदेश को थोड़े अलहदा मिजाज के साथ कहती है. 102 साल के पिता और 75 साल के बेटे की कहानी में फिल्म हर दृश्य में ताजा बनी रहती है. हर दृश्य में एक नयापन और एक नए किस्म का प्रयोग है. क्या आपको यह बात दिलचस्प नहीं लगेगी कि सौ साल से अधिक उम्र का बाप अपने बेटे को वृद्धाश्रम सिर्फ इसलिए भेजना चाहता है क्योंकि वह दुनिया में सबसे ज्यादा जीने वाले इंसान का रिकॉर्ड तोड़ना चाहता है. उसे लगता है कि बुजुर्गवार जैसे बरताव वाला उदासीन-सा उसका बेटा माहौल को खुशनुमा नहीं रहने दे रहा.

बाप द्वारा बेटे को वृद्धाश्रम भेजने का यह नायाब आइडिया हमारे आसपास की जिंदगी के छोटे-छोटे प्रसंगों को अपने साथ बुनती चलती है और फिर आपको गुदगुदाती है. नहीं, आप इसे कॉमिडी फिल्म न समझें. यह फिल्म जीवन का उत्सव है. बहरहाल, पुत्र बने ऋषि कपूर वृद्धाश्रम जाने से बचने के लिए पिता की हर शर्त पूरी करते हैं. और उनके जीवन में जिंदगी का रस फिर से प्रवाहित होने लगता है.

मासूम से संवाद. छोटे-छोटे दृश्य...आपको हर सीन के बाद फिल्म में मजा आने लगता है. यह फिल्म मैंने थियेटर में नहीं देखी. मौका निकल गया. अमेजन प्राइम वीडियो पर मैं ने सोचा इसे दो चार बार में देख लूंगा लेकिन फिल्म ने ऐसा बांधा कि फिर मैं उसके तानेबाने (जो कि बेहद सरल हैं) से बाहर ही नहीं निकल पाया.

सोचिए जरा पिता के उस किरदार के बारे में, जो अपने बेटे के सामने एक पौधे में फूल उगाने के लिए पखवाड़े भर की मोहलत देता है. पहले से नाउम्मीदी से घिरा बेटा फिर भी उस पौधे की सेवा करता है, कि फूल खिलेंगे. शर्त लगाने वाला पिता जानता है पखवाड़े भर में फूल नही आएंगे, पर उम्मीद जिंदा रहे इसके लिए वह फूल लगे हुए पौधे वाले गमले को बिना फूल वाले मूल गमले से बदल देता है. पिता-पुत्र का यह रिश्ता हमें क्या एक मजबूत संदेश नहीं देता?
उम्मीदों और आशाओं का नया पाठ है यह फिल्म.

अमिताभ से बेहतरीन अभिनय की तो उम्मीद थी ही, लेकिन हाल तक पूरे बाजू का स्वेटर पहनकर स्विट्जरलैंड की हसीन वादियों में नायिका के साथ बोल राधा बोल करने वाले ऋषि कपूर का आला दर्जे का अभिनय छूता है. फिल्म का शीर्षक पिता के लिए है, पर किरदार में जो गहराई बेटे में है, वह लेखक की सृजनात्मकता का कमाल है. फिल्म की शुरूआत में आपको कंधे झुकाए ऋषि कपूर दिखते हैं जो आखिरी दृश्यों तक आते-आते आत्मविश्वास से भर जाते हैं.

अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर करीब तीन दशक के बाद एक साथ किसी फिल्म में आए हैं. ‘102 नॉट आउट’ में बच्चन से पंगों के अलावा जिमित त्रिवेदी के साथ उनका लव-हेट रिलेशनशिप भी आपको मजा देगा. अपनी भूमिका में त्रिवेदी भी अच्छा अभिनय करते हैं और सिनेमा के दो दिग्गजों की मौजूदगी में भी अपनी उपस्थिति बनाए रखते हैं.

सबसे बड़ी बात कि फिल्म में सिर्फ तीन किरदार हैं. साथ मुंबई भी है. आप उसे भी एक किरदार की तरह देख सकते हैं. असल में यह फिल्म एक नाटक पर आधारित है, जिसे सौम्य जोशी ने लिखा है. सरल होते हुए भी इस फिल्म के संवाद कमाल के हैं.

आसानी से कहे जाने वाली इस फिल्म के खत्म होने पर आप थोड़े भावुक हो सकते हैं. लेकिन आपके पास तब जिंदगी को महज बिताने नहीं बल्कि जीने के कुछ गुर होते हैं.

102 नॉट आउट आज के दौर की सबसे जरूरी फिल्मों में से एक है.

Wednesday, June 20, 2018

पीयूष सौरभ की एक कविता

पीयूष सौरभ लखनऊ आर्ट ऐंड क्राफ्ट कॉलेज से ललित कला में परा-स्नातक हैं. जितनी सफाई से उनके ब्रश कैनवस पर चलते हैं, उतनी ही कारीगरी वह शब्दों के साथ भी करते हैं. मेरा सौभाग्य कि वह मेरे बचपने के मित्र हैं. हम सभी मित्रों के आग्रह पर उनने फिर से कविताई शुरू की है. आप से शेयर कर रहा हूं.

भावों की अभिव्यक्ति है,
या फिर, शब्दों का मेला है.
बांट रहा जब सुख-दुख सबसे
मन क्यों निपट अकेला है?

न होठों पर प्रेमगीत है.
ना तो विरह वेदना ही,
आशाओं के उजले तट पर
स्याह-सा ये क्या फैला है?

शुभ्र ज्योति है, शुभ्र है चिंतन
सब तो शुभ्र धवल सा है.
नयनों में तैर रहा क्या जाने
फिर भी कुछ मटमैला है.

--पीयूष सौरभ

Thursday, June 14, 2018

ओस में गीले हरसिंगार जैसी ताज़ी फिल्म है अक्तूबर

इस सिनेमाई कविता को आप पांच-दस बरस बाद भी देखेंगे तो इसके भाव उतने ही शाश्वत रूप से ताजा होंगे, जितने ओस में गीले खुद हरसिंगार के फूल. 

कभी बहुत खूबसूरत सिनेमाई कविता देखने का मन हो तो आपको फिल्म अक्तूबर देखना चाहिए. फोटो सौजन्यः गूगल


हम कविताएं पढ़ते हैं या सुनते हैं. लेकिन कभी बहुत खूबसूरत सिनेमाई कविता देखने का मन हो तो आपको फिल्म अक्तूबर देखना चाहिए.

प्रेम के प्रकटीकरण के बेहद शोना-बाबू युग में जब प्रेमी-प्रेमिका के वॉट्सऐप पर आए हर मेसेज के जबाव में फौरन से पहले जवाब देना अनिवार्य हो और फेसबुक पर पोस्ट पर दिल चस्पां करना, अक्तूबर बताता है कि प्रेम किस कदर गहरा हो सकता है. समंदर की तरह.

अगर कोई प्रेम के होने या न होने पर संजीदा सवाल उठाए, उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़े करे तो उन सौ सवालों का एक जवाब है अक्तूबर.

यह फिल्म असली जिंदगी के ही किसी गहरे प्रेम को इतने सटीक तरीके से परदे पर उकेरता है कि आपको इस नश्वर संसार में प्रेम के शाश्वत होने पर यकीन होने लग जाएगा.

तो इस प्रेम के शाश्वत तत्व क्या हैं? जाहिर है, वेदना, पीड़ा, त्याग और हां, बहुत गहरा अनुराग. अक्तूबर मुक्तिबोध के अंधेरे में की तरह की एक लंबी कविता सरीखा है.

भारत में सिनेमा को लेकर एक कट टू कट हड़बड़ी है. हम एक सीन को नब्बे सेकेंड से ज्यादा बरदाश्त नहीं करते. हम 60 विज्ञापन फिल्मों को एक कथासूत्र में बांध कर एक फीचर फिल्म बनाते हैं. ताकि दर्शक बंधा रहे. हमारे पास कामयाबी का एक मनमोहनी (देसाई) तरीका है, सीन-दर-सीन, नाच-गाना-कॉमिडी-मारधाड़-फिर से गाना-मां-बिछड़ना-मिलना.

अक्तूबर जैसी फिल्में इस समीकरण का एंटी-थीसिस हैं.

अक्तूबर की कहानी को दो मिनट में निपटाया जा सकता है. लेकिन उसकी संवेदनशील कहानी को सीन-दर-सीन विवेचित किया जाए तो एक पूरी किताब लिखनी चाहिए.

हमने हमेशा वरूण धवन को गोविंदा के नक्शे-कदम पर चलते देखा है. लेकिन पहले बदलापुर और फिर अक्तूबर में धवन ने अपने अंदर के असाधारण कलाकार से परिचित कराया है. इस फिल्म की साधारण कहानी हमारे जीवन के किस्सों की तरह ही साधारण है. इसमें खिंचा-खिंचा से रहने वाला होटल प्रबंधन का छात्र डैन है, इसमें कभी कभार उससे बात कर लेने वाली उसकी सहपाठी शिवली है.

शिवली नए साल के उत्सव में शामिल होते वक्त होटल की चौथी मंजिल से गिर जाती है. बुरी तरह जख्मी शिवली कोमा में चली जाती है. गिरने से पहले उसने आखिरी सवाल अपनी दोस्त से डैन के बारे में पूछा होता हैः डैन कहां है? और, यह सवाल डैन की जिंदगी बदल देता है.

अक्तूबर को देखेंगे तो शिवली और डैन के अलावा आपको कड़क मिज़ाज बॉस का किरदार दिखेगा, जिसकी वजह से आपको डैन के किरदार के अलग अलग शेड्स दिखते हैं, जिसकी वजह से डैन के किरदार की परतें खुलती हैं.

फिर आपको अस्पताल के चक्कर काटते डैन और शिवली की मां के बीच पनपता एक ममतामय रिश्ता नजर आएगा. डैन और उसके दुनियादार दोस्तों के बीच की कैमिस्ट्री नजर आएगी. आप फ्रेम दर फ्रेम इस फिल्म के क्राफ्ट से मुत्तास्सिर होते जाएंगे.

इस फिल्म का क्राफ्ट आम हिंदी फिल्मों के क्राफ्ट से बेहद अलहदा है. इसके संपादन में एक रिदम है, गति है, लय है. अविक मुखोपाध्याय की सिनेमैटोग्राफी में ओस से गीले हरसिंगार के फूल, मकड़ी के जाले, बोगनवेलिया एक काव्यात्मकता रचते हैं. खूबसूरत लगता हर फ्रेम फिल्मी रूप से नाटकीय नहीं बल्कि इतना वास्तविक है कि मन करेगा कि फ्रेम को अपने कंप्यूटर का स्क्रीनसेवर बना लें.

लेकिन इन्हीं दृश्यों से एक उदासी सृजित होती जाती है. फिर पहाड़ हैं. उनमें जंगलों से निकलता सूरज है, उसकी किरनें हैं, नदी है. और हर फ्रेम में अपनी अदाकारी से आपको आश्वस्त करते वरूण धवन हैं.

अक्तूबर बिस्तर पर पड़े मरीजों की देखभाल में लगे लोगों के त्याग का अनकहा पाठ है और कुछ असंवेदनशील लोगो पर टिप्पणी भी.

नायिक बनिता संधू (शिवली) फिल्म में ज्यादातर वक्त बिस्तर पर मृतप्राय अवस्था में बिताती दिखती हैं. उनके पास विकल्प कम थे पर उनकी आंखें अद्भुत रूप से संप्रेषणीय हैं.

हमें न तो बनिता का नाम जानने की जल्दी होती है न फिल्म खत्म होने के बाद हमें वरूण धवन याद रहते हैं. हमें बस शिवली याद होती है और याद रहता है डैन.

इस सिनेमाई कविता को आप पांच-दस बरस बाद भी देखेंगे तो इसके भाव उतने ही शाश्वत रूप से ताजा होंगे, जितने ओस में गीले खुद हरसिंगार के फूल. 


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Monday, June 11, 2018

फिल्म परमाणु में भाजपा का झंडा लहराता है

गरमी की छुट्टियां चल रही थीं तो मेरे बेटे ने जिद की कि वह फिल्म देखना चाहता है. मुझे इनफिनिटी वॉर नाम की फिल्म दिखाने का इसरार वह कर रहा था और मैं कत्तई इस मूड में नहीं था कि मैं तीन घंटे सिनेमा हॉल में बोर होकर आऊं.

मुझे विलक्षण मार-धाड़ वाली फिल्में बोर करती हैं.

बहरहाल, यह पृष्ठभूमि थी फिल्म परमाणु देखने की. यह पोकरण परमाणु परीक्षणों पर आधारित है. मैं चूंकि खुद पोकरण जा चुका हूं और डॉक्युमेंट्री भी बनाई है इस विषय पर, तो मुझे लगा कि देखना चाहिए कि इसमें कितनी सच्चाई है और कितना मसाला निर्देशक ने डाला है.

रुस के विघटन के बाद भारत को अंतराराष्ट्रीय स्तर पर घेरने की कोशिश हो रही थी, चीन और अमेरिका पाकिस्तान के पीछे रणनीतिक रूप से गोलबंद थे. उन दिनों किस तरह से यह परमाणु परीक्षण हुए वह अपने आप में हम सब के लिए गर्व का विषय तो है ही. तब बुद्ध फिर से मुस्कुराए थे.

किस तरह भारतीय वैज्ञानिकों और परीक्षण की तैयारी कर रहे दल ने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया था उसे ही इस फिल्म की थीम बनाया गया है. मुझे इन सब पर कुछ और नहीं लिखना है क्योंकि अब तक आप लोगों ने यह फिल्म देख ली होगी या उस पर पढ़ भी लिय़ा होगा.

असल में लेखकों और निर्देशक के सामने बड़ी चुनौती यह थी कि वह कैसे इस विषय को एक वृत्त चित्र होने से बचाएं और कहानी में दर्शकों की दिलचस्पी बरकरार रखें. क्योंकि फिल्म के क्लाइमेक्स का भी सबको पता था ही. उसके बाद काल्पनिक किरदार जोड़े गए. लेकिन अश्वत रैना का किरदार तो ठीक है पर उसके परिवार से जुड़ी कहानी का फिल्म की कहानी से कोई मेल नहीं होता.

मसलन, अश्वत रैना की पत्नी को पहली बार नाकाम परीक्षणों के बाद यह तो पता रहता है कि अश्वत सिविल सेवा अधिकारी है, और वह किसी खास एटमी मिशन से जुड़ा है. मिशन फेल होने के बाद वह अश्वत की नौकरी चले जाने की बात भी जानती है. लेकिन वही पत्नी, जो संयोग से खुद एक खगोलशास्त्री है, कहानी के उतरार्ध में पति के मिशन से अनजान रहती है और पाकिस्तानी खुफिया एजेंटो के झांसे में आ जाती है. यह बात एकदम से पचती नहीं.

दूसरी बात, जॉन अब्राहम के डोले-शोले एक दम वैसे ही हैं जैसे दूसरी फिल्मों में होते हैं. अब उनसे दुबला कोई पाकिस्तानी जासूस उनको पीटता रहे और वह एक थप्पड़ भी न मार पाएं, यह हजम नहीं होता.

फिल्म में एक बात और अखरती है कि आर चिदंबरम से लेकर अनिल काकोडकर और एपीजे अब्दुल कलाम तक, सारे वैज्ञानिकों को तकरीबन हास्यास्पद दिखाया गया है, जो छोटी बातों के लिए शिकायत करते और गुस्सा होते दिखते हैं. मसलन, रेगिस्तान में काम करने की शिकायत, धूल धूप और गरमी की शिकायत. और इतने फूहड़ की गोलगप्पे खाते हुए जासूसों के सामने अश्वत रैना का राज़ उगल देते हैं. ऐसा नहीं हुआ था. और एपीजे अब्दुल कलाम जिस तरह से दिखाए गए हैं कि वह हमेशा कुछ न कुछ खाते रहते हैं यह भी गलत है और हां, वह उस वक्त डीआरडीओ में थे और प्रधानमंत्री के रक्षा सलाहकार भी थे. फिल्म उनको इसरो में काम करने वाला वैज्ञानिक बताती है.

डायना पैंटी खूबसूरत लगी हैं और शायद उनको सिर्फ इसीलिए फिल्म में लिया भी गया. यक्षवा पूछ रहा है कि पैंटी की जरूरत ही क्या थी फिल्म में. लेखकों ने खुफिया एजेंसी रॉ का एक तरह का मजाक उड़ाया है क्योंकि अश्वत के गेस्ट हाउस में पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस खुले आम आते-जाते हैं सवाल है कि तब रॉ के लोग क्या कर रहे होते हैं, यह पता नहीं चलता. इतने बडे ऑपरेशन के दौरान पाकिस्तानी जासूस सारे रास्ते पर भाग रहा होता है, रॉ कुछ नहीं करती. पाकिस्तानी जासूस रैना के घर में जाकर ट्रांसमीटर लगा देते हैं, फोन टैप कर लेते हैं और रॉ कुछ नहीं करती.

इंटरवल के बाद फिल्म जरूर रफ्तार पकड़ती है जब पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस पोकरण में रह कर इस बात को पकड़ लेते हैं कि भारत परमाणु परीक्षण करने जा रहा है. यहां पर थ्रिल पैदा होता है. क्लाइमैक्स अच्छे से लिखा गया है और दर्शक सिनेमाहॉल छोड़ते समय अच्छी फिलिंग लेकर निकलते हैं और लेखक यहां पर कामयाब हुए हैं.

निर्देशक अभिषेक शर्मा की फिल्म बेहतर विषय पर बनी हुई है, संपादन भी कसा हुआ है. और इसमें जॉन अब्राहम का भावहीन सपाट चेहरा भी नहीं खलता. देशभक्ति के लिए यहां छाती नहीं ठोंकी गई. पूरी फिल्म में सिर्फ एक बार तिरंगे का इस्तेमाल हुआ है. पर अगर आपमें गौर से देखने की क्षमता और इच्छा हो तो देखिएगा, पूरी फिल्म में कम से कम तीन दफा दूर पृष्ठभूमि में भाजपा का चुनावी झंडा लहरा रहा होता है.

भरोसा नहीं, तो खुद देख लीजिएगा.



Saturday, June 9, 2018

मधुपुर मेरा मालगुडी है


मधुपुर डायरी पार्ट 2:

मधुपुर की सुबहें दीगर शहरों से अलग हुआ करती हैं. यह शहर मेरा मालगुडी है, और मैं उसका स्वामीनाथन.

सोमवार की सुबह को जब मैं उठा, तो अपनी आदत के उलट तयशुदा समय से काफी पहले उठ गया था. चाय-चुक्कड़ इत्यादि पीने के बाद हमने, यानी मैंने और रतन भैया ने मधुपुर में सोशल विजिट का कार्यक्रम रखा था.

मेरे मुहल्ले में एक विद्यालय है, तिलक विद्यालय. मैं इसका छात्र रहा हूं तो यहां गया भी. उसकी पोस्ट बाद में. पर उसके पिछवाड़े अमलतास क्या उमक कर खिला था. मन का सारा दुख दूर हो गया. दिल्ली में पेड़ पौधे धूल से अंटे रहते हैं. मधुपुर में सारे पेड़ धुले-धुले थे, साफ-साफ. हंसते हुए. खिलखिलाते. 

मुझे तो ऐसे भी गुलमोहर और अमलतास बहुत भाते हैं. अमलतास के पीलेपन को मैने अपने आंखों भी बसाया और मोबाइल में भी कैद कर लिया. 

दिल्ली में रामकृपाल झा ने मुझसे कहा था कि एक दफा नया बाजार चला जाऊं, तो नया बाजार (मधुपुर का एक मोहल्ला) जाना तय ही था. लेकिन रामकृपाल के पिताजी माताजी तीर्थ के लिए कहीं निकल गए थे तो दिन में उनसे मुलाकात की कोई संभावना नहीं थी सो हम लोग उधर जाने के कार्यक्रम को आगे की तारीख पर टाल गए.

तो हमने पहली यात्रा शुरू की दक्षिण की तरफ. मधुपुर में हमारे मुहल्ले को साधनालय कहा जाता है. उसकी सरहद हनुमान जी का एक चबूतरा था, जिसे अब एक छोटे मंदिर में तब्दील कर दिया गया है. मेरे घर से निकलते ही पहले बाएं हाथ पर एक परचून की दुकान हुआ करती थी. शंकर की दुकान. जिसके ऐन पीछे एक विशालकाय यूकेलिप्टस का पेड़ था. उस पेड़ की पत्तियों में मैं बचपन में मुख्तलिफ़ आकृतियां खोजा करता था. घिरते अंधरे में स्याह होते जाते उस पेड़ में कभी मुझे बजरंगबली दिखते थे, कभी अनिल कपूर तो कभी कोई डरावनी चुड़ैल भी.

मेरे मुहल्ले में उमक कर खिला अमलतास. फोटोः मंजीत ठाकुर


अब वह पेड़ वहां नहीं है. कट चुका है. लगा कि मेरा कोई बहुत जिगरी दोस्त नहीं रहा इस दुनिया में.

उस पेड़ के ठीक सामने यानी सड़क के दाहिनी तरफ, शुक्र है, अभी भी खेत हैं. मेरे घर के ठीक दक्षिण में जो बड़ा सा तालाब था. वह आधा भरा जा चुका है. उस में आधे मधुपुर के नाले का गंदा पानी जमा होता है. मछलियां मर चुकी हैं. पानी का रंग गहरा काला हो चुका है. विश्वास नहीं होता कि यह वही तालाब है जिसमें हम अमूमन नहाया करते थे, मछलियां मारते थे और होली के बाद रंग छुड़ाने के लिए तो यही पोखरा तय था.

बहरहाल, बजरंगबली का चबूतरा खत्म होते ही हाजी मुहल्ला शुरु हो जाता है. मेरे कई दोस्त वहां मिले. रोज़े में प्यास न लगे सो नीम के दातुन चबाते लोग. कुछ को छोड़कर पहले वाली गुरबत कहीं नहीं दिखती. सब मकान पक्के और ऊंचे और आलीशान हो गए हैं. बाकी लोग वैसे ही है. हंस कर मिलने वाले.

बरकत भैया मिले थे. जब हम बच्चे थे तब भी उनके बाल सफेद थे. अब तो खैर, नौकरी अभी भी उनकी दो साल बची है पर सिर भौंह दाढ़ी सब सुफेद. बिलकुल बर्फ़ानी.

फिर वह सब मकान, जिसमें कभी होम्योपैथ के मधुपुर के मशहूर डॉक्टर फारूख़ साहेब रहते थे और जिनके घर में एक मस्त-सा हिरन था. शायद उसको उन्होंने किसी बकरीद में क़ुरबान कर दिया. अब उन्होंने कहीं और मकान बनाया पर उनका वह मकान जो पुराने धज का था, अब भी है, पर उसमें वह बात नहीं रही.

उसके आगे संताल आदिवासियों के घर थे और शरीफों, कठ-लीची (लीची का जंगली पेड़ जिसमें कंचों के आकार के छोटे फल होते थे) वगैरह के जंगल थे. जंगल अब कम हो गए हैं. गोयठे-उपले बेचने वाले संतालों ने कोई और धंधा अपना लिया है. उसके आगे धान के खेत हुआ करते थे, जिनके बीच में ऊंची मेड़ थी. चौड़ी भी. बाईं तरफ एक और तालाब, जिससे मेरे एक मित्र प्रशांत का एक मजेदार वाकया भी जुड़ा है. 


रेल से मधुपुर घुसते समय पात्रो (पतरो) नदी के पास का विहंगम दृश्य फोटोः मंजीत ठाकुर


प्रशांत का मकान बन रहा था. और शाम को उसके अधबने मकान को देखकर वापसी में जब आसमान में चांद उग ही रहा था और अंधेरा हो चुका था, प्रशांत को तेज हाजत आ गई. (पाखाना लग गया)

गरमियों के दिन थे और तालाब में चांद की परछाईं देखकर प्रशांत समझे कि तालाब में पर्यापत् पानी मौजूद है. लेकिन जब वह शंका निवारण के बाद धुलाई के लिए आए, तो सिर्फ कीचड़-ही-कीचड़ था. बाद में हमने भौतिकी में पढ़ा कि पानी की पतली परत भी एक फिल्म की तरह काम करती है और प्रकाश को परावर्तित कर सकती है, जबकि उतने पानी में शौचक्रिया तो खैर क्या ही होगी, हाथ भी गीला नहीं हुआ था. बाद में झाड़ियों के पत्तों से काम चलाया गया, जो बाद में प्रशांत ने बताया, बेहद दर्दनाक था.

अस्तु, वह तालाब भर दिया गया है. एक गड्ढा जैसा है, लेकिन उसमें पड़ोसी लोग कूड़ा डालते हैं. असंख्य मकान उग आए हैं उस तालाब के चारों तरफ. पहले जो इलाका पेड़ों, तालाबों से अनिंद्य खूबसूरती का वायस था, अब ईंट-गारों के मकानों के बोझ से दब गया है.

पहले वहां ताड़ के पेड़ों के पीछे सूरज छिपता था. पर अब वो बात नहीं रही.

कोई साढ़े दस बजे सुबह में हम दोनों भाई पहले अपने एक पारिवारिक घनिष्ठ ललित भैया के यहां गए थे. पर उनके यहां ठंडा इत्यादि ठेलने के बाद मैं प्रो. सुमन लता के यहां गया.

हम सभी उनको मौसी कहते हैं. मां की मुंहबोली बहन हैं. लेकिन वहां गया तो एक सुखद आश्चर्य हुआ. मेरे बचपन का दोस्त पीयूष का मुस्कुराता चेहरा दिखा. संभवतया 1997-98 के बाद उससे पहली बार मुलाकात हुई थी.

बता दें कि पीयूष सौरभ लखनऊ कार्ट ऐंड क्राफ्ट कॉलेज से ललित कला (फाईन आर्ट) में स्नातक और परा-स्नातक हैं. कैनवस पर उसकी कूची ऐसे चलती है जैसे इंद्रधनुष बिखेर दी हो.

बढ़ी हुई दाढ़ी और सफेद बालों के साथ पीयूष थोड़ा बीमार लग रहा था. पर ऊर्जा वैसी ही. वही सृजनात्मकता. वही मुस्कुराहट. वह हंसता है तो गालों में डिंपल पड़ते हैं उसके.

मैं वहां उसके यहां चाय-मिठाई के बाद चलने को हुआ तो मैंने इसरार किया कि शाम को गांधी चौक पर मिलने से पहले शेविंग भी कर ले, और बाल में डाइ भी.

फिर हम शाम को गांधी चौक पर मिले.

वहां से किस्सा, कैसे और कहां गया, वह कल बताएँगे.