Saturday, May 31, 2008
हिंदी का स्लैंगकोष-२
लफुआ (लोफर),
फर्सटिया जाना
मोछ कबड़ा-क्लीन शेव्ड
थेथड़लौजी,
नरभसिया गए हैं (नरवस),
पैना (डंडा), इनारा (कुंआ), चरचकिया (फोर व्हीलर),
हँसोथना (समेटना), खिसियाना (गुस्साना), मेहरारू (बीवी),
मच्छरवा भमोर लेगा (मच्छर काट लेगा),
टंडेली (मटरगश्ती) नहीं करो,
ज्यादा बड़-बड़ करोगे तो मुँह पर बकोट (नोंच) लेंगे,
आँख में अंगुली हूर देंगे,
चकाचक, ससुर के नाती,
लोटा के पनिया,
पियासल (प्यासा), ठूँस अयले (खा लिए),
कौंची (क्या) कर रहा है,
जरलाहा,
कचिया-हाँसू- फसल काटने का हंसिया
कुच्छो नहीं (कुछ नहीं), अलबलैबे-अकबकाओगे-घबराओगे?
ज्यादा लबड़-लबड़ मत कर, गोरकी (गोरी लड़की),पतरकी (दुबली लड़की),
ऐथी, अमदूर (अमरूद), आमदी (आदमी),
सिंघारा (समोसा),
बोकरादी-बोखराती-सुकरात और बोखरात से व्युत्पन्न
भोरे-अन्हारे,-सुबह-सबेरे
ओसारा (बरामदा) बहार दो,
ढ़ूकें-धुसें?
आप केने (किधर) जा रहे हैं, कौलजवा नहीं जाईएगा,
अनठेकानी-अंदाजन, लंद-फंद दिस् दैट,
देखिए ढ़ेर अंग्रेज़ी मत झाड़िए,
लंद-फंद देवानंद, जो रे ससुर,
काहे इतना खिसिया रहे हैं मरदे, ठेकुआ-मीठा पकवान
निमकी-नमकीन भुतलाना (खो जाना) गए थे,
जुआईल- मेच्योर्ड
बलवा काहे नहीं कटवाते हैं
का हो जीला, ढ़िबड़ीया धुकधुका ता
थेथड़- ढीठ
मिज़ाज लहरा दिया,
टंच माल-अच्छी लड़की
भईवा, पाईपवा, तनी-मनी (थोड़ा-बुहत) दे दो, तरकारी,
इ नारंगी में कितना बीया (बीज) है,
अभरी गेंद ऐने (इधर) आया तो ओने (उधर) बीग(फेंक) देंगे,
बदमाशी करबे त नाली में गोत (डुबो) देबौ (दूंगा),
बड़ी भारी है-दिमाग में कुछो नहीं ढ़ूक रहा है- बहुत कठिन है समझ में नहीं आ रहा
बिस्कुटिया चाय में बोर-बोर (डुबो-डुबो) के खाओ जी, छुच्छे काहे खा रहे हो,
बहुत निम्मन (स्वादिष्ट) बनाया है, उँघी (नींद) लग रहा है, काम लटपटा गया है,
बूट-चना फुला दिए हैं,
बहिर बकाल,
भकचोंधर,़ नूनू, सत्तू घोर के पी लो,
लौंडा, अलुआ, सुतले रह गए, माटर साहब,
तखनिए से ई माथा खराब कैले है- तब से इसने दिमाग़ ख़राब किया हुआ है
एक्के फैट (फाइट-मुक्का) मारबौ कि खुने बोकर देबे- एक ही मुक्के में खून की उल्टी कर दोगे
ले बिलैया - इ का हुआ- हे दैव ये क्या दुआ?
सड़िया दो- सजा दो
रोटी में घी चपोड़ ले,
लूर (कला), मुड़ई (मूली)
उठा के बजाड़ (पटक) देंगे,
गोइठा-उपले, डेकची-देग
कुसियार (ईख),
रमतोरई (भिंडी),
फटफटिया (राजदूत), भात (चावल), नूआ (साड़ी), देखलुक (देखा),
दू थाप देंगे न तो मियाजे़ संट हो जाएगा- दो झापड़ में ही मिज़ाज बन जाएगा
बिस्कुट मेहरा(नमी ले लेना) गया है,
जादे अक्खटल न बतिया,
एकबैक (एकबारगी, अचानक) आ गया और हम धड़फड़ा (हड़बड़ में आ गए) गए,
फैमली (पत्नी), बगलवाली (वो),
हमरा हौं चाहीं,
भितरगुन्ना-इंट्रोवर्ट, अंतरमुखी
लतखोर, भुईयां (जमीन) में बैठ जाओ, मैया गे,
काहे दाँत चियार रहे हो-खीसे क्यों निपोर रहे हो?
गोर बहुत टटा रहा है-पैर में बुहत दर्द है
का हीत (हित), निंबुआ दू चार गो मिरची लटका ला चोटी में, भतार (पति),
फोडिंग द कापाड़ एंड भागिंग खेते-खेते,
मुहझौसा, गुलकोंच (ग्लूकोज़)।
हिंदी का स्लैंगकोष-योगदान दें
(ज्ञान जी के ब्लाग को पढ़ने के बाद हिंदी स्लैंग की दिशा में काम करने की इच्छा जगी है। उनके पोस्ट और पोस्ट पर आए कमेंट्स और कुछ ताजा़ दम शब्दों को लेकर कुढ शब्दकोषनुमा चीज़ बनाना चाह रहा हूं। आपका सहयोग अपेक्षित है। इसमें किस्सागोई वाले राजीव से भी चीज़े उडाई गई हैं। साभार- गुस्ताख़)
खतम--प्रयोग- आप तो एकदम खतम आदमी है (सौजन्य शिवकुमार मिश्र )
कसवाना- प्रयोग- कहां से कसवाए हो जी? (सौजन्य उपेद्र कुमार सिंह )
चोमू- अर्थ- गंवई लंठ- शहरीपने ने चोमूत्व को खतम कर दिया है (सौजन्य- ज्ञानदत्त पांडेय)
वाट लगना- अर्थ तो सबको पता ही है
कई स्लैंग सीधे ऐसा संवाद करते हैं कि हम भद्रजनों के इस्तेमाल करने पर यहाँ हाय तोबा मच जायेगी .वे मानव की मूल वृत्तियों और जननांगों से सीधा सम्बन्ध रखते हैं -कुछ थोडा भद्र हैं जैसे -
बकलंठ ,भुच्चड़ ,बोंगा ,चाटू ,लटक रेजरपाल, लटरहरामी,खड़दूहड आदि..(सौजन्य- अरविंद मिश्रा)
अगर जेब पर "फटका" न लगे और आप कोई "लफडा" न करें तो मुम्बईया स्लैंग बताने को हम तैयार हैं. बाद में चाहे आप मित्र मंडली में "खाली पीली बूम" मारते रहें की ये स्लैंग आप ने ही इजाद किए हैं , जैसे शिव हमसे सुन कर अपने नाम की ख़ुद ही " पुंगी " बजाते हैं.- (सौजन्य- नीरज गोस्वामी)
और अब पेश हैं कुछ स्पेशल बिहारी शब्द- बिहार स्पेशल शब्दकोष। अधिकतर शब्द तदभव ही हैं। मगह, मैथिली, अंगिका, भोजपूरी और मसाले के रूप में पटनिया। लोगों का मानना है कि पटना में मगही भाषा बोली जाती है। लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। पटना में पटनिया बोली जाती है जो पूरे राज्य की भाषाओं और राष्ट्रभाषा हिंदी का मिश्रण है। पेश है शब्दकोश के कुछ जाने-पहचाने शब्द:
कपड़ा फींच\खींच लो - कपडा़ साफ़ करना
बरतन मईंस (मांज)लो, ललुआ,- लालू
ख़चड़ा, खच्चड़,- खच्चर(गाली)
ऐहो- ऐ
सूना न- सुनाओं न, सुनो न
ले लोट्टा, ले बलैया,
ढ़हलेल, बुड़बक,भकलोल, बकलाहा- बेवकूफ
सोटा- डंडा
धुत्त मड़दे, का हो मरदे,
ए गो, दू गो, तीन गो- एक दो तीन,
का रे- क्या भई
टीशन (स्टेशन), चमेटा (थप्पड़),
ससपेन (स्सपेंस),
हम तो अकबका (चौंक) गए,
जोन है सोन, जे हे से कि,
कहाँ गए थे आज शमावा (शाम) को?,
गैया को हाँक दो,
का भैया का हाल चाल बा,
बत्तिया बुता (बुझा) दे,
सक-पका गए,अकबकाना
और एक ठो रोटी दो,
कपाड़- (सिर,
तेंदुलकरवा गर्दा मचा दिया,
धुर् महराज, अरे बाप रे बाप,
हौओ देखा (वो भी देखो),
ऐने आवा हो (इधर आओ),
टरका दो (टालमटोल), लैकियन (लड़कियाँ),
लंपट, लटकले तो गेले बेटा (ट्रक के पीछे),
की होलो रे (क्या हुआ रे),
चट्टी (चप्पल), काजक (कागज़), रेसका (रिक्सा),
ए गजोधर,
बुझला बबुआ (समझे बाबू),
सुनत बाड़े रे (सुनते हो),
फलनवाँ-चिलनवाँ,
कीन दो (ख़रीद दो),
कचकाड़ा (प्लास्टिक),
चिमचिमी (पोलिथिन बैग),
हरासंख,
चटाई या पटिया,
खटिया, बनरवा (बंदर),
जा झाड़ के,
पतरसुक्खा (दुबला-पतला आदमी),
ढ़िबरी, चुनौटी,
बेंग (मेंढ़क),
नरेट्टी (गरदन) चीप दो,
कनगोजर-सेंटीपॉड
गाछ (पेड़), गुमटी (पान की दुकान),
अंगा या बूशर्ट (कमीज़),
चमड़चिट्ट, लकड़सुंघा, गमछा, लुंगी, अरे तोरी के,
अइजे (यहीं पर),
हहड़ना (अनाथ), का कीजिएगा (क्या करेंगे),
दुल्हिन (दुलहन), खिसियाना (गुस्सा करना),
दू सौ हो गया,
पानी का दुख
मैं पानी हूं, आप न मेरे बिना जी सकते हैं, न मेरे साथ..। आपके लिए न सूखा मुफीद है न बाढ़। आज मेरी कमी को हर जगह महसूस कर सकता है इंसान। दुनिया का हर हिस्सा मेरी कमी से जूझ रहा है। बड़े लोग कहते हैं कि तीसरी लड़ाई मेरी वजह से ही होगी। मेरी कमी ने आज चंदेल राजाओं की राज़धानी महोबे में मारामारी मचा दी है।
हर तीसरे दिन मेरे लिए झगड़े होने लगे हैं। मेरी कमी से इलाका सूखे औरअकाल से जूझ रहा है। इसके साथ ही अवैध खनन ने बुंदेलखंड के इस इलाके को बोंडा बना दिया है।
17 जुलाई 2007 को पिछली बार यहां के लोगों ने पंद्रह मिनट की बारिश देखी थी। उसके बाद यहां मेरी एक बूंद तक नहीं टपकी। मुझे भी लग रहा है कि प्यास से व्याकुल धरती के सीने में मुझे मौजूद होना चाहिए। लेकिन करूं क्या.. आपने खुद ही मेरा रास्ता रोक रखा है।
बुंदेलखंड में पाताल से पानी लाने के उपाय नाकाम होते जा रहे हैं। चंदेलों के बनाए कीरत सागर और मदन सागर जैसे बड़े तालाबों ने दम तोड़ दिया है। बुंदेलखंड में नदियां तो हैं लेकिन किनारे-किनारे निकल लेती है। केन, बेतवा और धंसान जैसी नदियों ने भी इलाके का साथ देना छो़ड़ दिया है। शायद यही वजह रही कि पुराने लोगों ने तालाबों पर भरोसा किया, जो हाल तक मेरी कमी पूरी करते रहे।
तालाब बनवाने वाले इकाई में थे, बनाने वाले दहाई में लेकिन इस इकाई और दहाई ने सैकड़ों की तादाद में तालाब बना दिए। इन्हीं तालाबों ने हाल तक यहां की धरती की प्यास बुझाई।
फिर विकास की बात हुई तो विकास की खातिर गौरा पहाड़, कबरई और कुलपहाड़ के इलाके में पहले जंगल कटे, फिर मिट्टी हटाई गई और फिर पहाड़ भी खोद दिए गए। पहाड़ों को हटाने के लिए डाइनामाईट का इस्तेमाल हुआ और इस बारुद ने पहाड़ों को नक्शे से गायब कर दिया।
हीरा और बेशकीमती पत्थर उगलने वाली धरती पानी नहीं उगल पा रही। जहां पीने का पानी न हो, वहां खेती के लिए पानी कहां से आएगा। महोबे का पान, पानी की कमी से खत्म होने की कगार पर है। पान की लाली का रस पानी की वजह से ऊसर हो रहा है।
आल्हा और ऊदल जैसे वीरों की धरती के लाल, देश के लिए नहीं पानी की एक बाल्टी के लिए आपस में ही भिड़ रहे हैं।
मामला महज अकाल का ही नहीं है। अकाल से भी ज़्यादा खतरनाक होता है अकेले पड़ जाना। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की खींचतान में बुंदेलखंड अकेला पड़ता जा रहा है।
बुंदेलखंड तो महज एक मिसाल है। अगर आपने मुझे बचाना नहीं सीखा तो बुंदेलखंड देश के हर राज्य और हर जिले में पैदा हो जाएगा। ज़रूरत है कि परंपरा को फिर से जिंदा किया जाए, मरते जा रहे तालाबों को फिर से जिलाया जाए, उनके आगर और आगार में मेहनत से निकले पसीने की बूंद मुझे बचाने कीी रवायत को नई जिंदगी देगी।
सिर्फ सरकार पर जिम्मेदारी डालने से यह काम पूरा नहीं होगा, आम आदमी को पानी बचाने के लिए आगे आना होगा। कुंओं तालाबों और नहरो में मेरे होने के साथ-साथ इंसान की आंखों में भी पानी रहना बहुत ज़रुरी है।
Thursday, May 29, 2008
एक संजीदा ब्लाग पाठक का दुख
इससे पहले कि आप लोग ये कमेंट पढ़े, उम्मीदों के बादल पर सवार हों, हक़ीकत के आइने से रुबरु कराना चाहूंगी। असल में मैं ये किसी ब्लाॅग के प्रत्युत्तर में नहीं लिख रही हूं, बल्कि कुछ ऐसा लिखने जा रही हूं जो पिछले कुछ दिनों में मैंने औऱ मुझ जैसे कुछ लोगों ने महसूस किया है। ऐसा है कि हमारे मुल्क़ को किसी ने बहुत ही बेहतर तरीके से परिभाषित किया है....भेड़ की चाल वाला मुल्क़। सुनने और उससे भी ज्यादा मानने में तक़लीफ तो होती है पर है ये सच।
कुछ वक्त पहले कुछ पत्रकारों ने अपने पत्रकारिता के खट्टे मीठे बल्कि कहा जाए बेहद कड़वे अनुभवों को ब्लाॅग के ज़रिए लिखने का आइडिया सोचा। वजह दो थी, पहली वजह ये बताना कि पत्रकार इतने बुरे और पत्थर दिल नहीं जितना लोग औऱ आम जनता उन्हें समझती है, औऱ दूसरी इस सोकाॅल्ड पत्रकारिता में बद से बदतर होते हालातों को जताकर अपने दिल के बोझ को ( जो अब तक व्यावसायिक प्रत्रकारिता के रंग में नहीं रंगे हैं।) उतारना चाहते हैं। खैर...मुद्दे की बात की जाए।
तो इन दो वजहों से ये नई पहल की गई थी, पर जैसा कि हमारे मुल्क़ में अक्सर होता है, अच्छे मक़सद से शुरु किया गया काम धीरे धीरे इतना भद्दा रुप ले लेता है कि उसकी खूबियां महज़ कुछ नादानियों की बलि चढ़ जाती है। माने... अपने अनुभवों और ब्लाॅग्स को ज्यादा से ज्यादा मशहूर बनाने की होड़ में एक सभ्य , संयमित भाषा से शुरु हुआ ये सिलसिला उस तरफ चल पड़ा है, जहां भाषा की अदायगी औऱ अंदाज़ मायने नहीं रखती , ज़रुरी है बस अपने ब्लाॅग्स तक को ( इसलिए कि अब तक न्यूज़ को ही चटाखेदार बनाने की कवायद चलती थी) और चटाखेदार औऱ क्रिस्पी बनाना , जिससे ज्यादा से ज्यादा विज़िटर्स अपनी वेबसाइट पर दिखा सके।
कई बार ब्लाग्स पढ़ती हूं तो कम्यूनिकेशन की दुनिया में ब्लागकर्ता का असल संदेश ही कहीं गुम सा होता दिखता है। भाषा में वो तंज और रोचकता नहीं रही। आप खुद ही दूसरे के ब्लाग को पढ़कर देखें, बमुश्किल हम किसी पूरे ब्लाग को पढ़ पाते हैं। तो एक ज़िम्मेदार पत्रकार होने के नाते सभी दोस्तों से मेरी गुज़ारिश है कि जिस मकसद से ये बेहतर विकल्प तलाशा गया है, उसकी गरिमा को बनाए रखें। बजाय एक शार्टकट के क्योंना ब्लागिंग को एक ऐसा ज़रिया बनाया जाए, जिससे हर किस्म के मुद्दों, मुश्किलों औऱ इस मीडिया जगत के दिग्गजों की सही राय मिल सके।
हांलाकि हममें से कुछ अभी भी उस हुनर को संजोए हुए हैं, पर मैं उम्मीद करुगी कि हम सब एक बार फिर अपने सालों के अनुभवों , अपनी लेखनी और प्रतिभा को कुछ इस तरह कम्प्यूटर पर बिखेरें, कि हर दूसरा शख्स रश्क़ करे इस काबिलियत से....और कहे...माना कि है वो दुश्मन मेरा, पर बोलता वो अच्छा है...इत्तिफाक़...नाइत्तिफाक रखने वाले कमेंट्स का वेल्कम......
Tuesday, May 27, 2008
बुद्धिजीवी होने के पेंच
दरअसल, तस्वीर खिंचवाने और मन की स्थिति को बुद्धिजीवियों के स्तर तक लाने में बहुत झख मारनी पड़ती है। लेकिन मन में बैठी उस बात का क्या किया जाए। बचपन से देखता आया हूं कि जिस किसी को भी मन ही मन यह यक़ीन हो कि उसमें भी इंटेलेक्चुअलत्व है ज़रा भी। वह अपनी खुद की प्रायोजित किताब में ऐसी ही तस्वीरें चस्पां करवाते हैं। जितने विचारक जाति के लोग हैं, साहित्यकारनुमा लोग, प्रोफेसर इत्यादि हैं, वह ऐसी ही तस्वीर खिंचवाते हैं। हाथ गाल पर.. ठुड्डी पर। आंखें उधर .. जिधर फोटोग्राफर के स्टूडियों में कंघी-शीशा टांगने की जगह होती है।
पहले तो मैंने भी वैसा ही करने का पूरा प्रयास किया था। हाथ को ठुड्डी पर टिकाया, लेकिन ससुरा टिका ही नहीं। हाथ और ठुड्डी में यदुरप्पा और देवेगौड़ा जैसा रिश्ता...। मेरे चेहरे पर दाढ़ी भी वैसे ही उगती है, जैसे चुनाव के ऐन पहले क्षेत्रीय पार्टियां उग आती हैं। ये पार्टियां जैसे जीतनेवाले मजबूत उम्मीदवारों की आंखों में गड़ती हैं ना, वैसे ही दाढीं के कड़े बाल मेरे हथेलियों में गड़ने लगे। बुद्धिजीवी की तरह त्स्वीर खिंचवाने के मेरे प्रण का कौमार्य भंग होने लगा।
मुट्ठी खोलने की कोशिश की तो हथेलियों से चेहरा छिपने लगा, कैमरावाला मोबाईल फोन हाथ में लिए दोस्त फिकरा कसने लगा, यार मनोज कुमार की तरह लग रहे हो। अब ये मत बोलना कि हमारे देश की हर लड़की मां है, बहन है, बेटी है...। मै पस्त हो गया। लेकिन मैं भी बुद्धिजीवी बनने के लिए उतारू था।
हाथ में कलम लेकर उपर की तरफ ताकना..शून्य में निहारना..मानों दुनिया में सुकरात के अब्बा और अफलातून के दादा मेरे कंधो पर सारी दुनिया की समस्याओं का बोझ डालकर निंश्चिंत हो गए हों, निश्चिंत होकर ज़न्नत की अप्सराओं के साथ चांदनी रात में नौका विहार कर रहे हों..। मेरा स्वबाव भी कुछ ऐसा ही ऐं-वईं हंसी आने लगती है। सोनिया माताश्री, आडवाणी (सावधान, पिताश्री नहीं बोल रहा हूं उन्हें.. अपनी तरफ से कुछ भी बाईट मत सोच लिजिए.. कलाकार हैं आपलोग कुछ भी कर सकते हैं। वरना झज्जर की सभा में माताश्री के बयानों को तोड़-मोड़ कर ऐसे पेश नहीं करते कि यूपीए और वाम दलों में कबड्डी मैच आयोजित करवाने की ज़रूरत पड़ने लगती।) , प्रकाश करात जैसे बिना ज़िम्मेदारी के सत्तासुख का पान करने वाले महादेशभक्त और मधुकोड़ा जैसे छींका टूटने से सत्ता पाने वाले से लेकर हरकिशन सिंह सुरजीत पर ऐसे ही हंसी आने लगती हैं।
आम आदमी हूं..आम आदमी अपनी बुरी दशा में भी हंसता है, नेताओं की चूतियागिरी पर हंसता है। हंसता नहीं होता तो हम खुश रहने वालों के सूचकांक में इतने ऊपर होते क्या। हमें तो रोटी के साथ नमक मिल जाता है तो हम खुश हो जाते हैं। ध्यान दीजिए. प्याज और तेल नहीं जोड़ा है मैंने। सरकार की महती कृपा से मैं पूर्णतया शाकाहारी हो गया हूं। सब्जियां उबालकर खा रहा हूं, मां को शक हो गया है कि घर के सभी लोगों को पेट की कोई गंभीर बीमारी हो गई है, जभी मैंने सबके तेल और प्याज खाने पर रोक लगा दी है। कौन समझाएगा कि बीमारी किसको हुई है पेट की.. बीजेपी की तरह मुझे एक बीमारी ज़रूर हो गई है, मुद्दे से भटकने की। माफी चाहूंगा...बात मैं कर रहा था, तस्वीर खिंचवाने की।
तो जनाब, तस्वीर खिंचवाने के लिए गंभीर होना सबसे बड़ी समस्या थी। वैसे किसी दोस्त ने सलाह दी कि कुरता पहनो , बुद्धिजीवा लगोगे..बुद्धिजीवी होने के लिए कुरता पहनना बहुत ज़रूरी है। लेकिन हमारे शरीर की ढब कुछ ऐसी है कि कुरता पहनूं तो लगता है, खूंटी में टांग दी गई है। सो यह ख़्याल हमने तत्काल प्रभाव से खारिज कर दी, ठीक वैसे ही जैसे सरकार बचाने के लिए कॉंग्रेस एटमी करार को ठंडे बस्ते में डालने पर राजी हो गी है। वैसे जहां तक गंभीरता का सवाल है, वह तो हम आजतक हुए ही नहीं.. बहुत कोशिश की गौतम गंभीर ही हो जाएं, कभी तोला कभी माशा की तरह टीम में रहें, कम से कम मेरे नाना के घर पर भी आयकर महकमे का एक छापा तो पड़ ही जाए। लेकिन आसमान को यह मंजूर ही नहीं।
गोया गंभीर हम तब हो गए, जब किसी खराब स्टोरी की कवरेज के लिए दबाव आया कि यह पीआर स्टोरी है, करनी ही है। जी नहीं चाहता था कुछ भी करने का, पीआर का मतलब.. ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान से दंडवत् करते हुए स्टोरी पेलना, और खराब स्टोरी इतने बड़े होने जा रहे यानी भावी बुद्धिजीवी से पीआर कवरेज करवाना न्याय है क्या? सुनकर हम गंभीर (संजीदा गुरु.. गोतम वाला नहीं) हो गए, दोस्त मेरा पियोर खांटी दोस्त है, इसी मौके की तलाश में था, चट् से फोटू टांक दी। तबसे हर जगह यही तस्वार टांकता चलता हूं, ताकि लोगों को लगता रहे कि यह जो चंट जैसा इंसान पिचके गालों को ढंकने के लिए चेहरे पर हाथ रखे हुए है, छंटा हुआ बुद्धिजीवी है।
Monday, May 26, 2008
दिल्ली की बारिश में उखड़े हुए पेड़
कक्काजी कहने लगे हमारे बिहार-झारखंड में ऐसा नहीं होता। हवा-आंधी-पानी में पेड़ इसतरह से ज़मीन से नहीं, उखड़ते । वहां के पेड़ों की जड़ें मज़बूत होती हैं। वहां बिजली के खंभे ठीक से गड़े नहीं हैं। हवा चलती है तो बिजली के खंभे उखड़ते हैं, पेड़ नहीं। कक्का जी ने गहरी सांस ली।
गुस्ताख़ भी मानता है पेड़ों की जड़ें गहरी होनी चाहिए।
Friday, May 23, 2008
कॉन में चे गुएरा पर फिल्म की धूम
उधर, अर्जेंटीना में जन्मे और क्यूबा के नेता ई चे गुएरा की जिंदगी पर बनी फिल्म चे को वहां काफी चर्चा मिल रही है। कॉन फिल्म समारोह अपने प्रतियोगी खंड में बेहतरीन फिल्मों को शुमार करने के लिए जाना जाता है। इस बार भी कॉन में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के गोल्डन बीयर पुरस्कार की दौड़ में कई फिल्में हैं, लेकिन निर्देशक स्टीवन सोडरबर्ग की फिल्म चे पर काफी लोगों की नज़र है। फिल्म की लंबाई चार घंटे है, फिर भी दर्शक इसे सर-आंखो पर बिठा रहे हैं।
ये फिल्म दो हिस्सों में है। पहले हिस्से में 1956 की कहानी है जब फिदेल कास्त्रो चे गुएरा के साथ क्यूबा आते हैं। जबकि दूसरे हिस्से में क्यूबाई क्रांति की कहानी है। वैसे गोल्डन बीयर पुरस्कार में चे के साथ 20 दूसरी फिल्में भी दौड़ में हैं। लेकिन जिस फिल्म के दर्शकों में देखने फुटबॉलर डिएगो मारोडोना, पॉप स्टार मडोना और शेरॉन स्टोन जैसे स्टार हों, तो फिल्म की लोकप्रियता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
कॉन में नदारद भारत
कॉन फिल्मोत्सव शुरु हुआ और फिल्मी दुनिया की आला हस्तियों से अंटा भी। वहां अगले कई दिनों तक आला निर्देशकों, अभिनेताओ और फैशन के साथ ग्लैमर का मेला लगा रहेगा। दुनिया भर की बेहतरीन फिल्में यहां दिखाई जाएंगी लेकिन इस मेले में भारत की नुमाइंदगी नदारद है।
भारत की कोई भी फिल्म इस उत्सव के प्रतियोगिता खंड में नहीं है। इस बार क्यों ये तो अमूमन हर बार की कहानी है। ऐसे में भारत की उपस्थिति दर्ज कराएगी एक ऐसी क्लासिक फिल्म जो 42 साल पहले बनी थी। जी हां,. देव आनंद की गाईड को इस बार कॉन के क्लासिक फिल्म सेक्शन में चुना गया है।
पिछली बार यहां चीनी कम और जोधा अकबर जैसी फिल्मों का प्रीमियर हुआ था। इस बार भी कुछ कलाकार अपनी फिल्मों के प्रमोशन के लिए कॉन जा रहे हैं। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि अगर हम बॉलिवुड का परचम दुनिया भर में फैलाने का खम ठोंकते हैं तो हमारी फिल्मो को संजीदगी के साथ क्यों नहीं लिया जाता। आखिर बर्लिन या कॉन जैसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में हमारी नुमाइंदगी इतनी कमज़ोर क्यों होती है। जबकि हम दुनिया के सबसे बड़े (?) फिल्म बनाने वाले देश में शुमार होते हैं।
यह सवाल तब और मौजूं हो जाता है जब इस तथ्य पर नजर जाती है कि इस बार कॉन में भारतीय सिनेमा पर भी चर्चा होगी जिसमें केतन मेहता और सुधीर मिश्रा समेत नामचीन फिल्मकार शामिल होंगे। इस परिचर्चा में इंडियन सिनेमा गोज़ ग्लोबल और डूइँग बिज़नेस विद इंडियन फिल्म मेकर्स जैसे विषयों पर बातचीत होगी।
लेकिन इसी परिचर्चा मे जरा इस बात पर भी ध्यान दिया जाए कि आखिर भारतीय निर्देशकों का नज़रिया इतना संकुचित क्यों है कि उनकी फिल्में फिल्म समारोहों में शामिल क्यों नहीं की जाती, तो मिमकिन है कि भारतीय फिल्मों का स्तर भी सुधरे। सिर्फ कमाई के लिहाज से ग्लोबल होने की बजाय अगर हम कला और क्राफ्ट के लिहाज से भी ग्लोबल बनें तो यह बारतीय सिनेमा के लिए फायदे की ही बात होगी।
Thursday, May 22, 2008
आओ मिलकर कीचड़ उछालें
एक दम रोने-धोने की मुद्रा में आ गए। बोले बेटवा गुस्ताख़ तुम्ही कोई रास्ता बताओ। अब गुस्ताख भी उसी मर्ज की शिकार है करे तो करे ंक्या। जाएं तो जाएं कहां? बहरहाल, तय ये रहा कि जिस देश में फ़िल्मी सितारों को भगवान माना जाता है वहां ब्लॉग के ज़रिए एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना ही श्रेयस्कर है।
अगर आप इंडस्ट्री के शहंशाह हैं। तो बादशाह के टेलिविज़न शो को फ्लॉप करार दे दें। अगर आप नए नवेले निर्देशक बने हैं और कामयाबी आपके सर चढ़कर बोलने को बेताब हैं तो ऐसा करें कि अपने कुत्ते का नाम किसी मशहूर अदाकार के नाम पर रख दें। नाम नहीं भी रखा हो तो क्या, आप अपने ब्लॉग पर इसका ऐलान भर कर दें। ब्लाग हिट। और आप भी। हर किसी को पता हो जाएगा, कि पढाई लिखाई के नाम पर अंडा रहे आप ब्लॉग लिखाई के मामले में पिछड़े नहीं हैं।
नहीं... ितने भर से काम नहीं चलेगा। आप पहले विवाद खड़ा करें और फिर उस पर माफी मांग लें। इसके दो फायदे होंगे। एक तो आपके पास कम से कम दो पोस्ट का मसाला रहेगा। दूसरे, विवाद की वजह से वे पढे भी जाएंगे। वैसे ये सारे तीर तबी चल सकते हैं जब आप पहले ही मशहूर हों और विवाद खड़े करके आपकी मशहूरियत में चार चांद लगते हों। लेकिन अगर आप जानी-मानी शख्सियत नहीं है और आपके बुरी तरह यकीन है कि थोड़ा बौद्धिक वितंडा खड़ा करके आप भी जाने-माने हो सकते हैं. तो सबसे पहले कीजिए ये कि हर ब्लाग पर जाकर नक्सलवाद से लेकर महिला विमर्श और मुद्रास्फीति तक हर मामले में अपनी टांग अडानी शुरु कीजिए। वैचारिक कै किया कीजिए। लोगों को समझाइए कि बेट्टा, हमसे ज्यादा तुम नहीं जान सकते। कि, तुम्हें हर मामले में हमसे कोचिंग लेनी होगी। उसकी भाषाई गलतियों पर क्लास ले लीजिए। ये कुछ इस तरह हो कि आपसे असहमत होने वाला चित्त हो जाए। अपना एक गुट बना लीजिए.. ब्लागियों का। ऐसा करने से आपकी गिरोह के लोग ही आपके दो कौड़ी के पोस्ट पर वाह-वाह, साधु-साधु किया करेंगे। तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाता हूं कि तर्ज पर। मतलब इतनी बौद्धिक अय्याशी कीजिए कि बस हाहाकार मचा दीजिए।-गुस्ताख ने गहरी सांस ली।
इस धाराप्रवाह प्रवचन के बाद कक्का जी का सूजा हुआ मुंह थोडा शेप में आया। वो चलने लगे। गुस्ताख ने टोका कक्का जी कहां, कहने लगे नेटवर्किंग के लिए ताकि हमारी पोस्ट पर भी कमेंट आने शुरु हो जाएँ।
Tuesday, May 20, 2008
एफटीआईआई के दिन-३
एफटीआईआई में पहले ही दिन से मन रमने लगा था। गरमी तेज़ तो थी लेकिन दोस्तों ने अहाते के ही 'शांताराम पॉन्ड' जैसी जगह से परिचित करवा दिया था। यह तालाबनुमा गड्ढा वी शांताराम के नाम पर है। इसी जगह पर 'संत तुकाराम' की शूंटिंग भी हुई थी। जिन लोगों ने 'संत तुकाराम' देखी है, उन्हें वह सीन ज़रूर याद होगा जिसमें विरोधियों की वजह से संत तुकाराम अपने सारे ग्रंथ नदी में बहा देते हैं। वह नदी इसी तालाबनुमा गढे में पानी भरकर फिल्माया गया था। इस गढे की गहराई बमुश्किल ४-५ फीट होगी। चारों तरफ इमली, बरगद और ऐसे ही दूसरे पेड़। लोगो को गांव का शॉट लेना हो या जंगल का या फिर मंदिर का। इसी जगह की मदद ली जाती है। शांत, सुकुनबख्श जगह।
विनेश और सुनील मेहरू जी ने दारू की दुकान भी खोज निकाली। एफटीआईआई के पास ही में है। लॉ कॉलेज रोड में एफटीआईआई से निकलते ही दाहिनी ओर मुड़ने पर बाजार जैसी जगह है। यहीं पर है तत्वसेवन की जगह।
उधर, एफटीआईआई के अहाते में ही पहाड़ी की तलहटी में एक हनुमान मंदिर है। जिसकी राह में ढेरों झाडि़यां है और जहां और मानव मल की बू से मुठभेड़ करते हुए ही जा पाएंगे। मंदिर वैसे साफ-सुथरा है।
एफटीआईआई में प्रभात स्टूडियों के वक्त की ढेरों निशानियां मौजूद है। वह स्टूडियों भी.. जिसमें काग़ज़ के फूल के गुरुदत्त के सबसे मार्मिक शॉट फिल्माए गए थे।
शाम में हम पांचों लोग डेक्कन जिमख़ाना के पास के मशहर चाय की दुकान 'गुडलक'में भी गए। इसी दुकान में गुरुदत्त साहब देवानंद के साथ आया करते थे। उस वक्त दोनों में से किसी को भी ब्रेक नहीं मिल पाया था। एफटीआईआई से डेक्कन जिमखाना के बीच जंगल हुआ करता था और दोनों महानुभाव साइकिल से गुडलक तक जाया करते थे। (बाद में इस बात की पुष्टि देव साहब ने गोवा में मुलाकात के दौरान भी की।) देव साहब और गुरुदत्त ने एक दूसरे से वायदा किया कि जो भी पहले हिट हो गया दूसरे को मदद करेगा। संभवतया देव साहब को पहले ब्रेक मिल गया और उनकी 'टैक्सी ड्राईवर' हिट हो गई। फिर भी उन्होंने अपना वायदा बिसराया नहीं और गुरुद्त्त के साथ 'बाज़ी' जैसी फिल्म की।
एफटीआईआई में रहते हुए ऐसी कई जानकारियों ने मुझे हैरान किया। कुछ की पुष्टि हुई है कुछ की बाकी है।
to be contd..
Monday, May 19, 2008
दिल्ली मे बारिश-कविता
अंसल प्लाजा के सामने
पीपल का पेड़
नए पत्तो के कपड़े पहने
बारिश में नहा रहा है
सुगापंखी रंग के पत्तों से चूता हुआ पानी
नीचे खड़े प्रेमी युगल को भिंगो रहा है
फिरोजी रंग की ओढनी से टपकता पानी...
लड़की ने कोई कोशिश नहीं की है
निचोड़ने की...
लड़का ताक रहा है
लड़की का भींगा मुख एकटक
पीछे अंसल का कारोबारी साम्राज्य
सामने भींगती गायों का सड़क पर समाजवाद..
ऑटोरिक्शावालों ने खुद को छुपाने की व्यर्थ की कोशिशें बंद कर दी है
दिल्ली में बारिश बार-बार नहीं आती
बेमौसम ही सही लेकिन
मई के महीने में
जोरदार बूंदो ने कितनों को है भिंगोया..
गोया..डर है कि पहले ही हो रही बरसात से
कहीं मॉनसून न कमजोर पड़ जाए
भींगे मौसम में छोटी गोल्ड फ्लेक भी नहीं सुलगती
सुलग रहे हैं बस हम
काले कोलतार पर बहते ताजे साफ पानी का छींटा
बुरा नहीं लग रहा
हां, अंसल प्लाजा के सामने जोडे यूं मिलते रहे
दिल्ली में बादल यूं ही बरसते रहें।
(ये कविता उस जोड़े के नाम जिसे पीपल के पेड़ के नीचे भींगता देख, शब्द खुद-ब-खुद मन में उतरते चले गए)
Saturday, May 17, 2008
एफटीआईआई और विस्डम ट्री
एफटीआईआई में हमने सुना था कि एक बोधि वृक्ष भी है। अंग्रेजी में जिसे लोग विस्डम ट्री कहते हैँ। एफटीआईआई के अपने शुरुआती दिनों में यह कयास लगाते रहे कि इन ढेर सारे पेड़ों में विस्डम ट्री आखिर है कौन सा। किसी ने कहा कि मेन गेट के अगल बगल खड़े बरगद के पेडो में से ही कोई एक विस्डम ट्री है। कोई पीपल को बतात रहा।
हमारे सात दिल्ली से गए विनेश शर्मा थे। विनेश अपना प्रोडक्शन हाउस चलाते हैं। फिल्म के पक्के कीड़े। हमारे अन्य साथियों में बौद्धिकों की कमी नहीं थी। यूजीसी से गए सुनील मेहरू, सहारा न्यूज के आउटपुट हेड पुनीत कुमार, एफटीआईआई में ही एक्टिंग का कोर्स कर रहे आशुतोष दूबे, स्क्रिप्ट राईटिंग सीख रहे मुकेश नीमा... हमारी पांच लोगों की टीम बन गई। पक्के गपोड़बाजों की टीम।
मेरे रूममेट थे सौम्या सेन.. अफवाह थी कि वह नंदिता दास के पूर्व पति हैं। यह अपवाह कई लोगों ने बड़े भरोसे के साथ बताई थी। धीरे-धीरे अपने साथि्यों से परिचय हुआ.. कोई बेवसाईट चलाती थी, कोई मेरी तरह पत्रकारिता में थी, कोई कटरपोरेट फिल्में बनाते थे, कोई वृत्तचित्र निर्माता थे, किसी का सपना था आगे चलकर अपने भाई की तरह बड़ा फिल्मकार बनाना। बता दूं कि महेश मांजरेकर के छोटे भाई संतोष मेरे साथ थे। मतलब एक मुकम्मल टीम तैयार थी।
बहरहाल, बाद में खुलासा हुआ कि एफटीआईआई के बीचोंबीच मुख्य तियेटर के पास का आम का पेड़ ही विस्डम ट्री है। इसी का छांव में ऋत्विक घटक छात्रों को सिनेमा पढाते थे। मैं अभिभूत था। गरमी अपने शबाब पर थी, और विस्डम ट्री भी आम से लदी थी। दूबे और उसके दूसरे पुराने साथियों के साथ मैं भी भदेस था और हमारी नजर पकते हुए आमों पर लगी रहती। २० मई के बाद जब हवा की चाल ने दुलकी पकड़ी आम धड़ाधड़ धराशायी होने लगे और हम और लोगों की नज़र उस पर पड़े उससे पहले ही उन्हे उदरस्थ कर जाते। दूबे जैसे सिने-भक्तों के लिए उसका स्वाद अहम नहीं था। उनको भरोसा था कि विस्डम ट्री का कुछ विस्डम तो उनके हिस्से भी इस प्रक्रिया में ुनके अंतस में जाएगा ही।
बहराहाल, लोगबाग देर रात तक उस पेड़ के नीचे बैठते। सिनेमा पर चर्चा होती। लेकिन पेड़ की उस शीतल छांव में बैठकर चर्चा और लफ्फाजी का आनंद शब्दों में बयां करने से परे हैं। उस जबानी जमाखर्च का मज़ा तो ऐसी बैटकों में शामिल होकर ही लिया जा सकता है।
लेकिन एक बात जिसपर हमेशा लोगों से हम पांच असहमत होते थे, वह था बॉलिवुड को लेकर वहां के लोगों का नज़रिया । एफटीआईआई में प्रफेसर्स से लेकर छात्र तक मुंबईया पिल्मों को दोयम दर्जे का मानते थे। हम ऐसा नहीं मानते। इसके लिए हम वहां के निदेशक त्रिपुरारी शरण से भी भिड़ गए। लेकिन वह सब अगली पोस्ट में....
जारी
Wednesday, May 14, 2008
एफटीआईआई के दिन १
पिछले साल पुणे गया था। एफटीआईआई में। पढ़ने, फिल्म के बारे में सीखने।
दिल्ली से ट्रेन चली तो मन में एक उत्कंठा थी, नए शहर को जानने को लेकर। पुणे पहुंचते-पहुंचते रात हो गई। मैं ने भी सीधे एफटीआईआई का रुख करने की बजाय, डेक्कन ज़िमखाना के पास रुकना पता नहीं क्यों ज़्यादा मुनासिब समझा। वहीं नदी के किनारे पुल के पास मेला सा लगा था। लोगों की भीड़ रात के दस बजे जवान होनी शुरु हुई थी। मेले में ही डिनर से निवृत होकर जमकर सोया।
अगले दिन दस बजे हम जैसे फिल्मी कीड़ों को एफटीटीआई में रिपोर्ट देनी थी। मैंने सामान होटल में ही छोड़ा, और एफटीआईआई पहुंचा। मन में दिल्ली वाली मानसिकता थी कि पता नहीं एफटीआईआई के हॉस्टल की क्या व्यवस्था हो।
लॉ कॉलेज रोड में घुसते ही, एक परंपरा और आधुनिकता का मिलन दिल को छू गया. लगा पेशवाओं का ज़माना मेरी आँखों के सामने जिंदा हो उठा हो।
एफटीआईआई का गेट और पहाड़ी की तलहटी तक सीधी जाती सड़क एक प्रतीक है। एफटीआईआई के अहाते की हर शै में सिनेमा की मिलावट है। यह संस्थान सरकारी तौर पर अस्तित्व में आने से बहुत पहले एक शानदार इतिहास रखता रहा है।
एफटीआईआई की इमारत को पहले प्रभात स्टूडियो कहते थे। बहरहाल, हम बात कर रहे थे प्रतीक की। एफटीआईआई में घुसना बेहद मुश्किल है, लेकिन एक बार आप अंदर दाखिल हो गए, जाहिर है एक छात्र के तौर पर, तो फिर आपको यहां की आबो-हवा से मुहब्बत हो जाएगी। गेट से घुसते ही पहले तो सीधी चढाई है। जो पहा़डी़ की तलहटी तक चली जाती है। लेकिन पढाई पूरी कर और सैद्धांतिक दुनिया से बाहर क़दम रखते ही ढलान का सामना करना पड़ता है। दुनियावी मामले पढाई की बातों से कितने विलग होते है।
बहरहाल, मुझे एफटीआईआई में हॉस्टल में कमरा भी मिल गया और ११ बजे से शुरु होने वाले पहले ऑरियेंटेशन की क्लास के बाद मैं मय सामान एफटीटीआई आ गया।
जारी...
Thursday, May 8, 2008
गुस्ताख़ की कविता
हाथों में लेकर अख़बार,
चाय की प्याली के साथ,
खड़ा होता हूं अपनी बालकनी में
देखता हूं कई हसीं नज़ारे मैं भी..।
मत सोचिए यह-
कि सुबह के बिंदास उजास
या, ओस की तरावट से ताज़े बेला के फूलों की कर रहा हूं बात
या भावुक कवियों की तरह-
सोने के रंग से होते जा रहे आसमां और बादलों पर कर रहा
कोई प्रगतिशील टिप्पणी
कि जैसे उलट दी है किसी ने स्याही सोख पर
लाल-नीली दवात।
ना ही मैं,
बताना चाहता ये
कि चिड़ियों के करलव से
खत्म हो गया है मेरी
रात्रि पाली की ड्यूटी का तनाव।
मैं तो बस यह बताना चाहता हूं
कि अल्ल सुबह जब नींद से जागता हूं,
हाथों में लेकर अख़बार,
चाय की प्याली के साथ,
खड़ा होता हूं अपनी बालकनी में
देखता हूं कई हसीं नज़ारे...
कि सामने बालकनियों में आती है झाडू देने
घर बुहारने पोंछा मारने
बिना दुपट्टे के लड़कियां-
होती जाती-
अखबारों में छपी
जे लो और जोली से एकाकार-
झुककर बुहारती, पोंछा मारती लड़कियां
मुझकों करती निहाल.
Monday, May 5, 2008
झारखंड में लूट-खसोट की इंतिहा
सूची इस प्रकार है-
कुमारी गीतांजलि- भतीजी- डॉ शांति देवी, सदस्य जेपीएससी- प्रशासनिक सेवा- क्रमांक-१२३८८०१-एससी-रैंक १५(सा)
विनोद राम-भाई-डॉ शांति देवी, सदस्य जेपीएससी-प्रशासनिक सेवा-क्रमांक १४५१०५४ एससी- रैंक २- एससी
मौसमी नागेश- बेटी-राधागोविंद नागेश- पूर्व सदस्य, जेपीएससी- वित्त-क्मांक-१२३४८६८- एसटी -रैंक १५ सा
रजनीश कुमार-बेटा- गौपाल प्रसाद सिंह- सदस्य, जेपीएससी-प्रशासनिक सेवा- १४४६७७३- सा- रैंक-४ सा
कुंदन कुमार-बेटा-गौपाल प्रसाद सिंह- सदस्य, जेपीएससी-वित्त-क्मांक-१४५००३७-सा-रैंक १४ सा
मुकेश कुमार महतो-भाई- सुदेश कुमार महतो, पूर्व गृह मंत्री, झारखंड-पुलिस सेवा-११२०६३२- ओबीसी- रैंक १- ओबीसी
राधा प्रेम किशोर-भाई- राधाकृष्ण किशोर-विधायक- पुलिस- १४६३४५६-एससी- रैंक-१ एससी
कानू राम नाग- अर्जुन मुंडा के करीबी- प्रशासनिक१२३७९१-एसटी- रैंक १- एसटी
श्वेता वर्मा-पत्नी- मुकेश वर्मा- उप प्रशासक, रांची नगर निगम- प्रशासनिक-१४५१८७३- सा-रैंक ७ सा
रंजीत लोहरा-भाई- जगदीश लोहरा, जनाधिकार मंच- प्रशासनिक-१४५१४२३-एसटी- रैंक-५ एसटी
लक्ष्मी नारायण किशोर- साला- केशव महतो कमलेश- पूर्व विधायक-प्रशासनिक- ११११४२१- ओबीसी- २६ सा
यह तो महज बानगी है। यह लिस्ट अभी आधी ही है। पूरी लिस्ट देखकर कहीं जेनुइन अभ्यर्थियों का विश्वास न डोल जाए इस डर से गुस्ताख उसे प्रकाशित नहीं कर रहा है। वैसे भी गुस्ताख को इस बात की बेहद खुशी है कि नेताओं के बच्चे, पत्नियां, साले-सालियां, भाई और यहां तक की नौकर भी पढाई में जुट गए हैं और इतने काबिल हो गए हैं कि कमिशन्ड परीक्षाओं में रैंक होल्डर्स बन रहे हैं। सभी नैताओं की बधाई। रात-रात भर आंखें फोड़कर पढने वाले छात्रों, भविष्य के साथ खिलवाड़ मत करों। जाओ, कहीं जाकर कुछ और कामृकाज खोजों। प्रशासन में जाना तुम्हारे बस का नहीं। आरक्षण की वकालत करने वालों देखों कि ज़रुरतमंदों की रोटी को कौन छीनकर खा रहा है।