जैसा कि हमेशा होता है मेरे दफ्तर में कुछ लोग ऐसे हैं जो बड़े लोगों के खासमखास हैं। बड़े, बरगद से भी बड़े लोगों के नजदीकी, क्लोज लोग... क्लोज बोले तो बिलकुल क्लोज। पता नहीं ये क्लोजनेस किस मायने में है, लेकिन ये तो तय है कि ये बड़े लोगों के बेटे या बेटी या भांजे-भतीजे-बुआ के लड़के नहीं हैं। तो ये तय रहा कि वे मक्खनबाज़ कम्युनिटी के सम्मानित सदस्य हैं जिन्हे हम लोग आम भाषा में चमचे कहते हैं।
तो इन चमचों का क्रेज़ ऐसा है कि ये लोग बॉस तक को हड़का देते हैं। लेकिन चमचों की इस फौज़ ने अपनी अहमियत के पैर को खुद ही कुल्हाड़े पर मार दिया है। छोटी-छोटी चीज़ो के लिए मचल जाते हैं। मसलन, बॉस मुझे घर फोन करना है॥ सरकारी फोन से। बास कहता है तथास्तु। जिस वरदान से वह कॉपी एडिटर हो सकते थे, उन्होंने इसी वरदान का इस्तेमाल चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी बनने के लिए कर लिया है। बॉस हैरान भी है खुश भी..
चमचा ठिनक कर कहता है- बॉस मुझे कैंटीन से मुफ्त में चाय चाहिए। बास कहे देता है-एवमस्तु। गुस्ताख भी हैरान हैं।
अगर गुस्ताख किसी का चमचा होता तो दस बजे वाली रोज़ाना की मीटिंग उसके घर पर हुआ करती, लेकिन गुस्ताख को हैरानी इस बात की भी है कि लोग किस तरह बेहयाई से रत्नजटित तलवार से सब्जी काटते हैं। हमें भी दुख है। बहुमूल्य सिफारिशों के इसतरह बेजा इस्तेमाल का।
Wednesday, July 30, 2008
Tuesday, July 29, 2008
इश्क और बरसात के दिन
बरसात के दिन खूब नॉस्टेल्जिक करते हैं मुझे। दिल्ली में तो रिमझिम होती है।
मकान बचपन के दिन में हम देखते थे कि आसमान हठात् काले रंग का हो जाता था। और बौछारें शुरु..। कमरे में बैठे हैं.. उजाला घटने लगा.. मां ने आदेश दिया.. आंगन से कपड़े उठा लाओं जबतक कपड़े उठाने गए.. तब तक तरबतर..। बड़ी बड़ी बूंदें.. ऐसी मानो किसी बंगालन कन्या के बड़े-बड़े नैन हों।
बरसात होती तो हमारे घर के चारों तरफ जो खाली ज़मीन थी उसमें अरंडी वगैरह के झाड़ उग जाती॥ हरी चादर बिछ जाती। हमारे पैतृक गांव से बाढ़ की खबर आती। मकान बह जाते, क्यों कि फूस से बने होते थे। मकान क्या होते थे, झोंपड़ियां हुआ करती थीं, बांस के फट्टों को बांधकर उनमें अरहर की सूखी टहनियां कोंचकर मिट्टी से लीप दिया जात। हो गई दीवार तैयार, तो ऐसे मकान के लिए क्या रोना।
गांव में हमारे मकान को उंचे टीले की तरह मिट्टी भरकर बनाया गया बाद में। फिर बरसात में बाढ़ आने के बाद आंगन तक पानी आता तो सही लेकिन घर नहीं गिरता। नीचे उतरते ही बड़ा मैदान, जिसके बीचों-बीच पाकड़ का बड़ा-सा पेड़ है। लोग कहते हैं कि उसमें शिव के गण भैरव का निवास है। भैरव बाबा॥। उनका चबूतरा भी बचा रहता। कमर तक पानी..हमारे चचेरे भाई मछलियां ढूंढते।
उस भैरव बाबा के उस आंगन से घर के आंगन के लिए चढ़ाई करते वक्त हम चढाई पर फिसलन से धड़ाके से गिरते थे। कई लोगों ने बगटुट भागने के दौरान खुद को दंतहीन पाया।
बहरहाल, मधुपुर, झारखंड का क़स्बा है, जहां हम पिताजी के निधन के बाद भी रहते रहे। लाल मिट्टी का शहर.. बरसने के फौरन बाद पानी गायब.. कहां जाए पता ही नहीं। सड़क उँची-नीची। पत्थरों भरी। वहां बंगाल का बहुत प्रभाव था। लड़कियों के जिस स्कूल के पीछे हम खेलने जाते वहां घास की चादर बिछ जाती। एक झाडी़, जिसका नाम पता नहीं उसमे पीले-पीले फूलों को देखकर मन खिल जाता। भटकटैया के फूल चूसते, मीठेपन का अहसास होता। दूब की चादर पर लाल-लाल बीर बहूटियों को पकड़ लेते। हथेलियों पर लाल बीर बहूटियो को देखकर हम आपस में बातें करते कि यही रेशम के कीड़े हैं। लेकिन बाद में पता चला कि रेशम के कीड़े अलग होते हैं। दरअसल बीर बहूटियों के थोरेक्स बड़े मखमली होते थे तो हमारी जुगाड़ तकनीक ने उसे रेशम का कीड़ा मान लिया था। अस्तु॥
असली मज़ा तो तब आता, जब स्कूल जाने के वक्त जोरदार बारिश हो रही हो, सुबह से ही। माताजी, फिर भी नहीं मानती और छाता लेकर स्कूल के अंदर तक खदेड़ आतीं। बदले में हम वापसी में काले रंग के चमड़े के जूतों में मिट्टी लपेसकर लाल कर आते। गीले जूतों से अगले दीन स्कूल जाने की संभावना प्रायः खत्म हो जाती।
लेकिन उसेक बाद घर आते ही जूतों की हालत देखकर माताजी उन्हीं जूतों से हमें दचककर कूटतीं। हमारे कई सीनियर बरसात में प्रेम-ज्वर से पीडि़त हो जाते। बाद में भाभी ने बरसात होते ही चाय और पकौड़े का चलन शुरु किया, जिसे हम आज भी जारी रखने के मूड में हैं। हमारे मन में आज भी बरसात का मतलब जमकर बरसना होता है। दिल्ली में तो महज फुहारें होती है। बाद में जब हमने सिगरेट पीना शुरु किया तो चोरी छिपे बारिश होते हुए और अपने दोस्त की प्रेमिका के घर के सामने से भींगते हुए सिगरेट पीने का मज़ा ही कुछ और होता। हां, मीरा के घर के सामने हम सिगरेट को अपने होंठों में ले लेते। ताकि दोस्त की इमेज पर असर न पड़े।
मकान बचपन के दिन में हम देखते थे कि आसमान हठात् काले रंग का हो जाता था। और बौछारें शुरु..। कमरे में बैठे हैं.. उजाला घटने लगा.. मां ने आदेश दिया.. आंगन से कपड़े उठा लाओं जबतक कपड़े उठाने गए.. तब तक तरबतर..। बड़ी बड़ी बूंदें.. ऐसी मानो किसी बंगालन कन्या के बड़े-बड़े नैन हों।
बरसात होती तो हमारे घर के चारों तरफ जो खाली ज़मीन थी उसमें अरंडी वगैरह के झाड़ उग जाती॥ हरी चादर बिछ जाती। हमारे पैतृक गांव से बाढ़ की खबर आती। मकान बह जाते, क्यों कि फूस से बने होते थे। मकान क्या होते थे, झोंपड़ियां हुआ करती थीं, बांस के फट्टों को बांधकर उनमें अरहर की सूखी टहनियां कोंचकर मिट्टी से लीप दिया जात। हो गई दीवार तैयार, तो ऐसे मकान के लिए क्या रोना।
गांव में हमारे मकान को उंचे टीले की तरह मिट्टी भरकर बनाया गया बाद में। फिर बरसात में बाढ़ आने के बाद आंगन तक पानी आता तो सही लेकिन घर नहीं गिरता। नीचे उतरते ही बड़ा मैदान, जिसके बीचों-बीच पाकड़ का बड़ा-सा पेड़ है। लोग कहते हैं कि उसमें शिव के गण भैरव का निवास है। भैरव बाबा॥। उनका चबूतरा भी बचा रहता। कमर तक पानी..हमारे चचेरे भाई मछलियां ढूंढते।
उस भैरव बाबा के उस आंगन से घर के आंगन के लिए चढ़ाई करते वक्त हम चढाई पर फिसलन से धड़ाके से गिरते थे। कई लोगों ने बगटुट भागने के दौरान खुद को दंतहीन पाया।
बहरहाल, मधुपुर, झारखंड का क़स्बा है, जहां हम पिताजी के निधन के बाद भी रहते रहे। लाल मिट्टी का शहर.. बरसने के फौरन बाद पानी गायब.. कहां जाए पता ही नहीं। सड़क उँची-नीची। पत्थरों भरी। वहां बंगाल का बहुत प्रभाव था। लड़कियों के जिस स्कूल के पीछे हम खेलने जाते वहां घास की चादर बिछ जाती। एक झाडी़, जिसका नाम पता नहीं उसमे पीले-पीले फूलों को देखकर मन खिल जाता। भटकटैया के फूल चूसते, मीठेपन का अहसास होता। दूब की चादर पर लाल-लाल बीर बहूटियों को पकड़ लेते। हथेलियों पर लाल बीर बहूटियो को देखकर हम आपस में बातें करते कि यही रेशम के कीड़े हैं। लेकिन बाद में पता चला कि रेशम के कीड़े अलग होते हैं। दरअसल बीर बहूटियों के थोरेक्स बड़े मखमली होते थे तो हमारी जुगाड़ तकनीक ने उसे रेशम का कीड़ा मान लिया था। अस्तु॥
असली मज़ा तो तब आता, जब स्कूल जाने के वक्त जोरदार बारिश हो रही हो, सुबह से ही। माताजी, फिर भी नहीं मानती और छाता लेकर स्कूल के अंदर तक खदेड़ आतीं। बदले में हम वापसी में काले रंग के चमड़े के जूतों में मिट्टी लपेसकर लाल कर आते। गीले जूतों से अगले दीन स्कूल जाने की संभावना प्रायः खत्म हो जाती।
लेकिन उसेक बाद घर आते ही जूतों की हालत देखकर माताजी उन्हीं जूतों से हमें दचककर कूटतीं। हमारे कई सीनियर बरसात में प्रेम-ज्वर से पीडि़त हो जाते। बाद में भाभी ने बरसात होते ही चाय और पकौड़े का चलन शुरु किया, जिसे हम आज भी जारी रखने के मूड में हैं। हमारे मन में आज भी बरसात का मतलब जमकर बरसना होता है। दिल्ली में तो महज फुहारें होती है। बाद में जब हमने सिगरेट पीना शुरु किया तो चोरी छिपे बारिश होते हुए और अपने दोस्त की प्रेमिका के घर के सामने से भींगते हुए सिगरेट पीने का मज़ा ही कुछ और होता। हां, मीरा के घर के सामने हम सिगरेट को अपने होंठों में ले लेते। ताकि दोस्त की इमेज पर असर न पड़े।
हम लोग कई बार दूर गांव की तरफ निकल जाते थे। झारखंड का ये इलाका हरियाली के लिए मशहूर है, और उस हरियाली को मैं आज भी अपने अंदर जिंदा महसूस करता हूं। हरियाली तो दिल्ली में भी है लेकिन पता नहीं क्यों झारखंड की हरियाली में जो गंध थी, यहां महसूस नहीं हो पाती। झारखंड में इस वक्त पलाश के जंगल में पत्ते आ जाते हैं। और साल के हरियाली में अलग-अलग शेड्स आ जाते हैं।
Monday, July 28, 2008
ब्लांड शूर्पनखा और ब्रूनेट मेघनाद
एक सैकुलर कहे जाने वाले न्यूज़ चैनल ने अपना मनोरंजन का चैनल शुरु किया। उत्साही लोगों को लगा, कि चलो एक गंभीर चैनल वाले मनोरंजन भी दिखैाएंगे तो कुछ गंभीर होगा। डिस्कवरी और नैट-जियो की तरह के वृत्त चित्र देखने को मिलेंगे। लेकिन ये क्या॥ चैनल ने अपनी फ्लैग-शिप कार्यक्रम रामायण को बनाया।
यहां तक तो ठीक था लेकिन बताया गया कि नई पीढी को रामायण की जानकारी देने के वास्ते और बुजुर्गों के मन से अरुण गोविल की छवि मिटाने की गरज से रामायण के रीमेक की रचना की जा रही है।लेकिन परदे पर आते ही आशाएं धूल-झूसरित हुईँ।
राम और हनुमान एक बार मिलते हैं तो यूकेलिप्टस के जंगल मं, सीधे-सीधे पतले -पतले पेड़ों के बीच ...कतार में लगे हुए पेड़। जनता गधी है क्या? सबको पता है कि यूकेलिप्टस ऑस्ट्रेलिया का पेड़ है और प्राचीन भारत में नहीं-ही पाया जाता था। कुल मिला कर प्रॉडक्शन क्वॉलिटी गठिया है, रामायण देखकर निराशा होती है। अब पता चला है कि शनिदेव पर भी एक सीरियल शुरु हो रहा है। ये क्या सचमुच एनडीटीवी है? क्या हो गया प्रणय रॉय को..?
हैरान हूं।
हैरान हूं।
Tuesday, July 22, 2008
हतोत्साहित हूं..
सोच रहा हू एक किताब लिख डालूं॥ पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद सोचना शुरु कर दिया है। हालांकि स्थिति ये है कि मेरे कई साथी सोचते नहीं पूछते हैं अर्थात् बाईट लेते हैं और अपना उपसंहार पेलते हैं। पहले अपने भविष्य के बारे में सोचता रहता था। वह सेक्योर नहीं हो पाया तो देश के भविष्य के बारे में सोचने लगा।
एक मित्र हैं। निखिल रंजन जी॥और सुशांत भाई..उन्होंने लगे हाथ सुझाव दिया। किताब लिख डालो। देश की व्यवस्था पर लिख डालो.. लोग लिख रहे हैं तो तुम क्यों नहीं लिखते। एक और मित्र हैं, स्वदेश जी.. उन्होंने टिप्पणी दी, लिख कर के समाज को क्या दे दोगे? कौन पढेगा, पढ भी लेगा तो क्या अमल मे लाएगा? अमल में लाना होता तो रामचरित मानस ही अमल मे ले आते। तुम्हारा लिखा कौन पढेगा।? क्यों पढेगा। मैं हतोत्साहित हो गया।
हतोत्साहित होना मेरा बचपन का स्वभाव है। कई बार हतोत्साहित हुआ हूं। परीक्षाएं अच्छी जाती रहीं, लेकिन परीक्षा परिणांम हतोत्साहित करने वाले रहे। अपने कद में मैं अमिताभ बच्चन की कद का होना चाहता था। ६ फुट २ इंच लंबाई का गैर-सरकारी मानक था उस वक्त॥लेकिन अफसोस हमारे अपने क़द ने हमें हतोत्साहित किया। चेहरे-मौहरे से हम कम से कम शशि कपूर होना चाहते थे, लेकिन हमारे थोबड़े ने हमें हतोत्साहित कर दिया।
रिश्तदारों ने रिश्तों में हतोत्साहित किया, कॉलेज में लड़कियों ने हतोत्साहित किया। भाभी की बहन ने हमें देखकर कभी नहीं गाया कि दीदी तेरा देवर दीवाना... हम कायदे से बहुत हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं। देशकी दशा ने, महंगाई ने, बिहार और दिल्ली में बिहारियों की स्थिति उनकी मानसिकता से हतोत्साहित हो रहा हूं।
अभी ब्रेकिंग न्यूज़ है कि सांसदों की खरीद-फरोख्त लोकसभा तक पहुंच गया है। सांसद नोटों की गड्डियों को लेकर लोकसभी में प्रदर्शन कर रहें हैं। एक आम आदमी की हैसियत से हतोत्साहित हूं। क्या कोई मेरे हतोत्साहित होने पर ध्यान देगा? भिंडी ७ रुपये पाव बिक रहा है॥ सांसद ९ करोड़ इच के हिसाब से बिकाने लगे हैं,,कोई मेरी भी कीमत बताए। ताकि दिल्ली में एक फ्लैट लेने का सपना साकार हो सके। क्योंकि दिल्ली में प्रॉपर्टी की कीमत को लेकर भी मैं काफी हतोत्साहित हूं।
एक मित्र हैं। निखिल रंजन जी॥और सुशांत भाई..उन्होंने लगे हाथ सुझाव दिया। किताब लिख डालो। देश की व्यवस्था पर लिख डालो.. लोग लिख रहे हैं तो तुम क्यों नहीं लिखते। एक और मित्र हैं, स्वदेश जी.. उन्होंने टिप्पणी दी, लिख कर के समाज को क्या दे दोगे? कौन पढेगा, पढ भी लेगा तो क्या अमल मे लाएगा? अमल में लाना होता तो रामचरित मानस ही अमल मे ले आते। तुम्हारा लिखा कौन पढेगा।? क्यों पढेगा। मैं हतोत्साहित हो गया।
हतोत्साहित होना मेरा बचपन का स्वभाव है। कई बार हतोत्साहित हुआ हूं। परीक्षाएं अच्छी जाती रहीं, लेकिन परीक्षा परिणांम हतोत्साहित करने वाले रहे। अपने कद में मैं अमिताभ बच्चन की कद का होना चाहता था। ६ फुट २ इंच लंबाई का गैर-सरकारी मानक था उस वक्त॥लेकिन अफसोस हमारे अपने क़द ने हमें हतोत्साहित किया। चेहरे-मौहरे से हम कम से कम शशि कपूर होना चाहते थे, लेकिन हमारे थोबड़े ने हमें हतोत्साहित कर दिया।
रिश्तदारों ने रिश्तों में हतोत्साहित किया, कॉलेज में लड़कियों ने हतोत्साहित किया। भाभी की बहन ने हमें देखकर कभी नहीं गाया कि दीदी तेरा देवर दीवाना... हम कायदे से बहुत हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं। देशकी दशा ने, महंगाई ने, बिहार और दिल्ली में बिहारियों की स्थिति उनकी मानसिकता से हतोत्साहित हो रहा हूं।
अभी ब्रेकिंग न्यूज़ है कि सांसदों की खरीद-फरोख्त लोकसभा तक पहुंच गया है। सांसद नोटों की गड्डियों को लेकर लोकसभी में प्रदर्शन कर रहें हैं। एक आम आदमी की हैसियत से हतोत्साहित हूं। क्या कोई मेरे हतोत्साहित होने पर ध्यान देगा? भिंडी ७ रुपये पाव बिक रहा है॥ सांसद ९ करोड़ इच के हिसाब से बिकाने लगे हैं,,कोई मेरी भी कीमत बताए। ताकि दिल्ली में एक फ्लैट लेने का सपना साकार हो सके। क्योंकि दिल्ली में प्रॉपर्टी की कीमत को लेकर भी मैं काफी हतोत्साहित हूं।
Saturday, July 12, 2008
दुनिया के नक्शे और हाथी गायब
भला हो ग्लोबलाइजेशन का हमारा टीवी चैनलों से अंट गया है। समाचारों के ही इतने चैनल हैं कि दिखाने के लिए समाचार कम पड़ने लगे हैं। न्यूज़ चैनल मनोंरजन दिखाते-दिखाते न्यूड हो गए हैं। लेकिन एक दिन अचनाक ही मेरा ध्यान इस तथ्य पर गया कि लाइव इंडिया से लेकर इंडिया न्यूज़ तक और स्टार से लेकर आजतक में हर का मोंटाज दुनिया के नक्शे को समाहित किए हुए है। इंडिया टीवी तो अपने बुलेटिन के दौरान क्रोमा पर दुनिया को घुमाता रहता है॥ लेकिन दुनिया की कौन सी खबर होती है इनके पास?
नोएडा के आरुषि मर्डर केस को इन्होंने इतना खींचा, हाथी को गायब करवाया लाइव और डॉ तलवार के साई बाबा मंदर जाने को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया। ज्यादा कुछ कहना ही नहीं है कंटेंट को लेकर॥ निजी चैनलों में एनडीटीवी को छोड़कर कंटेट पर टिप्पणी करना बेमानी है। एक चैनल आया था इस दावे के साथ कि खबरों की वापसी हो गई है , अब ज्यादा इधर-उधर ताक-झांक करने की ज़रूरत नहीं है। बस इसी चैनल पर आपको खबरें मिला करेंगी। हमें पलभर को तो यकीन भी हो गया था कि अब शा।यद संपादकीय मंडल को खबरों के टीवी पर आने की ज़रूरत महसूस होने लगी है।
एक और चैनल है जिसने पंच लाईन बनाई है खबर, हर कीमत पर। सच तो ये है कि खबर नहीं॥टीआरपी हर कीमत परहोनी चाहिए। मठाधीश कहते हैं कि दर्शक जो देखना चाहेंगे वह हम दिखाएंगे.. दर्शक आगर रतिमग्न जोड़े अर्थात् ब्लू फिल्म देकना चाहे तो भी दिखाना चाहेंगे।
बहरहाल, चैनल शर्म करें न करें, रुपया पीटने के लिए टकले बाबाओं की भविष्यवाणियां भले दिखाएं.. आज आपका दौर है..डेविड धवन का भी दौर था कभी.. लेकिन प्लीज़ अपने चैनल आईडी और मोंटाज से दुनिया के नक्शे को तो हटा लें।
नोएडा के आरुषि मर्डर केस को इन्होंने इतना खींचा, हाथी को गायब करवाया लाइव और डॉ तलवार के साई बाबा मंदर जाने को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया। ज्यादा कुछ कहना ही नहीं है कंटेंट को लेकर॥ निजी चैनलों में एनडीटीवी को छोड़कर कंटेट पर टिप्पणी करना बेमानी है। एक चैनल आया था इस दावे के साथ कि खबरों की वापसी हो गई है , अब ज्यादा इधर-उधर ताक-झांक करने की ज़रूरत नहीं है। बस इसी चैनल पर आपको खबरें मिला करेंगी। हमें पलभर को तो यकीन भी हो गया था कि अब शा।यद संपादकीय मंडल को खबरों के टीवी पर आने की ज़रूरत महसूस होने लगी है।
एक और चैनल है जिसने पंच लाईन बनाई है खबर, हर कीमत पर। सच तो ये है कि खबर नहीं॥टीआरपी हर कीमत परहोनी चाहिए। मठाधीश कहते हैं कि दर्शक जो देखना चाहेंगे वह हम दिखाएंगे.. दर्शक आगर रतिमग्न जोड़े अर्थात् ब्लू फिल्म देकना चाहे तो भी दिखाना चाहेंगे।
बहरहाल, चैनल शर्म करें न करें, रुपया पीटने के लिए टकले बाबाओं की भविष्यवाणियां भले दिखाएं.. आज आपका दौर है..डेविड धवन का भी दौर था कभी.. लेकिन प्लीज़ अपने चैनल आईडी और मोंटाज से दुनिया के नक्शे को तो हटा लें।
Wednesday, July 9, 2008
संस्कृत की परीक्षा और मैं
मेरे जीवन में दो चीज़े बड़ी प्रॉमिनेंट रहीं हैं, मैं थियेटर में आगे और कक्षा में पीछे बैठना ही पसंद करता हूं। लोगों को थोड़ा स्ट्रेंज लग सकता है, लेकिन है ये सच ही। वजह ये कि दोनों ही जगह पर एक्शन होता है। कक्षा में आगे बैठने वाले विद्यार्थी चुपचाप एकटक मास्साब के मुखमंडल को निहारा करते थे। हमारा इन चीज़ों में कोई भरोसा नहीं था। मैं और हमारे तीन साथी साइंस की क्लास के सिवा हर क्लास में पिछली बेंचों पर बैठते थे।
मजा़ आता था। पिछली बेंच पर बैठकर हम आपस में इशारों में बातें करते। संस्कृत की किताब में भर कर इंद्रसभा और दफा ३०२ पढ़ते। दफा ३०२ में वैसे तो अपराध कथाएं होती थीं लेकिन हम खासतौर पर उन एकाध पैराग्राफ पर ध्यान जमाते जो ज़रा अश्लील होती थीँ। लेकिन वह अश्लीलता भी उतनी ही थोड़ी-सी थी, जितनी हमारे संस्कृत माटसा-ब की मूंछे। माटसा-ब की मूछें नाक के पास तो दस-बारह बालों वाली होती थी, लेकिन होठों के कोर तक पहुंचते-पहुंचते उसकी आबादी वैसे ही घट जाती जैसे कि जर्मनी में इंसानों की घट रही है। होठ जहां खत्म होते हैं वहा उनकी मूंछ में महज एक बाल बच पाता था. साइबेरिया निष्कासित सोवियत नागरिक-सा, या फिर किसी शापित एकांतवासी गंधर्व सरीखा। राजकुमार स्टाइल में मूंछें, करीने से तराशी हुई.
लेकिन संस्कृत वाले माट साब पूरे जल्लाद थे। कपड़े के थान के बीच में रहने वाली मोटी गोल लकडी़ की छड़ी या फिर सखुए की संटी लेकर क्लास में आते। ज़ोर-ज़ोर से बुलवाते- सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात॥ न ब्रूयात सत्यम् अप्रियम्.. जिसने लता शब्द रुप कंठस्थ नहीं किए.. उसकी हथेली में संटी के दाग़ उभर आते।
स्कूल में उर्दू-फारसी पढ़ाने वाले मौलवी साहब का स्वभाव नरम था। प्रायः अपनी क्लास मे मौलवी साहब भूगौल पढाते और हमसे पूछते स्पेन की राज़धानी का नाम बताओ, या फिर जाड़े के मौसम में मानसून अपने देश में किस हिस्से में आता है। पता नहीं क्यो ंहम भूगोल के सवालों के उत्तर जानते होते। और मौलवी साहब हमारी पीठ पर प्यार से धौल जमाते।
बहरहाल, उर्दू पढना नवीं या दसवीं में शुरु करना मुमकिन नहीं था। खासकर तब जब राम की जन्मभूमि को आजाद कराने और मंजिर वहीं बनाने का उन्माद छाया था, यह विचार मन में लाना भी घरवालो और दोस्तो के लिए पागलपन ही था।
दोस्तो के साथ हमने संस्कृत की परीक्षा मे बेहतर करने का नया नुस्खा निकाला। प्रश्नों के उत्र हिंदी में लिख दो, स्याही की कलम से लिखों और कलम की निब में एक प्यारी सी फूंक मार दो॥ जहां-जहां विसर्ग हलंत और बिंदु लगने हैं भगवत्कृपा से स्वयं चस्पां हो जाएँगे। लेकिन दसवीं की बोर्ड परीक्षा के लिए हमने तकरीबन पांच सात सौ अनुवाद रट लिए, पचीस-तीस संस्कृत के पैराग्राफ रट्टा मारे और राम का नाम लेकर परीक्षा में बैठे.. और गज़ब ये कि पास भी हो गए। आप भी आजमाएं, संस्कृत लिखने का नया तरीका कैसा है बताएँ।
मजा़ आता था। पिछली बेंच पर बैठकर हम आपस में इशारों में बातें करते। संस्कृत की किताब में भर कर इंद्रसभा और दफा ३०२ पढ़ते। दफा ३०२ में वैसे तो अपराध कथाएं होती थीं लेकिन हम खासतौर पर उन एकाध पैराग्राफ पर ध्यान जमाते जो ज़रा अश्लील होती थीँ। लेकिन वह अश्लीलता भी उतनी ही थोड़ी-सी थी, जितनी हमारे संस्कृत माटसा-ब की मूंछे। माटसा-ब की मूछें नाक के पास तो दस-बारह बालों वाली होती थी, लेकिन होठों के कोर तक पहुंचते-पहुंचते उसकी आबादी वैसे ही घट जाती जैसे कि जर्मनी में इंसानों की घट रही है। होठ जहां खत्म होते हैं वहा उनकी मूंछ में महज एक बाल बच पाता था. साइबेरिया निष्कासित सोवियत नागरिक-सा, या फिर किसी शापित एकांतवासी गंधर्व सरीखा। राजकुमार स्टाइल में मूंछें, करीने से तराशी हुई.
लेकिन संस्कृत वाले माट साब पूरे जल्लाद थे। कपड़े के थान के बीच में रहने वाली मोटी गोल लकडी़ की छड़ी या फिर सखुए की संटी लेकर क्लास में आते। ज़ोर-ज़ोर से बुलवाते- सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात॥ न ब्रूयात सत्यम् अप्रियम्.. जिसने लता शब्द रुप कंठस्थ नहीं किए.. उसकी हथेली में संटी के दाग़ उभर आते।
स्कूल में उर्दू-फारसी पढ़ाने वाले मौलवी साहब का स्वभाव नरम था। प्रायः अपनी क्लास मे मौलवी साहब भूगौल पढाते और हमसे पूछते स्पेन की राज़धानी का नाम बताओ, या फिर जाड़े के मौसम में मानसून अपने देश में किस हिस्से में आता है। पता नहीं क्यो ंहम भूगोल के सवालों के उत्तर जानते होते। और मौलवी साहब हमारी पीठ पर प्यार से धौल जमाते।
बहरहाल, उर्दू पढना नवीं या दसवीं में शुरु करना मुमकिन नहीं था। खासकर तब जब राम की जन्मभूमि को आजाद कराने और मंजिर वहीं बनाने का उन्माद छाया था, यह विचार मन में लाना भी घरवालो और दोस्तो के लिए पागलपन ही था।
दोस्तो के साथ हमने संस्कृत की परीक्षा मे बेहतर करने का नया नुस्खा निकाला। प्रश्नों के उत्र हिंदी में लिख दो, स्याही की कलम से लिखों और कलम की निब में एक प्यारी सी फूंक मार दो॥ जहां-जहां विसर्ग हलंत और बिंदु लगने हैं भगवत्कृपा से स्वयं चस्पां हो जाएँगे। लेकिन दसवीं की बोर्ड परीक्षा के लिए हमने तकरीबन पांच सात सौ अनुवाद रट लिए, पचीस-तीस संस्कृत के पैराग्राफ रट्टा मारे और राम का नाम लेकर परीक्षा में बैठे.. और गज़ब ये कि पास भी हो गए। आप भी आजमाएं, संस्कृत लिखने का नया तरीका कैसा है बताएँ।
Thursday, July 3, 2008
दोस्त की मार्मिक प्रेम कहानी
सबसे पहले डिस्क्लेमर... इस कहानी का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है और यह कहानी मेरे दोस्त की आपबीती है। उसके साथ घटी मधुर-तिक्त घटनाओं का मैं राज़दार रहा हूं। हां, सावधानी बरतते हुए मैंने पात्रों के नाम बदल दिए हैं।
ये डिस्केमर देना भी ज़रूरी है, क्योंकि लोगों के सवालात उछलने लगते हैं कि दोस्त का नाम लेकर कहीं खुद की कहानी तो नहीं कह रहे हो? ऐसा करके।
खैर जनाब, उन दिनों जब हम पाजामे का नाड़ा बांधना सीख रहे थे और लड़कियों को महज एक झगड़ने की चीज़ माना करते थे, उन्हीं दिनों हमारे एक दोस्त को एक लड़की भा गई। फिल्मों का असर कह ले या पूर्वजन्म के संबंधों का इस जन्म में फलित होना। बात ये रही कि अमृत को लड़की भा गई। और ऐसी-वैसी नहीं भायी.. दीवानगी की हद तक भा गई।
क्लास में जाता तो होमवर्क करके लाने की बजाय उस लड़की को देखता रहता। अब सुविधा के लिए लड़की का नाम भी कहे देते हैं। नाम था मीरा।
अब जनाब, पूरे स्कूल में ऐसी बात फैलते तो देर लगती नहीं। अमृत शनैः शनैः मीरा का मोहन नाम से मशहूर हो गया। फिर हम लोग तेजी से बढ़ने लगे। दसवीं तक आते-आते लड़की को भी पता हो गया, कि कलाकार-सा दीखने वाला लड़का मुझसे प्यार करता है।
हमारा दोस्त गणित की क़ॉपियों में सुंदर-सुंदर आंखों की तस्वीरें बनाने लग गए। बीजगणित में अंडा पाने वाले छोकरे की हाथ की कलाकारी से हम दांतो तले अंगुलियां दबाते। फिर क्या हुआ कि लड़की ने अपनी बायोलजी की प्रैक्टिकल कॉपी उसे बनाने को दी.. लड़का खुशी से बेतरह नाच उठा। हमें शानदार पार्टी मिली।
अमृत अब उसके घर के नीचे से बहुधा गुजरने लगा। लड़की बालकनी में दिख गई तो स्टेशन रोड पर चाय की दुकान पर एक चाय मुहब्बत के साथ (यानी मलाई मार के) हमारे लिए तय होती थी। और कुछ नहीं, तो अलगनी से सूखते कपड़े ही दिख जाते। अमृत उससे भी खुश हो जाता।
फिर दसवीं के बाद, जब हम साइस पढें या कला या कॉमर्स। या साइंस लें भी तो प्योर साइंस या बायोलजी.. इसकी उधेड़बुन में लगे थे.. अमृत अपने प्यार की गहराईयों में खोया हुआ था। फिर अमृत भी निकल गया.. पढने और मैं भी पटना चला गया। छुट्टियों में हम घर आते तो अमृत अपनी महबूबा को देखने के लिए तरसता हुआ मिलता।
हमारा छोटा सा शहर है, लड़के-लड़कियों के मिलने के लिए बुद्धा गार्डन या नेहरु पार्क नहीं हैं। न मॉल थे, न मल्टीप्लेक्सेज़.. तो पंचमंदिर आया करते थे सब.. मैं जन्म से ही नास्तिक था,लेकिन दोस्त के लिए मंदिर चला जाता। फायदा मुझे ये होता था कि कुछ लड़कियां मैं भी लाईन मार लेता। नारियल का प्रसाद मिलता चने के साथ वह फाव में।
उन्हीं दिनों हमारे पिछड़े क़स्बे में पिज्जा हट की आहट हुई और दोनों वहां मिलने लगे। साथ में मेरा होना ज़रूरी था। ठीक वैसे ही जैसे उन दिनों के हिट हो रहे फिल्मों में अक्षय कुमार या उसी तरह के हीरोज़ के साथ दीपक तिजोरी हुआ करत थे। दोनों पता नहीं क्या-क्या बातें करते, और अपनी ब्राह्मण वृत्ति के अनुरुप ही मैं तब तक खूब पित्सा पेलता और कॉफी डकारता।
लेकिन फिर बारहवी के बाद मैं एग्रीकल्चर पढ़ने चला गया..अमृत भी बीएफए पढ़ने लखनऊ विश्वविद्यालय आ गया। मिलना कम हो गया।
गरमी की एक छुट्टियों में जब हम दोनो अपने क़स्बे में ही थे, उस मीरा की शादी की खबर आई। शादी में हम दोनों पहुंचे.. लेकिन न तो हमारी हिम्मत थी, न अमृत की.. हमने कोई नायकत्व नहीं दिखाया। मैं बस खाना खाकर आ गया, अमृत भूखा ही रहा।
उसी तरह फिर कुछ दिन कमरे में बंद रहके और कुछ दिन शेव करने पर बैन लगाकर अमृत वापस लखनऊ गया और मेरा तो एक मूक दर्शक होने का जो दायित्व था वह हम आज तक पूरा करते आ रहे हैं। सवाल ये कि क़स्बाई प्रेम का क्या यही अंत होता है, जिसमें सफल प्रेम कहानियां उन्हें ही माना जाता है, तो असफल रहती हैं।
अमृत के वाकये ने एक सबक मुझे दिया, जो मैं किसी को नहीं बताने जा रहा क्यों कि अगर बता दूं तो प्रेम का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। गुस्ताखी माफ़...
ये डिस्केमर देना भी ज़रूरी है, क्योंकि लोगों के सवालात उछलने लगते हैं कि दोस्त का नाम लेकर कहीं खुद की कहानी तो नहीं कह रहे हो? ऐसा करके।
खैर जनाब, उन दिनों जब हम पाजामे का नाड़ा बांधना सीख रहे थे और लड़कियों को महज एक झगड़ने की चीज़ माना करते थे, उन्हीं दिनों हमारे एक दोस्त को एक लड़की भा गई। फिल्मों का असर कह ले या पूर्वजन्म के संबंधों का इस जन्म में फलित होना। बात ये रही कि अमृत को लड़की भा गई। और ऐसी-वैसी नहीं भायी.. दीवानगी की हद तक भा गई।
क्लास में जाता तो होमवर्क करके लाने की बजाय उस लड़की को देखता रहता। अब सुविधा के लिए लड़की का नाम भी कहे देते हैं। नाम था मीरा।
अब जनाब, पूरे स्कूल में ऐसी बात फैलते तो देर लगती नहीं। अमृत शनैः शनैः मीरा का मोहन नाम से मशहूर हो गया। फिर हम लोग तेजी से बढ़ने लगे। दसवीं तक आते-आते लड़की को भी पता हो गया, कि कलाकार-सा दीखने वाला लड़का मुझसे प्यार करता है।
हमारा दोस्त गणित की क़ॉपियों में सुंदर-सुंदर आंखों की तस्वीरें बनाने लग गए। बीजगणित में अंडा पाने वाले छोकरे की हाथ की कलाकारी से हम दांतो तले अंगुलियां दबाते। फिर क्या हुआ कि लड़की ने अपनी बायोलजी की प्रैक्टिकल कॉपी उसे बनाने को दी.. लड़का खुशी से बेतरह नाच उठा। हमें शानदार पार्टी मिली।
अमृत अब उसके घर के नीचे से बहुधा गुजरने लगा। लड़की बालकनी में दिख गई तो स्टेशन रोड पर चाय की दुकान पर एक चाय मुहब्बत के साथ (यानी मलाई मार के) हमारे लिए तय होती थी। और कुछ नहीं, तो अलगनी से सूखते कपड़े ही दिख जाते। अमृत उससे भी खुश हो जाता।
फिर दसवीं के बाद, जब हम साइस पढें या कला या कॉमर्स। या साइंस लें भी तो प्योर साइंस या बायोलजी.. इसकी उधेड़बुन में लगे थे.. अमृत अपने प्यार की गहराईयों में खोया हुआ था। फिर अमृत भी निकल गया.. पढने और मैं भी पटना चला गया। छुट्टियों में हम घर आते तो अमृत अपनी महबूबा को देखने के लिए तरसता हुआ मिलता।
हमारा छोटा सा शहर है, लड़के-लड़कियों के मिलने के लिए बुद्धा गार्डन या नेहरु पार्क नहीं हैं। न मॉल थे, न मल्टीप्लेक्सेज़.. तो पंचमंदिर आया करते थे सब.. मैं जन्म से ही नास्तिक था,लेकिन दोस्त के लिए मंदिर चला जाता। फायदा मुझे ये होता था कि कुछ लड़कियां मैं भी लाईन मार लेता। नारियल का प्रसाद मिलता चने के साथ वह फाव में।
उन्हीं दिनों हमारे पिछड़े क़स्बे में पिज्जा हट की आहट हुई और दोनों वहां मिलने लगे। साथ में मेरा होना ज़रूरी था। ठीक वैसे ही जैसे उन दिनों के हिट हो रहे फिल्मों में अक्षय कुमार या उसी तरह के हीरोज़ के साथ दीपक तिजोरी हुआ करत थे। दोनों पता नहीं क्या-क्या बातें करते, और अपनी ब्राह्मण वृत्ति के अनुरुप ही मैं तब तक खूब पित्सा पेलता और कॉफी डकारता।
लेकिन फिर बारहवी के बाद मैं एग्रीकल्चर पढ़ने चला गया..अमृत भी बीएफए पढ़ने लखनऊ विश्वविद्यालय आ गया। मिलना कम हो गया।
गरमी की एक छुट्टियों में जब हम दोनो अपने क़स्बे में ही थे, उस मीरा की शादी की खबर आई। शादी में हम दोनों पहुंचे.. लेकिन न तो हमारी हिम्मत थी, न अमृत की.. हमने कोई नायकत्व नहीं दिखाया। मैं बस खाना खाकर आ गया, अमृत भूखा ही रहा।
उसी तरह फिर कुछ दिन कमरे में बंद रहके और कुछ दिन शेव करने पर बैन लगाकर अमृत वापस लखनऊ गया और मेरा तो एक मूक दर्शक होने का जो दायित्व था वह हम आज तक पूरा करते आ रहे हैं। सवाल ये कि क़स्बाई प्रेम का क्या यही अंत होता है, जिसमें सफल प्रेम कहानियां उन्हें ही माना जाता है, तो असफल रहती हैं।
अमृत के वाकये ने एक सबक मुझे दिया, जो मैं किसी को नहीं बताने जा रहा क्यों कि अगर बता दूं तो प्रेम का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। गुस्ताखी माफ़...