Tuesday, June 30, 2009

लालगढ़ः बोउदी-र होटेल


आप चौंक गए होंगे..लालगढ़ में किस होटल की बात कर रहा हूं मैं। जनाब ये सच है कि मैं उसी लालगढ़ की बात कर रहा हूं, जहां माओवादियों ने सरकार को नाकों चने चबवा दिए हैं। और जहां बारुदी सुरंगों की गंध है..। वहीं लालगढ़ में एक होटल की बात कर रहा हूं.. और बांगला में बोउदी का मतलब होता है- भाभी। यानी लालगढ़ में भाभी के होटल की बात कर रहा हूं।

अब आपको लग रहा होगा कि गुस्ताख़ आ गया अपनी पर..। अब करेगा ऐसी वैसी, जैसी -तैसी बातें। भाभी की, भाभी की बहन की। नहीं जनाब..आज मैं सीरियसली सीरियस हूं। यानी गंभीरतापूर्वक गंभीर होने की सोच रहा हूं।

बहरहाल, लालगढ़ के हालात जो थे वो ये कि पुलिस थाने पर माओवादियों ने कब्जा कर लिया था। सीपीएम का दफ्तर फूंक दिया था। और सारे रास्ते में बारुदी सुरंगे बिछा रखी थीं। लेकिन सुरक्षा बलों ने उन्हे वहां से खदेडा। अब ये सारी खबर आप तक कैसे पहुंची? सीधी बात मीडिया के ज़रिए..। मीडिया ने इस खबर के साथ कैसा सुलूक किया ये अलग बात है लेकिन खुद मीडिया वालों के साथ कैसा सुलूक हुआ इस पर किसी ने चर्चा नहीं की।

इधर बेहद ऊमस और गरमी है। माथे का पसीना गाल और ठुड्डी होता गरदन के रास्ते बेरोकटोक इधर-उधर घुसता चला जाता है और कैमरे के सामने खड़े लाइव देते आप बेबस उसकी असहज ठंडक को महसूस करते रहते हैं। कड़क धूप में चांद गरम हो जाता है, खासकर दिल्ली की सूखी गरमी के आदी लोगों के लिए कोलकाता के पास आर्द्रता का कोई जबाव नही होता। सिगरेट फूंकते जाइए... बेचैनी से पेड़ के पत्ते गिनिए.. लालगढ़ पुलिस स्टेशन के सामने की गीली दीवार पर ऊक़ड़ूं बैठिए.. सारा बाजा़र बंद है..लालगढ़ में.. और कहां जाएंगे। किसी कैमरामैन के पास बिस्कुट का पैकेट पड़ा है। सब टूट पड़े हैं। खत्म। यहां जमा पत्रकारों में कोइ नाजुक-नरम लड़की नहीं दिखती। घिसे हुए तजुरबेकार लोग..। कमी खलती है।

धीरे-धीरे सिगरेट का कोटा खत्म हो जाता है। ड्राइवर के पास कंट्री सिगरेट है। देशभक्त लोगों की कमी नहीं..कहते हैं रग-रग में पहले से कंट्री जमा है। अब उसे पेंफड़ों तक आ जाने दो। ड्राइवर की बीड़ी का बंडल भी साफ।

कुछ जीवटवाले लोग खाना खोजने निकले हैं। थाने से दाहिने आगे जाना मना है। आगे खतरा है। माइन्स भी हो सकते हैं। अंदर ही अंदर लगा बरखा दत्त हो रहा हूं। सेक्स परिवर्तन..। हुह..। तीन-चार लौंडे-लफाडिएनुमा रिपोर्टर खाने की खोज में निकले हैं। स्टार आनंद का लड़का. हल्की दाढी...थका हुआ। आगे चल रहा है मेरे साथ। बोलने में मेरी बांगला उतनी ही अच्छी है जितनी कि मेरी लैटिन..बांगला समझ अच्छी तरह सकता हूं।

एक कुत्ता आगे दोड़ता हुआ निकला। सीआरपीएफ का जवान गश्त पर है.. कहता है आगे एक पान की दुकान खुली है। साथ में एक घर का दरवाज़ा भी खुला है..एक छोटी लड़की झांकती है।

पता चला यहां एक दंपत्ति हैं जो पहले होटल चलाते थे। खाना मिलेगा.. जवाब आता है - क्यों नहीं। थोड़ी देर रुकने का इशारा..यानी ४० मिनट। हमने उन्हें २० लोगों का खाने का संकेत दिया। सिगरेट का कोटा पूरी तरह भर लिया।

खाने में हम २५-२७ लोग हो गए। एक साथ १२ लोग ही खा सकते हैं। पत्तल पर खाना..भात-मूंग की कम गली दाल, कुंदरी जैसी कोई मिक्स सब्ज़ी, आलू का एक चम्मच भर्ता, प्याज का मटर के दाने जितना बडा़ टुकड़ा, एक अंडा.. उबला। लेकिन ये खाना पवित्र है।

दिल्ली से चला था तो सारे रास्ते ढाबे का मसाले दार खाना खाता आया था. यहां आकर पवित्र भोजन मिला है। वैसे भूख में किवाड़ भी पापड़ लगते हैं..।

हम सब ने जम कर खाया। पेट के साथ मन भी तृप्त हुआ। अब तक खाली दिमाग में कुछ बातें घुस नहीं पा रही थी। इस भोजन के बाद विचारधाराएं जन्म लेने लगी हैं। हा हा हा। भूखे भजन न होईं गोपाला। खाने के बाद हमारे ड्राइवर पूर्णचंद्र ओझा के विशेष अनुरोध पर पान कचरे (चबाए) गए।

बोऊदी का सौंदर्य प्रभावशाली था, अच्छी लंबी, लंबी बाल, मांग में दूर तक सिंदूर, बड़ी बिंदी..लाल बॉर्डर की साड़ी, हाथों में शाखा-पोला चूड़ी...लगा शरत चंद्र की बिराज बोऊ (बहू) अवतरित हुई हों।

मां कहती थी, भूख लगे तो ईश्वर को याद करना किसी न किसी रुप में मिल जाएँगे.. अन्नपूर्णा को याद करना..पहले मां की बात पर भरोसा नहीं था। ईश्वर के अस्तित्व पर भी कोई खास भरोसा आज तक नहीं..लेकिन लालगढ़ जाने पर और इस घटना के बाद आज लग रहा है कि मां सही कहती थी.।

लालगढ़ के पास मेदिनीपुर शहर से

Monday, June 29, 2009

आज का विचार-२

दुनिया में उत्तरजीविता और सुखी रहने के दो नि.यम हैं-

१. जो पसंद है उसे हासिल करना सीख

२. जो हासिल है, उसे पसंद करना सीख लें.


मंजीत ठाकुर, मेदिनीपुर से दार्शनिक मूड में क्योंकि मूड सही नहीं है।

Wednesday, June 24, 2009

मेरा भारतनामा- दिल्ली से कोलकाता, पहला पड़ाव


देश की धड़कन देखने निकला हूं, कोलकाता की ओर..। सड़क के रास्ते दिल्ली से कोलकाता.....


बॉस के आइडिए ने दिल और दिमाग झंकृत कर दिया मेरा तो। कार्यक्रम है बजट यात्रा । बजट से ऐन पहले देश कीजनता की समस्याओं पर कुछ काम किया जाए। काम न भी हो कम से कम जनता का मिज़ाज तो भांप ही लिया जाए।

मेरा रुट बना, दिल्ली से मथुरा, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद होते बनारस, सारनाथ, गाज़ीपुर, आज़मगढ़, होते कुशीनगर से बेतिया, मोतिहारी, मुजफ़्फ़रपुर, पटना, नालंदा, बिहार शरीफ, नवादा, कोडरमा, हज़ारीबाग़, फिर वहां से इसरी-डुमरी-पारसनाथ होते आसनसोल, पानागढ़, वर्धवान, दुर्गापुर, फिर वहां से कोलकाता।


हमारा सफर १५ तारीख को शुरु हुआ। गनीमत ये रही कि एसी गाड़ी मिल गई। साथ में कैमरामैन आनंद प्रकाश और सुनील के साथ साथी रिपोर्टर थी स्वाति बक्षी। स्वाति गरमी से परेशान थी।

सुबह को सफर की शुरुआत हुई तो मजा़ आ रहा था। स्वाति खेतों की कथित हरियाली से खुश थी। पलवल में जाकर सड़क के किनारे चाय पी। स्वाति और आनंद घर का खाना लेकर आए थे। मैंने खूब चकल्लस उडा़या। घर का खाना, आगे नहीं मिलने वाला था।


हालांकि इस बात से मैं जरा भी परेशान नहीं था, क्योंकि पूरे चुनाव के दौरान मैं ट्रक ड्राइवरो वाली जिंदगी जी चुका था। स्वाति अनजान थी कि आगे क्या होने वाला है। मथुरा में लस्सी पीते, आगरा में कुछ खाते हम रास्ते में शूट भी करते जा रहे थे। खेतों में मूंग की फसल प्रौढ़ हो चुकी थी, उनकी फलियों को तोड़ने वाली महिलाओं में लेकिन नौजवान भी थीं, बच्चियां भी,।


वहीं स्वाति ने पहली बार कच्चे मूंग का स्वाद चखा। अपना ज़िक्र इसलिए नहीं कर रहा क्योंकि मेरे लिए यह सब पहली बार नहीं था। उसे मैंने खेतों की मेढ़ पर उगे भांग की पत्तियां भी दिखाईँ। उसे भरोसा ही नहीं हुआ कि जिस मारिजुआना की बात इतने अदब से की जाती है , वह दरअसल देसी भांग ही है।


मैंने समझाने की कोशिश की कि देसी चीज़े हीं परदेश आकर बदल जाती हैं। मुलम्मा चढ़ते ही स्वाद बदल जाता है। गांव का कच्चापन शहर आते ही रंग बदल लेता है। वरना मारिजुआना की गोली में क्या दम कि वह गांव की ठंडई का मुकाबला कर ले।


बहरहाल, उसने भांग की कुछ पत्तियों को अपने हैंडबैग में बतौर अमानत छुपा लिया। आनंद ने गुजारिश की कि बिहार या झारखंड में उसे ताड़ी पिलवाऊं। मैंने उसे देशी स्कॉच के बारे में बहुत कुछ बताया था। कहा था कि इसका नशा सूरजमुखी के फूल की तरह दिन चढ़ने के साथ बड़ता है। देह में हवा लगते ही आदमी बहकता है, मानो बसंती हवा हो।


ड्राइवर थोड़े बुजुर्ग थे, लेकिन वह बुजुर्ग भी क्या बुजुर्ग जिसे मेरा साथ मिलते ही जवानी न उबाल मारने लगे। साहब, ऐसी घुट्टी कान में पिलाई कि इनोवा ने ८० छोड़ ११० की रफ्तार पकड़ी। ये रफ्तार जरुरी थी, वरना कानपुर पहुचंते देर हो जाती, या रास्ते में लटक जाते तो सारा शिड्यूल गड़बड़ हो जाता।
तेजी़ के बावजूद कानपुर पहुचंते रात के ११ बज गए। रात में वही रुकना हुआ। होटल था किसी चारखंभा कुआं के पास.. इतनी गहरी नींद सोए कि रात में सपने भी नहीं आए..। क्या ये शुभ संकेत था?

तस्वीरें रोल में हैं, नेगेटिव निकलते ही पोस्ट करुंगा


जारी....

Monday, June 15, 2009

सिनेमा से पहली मुलाकात-2


जब हम थोड़े और बड़े हुए तो उस काले परदे के आगे की दुनिया की खबर लेने की इच्छा बलवती होती गई। तब कर एक और सिनेमाघर शहर में बन गया। सिनेमाघर की पहली फिल्म थी- याराना। सन बयासी का साल था शायद। हम छोटे ही थे, लेकिन भाई के साथ फिल्म देखने के साथ गया। अमिताभ से पहला परिचय याराना के जरिए हुआ।




उस समय तक हमारे क़स्बे में वीडियों का आगाज़ नहीं हुआ था। बड़े भाई आसनसोल से आते तो बताते टीवी और वीडियो के बारे में। हॉल जैसा दिखता है या नहीं?? पता चला बित्ते भर के आदमी दिखते हैं, छोटा सा परदा होता है। निराश हो गया मैं । लेकिन घर पर भी लगा सकते हैं यह अहसास खुश कर गया।




बहरहाल, हमारे शहर में एक राजबाड़ी नाम की जगह है, जहां लड़कों ने आसनसोल से वीडियो लाकर फिल्में दिखाने का फैसला किया था। टिकट था - एक रुपया। औरतो के लिए फिल्म दिखाई जा रही थी-मासूम और एक और फिल्म थी दीवार। मम्मी और उनकी सहेलियां मासूम देखने गईँ। शाम में दीवार दिखाई जानी थी, बाद में जब हम और रतन भैया फिल्म देखकर लौट रहे थे। हम दोनों में विजय बनने के लिए झगड़ा हो गया। वह कहते रहे कि तुम छोटे हो कायदे से रवि तुम बनोगे, लेकिन रवि जैसा ईमानदार बनना मुझे सुहा नहीं रहा था। विजय की आँखों की आग अच्छी लगी और उस दिन के बाद से लगती ही रही।




उस दिन के बाद से फिल्मों का चस्का लग गया। आर्थिक कारणों से अहब मेरा दाखिला सरकारी स्कूल में करवा दिया गया। वजह-पिताजी का देहांत हो गया। घर में एक किस्म की संजीदगी आ गई थी। मम्मी, मां में बदल गई। उनके सरला, रानू और बाकी के उपन्यास पढ़ना छूट गया। बड़े भैया कमाने पर उतरे, मंझले भाई में पढाई का चस्का लगा। मुझे बेवजह ज्यादा प्यार मिलने लगा। घर के लोग सिनेमा से दूर होते गए। सबका बकाया मैं और बड़े भैया पूरा करने लगे।




सरकारी स्कूल से भाग कर सिनेमा देखने जाने लगा। लेकिन तीन घंटे तक स्कूल और घर से दूर रहने की हिम्मत नहीं थी। उन दिनों -८६ का साल था- मधुपुर के सिनेमाघरों में जबरदस्ती इंटरवल के बाद घुस आने वालों को रोकने के लिए एक नई तरकीब अपनाई गई थी। इंटरवल में बाहर निकलते वक्त गेटकीपर एक ताश के पत्ते का टुकडा़ देता था। अब हमने एक और दोस्त के साथ िस तरकीब का फायदा उठाया। इस तरीके में हम इंटरवल के पहले की फिल्म एक दिन और बाद का हिस्सा दूसरे दिन देख लेते थे।




गिरिडीह में सवेरा सिनेमा हो, या देवघर में भगवान टाकीज, मधुपुर में मधुमिता और सुमेर, आसनसोल में मनोज टाकीज, हर सिनेमाहॉल का पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हमें पहचानने लगा. गेटकीपरों के साथ दोस्ती हो गई। फिल्म देखना एक जुनून बन गया। कई बार हमारे बड़े भाई ने सिनेमाहॉल में ही पकड़ कर दचककर कूटा। लेकिन हम पर असर पड़ा नहीं।





बाद में अपने अग्रीकल्चर कॉलेज के दिनों में या बाद में फिल्में पढाई के तनाव को दूर करने का साधन बन गईं। अमिताभ के तो हम दीवाने थे। शुरु में कोशिश भी की अंग्रेजी के उल्टे सात की तरह पट्टी बढा़ने की , लेकिन नाकामी ही हाथ लगी। बाद में शाहरुख ने अमिताभ को रिप्लेस करने की तरकीबें लगाईं, तो डीडीएलजे ने बहुत असर छोड़ा था हम पर। नकारात्मक भूमिकाओं को लेकर मै हमेशा से सकारात्मक रहा हूं। ऐसे में बाजीगर और डर वाले शाहरुख को हमने बहुत पसंद किया था। उसके हकलाने की कला, साजन में संजय के बैसाखी लेकर लंगड़ाने की अदा, अजय देवगन की तरह फूल और कांटे वाला सोशल एलियनेशन, .. सब पर हाथ आजमाया।




लेकिन दूरदर्शन की मेहरबानी से फिल्मों से हमारा रिश्ता और मजबूत ही हुआ। दूरदर्सन पर मेरी पहली फिल्म याद नहीं आ रहा साल लेकिन समझौता थी। गाना अब भी याद है समझौता गमो से कर लो..। फिर अमृत मंथन, अवतार, मिर्च-मसाला, पेस्टेंजी, आसमान से गिरा, बेनेगल निहलाणी की फिल्में देखने का शौक चर्राया।




लगा कि मिथुन के हिटलर,जल्लाद, और गोविंदा की कॉमिडी से इतर भी फिल्में हो सकती हैँ। तो हर तरह की फिल्में देखना शुरु से शौक में शामिल रहा। और दूरदर्शन की इसमें महती भूमिका रही। जिसने कला फिल्में देखने की आदत डाल दी. तो हर स्तर की हिंदी अंग्रेजी फिल्में देखते रहे। हां, डीडी की कृपा से ही ऋत्विक घटक और सत्यजित् रे की फिल्मों से परिचय हुआ। तो सिनेमा एक शगल न रह कर ज़रुरत में बदल गया।




बहुत बाद में २००७ में एफटीआईआई में फिल्म अप्रीशिएशन के लिए पहुंचा तो पता चला कि एक पढाई ऐसी भी होती है जिसमे पढाई के दौरान फिल्मे दिखाई जाती हैं। तो पूरे कोर्स को एंजाय किया। फिल्में देखने और फिल्मे पढ़ने की तमीज आई। विश्व सिनेमा से परिचय गाढा हुआ।





गोवा और ओसियान जैसे फिल्मोत्सवों में ईरानी, फ्रेंच और इस्रायली सिनेमा से दोस्ती हुई और सिनेमा का वायरस मुझे नई जिंदगी दे रहा हैं... मैं हर स्तर के फिल्मे जी रहा हूं, और गौरव है मुझे इस बात का कि दुनिया में सिनेमा एक कला और कारोबार के रुप में जिंदा है तो मेरे जैसे दर्शक की वजह से, जो एक ही साथ रेनुवां-फेलेनी और राय-घटक के साथ गोविंदा के सुख, और सांवरिया भी भी झेल सकता है।





Saturday, June 13, 2009

सिनेमा से पहली मुलाकात



अपने स्कूली दिनों में कायदे से बेवकूफ़ ही था। पढ़ने-लिखने से लेकर सामाजिक गतिविधियों तक में पिछली पांत का खिलाड़ी। क्रिकेट को छोड़ दें, तो बाकी किसी चीज़ में मेरी दिलचस्पी थी ही नहीं। बात तबकी है जब मैं महज सात-आठ साल का रहा होऊंगा।.. मेरे छोटे-से शहर मधुपुर में तब, दो ही सिनेमा हॉल थे, वैसे आज भी वही दो हैं।


लेकिन सिनेमा से पहली मुलाकात, याद नहीं कि कौन सी फिल्म थी वह- मम्मी के साथ हुई थी। मम्मी और कई पड़ोसिनें, मैटिनी शो में फिल्में देखने जाया करतीं। हम इतने छोटे रहे होंगे कि घर पर छोड़ा नहीं जा सकता होगा। तभी हमें मम्मी के साथ लगा दिया जाता होगा। बहनें भी साथ होतीं.. तो सिनेमा के बारे में जो पहली कच्ची याद है वह है हमारे शहर का मधुमिता सिनेमा..।


यह पहले रेलवे का यह गौदाम थी, थोड़ा बहुत नक्शा बदल कर इसे सिनेमा हॉल में तब्दील कर दिया था। ्ब इस हॉल को पुरनका हॉल कहा जाता है। महिलाओं के लिए बैठने का अलग बंदोबस्त था। आगे से काला पर्दा लटका रहता.. जो सिनेमा शुरु होने पर ही हटाया जाता। तो सिनेमा शुरु होने से पहले जो एँबियांस होता वह था औरतों के आपस में लड़ने, कचर-पचर करने, और बच्चों के रोने का समवेत स्वर।


लेडिज़ क्लास की गेटकीपर भी एक औरत ही थीं, मुझे याद है कुछ शशिकलानुमा थी। झगड़ालू, किसी से भी ना दबने वाली..। चूंकि हमारे मुह्ल्ले की औरतें प्रायः फिल्में देखनो को जाती तो सीट ठीक-ठाक मिल जाती। शोहदे भी उस वक्त कम ही हुआ करते होंगे, ( आखिरकार हम तब तक जवान जो नहीं हुए थे) तभी औरतों की भीड़ अच्छी हुआ करती थी।


बहरहाल, फिल्म के दौरान बच्चों की चिल्ल-पों, दूध की मांग, उल्टी और पैखाने के बीच हमारे अंदर सिनेमा के वायरस घर करते गए। हमने मम्मी के साथ जय बाबा अमरनाथ, धर्मकांटा, संपूर्ण रामायण, जय बजरंगबली, मदर इंडिया जैसी फिल्में देखी। रामायण की एक फिल्म में रावण के गरज कर - मैं लंकेश हूं कहने का अंदाज़ मुझे भा गया। और घर में अपने भाईयों और दोस्तों के बीच मैं खुद को लंकेश कहता था।

मेरे पुराने दोस्त और रिश्तेदार अब भी लंकेश कहते हैं। वैसे लंकेश का चरित्र अब भी मुझे मोहित करता है, और इसी चरित्र की तरह का दूसरा प्रभावी चरित्र मुझे मोगंबो का लगा। लेकिन तब तक मैं थोड़ा बड़ा हो गया था। और मानने लगा था कि अच्छी नायिकाओं का सात पाने के लिए अच्छा और मासूम दिखने वाला अनिल कपूर या गुस्सैल अमित बनना ज्यादा अहम है।

to be cont...

Thursday, June 11, 2009

वाम से दूर अवाम



इस बार के लोकसभा चुनाव के नतीजे किसी और सूबे में, किसी और पार्टी के लिए हैरत भरे रहे हों या नहीं, लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के लिए नतीजे 'अप्रत्याशित' ही रहे। चुनाव परिणाम के दिन यानी 16 मई को अलीमुद्दीन स्ट्रीट यानी सीपीएम के कोलकाता दफ्तर पर सन्नाटा दोपहर से पहले ही पसर गया था।



मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य सुबह आठ बजे से पहले ही पार्टी ऑफिस आ चुके थे, नौ बजे तक ट्रेंड्स कुछ साफ होने लगे, लेकिन तबतक वहां से निकलते हुए मुहम्मद सलीम के चेहरे की चमक कम नहीं हुई थी। बहरहाल, ग्यारह बजे सुभाष चक्रवर्ती बाहर निकले और नतीजो में बगदलते ट्रेंड्स को 'अप्रत्याशित' बताकर अपना दामन छुड़ा लिया।


खैर, नतीजे तो अब जगजाहिर हो चुके हैं और वाम मोर्चा मात खा चुका था। 19 सीटों पर जीत हासिल करने वाली तृणमूल कांग्रेस नेता और बंगाल की शेरनी कही जाने वाली ममता बनर्जी अब तो रेल मंत्री भी बन चुकी हैं। लेकिन, यह उस वाम मोर्चे के लिए जोर का झटका साबित हुआ जो नंदीग्राम और सिंगूर को स्थानीय मुद्दे से ज्यादा कुछ मानने को तैयार ही नहीं था। दरअसल, 1977 के बाद से वाममोर्चे ने बंगाल में 14 चुनावों का सामना किया, लेकिन इतनी बड़ी चुनौती उसे कभी नहीं मिली थी।


परिसीमन के बाद कई चुनावी समीकरण भोथरे हो गए थे और चुनावी गणित की नई कंटूर रेखाएं खींच दी गईं थीं। लेकिन 2004 में सबसे बड़ी जीत और 2009 में सबसे बड़ी हार के बीच के कारणों पर वाम मोर्चा, खासकर सबसे नुकसान में रहा सीपीएम, ज़रुर चिंतन करना चाहेगा।


चुनाव में वाम मोर्चा ममता को विकास-विरोधी साबित करने में लगा रहा और खुद बिजली-पानी-सड़क के मुददे को लेकर जनता तक गया। लेकिन बंगाल के गांवों में भी, जहां वाम मोर्चे की गहरी पैठ रही है, वोटर यह पूछने में नहीं हिचका कि पिछले 32 साल से यही मुद्दे चुनाव में क्यों आते रहे हैं। हालांकि, पूछने की यह प्रक्रिया कई वजहो से siidhee उम्मीदवार की बजाय वोटिंग के दिन अधिक मुखर था।

बहुत दिनों से यहां के पत्रकार एक कहावत कहा करते थे- वाम को अगर बंगाल में कोई हरा सकता है तो वह खुद वाम ही है। एक तरह से देखा जाए तो वाम की लंबी जीत के सिलसिलों में ही उसकी हार की वजहें छिपी हैं। 1977 के बाद से बंगाल में वाम मोर्चे ने अपना एक शानदार तंत्र खड़ा कर लिया था। प्रमोद दासगुप्ता और अनिल विश्वास सरीखे नेताओं और पार्टी प्रबंधकों ने सीपीएम की ऐसी मशीनरी खड़ी कर दी, जैसी किसी दूसरे सूबे में नहीं थी।


पार्टी ने अपना सामाजिक आधार औद्योगिक सर्वहारा से आगे बढ़ाते हुए उसे भूमिहीन मज़दूरों, छोटे किसानों और सीमांत किसानों तक फैलाया। इस समीकरण में वाम मोर्चे ने वर्ग को भी जोड़ा और दलितों और मुस्लिमों का वोट बैंक उसके साथ आ जुड़ा। इस वोट बैंक की वजह से ही वाम की हेजिमनी 2006 के विधानसभा चुनाव तक बरकरार रही।


लेकिन जिस परिवर्तेन हावा ( परिवर्तन की हवा) की हात इस बार मीडिया इस बार की गई और जो चुनाव परिणाम के बाद अनुमानों से ज्यादा मुखर हुआ, उसके संकेत पंचायत चुनाव से ही मिलने शुरु हो गए थे। सूबे के 17 में से 13 ज़िला-परिषदों पर हालांकि वाम मोर्चे का क़ब्जा बरकरार रहा। लेकिन जानकार इसे वाम मोर्चे की 4 जिला परिषदों में शिकस्त के रुप में देख रहे थे।


इसकी फौरी वजह तो लेफ्ट फ्रंट के विभिन्न घटक दलों में आई दरार और पंचायत चुनावों पर पड़े इसके असर को माना गया। उधर, नंदीग्राम की घटनाओं के लगातार विरोध के बाद धीरे-धीरे बुद्धिजीवियों का एक तबका गोलबंद होकर वाम के खिलाफ़ खड़ा हो गया। बंगाल के गांवों में भी-जो कि वाम का एकमुश्त वोट रहा है- वाम के खिलाफ़ सुगबुगाहट थी। ग्रामीण और शहरी दोनों ही मुस्लिम समुदाय वाम मोर्चे से बिदक चुके थे। शहरी मुस्लिम तभके में रिजवानुर हत्याकांड का गुस्सा था। जबकि गांव के वोटरों तक सच्चर कमिटी की सिफारिशों को तृणमूल और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने बखूबी पहुंचा दिया।


गौरतलब है कि सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि बंगाल में करीब पचीस फीसदी आबादी होने पर भी सरकारी नौकरियों में महज 4 फीसदी ही मुसलमान हैं। बंगाल में दलितों और मुसलमानो kii खराब हालत एक चुनावी मुद्दा बन चुका था। नंदीग्राम में तापसी मलिक हत्याकांड को ममता ने खूब भुनाया।


दरअसल, कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की साढे चार साल की स्थिरता, नरेगा की कामयाबी, सूचना के अधिकार, वनाधिकार कानून जैसे प्रगतिशील कदमों में योगदान देने वाला वाममोर्चा समर्थन वापसी के बाद इऩका ॽेय लेने की स्थिति में नहीं थी। लेकिन इन कदमों ने कांग्रेस की छवि सामाजिक-जनवादी ज़रुर बना दी। दूसरी तरफ चंद्र बाबू नायडू और नवीन पटनायक जैसे नवउदारवादियों के साथ खड़ा होने का नुकसान भी वाम को झेलना पड़ा।


वाम के खिलाफ यह जनादेश फौरी भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, एक हद तक उसके लिए वाम की ठसक भरी राजनीति ज़िम्मदेरा है। आखिरकार, लोकतंत्र में असली ताकत to जनता के पास है। जो थोड़ा नज़रअंदाज़ करती है, वोटबैंक बनकर एकमुश्त वोट करती है, भावुकता भरे वायदों पर यकीन करती हैं, लेकिन साथ ही झटके से ज़मीन भी दिखला देती है।


यकीनन, वाम को मिला यह आखिरी जनादेश नहीं है और यह चुनाव भी आखिरी नहीं था, लेकिन यह लोकसभा चुनाव उन्हें ज़रुर इस बात पर सोचने के लिए मजबूर करेगी कि आखिरकार मोर्चे ने क्या गलत किया कि परिणाम 'अप्रत्याशित' हुए।

Thursday, June 4, 2009

बेसाख़्ता

क्या तुमने कभी,

महबूब के इंतजार में धूप तापी है?

पार्क में बैठकर-

बोगनवेलिया के हरे पत्तो पर

अपने नाखूनों से उसका नाम लिखा है?

क्या अमलतास के पीले फूलों की तरह तुम,

प्रेम में उलटा लटके हो?

क्या गुलमोहर की तरह

तुम्हारे दिल का खून

मुंह के रास्ते आया है कभी बाहर,

क्या मुहब्बत के आएला में,

सब्र का बांध टूटा है...

नहीं.. नहीं..नहीं

तो क्या हुआ जो-

इज़हार ए मोहब्बत का एक ख़त अधूरा रह गया,

जिस खत में लिखा उसे महबूब की तरह??


क़स्बे पर रवीश की कविता उदास नज़्में, सस्ती शायरी पर मेरी फौरी प्रतिक्रिया, गुस्ताख़ी माफ़.