अभिजीत के आंखों के आगे का अंधेरा छंटा, तो दर्द भी थोड़ा काबू में आता लगा। गाड़ी जसीडीह स्टेशन के बाद अजय नदी को भी पार कर चुकी थी। इस रास्ते से न जाने कितनी दफा गुज़रा है अभिजीत। सब कुछ पहचाना-सा, लेकिन फिर भी पराया-पराया।
जब पतरो नदी पार हुई तो गाड़ी अचानक तेज़ मोड़ पर बाईँ ओर मुड़ रही थी। झारखंड का पठारी टांड़...(उच्च भूमि) जिस पर बरसाती दिनों में घास के सिवा कुछ नहीं उगता। अप्रैल के आखिरी दिन वह घास भी जल गई थी।
अभिजीत कुछ सोच रहा था और यह सोच एक दृढ़-निश्चय की तरह उसक आंखों में आ बसा था।
वह घर पहुंचा तो उसके हाथों में मिठाई का एक डब्बे के सिवा और कुछ भी न था। गले में गमछा। लाल रंग का। भाभी ने देखा तो उनकी भाव-भंगिमाओं से पता लग गया कि पांचेक साल बाद आए देवर के आगमन से उन्हें कोई खास खुशी हुई नही है। उनके शब्द और उनकी भाव-भंगिमाओं में कोई तारतम्य न था।
मां बीच के बड़े कमरे में दीवान पर बैठी पंखा झल रही थी। भाई साब स्कूल में थे। अभिजीत के नहाते-धोते भाभी ने खाना परोस दिया था।
मां ने पूछा था, कैसे आए इधर..काम से छुट्टी कैसे मिल गई। भाभी ने बताया कि अब अखबार में उसका कॉलम नहीं दिखता। अभिजीत ने बताया कि वह लगातार बाहर रहा है और साल भर के लिए बाहर जाने वाला है। विेदश।
मां ने एक बार फिर पूछा, किस देश
अभिजीत पेशोपेश में पड़ गया...जर्मनी।
क्यों..
रेडियो में नौकरी मिली है..जर्मनी का रेडियो है। अखबार छोड़ दिया है।
फिर इसके बाद कोई बात नहीं हुई। खाना खाकर अभिजीत बाहर निकल गया। दोपहर की धूप सीधे सिर पर पड़ रही थी। अब वह घर तभी वापस आने वाला था, जब भाई साहब लौट आएं। पढ़े लिखे आदमी हैं और एक हद तक अभिजीत को जानते भी हैं।
उसके अपने शहर में भले ही दुपहरी थी, लेकिन उसको सब कुछ अनजाना लग रहा था। सब कुछ बदल गया, घर के ठीक सामने का पोखरा पाटकर घर बना दिए गए थे। जब उसने शहर छोड़ा था, उसके दिमाग में वही सब तस्वीरें अब भी चिपकी थीं...हालांकि बीच में कई दफा वो घर आया भी था।
सामने के अहाते में से बांस के झुरमुट गायब हो गए थे, तबरेज़ के घर के पपीते के पेड़ भी खत्म हो गए थे...शंकर की दुकान के पीछे के अहाते में से यूकेलिप्टस का वो पेड़, जिसमें अभिजीत हमेशा कभी अनिल कपूर तो कभी हनुमान जैसी आकृतियां देख लिया करता...वह भी आरे की भेंट चढ़ चुका था।
आसपास के सारे पेड़ जिनसे उसकी दोस्ती थी, वक्त का आरा उनको काट कर गिरा चुका था। अभिजीत ने सोचा, देखे वक्त का आरा उसकी जिंदगी पर कब चलता है शायद....छह महीने...या उससे पहले। वक्त बहुत कम बचा है।
दिल्ली, मृगांका का कमरा, वक्त वहीं है...
वक्त बहुत कम बचा था। मृगांका जल्दी-जल्दी तैयार हो रही थी। उसे कल रात के बम धमाके में घायलों को देखने अस्पताल जाना था। राम मनोहर लोहिया अस्पताल...।
बिस्तर पर उसी की डायरी पड़ी थी। बीच में एक कलम था...वही पेज जिसे वो रात को पढ़ रही थी। उसने फिर से पढ़ना शुरु किया।
" द परपीचुअल पर्वर विदिन मी.....मेरे भीतर की वो शाश्वत व्यग्रता रोज़-ब-रोज़ अपने उतुंग शिखर की ओर बढ़ रही है। मेरे अंदर तुम्हारा प्यार दिन-ब-दिन मेरी मानस संतान की तरह बढ़ रहा है--अपने अस्तित्व का आभास कराता हुआ, मानो अब वह बाहर ही निकलना चाहता हो। कभी कभी तो यह अहसास अलौकिक हो जाता है, कभी दुश्वार..कभी-कभी अपने आसपास हर चीज़ में तुम्हारे होने का अनुभव होता है , लगता है हर शै में तुम ही हो...तुम ही।
मैं तुम्हारी मौजूदगी को नकारना चाहती हूं, तुम्हारे इस पाश से निकलना चाहती हूं,लेकिन जितना ही मैं तुम्हारे अस्तित्व से इनकार करना चाहती हूं, तुम मेरे ही अंदर मजबूत होते जा रहे हो, जिसे मैं कभी दूर जाने की सोच भी नहीं सकती। मैं चाहती हूं कि तुम्हारे होने का यह अहसास ताजिंदगी मेरे अंदर रहे।
पता नहीं क्यों, तुम मुझे एक दूर के सपने की तरह लग रहे हो, डर लगता है कि शायद यह कभी पूरा नहीं होगा। पता नहीं क्यो... एक ऐसा सपना जिसे में अपनी उंगलियों के बीच फंसा कर हमेशा के लिए अपना बना लेना चाहती हूं...तुम्हे अपनी पलकों के बीच बसा लेना चाहती हूं...ताकि मैं तुम्हें और तुम्हारी याद को अपनी काजल से स्याह हुए आंखो में अगली सुबह को भी पा सकूं....मेरी आंखे...जो दुनिया भर के लिए आग्नेय हो सकती हैं,लेकिन तुम जो हमेशा गुल-गपाड़ा मचाते हो, तो हल्ला-गुल्ला करते हो उसके सामने यह पता नहीं क्यों निर्निमेष हो जाती हैं...
पता है, मैंने पहले भी कहा है ना, जितना मैं तुम्हे बिसराना चाहती हूं, तुम्हारा अस्तित्व मेरे मन में एक वास्तविकता की तरह मजबूत और व्यापक होता जाता है..कुछ इस तरह जिसे में इनकार करना भी नहीं चाहती।''
(यह मृगांका की डायरी का हिस्सा है जो मूल रूप से अंग्रेजी में था, और जिसका हिंदी तर्जुमा करने की कोशिश लेखक ने की है)
मृगांका के सामने अभिजीत का पूरा अस्तित्व आकर खड़ा हो गया। ओह अभिजीत कितना प्यार करती हूं तुमसे..कहां हो तुम? मुझे पता है तुम मुझे सता रहे हो...आओ अभि..कहां हो अपनी सफेद कमीज़ में, पता नहीं कब से धुलने को बेताब जीन्स पेंट में...अपने ट्रेड मार्क लाल गमछे में।
मृगांका ने आगे पढ़ा, ''मेरे शब्द शायद कम पड़ जाएं, खत्म हो जाएं, मैं शायद आगे ना बढूं, कुछ भी न करूं, लेकिन मैं अपने दिल को कैसे रोकूं...जो बार बार तुम पर ही आ रहा है। इसका कोई मतलब नहीं, कि मैंने तुम्हारे प्यार को रोकने के लिए न जाने कैसी दीवार अपने चारों तरफ खड़ी करने की कोशिश की है, लेकिन हमेशा तुम्हारी यादें मेरे सीने में गरम भोथरे छुरे की तरह उतरती रहती हैं...और मैं असहाय खड़ी रह जाती हूं।
सच है कि मेरा दिल हर पल तुम्हारी हसरत में रहता है, मेरे लिए इससे बड़ी दिली आजादी और गौरव का कोई पल आ ही नहीं सकता.....हां ये सच है, वाकई सच है!!"
मृगांका ने डायरी बंद कर दी। उसे आलमारी पर रख कर और कार की चाबी उठाकर वह दरवाजे की तरफ भागी।
कहीं देर न हो जाए।
अभिजीत का गृहनगर, वक्त वही, दोपहर का, वक्त कहां सरकता है...
कहीं देर न हो जाए। अभिजीत सोच रहा है। शहर में नए किसिम की दुकाने खुल गईं है। छोटा सा कस्बा शहर के तेवर ले रहा है। सुना है नक्सलियों की आमद बढ़ गई है। थाने के चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगाई गई है।
थाने को छोड़कर सब कुछ सुरक्षित है।
पानवाले ने पान लगाकर दिया। उंगलियों में सुलगी सिगरेट तब तक राख होने को आ गई थी। पानवाले ने पहचानने की कोशिश की थी। अभि भैया हो ना तुम....अभिजीत मुस्करा दिया, चलो, अनजाने हो चले शहर में तुमने तो पहचान लिया।
पानवाले से इस वायदे पर कि वह पेट्रोल डलवा देगा, अभिजीत ने उसकी मोटरसाइकल दो घंटे के लिए उधार ले ली। सब घूम आया। नदी के किनारे के जंगल, जो बहुत कम रह गए हैं। नदियों में ग्रेनाइट की चट्टानें...जंगल जितने थे...हरे तो नहीं थे। गरमी बहुत है, जीवन में भी मौसम में भी।
आगे श्मशान है। नगरपालिका ने विकसित किया है, नाम दिया है बैकुंठधाम। अब लोग श्मशान भी विकसित करने लगे हैं। पीपल के कुछ पेड़ बेहद बड़े हैं, कुछ बड़े हो रहे हैं। इसी श्मशान में अभिजीत के पिता की चिता चली थी।
एक चायवाले के यहां रुका, सोचा बस यहां से आगे ठीक नहीं होगा। मोटरसाइकिल भी लौटानी है। चायवाले के यहां रुकगया। उसने चायवाले से पूछ ही डाला, आखिर, जंगल कैसे कम होते गए भैया। पहले तो बहुत होते थे यहां थे। मैंने तो सोचा था उधर आगे वाली पहाड़ी जो उजाड़ हो गई है उसे हरियाली से भर दूंगा। लेकिन...कटते-कटते तो जंगल कहां चले गए हैं, पता ही नहीं लगता।
चायवाले ने कहा, इधर पत्थर की खुदाई होने लगी है तब से कहां जंगल और कैसा जंगल....। जहां तक हरियाली की बात है, कुछ लोग लगा तो रहे हैं लेकिन काटने वाले ज्यादा हैं लगाने वाले बेहद कम। वो जो शेखपुरा वाली पहाड़ी की बात कर रहे हैं ना आप...उंगली दिखाते हुए वो बोला--वहां कुछ लोग पेड़ लगा रहे हैं।
अभिजीत आश्वस्त हुआ। कुछ लोग तो हैं, जो जंगल की सोचते हैं। वह लौट पड़ा।
घर लौटा तो सूरज की शिफ्ट खत्म होने को आई थी। आंगन में भैया के साथ बैठा तो भाई साब ने कहा कि भाभी ने उसे सब कुछ बता दिया है और वह कहां जा रहा है और कब लौटेगा। उसने अपनी कमीज में से एक काग़ज़ निकाला, भाई साब को देते हुए जो कहा,उसका सारांश था कि विदेश जा रहा हूं तो पता नहीं कब लौटूं, या फिर लौटूं भी या नहीं, कुछ ठीक तो है नहीं। भाई साब तो उसके यायावर स्वभाव को जानते है ही। सोचा कुछ है उसे बेचने की बजाय दे दिया जाए। आपने मेरे पालन-पोषण पर जितना खर्च किया है, उतना तो शायद ही दे पाऊं लेकिन...इसी बीच चाय लेकर भाभी आ गई थीं।
चाय के दौरान ही अभिजीत ने अपनी कार की चाबी भाई साब के सुपुर्द कर दी थी। दिल्ली वाला अपना फ्लैट मां के नाम कर दिया था, जिसका किराया मां को हमेशा मिलता रहेगा। अपनी जमापूंजी में से कुछ लाख अपने लिए बचाकर सारी रकम भाभी के नाम कर दी थी।
भाभी का चेहरा खिल गया था। वही भाभी, सिर्फ दो घंटे पहले, जिनकी भाव-भंगिमाएं कुछ अलग थीं...अब कुछ और ही कहानी बयां कर रही थी। अभिजीत ने सोचा, मार्क्स सही कहते थे। वेल्थ इज द प्राइम मूवर.....लेकिन मां का चेहरा कुछ मुरझाने-सा लगा था। उसे कुछ खटक रहा था।
भाभी ने भैया को इसरार करके मछली लाने भेज दिया था बाजार। खुद खाने की तैयारियों में जुट गई थीं। अभिजीत ने कह दिया था वो रात को ही निकल जाएगा। रात दस बजे की ट्रेन से।
रात को जब अभिजीत निकलने लगा था तो अकेले में मां ने उसे पकड़ लिया, सच-सच बता, ये क्या कर रहा है तू। शादी कर ले घर बसा ले। ये विदेश क्यों जा रहा है कब लौटेगा.
मां, मैं सच में जा रहा हूं...
कहां...
पहले गांव जाऊंगा..
और उसके बाद...?
उसके बाद, अभिजीत ठठा कर हंसने लगा...उसके बाद..उसके बाद बाबूजी के पास जाऊंगा। इसके बाद अभिजीत हाथ छुड़ाकर आगे बढ़ गया। मां चुपचाप खड़ी रह गई।
------- क्रमशः
जब पतरो नदी पार हुई तो गाड़ी अचानक तेज़ मोड़ पर बाईँ ओर मुड़ रही थी। झारखंड का पठारी टांड़...(उच्च भूमि) जिस पर बरसाती दिनों में घास के सिवा कुछ नहीं उगता। अप्रैल के आखिरी दिन वह घास भी जल गई थी।
अभिजीत कुछ सोच रहा था और यह सोच एक दृढ़-निश्चय की तरह उसक आंखों में आ बसा था।
वह घर पहुंचा तो उसके हाथों में मिठाई का एक डब्बे के सिवा और कुछ भी न था। गले में गमछा। लाल रंग का। भाभी ने देखा तो उनकी भाव-भंगिमाओं से पता लग गया कि पांचेक साल बाद आए देवर के आगमन से उन्हें कोई खास खुशी हुई नही है। उनके शब्द और उनकी भाव-भंगिमाओं में कोई तारतम्य न था।
मां बीच के बड़े कमरे में दीवान पर बैठी पंखा झल रही थी। भाई साब स्कूल में थे। अभिजीत के नहाते-धोते भाभी ने खाना परोस दिया था।
मां ने पूछा था, कैसे आए इधर..काम से छुट्टी कैसे मिल गई। भाभी ने बताया कि अब अखबार में उसका कॉलम नहीं दिखता। अभिजीत ने बताया कि वह लगातार बाहर रहा है और साल भर के लिए बाहर जाने वाला है। विेदश।
मां ने एक बार फिर पूछा, किस देश
अभिजीत पेशोपेश में पड़ गया...जर्मनी।
क्यों..
रेडियो में नौकरी मिली है..जर्मनी का रेडियो है। अखबार छोड़ दिया है।
फिर इसके बाद कोई बात नहीं हुई। खाना खाकर अभिजीत बाहर निकल गया। दोपहर की धूप सीधे सिर पर पड़ रही थी। अब वह घर तभी वापस आने वाला था, जब भाई साहब लौट आएं। पढ़े लिखे आदमी हैं और एक हद तक अभिजीत को जानते भी हैं।
उसके अपने शहर में भले ही दुपहरी थी, लेकिन उसको सब कुछ अनजाना लग रहा था। सब कुछ बदल गया, घर के ठीक सामने का पोखरा पाटकर घर बना दिए गए थे। जब उसने शहर छोड़ा था, उसके दिमाग में वही सब तस्वीरें अब भी चिपकी थीं...हालांकि बीच में कई दफा वो घर आया भी था।
सामने के अहाते में से बांस के झुरमुट गायब हो गए थे, तबरेज़ के घर के पपीते के पेड़ भी खत्म हो गए थे...शंकर की दुकान के पीछे के अहाते में से यूकेलिप्टस का वो पेड़, जिसमें अभिजीत हमेशा कभी अनिल कपूर तो कभी हनुमान जैसी आकृतियां देख लिया करता...वह भी आरे की भेंट चढ़ चुका था।
आसपास के सारे पेड़ जिनसे उसकी दोस्ती थी, वक्त का आरा उनको काट कर गिरा चुका था। अभिजीत ने सोचा, देखे वक्त का आरा उसकी जिंदगी पर कब चलता है शायद....छह महीने...या उससे पहले। वक्त बहुत कम बचा है।
दिल्ली, मृगांका का कमरा, वक्त वहीं है...
वक्त बहुत कम बचा था। मृगांका जल्दी-जल्दी तैयार हो रही थी। उसे कल रात के बम धमाके में घायलों को देखने अस्पताल जाना था। राम मनोहर लोहिया अस्पताल...।
बिस्तर पर उसी की डायरी पड़ी थी। बीच में एक कलम था...वही पेज जिसे वो रात को पढ़ रही थी। उसने फिर से पढ़ना शुरु किया।
" द परपीचुअल पर्वर विदिन मी.....मेरे भीतर की वो शाश्वत व्यग्रता रोज़-ब-रोज़ अपने उतुंग शिखर की ओर बढ़ रही है। मेरे अंदर तुम्हारा प्यार दिन-ब-दिन मेरी मानस संतान की तरह बढ़ रहा है--अपने अस्तित्व का आभास कराता हुआ, मानो अब वह बाहर ही निकलना चाहता हो। कभी कभी तो यह अहसास अलौकिक हो जाता है, कभी दुश्वार..कभी-कभी अपने आसपास हर चीज़ में तुम्हारे होने का अनुभव होता है , लगता है हर शै में तुम ही हो...तुम ही।
मैं तुम्हारी मौजूदगी को नकारना चाहती हूं, तुम्हारे इस पाश से निकलना चाहती हूं,लेकिन जितना ही मैं तुम्हारे अस्तित्व से इनकार करना चाहती हूं, तुम मेरे ही अंदर मजबूत होते जा रहे हो, जिसे मैं कभी दूर जाने की सोच भी नहीं सकती। मैं चाहती हूं कि तुम्हारे होने का यह अहसास ताजिंदगी मेरे अंदर रहे।
पता नहीं क्यों, तुम मुझे एक दूर के सपने की तरह लग रहे हो, डर लगता है कि शायद यह कभी पूरा नहीं होगा। पता नहीं क्यो... एक ऐसा सपना जिसे में अपनी उंगलियों के बीच फंसा कर हमेशा के लिए अपना बना लेना चाहती हूं...तुम्हे अपनी पलकों के बीच बसा लेना चाहती हूं...ताकि मैं तुम्हें और तुम्हारी याद को अपनी काजल से स्याह हुए आंखो में अगली सुबह को भी पा सकूं....मेरी आंखे...जो दुनिया भर के लिए आग्नेय हो सकती हैं,लेकिन तुम जो हमेशा गुल-गपाड़ा मचाते हो, तो हल्ला-गुल्ला करते हो उसके सामने यह पता नहीं क्यों निर्निमेष हो जाती हैं...
पता है, मैंने पहले भी कहा है ना, जितना मैं तुम्हे बिसराना चाहती हूं, तुम्हारा अस्तित्व मेरे मन में एक वास्तविकता की तरह मजबूत और व्यापक होता जाता है..कुछ इस तरह जिसे में इनकार करना भी नहीं चाहती।''
(यह मृगांका की डायरी का हिस्सा है जो मूल रूप से अंग्रेजी में था, और जिसका हिंदी तर्जुमा करने की कोशिश लेखक ने की है)
मृगांका के सामने अभिजीत का पूरा अस्तित्व आकर खड़ा हो गया। ओह अभिजीत कितना प्यार करती हूं तुमसे..कहां हो तुम? मुझे पता है तुम मुझे सता रहे हो...आओ अभि..कहां हो अपनी सफेद कमीज़ में, पता नहीं कब से धुलने को बेताब जीन्स पेंट में...अपने ट्रेड मार्क लाल गमछे में।
मृगांका ने आगे पढ़ा, ''मेरे शब्द शायद कम पड़ जाएं, खत्म हो जाएं, मैं शायद आगे ना बढूं, कुछ भी न करूं, लेकिन मैं अपने दिल को कैसे रोकूं...जो बार बार तुम पर ही आ रहा है। इसका कोई मतलब नहीं, कि मैंने तुम्हारे प्यार को रोकने के लिए न जाने कैसी दीवार अपने चारों तरफ खड़ी करने की कोशिश की है, लेकिन हमेशा तुम्हारी यादें मेरे सीने में गरम भोथरे छुरे की तरह उतरती रहती हैं...और मैं असहाय खड़ी रह जाती हूं।
सच है कि मेरा दिल हर पल तुम्हारी हसरत में रहता है, मेरे लिए इससे बड़ी दिली आजादी और गौरव का कोई पल आ ही नहीं सकता.....हां ये सच है, वाकई सच है!!"
मृगांका ने डायरी बंद कर दी। उसे आलमारी पर रख कर और कार की चाबी उठाकर वह दरवाजे की तरफ भागी।
कहीं देर न हो जाए।
अभिजीत का गृहनगर, वक्त वही, दोपहर का, वक्त कहां सरकता है...
कहीं देर न हो जाए। अभिजीत सोच रहा है। शहर में नए किसिम की दुकाने खुल गईं है। छोटा सा कस्बा शहर के तेवर ले रहा है। सुना है नक्सलियों की आमद बढ़ गई है। थाने के चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगाई गई है।
थाने को छोड़कर सब कुछ सुरक्षित है।
पानवाले ने पान लगाकर दिया। उंगलियों में सुलगी सिगरेट तब तक राख होने को आ गई थी। पानवाले ने पहचानने की कोशिश की थी। अभि भैया हो ना तुम....अभिजीत मुस्करा दिया, चलो, अनजाने हो चले शहर में तुमने तो पहचान लिया।
पानवाले से इस वायदे पर कि वह पेट्रोल डलवा देगा, अभिजीत ने उसकी मोटरसाइकल दो घंटे के लिए उधार ले ली। सब घूम आया। नदी के किनारे के जंगल, जो बहुत कम रह गए हैं। नदियों में ग्रेनाइट की चट्टानें...जंगल जितने थे...हरे तो नहीं थे। गरमी बहुत है, जीवन में भी मौसम में भी।
आगे श्मशान है। नगरपालिका ने विकसित किया है, नाम दिया है बैकुंठधाम। अब लोग श्मशान भी विकसित करने लगे हैं। पीपल के कुछ पेड़ बेहद बड़े हैं, कुछ बड़े हो रहे हैं। इसी श्मशान में अभिजीत के पिता की चिता चली थी।
एक चायवाले के यहां रुका, सोचा बस यहां से आगे ठीक नहीं होगा। मोटरसाइकिल भी लौटानी है। चायवाले के यहां रुकगया। उसने चायवाले से पूछ ही डाला, आखिर, जंगल कैसे कम होते गए भैया। पहले तो बहुत होते थे यहां थे। मैंने तो सोचा था उधर आगे वाली पहाड़ी जो उजाड़ हो गई है उसे हरियाली से भर दूंगा। लेकिन...कटते-कटते तो जंगल कहां चले गए हैं, पता ही नहीं लगता।
चायवाले ने कहा, इधर पत्थर की खुदाई होने लगी है तब से कहां जंगल और कैसा जंगल....। जहां तक हरियाली की बात है, कुछ लोग लगा तो रहे हैं लेकिन काटने वाले ज्यादा हैं लगाने वाले बेहद कम। वो जो शेखपुरा वाली पहाड़ी की बात कर रहे हैं ना आप...उंगली दिखाते हुए वो बोला--वहां कुछ लोग पेड़ लगा रहे हैं।
अभिजीत आश्वस्त हुआ। कुछ लोग तो हैं, जो जंगल की सोचते हैं। वह लौट पड़ा।
घर लौटा तो सूरज की शिफ्ट खत्म होने को आई थी। आंगन में भैया के साथ बैठा तो भाई साब ने कहा कि भाभी ने उसे सब कुछ बता दिया है और वह कहां जा रहा है और कब लौटेगा। उसने अपनी कमीज में से एक काग़ज़ निकाला, भाई साब को देते हुए जो कहा,उसका सारांश था कि विदेश जा रहा हूं तो पता नहीं कब लौटूं, या फिर लौटूं भी या नहीं, कुछ ठीक तो है नहीं। भाई साब तो उसके यायावर स्वभाव को जानते है ही। सोचा कुछ है उसे बेचने की बजाय दे दिया जाए। आपने मेरे पालन-पोषण पर जितना खर्च किया है, उतना तो शायद ही दे पाऊं लेकिन...इसी बीच चाय लेकर भाभी आ गई थीं।
चाय के दौरान ही अभिजीत ने अपनी कार की चाबी भाई साब के सुपुर्द कर दी थी। दिल्ली वाला अपना फ्लैट मां के नाम कर दिया था, जिसका किराया मां को हमेशा मिलता रहेगा। अपनी जमापूंजी में से कुछ लाख अपने लिए बचाकर सारी रकम भाभी के नाम कर दी थी।
भाभी का चेहरा खिल गया था। वही भाभी, सिर्फ दो घंटे पहले, जिनकी भाव-भंगिमाएं कुछ अलग थीं...अब कुछ और ही कहानी बयां कर रही थी। अभिजीत ने सोचा, मार्क्स सही कहते थे। वेल्थ इज द प्राइम मूवर.....लेकिन मां का चेहरा कुछ मुरझाने-सा लगा था। उसे कुछ खटक रहा था।
भाभी ने भैया को इसरार करके मछली लाने भेज दिया था बाजार। खुद खाने की तैयारियों में जुट गई थीं। अभिजीत ने कह दिया था वो रात को ही निकल जाएगा। रात दस बजे की ट्रेन से।
रात को जब अभिजीत निकलने लगा था तो अकेले में मां ने उसे पकड़ लिया, सच-सच बता, ये क्या कर रहा है तू। शादी कर ले घर बसा ले। ये विदेश क्यों जा रहा है कब लौटेगा.
मां, मैं सच में जा रहा हूं...
कहां...
पहले गांव जाऊंगा..
और उसके बाद...?
उसके बाद, अभिजीत ठठा कर हंसने लगा...उसके बाद..उसके बाद बाबूजी के पास जाऊंगा। इसके बाद अभिजीत हाथ छुड़ाकर आगे बढ़ गया। मां चुपचाप खड़ी रह गई।
------- क्रमशः