Tuesday, June 26, 2012

सुनो मृगांका:15: तन्हाईयां गुफ़्तगू करती हैं अक्सर...

अभिजीत के आंखों के आगे का अंधेरा छंटा, तो दर्द भी थोड़ा काबू में आता लगा। गाड़ी जसीडीह स्टेशन के बाद अजय नदी को भी पार कर चुकी थी। इस रास्ते से न जाने कितनी दफा गुज़रा है अभिजीत। सब कुछ पहचाना-सा, लेकिन फिर भी पराया-पराया।

जब पतरो नदी पार हुई तो गाड़ी अचानक तेज़ मोड़ पर बाईँ ओर मुड़ रही थी। झारखंड का पठारी टांड़...(उच्च भूमि) जिस पर बरसाती दिनों में घास के सिवा कुछ नहीं उगता। अप्रैल के आखिरी दिन वह घास भी जल गई थी।

अभिजीत कुछ सोच रहा था और यह सोच एक दृढ़-निश्चय की तरह उसक आंखों में आ बसा था।

वह घर पहुंचा तो उसके हाथों में मिठाई का एक डब्बे के सिवा और कुछ भी न था। गले में गमछा। लाल रंग का। भाभी ने देखा तो उनकी भाव-भंगिमाओं  से पता लग गया कि पांचेक साल बाद आए देवर के आगमन से उन्हें कोई खास खुशी हुई नही है। उनके शब्द और उनकी भाव-भंगिमाओं में कोई तारतम्य न था।

मां बीच के बड़े कमरे में दीवान पर बैठी पंखा झल रही थी। भाई साब स्कूल में थे। अभिजीत के नहाते-धोते भाभी ने खाना परोस दिया था।

मां ने पूछा था, कैसे आए इधर..काम से छुट्टी कैसे मिल गई। भाभी ने बताया कि अब अखबार में उसका कॉलम नहीं दिखता। अभिजीत ने बताया कि वह लगातार बाहर रहा है और साल भर के लिए बाहर जाने वाला है। विेदश।

मां ने एक बार फिर पूछा, किस देश

अभिजीत पेशोपेश में पड़ गया...जर्मनी।

क्यों..
रेडियो में नौकरी मिली है..जर्मनी का रेडियो है। अखबार छोड़ दिया है।

फिर इसके बाद कोई बात नहीं हुई। खाना खाकर अभिजीत बाहर निकल गया। दोपहर की धूप सीधे सिर पर पड़ रही थी। अब वह घर तभी वापस आने वाला था, जब भाई साहब लौट आएं। पढ़े लिखे आदमी हैं और एक हद तक अभिजीत को जानते भी हैं।

उसके अपने शहर में भले ही दुपहरी थी, लेकिन उसको सब कुछ अनजाना लग रहा था। सब कुछ बदल गया, घर के ठीक सामने का पोखरा पाटकर घर बना दिए गए थे। जब उसने शहर छोड़ा था, उसके दिमाग में वही सब तस्वीरें अब भी चिपकी थीं...हालांकि बीच में कई दफा वो घर आया भी था।

सामने के अहाते में से बांस के झुरमुट गायब हो गए थे, तबरेज़ के घर के पपीते के पेड़ भी खत्म हो गए थे...शंकर की दुकान के पीछे के अहाते में से यूकेलिप्टस का वो पेड़, जिसमें अभिजीत हमेशा कभी अनिल कपूर तो कभी हनुमान जैसी आकृतियां देख लिया करता...वह भी आरे की भेंट चढ़ चुका था।

आसपास के सारे पेड़ जिनसे उसकी दोस्ती थी, वक्त का आरा उनको काट कर गिरा चुका था। अभिजीत ने सोचा, देखे वक्त का आरा उसकी जिंदगी पर कब चलता है शायद....छह महीने...या उससे पहले। वक्त बहुत कम बचा है।

दिल्ली, मृगांका का कमरा, वक्त वहीं है...

वक्त बहुत कम बचा था। मृगांका जल्दी-जल्दी तैयार हो रही थी। उसे कल रात के बम धमाके में घायलों को देखने अस्पताल जाना था। राम मनोहर लोहिया अस्पताल...।

बिस्तर पर उसी की डायरी पड़ी थी। बीच में एक कलम था...वही पेज जिसे वो रात को पढ़ रही थी। उसने फिर से पढ़ना शुरु किया।

" द परपीचुअल पर्वर विदिन मी.....मेरे भीतर की वो शाश्वत व्यग्रता रोज़-ब-रोज़ अपने उतुंग शिखर की ओर बढ़ रही है। मेरे अंदर  तुम्हारा प्यार दिन-ब-दिन मेरी मानस संतान की तरह बढ़ रहा है--अपने अस्तित्व का आभास कराता हुआ, मानो अब वह बाहर ही निकलना चाहता हो। कभी कभी तो यह अहसास अलौकिक हो जाता है, कभी दुश्वार..कभी-कभी अपने आसपास हर चीज़ में तुम्हारे होने का अनुभव होता है , लगता है हर शै में तुम ही हो...तुम ही।

मैं तुम्हारी मौजूदगी को नकारना चाहती हूं, तुम्हारे इस पाश से निकलना चाहती हूं,लेकिन जितना ही मैं तुम्हारे अस्तित्व से इनकार करना चाहती हूं, तुम मेरे ही अंदर मजबूत होते जा रहे हो, जिसे मैं कभी दूर जाने की सोच भी नहीं सकती। मैं चाहती हूं कि तुम्हारे होने का यह अहसास ताजिंदगी मेरे अंदर रहे।

पता नहीं क्यों, तुम मुझे एक दूर के सपने की तरह लग रहे हो, डर लगता है कि शायद यह कभी पूरा नहीं होगा। पता नहीं क्यो... एक ऐसा सपना जिसे में अपनी उंगलियों के बीच फंसा कर हमेशा के लिए अपना बना लेना चाहती हूं...तुम्हे अपनी पलकों के बीच बसा लेना चाहती हूं...ताकि मैं तुम्हें और तुम्हारी याद को अपनी काजल से स्याह हुए आंखो में अगली सुबह को भी पा सकूं....मेरी आंखे...जो दुनिया भर के लिए आग्नेय हो सकती हैं,लेकिन  तुम जो हमेशा गुल-गपाड़ा मचाते हो, तो हल्ला-गुल्ला करते हो उसके सामने यह पता नहीं क्यों निर्निमेष हो जाती हैं...

पता है, मैंने पहले भी कहा है ना, जितना मैं तुम्हे बिसराना चाहती हूं, तुम्हारा अस्तित्व मेरे मन में एक वास्तविकता की तरह मजबूत और व्यापक होता जाता है..कुछ इस तरह जिसे में इनकार करना भी नहीं चाहती।''

(यह मृगांका की डायरी का हिस्सा है जो मूल रूप से अंग्रेजी में था, और जिसका हिंदी तर्जुमा करने की कोशिश लेखक ने की है)
मृगांका के सामने अभिजीत का पूरा अस्तित्व आकर खड़ा हो गया। ओह अभिजीत कितना प्यार करती हूं तुमसे..कहां हो तुम? मुझे पता है तुम मुझे सता रहे हो...आओ अभि..कहां हो अपनी सफेद कमीज़ में, पता नहीं कब से धुलने को बेताब जीन्स पेंट में...अपने ट्रेड मार्क लाल गमछे में।

मृगांका ने आगे पढ़ा, ''मेरे शब्द शायद कम पड़ जाएं, खत्म हो जाएं, मैं शायद आगे ना बढूं, कुछ भी न करूं, लेकिन  मैं अपने दिल को कैसे रोकूं...जो बार बार तुम पर ही आ रहा है। इसका कोई मतलब नहीं, कि मैंने तुम्हारे प्यार को रोकने के लिए  न जाने कैसी दीवार अपने चारों तरफ खड़ी करने की कोशिश की है, लेकिन हमेशा तुम्हारी यादें मेरे सीने में गरम भोथरे छुरे की तरह उतरती रहती हैं...और मैं असहाय खड़ी रह जाती हूं।

सच है कि मेरा दिल हर पल तुम्हारी हसरत में रहता है, मेरे लिए इससे बड़ी दिली आजादी और गौरव का कोई पल आ ही नहीं सकता.....हां ये सच है, वाकई सच है!!"

मृगांका ने डायरी बंद कर दी। उसे आलमारी पर रख कर और कार की चाबी उठाकर वह दरवाजे की तरफ भागी।

कहीं देर न हो जाए।


अभिजीत का गृहनगर, वक्त वही, दोपहर का, वक्त कहां सरकता है...

कहीं देर न हो जाए। अभिजीत सोच रहा है। शहर में नए किसिम की दुकाने खुल गईं है। छोटा सा कस्बा शहर के तेवर ले रहा है। सुना है नक्सलियों की आमद बढ़ गई है।  थाने के चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगाई गई है।

थाने को छोड़कर सब कुछ सुरक्षित है।

पानवाले ने पान लगाकर दिया। उंगलियों में सुलगी सिगरेट तब तक राख होने को आ गई थी। पानवाले ने पहचानने की कोशिश की थी। अभि भैया हो ना तुम....अभिजीत मुस्करा दिया, चलो, अनजाने हो चले शहर में तुमने तो पहचान लिया।

पानवाले से इस वायदे पर कि वह पेट्रोल डलवा देगा, अभिजीत ने उसकी मोटरसाइकल दो घंटे के लिए उधार ले ली। सब घूम आया। नदी के किनारे के जंगल, जो बहुत कम रह गए हैं। नदियों में ग्रेनाइट की चट्टानें...जंगल जितने थे...हरे तो नहीं थे। गरमी बहुत है, जीवन में भी मौसम में भी।

आगे श्मशान है। नगरपालिका ने विकसित किया है, नाम दिया है बैकुंठधाम। अब लोग श्मशान भी विकसित करने लगे हैं। पीपल के कुछ पेड़ बेहद बड़े हैं, कुछ बड़े हो रहे हैं। इसी श्मशान में अभिजीत के पिता की चिता चली थी।

एक चायवाले के यहां रुका, सोचा बस यहां से आगे ठीक नहीं होगा। मोटरसाइकिल भी लौटानी है। चायवाले के यहां रुकगया। उसने चायवाले से पूछ ही डाला, आखिर, जंगल कैसे कम होते गए भैया। पहले तो बहुत होते थे यहां थे। मैंने तो सोचा था उधर आगे वाली पहाड़ी जो उजाड़ हो गई है उसे हरियाली से भर दूंगा। लेकिन...कटते-कटते तो जंगल कहां चले गए  हैं, पता ही नहीं लगता।

चायवाले ने कहा, इधर पत्थर की खुदाई होने लगी है तब से कहां जंगल और कैसा जंगल....। जहां तक हरियाली की बात है, कुछ लोग लगा तो रहे हैं लेकिन काटने वाले ज्यादा हैं लगाने वाले बेहद कम। वो जो शेखपुरा वाली पहाड़ी की बात कर रहे हैं ना आप...उंगली दिखाते हुए वो बोला--वहां कुछ लोग पेड़ लगा रहे हैं।

अभिजीत आश्वस्त हुआ। कुछ लोग तो हैं, जो जंगल की सोचते हैं। वह लौट पड़ा।

घर लौटा तो सूरज की शिफ्ट खत्म होने को आई थी। आंगन में भैया के साथ बैठा तो भाई साब ने कहा कि भाभी ने उसे सब कुछ बता दिया है और वह कहां जा रहा है और कब लौटेगा। उसने अपनी कमीज में से एक काग़ज़ निकाला, भाई साब को देते हुए जो कहा,उसका सारांश था कि विदेश जा रहा हूं तो पता नहीं कब लौटूं, या फिर लौटूं भी या नहीं, कुछ ठीक तो है नहीं। भाई साब तो उसके यायावर स्वभाव को जानते है ही। सोचा कुछ है उसे बेचने की बजाय दे दिया जाए। आपने मेरे पालन-पोषण पर जितना खर्च किया है, उतना तो शायद ही दे पाऊं लेकिन...इसी बीच चाय लेकर भाभी आ गई थीं।

चाय के दौरान ही अभिजीत ने अपनी कार की चाबी भाई साब के सुपुर्द कर दी थी। दिल्ली वाला अपना फ्लैट मां के नाम कर दिया था, जिसका किराया मां को हमेशा मिलता रहेगा। अपनी जमापूंजी में से कुछ लाख अपने लिए बचाकर सारी रकम भाभी के नाम कर दी थी।

भाभी का चेहरा खिल गया था। वही भाभी, सिर्फ दो घंटे पहले, जिनकी भाव-भंगिमाएं कुछ अलग थीं...अब कुछ और ही कहानी बयां कर रही थी। अभिजीत ने सोचा, मार्क्स सही कहते थे। वेल्थ इज द प्राइम मूवर.....लेकिन मां का चेहरा कुछ मुरझाने-सा लगा था। उसे कुछ खटक रहा था।

भाभी ने भैया को इसरार करके मछली लाने भेज दिया था बाजार। खुद खाने की तैयारियों में जुट गई थीं। अभिजीत ने कह दिया था वो रात को ही निकल जाएगा। रात दस बजे की ट्रेन से।

रात को जब अभिजीत निकलने लगा था तो अकेले में मां ने उसे पकड़ लिया, सच-सच बता, ये क्या कर रहा है तू। शादी कर ले घर बसा ले। ये विदेश क्यों जा रहा है कब लौटेगा.

मां, मैं सच में जा रहा हूं...

कहां...

पहले गांव जाऊंगा..

और उसके बाद...?

 उसके बाद, अभिजीत ठठा कर हंसने लगा...उसके बाद..उसके बाद बाबूजी के पास जाऊंगा। इसके बाद अभिजीत हाथ छुड़ाकर आगे बढ़ गया। मां चुपचाप खड़ी रह गई।


------- क्रमशः

Saturday, June 23, 2012

गैंग्स ऑफ़ वासेपुरः जियअ हो बिहार के लाला

गैंग्स ऑफ वासेपुर के प्रोमो देखकर कसम खाई थी कि फिल्म पहले ही दिन देखूंगा। देखी...और क्या दिखी। वाह। बहुत दिनों बाद फिल्म देखकर मजा आ गया।

अनुराग कश्यप की सभी फिल्में देखीं है। लेकिन संयुक्त बिहार या अब के झारखंड के अतीत गुंडई, लुच्चई, कमीनेपन को इस तरह किसी ने उभारा नहीं था। अपनी पहली रिलीज़ फिल्म ब्लैक फ्राइडे की तरह ही अनुराग ने एक बार फिर डॉक्यु-ड्रामा रच दिया है।

बदलते हुए लेंस, और पीय़ूष मिश्रा की कमेंट्री इस फिल्म को ऑथेंटिक बनाती है।

दरअसल, फिल्म का महीन रिसर्च इसे इस सब्जेक्ट पर बनी तमाम फिल्मों से जुदा जमीन पर खड़ी करती है। गैंग्स...को सिर्फ माफिया फिल्म समझना भूल होगी..और सिर्फ अपराध फिल्म भी नहीं है ये..ये बिहार में माफिया और राजनीति और कोयला खदानों की गड़्मड़ होती स्थितियों की कथा है।

जैसे ही आप किरदारों से रू-ब-रू होते हैं...आप उफ़-उफ़ करते जाते हैं। आपको सरदार खान हमेशा याद रह जाएगा, जो केन्द्रीय चरित्र तो है लेकिन वह नायक की शास्त्रीय परिभाषा में कहीं नहीं आता। वह लौंडियाबाजी करता है, ठरकी है, और तमाम किस्म का हरामीपना है उसके अंदर। फिर भी वह आपको मोहित करता है।

गज़ब की डिटेलिंग वाली फिल्म है गैंग्स...
माफिया के किरदार में मनोज वाजपेयी कई दफा आ चुके हैं। और सत्या का उनका किरदार भीखू म्हात्रे अब भी लोगों को याद है। लेकिन इस दफा उनके किरदार के रंग गजब के हैं...और विविध भी।

गैंग्स आफ वासेपुर एक राजनीतिक दस्तावेज़ है। लेकिन पहले सेंसर बोर्ड का शुक्रिया अदा करना नहीं भूलना चाहिए, कसाईखाने के बड़े-बड़े मांस के लोथड़ों के शॉट्स आपराधिक मिथक रचते हैं...

अनुराग कश्यप ने देश-काल (टाइम और स्पेस) में इतनी बारीकी बरती है कि दिल खुश हो जाता है, अगली दफा मिलेंगे कभी तो हाथ चम लूंगा। लेंस,  लाइटिंग, शेड्स,धूल,बाल ....क्या कंटीन्यूइटी है।

अस्पताल के दृश्य में लालटेन की रौशनी..उफ़, दिल लूट दिया गुरू।

और बात जरा डिटेलिंग की। आम तौर पर बिहार की भाषा को परदे पर लाने में बहुत हल्केपन से काम लिया जाता है। लेकिन इस काम में अनुराग उस्ताद हैं। यहां तक कि लौंडा गायक बने यशपाल शर्मा के गाने में (मुकद्दर का सिकंदर का गानाः यशपाल पहले सलामे इश्क़ मेरी जां...को लड़की की महीन आवाज में गाते हैं...कुछ इस तरह, सलामे इस्क मेरी जां जरा कूबूल कर लो...फिर किशोर की आवाज़ में गाते हैं...तू मसीहा मुहब्बत के माड़ो का है...गौरतलब है कि बिहार में 'र' को 'ड़' भी उच्चारित किया जाता है। अद्भुत इसी को तो कहते हैं। वरना बॉलिवुडिया तमाशे वाले तो बिहार के किरदार को दूधवाला या लाल मोजे पहना विलेन बना कर इतिश्री मान लेते थे।

डिटेलिंग उस वक्त मारक हो जाती है जब सवारी बिठाने के लिए मनोज, गिरिडिह- गिरिडिह बोलते हैं। नल्ला चूसते हैं, लड़की को कमीनगी से  ताकते हैं। उनकी कमीनगी भरी मुस्कुराहट पर आप न्योछावर हो जाएंगे।

सरदार और औरतों के बीच के रिश्तों के अलग से व्याख्या की जरूरत पड़ेगी। सरदार की पत्नी और उसके संरक्षक (पीयूष मिश्रा) के बीच जो संबंध होते होते रह गया और उससे जो फैज़ल पर असर पड़ा, वहीं से फैज़ल का किरदार शुरु होता है।

फिल्म में अगर महिला किरदारों की चर्चा न की जाए तो गलत होगा। नगमा या दुर्गा के किरदार संपूर्णता लिए हैं। दोनों ताकतवर है, एक  घर बार छोड़ कर बंगालन के प्रेम में पड़ने वाले रंडीबाज पति को भी खाना खिलाकर ताकतवर बनाती है, और घर आए पुलिसवालों के साथ सख्ती से निपटती है। दूसरी, सरदार से झापड़ खाकर उसके लिए अपने दरवाजे बंद कर लेती है और सैमसन और डेलिला कहानी की डेलिला की तरह अपने प्रेमी सरदार की मौत का कारण बनती है।


महिलाओं के किरदार सच में बहुत ताकतवर है। और दोनों किरदारों में उतरी अभिनेत्रियों ने भी कमाल का अभिनय किया है।
फिल्म की महिला किरदार जानदार हैं
'इक बगल में चाँद होगा' से 'कह के लूंगा' तक ‘वासेपुर का संगीत उसकी आत्मा है, जिसके बिना फ़िल्म मुमकिन नहीं थी। मनोज वाजपेयी इसलिए कि अपने किरदार की कमीनगी में इतना उतरते हैं कि आपको बार-बार बेहद विकर्षित करते हैं, लेकिन बस इतना ही कि जब वे अपना बदला ले रहे हों तो आप उनके बिल्कुल साथ खड़े हों।


पूरी फिल्म में भोजपुरी बिरहा और बिदेसिया का सटीक इस्तेमाल है। आप पार्श्व संगीत के तौर पर बिहार के लोकगीतनुमा संगीत से दो-चार होते हैं और आपको लगने लगता है कि वाह इतना ऑथेंटिक तो बॉलिवुड कभी था ही नहीं।
एक दम से रीयल दृश्य, दिल को गुदगुदाने वाले संवाद..क्योंकि बचपन से हम ऐसी ही भाषा सुनते हुए बड़े हुए हैं। देखे-सुने जानेपहचाने लोकेशंस..बनारस, बरकाकाना का स्टेशन...फिल्म को देखकर लगता ही नहीं कि फिल्म देख रहे हैं।
हां, शुरु में भूंजे की तरह गोलियां चलती हैं तो आपको शुरुआत में ही असहज कर देती है। लेकिन फिर धीरे-धीरे आप अनुराग पर भरोसा कर के सीट पर पीठ टिका कर बैठते हैं...और एक दम यथार्थ सिनेमाई तजुर्बे से वाकिफ होते जाते हैं।
अगर आप को इऩ सबसे यानी सच्चाई, यथार्थ, कमीनेपन, हरामीपन, डकैती, बकैती, लौंडियाबाजी, रंडीबाज़ी...बम, कट्टे, कोयले, राजनीति, दंगई, खून वगैरह से डर लगे या उबकाई आती हो, या नफरत हो तो बेशक ये फिल्म न देखने जाएं। आपके लिए बेशक एक और फिल्म रिलीज़ हुई है, जिसमें शाहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा प्रेम-व्रेम को उसी मसाला अंदाज़ में दोहरा रहे होंगे, जो दशकों से हम आप बेहतर तरीके से परदे पर देख चुके हैं।
गैंग्स ऑफ वासेपुर, सिनेमाई जादू है। यथार्थ और कला का मेल...आखिर में सभी किरदारों के साथ और जिअ हो बिहार के लाला में मनोज तिवारी की लय पर सिर्फ  ठेले पर लटकता हुआ माउजर याद रह जाता है। जिसमें पहिए के बीचों बीच एक गोली छूटती है -- धांय।

Thursday, June 21, 2012

सुनो मृगांका:14: मैं कभी न मुस्कुराता, जो मुझे ये इल्म होता...

मैं कभी न मुस्कुराता जो मुझे ये इल्म होता कि हजारों ग़म मिलेंगे। मेहदी हसन की गाई इन पंक्तियों को याद करता हुआ अभिजीत प्लेटफॉर्म पर बैठा रहा। दारू धीरे-धीरे असर कर रही थी।

सुबह जब उसकी नींद खुली तो गाड़ी जमुई पार कर चुकी थी। माटी का रंग धीरे-धीरे गहरा होता जा रहा था...भूरेपन से पीले पन की ओर और फिर मिट्टी का रंग खूनी लाल हो गया। अभिजीत ने आंखें मलते हुए देखा...किसके दिल का खून है ये।

झाझा स्टेशन से पहले से ही दुनिया की सबसे खराब चाय की रट लगाता हुआ वही चाय वाला आ गया। अभिजीत इस आवाज़ को बचपन से पहचानता है...अब उस चाय वाले की उमर भी ढल गई है। कहता है कि वह सबसे खराब चाय बेचता है लेकिन दरअस्ल उसकी चाय होती बेहतरीन है।

टी-बैग वाली चाय पी-पीकर ऊब चुके अभिजीत को मिट्टी के कुल्हड़ में चाय पीने की जोर की इच्छा हुई। चाय ढलते ही कुल्हड़ सोंधी खुशूबू से भर गया। ओह...मिट्टी की खुशबू। रास्ते में झालमुड़ी, चिनियाबादाम (मूंगफली) और तमाम किस्म के सामान बिकने आए। झाझा स्टेशन का तीखा-चरपरा आलू दम तो बहुत मशहूर है।

झाझा से गाड़ी चली तो कागज के दोने में चना-मसाला खाते हुए अभिजीत ने खिड़की की ओर देखा। तीखी धूप में दोनों तरफ घाटियों में पलाश के फूल खिले हैं। झाझा से आगे जसीडीह कर रेल लाईन तीखी चढ़ाई चढ़ती है, अभिजीत की खुद की जिंदगी की तरह। रेलवे पटरी के दोनों तरफ घने जंगल हैं...और गहरी घाटियां हैं।

गहरी घाटियों की वजह से नजर दूर तलक चली जाती हैं। टेसू या कहें पलाश के सारे पत्ते इस वक्त गिर जाते हैं और उसकी काली-गहरी शाखाओं पर सिर्फ लाल-पीले फूल नजर आते हैं। लगता है जंगल में आग लग गई हो।

दिल की आग को जंगल की आग में बदलते देखना...उफ़्...मृगांका मैंने तुमसे वायदा किया था कि मैं कभी तुम्हें पलाशों के इस दहकते जंगल का नजारा कभी दिखाऊंगा जरूर।

लेकिन किए गए वायदे कभी पूरे नहीं होते। अभिजीत की जिंदगी में पता नहीं मृगांका वापस आए भी या नहीं...और कभी आना भी चाहे तो अभिजीत जानता है...छह या सात महीने। ज्यादा वक्त नहीं अभिजीत के पास।

अभिजीत की निगाहें उस जंगल पर जम सी गईं। लगा सारा जंगल पीछे को भाग रहा है...और ट्रेन स्थिर है। पेट में तेज़ दर्द...उफ़ ये दर्द। अभिजीत ने कुछ ठान लिया था मन में। सिर्फ मृगांका की याद में देवदासत्व ओढ़ने से काम नहीं चलेगा।

प्रेम में घुटते रहने से क्या होगा। कुछ ऐसा किया जाए कि मृगांका को उस पर गर्व हो...उसके नहीं रहने पर भी, और मृगांका चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हो। उसे लग रहा था कि मृगांका चाहे उसे अब प्यार करती हो न हो...लेकिन वह कहीं न कहीं से उसे देख जरूर रही होगी। चाहे जहां रहे खुश रहे वो, अभिजीत यही तो चाहता था। उसका पेट दर्द बढ़ता ही जा रहा था...कुछ इस कदर की उसकी आँखें खुद ब खुद मुंदती चली गईँ।

लगा चारों तरफ अंधेरा छा गया हो।

दिल्ली, अभिजीत का घर, अतीत का कोई दिन

काफी इसरार करने के बाद जब अभिजीत मृगांका को अपना घर दिखाने को राजी हुआ तो उस दिन बेहद तेज बारिश हो रही थी। बादल लगता था सारे के सारे , आज ही बरस लेंगे। अभिजीत एनसीआर के यूपी वाले हिस्से में रहता था और वहां बिजली का आना उत्सव का कारण बनता था।

अभिजीत ने दरवाज़ा खोला तो पहले तो मृगांका को बाहर ही रोक दिया। घर का कोई भी सामान अपने सही जगह पर नहीं था। जुराबें बिस्तर पर, बिस्तर पर अखबारों के ढेर...जूते टीवी टेबल के ठीक सामने...डीवीडी प्लेयर पर रखा कंघा...प्रिज पर चाय के तमाम जूठे कप...बस किताबों की आलमारी सजी थी।

घर के हर कोने में सिगरेट के टोटे फिंके पड़े थे। मृगांका मुस्कुरा उठी। ऐसे रहते हो...?

अरे नहीं, कामवाली नहीं आई बहुत दिनों से न...अभिजीत सिर खुजलाने लगा। प्रशांत उसके साथ ही रहता था..उसी के फ्लैट में। लेकिन दस दिनों से वो भी नहीं था।

मृगांका ने गहरा नीला कुरता पहना था जिसपर सुनहरे त्रिकोण के डिजाइन बने थे। उसे पता है अभिजीत को उसकी ये ड्रेस बहुत पसंद है। साथ में हल्के पीले रंग का दुपट्टा। हमेशा की तरह मृगांका होठ दबाकर मुस्कुराई।

दस मिनट के अंदर कमरे में झाड़ू-पोंछा लग गया। अखबारों को सहेज दिया गया। कूड़ेदाने के लायक चीजें कूड़ेदान में पहुंच गईं। चाय बनकर अभिजीत के सामने थी। एश ट्रे चमचमा गई थी। कोने में सजाकर रखी गईं ह्विस्की और बीयर की बोतलों को भी एक कार्टन में बंद कर बालकनी में रख दिया गया।

मृगांका ने देखा, और कुछ हो न हो, अभिजीत ने पौधे ढेर सारे लगा रखे थे--"तुम्हें पेड़-पौधों से बहुत लगाव है?"
"हां, पेड़ पौधे कभी दगा नहीं देते...इनको रूपयों-पैसों का भी लालच नहीं।"---मृगांका उसका मुंह देखती रह गई।

अभिजीत का मुंह कसैला हो गया था।

उस रोज़ मृगांका ने अभिजीत के लिए रात का खाना बना दिया। अभिजीत कुछ लिख रहा था और मृगांका से उसने बैठे-बैठे ही पूछा था, मेरा ये छोटा घर पसंद आया तुम्हें। तुम तो उतने बड़े हवेली जैसे मकान में रहती हो...यहां दो कमरों के फ्लैट में कैसे रह पाओगी। न खुली हवा, न लॉन...न बड़ी डिजाइनर रसोई...

मृगांका आकर उसके पास बैठ गई, तुम रहोगे न यहां...मेरे साथ? बस इतने में ही मृगांका ने बहुत कुछ कह दिया था।

पैसा सब कुछ नहीं होता अभिजीत। वह जीने के लिए जरूरी है, लेकिन वह नंबर एक पर नहीं है प्राथमिकताओं की सूची में। जीने के लिए जिंदगी चाहिए...और मेरे लिए जिंदगी हो तुम। हम दोनों मिलकर इतनातो कमा ही लेंगे कि ठीक-ठाक गुजर बसर कर लेंगे।

...और तुम्हारे पापा मम्मी?

वो लोग तुम्हें पसंद करते हैं।

कैसे, कब उन्होंने तो मुझे देखा तक नहीं।

तुम भी न भोले शंकर हो अभि। ये जमाना कहां से कहां पहुंच गया और तुम अब भी टाइपराइटर बने हुए हो। फेसबुक पर तुम्हारी फोटो मैंने घर में सबको दिखा दी है। और अखबार में तुम्हारे साप्ताहिक कॉलम के तो सारे कटिंग पापा और मम्मी पढ़ चुके हैं।

अभिजीत चकित रह गया। उसे हैरत हो रही थी कि उसकी जिंदगी में भी स्वीकार्यता के ऐसे बेशकीमती क्षण आएंगे, जहां उसके लिखे हुए शब्द उसकी पहचान बन जाएंगे। जहां, उसे इस तरह से प्यार मिलेगा वो भी मुलायमियत के साथ....ग़ोकि उसकी जिंदगी में मुलायम लम्हे कम ही आए थे अब तक।

अभिजीत के चेहरे पर एक मुस्कुराहट खेल गई। मृगांका ने जाते-जाते एक हल्का सा किस किया था उसके माथे पर। लगा जैसे उसकी जीवन भर की साध पूरी हो गई।

उस नरम चुंबन की छाप अब तक है अभिजीत के माथे पर। वह मखमली अहसास...वो प्यार का गुनगुनापन। इसमें कुछ वैसी ही मासूमियत थी जैसे किसी बच्चे के माथे पर कोई हल्का सा प्यारा सा चुम्मा लेता है।



क्रमशः


Monday, June 18, 2012

दाढ़ी महात्म्यः हिस्ट्री-पॉलिटिक्स-सोशियोलजी

दाढ़ी केवल फिजिक्स-केमेस्ट्री-बॉयोलॉजी नही , हिस्ट्री-पॉलिटिक्स-सोशियो भी है...

बचपन में हीर-रांझा देखी थी , बेतरतीब-भगंदर टाइप दाढ़ी में राजकुमार जंगल झाड़ सूंघते-सर्च करते दिख रहे थे। लगा दाढ़ी प्रेम का पागलपन है। बैकग्राउंड से ह्रदय छीलती दर्दीली ध्वनि अविरल झरझरा रही था – “ये दुनिया , ये महफिल मेरे काम की नही… “। फिर कुछ दिनों बाद लैला-मंजनू देखी , चॉकलेटी रिषी कपूर सफाचट का इंतजार करते थक चु...की दाढ़ी ओढ़े पत्थर झेल रहे थे। रंजीता के लाख मनुहार के बावजूद पत्थर थे कि उछलते ही जा रहे थे , रंजीता की दर्द भरी आवाज अगल-बगल छोड़ काल और चौहद्दी से परे ऑडिएंस को भावुक किए जा रही थी – “कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को”। अब शक के कीड़े को मानो रिवाइटल का डोज मिल गया , विचार पुख्ता हो गया –दाढ़ी प्रेम की परिणति-परिणाम है।

कुछ साल पहले एक मित्र से मुलाकात हुई , करीब साल भर बाद। हमलोग बीते साल के अनुभव गाहे-बेगाहे उछाल रहे थे। वो एलएसआर पढ़ाने के सिलसिले में गया था … और गंवई भाषा में कहे तो छौरा-छपाटा समझ कर चलता कर दिया गया। एंट्री में ही तमाम पापड़ों से पाल पड़ गया उसका। कन्याओं की तो छोड़िए , गार्ड से भी तव्वजो न मिली। अनुभवियों और पके-पकाये , तपे-तपायों से प्रीसक्रिप्शन मिला- 1.मोटे फ्रेम का चश्मा 2. बढ़ी हुई दाढ़ी । दाढ़ी उसके लिए छात्र से शिक्षक के सफर का संवाद-तन्तु साबित हुई । अब रिस्पेक्टपुल हो गया है , इंटेल दिखने लगा है , था तो खैर बचपन से ही। लगा दाढ़ी मजबूरी है।

बीएचयू में पढ़ाई के दौरान एक शख्स से मुलाकात हुई- जहीन, नवीन , आधुनिक ... कमी केवल एक ही। सुबह से लेकर शाम-रात तक चांद हर समय उसके सर पर घोंसला बनाए मिलती। महोदय हर अगली सुबह दाढ़ी के नए ज्यामितिय रुप के साथ अवतरित होते – त्रिभुजाकार , वृत्ताकार , अर्धवृताकर ... दाढ़ी मुझे `अभाव के बीच मेरे प्रयोग` टाइटल आत्म-संस्मरण की विषयवस्तु सी लगी।

डीयू में अध्ययनरत था तो रिसर्च मेथोडोलॉजी की योगेंद्र यादवीय पड़ताल का ज्ञान लेने साऊथ कैंपस जाना हुआ। उन्होंने एक बात बतायी जो कमोबेश `ऑल दैट ग्लीटर्स इज नॉट गोल्ड` के उलट टाइप लगी। बातों-बातों में उन्होंने एक बात बतायी कि बढ़ी हुई दाढ़ी और झोला लटकाए पाए जाने सज्जनों की अच्छी-खासी संख्या लेफ्टिस्ट लीनिंग वाली होती है। दाढ़ी मुझे विचारधारा का आकार लेती नजर आयी।

आजकल मुझे रोजाना फ्रेंचकटीय फुफेरे भाई से दो-चार होना पड़ता है। मेरा फ्लैट पार्टनर भी है। खांटी देहात से आईआईटी के बीच इसकी दाढ़ी ने भी न जाने कितने आकार बदले। दाढ़ी मुझे ग्रोथ की अनेकानेक भाव-भंगिमाओं में से एक लगी।

सच कहूं तो दाढ़ी मुझे किसी बहुरुपिए से कमतर नही लगता। दाढ़ी धर्म भी है , दाढ़ी समाज भी है , दाढ़ी कम्यूनल भी है , दाढ़ी सेक्यूलर भी है । पता नही क्यों लेकिन मैं अक्सर पाता हूं कि सिखों और हिंदू टाइप दाढ़ी तो पुलिस-सेना में `लोगों` की नजरें एडजस्ट कर लेती है , लेकिन मुसलमानों टाइप दाढ़ी पर यही नजरें सवाल करती नजर आती है।

अन्त में यही कहूंगा कि दाढ़ी विज्ञान ही नही समाजविज्ञान की विषय-वस्तु भी है। ये सरकारी और निजी ऑफिसो , लॉनों , गार्डनों में उग आया घास नही , जिस पर माली हर सुबह-शाम कतर-ब्यौंत करता है , यह जीवनधारा भी है।

----रजनीश प्रकाश (रजनीश प्रकाश के फेसबुक स्टेटस से बिना उन्हे आभार दिए छाप दिया है) 

Sunday, June 17, 2012

डियर डैड...एक खत दिवंगत बाबूजी के नाम

डियर डैड,
सादर प्रणाम,

कहां से शुरु करुं...आज से ही करता हूं।

आज अंग्रेजी के एक अख़बार के पहले पन्ने पर बिस्किट के एक ब्रांड का विज्ञापन है। विज्ञापन कुछ नहीं...बस एक खाली पन्ना. जिसमें एक चिट्ठी लिखी जा सकती है। अपने पिता के नाम....पीछे एक पंक्ति छपी है, कोई भी पुरुष बाप बन सकता है, लेकिन पिता बनने के लिए खास होना पड़ता है (मैंने नजदीकी तर्जुमा किया है, मूल पाठ हैः एनी मैन कैन बी अ फ़ादर, इट टेक्स समवन स्पेशल टू बी डैड)

मुझे नहीं पता, कि फ़ादर, डैड और पापा में क्या अंतर है। मुझे ये भी नहीं समझ में आता कि आखिर बाबूजी (जिस नाम से हम सारे भाई-बहन आपके याद करते हैं) पिताजी और बाकी के संबोधनों में शाब्दिक अर्थों से कहीं कोई फ़र्क पड़ता है क्या। क्या बाप पुकारना डेरोगेटरी है?

लेकिन बाबूजी, बाजा़र कहता है कि डैड होने के निहितार्थ सिर्फ फ़ादर होने से अधिक है। आप होते तो पता नहीं कैसे रिएक्ट करते और मेरी इस चिट्ठी की भ्रष्ट भाषा पर मुझे निहायत नाकारा कह कर शायद धिक्कारते भी। लेकिन बाबूजी, आपको अभी कई सवालों के जवाब देने हैं।

आपको उस वक्त हमें छोड़कर जाने का कोई अधिकार नहीं था, जब हमें आपकी बहुत जरूरत थी। जब हमें अगले दिन की रोटी के बारे में सोचना पड़ता था, आपको उस स्वर्ग की ओर जाने की जल्दी पड़ गई, जिसके अस्तित्व पर मुझे संशय है।

मां कहती है, कि आपके गुण जितने थे उसके आधे तो क्या एक चौथाई भी हममें नहीं हैं। आप ही कहिए बाबूजी, कहां से आएंगे गुण? दो साल के लड़के को क्या पता कि घर के कोने में धूल खा रहे सामान दरअसल आपके सितार, हारमोनियम, तबले हैं, जिन्हें बजाने में आपको महारत थी। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी...कि कागज़ों के पुलिंदे जो आपने बांध रख छोड़े हैं, उनमें आपकी कहानियां, कविताएं और लेख हैं।... और उन कागज़ों का दुनिया के लिए कोई आर्थिक मोल नहीं। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी कि आपने सिर्फ रोशनाई से जो चित्र बनाए, उनकी कला का कोई जोड़ नहीं।

बाबूजी, दो साल का लड़का जब बड़ा होता गया, तो उसका पेट भी बढ़ता गया। उसकी आँखों के सामने जब सितार, हारमोनियम तबले सब बिकते चले गए, कविता वाले कागज़ों के पुलिंदे और उसके बाबूजी के बनाए रेखा-चित्र दीमकों का भोजन बनते चले गए, तो बाबूजी ये गुण कैसे उसमें बढ़ेंगे।

मां कहती है, कि आप बहुत सौम्य, सुशील और नम्र आवाज़ में बातें करते थे। बाबूजी, मैं आपके जैसा नहीं बन पाया। मां कहती हैं मैं अक्खड़ हूं, बदतमीज हूं, किसी की बात मानने से पहले सौ बार सोचता हूं...बाबूजी अभी तो आप ऊपर से झांक कर सब देख रहे होंगे...जरा बताइएगा मैं ऐसा क्यों हूं?

बाबूजी जब आप इतने गुणों (अगर सच में गुण हैं) से भरकर भी एक आम स्कूल मास्टर ही बने रह गए, तो हम से मां असाधारण होने की उम्मीद क्यों पाले है? उसकी आंखों का सपना मुझे आज भी परेशान करता है। बाबूजी मां को समझाइए, आप जैसे आम आदमी के हम जैसे आम बच्चों से वो उम्मीद न पाले। उससे कहिए कि वो हमें नालायक समझे।

डियर डैड, ये संबोधन शायद आपको अच्छा नहीं लग रहा होगा। आज फादर्स डे है, कायदे से तो एक गुलदस्ता लेकर मुझे उस जगह जाना चाहिए था, जहां आपकी चिता सजाई गई थी, या उस पेड़ के पास जहां आपकी चिता के फूल चुनकर हरिद्वार ले जाने से पहले रखे गए थे। लेकिन बाबूजी, आपको याद करने के लिए मुझे किसी फादर्स डे या आपकी पुण्यतिथि, या मेरे खुद के जन्मदिन की जरूरत नहीं है। आप मेरे मन में है।

बाबूजी, मरने के लिए बयालीस की उम्र ज्यादा नहीं होती। उस आदमी के लिए तो कत्तई नहीं, जिसका एक कमजोर सा बेटा सिर्फ दो साल का हो, और बाद में उस कमजोर बेटे को समझौतों से भरी जिंदगी जीनी पड़ी हो। जब सारी दुनिया के लोग अपने पिता की तस्वीरें फेसबुक पर शेयर करते हैं, तो मुझे बहुत शौक होता था कि आप होते तो...बाबूजी मुझे पता है कि आप होते तो, जेठ की जलती दोपहरी में ज़मीन पर नंगे पांव नहीं चलना होता मुझे...आप मेरे पैर अपनी हथेलियों में थाम लेते।

आपको बता दूं बाबू जी, आपके निधन के कुछ महीनों बाद ही लोगों ने हम पर दया दिखानी शुरु कर दी थी...मुहल्ले वाली मामी ने जूठी दूध का गिलास भी देना चाहा था...मुझे पता है बाबूजी, आप होते तो किसी कि इतनी हिम्मत नहीं होती। अब तो आप जान गए होंगे न कि क्यों इतना अक्खड़ हो गया है आपका वो कमजोर दिखने वाला बेटा।

आप चले गए, नाना जी ने रुआंसा होकर कहा था उनकी उतनी ही उम्र थी। मैं नहीं मानता...आपको इस कदर नहीं जाना चाहिए था...चिलचिलाते जेठ में, ऐसे लू वाले समाज में आप छोड़ गए हमें...क्यों बाबू जी?

मुझे बहुत शिकायत है बाबूजी, बहुत शिकायत है....

आपका बेटा
(आज्ञाकारी नहीं , कत्तई नहीं)

Saturday, June 16, 2012

जंगल, बारिश, सम्मोहन और भूलभुलैया

मध्य प्रदेश के जिस इलाके में हूं, जंगल अपने शबाब पर है। इलाका अर्ध-शुष्क है। राजस्थान नजदीक है। यहां के जंगल भूगोल की भाषा में उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों में आते हैं। जब हम जंगलों से मिलने गए तो ज्यादातर पेड़ों ने अश्लील तरीके से कपड़े उतार रखे थे।

नहीं, अश्लील नहीं। शायद, वनवासी ऐसे ही रहते हैं। कूनो पालपुर के जंगल ठूंठ से खड़े हैं। एक अदद बारिश का इंतजार था उनको।


कूनो पालपुर के जंगल में, फोटोः नीलेश कालभोर

जमीन पथरीली है। खेती अनाथ है।

हम श्योपुर और शिवपुरी के बीच में हैं। सुना है रणथंबौर से टी-38 नाम का बाघ टहलता हुआ इधर आ गया है। कूनो नदी के आसपास होगा, हम उसकी एक झलक पाने को बेताब हैं। वन अधिकारी बता रहे हैं कि जंगल में तेंदुए हैं, भालू हैं, लकड़बग्घे हैं...सांभर, चीतल और मृग खानदान के सारे जानवर हैं (बारहसिंघे को छोड़कर) हमें शाकाहारी जानवर तो खूब मिले लेकिन मांसाहारी जानवर दिखे नहीं थे। (वो दिल्ली शिफ्ट हो गए हैं ऐसा मुझे एक गाइड ने बताया, हालांकि ये बात उसने हमें मुस्कुराते हुए  कही...अलबत्ता बात एक हद तक सही थी)

हमें एक तेंदुआ शिकार करता हुआ दिख गया। 47 डिग्री सेल्सियस के तापमान में गले में लाल गमछा लपेट कर और उबला हुआ पानी घूंटो में भरते हम कुछ और जीव देख लेने की उम्मीद में थे तभी हमें पहले एक सियार दिखा। सियार के किनारे एक गिद्ध भी दिखा।

गिद्ध भी विलुप्तप्राय जीवों की श्रेणी में है। बचपन में हमने बहुत देखे थे, लेकिन अब यहां उसे देखना सुकूनबख्श था। अचानक झाडि़यो में एक हिरन के छौने के पीछे हमने तेंदुआ भी देख लिया। कैमरे कि क्लिक अनवरत चलने लगी। शटर  की आवाज़ के सिवा कोई और आवाज़ नहीं।

हम सब बहुत खुश थे। सिर्फ एक बाघ को खोज पाना, वो भी 348 वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल में...नामुमकिन है। हम तेंदुआ देखकर ही खुश थे। हां, जैसे-जैसे शाम होती गई...मृग परिवार हमें ज्यादा दिखे। मैदान में। गायें भी बहुत थीं, लगा इन गायों को यहां के भावी राजाओं (सिंहों) के भोजन के लिए ही पालपोस कर बड़ा किया गया है।

हम श्योपुर से कूनो की तरफ बढ ही रहे थे कि रास्ते में बूंदा-बांदी ने स्वागत किया। धीरे-धीरे बारिश जोर पकड़ती गई।

लगा विधवा जंगल की मांग किसी ने भर दी। लगा कि जिंदगी लौट आई। लगा कि अपने साजन के इंतजार में सूनी आंखों से निहारते जंगल का सजन लौट आया और उसने हुमक कर जंगल को आलिंगन में कल लिया हो।

मेरे मित्र नीलेश जी को कविता सूझने लगी। मेरे मन में अब भी पथरीला जंगल बसा था। उसका भी एक अग सौंदर्य है। बारिश से अघाए जंगल और जून की तपती-कड़क धूप में तने हुए जंगल के एटीट्यूड में अतर होगा ना। मुझे एटीट्यूड वाला जंगल पसंद आय़ा।

लड़ता हुआ जंगल, सहता हुआ जंगल अच्छा होता है।

बारिश गुजर गई तो एक अन्य मित्र अश्विनी कुमार बालोठिया स्थानीय हैं, श्योपुर के। उनने कहा चलिए आपको डूब दिखा आते हैं। डूब में वो पत्थर के पिजरे हैं जहां सिधिया खानदान के राजा बाघों को कैद करके रखते थे।

कराल से ऐन पहले वो जंगल में बाईँ ओर मुड़ गए, कहा कोई 7 किलोमीटर आगे जाकर पीएमजीएसवाई वाली सड़क पर बाईं ओर मुड़ना है, वहीं तीन किलोमीटर आगे है डूब।

अब क्या बताएं, सात किलोमीटर तो क्या सत्रह किलोमीटर बाद भी कोई सड़क वहां से नहीं निकली। बाईं ओर कोई कट ही नहीं मिला। बहरहाल, कुछ और आगे जाकर जब कट नहीं मिला तो निराशा होने लगी। अश्विनी जी की हिम्मत टूट गई। उनने कहा कि चलो आगे से सी दे कराल ही निकल लेते हैं..वहां से टिकटोली चलेंगे।

टिकटोली में हमें कुछ काम था। बादल छाए थे, और बारिश हमारा पीछा कर रही थी। नीलेश जी कविताई मूड में थे। यह प्रकरण उनको अभी मजेदार ही लग रहा था।

गाड़ी के म्युजिक सिस्टम में सीडी लगातार सुर अलापे हुई थी। अचानक हनुमान चालीसा आ गया उस सीडी में...हमने कहा ये वक्त हनुमान चालीसा पढ़ने का तो कत्तई नहीं है। अगला गाना, झूम बराबर झूम शराबी (कव्वाली) था। शब्द कह रहे थे...आजा अंगूर की बेटी से मुहब्बत कर लें, शेक साहब की नसीहत

लेकिन जिस कराल से जाकर हमें टिकटोली जाना था वह कराल ही नहीं आया। आगे जाकर सड़क खत्म हो गई, कच्चा रास्ता शुरु हो गया। एक घर के बुजुर्गवार से पूछा गया कराल जाने का रास्ता...अब तक अश्विनी जी का आत्मविश्वास खलास हो चुका था। एक दम्मे बुझ से गए।

हम रास्ता भटक गए थे। करीब बीस किलोमीटर तक हमें कच्चे रास्ते पर भटकते हुए हो गए। मैंने हतोत्साहित हो रहे लोगों का उत्साह बढ़ाने की कोशिश की। उनका कहना था कि हनुमान चालीसा का निरादर करने से ऐसा हुआ है।

ड्राइवर से कहा मैंने, हनुमान चालीसा चला लो फिर से, और गाड़ी खड़ी कर लो, रास्ता मिल जाएगा? ड्राइवर मुस्कुरा उठा। मुझे उसके मुंह पर यही मुस्कुराहट चाहिए थी। दरअसल, वो इलाका किडनैपिंग के इलाके के रूप से मशहूर है, और तेंदुए और जंगली जानवरों का भी डर है। मित्रों को टी-38 (बाघ) का भी खौफ था।

गाड़ी बदस्तूर चलने लगी। रास्ता गीला-सा था, डर था कि कहीं पहिए न फंस जाएं कीचड़ में। एक बार तो पूरी गाड़ी पत्थर पर कुछ इस तरह उछली की लगा हम हवा में तैर रहे हैं। मैं इस स्थिति का पूरा आनंद ले रहा था और अश्विनी और नीलेश के चेहरे पर उड़ती हवाइयों का भी।

नीलेश की कविता कपूर होकर हवा गई थी, और वो लगातार हंसने की कोशिश कर रहा था...खिसियानी हंसी थी वो...उस पर मेरा बदतमीज ठहाका गूंजता। हम दोनों की इस हंसी से सबसे ज्यादा शर्मसार अश्विनी बालोठिया हो रहे थे।

आखिरकार, फिक्र को धुएं में उड़ाते हुए हमें आखिरकार तीस किलोमीटर कच्चे रास्ते, यानी जंगल के बीच रास्ता खोजते और साढ़े तीन घंटे खर्च करने के बाद रास्ता मिल ही गया। सूरज अब भी बादलों की बीच छिपा था। खुद को बीयप ग्रिल्स से कम नहीं समझ रहा था।

झूबराबर झूम शराबी गाने ने हिम्मत दी, माहौल हल्का बनाए रखा। बीच में एक बार सौमित्र भाई के इसरार करने पर हनुमान चालीसा भी बजाया गया था। अब जंगल से सही सलामत लौटने के लिए या तो आप ड्राइवर को धन्यवाद दें, या फिर मेरे झूम बराबर झूम शराबी वाले गाने को श्रेय दें, या फिर हनुमान चालीसा के महात्म्य को...आप पर है।

मैंने तो इस खो जाने का खूब मजा लिया, लगा जंगल से प्यार हो गया है. जंगल ने सम्मोहित कर लिया। एक ऐसी जगह भी देखी जो इस सूखेपन के बीच हरेपन की मिसाल थी, जहां से आपको प्यार हो सकता है।

सम्मोहन की सी स्थिति में हूं। जंगल का ये सपना न टूटे।

Tuesday, June 12, 2012

मुसाफिर हूं यारो...एमपी में

कभी-कभी रतजगा उतना बेरहम नहीं होता। यूपी में रहते हों, रात में लगातार छह घंटे तक बिजली न आए, कहीं जाने के लिए सामान पैक करना हो, अँधेरा हो, कैंडल की औकात से ज्यादा घना अंधेरा...ट्रेन अलसभोर की हो...तब भी आपका अगर उत्साह बना रहता है, तो यकीन मानिए आप मुसाफिर किस्म के इंसान हैं, कहीं न कहीं यायावर हैं दिल से। आज मुझे भी ऐसा ही लगा।

रात कब सुबह में तब्दील हो गई, इसका पता नहीं चला। ऐसा नहीं कि बेकरारी किस्म की कोई चीज़ थी, बस यूं समझिए कि बेकरारी थी लेकिन वह कपार (कपाल) का पसीना गरदन-पीठ होते हुए इधर उधर बहते जाने की वजह से थी।

अस्तु, सुबह ऑफिस के गाड़ीवान् ने कॉल किया तो लगा कि अब निकल लेना चाहिए।

स्टेशन पहुंचा तो पूरब में लाली छा गई थी। नीलेश भाई ने फोन करके बताया कि वो पहाड़गंज की तरफ हैं। मैं अजमेरी गेट की ओर से आया था। सामान लेकर मॉर्निंग वॉक करने का मजा ही कुछ और है। सीढ़ियां चढ़ते -उतरते।

नीलेश भाई खासे ताज़े-दम दिख रहे थे। बहरहाल, हमें भोपाल शताब्दी से ग्वालियर पहुंचना था। ऐन सवा छह बजे गाड़ी छूट गई। मैं और नीलेश भाई बतियाने में मशगूल हो गए। फेसबुक से पता चला कि सुशील झा का टिकट कन्फर्म नहीं हो पाया। रेल को गरिया रहे थे। इतने दिन के बाद उन्हें रेल की असलियत पता क्यों चली।

ग्वालिर पहुंचने के बाद दैनिक भास्कर के पत्रकार विभावसु तिवारी से मुलाकात हुई। सज्जन व्यक्ति हैं। उनसे दुआ सलाम करके और सौमित्र भाई को साथ लेकर हम चल पड़े शिवपुरी की ओर निकल पड़े। ग्वालियर के आगे निकलते ही पेड़ों की आबादी बढ़ जाती है।

इधर उधर चाय पीते, ऊंघते झपकी लेते, और कुछ घाटों का मजा लेते हम शिवपुरी पहुंचे। शिवपुरी में हमें अश्विनी भालोटिया नहीं मिले। उन्हें हमारे लिए कैमरा चलाना था। वो मिले श्यौपुर में, जो करीब 120 किलोमीटर दूर है।

तीन बजे हमलोग श्योपुर पहुंचे। लेकिन हमारे कदमों में उलझ गए कैसे लाल फीते फिर कभी...। फिलहाल जंगलों में हमने सूरज को डूबते देखा, अँधेरा घिरते देखा। लेकिन सच में, एमपी गजब है।



सुनो! मृगांका:13: मरम्मत मुक़द्दर की कर दे मौला

फिलहाल तो घना अंधेरा था।

उस अंधेरे में एक खयाल उजाले की तरह अभिजीत के मन में कौंध गई। थोड़ी देर पहले ही मृगांका को देखा था टीवी पर, एंकरिंग करते हुए। उसने आंखों के एपरचर काफी हद तक बढ़ा दिए। एक रौशनी सी मन में बसी थी मृगांका...।

आठ बजने को थे। उसे अब कुछ खोजना था।

सुना है खोजने वाले खुदा को खोज निकालते हैं। अभिजीत को ठेके की तलाश थी...सामने ही सीएफएल की धवल-उज्जवल रोशनी से नहाया पीला बोर्ड था...ठेका विदेशी शराब। उसने एक अद्धा और एक क्वॉर्टर ले लिया। थोड़ी देर में ही जब पीकर निबट गया, और सिगरेट जला ली, तो लगा मृगांका मन से निकल कर सामने खड़ी हो गई है।

कभी-कभी उसे लगता है कि आखिर वो देवदास की तरह क्यों कर रहा है। उसे पता है कि जीवन का अंत होना ही है, हर इंसान का होता है। जीवन में तमाम किस्म की दुश्वारियां झेली थीं उसने, लेकिन अपने दम पर उसने शोहरत भी कमाई और ठीक ठाक रूपया भी।

उंगलियों के बीच फंसी गोल्ड फ्लेक, और हर सेकेंड लड़खडाते कदमों के साथ वह वापस लौट पड़ा। बेला मोड़ की तरफ गया ही नहीं। वापसी में रास्ते का  पता ही नहीं चला। कैमरा ट्रैक पर उसके साथ चलता रहा। कभी आगे से तो कभी पीछे से कैमरा उसका पीछा करता रहा। स्साली ये जिंदगी फिल्म जैसी क्यों हो गई है। अच्छा है यहां उसे कोई नहीं पहचानता।

वह वापस स्टेशन पर आ गया। अपने शहर का टिकट लिया। जनरल डब्बे का। रात का सफर होना था..ट्रेन में अभी देर थी।

वह प्लेटफॉर्म पर बैठ गया। चाय वालों की चीखपुकार, मूंगफली वाले...झालमुड़ी, केले वाले, खीरे वाले...और न जाने क्या-क्या..।

एक चाय वाला बगल से निकला. चिल्लाता हुआ,..चाय चाय...

चाय...पिओगी

चाय?
कहां
अरे कहां क्या, नीचे ढाबे वाले के यहां
ढाबे वाले के यहां..ओह गॉड उसके गिलास देखें हैं, पता नहीं कब धोए गए होगे। गंदे होते हैं।
अरे चलो तो सही

अभिजीत से हालांकि मृगांका का परिचय अभी बहुत पुराना नहीं था, लेकिन परिचय तो ऐसा लगता था कि पता नहीं..जाने कब से एक दूसरे को जानते थे। भाषा आंखों की थी। इस भाषा में आवेग होता है, इसमें कथ्य होता है, इसमें कहानी होती है...लेकिन शब्द नहीं होते।

ये सन्नाटे का संगीत होता है।

नीचे सप्तपर्णी के नीचे अभिजीत मृगांका को लेकर पहुंचा। चाय वाले ने नीचे पेड़ के तले ही दुकान लगा रखी थी। कुछ खाने लायक सामान भी...मृगांका ने कह ही दिया, देखा, कितना गंदा है सब। अनहाइजेनिक।

लेकिन अभिजीत को देखते ही चाय वाला उठ खड़ा हुआ, आइए भैया। का पिलाबें...स्पेशल?

अभिजीत के तेवरों में बदतमीजी वाली दबंगई हुआ करती थी। ऐसा नहीं था कि इस दबंगई से मृगांका को बुरा लगता हो। अभिजीत का ऐसा होना, मुंहफट, बदतमीज होना..कहीं न कहीं अच्छा लगता था उसे।

मृगांका बहुत सलीकेदार थी। सूरजमुखी सी। अभिजीत तो फुटपाथ में लगने वाले पत्थर के बड़े टुकड़े पर ही बैठ गया। सप्तपर्णी के पेड़ से टेक लगाकर। सप्तपर्णी के इस पेड़ को अभिजीत बहुत पसंद करता था। उसे पेड़ों, पौधों से बहुत प्रेम था। मृगांका को दलितों की चिंता थी, मृगांका को जानवरों से प्रेम था, मृगांका को बच्चे अच्छे लगते थे।

अभिजीत को बच्चों से डर लगता था और जानवरों से भी।

मृगांका ने कहा, अभि मैं चाय नहीं पीती।

अबिजीत ने कहा, मैंने कब कहा कि चाय की आदत बना लो। एक बार एक कप पी लोगी तो काली नहीं हो जाओगी। ये लो...अब अभिजीत ने चाय बढ़ा दी थी तो मृगांका सीधे मना नहीं कर पाई। लेकिन गिलास गंदा होगा, ये विचार उसके दिमाग से बाहर नहीं निकल पा रहा था।

चाय के दौरान अभिजीत उसे कुछ न कुछ बताता रहा। मृगांका सुन नहीं रही थी...वह देख रही थी। अभिजीत की आंखों में मासूमियत थी, उसकी आंखों के नीचे की लाईन्स भी कायदे से पढ़ लीं मृगांका ने। अभिजीत के गाल पर, तिल है। कनपटी पर भी है और उसकी भौंहे....कमानी की तरह खिंची हुई।

अभिजीत गोरा नहीं है, वह काला भी नहीं है। कनपटी के किनार पके बाल झांक रहे हैं। उसके कान बहुत छोटे हैं. मृगांका की मां कहती है  कि जिस आदमी के कान छोटे हों, उसकी उमर ज्यादा नहीं होती।

नहीं, इसे जीना होगा। मृगांका ने दोहराया। तबतक पता नहीं कितने पुराण बांच गया था अभिजीत। अभिजीत चाय खत्म कर चुका था...। उठ खड़ा हुआ। मृगांका का मन नहीं था उठने का। अभिजीत ने सिगरेट सुलगा ली। चाय वाले को इशारा किया कि पैसे खाते में जोड़ ले और आगे बढ़ गया।

अब...अब क्या करना है, अभि।

अभिजीत पार्किंग की तरफ बढ़ रहा था। बाईक लेने, जरा ग्रेटर नोएडा तक जाना था।
मुझे रिपोर्ट फाइल करनी है--मृगांका ने कहा।


दिल्ली, आज की शाम

मृगांका ने डायरी के पन्ने पलटने शुरु कर दिए। फिर उसी पेज पर आकर रूक गई। उसी दिन देर रात उसने लिखा था...आज भी याद है उसे। वाकया।

मेरा दिल तुम्हे नकारना चाहता था, लेकिन मैं एक अजनबी के पाश में बंधती चली गई। अजनबी!!! वह अजनबी नहीं। विश्वास करो डायरी...मैं उसके चेहरे की हर लकीर को न जाने कब से जानती हूं। उसकी हर कीमत को...उसकी हंसी की प्रतिध्वनियां हर वक्त सुनाई देती हैं...उससे मिलने से सदियों पहले से मेरी उससे पहचान है...वो अजनबी नहीं है।

दिल्ली, उस रोज

न्यज़ रूम में अचानक सन्नाटा सा पसर गया। कॉपी छोड़ने का वक्त नजदीक था, सीधे डेस्क पर फोन आया था कि अभिजीत का एक्सीडेंट हो गया है।

समाचार संपादक चिल्लाए, स्साले को इतना मना करता हूं कि इतनी ज्यादा न पिए। शाम से ही शरु..इसी ने ठोंकी होगी।

मृगांका, ठिठक गई। उसकी रिपोर्ट में फाइनल टच देना बाकी था। वह उठ खड़ी हुई। इंचार्ज ने पूछा, किस अस्पताल में है।

सर ट्रेस कर रहे हैं। पता नहीं। मयूर विहार के आसपास कहीं एक्सीडेंट हुआ है। हेल्थ रिपोर्टर से पूछो।

जब तक सिद्धांत, रवि और बाकी के लोग अभिजीत का पता लगाने में मशगूल रहे...मृगांका भयभीत हिरनी से इधर से उधर घूमती रही। पहले तो लगा कि मीनाक्षी अस्पताल ले गए हैं, फिर अचानक फोन आया कि मेट्रो अस्पताल में हैं। होश में नहीं है।

मृगांका हड़बड़ सी गई थी।

सर मैं जाऊं?
 तुम...

हां सर रवि भैया को लेकर जाती हूं।

ओके बाईक से मत जाना, गाड़ी ले लो।

जब अस्पताल पहुंचे, तो रात के साढे दस से ज्यादा हो चुके थे। अभिजीत को सीटी स्कैन के लिए ले जा रहे थे। एक्सरे रिपोर्ट आ गई थी। शरीर के सारे महकमे दुरुस्त थे, कहीं टूट फूट नहीं हुई थी। लेकिन सिर के अंदर की चोट का पता लगाने के लिए सीटी स्कैन करना जरूरी था।

जब अभिजीत को स्ट्रैचर पर वॉर्ड में वापस लाया गया तो मृगांका की आंखों में से बांध टूट पड़ा। रवि देखता रहा गया। अभिजीत को होश आ गया था।

मृगांका ने एक दम से जोर-जोर से रोना शुरु कर दिया था। तेज़-तेज़। अभिजीत हैरान रह गया, क्या हुआ मृगांका। रवि ने भी रोकना चाहा। लेकिन नदी कहां रुकती है। अभिजीत बेदम सा पड़ा था...उसी पर लदकर उसका सीना भिंगोने लगी मृगांका।

कुछ हो जाता तुम्हें तो....।
तो...??
तो मैं मर जाती....
मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं, अभि...तुम देख नहीं सकते क्या...क्यों ऐसा करते हो...क्यों पीते हो इतना।
अरे किसने कहा कि मैंने पी रखी है
डॉक्टर..
नहीं, इनका अल्कोहल टेस्ट कर चुके हैं, इन्होंने कम से कम आज तो शराब नहीं पी है। डॉक्टर प्रेम के इज़हार का गवाह था। मुस्करा रहा था। डॉक्टरों के पास ऐसे मौको पर मुस्कुराने के मौके कम ही आते हैं।

अभिजीत के दोनों हाथ उठे और मृगांका की पीठ पर चले गए। पगली, मैं तुम्हारी यादों में ही खोया था, पता नहीं कब कह पता अपने मुंह से...हहहह...अच्छा हुआ कि एक्सीडेंट हो गया।

अभि, तुम भी ना....मृगांका आंसू भरी आंखों से हंसती हुई उठ खड़ी हुई।



...क्रमशः




Sunday, June 10, 2012

मोर दैन एनिथिंग इन द वर्ल्ड

मेरी पसंदीदा फिल्में: मोर दैन एनिथिंग इन द वर्ल्ड
( Más que a nada en el mundo )

भाषाः स्पेनिश

स स्पेनिश फिल्म को देखें और ईरान की द पोएट चाइल्ड , कहीं न कहीं दोनों फिल्मों की अंतर्गाथा एक ही है। दोनों ही फिल्म सिनेमाई पटल पर कहानी बच्चे की नज़र से विस्तार देती है। आंद्रे लियॉन बेकर और ज़ेवियर सोलर के निर्देशन में बनी मैक्सिको की इस फिल्म में एक साथ दो कहानियां असंबद्ध तरीके से शुरु होती है, लेकिन ताज्जुब की बात ये कि दोनों कहानियां कहीं भी आपस में मेल नहीं खातीं, सिवाय उस जगह के जब बच्ची आखिरी दृश्य में वैंपायर के नाम से जाने जाने वाले बूढ़े के फ्लैट में दाखिल होती है।

फिल्म में मां और बेटी के आपसी संबंधों की कहानी है। मां की अपनी दुनिया है। वह अपने पति का घर छोड़ आई है, और उम्र के उस दौर में है, जब शरीर की ज़रूरतें भी होती हैं। मर्द का सहारा भी चाहिए होता है।

उस महिला के कई मित्र आते हैं रात को ठहरते हैं। बच्ची घर में सहमी-सहमी रहती है। उसे डर है कि उसके पड़ोस के फ्लैट में एक रक्तपिपासु वैंपायर रहता है।सहमी हुई लड़की मां का साथ चाहती है, लेकिन महिला अपने पुरुष मित्रों के साथ वक्त गुजारना चाहती है।

वयस्क स्त्री की दुनिया में ऐसी ढेर सारी चीज़े हैं, जो बच्ची के संसार से विलग है, लेकिन साथ ही बच्ची की दुनिया में ऐसी बातें हैं जिसमें किसी बड़े का साथ चाहिए होता है।

बच्ची समझती है कि रात को मां पर वैंपायर का साया पड़ जाता है। उसके डर को एक नया आयाम मिलता है। महिला के मित्र धीरे-धीरे साथ छो़ड़ते जाते हैं। औरत फिर अकेली है, लेकिन उन मुश्किल हालात में बच्ची को मां का सहारा बनना पड़ता है। दोनों एक दूसरे के लिए जीते हैं।

उधर पड़ोस वाले बूढे की मौत हो जाती है, बच्ची उसे वैंपायर समझ कर उसके सीने पर क्रास लगाने जाती है। तभी वह पाती है कि बूढा़ अब नहीं रहा। फिल्म एक साथ ही मां-बेटी के रिश्तों के साथ छीजते संबंधों और उसके बुरे (?) प्रभावों की पड़ताल करता चलता है। एक अकेली औरत के लिए समाज में हर मर्द एक खून चूसने वाले वैंपायर की तरह ही होता है। साथ ही जिन लोगों को खल-चरित्र माना जाता है, वाकई वे वैसे होते नहीं हैं।

निर्देशक की यह स्थापना सिद्ध तो हो जाती है, लेकिन फिल्म में उस तत्व की कमी है, जो बच्चो से जुड़े मसलों को डील करते वक्त ईरानी फिल्मों मे देखने को मिलता है।

लेकिन इस फिल्म का लीक से हटकर होना, इसके प्रकाश और छाया का कमाल और गजब की एडिटिंग की वजह से मुझे ये फिल्म बहुत कायदे की लगी।

मेरी पसंदीदा फिल्मों में स्थानः पचासवां

Saturday, June 9, 2012

सुनो ! मृगांका: 12 : हमारी अधूरी कहानी...

दिल्ली

मृगांका जब स्टूडियो से बाहर निकल रही थी तो चांद आसमान में आधी दूरी तय कर आया था। चांद देखते ही उसे याद आया, अभिजीत से उसने पूछा था कभी। बहुत शुरुआती मुलाकातों में...शायद तब, जब प्यार पनपा भी न था। हालांकि, मृगांका को और अभिजीत को भी हमेशा लगता रहा कि उनके बीच का प्यार पनपा नहीं है, जन्म-जन्मांतर का है।

बहरहाल, बहुत शुरुआती मुलाकातों में ही उसने पूछा था, 'पता है आपको मृगांका का मतलब...?'
अभिजीत विज्ञान का छात्र रहा था...फिर भी ना में सिर हिलाने से पहले अंदाजा लगाया था, 'मृग मतलब हिरन, और अंक यानी गोद...मृग जिसकी गोद में हो।'

मृगांका खूब खिलखिलाकर हंसी थी। उसे आज भी याद है कैसे मुंह बाए उसे हंसता देखता रह गया था अभि। एक दम मासूम बच्चे सरीखा। उसने तब बताया, 'सर, मृगांका का अर्थ होता है चांद।' हालांकि, कोई सर कहे खासकर मृगांका तो अभि को बहुत कोफ़्त होती थी। लेकिन उस वक्त वह, चांद...चांद  दुहराता रह गया था।

कैसे वह पार्किंग से कार निकाल लाई। कैसे पूरा शहर पार करते हुए महारानी बाग के अपने घर आ गई, ये उसे खुद भी याद नहीं। पापा खड़े ही थे...अब भी जगे हैं।

पापा आजकल उसका कुछ ज्यादा ही खयाल रख रहे हैं। पापा को रोज़ शाम आठ बजे ही खा लेने की आदत है। उन्ही की वजह से किचन में हर रोज़ शाम छह बजे ही खाने की तैयारियां शुरु हो जाती हैं।

"अरे छोटू, तुमने तो कमाल कर दिया।'
'पापा...!, उसने लाड से कहा, 'अब तो छोटू न कहा करो।'
पीछे से मम्मी ने कहा, 'ठीक ही तो कहती है, उसे गुड़िया क्यों नहीं कहते। इतनी बड़ी हो गई है, नाम हो गया है कोई छोटू सुनेगा तो....?'

दीदी ओर जीजा जी आए हैं। वो लोग भी मुंह दबाए हंस रहे हैं। पहली-पहली बार अभि ने भी सुना था उसका निक नेम छोटू...तो हंसते-हंसते उसकी पेट में बल पड़ गए थे। पापा, मम्मी, दीदी-जीजा जी सब खा चुके हैं, लेकिन सब डायनिंग टेबल पर उसकी ओर देख रहे हैं।

मृगांका की कोई रुचि खाने में नहीं है। बार-बार विस्फोट में मारे गए उस लड़के की वो खूबसूरत आंखें घूम जाती हैं, अभि की आंखें भी ऐसी ही थीं। मंझोले आकार की आंखे, जिनको ज्योतिषी लोग मीन नेत्र कहते हैं। मृगांका सोच में डूबी है...मेज पर सब उसे घूर रहे हैं। उसकी उंगलियां थाली की बजाय मेज पर घूम रही हैं।

'बेटा खाने का मन न हो, तो सो जाओ। '
'जी मम्मी'
पापा को ठीक नहीं लग रहा। बेटी मेहनत कर रही है। शोहरत कमा रही है, दुबली न हो जाए।

साढ़े तीन बजने को आए रात के, बल्कि सुबह के। थोड़ी देर में पौ फट जाएगी। फटाफट मृगांका ने लैपटॉप ऑन कर लिया। यह उसका रोजाना का काम है, फेसबुक पर सर्च करना, अभिजीत का नाम। मृगांका का दिमाग कंप्यूटर के साथ-साथ चल रहा है। जैसे उस नाम को क्लिक से पहले खोज लेना है। हर नेटवर्किंग साइट में हर रोज़ खोजना...मृगांका के नयन मृग से तेजी से कुंलांचे भर रहे हैं। इस नाम से जितने भी मिले हैं फेसबुक पर...किसी में अभि वाली बात ही नहीं। किसी ने हृतिक रोशन की तस्वीर लगाई है तो किसी ने अपनी ओरिजिनल भी लगाई है। नाः इनमें मेरा अभिजीत कोई नहीं। ट्विटर भी डि-एक्टिवेट है।

एक हाथ से की-बोर्ड, एक से मोबाईल पर वही पुराना नंबर। नंबर दबाया...हमेशा की तरह नंबर बंद होने की मनहूस खबर।

मृगांका को लगा पता नहीं दोबारा अभि को देख भी पाएगी या नहीं। कहते फिरते हैं सब कि दुनिया छोटी हो गई, और दुनिया एक गांव हो गई है। तो इस गांव में मेरा अभि आखिर है कहां....।

उसने आखिरकार आलमारी से डायरी निकाल ली। इसमें अभि के दिए कुछ फूल हैं..सूखे हुए। लेकिन इनकी खुशबू कभी ख़त्म नहीं होती। उसने एक बार उन फूलों को सूंघा। डायरी पलटने लगी तो एक पेज पर जाकर रुक गई।

तीन साल पहले की तारीख में उसने लिखा था कभीः

मीटिंग यू वाज़ फेट, बिकमिंग योअर फ्रेंड....तुमसे मिलना किस्मत की बात थी, तुम्हारी दोस्त बनना मेरी पसंद। लेकिन तुम्हारे प्यार में पड़ना...मेरा इस पर कोई वश नहीं चला...

तभी उसे ध्यान आया अरे, अभि तो ऑर्कुट पर भी था एक्टिव। पता नहीं हो या नहीं हो। उसने डायरी एक तरफ रखी और सीधे ऑर्कुट पर चेक किया। एक उम्मीद भरी मुस्कान उसके चेहरे पर खिल गई। अभिजीत...प्रोफाइल खुलते ही जैसे माइस जाकर उसी पर ठहर गया।

उसकी वो प्रोफाइल फोटो....ये तो वही है। अभि शायद ऑर्कुट डिएक्टिवेट नहीं कर पाया। फोटो देखते ही मृगांका का सब्र टूट गया। आंखें नम हो गईँ। ये फोटो तो मेरी ही क्लिक की हुई है। एक क्लिक के लिए कितना नाक-भौं सिकोड़ा था। बहाने बनाए थे...इस मोबाइल से क्या खिंचवाना फोटो। भदेस हूं, घटिया फोटो आएगा, रवि से कह के खिंचवा लेना चाहे जितना...लेकिन मृगांका कभी न तो ऐसे मौको पर मानी थी..ना मानी।

प्रोफाइल पर डेढ़ साल पहले का अपडेट....मेमरीज़। पढ़ने पर लगता है सामने खड़ा हो गया हो। मेमरीज़ क्यों लिखा। क्या हुआ...मृगांका को एक साथ आशंकाएँ भी हुईं, डर भी लगा। क्या हुआ अभिजीत के साथ...मृगांका की नजर एक बार फिर अपने डायरी के पन्नों पर पड़ी,

कितनी हैरत हुई है मुझे, कि किसतरह से मेरा दिल मेरी सारी हिदायतें भूल बैठा है...किसतरह ये एक अजनबी की गिरफ़्त में आता चला गया है...अजनबी?? नहीं, वो अजनबी तो नहीं।

अचानक कमरे की बत्ती जल गई। पापा थे, 'अरे बेटा सो जाओ। '
'जी पापा'
मृगांका ने लैपटॉप की ओर देखा, अभि की वही तस्वीर अब उसके लैपटॉप का स्क्रीनसेवर बन चुका था। अभिजीत के तमाम फोटो वाले फोल्डर में सारी तस्वीरें सेव कर ली गई थीं।

पापा ने धीरे से सिर हिलाया, 'सुबह कब जाना है....?'

'नौ बजे जरा आरएमएल अस्पताल जाऊंगी, ब्लास्ट के सारे विक्टिम वहीं ले जाए गए हैं। कुछ एम्स के ट्रॉमा सेंटर में भी हैं। जाऊँगी...जरा देख आऊं।'
'ठीक है बेटा। '

पापा को खुशी है कि अपनी निजी तकलीफों के बावजूद बेटी ने कभी कर्तव्य का रास्ता नहीं छोड़ा। गरीब बच्चों का पढाना, झुग्गीवालो-वंचितों के घर जाकर उनकी महिलाओं को सहारा देना, उनके सुख-दुख में काम आना...अभिजीत के गम के बावजूद इसने कभी नहीं छोड़ा।

पापा ने स्विच ऑफ़ कर दिया। अंधेरा हो गया। मृगांका को लगा कि उसे अभिजीत कहीं से बुला रहा है...किस मुसीबत में है अभि...। पिछले तीन साल से यही सोचती है हर रात...हर रात रतजगे में सुबह कर देती है।

मृगांका.....मृगांका....उफ।

फिलहाल तो घना अंधेरा है।

Friday, June 8, 2012

सुनो ! मृगांका:11: परछाईं

हराही, ओ हराही

जी महाराज
तुम कुछ बताने वाली थी

"हे राजन्, कलियुग के पहले द्वापरकाल में महाभारत का भीषण युद्ध हुआ था, यह तो आपको मालूम ही होगा। कौरवों और पांडवों की अठारह अक्षौहिणी सेना मैदान में एक दूसरे की मुंडी काट लेने को उतारू थीं। भाई, भाई के लहू का प्यासा बना घूम रहा था।

अर्जुन के बेहद वीर बेटे अभिमन्यु को कौरवों के दल ने तब मौत के घाट उतार दिया था, जब वह चक्रव्यूह से निकलने के प्रयास में लगा था। धर्म-अधर्म क्या था, युद्ध के मैदान में किसी को याद न रहा। मेरे विचार से तो युद्ध करना ही धर्म नहीं, युद्ध में हत्या करना तो और भी भयंकर हैं। लेकिन ये हत्याएं अगर हमारे जीवन के लिए ज़रूरी हों तो करनी पड़ जाती हैं, क्योंकि जीवन के रण में यह तथ्य़ बड़ी महत्वपूर्ण है कि अगर आपने अपने दुश्मन को नहीं मारा तो वह आपको मार देगा। वरना, पेट के लिए अगर मैं नदी-पोखरे-डबरे से मछलियां-घोंघे और केकड़े पकड़कर बेचती हूं तो यह भी हत्या ही है, लेकिन इस धरती पर वही जीवित रह सकता है जो सबसे योग्य है। जो जिंदगी की लड़ाई लड़ सकने के काबिल हो..."

पूरा दरबार एक अपढ़ मलाहिन के बोल सुन रहा था। राजपुरोहित उसकी ज्ञान भरी बातें सुनकर दंग थे, महाराज उत्साहित।

"... भारतवर्ष के लाखों-करोड़ो वीर कुरुक्षेत्र को रक्तरंजित कर आर्यावर्त्त की भूमि को पुरुषहीन कर देने वाले थे। उत्कट वीरपुत्र अभिमन्यु की धोखे से की गई हत्या ने वीर सव्यसाची को भी विचलित कर दिया था। राजन्..आपको ज्ञात ही होगा कि इसके बाद अर्जुन ने जयद्रथ का वध करने का वचन उठा रखा था। उनकी क़सम थी कि अगर वह अगले दिन सूर्यास्त तक जयद्रध का वध नहीं कर पाए तो आत्मदाह कर लेंगे।

उस दिन जब जयद्रध को कौरवों ने छिपा रखा था और दिनभर युद्धभूमि में उसे खोजकर मार डालने के अपने प्रण को पूरा करने के लिए अर्जुन व्यग्र थे, वक्त बीतने का पता ही नहीं चला। शाम घिर आई.. अंधेरा होने लगा। सूर्य पता नहीं किधर लुप्त हो गए।

अन्यमनस्क होकर कृष्ण ने दिन के युद्ध खत्म होने का संकेतक अपना पांचजन्य फूंक दिया... इस शंख की आवाज़ ने पांडवों के खेमे में पीड़ा की लहर फैला दी और कौरव तो ऐसे प्रसन्न हो गए मानो पूरा महाभारत जीत लिया हो..."

"... राजन्। द्वापर में हो रहे उस युद्ध के समय मेरा जन्म चील योनि में हुआ था... मैं भी सूदूर कहीं से उड़कर अच्छे भोजन की तलाश में कुरुक्षेत्र तक चली गई थी। दिन भर की उड़ान से मेरा शरीर टूट रहा था। भोजन और पानी के बगैर मेरा बुरा हाल था..मैं वृक्ष की एक शाखा पर बैठी इस बात का इंतजार कर रही थी कि आज के युद्ध की समाप्ति के बाद सैनिक अपने खेमों में वापस लौटें तो मैं हृष्ट-पुष्ट सैनिकों के शवों को नोचकर अपनी भूख मिटाऊं।

...एक बेहद सुदर्शन युवक..रक्तरंजित होकर धराशायी था..उसकी आंखें मुंदी नहीं थी... आंखों पर हाथ फेरकर उन्हे बंद करने वाला था कौन वहां .. वे आंखों बड़ी खूबसूरत थीं।

दिल्ली, समाचार चैनल का स्टूडियो, शाम साढे 8 बजे

मृगांका, विजुअल देखती भी जा रही थी। अभी वीओ-वीटी चल रहा था। एक नौजवान की मौत हो गई थी, आंखें खुली ही थीं, शरीर के ऊपरी हिस्से पर खरोंच तक न थी। शव स्ट्रेचर पर डालकर एंबुलेंस में लादते वक्त के विजुअल्स थे...वे आंखें बहुत खूबसूरत थीं।

ब्लास्ट के बाद से वह लगातार एंकरिंग किए जा रही थी। राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएँ, रिपोर्टरों से लाइव चैट...विशेषज्ञों से बातचीत। ब्लास्ट का ठीकरा हमेशा की तरह इंडियन मुजाहिदीन पर फोड़ा गया, मृगांका ने मुंह बनाते हुए पढ़ी थी खबर। फिर ब्रेकिंग आई अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल। मृगांका ने फिर मुंह बनाया, इतनी जल्दी फोरेंसिक जांच भी हो गई? प्रोड्यूसर भी खुश था और मुख्य संपादक तो खैर थे ही। लेकिन मृगांका होठों से लाइव बैठी थी स्टूडियो में। मन कहीं और था।

उसका मन उड़ रहा था कहीं। कहां होगा अभिजीत, कैसा होगा। कहीं ब्लास्ट में...?? नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। जब से वो टीवी पर एंकरिंग करने लगी थी, उसके मन में यह उम्मीद जरूर थी...कही अभिजीत देख लेता उसे। उफ़्।

मिलने के सारे रास्ते अभिजीत ने बंद किए। आज भी वह रोज एक बार उसके मोबाइल पर फोन लगाना नहीं भूलती। आज भी हर रोज़ उसे एक मेल जरूर करती है। फेसबुक पर अभिजीत ने अपना अकांउट डि-एक्टिवेट कर लिया है। मोबाइल नंबर हमेशा की तरह बंद मिलता है। मेल का कोई जवाब आता नहीं। कहां है अभि...काश..एक बार तो मिल जाओ।

इयरपीस पर प्रोड्यूसर का कमांड सुनाई दिया। मृगांका, पीएम का बयान आ रहा है...मृगांका ने सामने लिखा पढ़ दिया। क्या था कहां था, कुछ खबर नहीं। उसके दिल में बस अभिजीत ही अभिजीत था। कहते हैं न्यू यॉर्क में लोग सब भूल जाते हैं। वहां भी हर जगह मृगांका को अभि ही याद आता रहा। उसका मन था कि एक बार अपनी इन्हीं आंखों से अभिजीत को देखे, करीब से, सीने से लगाकर अभिजीत को बताए कि कितना तड़पी है वो...

पुनः अतीत, साढे चार सौ साल पहले, दरभंगा महाराज के राजमहल में, बकौल हराही

राजन्..। मेरा मन था कि वे आंखे मैं अपने बच्चों को भेंट करुं....। साधारण सैनिकों के शव उठाते-उठाते रात हो आती थी और ऐसे मौकों पर हम जैसे छिपे हुए चील-गिद्ध और सियारों को शव नोचने का अवसर मिल जाता था। मैं भी ताक में थी कि ऐसा कुछ होते ही आंखें नोंच भागूं..."

"...एक साधारण सैनिक और राजपुत्र के बीच का अंतर उस वक्त भी था जब अठारह अक्षौहिणी सेना दो व्यक्तियों की अहं की टकराहट और लालच की तुष्टि के लिए लड़ रही थी। वह आपस में बगैर किसी दुश्मनी के यूं ही लड़ रहे थे और इस लड़ाई से पहले दोनों ने एक दूसरे को देखा तक न था.. यह लड़ाई कृष्ण जैसे चतुर और कुटिल राजनेता की भू-राजनीति का परिणाम थी।

एक परिवार की उत्तराधिकार की लड़ाई में न जाने कितने परिवार बर्बाद हो गए। लोग तीर-कमानों, तलवारों, भालों, परशुओं, परिघाओँ और गदाओं समेत हर तरह के अस्त्र-शस्त्रों से लड़ रहे थे। अस्त्र-शस्त्र ख़त्म हो जाते, तो वे मुक्कों से लड़ रहे थे.. मल्लयुद्ध करते..इनसे भी मन नही भरता तो नखों और दांतो से किटकिटा कर लड़ लेते।

युद्ध मानवों की आदिम हवस और पहचान है राजन्..!"

"पता नहीं दोष किसको देगा युग.. कृष्ण की कुटिल राजनीति को..सुयोधन की ज़िद या युधिष्ठिर के पक्ष को.. न्याय-अन्याय का विचार युग को ही करने दीजिए.. लेकिन विजेताओं ने जीत के बाद इतिहास कोअपने संदर्भों में लिखा है। इतिहास को अपनी तरह से इस्तेमाल किया है। उसी क्रम में सुयोधन कब दुर्योधन हो गए किसी को पता भी नहीं चला। अस्तु, पराजितों को मृत्युदंड देना तो विजेता का अधिकार है, नाम बदल दिया गया तो कौन सी बड़ी बात.."

राजसभा कान लगा कर मलाहिन को सुन रही थी। मंत्री अवाक्..महाराज कथा के साथ द्वापर में थे.. राजपुरोहित चैतन्य होकर मुस्कुराने लगे थे। नाईनें उबटन-चंदन की कटोरी छोड़कर मलाहिन की कथा सुन रही थीं।

"... पांडवों के खेमे में रोना-पीटना मचा था। उनका सबसे वीर लड़ाका आज आत्मदाह करने वाला था। कृष्ण के इशारे पर चंदन की लकड़ियों की चिता तैयार कर दी गई। भीरु युधिष्ठिर बुक्का फाड़कर रो पड़े.. पता नहीं क्या था ये..प्रिय भाई के यूं जिंदा जलने का दुख या फिर अपने सबसे तेज़-तर्रार लड़ैया के मरने से पराजित होने का खतरा..। 

लड़ाई थी तो क्या..ऐसी स्थिति में दोनों खेमों के लोग वहां इकट्ठा हो गए। चारण ऊंचे स्वरों में अर्जुन की वीरता का गुणगान करने लेगे। चिता के चारों ओर अगरु जला दिए गए..अर्जुन स्नान कर श्वेत-धवल वस्त्रों में चिता के सामने आ गए। चिता भी क्या... एक ताड़ ऊंची..दुनिया के लोग देख सकें कि वीर क्षत्रिय अर्जुन ने वंश की लाज रखते हुए प्रण टूटने पर जान देने में भी संकोच नहीं किया। इतिहास साक्षी रहे।"

"कृष्ण ने इशारा किया तो एक सेवक गांडीव और तूणीर चिता के पास रख गया। ऐसे महायोद्धा को इज़्ज़त बख्शने के लिए इससे बेहतर और क्या किया जा सकता है कि उसे उसके हरबे-हथियारों समेत मरने दिया जाए।"

"फिर क्या था राजन्.. दुर्योधन ने कहा कि देर किस बात की..अग्निदेवता का आह्वान किया जाए..। अग्नि के लिए पवित्र समिधा रगड़ी जाने लगी। महाराज। एक कहावत है कि चींटी की मौत आती है तो उसके पंख निकल आते हैं। मूर्ख जयद्रथ ने सव्यसाची के चिता पर बैठते ही उसका अंत निकट जान लिया। फिर तो सामने आ जाने में कोई बुराई नहीं... चिता के सामने ही कूदने लगा.. इसी अर्जुन ने उसका सिर मूंडकर उसका अपमान किया था।

जयद्रध की मूर्खता के उन्ही क्षणों में पता नहीं आकाश के किस कोण से सूर्य देवता निकल आए.. तमाम अंधेरा मिट गया, पता चला अभी दोपहर के ठीक बाद का वक्त है। दाद देनी होगी कृष्ण के दिमाग़ की भी..तुरंत उठाकर पांचजन्य फूंक दिया..और अर्जुन को ललकारा, "देखते क्या हो अर्जुन..सूर्य अभी डूबा नहीं है, उठाओं गांडीव और वध करो इस पापी का।"

"महाराज, पेड़ की डाल पर बैठी मैं भूख से अधमरी तो हो ही रही थी..ये प्रहसन मुझे असह्य था। जल्दी ये मानव युद्ध खत्म करें तो मैं अपना भोजन तलाशूं। इसी भीड़-भाड़ में सुदर्शन आंखों वाले युवक का शव भी कहीं खो गया था।... अभी तो दिन ही था.. अभी मैदान में जाना खतरे से खाली न था।

उसी वक्त महाराज युद्ध फिर से शुरु हो गया। शुरु क्या हुआ अर्जुन ने शुरु होने से ऐन पहले खत्म कर दिया। कृष्ण की ललकार सुनते ही जैसे अर्जुन की देह में प्राण लौटे, बिजली -सी कौंधी और उसने आव न देखा ताव झट गांडीव उठाकर जयद्रद का पहले दाहिना फिर बायां हाथ काट डाला.. जयद्रथ दर्द की वजह से या मौत को साक्षात् सामने देखकर वहीं का वहीं स्तंभित खड़ा रह गया।"

"ये युद्ध उनका था, जीवन-मरण भी उनका ही था। मुझे इनसे क्या लेना-देना, मुझे तो अपने बच्चों के भूख की फिक्र थी। मेरे ही जैसी कई चीलें थीं वहां, गिद्ध भी थे..नजरे जमाए हमारे लिए तो महाभारत महाभोज ही था।"

"...तो राजन्! जयद्रथ भी कोई मामूली वीर तो था नहीं...आज के इंसान तो उनके सामने बौने ही लगेंगे। विशाल ललाट और जांता (चक्की) जैसी विस्तृत छातियों वाला वीर... उसके बाजू की मछलियां कटने के बाद भी फड़क-फड़क उठती थीं. मैं झपाटे से लपकी और और अपनी क्षुधापूर्ति से विवश जयद्रध का बायां रक्तरंजित बाजू लेकर उड़ चली। "

"महाराज! ज़माना बदला तो जीवों के आकार-प्रकार भी बदल गए। जयद्रध अगर बलशाली था तो हम चिलहोरियां भी कोई छोटी न थीं। आप अनुमान ही लगा लें कि जिस बाजू को लेकर मैं उड़ी थीं उसका महज बाजूबंद ही सवा मन सोने का था.. बाजू लेकर उड़ती-उड़ती मैं विदेह की राजधानी पहुंच गई..जानकी की नगरी में वैभव त्रेता के मुकाबले क्षीण तो हुआ था मगर पूरी तरह लोप नहीं हो पाया था।.. बहरहाल, महाराज.. मै ने बच्चों के साथ खुद की क्षुधा भी मिटाई।...."

कुछ पल तक सन्नाटा छाया रहा। मलाहिन रुक गई थी, कथा समाप्त हो गी थी। सभा सन्नाटे में थी, लेकिन सबकी निगाहें प्रश्नवाचक बनी थीँ।

"महाराज कोई सवाल है..?"

महाराज विचारमग्न रहे। सन्नाटा तोड़ा बडबोले मंत्री ने, " ऐ मलाहिन, अगर तू सत्य उचार रही है। तो उसका कोई सुबूत तो होगा..।"

"महाराज! यह घटना द्वापर के महाभारत काल की है। अभी कलिकाल का आखिरी चरण चल रहा है। लेकिन यह भी सत्य है महाराज कि सोना काल के प्रभाव से सुरक्षित रहता है और मिथिला की पुरानी राजधानी के ध्वंसावशेषों के मध्य टीले पर पीपल के पेड़ की जड़ की खुदाई करवाएं तो मुमकिन है कि आपको वह बाजूबंद मिल भी जाएगा...।"

"...किंतु मलाहिन, तुम्हारे पूर्वजन्म के काम का आज की घटना पर हंसने से क्या ताल्लुक था..." राजपुरोहित ने गंभीर स्वर में हस्तक्षेप किया।

"... महाराज, मुझे पूर्वजन्म की घटना के संदर्भ में आज की घटना ने हंसा दिया। एक हम चिलहौरिया थे.. जयद्रध के उतने भारी बाजू को लेकर कुरुक्षेत्र से लेकर विदेह तक उड़ने में न तो हमने कही आराम किया न रुके.. लेकिन आज जब वह चील मेरे छिट्टे(टोकरी) से मछली लेकर उड़ी तो उस मछली का वज़न भी सेर-डेढ़ सेर से ज्यादा न रहा होगा। लेकिन वह चील तो उसे दो फर्लांग तक भी न ले जा सकी.. पास में ही मछली उसे पंजों से छिटक गई। काल के साथ बढ़ते पाप ने किस कदर जीवों में बल, बुद्धि और विचार शक्ति को क्षीण कर दिया है उसी पर मैं हंस पड़ी थी।

... महाराज, कथा तो आपने सुन ली अब आपके प्रण पूरा करने का वक्त है..।"

" ज़रुर, मंत्री जी..महाराज ने मंत्री जी की ओर मुखातिब होकर कहा," ध्वंसावशेषों की खुदाई कराई जाए..सत्यता प्रमाणित हो तो राज्य इसके बाल बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी लेता है...खुदाई से जितना सोना निकले उससे एक पोखरा कुदवाया जाए जिसका बंदोबस्त मलाहिन के बच्चों को दे दिया जाए।..उस पोखरे से होने वाली हर तरह का आमदनी इसके बच्चों की होगी..जब तक इसका खानदान चले तब तक ..ये बात राजपत्र में अंकित की जाए.."

राजा आदेश देकर मलाहिन की तरफ मुड़े। देखा.. हराही जमीन पर अचेत पड़ी है। सब दौड़े...मछली पानी से निकल चुकी थी।

"हराही,.. ऐ हराही..."

"जी मालिक..."

"ये मधुबनी के लिए बस कहां से मिलेगी?"

"साहब, एहि ठांऊं सं कनिके दूर हई बेला मोड़.. वहीं भेंट जायत.." मलाहिन अंदेर में लुप्त हो गई। किसी ढिबरी जलते घर में उसका घरवाला इंतजार कर होगा। बच्चे खाने के लिए भात की बाट जोह रहे होंगे।

Thursday, June 7, 2012

सुनो! मृगांकाः रौशनदान

तुम्हारा नाम क्या है...? अभिजीत ने पूछा था। उसी सवाल के दौरान उसे मलाहिन मृगांका जैसी लग गई थी। अभिजीत उसके बाद खयालों में उतराने लगा था...क्या मैं पागल हो रहा हूं।

वह मलाहिन (मल्लाहिन) ठठाकर हंस पड़ी, "नाम..हमारा कोई नाम नहीं होता..घरवाले गामवाली कहते हैं..बच्चे माई कहते हैं, और बच्चे का बाप बच्चे की माई कहकर बुलाता है। नाम बचा कहां...?"

'लेकिन कोई तो होगा शादी से पहले का..'
'हां है ना.. हराही..'

'हराही.. औरत ने जोर देकर कहा। धूप की तेज़ रौशनी में उसका गहरा रंग और दिपदिपा गया। पेशानी पर पसीने की बूंदे छलक आई थी। मोती जैसी चमकती हुई। मंत्री ने कड़क कर आदेश दिया,-- महाराज जो पूछ रहे हैं उसका ठीक-ठीक जवाब दो मलाहिन..

जी मालिक, मलाहिन का सिर झुक गया। कसा हुआ जवान शरीर। महाराज ने उसे गौर से देखा। एक नजर से देखा। लेकिन दरबारियों ने उसे देखा दूसरी नजर से। मंत्री शब्द तौल रहे थे, दरबार सजा था। दो नाईनें अभी आईँ थीं और महाराज के प्रौढ़ लेकिन युवा दीखते शरीर पर चंदन का उबटन रगड़ रही थीँ।

"बता दे हराही मलाहिन..जब चिलहौरिया (चील) तेरी टोकरी से मछली लेकर उड़ गई तो तू खिलखिलाकर हंस क्यों पड़ी..?"

"महाराज, उसे मछली लेकर उड़ते देखकर मैं नहीं हंसी थीं.."

"तो क्यों हंसी थी?"
"महाराज, उसने थोड़ी ही दूर जाकर मछली गिरा दिया था इसलिए हंसी थी"
"..
इसमें हंसी की क्या बात थी?"--मंत्री ने फिऱ दखल दिया।
"महाराजजान की छिमा.. नहीं बता सकती ये बात।"
"क्यों..?" महाराज की भृकुटियां तन गईं, मुखमंडल क्रोध से लाल हो गया। राजपुरोहित ने पल भर में स्थिति ताड़ ली। उन्होंने महाराज को कुछ संकेत किया। संभवतः शांति बरतने का, और हराही मलाहिन के पास गए।

"सुनो मलाहिन... जो कुछ भी तुम्हारा नाम है.." उनके स्वर में पर्याप्त नरमी थी। "... राजहठ और बाल हठ के बारे में तो तुमने सुना ही होगा..." राजपुरोहित सफेद कपडों और सिर पर लाल पाग के साथ भव्य दिख रहे थे। बिलकुल दिव्य..। मुंडित सिर, श्रीखंड चंदन से ललाट पर त्रिपुंड और उसमें सिंदूर का ठोप (बिंदी) एक संपूर्ण आकर्षक व्यक्तित्व..।

राजपुरोहित मलाहिन को इशारा कर किनारे ले गए।

"...देख मलाहिन, महाराज अब हठ पर उतर आए हैं। अगर तुम नहीं बताओगी तो उऩके एक आदेश से तुम्हारा सिर क़लम हो सकता है। तुम्हारा सारा परिवार संकट में आ जाएगा.."

राजपुरोहित समझाने की कोशिश कर रहे थे और उधर सारे दरबारी अदना-सी मलाहिन की हिम्मत पर हैरान थे। दो कौड़ी की मलाहिन और ज़िद ऐसी जैसे तिरहुत की पट्टमहिषी हो..। जिद भी किसलिए.. क्यों हंसी ये नहीं बताएगी। महाराज ने इन छोटे लोगों को इसतरह सिर पर बिठा लिया है। राजहित और राष्ट्रहित में कुछ भी निजी नहीं रहता..दरबारी भुनभुना रहे थे।

मलाहिन बोलती क्यो नहीं?

राजपुरोहित थोड़ी देर तक हराही मलाहिन से विमर्श करते रहे। अब तक राजा की उत्सुकता भी बढ़ गई थी। राजपुरोहित महाराज के पास आए, "महाराज। अभयदान की शर्त पर मलाहिन आपसे कुछ अर्ज़ करना चाहती है"-- राजा ने साधिकार हाथ उठाकर अभयदान दिया। मलाहिन विनीत आकर किनारे खड़ी हो गई,-" महाराज। अगर मैं सच बताती हूं तो मेरी जान जाएगी और नहीं बताती हूं तो राजकोप की भागीदार होऊँगी..."

राजा ने सहमति में सिर हिलाया। मलाहिन ने बेकरार सेनापति की ओर एक बंकिम दृष्टि फेंकी और राजा से कहा," महाराज। मैं अगर आपको अपनी हंसी का रहस्य बताती हूं तो मेरी तत्काल मृत्यु हो जाएगी। लेकिन तब मेरे छोटे-छोटे बच्चों का क्या होगा...?"

"तुम्हारे बाल-बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी राज्य की होगी। लेकिन तुम फौरन से पहले अपनी हंसी का कारण बताओ और वातावरण को ज्यादा रहस्यमय मत बनाओ"... राजा अधीर हो रहे थे। उस वक्त जब नाईनें मेरी देह पर तेल मल रही थीं..और तू मछली लेकर नीचे राह से गुजर रही थी। तो एक चिलहौरिया (चील) तुम्हारे छिट्टा से मछली लेकर उड़ गई.. ये तो तुम्हारे लिए साफ-साफ घाटा था लेकिन उसके बाद तुम ठठाकर हंस पडी..सो क्यों यह तत्काल मुझे बताओ..."

दिल्ली, एक न्यूज़ चैनल का दफ्तर, शाम सात बजे...

मुझे बताओ कि इस सीरीज़ ब्लास्ट के लिए एंकर कौन है? तकरीबन गुस्से में फ्रेंच कट दाढ़ी वाले एडिटर-इन-चीफ ने पूछा। आउटपुट तैयार बैठा था। दिल्ली में सात जगहों पर ब्लास्ट हुआ है। अभी एक नई एंकर है, जो शुक्र ग्रह के सूर्य के सामने से आने वाले ग्रहण जैसी परिस्थिति पर आधे घंटे का विशेष कर रही है।

वो संभाल नहीं पाएगी। आज भारत की 12वीं योजना पर हमने बात करने के लिए प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार की एडिटर को बुलाया था, उसी को गेस्ट में बिठा लेना।

सर वो बोल पाएगी?--संशय में पड़े प्रोड्यूसर ने पूछा।
जब तक हमारे रिपोर्टर घटना स्थल पर नही पहुंच जाते, तबतक उनसे बात करते रहो। तब तक पुलिस कमिश्नर वगैरह को लाईनअप करो। पुलित्जर मिला है इन एडिटर साहिबा को...बोल जाएगी। ठीक नहीं बोला, तो आधे घंटे बाद बदल देंगे। पॉलिटिकल पार्टियों के रिएक्शन लो, होम मिनिस्टर की बाईट की कोशिश करो...

यस सर, असाइऩमेंट से आज्ञाकारी आवाज आई।
प्रोड्यूसर ने फिर पूछा, सर एंकर किसको लें।

मृगांका को ले लो। अभी उससे बेहतर एंकर हमारे पास नहीं है। उसे इऩ सब मामलों की बेहतर समझ भी है।

प्रोड्यूसर भुनभुनाने लगा। स्साला छह महीने पहले विदेश से आई है, आते ही खोपड़ी पर बैठ गई। दो-चार पुरस्कार जीत लिए, दो चार हिट प्रोग्राम ठोक दिए, बन गई स्टार। हुंह...।

आउटपुट हेड गया नहीं था...कुछ कहा तुमने तिवारी?

नो सर
अच्छा है, जाओ जल्दी..। हरी-अप।

ब्रकिंग की पट्टियां फुल स्क्रीन पर छा गई थीं...दिल्ली में सात ब्लास्ट। थोड़े बहुत विजुअल भी आ गए थे।


दरभंगा, बेला मोड़ के पास, शाम सात बजकर दस मिनट...

हराही मलाहिन के साथ चल रहा अभिजीत सिगरेट पीने के लिए जेब टटोलने लगा। देखा, तो उसके पॉकेट में लाइटर नदारद था..पास की दुकान पर माचिस लेने गया तो वहां मशहूर चैनल की लाल पट्टी पर सीरीज ब्लास्ट की खबरें आ रही थीं।

वह रुक गया, पूरे स्क्रीन पर शब्द छाए थे, तस्वीरें नहीं थी अभी। लेकिन आवाज़ उसे बहुत जानी पहचानी लगी। थोड़ी देर बाद स्क्रीन पर एंकर नमूदार हुई तो अभिजीत एकदम से चौंक ही गया। मृगांका....

दुकान वाले ने कहा, हां सर, मृगांका है। नई है। छह महीने से आ रही है टीवी पर, लेकिन जबर्दस्त है।

अभिजीत ने मलाहिन को थोडा़ इंतजार करने को कहा, वह कुछ देर और मृगांका को देख लेना चाहता था। इतने महीने, बल्कि साल गुज़र गए...मृगांका कहां बदली है।

मृगांका, उफ़...मृगांका।

Tuesday, June 5, 2012

सुनो मृगांकाः फ़ना

प्लास्टिक के बोरों पर जमी दुकानों में केरोसिन की कुप्पियां जल गईँ। चने के सागवाली के सारे साग बिक गए थे, वह बोरे समेटकर दुकान बढ़ाने की सोच रही थी। उसकी दुकान के ठीक बग़ल में एक मछलीवाली बैठी थी। बोरे पर ही पसरी मछलियां..हरकतहीन.. जीवन का कोई लक्षण शेष नहीं।

अभिजीत मछलीवाली की दुकान के पास आकर ठिठक गया। बोरे पर आधा किलो-तीन पाव के करीब रोहू, थोड़ी झींगा, दस-बारह गरई और उतनी ही गैंची बची रह गईं थीं। थोड़े से घोंघे भी थे। कुल मिलाकर आधे घंटे में साफ हो जाने लायक माल।
उस का ध्यान थोड़ा भंग हुआ। मलाहिन उसी को लक्ष्य करके कुछ पूछ रही थी- का बाउजी, का खरीदेंगे..थोडे गरई-गैंची बचे हैं..तौल दें का ?...गिरहथनी (गृहस्थिन, घरवाली) खुश हो जाएंगी। झोल-भात खा लीजिएगा... अभिजीत बहुत देर बाद मुस्कुरा उठा।

..
गृहस्थिन शब्द को अभिजीत ने बहुत देर तक चबाया। मुस्कुरा उठा वह। कौन है उसकी गृहस्थिन...मृगांका..इस जन्म में तो नहीं मिलेगी वो तो।

... तो इहां काहे के लिए खड़े थे...मलाहिन भी हिंदी सुनकर हिंदी पर उतर आई।
ऐसे हीबस अड्डे तक जाना है, लेकिन पता नहीं किधर से जाऊं..
...
चलिए, हमको भी उधर ही जाना है, आपको बस ही पकड़ना है या कुछ और काम है…?”

नहीं, नहीं, बस ही पकड़नी है।
तो ठीक है, बस अड्डा की बजाय आप मेरे साथ बेला मोड़ तक चलिए..बस वहीं मिल जाएगी.. कहां जाना है वैसे..

..मधुबनी..
हां, मधुबनी के लिए बस मिल जाएगा आपको वहां से.. हर बस वहां जरूर रुकता है।..बस जरा दुकान बढा लें..

मलाहिन ने जल्दी-जल्दी बोरियां समेटकर टोकरी में ढिबरी, बोरियां और मछलियां डाल लीं, और चल पड़ी।...साहिब, आइ-काइल काम नै भेटई हई…(साहब आज-कल काम नहीं मिलता)...उसने अपनी हथेलियां रगडीं... अभिजीत अपनी सोच में डूबा रहा..।

गरम हवा के झोंके ने उसकी सोच को ज्यादा स्थिर नहीं रहने दिया। उसने एक सिगरेट सुलगा ली। थोड़ी देर चुप्पी छाई रही। और चुप्पी उस अभिजीत को ज्यादा खल रही थी। मौन उसी ने तोडा़।

अभिजीत ने बड़े गौर से उसे देखा। बहुत कम रौशनी के बावजूद वह मलाहिन गहरे रंग की थी यह दिख गया उसे। उसे लगा कि इस मलाहिन को कहीं देखा है..लेकिन कहां...?
तुम्हारा नाम क्या है...?
मृगांका...!!

उसे हर जगह मृगांका दिखती है। उसे हर कोई मृगांका-सी क्यों दिखती है। उन दिनों जब वह मृगांका से बात भी नहीं कर पाया था। एक दोपहर स्टोरी पर निकलने से पहले उसने पूरे न्यूज़ रूम में देखा था। मृगांका कहीं नहीं दिखी थी।

निराश होकर वह निकल पड़ा था। पता नहीं कहां है मृगांका। आई क्यों नहीं आज। उसे ऐसे ही खाली-खाली नजरों से घूरते देख उसकी मुंहबोली बहन ने कह दिया क्या भैया, नहीं आई है आज?

वह झेंप-सा गया था। बहन चेहरा पढ़ना जानती है। खासकर, अभिजीत का चेहरा फटाक-देनी से पढ़ लेती है।

उन दिनों वह मजदूरों पर एक स्टोरी कर रहा था। प्रवासी मजदूरों पर। दोपहर का सूरज सिर पर चमक रहा था। आनंद विहार के पास  गंधाते हुए नाले  के किनारे अस्वास्थ्यकर इलाके में बने झोंपड़े। ज्यादातर लोग रेहड़ी लगाने वाले।

अचानक उसे लगा मृगांका वहीं है। पास जाकर देखा था तो पता चला, मृगांका सारे बच्चों को इकट्ठा कर रही है। उसके साथ आया फोटोग्राफर हैरान-परेशान सा खड़ा था। अपने डिजाइनर गमछे से पेशानी पर चुहचुहा आए पसीने पोंछते हुए रवि (फोटोग्रफर) ने बताया कि दिल्ली की झुग्गियों में एजुकेशन की एक स्टोरी करने आई हैं मैडम। स्टोरी हो चुकी है। पिछले एक घंटे से सारे बच्चों को इकट्ठा करके पता नहीं क्या-क्या बातें कर रही हैं।

एक आदमी प्रसन्नवदन खड़ा था। जिन बच्चों से मृगांका बातें करने में मशगूल थी, उन्हीं में से एक का बाप। उनकी माएं भी वहीं थीं। चेहरे पर एक मुस्कुराहट के साथ।

मृगांका...अभिजीत ने देखा। पीले दुपट्टे को बेतरतीबी से कमर में खोंसे। नीले रंग का सूट। सारे बच्चों से पूछ रही है पढोगे ना। सारे बच्चे सहमति में सिर हिला रहे हैं। एक छोटी-सी लड़की...जिसकी नाक बह रही है। मृगांका के पास आकर खड़ी है..धीरे से उसे खींचकर मृगांका गोद में बिठा लेती है।

अभिजीत को बच्चों से प्यार नहीं है। लेकिन, उसे मृगांका को देखकर लगा कि यह लड़की महज प्यार करने लायक नहीं है। इसके लिए तो दिल में सम्मान और श्रद्धा उमड़ रही है। ओह, जिदंगी भर मृगांका की ताबेदारी कर सकता है वो।

झोंपडी के दरवाजे की जगह टाट का परदा पड़ा था। एक घर से स्टील के बहुत पुराने से कप में चाय आ गई। मृगांका धीरे से मुस्कुराती है...नहीं मैं चाय नही पीती।

अरे मैडम कप को बहुत अच्छे से रगड़ कर धोया है। बच्चे का पिता इसरार करता है, 'मैडम पी लीजिए ना...अच्छा लगेगा।'
'अरे नहीं, भैया, मैं सच में चाय नहीं पीती। वो जो सामने खड़े हैं ना...हमारे सीनियर हैं। उनको चाय बहुत अच्छी लगती है। उनको दीजिए।'-- मृगांका फिर से मुस्कुराती है।
'लेकिन अगर आप को लगता है कि चाय आपके यहां की है इसलिए मैं नहीं पी रही तो ये बात नहीं। मुझे एक प्लेट में थोड़ी-सी चाय दे दीजिए।'

अभिजीत हैरत में पड़ गया। रवि और अभिजीत के पास चाय पहुंच गई। एक रकाबी में मृगांका चाय पीने लगी।

चाय खत्म हुई तो मृगांका वहां तक पहुंची, जहां बिजली के एक खंभे से टेक लगाकर अभिजीत खड़ा था। 'हैलो सर, इधर कैसे...?'

'बस स्टोरी के लिए ही...'
आप हमारे साथ चलेंगे क्या दफ्तर तक...? जवाब में अभिजीत ने टुकड़ों-टुकड़ों में बताया कि वह अपनी बाईक से आया है। रवि ने हैरान होकर देखा..अभिजीत ऐसा तो न था। बोलते वक्त ऐसे तो कभी हकलाता नहीं था कभी अभिजीत। आज...रवि के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।

अच्छा, आपको...मेरा मतलब है तुमको... कैसे पता चला कि मैं आय़ा हूं?

मृगांका मुस्कुरा उठी।

.ये सोचना गलत है कि तेरी खबर नहीं.....मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बेखबर नहीं...मृगांका फिर से मुस्कुराती हुई गाड़ी में बैठ गई। सारे बच्चे उसे टाटा करने गाड़ी तक चले गए।

अभिजीत ठगा-सा देखता रहा। आज सेलिब्रेट करने का दिन है। उसने प्रशांत को फोन मिलाया...बॉस आज ब्लेंडर्स प्राइड का खंभा ले आना। मृगांका की गाड़ी निकल गई थी...उसने देखा, मृगांका पलटकर उसे ही देख रही है।


क्रमशः