Thursday, December 27, 2012

ले बलैया...इ साल भी गया!

ससुरा इहौ साल बीत गया।  हम मान कर चल रहे हैं कि बीत गया। सब निगोड़े रोते रहे। वही महंगाई, वहीं मुद्रास्फीति, वही 32 लाख रूपये का गुसलखाना...सॉरी मूत्रालय...वही मैंगो पीपल, जो 32 रुपये में शहर में रह लें, 26 रूपये में गांव में बसर कर लें।

समस्या कहां है?

समस्या तब आती है जब देवी महात्म्य का पाठ करने वाले देश में फोटो को फेवीकोल से चिपकाय लिया जाता है। जब सप्तशती का पाठ करने वाले देश में छह लोग एक छात्रा के साथ रेप करते हैं।

समस्या अब भी नहीं है। आम आदमी अब एक क्लीवलिंग न होकर (संस्कृत वाला क्लीव लिंग जिसे अंग्रेजी में न्यूट्रल जेंडर कहते हैं) एक पार्टी बन गई है। ये नहीं पता कि इस संगठन में कितने मैंगो पीपल हैं।

यह साल हमेशा याद रहेगा। इस साल के बारे में एक ज्योतिषी ने मुझसे कहा कि तुम विश्वप्रसिद्ध हो जाओगे। हम नहीं भए। हां, उस ज्योतिषी को हमने बहुत ठोंका।

इस साल भी हम उसी तरह गरीब रहे, जितने 2010 में थे। इस साल भी हम पर कर्ज उतना ही रहा, जितना पिछले साल के आखिर में था। इस साल भी हमारे सपनों की मेढ़ उतनी ही कच्ची रही, जितनी पिछले बरस रही थी।

इस साल सपने देखने की आदत छुड़ा दी, तो सपनों के बीज भी रोप दिए।

यह साल भी ऐसा ही रहा। उसी तरह बेसिरपैर की फिल्में, उसी तरह रोज रोज की नौकरी, उसी तरह मॉनसून कमजोर होना, उसी तरह मंदी, उसी तरह ओबामा, उसी तरह ईरान, इराक़, मिस्र (सुना था मिस्र में तहरीर चौक पर कुछ हुआ...अब हंसी आती है उस पर। हमारे यहां एक बात कही जाती है, फॉर ऐनी रिवॉल्यूशन यू नीड टू हैव अ रिवॉल्यूशनरी आईडियोलजी एंड अ रिवॉल्यूशनरी पार्टी, किसी भी क्रांति के लिए एक क्रांतिकारी पार्टी और क्रांतिकारी विचारधारा की जरूरत होती है)

ये दोनों रामलीला मैदान के कारपोरेट आंदोलन और दिल्ली गैंप रेप में नदारद रहे।

सरकार से बलात्कारियों को तुरंत फांसी पर लटकाने की बेसिर-पैर की मांगे की गईँ। पहली मांग सुषमा स्वराज ने की, जो खुद वकील रह चुकी हैं। उन्हें भी पता होगा कि धारा 376-जी में अधिकतम सज़ा उम्र क़ैद हो सकती है।

खैर...। अगले मंगलवार को, जब नए साल का आग़ाज़ होगा तो यक़ीन मानिए कुछ नहीं बदलेगा। चौराहे पर वही कड़े दिखने वाले घूसखोर पुलिस अधिकारी मिलेंगे, अस्पताल में वही चिड़चिड़े से डॉक्टर मिलेंगे, दफ्तर में वही राजनीति पर उतारू मुंह पर मीठा बोलने वाले सुगरकोटेड लोग मिलेंगे, वही बॉस मिलेगा, जिसको हमेशा आपकी क्षमता पर संदेह होगा....सब्जी भाजी वाले उसी तरह हर रोज आलू प्याज दाम बढ़ाकर बेचते नजर आएंगे।

संसद में अगले साल भी सांसदो का वेतन वृद्धि वाला विधेयक सर्वसम्मति से पारित होगा। अगले साल भी मुलायम पिछड़ो और मुसलमानों को गोलबंद करते दिखेंगे, मायावती दलित कार्ड खेलेंगी, अगले साल मोदी अपने किले की नींव मजबूत करते दिखेंगे, ताकि उसी किले के बुर्ज से 15 अगस्त 2014 को राष्ट््र को संबोधित कर सकें।

नक्सल समस्या जस की तस बनी रहेगी, पाक से हम क्रिकेट खेल लें, दोस्ती दुश्मनी की सरहद बनी रहेगी, हमारे पीएम भी ओबामा की फोटो देखकर ही मुस्कुराएंगे, वरना साल भर उनकी मुस्कुराहट भी ईद का चांद बनी रहेगी....

दंतेवाड़ा, सांरडा में फिर कुछ पुलिस कर्मी शहीद होंगे, फिर उन्हें कुछ सम्मान दिया जाएगा। यानी अगले दिसंबर की इन्हीं आखिरी तारीखों में यही-यही सब लिखना होगा, जो हम इस साल लिख चुके हैं। हां, कुछ आंकड़ों में फेरबदल हो सकता है, कुछ तारीखों में बदलाव होगा।

लेकिन हम बदलेगे नहीं, क्या आपको लगता है कि गैंप रेप से जुड़े मसलों पर फांसी दे देने से भी बाकी के छुपे अपराधियों की मानसिकता बदल जाएगी? जनाब, हम लोग बदलने वाली क़ौम नहीं हैं।

 हम कष्ट सहते रहेंगे, बिना हैंड पंप के रह लेगें, हमारे गांव में भले ही चलने को सड़क न हो...लेकिन हम वोट तो अपनी ही जाति में देंगे।

साल 2012 और 2013 में कुछ खास अंतर नहीं होगा, सिवाय अंकों के...और हां, मैं सुनो मृगांका के कुछ और सिसकते पन्ने इस बेव की वर्चुअल दुनिया में डाल चुका होऊंगा।



Wednesday, December 12, 2012

...और क़यामत नहीं आई


क़यामत भी नेताओ और माशूकाओं की तरह धोखेबाज़ है। आते, आते नहीं आती है। वायदा करती है और नहीं आती है। कई साल से टीवी वाले चीख रहे थे, 12 दिसम्बर 2012 को क़यामत आएगी। हम भी बड़ी शिद्दत से क़यामत का इंतज़ार कर रहे थे। हम बहुत नजदीक से देखना चाहते थे कि क़यामत आखिर होती कैसी है। सुना था क़यामत के रोज़ क़ब्र से मुरदे उठ खड़े होंगे और सबके पाप-पुण्य का हिसाब-किताब होना है।

हम डरे हुए थे, बड़ा एंडवेंचरस से विचार आ रहे थे। काहे कि हम पापियों की श्रेणी में गिने जाते हैं।

फिर मन में बड़े गहन विचार उत्पन्न हुए आखिर क़यामत है क्या..। लोगों ने समझाया कि इस के बाद धरती पर सारे लोग खत्म हो जाएंगे। धरती लोगों के रहने लायक नहीं रह जाएगी। एक सवाल अपने आप सेः धरती अभी लोगों के रहने लायक है क्या?

कुछ लोग अपनी महबूबा को क़यामत सरीखा मानते हैं, कुछ अपनी पत्नी को कहते तो शरीक-ए-हयात हैं लेकिन मानते क़यामत ही हैं। पहले पत्नियों वाली बात। बीवी को क़यामत ने मानने वालों के लिए, श्रीमतीजी का जन्मदिन, उनके भाई का जन्मदिन, अपनी शादी की सालगिरह की तारीख़ भूलकर देखिए (यद्यपि हमारा विचार है कि यह तारीख़ भूलने योग्य ही हुआ करती है।) आपके लिए वही तारीख़ क़यामत सरीखी हो जाएगी। उस दिन कायदे से क़यामत बरपा होगा आप पर।

आपकी महबूबा ने फोन पर आपसे कहा, फलां दिन मिलते हैं। किस जगह, किस वक़्त, ये बाद में बताने का वायदा। फिर आप तैयार होना शुरु करते हैं...सिगडी़ पर दिल सेंकते हुए, तेरा रास्ता देख रहा हूं, गुनगुनाते हुए...आपकी क़यामत सरीखी महबूबा, जिनकी आंखों, भौंहों, पलकों, अलकों (बाल की लटों) बालों, गालों, गाल पर के तिल, होठों, मुस्कुराहट, गरदन, ठोड़ी, कलाइयों, कलाई के ऊपर के एक और तिल, कमर सबको एक-एककर क़यामत बता चुके हैं।

सोमवार को आपने उनके चलने को क़यामत कहा था। मंगलवार को उनकी मुस्कुराहट से क़यामत आई थी। गुरुवार को उऩकी आवाज़ क़यामत सरीखी थी। शुक्रवार को वो क़यामत का पूरा पैकेज लग रही थी। मतलब सर से पैर तक क़यामत ही क़यामत। बहरहाल, आपने तय किया था कि इसी क़यामत से मिलकर क़यामत की घटना को सत्य ही घटित करना...लेकिन असली क़यामत की बारी तो अब आती है।

आप टापते रह जाते हैं। आपके जिगर पर छुरी चल जाती है। लड़को का जिगर प्रायः छुरियों के नीचे ही पड़ा रहता है। आपकी उनने कुछ किया या न किया, आपकी तरफ देखा, नहीं देखा, आपसे समय पूछा, हंसी, नहीं हंसी, आज उनने जीन्स पहनी है, आज उनने सलवार सूट पहना है, आज उन्होंने आपकी तरफ देखा, आज उनने आपकी तरफ देखकर थूका नहीं...आपको वह क़यामत लगेगी। आपके दिल पर छुरियां चल जाएगी।

बहरहाल, ये तो बहुत निजी क़िस्म की क़यामतें हैं। जहां प्रेमिकाएं अपने प्रेमी से फायरब्रिगेड मंगवाने की इल्तिजा करती हों, जहां प्रेमी को प्रेमिका का प्यार हुक्काबार लगे, या तस्वीर को फेविकोल से चिपका लिया जाए वहां बाकी की क़यामतों पर क्या नज़र जाएगी।

पिछले दिनों राज्यसभा में रिटेल में एफडीआई पर बहस के दौरान क़यामत आती-सी लगी। आई नहीं, ये बात और है। विपक्ष सरकार पर टूट पड़ा, रिटेल में एफडीआई आ गया तो हुजूरेआलिया क़यामत आ जाएगी। सरकार की तरफ से मंत्रियों ने कहा, अगर एफडीआई नहीं आय़ा तो क़यामत होगी।

दीपेन्द्र हुडा ने सुषमा को कहा आंटी जी हम हरियाणा में 24 इंच का आलू उगाएंगे, यह भी कम क़यामत न था। इन सबपर भारी था मनमोहन सिंह करीब डेढ़ सेकेन्ड तक मुस्कुराते रह गए थे। सामने अमेरिका का कोई राष्ट्रपति नहीं था, फिर भी मुस्कुरा रहे थे। प्रधानमंत्री की मुस्कुराहट आधा या पौन सेकेन्ड और जारी रहती तो अल्लाहक़सम क़यामत उसी रोज़ आ जाती...।

क़यामत भी नेताओ और माशूकाओँ की तरह धोखेबाज़ है। आते, आते नहीं आती है। वायदा करती है और नहीं आती है। हमको लगा अब न्याय होगा। लेकिन क़यामती न्याय की झलक नहीं दिखती। क़यामती पत्रकारिता करने वाले, स्वर्ग की सीढी खोजकर दुनिया को सीधे स्वर्ग स्थानांतरित करने वाले महान् पत्रकारों की जमात किसी और सीढ़ी की तलाश कर रही है।

खैर...लोग कहते हैं क़यामत नहीं आई। लेकिन, महंगाई के दौर में, रसोई गैस से लेकर पानी तक पहुंच से दूर पहुंचने के दौर में, और उस दौर में जब क़यामत वायदा करे और न आए...हम बाकायदा ज़िंदा है यह क्या कम क़यामत है?

Monday, December 3, 2012

भोपाल गैस त्रासदीः दो कविताएँ

ह भीड़ नहीं - भेड़ें थी ।
कुछ जमीन पर सोए सांसें गिन रही थीं।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
 

चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहां बना लो।
 

अगर कुछ न समझ में न आए तो,
एक गैसयंत्र और यहां बना लो।
 

मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जाएंगें।



कवि का नामः पता नहीं कर पाए,
[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता, 2 दिसम्बर, 1987]
 

लती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
 

जगो और बता दो,
इतिहास को।
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
 

रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो,
उस नापाक इरादों को।
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।



[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता, 28 दिसम्बर, 1987]


दोनों कविताएं सौमित्र भाई के सौजन्य से हासिल हुई हैं। भोपाल त्रासदी की बरसी पर मासूमों और निर्दोष जानों को समर्पित....

सुनो ! मृगांका :27: साक़ी शराब ला, कि तबियत उदास है...

अभिजीत की बांहो का घेरा कसता जा रहा था...मृगांका नींद के आगोश में डूबती चली गई। डूबती चली गई। इतनी गहरी और आश्वस्तिदायक नींद थी कि लगा मृगांका इतनी अच्छी नींद में पिछले दो साल से सोई ही न थी।

सुबह नींद से जगी तो कपैटड़े संभलाते हुए मृगांका ने देखा, अपनी देर तक सोने की आदत के विपरीत अभिजीत उठकर बिस्तर से बाहर था।

वह बाहर आई...देखा लॉन में बैठकर अभिजीत की मां और मम्मी चाय की घूटें ले रहे हैं।

मम्मा अभि कहां है, मां जी, उठ गया वो?

अभिजीत और उसकी मम्मी की आंखों में सवाल उभर आए...

बेटा, सपना देखा था कोई?


उधर, गांव में  क़िस्सा खत्म नहीं हुआ था, लेकिन बैठक खत्म होने को आई। गांव से जुड़ी कुछ समस्याओं को लेकर अभिजीत गांव का दौरा करना चाह रहा था। लेकिन अगले दिन न तो मुखिया जी खाली थे न ही महंत जी। महंत जी ने कहा, आपके साथ उगना चला जाएगा. इस पूरे इलाके का चप्पा-चप्पा इसको पता है।

अगले दिन अलसभोर में ही उगना ने अभिजीत को जगा दिया।

दोनों साथ निकल पड़े थे। पैदल ही।

चलते-चलते  बहुत देर हो गई। उगना भी चुप था और अभिजीत भी। अभिजीत कच्चे रास्ते की मैदे सी बारीक धूल को देखता चल रहा था। कुछ ही देर में उसे भूख लग आई।

अपने रिपोर्टिंग के दिनो में उसने भूख पर काबू पाने के नायाब तरीके खोज निकाले थे। लेकिन, मृगांका..वो ऊंचे दरज़े के खानदान की थी। उसे हाइज़ीन और सेहत से जुड़ी साफ-सफाई का बहुत ध्यान रहता था।

याद आया उसे दो दिनो केलिए मृगांका बाहर गयी थी। बात तब की है जब अखबार छोड़कर उसने एक बड़े से खबरिया चैनल में नौकरी कर ली थी।

इस नई नौकरी के लिए अभिजीत ने बहुत जोर दिया था। गोकि मृगांका अखबार में नौकरी करते हुए अभिजीत से रोज ब रोज़ मिलने का वो मौका छोड़ना नहीं चाहती थी। अभिजीत की इच्छा थी कि मृगांका उसे एंकरिंग करती दिखाई दे।

मृगांका को अभिजीत की बात माननी ही पड़ी थी। लेकिन, दो दिनों के लिए बाहर गई मृगांका के लिए मुसीबत खड़ी हो गई। मृगांका बाहर न तो खा सकती थी न ही कुछ निवाला उसके हलक के नीचे गया।

दो दिनों तक सांस अटकी रही थी अभिजीत की भी...। कितनी बार कहा था मृगांका को, बैग में ड्राइ फ्रूट्स रखा करो, चॉकलेट रखा करो। लेकिन वो भी अपनी जगह जिद्दी ही थी।

अल्लसुबह घर से निकली मृगांका उस दिन देर रात गेस्टहाउस पहुंची थी, दिन भर की भूखी। अभिजीत ने सोचा था कि जब तक मृग खुद खाकर उसके बता नहीं देगी कि उसने खा लिया है, तब तक वह भी नही खाएगा...लेकिन ऐसा हो नहीं पाया था।

क्यों न हो पाया था. ये बड़ी हंसी वाली बात है। उस दिन असल में खाया तो सच में अभिजीत ने कुछ तो सही में नही, लेकिन पीने से खुद को रोक नहीं पाया था। पीने के साथ कुछ चबेना तो चाहिए ही था.....इसलिए जब तक मृगांका नहीं खाएगा वाला प्रण अधूरा रह गया था। सिगरेट की छल्लों वाले धुएं में उसे मृगांका का चेहरा दिखता रहा था रात भर।

उगना आगे आगे चल रहा था। उसके पैर पतले-पतले थे। चलते समय ऐड़ियां पैरों की बनिस्बत आसपास गिरती थीं...बिलकुल दुबला...। सिर के बाल भूरे, कुपोषण का शिकार।

पढ़ना जानते हो उगना...अभिजीत ने बातचीत का सूत्र पकडा.
नहीं।
पढ़ते क्यों नहीं..
पढने जाएंगे तो छोटी बहन का पेट कैसे भरेगा।

अभिजीत निरुत्तर रह गया। अच्चा तुमको वो उगना वाली कहानी याद है?

हां, सुनोगे क्या
सुनाओ

एक दिन महाकवि विद्यापति कहीं जा रहे थे, रास्ते में उनको प्यास लगी, यहां तक की कहानी तो आप जानते ही हैं। अभिजीत ने हामी भरी।

तो कवि विद्यापति ने उगना से कहा कि कहीं से पानी लेकर आओ। आसपास कहीं कोई कुआं नहीं, न को ई तालाब....चारों तरफ सूखा...

अभिजीत ने देखा, चारों तरफ सूखे खेत थे। धान की कटाई के बाद पौधों की ठूंठें थीं...। खेत की जमीन में दरारें पड़ी थीं।

उगना पानी पिलाओंगे।

हां मालिक।

उगना पानी लेने चला गया।

थोड़ी देर बाद लौटा तो लोटे में पानी था। अभिजीत ने पानी पिया, आठ सौ साल पहले महाकवि विद्यापति ने भी पानी पिया था। अभिजीत ने देखा, पानी एक दम साफ निर्मल और स्वच्छ था..उसे याद आया गंगोत्री गया था वो, अपनी बुलेट पर। पीछे थी मृगांका...तो गोमुख के पास गंगा का पानी भी इतना ही निर्मल था।

पानी कहां से लाए हो उगना। अभिजीत ने पूछा, इक्कीसवीं सदी में, विद्यापति ने पूछा था ग्यारहवीं सदी में।


...जारी





 

Friday, November 30, 2012

सुनो! मृगांका:27: तारे सब बबुना, धरती बबुनिया

अभिजीत खिड़की से कूद कर आया था, उसने कहा था कहा चोरी से मिलने का मज़ा हमेशा मीठा होता है।

अचानक मृगांका को लगा कि उसकी गरदन के पीछे किसी ने हल्का किस किया है। एक दम हल्का। कुछ ऐसा ही स्पर्श था, जैसे अभिजीत करता था। वह लेटी ही रही। फिर अचानक हाथ सरकता हुआ उसके कमर के इर्द-गिर्द लिपट गया। वह चिहुंकी, वह पलटी तो  देखा....

अरे, अभिजीत तुम?

अभिजीत की आंखों में शरारत नाच उठी थी। उसने देखा, मृगांका ने बहुत गहरे रंग की लिपस्टिक लगाई थी..लापरवाही से पहनी एक टी शर्ट...शायद हल्के पीले रंग का।

अभिजीत ने कहा, सरसों का फूल लग रही हो।

श्शशश....तुम्हारी मां आई है।
कहां
मेरी मां के कमरे में सो रही होंगी...या शायद गपें मार रही होंगी....लेकिन तुम्हें नहीं पता, अभि...मां तुमसे कितना प्यार करती हैं। तुमको हमेशा लगता रहा कि वो तुमसे प्यार नहीं करतीं...तुम हमेशा कहते रहे कि मां को अचार के मर्तबान मुझसे ज्यादा प्यारे हैं...तुम हमेशा अकेलेपन की शिकायत करते रहे...अभि...मां बहुत दुखी थीं...अभि...

और तुम मृग...

जवाब नहीं दिया मृगांका ने। बस फफक पड़ी।

कमरे में इस रुलाई से कोई भारी पन नहीं आय़ा था। मृगांका जारी रही, अभि, पता है तुम्हारे बिना मैं कितनी अधूरी थी। कहां चले गए थे, क्यों चले गए थे...तुमसे कभी कुछ नहीं कहा...तुमसे हमेशा कहा तुम अपनी तमाम अच्छाईयों और बुराईयों के साथ मेरे हो...फिर क्यों चले गए थे बिना बताए....

अभिजीत ने अपने दोनों हाथों में बस मृगांका का चेहरा पकड़ रखा था। मृगांका के गरम आंसू उसकी हथेलियों की कोर भिंगो रहे थे।

बाहर आसमान में चौदहवीं का चांद पूरे शबाब पर था। बादल का कोई आवारा टुकड़ा कहीं दूर तलक न था। साहिर लुधियानवी से लेकर गुलज़ार और जालेद अख्तर से लेकर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना तक की,तमाम बड़े और शानदार कवियों की कविताएं एक साथ साकार हो रही थीं।

हवा में नमी थी। मौसम गरम था। अभिजीत के सीने को मृगांका भिगोए जा रही थी।

कमरे में बत्ती मद्धिम जल रही थी। मृगांका के घर के टैरेस पर कई पौधे थे, जिनको अभिजीत के कदमों की आहट की पहचान थी। हर पत्ते को अभिजीत को छुअन की याद थी। अभिजीत की आदत थी, किसी भी पेड़ के पत्तों को छूकर देखना, मृगांका के टैरेस की लता को, उसके हरेपन को अभिजीत की छुअन याद थी...।

दोनों टैरेस पर आ गए थे। तीन साल विरह के, तीन साल दूरियों के, शिकायतों के...कितना कुछ कहना है मृगांका को...कितनी सारी शिकायतें करनी है अभिजीत से...कितना पीटना है उसे उस तकिए से, जिससे मारने से वाकई बहुत चोट आती है। क्या करे मृगांका...रुठ जाए?

नहीं, कितना रोई है अभि के लिए, रूठेगी नहीं। तकिए से पीटेगी उसको...लाख मिन्नतें करे, इस वक्त चाय बनाकर नहीं देगी।

सुबह होते ही मां के सामने खड़ा कर देगी इसे...मां के सामने, जिनने कितने प्यार से सर फेरा था उसके सर पर। अभि के भाई-भाभी को भी अपने दल में कर लेगी, फिर देखेंगे अभिजीत को,....मृगांका न जाने क्या सोच रही थी। अभिजीत की बांहो का घेरा कसता जा रहा था।

...जारी


 

Monday, November 26, 2012

हा सचिन! हा हा सचिन

बात तब की है जब हमारी मूंछों के बाल उगे नहीं थे। तब तक सन् 94 नहीं आया था। तब तक सचिन ने सिंगर कप में पहला सैकड़ा नहीं जड़ा था। लेकिन तब भी, वो अपने खेल और अपने अंदाज़ और अपनी प्रतिबद्धता से इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि बूस्ट का विज्ञापन करती और लोकप्रिय क्रिकेट पत्रिका क्रिकेट सम्राट में छपा उनका पोस्टर  हमारी पढ़ने की मेजो के सामने आकर चिपक गया था।

पोस्टर बनकर चिपकने वाले सचिन आज कहां चिपक रहा है, कहां खो गया है हमारा सचिन। हमें लग रहा था कि कुछ खराब प्रदर्शनों के बाद सचिन अपनी लय में लौटेंगे। न्यूज़ीलैंड के खिलाफ़ हमें लगा था कि सचिन शतक न जड़ें, लेकिन अच्छा खेलेंगे। हम 4-0 से हारे।

मैं पराजयों के आंकड़ो में यकीन नहीं करता। लेकिन सचिन का इस तरह पराजयी भाव दिखाना, एक राष्ट्र के रूप में हमें पस्त करता है। हमने महंगाई झेल ली, हम बेरोजगारी झेल गए, हम तस्करी घोटाले सब झेल गए, क्योंकि परदे पर पहले अमिताभ ने हमारे गुस्से को आवाज दी, और फिर इन्ही निराशा-हताशाओं से उबारने के लिए ज्यादा आक्रामक सचिन तेंदुलकर हमें मिला।

वही, तेंदुलकर, जिसने  ऑस्ट्रेलिया से लेकर इंगलैंड सबको धुना...पाकिस्तान के सामने, जिसे हम धुर विरोधी मानते आए हैं, हमारी पराजय का सिलसिला खत्म किया...आज घुटने टेक रहा है।

यह मसला सिर्फ एक शख्स के संन्यास का नही। चालीस की उम्र के पास पहुंच रहे व्यक्ति को जिसने राष्ट्र के लिए और अपने लिए भी ढेर सारी इज़्ज़त कमाई हो, उसे संन्यास का फ़ैसला खुद लेने देने की छूट मिलनी चाहिए। लेकिन, क्या सचिन 200 टेस्ट मैच खेलने का रेकॉर्ड कायम करने के लिए रूके हैं।

मैं सचिन को लेकर भावुक हो जाता हूं क्योंकि एक आम हिंदुस्तानी की तरह सचिन हमारे दिलों में बसते हैं। रणजी मैच में कितना अच्छा खेले थे सचिन। अब क्यों छीछालेदर करवा रहे हैं।

हम ये कत्तई नहीं चाहते कि सचिन हर मैच में सैंकड़ा ठोंके। हम चाहते हैं कि अगर लोग उन्हें सम्राट, या गॉड कहते हैं, तो उस पदवी के साथ वो खुद न्याय करें। जिस पिच पर पुजारा खेल सकते हैं, जिसपर गंभीर रूके रहे...इन दोनों क्रिकेटरों का कुल अनुभव सचिन के रणजी अनुभव से ज्यादा नहीं।

अब या तो सचिन ज्यादा सावधानी के चक्कर में पिट रहे हैं, या फिर उम्र उन पर हावी होती जा रही है।

अपने नायक की ऐसी दुर्गति मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही...सचिन, मैं अपने बेटे को अज़हर, मोंगिया, या जडेजा नहीं बनाना चाहता था. मैं उसे धोनी या सहवाग भी नहीं बनाना चाहता था। आप ऐसे विहेब करेगे, तो मैं उसे कैसा बनने को कहूंगा।

याद रखिए सचिन, ईश्वर एक वर्चुअल पद है...और उसे भी एक दिन संन्यास ले लेना चाहिए, वो भी बाइज्ज़त।




Thursday, November 22, 2012

सुनो ! मृगांका :26: अब मुझको भी हो दीदार मेरा

मृगांका और प्रशांत जब ड्रॉइंग रूम में आए तो देखा सोफे पर एक महिला बैठी हैं। गौर वर्ण, हिमालय की बर्फ सी धवल केशराशि, भौंहे भी सफेद हो चलीं थीं, सफेद तांत (सूती) साड़ी में लिपटीं महिला...। मृगांका को देखते ही उठ खड़ी हुईं।

प्रशांत ने मिलवाया, भाभी, अभिजीत की मां हैं ये..

जानती हूं...मृगांका मिली नहीं थी कभी अभिजीत की मां से। लेकिन तस्वीरों के जरिए पहचानती थी। मृगांका ने पैर छू लिए। बुजुर्ग महिला ने सिर पर हाथ फेर कर पता नहीं क्या आशीर्वाद दिया, लेकिन उसके ठीक बाद आंखों की कोर से मोतियां झिलमिलाने लगीं।,

बेटा अभि कहां है?

मृगांका चुप रही। प्रशांत ही बोला, चाचीजी, अभिजीत को लेकर ही हम भी परेशान हैं।

तुम क्यों परेशान हो, तुम तो साथ रहते थे, तुम्हें भी नहीं पता? अभिजीत की मां ने एक वक्र दृष्टि प्रशांत पर डाली, तो वह सकपका गया। लेकिन मृगांका से मुखातिब होते ही मां की आवाज़ में मुलायमियत आ गई।

बेटा तुम्हें तो पता होगा...दो महीने पहले घर आया था अभिजीत...अपनी सारी जमापूंजी हमें सौंप गया। बैंक-बैलेंस, फ्लैट की चाबी...उस वक्त तक तो मैं अपने धर्म-कर्म में ऐसी लीन थी, कि कभी याद ही नहीं रहा कि बेटे की तरफ, जवान बेटे की तरफ भी ध्यान देना मेरा धर्म ही है...पता नहीं कहां चला गया। न फोन मिलता है ना कुछ...

प्रशांत को लगा वह यहां से नहीं हटा, तो कलेजा फट जाएगा। मृगांका के पिताजी और प्रशांत किनारे जाकर खड़े हो गए। मृगांका, मां को अपने कमरे में ले गई।

रात के खाने के बाद जब अभिजीत का मां और मृगांका की मां अपने-अपने हिस्से की बातें करने लॉन में चले गए, तो मृगांका बिस्तर पर औंधी मुंह लेटी रही...और पता नहीं कब तक लेटी रही।

...फिर चांद निकल आया और कहीं से उड़ता आया एक बादल का टुकडा

औंधी मुंह ही लेटी थी मृगांका...चांद को चारों ओर से उस मेघ ने घेर रखा था...समझ लीजिए उजाला था भी नहीं भी...सन्नाटा-सा पसरा था। और दिल्ली में तो ससुरे झींगुर भी नहीं बोलते। एकदम चुप्पी...। मृगांका के घर से थोड़ी दूर सड़क पर कुछ अंतराल पर किसी बिगड़ैल रईसज़ादे की कोई कार सर्र से निकल जाती थी.

अचानक, मृगांका को खिड़की पर कोई आहट हुई।

मृगांका ने नजरअंदाज़ कर दिया। उसने अपनी खिड़की में ग्रिल नहीं लगा रखा था...और अभी खिडकी को दोनों पट खुले थे।

उसे याद आया, पापा-मम्मी से मिलने के बाद अभिजीत खिड़की के रास्ते ही मिलने आया था उससे। वेंलेटाईन डे था वो...रात 12 बजे मिलना जरूरी था..और उस समय तक पापा-मम्मी से उतना खुल नहीं पाई थी कि रात के 12 बजे अभिजीत से मिल ले।

अभिजीत खिड़की से कूद कर आया था, उसने कहा था कहा चोरी से मिलने का मज़ा हमेशा मीठा होता है।

अचानक मृगांका को लगा कि उसकी गरदन के पीछे किसी ने हल्का किस किया है। एक दम हल्का। कुछ ऐसा ही स्पर्श था, जैसे अभिजीत करता था। वह लेटी ही रही। फिर अचानक हाथ सरकता हुआ उसके कमर के इर्द-गिर्द लिपट गया। वह चिहुंकी, वह पलटी तो  देखा....

अरे, अभिजीत तुम?


...जारी

Thursday, November 15, 2012

बाल ठाकरे पर कुछ शब्द

महाराष्ट्र के निवासी बाल ठाकरे बीमार हैं. वह पहले कार्टून बनाते थे. अब लोग उनके कार्टून बनाते हैं. बाल ठाकरे ऐसे लोगों को पसंद नहीं करते जो उनकी बात नहीं मानते. उनके पास अपनी एक फौज है. बाल ठाकरे उसे शिवसेना कहते हैं. लोग उसे शिव की फौज नहीं कहते हैं. 200 सालों की गुलामी के बाद भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ, ऐसा इतिहास की किताबें कहती हैं.

बाहर के लोगों को मुंबई नहीं आना चाहिए- ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं. महाराष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है और दुनिया के सभी बड़ी कंपनियों का दफ्तर है-ऐसा सरकारी वेबसाइट कहती है. माइकल जैक्सन नामक एक महान गायक व नर्तक था. वह मराठी मानुष नहीं था. गैर-मराठी भी सम्मान के योग्य होते होते हैं, ऐसा भारत का संविधान कहता है. माइकल को महाराष्ट्र के मुंबई में बुलाया गया.

बाल ठाकरे को माइकल जैक्सन की नृत्य कला पसंद थी. विदेशों से लोग रोजाना मुंबई आते हैं ऐसा पर्यटन विभाग के आंकड़े कहते हैं. माइकल पहला ऐसा गैर-मराठी था जिसे बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र आने का न्योता दिया, ऐसा सभी कहते हैं. माइकल जैक्सन का नाम गिनिज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज है. माइकल को मराठी गीत नहीं याद थे. माइकल सुरक्षित अपने देश पहुंच गया. ऐसा अखबारों की रिपोर्ट कहती है.

बाल ठाकरे ने बंबई का नाम बदलकर मुंबई कराया. नाम का गलत उच्चारण बाल ठाकरे को पसंद नहीं. शास्त्रों में भूल के लिए क्षमा करने को कहा गया है. शास्त्रों का मराठी अनुवाद अभी पूरा नहीं हुआ है. महाराष्ट्र के बाहर के लोग सुंदर नहीं होते. ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं. सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारत के लोगों ने बहुत कम बार खिताब जीता है. ऐसा गूगल कहता है. गैर मराठियों को महाराष्ट्र से चले जाना चाहिए ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं.

कुछ लोग बाल ठाकरे की बात सरलता से समझ लेते हैं. कुछ लोग नहीं समझते हैं. भारत में बात मनवाने के लिए समझाने के अलावा एक और तरीका भी इस्तेमाल किया जाता है. महात्मा गांधी इसे हिंसा कहते हैं. तमिल लोग लुंगी पहनते हैं. बाल ठाकरे लुंगी पहनना पसंद नहीं करते हैं. तमिलनाडु भारत गणराज्य का एक प्रदेश है. तमिलनाडु के लिए मुंबई से कई सीधी ट्रेने हैं.

भारत में पहली रेल महाराष्ट्र में चलाई गई थी. भारतीय रेल का नेटवर्क दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है. बिहार और यूपी महाराष्ट्र से रेलमार्ग से जुड़ा है. बाल ठाकरे का सामान्य ज्ञान औसत से बेहतर है. उत्तर भारतीय गंदगी फैलाते हैं ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं. मुंबई के विकास में उनका भी योगदान है-ऐसा उत्तर भारतीय कहते हैं. मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है, ऐसा विश्व बैंक कहता है. मुंबा देवी के मंदिर के आसपास बसी एक बस्ती की किस्मत बनाने में उत्तर भारतीयों ने अपना खून-पसीना लगाया है, ऐसा गूगल में पड़े रिपोर्ट कहते हैं. यह रिपोर्ट अंग्रेजी में है.

बाल ठाकरे के पूर्वज बिहार से थे, ऐसा दिग्विजय सिंह कहते हैं. दिग्विजय सिंह पढ़े-लिखे हैं ऐसा संसद की वेबसाइट पर छपी उनकी प्रोफाइल कहती है. दिग्विजय सिंह एक किताब रखते हैं. किताब बाल ठाकरे के पिताजी ने संपादित की थी. ठाकरे परिवार बिहार से मध्य प्रदेश होता महाराष्ट्र आया, ऐसा किताब कहती है. यह दुष्प्रचार है ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं. महाराष्ट्र के बाहर से हजारों लोग रोजाना रेलगाड़ी से मुंबई आते हैं. बाल ठाकरे इस पर क्रोध करते हैं.

बाल ठाकरे के एक भी सराहनीय कार्य की चर्चा गूगल पर नहीं है. गूगल का मालिक मराठी मानुष नहीं है.



---राजन प्रकाश

बाल ठाकरे पर कविता

बाल ठाकरे के निधन की खबरें आ रही हैं, और बहुत कुछ मन में आ रहा है, वो बाद में सविस्तार लिखूंगा, लेकिन पहले याद आ रही है बाबा नागार्जुन की यह कविताः

बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे !

कैसे फासिस्‍टी प्रभुओं की --
गला रहा है दाल ठाकरे !

अबे संभल जा, वो आ पहुंचा बाल ठाकरे !

सबने हां की, कौन ना करे !
छिप जा, मत तू उधर ताक रे !

शिव-सेना की वर्दी डाटे जमा रहा लय-ताल ठाकरे !
सभी डर गये, बजा रहा है गाल ठाकरे !
गूंज रही सह्यद्रि घाटियां, मचा रहा भूचाल ठाकरे !
मन ही मन कहते राजा जी; जिये भला सौ साल ठाकरे !
चुप है कवि, डरता है शायद, खींच नहीं ले खाल ठाकरे !
कौन नहीं फंसता है, देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे !
बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे !

बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातंत्र के काल ठाकरे !
धन-पिशाच के इंगित पाकर ऊंचा करता भाल ठाकरे !
चला पूछने मुसोलिनी से अपने दिल का हाल ठाकरे !
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे

Tuesday, November 13, 2012

सुनो ! मृगांका :25: हमारा यार है हम में

मुखिया जी उगना का किस्सा सुनाने लगे। अभिजीत का ध्यान कहीं और ही था।

अभिजीत को पता था, मृगांका उसकी बारीक-से-बारीक आदत पर गहरी निगाह रखती थी। कई दफा तो दफ्तर में ही उसे मेसेज करके चेतावनी भी दे देती थी। ...अभि, बाथरूम से निकलने के बाद क्या मॉइश्चेराजर नहीं लगाया पैरों में...देखो अपने पैर, सफेद-सफेद हो रहे हैं।...अभिजीत की नजर तब अपने पैरों पर पड़ती।

अभिजीत ने दादा-परदादाओं ने कभी भी म़ॉइश्चेराइज़र का नाम तक न सुना था। क़स्बाई माहौल से निकले अभिजीत ने हमेशा जाड़ो में सरसों का तेल चुपड़ने के बाद ठंडे पानी से स्नान करना सीखा था। उसके लिए ये सब चोंचले थे। लेकिन, इसी में कई दफा लापरवाही  हो जाती, तो मृगांका तकरीबन डंडा लिए खड़ी होती थी।

...तो अभिजीत बाबू, उगना जो थे, दरअसल वो शिव थे। महाकवि विद्यापति थे बहुत बड़े शिवभक्त। और शिव को भी पता था कि कितने बड़े भक्त हैं। तो भक्त को चाहिए भगवान और भगवान को भी तो आसरा है बस भक्त का ही। भक्त के बिना भगवान अधूरा और अधूरा है भक्त भगवान के बिना।....

अभिजीत को दुनिया में बहुत-सी चीजों के साथ अपनी लिखावट से भी चिढ़ थी। उसकी लिखावट अपने पिता के लच्छेदार अक्षरों और मां की लहरदार लिखावट के बीच कहीं अटकी-हुई सी लगती थी। अभिजीत को अपने पिता जैसा हस्तलेख चाहिए था।

...तो एक दिन क्या हुआ कि भगवान शिव खुद एक हलवाहे लड़के के रूप में विद्यापति के यहां नौकरी-खबासी में आ गए। विद्यापति को कुछ पता ही नहीं। भगवान से ऐसे काम लेने लगे जैसे वो भगवान न हों, कोई सच के खबास हो। खेतों में काम करवाते, निराई-गुड़ाई, भांग पिसवाते-छनवाते, हाथ-पैर दबवाते.....

कहानी कह रहे मुखिया ने उगना को कहानी के बीच में ही हड़काया, ससुर, पैर मालिश करता रह।

मृगांका ने ही अभि का भी ध्यान उन बिंदुओं की तरफ दिलाया था। अनुस्वार की तरफ। जिसे बजाय बिंदी के अभिजीत गोले की तरह लगाया करता और उन की तरफ जिसकी पूंछ अभिजीत तकरीबन लंगूर की पूंछ की तरह कलात्मक तरीके से खींच दिया करता था।

याद आ रहा है उसे एक लंबे दौरे के बाद दिल्ली वापस लौटने के बाद मृगांका से मिलने का। आसपास का माहौल दीवाली की तैयारियों में जुटा था...बिजली की झालरें जगमगाने लगीं थीं। मृगांका उसे देखती रही थी, फिर वो हंसने लगी--हैरानी और खुशी भरी हंसी--जब वो हंस चुकी तो उसने अपना हाथ अभिजीत के हाथों पर रख दिया था।

'मैंने तुम्हें मिस किया," उसने कहा। तुम वापस आए, अच्छा लग रहा है।

अभिजीत उसके चेहरे को गौर से देखता रहा था। बहुत गौर से। मृगांका के बाएं हाथ पर कलाई से थोड़ा ऊपर एक तिल है। लेकिन, काजल लगाने की वजह से मृगांका की आंखे कुछ ज्यादा ही नुकीली थीं। कुछ ज्यादा ही...।

"चलो जाओ, हम बात नहीं करेंगे आपसे ।'' मृगांका अभिजीत के देखने के इस गहरेपन से लजा टाइप गई थी।

अभिजीत अपनी उंगलियां उसकी उंगलियों में फंसा लेना चाहता था, मगर उसने अपना हाथ संयत रखा, मानो थोड़ी सी हरकत सारे जुड़ाव के तार बिखेर न दे।

सप्तपर्णी पेड़ के नीचे बैठकर मृगांका ने अभिजीत के लिए बैक-टू-बैक दो कप चाय मंगाई थी। आज सिगरेट पीने की भी छूट थी। अभिजीत को दो कप चाय एक साथ पीने की आदत थी और यह मृगांका के बहुत खुश होने का सुबूत था कि उसने दो कप चाय अभिजीत के लिए मंगवाई थी।

चाय खत्म होने तक, अंधियारा घिर आया था। सड़क पर गाड़ियों की चहल-पहल अब ट्रैफिक के शोर में बदल गई थी। "चलो, ' उसने अभिजीत को उठाते हुए कहा था, 'जब तुम वहां की बातें करते हो ना, जहां से तुम आए हो, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है, तुम्हारा शहर, वहां की मिट्टी...वहां के लोग, तुम्हारा बचपन..." उसने अपनी बांहे अभिजीत की बांहों में पिरोते हुए कहा, "तुम एकदम जी उठते हो।" 

मृगांका ने कार का दरवाजा खोला था और तकरीबन अभिजीत के कंधे पर सिर टिकाते हुए ही गाड़ी स्टार्ट की थी। अभिजीत पेशोपेश में था कि मृगांका की हिदायतों के बावजूद उसने अपने फ्लैट का जो कचरा किया हुआ था, उसे देखकर मृगांका उसे उधेड़ देनेवाली थी।

...तो ऐसा हुआ अभिजीत बाबू, भक्त भगवान के यहां नौकरी कर रहे। एक दिन विद्यापति महोदय को जाना पड़ा राज दरबार...बाईस कोस का रास्ता...उगना साथ में खबास। रास्ते में लग गई विद्यापति को प्यास...न खाना न पानी...करें तो करें क्या, रे उगना देख पानी कहां...मारे प्यास के गला सूख जाता है। विद्यापति कवि जहां ठौर पाया बैठ गए.....

अभिजीत को फ्लैट पर जाने से पहले अपने कलेजे की धड़कन साफ-साफ सुनाई दे रही थी। धक्-धक्।

कमरे में जाकर मृगांका ने  न किताबों की ढेर पर नजर डाला, न बिखरे अखबारों पर।  अभि, एक गिलास पानी देना जरा...

सुनो अभि। मृगांका ने उसे अपने पास बुलाया। अभिजीत पास गया। मृगांका ने आंखों में आंखे डालकर कहा, पता है तुम्हारी गरदन पर एक गहरा तिल है।....अभिजीत का हाथ अपने तिल पर चला गया....मृगांका ने पलक झपकाए बिना कहा, मैं इसे किस करना चाहती हूं.....अभिजीत के मन में एक साथ कई भाव आए। उसने अपने हाथों में मृगांका को समेट लिया।

मृगांका ने अपने होंठ अभिजीत की गरदन पर रख दिए। होंठ जैसे जलते अंगारे।

... धूप क्या थी जलता अँगारा ता अभिजीत बाबू, विद्यापति तो धम्म से बैठ गए। पता नहीं, उगना कहां से एक लोटा पानी ले आया था। ठंडा, शीतल, निर्मल.....

ठंडा, शीतल, निर्मल....जलते अंगारों से होंठो की छुअन ने अभिजीत के मन में आग लगाने की बजाय कुछ ऐसे ही भाव पैदा किए थे। लेकिन इन भावों के पीछे एक ज्वार-भाटा भी था। मृगांका ने बिस्तर पर लेटकर आंखें बंदकर लीं, अपनी कोहनियों के सहारे लेट गई, भरोसे से भरी नन्हीं बच्ची जैसी...।

लेकिन अभिजीत का ब्लैडर फटने के करीब आ चुका था। टॉयलेट की तरफ दौड़ने से पहले उसने मृग से कहा था, मृग एक मिनट...और जब तक यूरिनल से निबटकर वह आया था...वो गहरी नींद सो चुकी थी।

मृगांका...अभिजीत ने पुकारा। कोई जवाब नहीं। अभिजीत को समझ में नहीं आया कि आखिर वह करे तो क्या करे। आखिरकार, लाइट बंद करने से पहले वह थोड़ा हिचकिचाया भी...। पर्दे खुले थे, सड़क की रौशनी अंदर आ रही थी और उसी रौशनी में अभिजीत मृगांका के सीने के उतार-चढाव देखता रहा।

फिर, अभि ने उसे एक चादर ओढ़ा दी और अपने लिए फर्श पर एक तकिया उछाल लिया।  अभिजीत थका तो था, लेकिन नामालूम वजहों से ख्वाबों में डूबने के लिए उसे एक लंबा इंतजार करना पड़ा। सुबह वह तब भी नहीं जगा था, जो उसे बाद में मालूम हुआ कि , मृगांका ने जाने से पहले अभिजीत के माथे को चूम लिया था।

अभिजीत जब जगा तो पड़ोसी के यहां कबीर का निरगुन तेज आवाज में बज रहा था...

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या....

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?


....जारी

Monday, November 12, 2012

सुनो ! मृगांका :24: यार ही मेरा कपड़ा-लत्ता, यार ही मेरा गैणा

 अभिजीत पानी पीकर हैरत में था...उसने गौर से देखा...इस लड़के उगना को उसने कहीं देखा है। उसे लगा कि शायद उसका भ्रम हो... ये भ्रम नहीं था। ये तो वही लड़का है जो महंत जी की कुट्टी (कुटी) में खबास (नौकर) है... अरे हां, इसे तो स्कूल पर मिडडे मील वाली भीड़ में भी देखा था।

भैंसवार छौंड़े (भैंस चराने वाले लड़के) के पीछे-पीछे जाता हुआ अभिजीत पाकड़ के पेड़ के पास पहुंच गया। वह अभिजीत की तरफ मुड़ा।

" हय मालिक, आप इहां हैं.." उसने लगभग हैरत से पूछा।
"क्यों...?"
" अरे,  ऊधर आपको महंजी (महंतजी) खोज रहे थे और उधर मड़र काका भी..।" अपनी बात पूरी करने के बाद लड़का अपने वराहतुल्य दांतो को होंठों से ढंकने की पूरी कोशिश करने लगा। लेकिन अभिजीत ने  देखा कि दांत होंठों के बीच से यूं उग आते हैं मानो बादलों को चीरकर सूरज भगवान निकल आए हों। अभिजीत पेशोपेश में पड़ गया, किधर जाए...

उसने शायद अभिजीत की असमंजस को भांप लिया, " अरे कोई बात नहीं है। महंजी पूजा पर बैठ गए होंगे, ऊ आपको सायद मुक्खे झा से मिलवाने वाले हैं।...अभी तो आप मड़र कक्का के डेरा पर चलिए।"

अभिजीत को भी लगा कि मड़र के घर ही चलना चाहिए। लड़का देह से कमज़ोर था। दोनों टांगे टिटहिरी जैसी, पतली। कदम ज़मीन पर ऐसे गिरते की दोनों एडियां आपस में टकरा जातीं। चलने का अंदाज़ अजीबोगरीब.. कदम बढाते ही वही हाथ आगे जाता, जो पैर आगे बढ़ रहा होता। काला खटखट। बिबाइयां फटे पैर, टूटी चप्पल। चप्पल के टूटे फीते को आलपिन से जोड़ा गया था।

" नाम क्या है तुम्हारा..?" अभिजीत ने पूछा। हालांकि नाम उसे पता ही था, फिर भी बातचीत के क्रम को आगे बढाने के लिए सवाला पूछा गया था।

" मेरा नाम.. ? वह चिंहुका। "... उगना.."  उसने ऐसे बताया मानो नाम बताना नहीं चाह रहा हो। "..उगना.." अभिजीत  ने दुहराया। हिंदी में उगना उदित होना होता है, मैथिली में दुलारा..।

" घर में कौन है उगना.." अभिजीत के स्वर में थोड़ा दुलार आ गया था।

" एक ठो बहिन है उसका नाम है आसाबरी.. एक ठो कुतवा (कुत्ता) है और बरद (बैल)"...कुतवा हमरे मीत (मित्र) भैरव का है।

" .. और मां-बाप.." अभिजीत ने ये सवाल ना मालूम क्यों पूछ डाला। " मां-बाप .. बहुत पहिले मर गए.. खजौली टिशन के पास जूता-चप्पल ठीक करने का दुकान था।"

बातें शायद और भी आगे चलतीं, लेकिन तब तक मड़र का घर आ गया था। अभिजीत  ने देखा, उनकी बूढी मां बांस से बने दरवाजे के पास खड़ी थी। मड़र भी आ चुका था।

" माई ने आज बगिया बनाया है, इसलिए आपको खिलाने के बारे में सोच रही थी। उसको लग रहा था कि पता नहीं सहर-बजार के आदमी हैं।... बढिया लगेगा कि नहीं, लेकिन हम तो जानते हैं आपको। हम बोले उगना से कि जाओ बुला लो सर को... आज गांव का बेंजन (व्यंजन) भी आपको खिला ही दें।"

वैसे रात में गांव की तरकारी का स्वाद अभिजीत पा चुका था और ईमानदारी से कही जाए तो इसका जायका उसे शहर के खाने से वाकई अच्छा लगा था।

अभिजीत,  मड़र और उगना के साथ बैठा ही था कि मड़र ने उगना को कोई इशारा किया। उगना उठकर आंगन में खड़ा हो गया। एक औरत, आधा पल्लू सर पर ढांके, कुछ इस तरह  कि परदा है भी और नहीं भी के अंदाज़ में..एक पीतल की थाली में सात-आठ इडली जैसी चीज़ रख गई। सफेद पकवान से भाप उठ रही थी और साथ में एक सोंधी सुगंध भी।

वह औरत मड़र की बीवी नहीं था। मड़र की मां शायद अभिजीत के सवालिया निगाहों को पहचान गई। बोली,--" ये बिसुआ (मड़र) की भावज है। मेरा दूसरा बेटा है न लखिन्दर, उसकी बहू।"

इतना परिचय काफी नही था। मड़र के बेटे, जीवछ ने और विस्तार से बताया,-" मेरे कक्का बंबई गए हैं। कमाने के लिए।"... जीवछ ने उस पकवान में दांत काटते हुए बताया कि बंबई में समुद्र है, हमारे महंजी पोखर (महंत जी वाले पोखरे) से बहुत बड़ा। इतना बड़ा कि उसमें सौ पोखर अंट जाएंगे। और ये भी उसके कक्का का नाम बाला लखिंदर है और काकी का नाम है बिहुला।

अभिजीत  को लगा कि इस पकवान के साथ कोई चटनी भी होनी चाहिए, लेकिन जीवछ ने ऐसे ही दांतों से काटकर खाने का इशारा किया। जैसे ही अभिजीत  ने दांत से पकवान में काटा, उसकी पूरी गाल गुड़ के सोंधे मीठेपन से भर गई।

ऐसा एक बार तब हुआ था, जब मृगांका के बहुत जोर देने पर उसने पित्सा खाया था। दांत से काटकर। खूब लोटपोट होकर हंसी थी मृगांका...खैर...।

उसे ख्याल आया कि उगना अभी नहीं खा रहा है। अभिजीत ने उसे बुलाया, वह हिचकिचा रहा था। मड़र समझ गया।

बिसेसर के घर से बगिया खाकर, अभिजीत फिर से मुखिया जी के घर की ओर गया। शाम गहराने लगी थी...घरो में लालटेने जल गई थी। बिहार में बदले हुए परिदृश्य में गांवों में बिजली के खंभे तो लग गए थे, लेकिन उन खंभों से लटके तार निष्प्राण थे।

मुखिया जी ने जोरदार स्वागत किया। अभिजीत ने देखा, उगना वहीं मुंह लटकाए खड़ा था, अभिजीत से पहले ही पहुंच चुका था वो...।

मुखिया जी ने हांक लगाई, रे उगना पानी ला रे।

...उगना से याद आया अभिजीत बाबू, उगना की कहानी आपने सुनी या नहीं..। अभिजीत ने इनकार में सर हिला दिया। ले भला, चलिए सुनाते हैं...। मुखिया जी ने हथेली पर मसले जा रहे खैनी को चुटकी बनाकर निचले होठों के बीच सुरक्षित पहुंचा दिया, और दास्तानगोई शुरु हो गई।

दिल्ली, मृगांका का घर

कमरा सूना तो था, लेकिन अब बेजान नहीं था। मृगांका ने कुछ आलमारियां खोल रखी थीं, प्रशांत अवाक् सा देख रहा था। सब आलमारियों में अभिजीत की लिखी किताबों की कई प्रतियां थी। कुछ पर अभिजीत के हस्ताक्षर भी थे, जो उसने खुद मृगांका को भेंट किए थे।

प्रशांत अभिजीत का बहुत नजदीती दोस्त था।

प्रशांत, तुम्हें पता है, अभिजीत की लिखावट में क्या खास होता था? मृगांका ने लगभग रूंधी हुआ आवाज में पूछा था।

प्रशांत और अभिजीत तबसे दोस्त थे, जब अभिजीत दिल्ली आया ही था। युगों पुरानी दोस्ती, साथ खाना और साथ पीना। लेकिन लिखावट...। अभिजीत का हस्तलेख पहतान सकता था प्रशांत लेकिन...लिखावट में क्या खास था।

मृगांका ने एक पुरानी पतली-सी किताब निकाली, आखिरी पेज पर एक शेर लिखा था...प्रशांत बेवकूफ की तरह उस लिखावट को देखता रह गया...लिखावट तो अभिजीत की ही है लेकिन इसमें खास क्या है। वह चुप ही रहा।

देखो गौर से, अभिजीत बिंदियों की जगह बड़ा-सा गोला बनाता है। और वह र कैसे लिखता है...मृगांका और न जाने क्या-क्या ब्योरा देती रही। हर बारीक ब्योरा प्रशांत के मन में, अपराधबोध भरता गया।

मृगांका भाभी, मुझे माफ कर दो।

प्लीज प्रशांत, भाभी भी कह रहे हो, और तुमने मुझे अंधेरे में रखा। कहां गुम हो गया है तुम्हारा भाई और तु्म एक फोन नहीं कर सकते थे।

मैं बाहर चला गया था, मेरे पीछे पता नहीं...

चुप रहो,.....मृगांका कुछ और कहने ही वाली थी कि अचानक उसके पिताजी कमरे में आए। बेटा, देखो ड्राइंगरूम में...अभिजीत की मां तुमसे मिलने आईं है।

अभिजीत की मां? मृगांका और प्रशांत दोनों के लिए हैरत की बात थी। दोनों ड्राइंग रूम की तरफ दौड़ पड़े।

जारी.....


Saturday, November 10, 2012

अबूझमाड़ के द्वार पर

अबूझमाड़ के द्वार, नारायणपुर के कुछ बच्चे।

हिंसा, हंसी को खत्म नहीं कर सकती

कुछ आंखें उम्मीद में चमकती हैं


सारे बच्चे, राष्ट्रपति के कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए थे, आरके मिशन के बच्चे हैं सब

 सभी फोटोः मंजीत ठाकुर,









Wednesday, November 7, 2012

काश...नया रायपुर की बजाय नया छत्तीसगढ़ गढ़ते रमन

पिछले दो दिन मैं छत्तीसगढ़ में रहा। रायपुर से हटकर रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में एक नया रायपुर गढ़ डाला है। हालांकि, मंच से यह बात भी मंजूर की गई कि यह योजना अजीत जोगी के मुख्यमंत्रित्व काल में बनाई गई थी, इस पर खुश होने और भारत माता की जय और छत्तीसगढ़ महतारी (माता) की जय के तुमुल नाद में भावुक होने के बीच एक बात किरिच की तरह सीने में घुस गई।

रमन सिंह ने नया रायपुर क्यों बसाया। अगर यह इस बात की प्रतीक है की गरीबी से बदहाल देवभूमि उत्तराखंड और नेताओं की घटिया राजनीति झेल रहे राजनैतिक रूप से नाकाम झारखंड के सामने छत्तीसगढ़ को खुद को साबित करना है, तो इस महज एक नया शहर बसाकर साबित करने की जरूरत नहीं थी।

अगर, इक्कीसवीं सदी में देश का पहला योजनाबद्ध शहर बसाना छत्तीसगढ़ के विकास की दिशा दिखाने के लिए है, तो मूलतः गरीबी और बेरोजगारी की वजह से पैदा हुए और आंतक का पर्याय बन चुके नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने की ऐसी ही बड़ी कोशिश बीजेपी सरकार ने क्यों नहीं की।

देश का बाकी का हिस्सा, छत्तीसगढ़ को धान के कटोरे के रूप में भूलने लगा है और अगर आप मध्य प्रदेश से नहीं है तो कलेजे को हाथ लगाकर कहिए क्या आपको पता है कि छत्तीसगढ़ में राम ने अपनी जिंदगी के दस साल बिताए थे, या कि यह राम की मां कौशल्या का मायका यानी राम की ननिहाल है। शायद पता  न हो। हम और आप, और ज्यादातर लोग छत्तीसगढ़ को दंतेवाड़ा, बस्तर और अबूझमाड़ के लिए जानते हैं।

मुख्यमंत्री का दावा है कि छत्तीसगढ़ ने पिछले दस साल में दो अंकों में विकास हासिल किया है। मुख्यमंत्री जी, छोटा सा सवाल है..इस वृद्धि मेंआपने समाज के कमजोर वर्ग को कितना शामिल किया है। या आप भी अर्थशास्त्रियों की तरह मानने लगे हैं कि ऊपरी तबका विकास कर ले, तो रिस-रिस कर वो विकास निचले तबके तक भी पहुंच ही जाएगा।

मुझे नारायणपुर तक जाने का मौका मिला। अबूझमाड़ के पहाड़ और जंगल को आसमान से देखा...और उसी शाम हमारे काफिले के दोनों तरफ नाच-गा रहे आदिवासियों के चेहरे भी। रायपुर के राजभवन में जनजातियों को नृत्य के लिए बुलाया गया था।

जनजातीय नृत्य अपने उछाह और उत्साह के लिए जाने जाते हैं...मुझे राजभवन में आदिवासियों के नाच में से वो उत्साह गायब नजर आया। लगा कि तहज़ीब की पैकेजिंग की जाएगी, तो हश्र कुछ ऐसा ही होने वाला है।

नया रायपुर में नजारा दीवाली से बेहतर था...लाखो की तो आतिशबाजी छोड़ी गई। रमन सिंह जी, काश इतने का केरोसिन खरीद कर मुफ्त बंटवा देते गरीबों में तो उनकी दीवाली भी रौशन हो जाती।

जिस इनक्लूज़िव ग्रोथ की बात आप और पीएम दोनों करते है, उस ग्रोथ को आप विकास में तब्दील क्यों नहीं करते। रायपुर में नया टर्मिनल बना है एयरपोर्ट का, यहां अंतरराष्ट्रीय उड़ानें भी आएंगी, लेकिन कतार में सबसे पीछे खड़ा आदमी आसमान में हवाई जहाज़ को देखकर आखिर करेगा क्या। शायद सिर धुने।

हवाई जहाज की उड़ानें हो, ऊंची इमारतें हो, मुझे इनके होने से कोई उज्र नहीं, लेकिन अबूझमाड़, दंतेवाड़ा, नारायणपुर...और सारे प्रदेश की जनता के लिए कोई रोजगारपरक काम शुरु करवाते रमन सिंह जी, तो सदियां आपकी शुक्रगुजा़र होतीं।


Sunday, November 4, 2012

टाइम मशीन


टाइम मशीन

चाहता हूं,
वक़्त की मशीन में थोड़ा पीछे चलूं.
कुछ लकीरें खींचू, कुछ मिटाऊं
कुछ तस्वीरें बनाऊं

कुछ साल पीछे चलूं.
बचपन नहीं,
झेल लिया है बहुत कसैलापन पहले ही
नौजवानी भी नहीं,
जब चिंता में घुला करता था रात-दिन

उन दिनों में
ले चले वापस मुझे
टाइम मशीन

पैरों के नीचे चरपराहट हो,
कुछ सूखे पत्तों की
और नंगी टहनियों पर टूसे आ रहे हों,
कुछ कोमल पंखुडियों-से

आहिस्ते से
वह आकर पकड़ ले मेरा हाथ
और चूम ले शाइस्तगी से
मेरी गरदन पर का तिल।
जिसे छूकर कहा था उसने कभी,
पता है तुम्हारी गरदन पर
एक तिल बड़ा खूबसूरत है।

टाइम मशीन,
ले चले मुझे
कुछ वक्त पीछे
शायद मिटा सकूं कुछ
उन धब्बों को
और उन सतरों को,
जहां मैंने जितना लिखा है
उससे कहीं अधिक काटा है।
मेरे जीवन में,
जितना ज्वार है, जितना भाटा है

चाहता हूं
कुछ लाईनों की ही सही, 
कर दूं फेरबदल। 
ऐ वक़्त,
थोड़ी तो मोहलत दे मुझे।
 

सुनो ! मृगांका:23 : नैना भीतर आव तू, नैन झांप तोहे लेउं

अब तक आपने पढ़ाः- (अभिजीत गांव में अपने घर में लेटा है। वह अपने तेज बुखार के दौरे से उबरने की कोशिश कर रहा है। सपने में वह पता नहीं किन-किन जगहों के दौर कर आता है। उसे याद आता है कि किस तरह वह मृगांका के हवेलीनुमा घर पर गया था, और उसके माता-पिता से मिला था। उसे याद आता है कि मृगांका के पिता ने उसे अपना भरपूर आशीर्वाद दिया था और मां ने नेह भरा हाथ फिराया था। एक प्रेम कहानी की इससे बेहतर शुरुआत क्या हो सकती थी भला...) अब आगे पढिए...

बड़े घरों के दिल हमेशा संकरे नहीं होते। जैसा कि अपनी मार्क्सवादी विचार के तहत अभिजीत सोचा करता था। कहानी की यह शुरुआत तो बड़ी शानदार थी...फिर चूक कहां हुई..।

अभिजीत की नींद खुल गई, आँधी के आसार बन रहे थे...।


आंधी तो ख़ैर क्या कहें, अभिजीत के लिए यह तूफ़ान से कम न था। उसने मिचमिचाते हुए आंखें खोली...भीतर जाकर चापाकल (हैंडपंप) चलाकर मुंह धोया...पानी बेहद ठंडा था। गांव की यही खासियत उसे बहुत सुकून देती है। जल्दी ही उसने स्टोव पर चाय का पानी चढ़ा दिया।

अभिजीत ने हमेशा, यही कहा था-टी इज़ कूल इन समर एंड वॉर्म इन विंटर।

पतीली में चाय का पानी खौल रहा था। अभिजीत यादों में डूब गया। अभिजीत की यादों का सिलसिला, उसकी यादों का तानाबाना सिर्फ और सिर्फ मृगांका के आसपास बुना हुआ था। एक बार उसने कॉल किया था, मृगांका बातें करते-करते खांस रही थी। अभिजीत ने उसे कहा कि वो चाय पिए, अदरक की या फिर तेजपत्ते की।

मृगांका हंसने लगी। अभिजीत को अपनी भूल मालूम हुई, मृगांका ने बताया था उसे कि वो चाय नहीं पीती। बस कभी कभार पीती है। चाय का पानी खौल ही रहा था। पूरे फ्रेम में महज चाय की पतीली। अभिजीत को उसमें भी मृगांका का ही चेहरा दिखता है।

उसी बातचीत में अभिजीत ने किसी तरह मनाया था मृगांका को कि वो काली मिर्च और घी ले, तो खांसी रुक जाएगी। अभिजीत को लगा कि वो ये बातें, इतनी छोटी बातें, किसी को बताएगा, तो लोग उसे दीवाना कहेंगे।

तभी दरवाजे पर आहट हुई। बिसेसर था।

अरे बिसेसर बाबू आओ
अभिजीत भैया, आपको महंत जी बुलाए हैं, मुखिया जी से मिलवाने के लिए बुला रहे हैं। दुर्गाथान(दुर्गा स्थान) पर।

चलो, पहले चाय पी लेते हैं। पिओगे?
अरे बाबू, आप बनाएंगे चाय
क्यों हम नहीं बना सकते, हमारे हाथ की चाय पियोगे , तो बाकी चाय भूल जाओगे, हम चाय बहुत अच्छा बनाते हैं, ये तो मृग भी कहती है...

कौन मृग बाबू...

अरे कोई नहीं, ऐसे ही...लो चाय पिओ।

थोड़ी देर बाद दोनों दुर्गा स्थान पहुंच चुके थे। अभिजीत के घर से फर्लांग भर दूर है दुर्गाथान। वहां एक स्कूल है, तालाब है, मंदिर है, और चौक पर कुछ दुकानें हैं। मंदिर के अहाते में, बारामदे पर मुखिया जी और महंत जी समेत कई लोगों की चौपाल-सी बैठी थी।

आइए, अभिजीत बाबू। परिचय करा दें आपका, इन सबों के। भाईयों,ये हैं अभिजीत बाबू...हमारे ही गांव के हैं, दिल्ली में रहते हैं...कल ही आए हैं। पारस्परिक अभिवादनों का आदान-प्रदान हुआ।

मुखिया जी ने आवाज़ दी, अरे उगना, पानी पिलाओ बाबू को...।
अभिजीत को यह नाम सुना-सुना सा लगा। उगना ये नाम कहां सुना है? मुखिया जी ने बताया अरे, अभिजीत जी अपने गांव से थोड़ा दूर है ना उगना महादेव का मंदिर। रेलवे का हॉल्ट भी है, भवानीपुर के पास। वहीं सुना होगा...कहानी सुनी है आपने उगना की?

अभिजीत ने इनकार में सिर हिला दिया।

महंत जी ने कहानी सुनानी शुरु कर दी, 'बहुत पहले विद्यापति ठाकुर नाम के बड़े शिवभक्त कवि हुए थे..आपको तो पता ही होगा?' इस बार अभिजीत ने सहमति में सिर हिला दिया।

'विद्यापति को मैथिल कोकिल भी कहते हैं। उनकी पदावलियां हिंदी और मैथिली साहित्य की धरोहर मानी जाती हैं, और उनको जायसी, तुलसी, सूर के बराबर माना जाता है। भगवान शिव को भी विद्यापति से बड़ा प्रेम था। अपने भक्त के साथ रहने के लिए ईश्वर भी धरती पर उतर आए, और चरवाहे के रूप में उनके खेतों में काम करने लगे। खेतों में हल चलाते...विद्यापति की सेवा करते। उधर, विद्यापति शिव तांडव स्त्रोत का पाठ करते, शिव की पूजा करते, मैथिली में रचनाएं रचते, महाराजा के दरबार भी जाते, लेकिन इस बात से बिलकुल अनजान कि उनका चरवाहा भगवान शिव ही हैं। पता है चरवाहे के रूप में रह रहे भगवान का नाम क्या था? '

अभिजीत ने फिर इनकार में सिर हिलाया।

उगना, उगना नाम था शिव का।

अरे उगना पानी लाया रे। मुखिया जी ने जोर से गरज कर आवाज़ लगाई। उगना पानी भरा लोटा लेकर हाजिर हो गया। उफ़, कितना ठंडा और मीठा पानी था। अभिजीत को दिल्ली के जीवन के तमाम आरओ वाले और बोतलबंद मिनरल वॉटर की बोतलो का पानी फीका लगा था।

उसने फिर आवाज़ लगाई, उगना!

उधर, दिल्ली में;

मृगांका अस्पताल में थी, आरएमएल में पता नहीं किसकी झलक देखकर उसे लगा कि प्रशांत है। कल शाम ही ब्लास्ट के फुटेज़ में पता नहीं क्यों उसे अभिजीत का चेहरा नज़र आया था। आज उसे प्रशांत का चेहरा दिख गया। उसने सर झटकना चाहा। लेकिन उसे लगा मेडिकल सुपरिटेंडेंट से पूछ लेने में हर्ज़ ही क्या है।

मेडिकल सुपरिटेंडेट ने बताया कि उसके यहां एक डॉक्टर है तो प्रशांत नाम का, लेकिन वह धमाके के बारे में कुछ बता नहीं पाएगा। मृगांका को इससे को ई मतलब नहीं था। उसने डॉक्टर से कहा कि प्रशांत उसका परिचित है और उसकी बहुत दिनों से उसकी मुलाकात नहीं हो पाई है, उसका मिलना जरूरी है।

पता नहीं क्यों, मृगांका को आभास हो रहा था कि हो न हो वह प्रशांत ही था...और अब गुत्थी का एक सिरा तो पकड़ में आएगा।

सच में वह प्रशांत ही था। उसने एक झलक में ही मृगांका को देख लिया था, उसकी निगाहों से बचने केलिए ही वह किनारे से निकल गया था। वॉर्ड बॉय ने जाकर प्रशांत को बताया कि उसे दासगुप्ता जी याद कर रहे हैं और साथ में एक टीवी में काम करने वाली लड़की भी है।

अब प्रशांत के सामने कोई चारा न था।

मेडिकल सुपरिटेंडेट के केबिन का परदा हटने से पहले तक प्रशांत का दिल ज़ोरो से धड़क रहा था। उसे बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि वह मृगांका को क्या जवाब देगा।

परदा हटा। लगा कैमरा लॉन्ग शॉट से सीधे जैप़ ट्रैक होता हुआ प्रशांत के चेहरे पर टिक गया, तकरीबन हवाईयां उड़ती हुईं।

कट टू मृगांका। 

हैरत भरी आंखो का एक्सट्रीम क्लोज अप। सिनेमैटिक साइलेंस। कोई जवाब नहीं, कोई सवाल नहीं। लेकिन मृगांका को रुंधी हुआ आंखों में एक हज़ार सवाल थे। प्रशांत की झुकी हुई निगाहें निरुत्तर थीं।

मौन तोड़ा दासगुप्ता जी ने। अरे मृगांका जी यही है हमारा प्रशांत, दिल का डॉक्टर है। हहहह। चलिए आप लोग बात करिए...हम जरा राउंड लगा कर आते हैं।

दासगुप्ता जी निकल गए। प्रशांत ने बस इतना कहा, घर चल कर बात करें।

चलो। मृगांका ने कहा।

गाड़ी गेट से निकली, फ्रेम से बाहर हो गई। सन्नाटा-सा पसरा रहा।




Wednesday, October 31, 2012

एक अच्छी कविता

दुर्गम वनों और ऊंचे पर्वतों को जीतते हुए,
जब तुम अंतिम ऊंचाई को भी जीत लोगे,

जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब,
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में,
जिन्हें तुमने जीता है।

जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे,
और कांपोगे नहीं...
जब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क नहीं
सब कुछ जीत लेने में..
और अंत तक हिम्मत न हारने में...


---कुंवर बेचैन

Tuesday, October 30, 2012

सुनो ! मृगांका:22: कौन ठगवा नगरिया लूटल हो

अभिजीत दालान पर लेटा हुआ था। चौकी (तख्त) पर। सर के ऊपर खपरैल की छत थी। सामने सांप की जीभ की तरह सड़क दो हिस्सों में बंटी थी। उसके दालान के आगे, आम का पेड़ था। छांहदार। दालान और सड़क के बीच एक चौड़ा-सा आंगन।

गरमी के मौसम...हवा बिलकुल बंद थी। कुछ माहौल ऐसा था मानो भरी देग खदबदा रही हो। पसीने छूट रहे थे। बिसेसर खजौली गया है। रिक्शा लेकर। अभिजीत की पेट में हल्की जलन अब भी थी।

खाने के बाद मन कर  रहा था, हल्की नींद ले। कई झोंके आए भी। बेचैन मन कभी मुज़फ़्फरनगर घूम आया, कभी फैज़ाबाद, कभी मेरठ में होता तो पल भर बाद ही, खान मार्किट के चक्कर काट रहा होता...कभी साकेत तो कभी कहीं और...।

उसे याद है एक बार वह कभी किसी सिलसिले में गया था, फैज़ाबाद से उसने कॉल किया था मृगांका को। तुम्हारे शहर में हूं...।

फैज़ाबाद....। अयोध्या। अवध। वह खुद मिथिला का था। वाह, इस बार सीता अयोध्या से थी, और राम...? उसे आजीवन ईश्वर से वैर रहा था। नहीं, वो राम नहीं था। फिर भी, परंपरा के हिसाब से, लड़का इसबार मिथिला से था, और कन्या कोसल से।

अभिजीत पेट के बल लेट गया। यह उसका पसंदीदा पोस्चर है।

मृगांका के पूर्वजों के राजमहलनुमा हवेलिया थीं...हवेलीनुमा मकान तो उनके दिल्ली में भी थे। मृगांका ने उसे एक बार अपने घर पर खाने के लिए बुलाया था। दोपहर भर अभिजीत यही तय करता रह गया था कि क्या पहनकर जाए।

आखिरकार, उसके लिए पोशाक प्रशांत ने तय की थी।

अभिजीत को पता था कि मृगांका का परिवार रईस है, और वह कुछ ऐसी लिबास पहनना चाहता था कि उनके बीच ऑड मैन आउट न लगे। हालांकि, इस मामले में थोड़ा अक्खड़ था अभिजीत। लेकिन यह जगह अक्खड़पन दिखाने की नहीं थी। यहां नफ़ासत तो चाहिए थी, लेकिन भड़कीला नहीं होना था वह सब।

अभिजीत के पास एक सूट था जरूर, लेकिन वह सालों पुराना था, और पहने जाने की बाट जोहता हुआ थक थका गया था। आखिरकार, प्रशांत ने सलाह दी। आजमाया हुआ नुस्खा काम आया। एक कलफ़दार सूती कुरते और जींस का बाना धारण किया था अभिजीत ने।

मृगांका का परिवार एक शानदार हवेलीनुमा मकान में रहता था। किसी सिक्योरिटी फर्म के गार्ड ने चेहरे पर बेहद नागवार गुजरने वाले भाव ओढ़ रखे थे। मानो अभिजीत के आने का उसको जरा भी परवाह न हो। लेकिन अभिजीत ने भी उतने ही ठसक  से--कुछ ऐसा जताते हुए कि उसे इस बात का बहुत बुरा लगा है--अपने आने का मकसद बताया।

इसके बाद तो शायद उस सिक्योरिटी गार्ड के पंख लग गए। झटपट दरवाजा खुल गया।

मृगांका ने मुस्कुराते हुए अभिजीत का स्वागत किया। उसकी रंगत दमक रही थी। अभिजीत को भरोसा ही नहीं हो रहा था कि आखिर कोई इतना खूबसूरत हो भी कैसे सकता है।

वाउ, बहुत अच्छे लग रहे हो। मृगांका ने कुरते का छोर पकड़ते हुए कहा था।

हालांकि, वो हमेशा की तरह सलवार-कुरते-दुपट्टे में नहीं थी, और उसके बाल बेतरतीबी से बंधे थे और उसने जिस तरह से टीशर्ट पहनी थी, अभिजीत को नहीं लगा कि इस मौके के लिए कपड़े चुनने को लेकर वह ज्यादा परेशान हुई होगी।

वह हाथ पकड़ कर खींचती हुई अभिजीत को ले जाने लगी, यह कहते हुए वह उसे कुछ दिखाना चाहती है। अभिजीत भी खिंचता हुआ उसके पीछे चला गया। कमरा क्या था, बस किताबें, एक गुलाबी रंग का-जी हां गुलाबी- लैपटॉप, अभिजीत ने गौर से देखा आज मृग ने बहुत गहरे लाल रंग की लिपस्टिक भी लगाई थी। कपड़े सलीके से तह किए हुए थे, कुछ बिखरे भी थे...किताबे ज्यादा थीं...कुछ इसतरह मानों उनकी मृगांका के साथ दोस्ती हो।

अभिजीत को लगा कि यह कमरा जिंदा है, इसमें जिंदगी समाई हो।

अभिजीत ने अचानक एक कॉपी-सी उठा ली। डायरीनुमा कॉपी। मृग हंसने लगी..मत पढ़ो। कुछ कविताएं हैं...मैं दीवानी-सी हो रही हूं आजकल....कविताएं लिखने की जी करता है। पहले कभी नहीं हुआ था ऐसा....

अभि ने कहा, मुबारक हो।

फिर मृगांका अभिजीत को अपने रूफ टैरेस पर ले गई। जहां किसिम-किसम के पौधे थे, तुलसी समेत। तुलसी चौरा पर सांझ का दिया जल रहा था। पौधों में पानी दिया जा चुका था...गमलों की माटी से सोंधी खुशबू आ रही थी।

उसने वहीं पर अभिजीत को अपने पापा-मम्मी से मिलवाया। दीदी भी आई हुई थीं। मृगांका के पिता ने अभिजीत का हाथ थाम कर हौले से हलो कहा। मम्मी ने अभिजीत की तरफ ही देखते हुए मृगांका से कहा-वेरी नाइस।

मृगांका के पिता कामयाब बिजनेसमैन थे। अभिजीत किताबें लिखने वाला लिक्खाड़। लेकिन केमिस्ट्री सेट हो गई थी। मृगांका के पापा भी किताबों के शौकीन थे, जब वो दिल्ली आकर बसे थे तो उनने भी जिंदगी शून्य से शुरु की थी। बातों बातों में मृगांका की बड़ी बहन ने बता दिया कि अभिजीत की सभी प्रकाशित किताबें घर के सबी लोगों ने पढ़ रखी हैं, उसका साप्ताहिक कॉलम भी पापा को पसंद है...और अभिजीत जैसे सेल्फमेड मैन को पापा बहुत पसंद करते हैं।

पापा जी चुपचाप खा रहे थे, मु्स्कुराते हुए।

बड़ी बहन ने ये भी बताया कि अभिजीत के जीवन के बारे में भी सबको सब कुछ पता है...। खाने के बाद निकलते वक्त अभिजीत पापा के कदमों पर झुक गया था...पापा ने भी तकरीबन आलिंगन में भरते हुए उसे सौ का एक नोट दिया था। 'बेटे इतनी ही रकम मेरे पास थी, जब मैं दिल्ली आया था, इसे नेग समझ...'अभिजीत अभिभूत हो गया।

बड़े घरों के दिल हमेशा संकरे नहीं होते। जैसा कि अपनी मार्क्सवादी विचार के तहत अभिजीत सोचा करता था। कहानी की यह शुरुआत तो बड़ी शानदार थी...फिर चूक कहां हुई..।

अभिजीत की नींद खुल गई, आँधी के आसार बन रहे थे...।



...जारी

Sunday, October 28, 2012

क्या तरेगना ही है आर्यभट्ट की कर्मस्थली?

आमतौर पर गुप्तकाल के खगोलज्ञ आर्यभट्ट का रिश्ता उज्जैन से जोड़ा जाता है, लेकिन इस बात पर शोध चल रहा है कि कहीं उनकी वेधशाला पटना के पास मसौढ़ी के तरेगना गांव में तो नहीं। 

तरेगना नाम तारेगण या तारा गणना से जोड़ा जाता है।

वैसे सरकार द्वारा गठित आर्यभट्ट की वेधशालाओं के बारे में कुछ जगहों के प्राथमिक क्षेत्र सर्वेक्षण की प्राथमिक रिपोर्ट आ गई है। ये स्थान हैं पटना के नजदीक खगौल, तरेगना डीह और तरेगना टॉप।

20 सितंबर 2012 को हुई बैठक में चर्चा हुई थी कि इस संदर्भ में विशेषज्ञों के साथ विमर्श और जांच की जाए। 

डॉ अमिताभ घोष के नेतृत्व में बनी टीम ने इस बारे में डॉ जगदंबा पांडेय- पाटलिपुत्र के प्राचीन इतिहास के जानकार--और सिद्धेश्वर पांडेय़ से भी बातचीत की। 

सिद्धेश्वर पांडेय ने आर्यभट्ट और तरेगना के संबंधों पर कई आलेख लिखे हैं। 

तरेगना डीह मसौढ़ी राजमार्ग पर ही है और पटना से यहां तक एक घंटे में पहुंचा जा सकता है। लेकिन मसौढ़ी से तरेगना तक पहुंचना का रास्ता संकरी गलियों कि वजह से बाधित है। करीब 500 मीटर तक रास्ता धूल और पत्थरों से अंटा है।


इतिहास बताता है कि तरेगना डीह, कुसुमपुर से नालंदा के बीच पुराना व्यापार मार्ग था। दंतकथाओं के मुताबिक आर्यभट्ट की वेधशाला इसी गांव  के टीले पर है। सिद्धेश्वर नाथ पांडेय द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक, (उन्होंने आर्यभट्ट और तरेगाना के रिश्तों पर एक आलेख लिखा है) और स्थानीय लोग बताते हैं कि वहां का टीला ही वह जगह है जहां आर्यभट्ट की वेधशाला वहीं अवस्थित थी।

किताब और आलेख के मुताबिक, यह करीब 25 से 30 फीट ऊंचा था, और मिट्टी का बना हुआ मीनार था। मौजूदा वक्त में उसका महज 6 से 8 फीट ऊंची दीवार सी बची है, जिसकी त्रिज्या करीब 50 फीट की है। वहां करीब 10 मिट्टी के घर हैं, जिसकी छतें खपरैल की हैं, ये उसकी परिधि पर बसी हुई हैं। इस माउंड के बीचोंबीच एक दोमंजिला मकान भी बना हुआ है। 

स्थानीय सूत्रों के मुताबिक ये घर पिछले 10 से 15 साल के भीतर बनी हैं, और जमीन को गैर मजरुआ मान कर बनाई गई हैं। वहां के एसडीओ ने वायदा किया है कि वो इस बारे में रिकॉर्ड्स देखेंगे और इस इलाके में आगे किसी भी निर्माण गतिविधि पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाएंगे।

जब मानस रंजन और के एस जायसवाल रिसर्च इंस्टिट्यूट के संजीव सिन्हा ने माउंड का सर्वे किया तो उन्होंने पाया कि वहां ढलान पर उत्तरी काले पॉलिश्ड मृद्भांडों और भूरे मृद्भांडों के अवशेष भी पाए। 

उत्तरी काले पॉलिश्ड मृद्भांडों और भूरे मृद्भांडों का प्रयोग पुरातात्विक काल गणना के हिसाब से 700 से 200 ईसापूर्व में लौह युग में किया जाता था। इसका शिखर काल मौर्य युग में था। अतः उत्तरी काले पॉलिश्ड मृद्भांडों और भूरे मृद्भांडों के साक्ष्य बताते हैं कि इस इलाके में घनी बस्ती हुआ करती होगी और यह गुप्तकाल से पहले होगी। 

जब इस इलाके की और जांच की गई तो पाया गया कि माउंड में कुछ और बरतन थे। मिट्टी के घरों में बिना पकाए गए धूप में सुखाए गए ईंटों का इस्तेमाल किया जाता था। और मिट्टी के बने टुकड़े उसमें ईंटो में पाए गए। इनमें से ज्यादातर टुकड़े सतह पर पाए गए और पाया गया कि मानवीय क्रियाओं की वजह से ये इधर-उधर हो चुके थे। 

जांच दल ने सरकार को सलाह दी है कि इस इलाके का कायदे से पुरातात्विक सर्वेक्षण कराया जाए ताकि पता लग सके कि यहां गुप्त काल से पहले मानवीय बस्तियां किस तरह की थी। खासकर, बुद्ध और गुप्तकाल में क्योंकि आर्यभट्ट का यहा काल माना जाता है। 

इस स्थान की उर्ध्वाधर खुदाई की सिफारिश भी की गई है। ताकि काल खंडों का पता लगाया जा सके।

यहां सूर्य और बिष्णु का पूर्व मध्य़कालीन मंदिर भी है, जो कि स्थान से महज 500 मीटर दूर है। यहां गए। दोनों स्थल तरेगना डीह के टीले के पास ही पाए गए।

त्तरी काले पॉलिश्ड मृद्भांडों और भूरे मृद्भांडों का पाया जाना एक नई खोज मानी जा रही है।

जांच दल ने  इस स्थान पर आर्यभट्ट परियोजना के लिए कुछ सुझाव भी दिए हैं, जिसके मुताबिक यहां पर आर्यभट्ट संग्रहालय बनाया जाएगा। इस संग्रहालय में आर्यभट्ट के जीवन और उनके भारतीय और विश्व खगोलिकी में योगदान को दिखाया जा सकता है।

Friday, October 26, 2012

सुनो ! मृगांका: 21: सहर

...सुनो मैंने तुम्हें सपने में देखा था।

झूठ..।

क़सम से।

नहीं..। नहीं बोलने की मृगांका की अदा गजब थी। अभिजीत अगर कोई शहंशाह होता तो इस अदा पर मोतियों की बौछार कर देता।

..अच्छा तो फिर बताओ, सपने में मैने क्या किया...। फिर शरारती मुस्कुराहट। अभिजीत मौन रह गया। उसके भदेस संस्कार उसे वह सब बताने से रोक रहे थे। लेकिन, अभिजीत जानता था वह कोई फ्रायडियन सपना नहीं था। उसमें शारीरिक उड़ाने नहीं थी...सच तो यह था कि जिसतरह दारू पीकर अभिजीत गुमसुम हो जाता था, वैसे ही सपने में भी चुप्पा ही था।

अभिजीत को लगा था, कि वह हवाई जहाज में उड़ रहा है। और उसे किसी ने वहां से फेंक दिया हो। मानो वह स्काई डाइविंग कर रहा हो।

ऊंचाइयों से गिरना तकलीफदेह होता है। सपनों का टूटना, उससे भी ज्यादा।

सीन चेंज, पता नहीं कहां, पता नहीं कौन से वक्त, पता नहीं किस तरह

अभिजीत इंतजार कर रहा है। मृगांका ने मिलने का वायदा किया है। जनपथ सीसीडी। एक घंटा लेट। आम तौर पर अभिजीत मृगांका के आए बगैर कॉफी नहीं पीता। सो, वायदे पर डटते हुए सात सिगरेंटे पी जा चुकी हैं। अकेले खाली बैठे देखकर, और सिगरेटें फूंकते देख, अगल बगल की मेज पर बैठे जोड़ो को यकीन हो गया, इसकी जोड़ीदार आई नहीं अभी तक।

घंटा भर बाद, जोड़ीदार आई। सोलमेट।

अभिजीत के पसंदीदा कपड़ो में आई थी, सो अभिजीत ने बिना भौं टेढ़ी किए, उसका मुस्कुराहट से स्वागत किया। उसके होंठ, उसके गाल, उसके बाल...अभिजीत को लगा, दुनिया को ठेंगे पर रखकर अपने हाथों में रख ले।

उसी दिन मृगांका ने उसे किस किया था। किस का ये किस्सा छप गया था अभिजीत के दिलोदिमाग में।

वह दृश्य, वो अहसास, वो खुशबू..अभिजीत के दिमाग को उजाले में रखते हैं। अभिजीत महकता रहता है इससे...अंधियारा गहराने लगा था।

अंधियारे से उजाले फूटने लगे...अभिजीत ने आंखे खोली तो यही उजाला चौंधिया गया उसको।

उसने देखा सामने लोगों की भीड़ जमा थी, महंत जी और गांव के बहुत से लोग। क्या हो गया था बाबू साहब आपको. महंत जी ने पूछा।

कुछ नहीं।

मिर्गी वगैरह है क्या। गांव के किसी नौजवान ने पूछा।
नहीं बस यूं ही चक्कर सा आ गया था।

अच्छा, अब ठीक तो हैं, तो बताइए, सबको यहां बुलाया क्यों है?

दिल्ली, सुबह साढे नौ बजे, राम मनोहर लोहिया अस्पताल

मृगांका रात भर सो नहीं पाई थी।  रात भर वो आंख उसे परेशान करती रही। क्या हुआ अभिजीत को..कहां है अभिजीत। नहीं, वो अभिजीत नहीं हो सकता। ड्राइव करती हुई वो सीधे अस्पताल के गेट के पास गाड़ी पार्क करती हुई अंदर को भागी।

 मेडिकल सुपरिटेंडेंट उसका पहचान का था। डॉक्साब, मुझे मरने वालो की सूची चाहिए। 

वो तो आपके रिपोर्टर को दे चुके है, सारे चैनल वालों को थोड़ी ही देर पहले दिया है। डॉक्टर ने जवाब दिया।

क्या मैं सबके चेहरे देख सकती हूं, घायलों से मिल सकती हूं।

हां, हां क्यों नहीं। लेकिन बुरी तरह क्षतिग्रस्त चेहरे..हम इजाज़त नहीं देंगे। थोड़ी ही देर में उनका पोस्टमार्टम भी तो होगा। 

नहीं, मुझे सही-सलामत लोग ही दिखाएं। प्लीज...

लाशों की इस भीड़ में उसने देखा...वो नहीं था। वो आंखे, जो अभिजीत-सी थीं, किसी और अभागे की थी। मृगांका को थोड़ी राहत मिली। बाहर आकर वो अहाते के पेड़ से बाई तरफ शीतल पेयों की दुकान की तरफ गई...उसे बड़ी जोर की प्यास लग आई थी।

अचानक उसे लगा उसने किसी जाने-पहचाने चेहरे को देखा था....वह चिल्लाई.

प्रशांत...।।


....जारी







Friday, October 19, 2012

जल्लाद की डायरी


जल्लाद की डायरी

जल्लाद की डायरी शशि वारियर की किताब है। मूल रूप से यह किताब त्रावणकोर के एक जल्लाद जनार्दनन पिल्लई की जिंदगी पर आधारित है। जनार्दनन ने पूरे जीवन में 117 फांसियां दीं।

लोग यह सोचते होंगे और ऐसा प्रचलित कहावतों में भी क्रूरतम व्यक्ति को जल्लाद कहा जाता है। लेकिन शशि वारियर की किताब में एक जल्लाद के जीवन के अनछुए पहलुओं को दर्शाया गया है।

हालांकि लेखक पहले ही साफ करते हैं कि यह किताब सच और कल्पना का मिश्रण है और मुख्य पात्र उनकी कल्पना की उपज है लेकिन पिल्लई के जीवन की बहुत-सी बातें किताब में हैं।

फांसी देने की विधियों का लेखक ने इस लिहाज से बारीक ब्यौरा दिया है कि पढ़ते-पढ़ते आप सिहर उठेंगे। खासकर, अनुवादक कुमुदनी पतिजो सीपीएम की सक्रिय सदस्य हैंने भी हिंदी तर्जुमा इतना बेहतर किया  है कि आपको लगेगा ही नहीं कि किताब मूल रूप से हिंदी में नहीं लिखी गई है।

वैसे तो शशि वारियर ने नाइट ऑफ़ द क्रेट, द ऑरफ़न और स्नाइपर जैसी किताबें लिखी हैं। लेकिन उनकी यह किताब साहित्य में एकदम नई ज़मीन फोड़ती है।

किताब का मिजाज़ स्याह है, एक न भूलने वाली कहानी। लेकिन साथ ही यह वारियर को प्रथम श्रेणी के आंग्ल-भारतीय लेखकों में स्तापित कर देती है। इस किताब को आप मानव जीवन पर एक चिंतन के रूप में देख सकते हैं। जल्लाद की डायरी गहन अनुभूतियों के बीच रची गई रचना है, भावुकता से अछूती, लेकिन यह काल्पनिक लेखक और पाठक के मानसिक, भावनात्मक और मानवीय विकास का चित्रण है।

इतनी सरल शैली में आपने कभी इतनी सिहरा देने वाली किताब नहीं पढ़ी होगी।

हाल ही में मैंने ये किताब पढ़कर ख़त्म की है। मुझे अच्छी लगी, दिलचस्प भी।

जल्लाद की डायरी
लेखकः शशि वारियर
अनुवादकः कुमुदनी पति
प्रकाशकः पेंग्विन
मूल्यः 175 रूपये

Wednesday, October 10, 2012

उत्तरकाशीः विपदा की कुछ तस्वीरें

विपदा के बाद उत्तर काशी...सब नदी की पेट में। फोटोः मंजीत

सिर ढांपने को छत तक न बची फोटोः  मंजीत

इस अग्निशमन गाड़ी को नदी की धारा दो सौ मीटर धकेल लाई, जबकि पूरा टैंकर भरा है फोटोः मंजीत

Friday, October 5, 2012

क़द्दावर मोदी क्या कांग्रेस के मुफ़ीद होंगे?

गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनावी तारीखों की घोषणा के बहुत पहले से ही गुजरात में गद्दी की लड़ाई तेज़ हो गई है। लड़ाई की ताकीखें तय हुईं तो तकरीरें भी शुरु हुईं। अगर मैं यह लिख रहा हूं कि नरेन्द्र मोदी के गुजरात में कामयाब होने से कांग्रेस को फायदा होने जा रहा है तो इसे दूर की कौड़ी न मानिएगा।

मोदी बीजेपी के भविष्य हैं। यह तय है। लेकिन इस बात की पूरी गुंजाइश है कि मोदीत्व के खिलाफ बीजेपी के ही कई नेता कमर कसे बैठे हैं। सबका नाम लेना जरूरी नहीं लेकिन मोदी के बढ़ते कद से कईयों को पेटदर्द होता होगा। यह पेट दर्द इसलिए भी होगा, क्योंकि अगर कहीं बीजेपी के भाग से छींका टूटा तो पीएम पद के लिए सुषमा भी दावेदार होंगी और अरुण जेटली भी...और भी कई कतार में होंगे।

अगर विधानसभा चुनाव नरेन्द्र मोदी बड़े अंतर से जीत जाते है--जिसकी पूरी संभावना है--तो यह कांग्रेस के लिए बहुत फायदेमंद होने वाला है। सोनिया गांधी ने वाक्युद्ध में जब पिछली दफ़ा मोदी को मौत का सौदागर कह दिया था तो इससे मोदी को काफी चुनावी फायदी हुआ था।

इस बार भी चुनाव की तारीखों के ऐन ऐलान के दिन ही कांग्रेस नेता बीके हरिप्रसाद ने मोदी को हत्यारा वगैरह कह दिया। जाहिर है, कांग्रेस चाहती है कि मोदी के बड़े कद से बीजेपी में शीर्ष स्थान के लिए भारी मारामारी मचे। कांग्रेस का गणित यह भी है कि मोदी के प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार घोषित होते ही तमाम सेकुलर पार्टियां राजग से छिटक जाएंगी।

नीतिश कभी भी मोदी का समर्थन नहीं करेंगे ऐसे में जेडी-यू का छिटकना तय है। मोदी का बड़ा कद बीजेपी को सियासी बियावान में धकेल देगा। कई लोग यह तर्क देंगे कि यह कहना बहुत दूर की कौड़ी है। लेकिन हम नजदीक की बात भी बता देते हैं।

गुजरात में मोदी की जीत जितनी बड़ी होगी, देश भर में मुस्लिम वोट उतनी ही ताक़त से कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकृत होंगे। जहां कांग्रेस मजबूत नहीं होगी वहां सपा या बाकी के कथित तीसरे मोर्चे वाले दल को वोट पड़ेंगे। इससे बीजेपी सत्ता से दूर रहेगी।

अगर तीसरा मोर्चा ही सत्ता में आया और उसे कांग्रेस के समर्थन की जरूरत पड़ी, तो हमेशा की तरह कांग्रेस उस धर्मनिरपेक्ष सरकार को समर्थन देगी, और माकूल वक़्त पर कुरसी खींच लेना, कांग्रेस से बेहतर भला किसको आता है?

Thursday, September 27, 2012

ओह माई गॉडः साधारण तकनीक, उत्कृष्ट कथ्य

बहुत दिनों से फिल्में देख रहा हूं, देशी सुपर मैनों की फिल्में भी देखीं...ज्यादातर में हीरो अपने बाप या अपने परिवार की मौत का बदला लेता है या हीरोइन को बचाता है। पिछली कुछ फिल्में इस गड़बड़झाले से अलहदा दिखी हैं। अच्छा लग रहा है।

बर्फी के बाद ओह माई गॉड भी ऐसी फिल्म है जो मन को छूती है।

हिंदी फिल्मों में पेड़ों के इर्द गिर्द नाचना और गाना एक पवित्र परंपरा है, इसी फिल्म ओह माई गॉड में एक गोंविदा आयटम गाने को छोड़ दें, जिसमें मादक होती जा रहीं बिहारी बाला सोनाक्षी कूल्हे मटका रही हैं तो बाकी की पूरी फिल्म बहुत तर्कपूर्ण है।

फिल्म नास्तिक तर्क और आस्तिक आस्था और धर्म के दुकानदारों के त्रिकोण के बीच झूलती है। चूंकि फिल्म है, कल्पना है इसलिए नास्तिक बने परेश रावल के तर्कों के बरअक्स निर्देशक उमेश शुक्ला खुद भगवान को ही ले आते हैं।

यह फिल्म भावेश मांडलिया के नाटक ‘कांजी वर्सेज कांजी’ नाटक पर आधारित है। कैमियो के रुप में फिल्म ‘ओह माय गॉड’ में अक्षय कुमार कृष्ण बनकर आते हैं। दोनों ने अभी तक 32 फिल्मों में एक साथ काम किया है। दोनों की केमिस्ट्री देखते ही बनती है।

अक्षय के पास भी वैसी ही मारक मुस्कान है जैसी कृष्ण की होगी बताई जाती है। फिल्म मूल रूप से हिंदू धर्म के ठेकेदारों को घेरती है, मिथुन चक्रवर्ती श्री श्री रविशंकर जैसे किरदार की धज में है लेकिन बेहद हास्यास्पद और फूहड़ दिखते हैं। गोविंद नामदेव बनारस के पंडे के किरदार में बेहतरीन हैं और हर बात में आपा खो देते दिखते हैं। जबकि एक अन्य महिला किरदार राधे मां या ऐसी ही किसी मादक महिला धर्म कथावाचक के तौर पर दिखती हैं।

फिल्म ऐसे दौर में आई है जब एक फिल्म ने पूरे मुस्लिम जगत को आंदोलित कर रखा है। यह तो अच्छा है कि अभी बजरंगी हुड़दगी और भगवा ब्रिगेड ज्यादा सक्रिय नहीं है।

फिल्म में बार-बार पूरे फ्रेम में एबीपी न्यूज़ का लोगो आ जाता है जो फिल्म के प्रवाह को रोक देता है। संपादन भी दुरुस्त नहीं है, हालांकि कहानी में झोल है तो इतना ही अदालत में ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देते परेश रावल को लकवा मार जाता है और फिर ईश्वर ही उसे ठीक करते हैं।

यहां निर्देशक एक बार फिर ईश्वर की शरण में चले जाते हैं। फिल्म को मध्यांतर तक थामे हुए तर्क यहां आकर फिसड्डी साबित होते हैं। खैर, परेश रावल ने पूरे फिल्म को अपने कंधों पर ढोया है, हालांकि प्रोमो में भगवान अक्षय ही ज्यादा दिखते हैं।

फिल्म के संवाद बहुत मेहनत से लिखे गए हैं, जो हंसाते भी हैं और चुटीले भी हैं। धर्म के टेकेदारों की जमकर हंसी उड़ाई गई है। फिल्म आप किसी भी एक वजह से देख सकते हैं- बढिया कहानी, चुटीले संवाद, या ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाते तर्क, या फिर धर्म के ठेकेदारों को कठघरे में खड़ेकर शर्मसार करने के दृश्यों पर।

सबसे बेहतर तो लगता है जब एबीपी न्यूज़ की एंकर बनी टिस्का चोपड़ा परेश से पूछती हैं, धर्म या मज़हब इंसान को क्या बनाता है...परेश सोचकर  जवाब देते हैं....बेबस या आतंकवादी।

बात चुभती जरूर है लेकिन है सच।

Monday, September 24, 2012

सुशासन का तेज़ाबी चेहराः ज्योति को इंसाफ चाहिए

बिहार के सुशासन का बड़ा शोर है, लेकिन इसका असली चेहरा कुछ और ही है। जाति के बंधनों में जकड़े इस सूबे के हालात पर चाहे जितना लिखा जाए, कम ही होगा। लेकिन जाति ने कानून के हाथ भी बांध दिए हैं। 

22 सितंबर की शाम मेरे मित्र गौरव गया के दौरे पर थे। शाम में उनकी बातचीत शहर के मंगला गौरी मंदिर के पुजारी से हो रही थी। बातचीत के क्रम में ही प्रमोद कुमार वैद्य (पुजारी) फफक कर रोने लग गए। गौरव के बहुत पूछने पर उन्होंने बताया तो कुछ नहीं, बस अपनी बेटियों की तस्वीर आगे कर दी। गौरव तस्वीर देखकर सन्न रह गए। 

उनकी बेटी ज्योति पर एक मनचले ने तेज़ाबी हमला कर दिया था। हमले में ज्योति और उनकी छोटी बहन श्रुति बुरी तरह घायल हो गए। ज्योति करीब 70 फीसद जल गई। 
ज्योतिः हमले से पहले


लेकिन इस मामले में दो साल बीत जाने पर अब तक कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है।

हुआ यों कि गया शहर की ज्योति से मुहल्ले के एक मनचले टुनटुन कुमार को प्यार हो गया था। आए दिन वह ज्योति का पीछा किया करता था। लेकिन ज्योति के विरोध के बाद एक दिन, अहिंसा के पुजारी बापू के जन्मदिवस 2 अक्तूबर को अहिंसा के जन्मदाता महात्मा बुद्ध के स्थल गया में ज्योति पर तेजाबी हमला कर दिया गया। इस हमले में ज्योति बुरी तरह जल गई और उनकी बहन श्रुति भी बुरी तरह घायल हो गई। यह घटना साल 2010 की है।

ज्योति तेजाबी हमले के बाद

जब श्री वैद इसकी शिकायत लेकर कोतवाली थाने गए तो थाना प्रभारी सी के झा ने प्राथमिकी दर्ज करने के एवज़ में दस हज़ार रूपयों की मांग की और नहीं देने पर प्राथमिकी दर्ज करने से मना कर दिया। टुनटुन (अभियुक्त) के पिता प्रदीप कुमार झा ने श्री वैद को जान से मारने की धमकी भी दी। 

अब इस घटना को दो साल बीत चुके हैं, लेकिन आर्थिक रूप से असहाय वैद के सामने कोई रास्ता नहीं बचा। ज्योति अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई को जारी रखने का मन बना चुकी है, लेकिन उसके पास इसका रास्ता नहीं...उसे नहीं पता कि आखिर उसे न्याय कैसे हासिल होगा।

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