Saturday, December 13, 2025

भूतों की अभूतपूर्व कथा- भाग एक

 


भूतों के बारे में आपने सुना तो होगा ही. लेकिन कुछ दिलचस्प बातें मैंने इकट्ठी की है. हॉरर स्टोरी नहीं सुना रहा, सिर्फ परंपराएं इकट्ठी कर रहा हूं. मसलन, भूतों की परिभाषा क्या है? भूत कौन होते हैं?

असल में, भूत एक आम शब्द है जिसमें कई तरह की बुरी आत्माएँ शामिल हैं जिन्हें अलग-अलग करके समझने की कोशिश करेंगे. हालाँकि, पहले आम तौर पर भूतों में पाए जाने वाले कुछ आम लक्षणों के बारे में बात करना अधिक दिलचस्प होगा.

परिभाषा के मुताबिक, "प्रॉपर भूत ऐसी आत्मा है जो हिंसक तरीके से मरे हुए लोगों की होती है. चाहे वह मौत दुर्घटना से हो, आत्महत्या से हो या मौत की सज़ा पाए लोगों से।"

ऐसी आत्माएं भी भूतों की श्रेणी में आती हैं अगर मौत के बाद उसका ठीक से अंतिम संस्कार न किया गया हो.
बहरहाल, बहुत सारी ऐसी आत्माओं का (भय से) कई इलाकों में पूजा-पाठ भी किया जाता है. कई स्थान पर उन्हें मनुख देवा का दर्जा मिला है. बाघ का शिकार हुए लोगों का अस्थान बघौत कहा जाता है. बिजली गिरने से मरे लोगों का अस्थान 'बिजलिया बीर' के नाम से प्रसिद्ध है. ताड़ के पेड़ से गिरे इंसान का अस्थान 'ताड़ बीर' के नाम से और सांप काटने से मरे व्यक्ति का अस्थान नगैया बीर के नाम से जाना जाता रहा है.

जनरल कनिंघम ने (मैं एक किताब के अनुवाद के सिलसिले में उनके विवरणों को देख रहा था), हाथी के महावत के अस्थान (श्राइन) का जिक्र किया है, जो पेड़ से गिरकर मर गया था, उसी तरह, एक ब्राह्मण की मौत गाय के ढूंसने से हो गई थी, उसका भी अस्थान बनाया गया था, एक कश्मीरी महिला, जिसका एक पैर था और जिसकी मृत्यु दिल्ली से अवध जाते समय थकान से हो गई थी, उसके भी अस्थान का जिक्र कनिघम ने किया है.

भूतों के कई प्रकार हैं. चुड़ैल, किच्चिन, बैताल, प्रेत, जिन्न, ... इनके बारे में आपकी क्या राय और क्या जानकारी है और क्या आपका कोई अनुभव रहा है? भूतों के प्रकार या उनसे जुड़े किस्से हो तो वह भी साझा करें.


(नोटः पोस्ट के साथ चस्पां भूत की तस्वीर एआइ जनरेटेड है. भूत का फोटो आजतक ले नहीं पाया हूं, अतएव तस्वीर को प्रतीकात्मक ही समझें.)








Thursday, December 11, 2025

15 करोड़ की किताब, साहित्य है या पब्लिसिटी का मजाक!

मैं रत्नेश्वर जी से बहुत बार नहीं मिला हूं। इस बार सुना कि उन्होंने 15 करोड़ की किताब लिख डाली। उनके लिए यह कोई नई बात नहीं। पिछली बार रत्नेश्वर जी ने, जब हमारी मुलाकात हुई थी, तब तीन करोड़ रुपए एडवांस में लिए थे, ऐसा उन्होंने बताया था। अगर यह कदम महज खबर बनाने के लिए थी तो खबर बन गई। पर अब आगे की बात। 

कुछ महीने पहले शैलेश भारतवासी जी ने आदरणीय विनोद कुमार शुक्ल को तीस लाख रुपए का रायल्टी का चेक सौंपा था। चेक प्रदान करते हुए तस्वीरें थी। तीस लाख भी हिंदी साहित्यकार के लिए लगभग मूं बा देने की स्थिति थी। रत्नेश्वर जी भी स्पष्ट कर दें कि पंद्रह करोड़ का क्या मसला है? प्रकाशक ने दिए? आपने प्रकाशन के लिए दिए? इतने रकम की बिक्री? मतलब थोड़ा स्पष्ट कर देते तो हम ज्वलनशील लोगों के कलेजे को ठंडक पड़ती।

लोकसभा 2025- जब संसद में राहुल गांधी की बात पर अमित शाह को आया तेज गुस्सा


 

Monday, November 24, 2025

मारे तो धरमिन्दर


हिंदी मुंबइया सिनेमा के पर्दे पर सबसे ‘मर्दाना चेहरा’ सिर्फ एक था, धर्मेंद्र. मधुपुर में हमलोग अपने साथियों में मांसपेशीय शक्ति की सबसे ज्यादा नुमाइश और शेखी बघारने वाले साथी को ‘बड़का आया धरमिन्दर’ कहकर बुलाते थे.

धर्मेंद्र सिनेमा के परदे पर मसल पावर के प्रतीक थे.

यह तुलना ऐं-वईं नहीं थी. धर्मेंद्र परदे पर किसी को पीटते थे तो उनकी आंखों में गुस्सा नहीं, आग दिखती थी और वाकई लगता था कि अगर उनका घूंसा किसी को लगा, तो बंदा हफ्तों के लिए बिस्तर पर पड़ जाएगा.

उनकी चाल में अदा नहीं, आत्मविश्वास था. और उनकी मुस्कान में वह सादगी, जिसने दर्शकों को यह भरोसा दिलाया कि यह आदमी जब लड़ेगा, तो सच के लिए लड़ेगा.

लेकिन धर्मेंद्र का यह एक्शन हीरो बनना सिर्फ कैमरे का खेल नहीं था. यह उनके जीवन का संघर्ष था, मिट्टी, मेहनत और मोहब्बत से बना हुआ. धर्मेंद्र यानी पंजाब की माटी की सुगंध.

जहां तक मुझे खयाल है, पहली बार शर्ट फाड़कर गुंडों की पिटाई धर्मेंद्र ने ही की थी, फूल और पत्थर थी फिल्म. और इसी फिल्म के साथ धर्मेंद्र दर्शकों के चहेते बन गए थे.
 



इस फिल्म में उन्होंने एक ऐसे बदमाश का किरदार निभाया, जो अंदर से नेकदिल है.

क्लाइमेक्स के उस सीन में, जिसका जिक्र मैंने किया है कि धर्मेंद्र शर्ट फाड़कर गुंडों को मारते हैं, सिनेमाघर सीटियों से गूंज उठता था. इसी फिल्म से पैदा हुए हीमैन.

असल में, इस समय तक परदे पर दांत पीसते और आंखों से गुस्सा बरपाते अमिताभ का आगाज नहीं हुआ था लेकिन एक्शन का दूसरा नाम धर्मेंद्र बन गए थे.

शोले का जिक्र तो जितनी बार किया जाए कम ही होगा. फिल्म का एक्शन उस समय के लिहाज से तकनीकी रूप से नया था, लेकिन धर्मेंद्र के स्टंट वास्तविक थे. उन्होंने ट्रेन के ऊपर से कूदने वाले दृश्य, और ठाकुर के साथ लड़ाई वाले सीन खुद किए. शोले में जय की मौत के बाद वीरू का दांत पीसकर, ‘गब्बर मैं आ रहा हूं’ कहना कौन भूल सकता है!

मनमोहन देसाई की 1977 की फिल्म धरम वीर एक फैंटेसी-एक्शन थी, जहाँ धर्मेंद्र ने ऐसे मध्यकाल के किसी योद्धा का किरदार निभाया था, जिसकी नकल करके आज भी कई हास्य कलाकारों की रोजी-रोटी चल रही है और जिसकी नकल फिल्म राजाबाबू में गोविन्दा ने भी की थी.

बहरहाल, धरमवीर में तलवारबाजी, घुड़सवारी और योद्धा वाली पोशाकों के बीच धर्मेंद्र का एक्शन पूरी तरह अलग था. उन्होंने अपने शरीर और चेहरे से जो जज्बात दिखाए, वह भारतीय सिनेमा में उस दौर की तकनीक से कहीं आगे थे.

उनका घोड़े पर कूदना, तलवार घुमाना और संवाद बोलते हुए अभिनय में ‘फिल्मीपन’ कम और फिजिकल रियलिज्म ज्यादा था.

1978 की शालीमार में धर्मेंद्र ने इंटरनेशनल स्टाइल में एक्शन किया. लड़कियों के लिए यह फिल्म उनकी ‘जेम्स बॉन्ड’ इमेज का प्रतीक बन गई. उनकी चाल, बॉडी लैंग्वेज और कैमरे पर पकड़—सबने उन्हें ग्लोबल एक्शन हीरो का लुक दिया.

1980 की राम बलराम में वे अमिताभ बच्चन के साथ थे. दो भाइयों की इस कहानी में धर्मेंद्र ने अमिताभ के बड़े भाई का किरदार निभाया, जिसमें उनका अनुभव और जोश दोनों दिखे.

यहां उनका हर फाइट सीन डांस की तरह तालमेल वाला था.

पर सबसे बड़ा एक्शन धर्मेंद्र ने पर्दे पर नहीं, अपने जीवन में किया. जब करियर शिखर पर था, तब आलोचना और निजी परेशानियों ने उन्हें तोड़ दिया. उन्होंने किसी इंटरव्यू में कहा था, ‘मैंने अपने दर्द को शराब में डुबोया, पर किसी को तकलीफ नहीं दी. मैं गिरा, मगर फिर उठा.’

धर्मेंद्र की यह स्वीकारोक्ति ही उनका सबसे बड़ा ‘एक्शन’ था. जहाँ एक हीरो खुद से लड़कर बाहर निकला.

आज जब हाई-टेक एक्शन, वायर वर्क और कंप्यूटर ग्राफिक्स फिल्मों में आम हैं, एआइ का इस्तेमाल असली को भी मात दे रहा है और वीएफएक्स ने सिनेमा के परदे को आश्चर्य लोक में बदल दिया है, धर्मेंद्र की पुरानी फिल्मों का एक्शन आज भी असली लगता है क्योंकि उसमें ईमानदारी थी.

धर्मेंद्र की पहचान सिर्फ एक्शन से नहीं, बल्कि उनके मानवीय स्पर्श से बनी. वह गुस्से में भी सज्जन थे, और लड़ाई में भी सच्चे. उनके स्टंट्स में हिंसा नहीं, इंसाफ की चाह थी. आज की पीढ़ी अगर धर्मेंद्र को ‘रेट्रो एक्शन स्टार’ कहती है, तो ये याद रखना चाहिए कि उन्होंने स्क्रीन पर वह किया था जो जिंदगी में हर किसी को करना पड़ता है- मुश्किल हालात से लड़कर मुस्कुराना.



स्मृतिशेषः धर्मेंद्र का हीमैन से परे गहराई से अभिनय वाला चेहरा

मंजीत ठाकुर

हिंदी सिनेमा के उस युग में जब एक्शन-हीरो, मसाला सिनेमा और बड़े स्टारडम का जोर था, धर्मेंद्र ने समय-समय पर ऐसी फिल्मों में अभिनय किया जो मुख्यधारा से हटकर थीं. आमतौर पर धर्मेंद्र को हम ‘बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना’ वाले गुस्सैल तेवर वाले नायक के रूप में जानते हैं. लेकिन उन्होंने अपने मसल ब्रांड के बाहर निकलकर संवेदनशीलता, अंतर्मन के उकेरने वाली और सामाजिक नियमों से टकराने वाले नायकों के किरदार निभाए.

सिनेमा में जिन ब्रांड्स की नाम होती है उसमें धर्मेंद्र की उपाधि हीमैन की थी. लेकिन धर्मेंद्र ने अपनी लोकप्रिय ब्लॉकबस्टर छवि से हटकर ‘आंखों से अभिनय’ करने वाली फिल्में भी की.

ऐसी फिल्मों में पहला नाम उभरता है बंदिनी का. 1963 में रिलीज हुई इस फिल्म में धर्मेंद्र करियर के शुरुआती दौर में थे.



जिस हुगली-किनारे के जेल सेटअप ने हमें यह एहसास दिलाया कि ‘स्वतंत्रता’ सिर्फ़ राजनीतिक नहीं, मानसिक भी होती है. बंदिनी में धर्मेंद्र ने डॉ. देवेंद्र का किरदार निभाया. यह भूमिका उनके लिए उस समय अप्रत्याशित थी, जहाँ ‘ही-मैन’ का टैग असर था. लेकिन एक जेल-डॉक्टर का शांत, संवेदनशील और नजरें मिलाने से पहले सोचने वाला स्वभाव उन्होंने सहजता से निभाया. इस फिल्म की समीक्षा करते हुए द क्विंट में एक फिल्म समीक्षक ने बाद में लिखा, “एक युवा, करिश्माई और संवेदनशील जेल डॉक्टर जो ‘गंदे कैदी’ वाली सोच में यकीन नहीं करता… मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए, धर्मेंद्र और जेल, शोले में पानी की टंकी पर खड़े होकर ‘चक्की पीसींग’ चिल्लाने की इमेज है. लेकिन बंदिनी में, वह एक कमाल हैं.”

उनकी यह भूमिका बताती है कि धर्मेंद्र उस ब्लॉक को तोड़कर भी अभिनय कर सकते थे जहाँ उन्हें केवल ‘एक्शन-रॉबस्ट’ हीरो के रूप में देखा जाता था.

धर्मेंद्र के करियर में दूसरी ऐसी ही फिल्म थी 1966 की अनुपमा. निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म में धर्मेंद्र ने अशोक नामक शिक्षक-कवि की भूमिका निभाई थी. यह एक ऐसा किरदार था, जिसमें उन्होंने मजबूती और नजाकत का अद्भुत संयोजन दिखाया था. डॉ. स्नेहा कृष्णन ने इस फिल्म की समीक्षा में लिखा, “धर्मेंद्र ने अपने शुरुआती करियर में एक बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है, जिसमें एक केयरिंग, प्रेरक और प्यारी स्क्रीन प्रेजेंस है.”

अनुपमा में एक शिक्षक-कवि के रूप में उनके संतुलित स्वभाव ने उनके अभिनेता होने की एक और तह खोली.

यह किरदार उनकी कद्दावर सिनेमाई छवि से बहुत दूर था: न कोई बड़ी मशीन-गन, न कोई फिसलता एक्शन-सिक्वेंस, बल्कि एक धीमी गति की संवेदना, एक सांस्कृतिक बेड़ियों से उबरने की कहानी. धर्मेंद्र की आंखों में और धैर्य में वह सादगी दिखी, जिसने उस समय के ‘नायक’ के प्रतिमानों को चुनौती दी थी.

धर्मेंद्र की ऑफबीट फिल्मों में एक फिल्म का नाम न लिखा जाए तो सारी सूची बेकार होगी और वह थी 1969 में आई सत्यकाम.

यह फिल्म धर्मेंद्र के अभिनय-सफर में एक मील का पत्थर मानी जाती है. उन्होंने सत्यप्रिय आचार्य नामक ईमानदार इंजीनियर की भूमिका निभाई थी. अपने उसूलों के लिए वह उस समय के साथ सामाजिक ताने-बाने, रिश्तों और व्यवस्था से टकरा जाता है. ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने बाद में इस फिल्म का जिक्र करते हुए लिखा कि हृषिकेश मुखर्जी के सत्यकाम में धर्मेंद्र ने अपनी सबसे वास्तविक परफॉर्मेंस दी थी.

इस फिल्म को देखते हुए आप उनकी आँखों की गहराई, आवाज के उतार-चढ़ाव को देखिए ही, साथ में इस फिल्म में उनके मौन (या पॉज) भी अभिनय को नई ऊंचाइयों तक ले जाते हैं.

लेकिन, सत्यकाम की क्लाइमेक्स में, जब धर्मेंद्र का किरदार देखता है कि उसका आदर्श टूट रहा है—उनकी आँखों में निराशा, दृढ़ता और खुद से सवाल के भ्रम यह तीनों भाव एक साथ चलते दिखते हैं.

यह बात और है कि सिने आलोचकों ने इस फिल्म को सर-आंखों पर बिठाया, लेकिन जनता को थियेटर तक नहीं ला पाई. बेशक, बॉक्स-ऑफिस मार्केट के हिसाब से यह सफलता नहीं थी, पर अभिनय-दृष्टि से यह धर्मेंद्र का सर्वश्रेष्ठ माना गया है.

अभिनय के लिहाज से धर्मेंद्र की एक अन्य फिल्म है जिसे अमिताभ के साथ उन्होंने किया था और यह थी 1975 में रिलीज हुई फिल्म चुपके चुपके.

यह फिल्म भारी व्यावसायिक मसाले से अलग थी. फिल्म में कॉमेडी थी लेकिन सादगी और बुद्धिमत्ता भी थी. धर्मेंद्र ने प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी और कार ड्राइवर प्यारे मोहन इलाहाबादी का किरदार निभाया.

हिंदुस्तान टाइम्स की टिप्पणी थीः ‘कालजयी कहानी... और धर्मेंद्र जिन्होंने अपने हास्य और गरमाहट भरी ऊर्जा से कॉमिडी को नया स्तर और परिभाषा दी.’

सत्तर के दशक का उत्तरार्ध अमिताभ बच्चन की धूम-धड़ाके वाली एक्शन फिल्मों का था. लेकिन गब्बर को हराने वाले धर्मेंद्र ने इस फिल्म में मुस्कुराहट और सादगी से शर्मिला टैगोर और दर्शकों दोनों का दिल जीत लिया,

चुपके चुपके में धर्मेंद्र ने संवाद-प्रवाह, शारीरिक हाव-भाव, टाइमिंग सबमें सहजता दिखायी और इस फिल्म ने जाहिर किया कि अभिनेता के रूप में उन्हें अपनी कला में महारत है.

लेकिन चुपके-चुपके से पहले 1966 में धर्मेंद्र की एक अन्य फिल्म थी फूल और पत्थर.

हालाँकि यह फिल्म व्यावसायिक रूप से भी कामयाब थी और इसे अक्सर धर्मेंद्र की सुपरस्टार बनने की फिल्म माना जाता है, लेकिन इस फिल्म को धर्मेंद्र की ‘ऑफ-बीट राह की शुरुआत’ भी माना जा सकता है क्योंकि इसमें उन्होंने परदे पर कमाल की संवेदनशीलता दिखाई थी.

फूल और पत्थर में उन्होंने “हीरो” होने के साथ-साथ मानव-कमज़ोरियों का स्वीकार दिखाया—यह कदम उस जमाने के हीरो इमेज के लिए साहसपूर्ण था.

धर्मेंद्र सुपरस्टार थे और आखिरी क्षणों तक सुपरस्टार ही रहे. बेशक, शोले, लोहा, हकीकत, धर्म-कांटा जैसी फिल्मों ने उनको दर्शकों के दिलों तक पहुंचाया.

धर्मेंद्र ने अपने करियर में दिखाया कि वे सिर्फ़ ही-मैन नहीं, बल्कि एक ऐसे अभिनेता हैं जो भूमिका में उतरने और किरदार के भीतर उतरने का हुनर रखते हैं. उसकी इस क्षमता ने उन्हें सिर्फ़ कमर्शियल स्टार नहीं, बल्कि अभिनय-सिद्ध कलाकार बना दिया.

सत्यकाम ने सिनेमा की दुनिया को अलविदा कह दिया है लेकिन जब तक भारत में सिनेमा और कला की बात होगी, धर्मेंद अपनी पूरी शख्सियत के साथ, अपनी एक्शन फिल्मों और कला की गहराइयों दोनों के लिए याद किए जाते रहेंगे.

Saturday, November 15, 2025

झारखंड राज्य का आंदोलन, गठन और मुसलमानों की अनदेखी भूमिका

-मंजीत ठाकुर

झारखंड राज्य 15 नवंबर, 2000 को बिहार से अलग करके गठित किया गया था। यह महज एक सियासी फैसला नहीं था, बल्कि एक सदी से अधिक समय तक चले सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्ष का नतीजा था। इस संघर्ष में जितना योगदान आदिवासी समुदायों, छात्रों और स्थानीय संगठनों का रहा, उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा मुसलमानों का भी रहा है। परंतु, आज झारखंड की राजनैतिक स्मृति में मुस्लिमों की भूमिका लगभग गायब कर दी गई है।

स्वाधीनता आंदोलन में मुस्लिमों की शहादत

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में झारखंड के मुस्लिमों ने उल्लेखनीय योगदान दिया। शेख भिखारी उस दौर के सबसे बहादुर योद्धाओं में गिने जाते हैं। ठाकुर विष्णुनाथ शाहदेव के नेतृत्व में मुक्ति वाहिनी के सक्रिय सदस्य बने शेख भिखारी ने रांची और चुटूपाल की लड़ाइयों में अंग्रेज़ों के खिलाफ असाधारण साहस दिखाया था।

2 अगस्त, 1857 को रांची पर ब्रिटिश हमले के दौरान भिखारी और विष्णु सिंह की रणनीति ने अंग्रेज़ों की योजनाओं को विफल कर दिया।

शेख भिखारी ने संताल परगना के संतालों को भी संगठित किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ विद्रोह को प्रेरित किया। लेकिन देशी बंदूकों से लैस यह सेना भारी हथियारों के सामने टिक नहीं सकी।

इसी युद्ध में शेख भिखारी, नादिर अली (चतरा), सलामत अली और शेख हारू जैसे योद्धाओं ने अपने प्राण न्योछावर किए। नादिर अली और ठाकुर विष्णुनाथ पांडे को फांसी दी गई जबकि सलामत अली और शेख हारू को कालापानी की सजा सुनाई गई।

यह वही झारखंड था जहाँ धर्म और जाति की दीवारें टूटकर एक साझा संघर्ष में बदल गई थीं।


मॉमिन कॉन्फ्रेंस और झारखंडी चेतना का सूत्रपात

1923 में रांची के पास मुरमा में मॉमिन कॉन्फ्रेंस की स्थापना ने मुस्लिम समाज को एक संगठित रूप दिया। इस संगठन ने जलियांवाला बाग हत्याकांड की निंदा की, शहीदों को श्रद्धांजलि दी और बुनकरों को ब्रिटिश आर्थिक अत्याचार से बचाने का आह्वान किया।

इमाम अली (ब्राम्बे), नज़हत हुसैन (बुंडू), जग्गू मियां (बिजुलिया), फ़र्ज़ंद अली (इटकी), अब्दुल्ला सरदार (सिसई), ज़ाकिर अली (इटकी), सोहबत मियां (रांची) और चंदन मियां (डुमरी) जैसे नेताओं ने राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ स्थानीय पहचान के लिए भी आवाज़ उठाई।

1912 से शुरू हुई झारखंड राज्य की मांग

जब 1912 में बिहार को बंगाल से अलग किया गया, तब झारखंड के कुछ हिस्से बंगाल में और कुछ बिहार में शामिल कर दिए गए। उस समय असमत अली नामक मुस्लिम नेता ने पहली बार चेताया कि झारखंड की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान इस नये प्रशासनिक ढांचे में खो जाएगी।

असमत अली ने उसी वर्ष झारखंड को अलग राज्य बनाने की मांग रखी। यह झारखंड राज्य निर्माण की पहली राजनीतिक पुकार थी।

1919 में चिराग अली ने इस आंदोलन को और मज़बूत किया। इसके बाद अनेक मुस्लिम नेताओं मसलन, मोहम्मद मुर्तज़ा अंसारी (चक्रधरपुर), अशरफ ख़ान (खेलारी), मोहम्मद सईद और ज़ुबैर अहमद (जमशेदपुर), वहाब अंसारी (पुरुलिया) और एस.के. क़ुतुबुद्दीन (मेदिनीपुर) ने 1980 के दशक तक इस संघर्ष में अपनी जानें दीं।

राजनीतिक संगठनों में मुस्लिम नेतृत्व

1936 में मॉमिन कॉन्फ्रेंस ने झारखंड राज्य की मांग पर प्रस्ताव पारित किया। 1937 के चुनाव में आर. अली ने मुस्लिम लीग उम्मीदवार को हराकर बिहार विधानसभा में प्रवेश किया। यह मुस्लिम समाज की स्वायत्त राजनीतिक सोच का उदाहरण था।

1937 के बाद जब आदिवासी प्रोग्रेसिव सोसायटी बनी, तो हाजी इमाम अली, नज़रत हुसैन, अब्दुल्ला सरदार, फ़र्ज़ंद अली, शेख़ अली जान और मौलवी दुखू मियां जैसे मुस्लिम नेता उसके सक्रिय सदस्य बने। यह एक सामाजिक गठजोड़ था, जिसने आदिवासियों और मुसलमानों के बीच साझा पहचान और परंपराओं की रक्षा की भावना को जन्म दिया।

इतिहास की जड़ों में मुस्लिम उपस्थिति

प्रसिद्ध इतिहासकार आर.आर. दिवाकर अपनी पुस्तक ‘बिहार थ्रू एजेज’ में लिखा है कि लगभग आठ सौ वर्ष पहले मुस्लिम समूह पहली बार झारखंड क्षेत्र में पहुँचे और यहाँ के मुंडा गाँवों में बस गए। वे स्थानीय समुदायों में इस तरह घुल-मिल गए कि अपनी पुरानी भाषा, रीति-रिवाज और जीवनशैली लगभग भूल गए।

दिवाकर अपनी किताब में पादरी हॉफमैन को उद्धृत करते हैं कि, “इन क्षेत्रों के निवासियों ने अरबी और फ़ारसी शब्दों को अपनी भाषा में अपनाया।”

यह सांस्कृतिक समागम झारखंडी समाज की एक अनोखी पहचान बन गया, जहाँ धर्म से अधिक मानवता का रिश्ता प्रधान रहा।

1661 में दायूदनगर में पहली बार मुसलमानों ने मस्जिद बनाई और बाद में मदरसों की स्थापना भी हुई। 1740 में हिदमतुल्लाह ख़ाँ झारखंड के जपला के पहले मुस्लिम जागीरदार बने।

यह इस बात का संकेत था कि मुस्लिम समाज यहाँ केवल धार्मिक रूप से ही नहीं, प्रशासनिक और सामाजिक रूप से भी सक्रिय भूमिका निभा रहा था।


आधुनिक काल में झारखंड कौमी तहरीक की भूमिका

1989 में जमशेदपुर के सीताराम डेहरा में झारखंड कौमी तहरीक (जेक्यूटी) का गठन हुआ। प्रोफेसर ख़ालिद अहमद इसके पहले अध्यक्ष बने और अफ़ताब जमी़ल, मोहम्मद रज़ान, इमरान अंसारी तथा बशीर अहमद इसके संस्थापक सदस्य थे।

इस संगठन ने छात्रों के संगठन ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (एजेएसयू) के साथ मिलकर आंदोलन का मोर्चा संभाला।

23 जुलाई, 1989 को रांची विश्वविद्यालय परिसर में हुई इसकी पहली कॉन्फ्रेंस में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, शिक्षा और प्रतिनिधित्व से जुड़ी नीतियाँ तय की गईं। इसमें कुछ बातें तय की गई थीं।

इन नीतियों में तय किया गया कि झारखंड में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा, अल्पसंख्यकों को राजनीति, शिक्षा और प्रशासन में उचित प्रतिनिधित्व मिलेगा, मुस्लिमों को उनकी आबादी के अनुपात में शिक्षा और रोजगार में आरक्षण दिया जाएगा, सभी स्थानीय भाषाओं को समान दर्जा मिलेगा, अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थानों को सरकारी मान्यता और सहायता दी जाएगी, अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए अल्पसंख्यक आयोग, हज समिति, मदरसा बोर्ड और वक्फ बोर्ड गठित किए जाएंगे।

जेक्यूटी की ये नीतियाँ झारखंड तक सीमित नहीं रहीं। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भी ध्यान आकर्षित किया। सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने झारखंड आंदोलन में गहरी रुचि दिखाई। मुस्लिम युवाओं ने भी आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

साझा संघर्ष और बलिदान की गाथा

झारखंड कौमी तहरीक से जुड़े अनेक युवाओं को आंदोलन के दौरान पुलिस की हिंसा और जेल की यातना झेलनी पड़ी। मोहम्मद फैज़ी, सरफ़राज़ अहमद, मुश्ताक अहमद, इमरान अंसारी, मुजीबुर्रहमान, सरवर सज्जाद और सुबरान आलम अंसारी जैसे कार्यकर्ताओं ने झारखंड राज्य के लिए अपनी जिंदगी लगा दी।

इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अधिकारों और आत्मसम्मान का आंदोलन था। मुसलमानों ने यहाँ धर्म नहीं, बल्कि झारखंडियत को अपनी पहचान का हिस्सा बनाया।


राज्य बनने के बाद उपेक्षा का सिलसिला

15 नवंबर, 2000 को झारखंड राज्य का गठन हुआ और भाजपा के बाबूलाल मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। परंतु नवगठित राज्य की सरकार में एक भी मुस्लिम मंत्री या विधायक नहीं था। न तो राज्यपाल प्रभात कुमार और न ही मुख्यमंत्री मरांडी ने अपने प्रारंभिक भाषणों में अल्पसंख्यकों की भूमिका या अधिकारों पर एक शब्द कहा।

यह स्थिति उस ऐतिहासिक अन्याय की ओर इशारा करती है जिसमें मुसलमानों ने तो झारखंड के निर्माण के लिए आंदोलन किया, परंतु इतिहास की किताबों और राजनीतिक मान्यता में उनका नाम तक दर्ज नहीं हुआ।


गठन के 25 साल बाद झारखंड के सामने चुनौती

झारखंड की पहचान बहुसांस्कृतिकता और साझी विरासत में निहित है। यहाँ आदिवासी, दलित, पिछड़े और मुसलमान सदियों से साथ रहते आए हैं। राज्य की स्थायी शांति और विकास के लिए यह आवश्यक है कि सरकार मुस्लिम समुदाय की ऐतिहासिक भूमिका को मान्यता दे और उन्हें राजनीतिक, शैक्षिक और प्रशासनिक प्रतिनिधित्व प्रदान करे।

सरकार को तत्काल झारखंड उर्दू अकादमी, मदरसा बोर्ड, वक्फ बोर्ड, अल्पसंख्यक आयोग और उर्दू निदेशालय की स्थापना करनी चाहिए। इससे न केवल मुस्लिम समाज का भरोसा बहाल होगा बल्कि राज्य की समावेशी राजनीति की जड़ें भी मज़बूत होंगी।

झारखंड की मिट्टी ने शेख भिखारी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को जन्म दिया, जिन्होंने अंग्रेज़ों से लोहा लिया। उसी धरती पर असमत अली और चिराग अली ने अलग राज्य की मांग उठाई। 1980 के दशक में झारखंड कौमी तहरीक ने इस आंदोलन को नई ऊर्जा दी। लेकिन आज इन नामों को जानने वाले भी कम हैं।

अब समय आ गया है कि झारखंड के इतिहास को एकतरफ़ा दृष्टि से नहीं, बल्कि उसके साझे संघर्षों और बहुलतावादी चरित्र के रूप में देखा जाए। झारखंड की असल पहचान किसी एक समुदाय की नहीं, बल्कि उन तमाम लोगों की है जिन्होंने इस भूमि की अस्मिता के लिए संघर्ष किया, जिनमें मुसलमानों का योगदान कभी भी कम नहीं रहा।

Friday, November 14, 2025

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के परिणामः जीते हुए मुस्लिम उम्मीदवार, पार्टी, सीट और उनका मार्जिन

मुस्लिम उम्मीदवार विजेता

1. जोकीहाट- AIMIM – मोहम्मद मुर्शिद आलम- मार्जिन- 28803

2. बहादुरगंज- AIMIM- मोहम्मद तौसीफ आलम- मार्जिन- 28726

3. कोचादामन- AIMIM- मो. सरवर आलम- मार्जिन- 23021

4. अमौर- AIMIM- अख्तरूल ईमान- मार्जिन- 38928

5. बैसी- AIMIM- गुलाम सरवर- मार्जिन- 27251

6. किशनगंज- कांग्रेस- मो. कमरूल होदा- मार्जिन- 12794

7. बिस्फी- राजद- आसिफ अहमद- मार्जिन- 8107

8. रघुनाथपुर- राजद- ओसामा साहब- मार्जिन- 9248

9. ढाका- राजद- फैजल रहमान- मार्जिन- 178

10. अररिया- कांग्रेस- अबीदुर रहमान- मार्जिन- 12741

11. चैनपुर- जेडीयू- मो. ज़मां खान- मार्जिन 8362




दूसरे स्थान पर रहे मुस्लिम उम्मीदवार

1. अमौर – सबा जफर- जद-यू

2. बहादुरगंज- मो. मुसव्वर आलम – कांग्रेस

3. बरारी- मो. तौकीर आलम- कांग्रेस

4. बेतिया- वशी अहमद- कांग्रेस

5. बिहार शरीफ- ओमैर खान- कांग्रेस

6. गौरा बौराम- अफजल अली खान- राजद

7. जमुई- मोहम्मद शमसाद आलम- राजद

8. जोकीहाट- मंजर आलम- जद-यू

9. कदवा- शकील अहमद खान- कांग्रेस

10. कसबा- मोहम्मद इरफान आलम- कांग्रेस

11. केओटी- फराज फातमी- राजद

12. कोचादामन- मोजाहिद आलम- राजद

13. नरकटिया- शमीम अहमद- राजद

14. नाथनगर- शेख जियाउल हसन- राजद

15. प्राणपुर- इशरत परवीन- राजद

16. रफीगंज- गुलाम शाहिद- राजद

17. समस्तीपुर- अख्तरूल इस्लाम शाहीन- राजद

18. सिकटा- खुर्शीद फिरोज अहमद- निर्दलीय

19. सिमरी बख्तियारपुर- युसुफ सलाउद्दीन- राजद

20. सुरसंड- सैय्यद अबू दोजाना- राजद

21. ठाकुरगंज- गुलाम हसनैन- AIMIM