Monday, December 17, 2018

किताब ये जो देश है मेरा पर साकेत सहाय की प्रतिक्रिया

डॉ साकेत सहाय राष्ट्रपति जी के हाथों हिंदी की सेवा के लिए पुरस्कृत हो चुके हैं. खुद लेखक और अनुवादक भी हैं. पर साथ ही मेरे मित्र भी हैं. उन्होंने मेरी किताब ये जो देश है मेरा पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया फेसबुक के जरिए पोस्ट की, तो उसे यहां बांटने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. मेरे मित्र हैं तो तारीफ भी ज्यादा की होगी. साकेत भाई का शुक्रियाः मंजीत

आज, भाई मंजीत ठाकुर जी की रचना ‘ये जो देश है मेरा’ पढ़ी. सच मायनों में किसी पुस्तक का शीर्षक ही उसके भीतर के पन्नों का आईना होती है. इस मायने में यह पुस्तक अपने शीर्षक के साथ न्याय करती नजर आती है. जनसामान्य की समस्याओं को समर्पित उनकी यह रचना विशिष्ट कही जा सकती है. रिपोर्ताज की शक्ल में उन्होंने अपने पत्रकारीय जीवन के अनुभवों एवं जनजुड़ाव के पक्ष को इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत किया है.

वास्तव में सच्चा पत्रकार वही होता है जो अपनी रिपोर्टों के माध्यम से उस खबर को जीता है. इस नजरिए से देखें तो पत्रकार समाज के नायक, सुधारक के रूप में उभरता है. क्योंकि वह अपनी सार्थक रिपोर्टों के माध्यम से समाज के समक्ष वास्तविक चित्र प्रस्तुत करता है. पुस्तक ‘ये जो देश है मेरा’ के माध्यम से लेखक इन दायित्वों का निर्वहन करते हुए उभरते हैं. पुस्तक में लेखक ने बुंदेलखंड, कूनो पालपुर, नियमागिरि, सतभाया, लालगढ़ आदि क्षेत्रों की विभिन्न समस्याओं को रेखांकित किया है. जो कि विकास की नई परिभाषा के कारण इन क्षेत्रों में उपजी है. 

पुस्तक में सामाजिक-विकासात्मक रिपोर्टिंग को भी नए ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिसे विकासशील देशों के संचार माध्यमों को समझना होगा. साथ ही वे अपनी रिपोर्टिंग के माध्यम से सांस्कृतिक पहुलूओं की भी बात करते है.

देश में उदारीकरण के बाद से एक लंबी विभाजक रेखा खिंचती चली जा रही है. पुस्तक वनवासी, आदिवासी, दलित, वंचित आबादी, जो इस विभाजक रेखा से ज्यादा प्रभावित हुए हैं की समस्याओं के बारे में सही चित्र प्रस्तुत करती है.
एक अच्छी रिपोर्ताज पुस्तक के लिए बधाई! पुस्तक अमेजॉन पर उपलब्ध है.

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Friday, December 14, 2018

कल्पित वास्तविकताएं ही इस युग का सच हैं.

कल्पित वास्तविकताएं क्या है? एक साझा मिथक. ये झूठ नहीं होते. इस साझा मिथक में विश्वास करते हुए हम करोड़ों की संख्या में आपसी सहयोग कर सकते हैं. भारतीय चुनावों के संदर्भों में आप इसे इंदिरा लहर, राम लहर, मोदी लहर, सत्ता विरोधी लहर की मिसालों में समझ सकते हैं. जब पूरा देश एक खास नेता या विषय की लहर की चपेट में होता है. आखिर यह लहर पैदा कैसे होती है? क्या यह लहर भावनात्मक मुद्दों पर नहीं होती? इंदिरा लहर क्या उनकी हत्या से जुड़ी सहानुभूति से नहीं उपजी थी? या राम लहर एक खास स्थान पर मंदिर बनाने के भावुकता पर आधारित नहीं थी?


म और आप, बल्कि दुनिया के हर हिस्से में, हर समाज के पास अपने-अपने मिथक हैं. हर समाजे के अपने ईश्वर हैं. सिर्फ धर्मों के ही नहीं, बल्कि विभिन्न जनजातीय समुदायों के भी. पर जरा सोचिए कि एक होमोसेपियंस (यानी हम बुद्धिमान इंसान) जो शुरू में चिंपाजी जैसे ही थे, आखिर इन मिथकों की कल्पना कैसे कर सके? ईश्वर भी उन मिथकों में से एक है. पर थोड़ी देर के लिए अन्य बातों पर गौर कीजिए. आखिर जंगलों में भोजन खोजने के लिए भटकने वाले खाद्य संग्राहक, और आदिम खेतिहर लोग हजारों बाशिंदों से भरो शहरों और करोड़ो की आबादी वाले साम्राज्यों की स्थापना कैसे कर सके?

यह भी सोचिए कि आखिर, हम भारतीयों को कौन सी एक चीज है जो बतौर राष्ट्र एक सूत्र में बांधती है? या ब्रिटिशों को? या इन इस्लामिक जेहादियों को, जो पूरी दुनिया को दारुल-उलूम में बदलना चाहते हैं?

यह मैं ईश्वर के संदर्भ में नहीं, बल्कि विकासवाद के संदर्भ में पूछ रहा हूं.

असल में इसका रहस्य कल्पना के प्रकट होने में है. एक साझा मिथक में विश्वास करते हुए हम करोड़ों की संख्या में आपसी सहयोग कर सकते हैं. भारतीय चुनावों के संदर्भों में आप इसे इंदिरा लहर, राम लहर, मोदी लहर, सत्ता विरोधी लहर की मिसालों में समझ सकते हैं. जब पूरा देश एक खास नेता या विषय की लहर की चपेट में होता है. आखिर यह लहर पैदा कैसे होती है? क्या यह लहर भावनात्मक मुद्दों पर नहीं होती? इंदिरा लहर क्या उनकी हत्या से जुड़ी सहानुभूति से नहीं उपजी थी? या राम लहर एक खास स्थान पर मंदिर बनाने के भावुकता पर आधारित नहीं थी?

असल में बड़े पैमाने पर इंसानी सहयोग की जड़ें उन साझा मिथकों में फैली होती हैं, जिनका अस्तित्व सिर्फ समाज की सामूहिक कल्पना में होता है. दो मुस्लिम, या कैथोलिक इसाई कभी एक दूसरे से मिले भी न हों पर धर्मयुद्ध में एक साथ जा सकते हैं. अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए महाराष्ट्र और बिहार के कारसेवक हाथ मिला सकते हैं. या केरल बाढ़ राहत के लिए चंदा दे सकते हैं. क्योंकि इन दो इंसानों को विश्वास होता है कि ईश्वर ने इंसान के रूप में, या ईश्वर के पुत्र के रूप में अवतार लिया था और हमारे पापों से बचाने के लिए खुद को सूली पर लटका लिया था या केरल भी उनके राष्ट्र का एक हिस्सा है.

राष्ट्र राज्यों की कल्पना राष्ट्रीय मिथकों में फैली हैं. दो भारतीय जो आपस में कभी नहीं मिले, वो पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में एकदूसरे की जान बचाने के लिए खद को जोखिम में डाल सकते हैं. क्योंकि दोनों को भारतीय राष्ट्र, भारत माता और इसके तिरंगे में विश्वास है. 1947 के पहले यह स्थिति अकल्पनीय होती. जबकि 1965 में पूर्वी पाकिस्तान के लोग भारत के दुश्मन थे और 1971 में यह स्थिति बदल गई. इसी तरह न्यायिक व्यवस्था भी है. न्याय भी सामाजिक मिथकों का पारंपरिक संकलन ही है. डेढ़ हजार साल पहले हम्बूराबी के न्याय, 1776 के अमेरिका के स्वतंत्रता की घोषणा वाले न्याय और भारतीय संविधान के निर्माण में न्याय की दृष्टि बदली हुई है क्योंकि हमारे मिथक बदल गए.

हालांकि कुछ भी हो, इन सबका अस्तित्व उन कहानियों के बाहर नहीं होता है, जो लोगों ने गढ़ी होती है. जिन्हें वे एक दूसरे को सुनाते हैं. मनुष्यों की साझा कल्पना से बाहर विश्व में कोई और देवता नहीं है, कोई राष्ट्र, कोई पैसा, कोई मानव अधिकार, कोई कानून या न्याय नहीं है.

यह सब किस्सा है. कारगर किस्से कहना आसान नहीं होता. मुश्किल किस्सा सुनाने में नहीं, बल्कि उस पर विश्वास करने के लिए हर किसी को राजी करने में होता है. ज्यादातर इतिहास इस प्रश्न के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता हैः ईश्वर, या राष्ट्रों, या सीमित दायित्वों वाली कंपनियों के बारे में गढ़े गए खास किस्सों पर विश्वास करने के लिए कोई व्यक्ति लाखों लोगों को किस तरह राजी करता है? जब भी इसमें कामयाबी मिलती है तो सेपियंस को अपरिमित शक्ति प्रदान करती है, क्योंकि यह लाखों अजनबियों को आपस मे सहयोग करने तथा साझा लक्ष्यों की दिशा में काम करने के लिए सक्षम बनाती है.

जरा यह कल्पना कीजिए कि अगर हम सिर्फ नदियों, वृक्षों, शेरों या उन्हीं जैसी सिर्फ वास्तविक चीजों पर बात कर सकते तो हमारे लिए राज्यों, राष्ट्रों और वैधानिक व्यवस्था का निर्माण करना कितना मुश्किल हो जाता.

किस्सों के नेटवर्क के माध्यम से लोग जिस तरह की चीजें रचते हैं, उन्हीं को कल्पना, सामाजिक निर्मितियों, या कल्पित वास्तविकताओं का नाम दिया जाता है. कल्पित वास्तविकताएं झूठ नहीं हैं. झूठ मैं तब कह सकता हूं कि दिल्ली में एक शेर इंडिया गेट के पास है. जबकि मैं जानता हूं कि इंडिया गेट पर कोई शेर नहीं है. झूठ में कोई विशेष बात नहीं होती है.

झूठ से उलट, कल्पित वास्तविकता एक ऐसी चीज होती है जिस पर हर कोई भरोसा करता है. जब तक यह सामूहिक विस्वास बना रहता है, तब तक यह कल्पित वास्तविकता संसार में अपने बल का प्रयोग करती रहती है. हम सब वैदिक देवताओं समेत नरसिंह और वराह जैसे अवतारों के अस्तित्व में यकीन करते हैं. कुछ ओझा धूर्त होते हैं लेकिन अधिकतर लोग ऐसे होते हैं जो सच्चे मन से देवों और दानवों के अस्तित्व में यकीन करते हैं.

संज्ञानात्मक क्रांति के बाद सेपियंस लगातार दोहरी वास्तविकता में रह रहे हैं. समझिए कि हम पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण मानते हैं लेकिन यह तो सिर्फ धरती के संदर्भ में है. अगर हम अंतरिक्ष में चले जाएं तो यह दिशाएं किधर जाएंगी? नदियों, वृक्षों, शेरों की वस्तुनिष्ठ वास्तविकता, और दूसरी तरफ देवताओं, राष्ट्रों और कंपनियों की कल्पित वास्तविकता. समय के साथ कल्पित वास्तविकताएं शक्तिशाली होती गईं. यहां तक कि वस्तुनिष्ठ  वास्तविकताओं का जीवन कल्पित वास्तविकताओं की कृपा पर निर्भर रहने लगा है.

जारी रहेगा...

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Wednesday, December 12, 2018

राजपूत, गुर्जर और जाट के गुस्से ने ढहाया महारानी का किला

अगर पार्टी ने वसुंधरा का साथ दिया होता तो तस्वीर थोड़ी और बेहतर होती. मोदी अपनी जनसभाओं में कांग्रेस, राहुल, नीम कोटेड यूरिया की बात करते रहे, लेकिन वसुंधरा का नाम लेने से बचते रहे. अमित शाह ने भरे मंच से कहा था कि वसुंधरा आपने काम तो किया है, लेकिन अपना काम बता नहीं पाईं.


राजस्थान में कुल 200 सीटें हैं, इसमें से 199 सीटों पर चुनाव हुए थे. एक उम्मीदवार की मौत हो जाने के कारण 1 सीट पर मतदान नहीं कराया जा सका था.

आंकड़ों के मुताबिक कांग्रेस और उसके साथी 101 सीटें जीत गए हैं. वहीं, बीजेपी 75 सीटों पर आगे चल रही है. राजस्थान में 26 सीटों पर निर्दलीय और छोटी पार्टियों के उम्मीदवार आगे हैं जिससे तय है कि भाजपा से नाराजगी वाले सारे वोट कांग्रेस को ट्रांसफर नहीं हुए हैं. अगर ऐसा होता तो कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिल सकता था.

दूसरा, ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि राजस्थान में भाजपा का सूपड़ा साफ हो जाएगा, वैसा भी होता नहीं दिख रहा है. रुझानों को देखकर तो ऐसा लग रहा है कि अगर पार्टी ने वसुंधरा का साथ दिया होता तो तस्वीर थोड़ी और बेहतर होती. मोदी अपनी जनसभाओं में कांग्रेस, राहुल, नीम कोटेड यूरिया की बात करते रहे, लेकिन वसुंधरा का नाम लेने से बचते रहे.

अमित शाह ने तो भरे मंच से कह दिया था कि वसुंधरा आपने काम किया है, लेकिन अपना काम बता नहीं पाईं. राजस्थान में कांग्रेस को सीटें भले ही ज्यादा मिलती दिख रही हों, लेकिन दोनों के वोट प्रतिशत में मामूली अंतर है. कांग्रेस को 39.2 फीसदी मत मिले हैं वहीं भाजपा को 38.8 फीसदी वोट मिले हैं.

तो फिर भाजपा की संभावित हार की वजहें क्या रही हैं?

वसुंधरा राजे और भाजपा ने राजस्थान में पिछले चार साल में अपने वोट बैंक (जाट, गुर्जर और राजपूत) को हर तरह से दुलारकर रखने की कोशिश की. पर यह तीनों ही जातियां (जो राजस्थान की आबादी में करीबन 20 फीसदी हैं और जिनका असर पड़ोसी राज्यों हरियाणा और मध्य प्रदेश में भी है) भाजपा से नाराज हैं. सचिन पायलट के आने से गुर्जर समुदाय भी भाजपा से दूर हो रहा है.

जाटः मारवाड़ क्षेत्र समेत राज्य के 100 विधानसभा सीटों पर जाटों का असर है. यह समुदाय भाजपा से गुस्सा है, क्योंकि पार्टी में इनकी कोई खास जगह नहीं है. किसान होने की वजह से कृषि संकट भी एक सबब है. राजपूतों के मुकाबले कम तवज्जो मिलने से भी इस समुदाय में नाराजगी थी.

राजपूतः यह समुदाय अमूमन भाजपा का वफादार रहा है. हर विधानसभा में 15-17 राजपूत भाजपा के टिकट पर विधायक बनते रहे हैं. 2013 में कुल 27 राजपूत विधायकों में से 24 भाजपा से थे. पर इस जाति में बेचैनी है क्योंकि राजपूत नेताओं के खिलाफ मुकदमे किए गए. गैंगस्टर आनंदपाल की मुठभेड़ में मौत के बाद भी इस समुदाय में रोष है और करणी सेना पद्मावत मसले के बाद से सरकार से नाराज है.

जाटों के साथ राजपूतों का संघर्ष भी चल रहा है. भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे जसवंत सिंह की उपेक्षा और मानवेंद्र सिंह का कांग्रेस में जाना भी बड़ा फैक्टर है. राजपूत समुदाय करीब 100 विधानसभा सीटों पर मौजूद है.

गुर्जरः 50 सीटों पर इस समुदाय की मौजूदगी है. आरक्षण के मुद्दे पर गूजर भाजपा से नाराज थे. पुलिस फायरिंग और आपसी संघर्ष में 2007 के बाद से 70 से अधिक गूजर मारे गए हैं. सचिन पायलट को भावी मुख्यमंत्री के रूप में संभावना से कांग्रेस की तरफ इनका चुनाव अभियान में झुकाव बढ़ता देखा गया था. इन सारे फैक्टर भाजपा की संभावनाओं में पलीता लगाने वाले साबित हुए हैं.

चुनावी लिहाज से राजस्थान को मोटे तौर पांच क्षेत्रों में बांटा जाता है.

इनमें से एक तो जयपुर ही है. इस क्षेत्र में 19 सीटें हैं जिनमें शाम 6 बजे तक के रुझानों के मुताबिक, भाजपा के पास 6, कांग्रेस के पास 11 और अन्य के पास 2 सीटें जाती दिख रही हैं.

दूसरे चुनावी क्षेत्र मध्य राजस्थान में भी तीन इलाके हैं. धूंधड़ इलाके में अजमेर, सवाई माधोपुर, करौली, टोंक और दौसा 5 जिले हैं. इस इलाके में मीणा फैक्टर प्रभावी है. ऐसा माना जाता है कि मीणाओं का झुकाव भाजपा की तरफ था लेकिन इस इलाके में भाजपा को 8, कांग्रेस को 13 और अन्य को 3 सीटों पर बढ़त/जीत हासिल हुई है. ऐसे में आंकड़े कुछ और ही कहानी बयान करते हैं.

मध्य राजस्थान के मत्स्यांचल में 3 जिले हैं, भरतपुर, अलवर और धौलपुर. इनमें 22 सीटें हैं. यह इलाका सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का इलाका है. मीणा फैक्टर भी यहां काम करता है. फिर भी, यहां भाजपा 4, कांग्रेस 10 और अन्य 7 सीटों पर आगे है. तो इसका अर्थ है कि मंदिर मुद्दा यहां चला नहीं.

तीसरे क्षेत्र हाड़ौती में 4 जिले हैं, जिनमें कोटी बूंदी बाराँ और झालावाड़ हैं. इसमें 17 सीटें हैं और कांग्रेस बनाम भाजपा के सीधी टक्कर वाली 13 सीटें हैं, 4 सीटें बहुकोणीय मुकाबले वाली रही हैं. लेकिन भाजपा 9 और कांग्रेस 8 सीटों पर जीतती दिख रही है. यानी बाकी को कोण वाली पार्टियों को कुछ खास हासिल नहीं हुआ है.

तीसरा चुनावी इलाका, दक्षिणी राजस्थान है, जिसे मेवाड़ भी कहा जाता है.

यह इलाका हर पांच साल पर जनादेश बदल देता है. माना जाता है कि जो पार्टी मेवाड़ जीत लेती है वही सरकार बनाती है. खासकर सालुम्बर सीट खास सलिए है क्योंकि 1977 से जो पार्टी यह सीट जीतती है सरकार उसी की बनती आई है. मेवाड़ में 7 जिले हैं और 35 सीटें हैं. इनमें उदयपुर, डुंगरपुर, भीलवाड़ा, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा के इलाके हैं. यहां 27 सीटों पर सीधी टक्कर थी. भीलवाड़ा सीपी जोशी के प्रभाव का इलाका है. 2009 में यहां भाजपा 9 और कांग्रेस 24 सीटों पर जीती थी. लेकिन इस बार भाजपा 19, कांग्रेस 13, अन्य 3 सीटों पर जीतती नजर आ रही है.

पश्चिमी राजस्थान का इलाका कांग्रेस के दिग्गज नेता अशोक गहलोत का है. यहां किसी तीसरी सियासी पार्टी का कोई वजूद नहीं है. कुल 43 सीटें इस इलाके में हैं जिनमें से 33 सीटों पर सीधी टक्कर थी. इस इलाके में ओबीसी और जाट वोट बेहद निर्णायक होते हैं. इसके अलावा मेघवाल, राजपुरोहित और राजपूतों का वोट भी अहम होता है.

इस इलाके के तहत जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, नागौर, जालौर, पाली और सिरोही जिले आते हैं. 2008 में भाजपा को 19 और कांग्रेस को 20 सीटें मिली थीं. अन्य को 4 सीटें हासिल हुई थीं. लेकिन इस बार 2018 में भाजपा को 15, कांग्रेस को 26 और अन्य को 3 सीटें मिलती दिख रही हैं.

उत्तरी राजस्थान में शेखावटी और बीकानेर दो जोन हैं. शेखावटी में सीकर, झूंझनूं और चुरू जिले हैं जिनमें 21 सीटें हैं. इस जोन में कांग्रेस को 14, भाजपा को 5 और अन्य को 2 सीटें मिलती दिख रही हैं.

बीकानेर जोन में बीकानेर, गंगानगर और हनुमानगढ़ जिलों में कुल 18 सीटें हैं. यहां भाजपा को 9, कांग्रेस को 6 और अन्य को 2 सीटें मिलती दिख रही हैं.

इस इलाके के जाट वोटबैंक का कांग्रेस की तरफ झुकाव था जबकि राजपूत अमूमन भाजपा को वोट करते रहे है.

वैसे, राजस्थान में अब बहस यह है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बनेंगे या सचिन पायलट, लेकिन कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, सीटों की संख्या के मद्देनजर जादूगर कहे जाने वाले गहलोत को ही कमानी सौंपी जा सकती है. युवा सचिन थोड़ा और इंतजार करने के लिए कहे जा सकते हैं.

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