Monday, March 27, 2023

रिश्तों की सिलवट को दूर करें, एंट्रॉपी से सीख लें

आपने 'एन्ट्रॉपी' के बारे में सुना है?

किसी भी तंत्र में अव्यवस्था या अनियमतिता की मात्रा एंट्रॉपी कही जाती है. थर्मोडायनेमिक्स का दूसरा नियम कहता है कि एंट्रॉपी समय के साथ बढ़ती जाती है. यह समय के साथ किसी तंत्र की अस्थिरता प्रदर्शित करती है यदि उसे स्थिर रखने के लिए ऊर्जा का कोई निवेश न किया जाए.

एक मिसाल लीजिए. मान लीजिए कि आप लाइब्रेरी से एक किताब घर लाते हैं. आपको पिताजी ने एक और किताब आपको उपहार में दी है. आपकी गर्लफ्रेंड ने आपको एक मैगजीन दिया और आपके पास अपनी भी कुछ किताबें और म्युजिक सीडी का भंडार है और आपने यह सब अपनी मेज पर ढेर के रूप में रख दिया है. जहां पहले से कलमें, पेंसिलें, और बहुत सारा अल्लम-गल्लम पड़ा हो. सोचिए जरा कितनी अस्त-व्यस्तता हो जाएगी.

यही नहीं, यह भी मान लीजिए कि आपके कपड़े फर्श पर बिखरे हुए हैं. बिस्तर पर गीला तौलिया है और जुराबें बिस्तर के नीचे हैं, आपकी जींस पेंट कुरसी पर लटकी हुई है और व्यवस्था में एक किस्म की अराजकता है.

आप आखिरकार इस गड़बड़ से परेशान हो जाएंगे. आप चीजों को व्यवस्थित करना शुरू कर देते हैं. आप किताबों को आलमारी में करीने से रखते हैं और कपड़ों को धो-सुखाकर इस्तिरी करके आलमारी में उसकी जगह पर रखते हैं और अपना बिस्तर भी ठीक करते हैं. अब आपका कमरा व्यवस्थित और साफ-सुथरा दिखने लगता है. और यह स्थिति तब तक बनी रहती है जब तक आप दोबारा सामान न बिखेर दें. यानी, आपको कमरे को व्यवस्थित रखने के लिए लगातार ऊर्जा का निवेश करते रहना होगा.

जैसा पहले भी कहा है मैंने, किसी भी तंत्र में अव्यवस्था या अनियमतिता की मात्रा एंट्रॉपी कही जाती है. थर्मोडायनेमिक्स का दूसरा नियम कहता है कि 'एंट्रॉपी' 'समय' के साथ बढ़ती जाती है. यह समय के साथ किसी तंत्र की 'अस्थिरता' प्रदर्शित करती है यदि उसे स्थिर रखने के लिए ऊर्जा का कोई निवेश न किया जाए.

यह 'एंट्रॉपी का सिद्धांत' रिश्तों पर भी लागू होता है. मानवीय रिश्ते भी उस अव्यवस्था से अस्थिर हो सकते हैं. हम अंदर ही अंदर चीजों को इकट्ठा होने देते हैं. आंतरिक अव्यवस्था बढ़ने का कारण यह है कि हम अत्यधिक भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को इकट्ठा करते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे कमरे में पड़ी किताबें और कपड़े.

हम नाराजगी और चिड़चिड़ाहट को पालते रहते हैं और यदि इसके समाधान के लिए कुछ न किया जाए, तो किसी दिन फट पड़ते हैं. रिश्तों को स्थायित्व देने के लिए हमें कुछ निवेश करने की जरूरत होती है. रिश्तों की सिलवटों को दूर करना होता है ताकि हम हमेशा के लिए उन बातों को अपने मन में पालते और जमा करते न रहें.
बूझे?

Thursday, March 23, 2023

आने वाले दशक भयावह जलसंकट के होंगे

दुनिया पानी में है लेकिन पीने लायक पानी में नहीं. पूरी धरती पर मौजूद कुल पानी का महज 4 फीसद हिस्सा ही पीने लायक है. और कहने वाले कहते हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी की वजह से लड़ा जाएगा.

दुनियाभर के 40 देश गहरे जलसंकट से जूझ रहे हैं और बढ़ती आबादी और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर भारत में भी यह संकट गहरा होता जा रहा है. भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता जा रहा है. जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जाएगी, शहरीकरण भी बढ़ता जाएगा और उसके साथ जलवायु परिवर्तन भी तेज होगा और इसके प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं.

इसके साथ ही लोगों की खाने की आदतों में भी बदलाव आएगा और इन सबके मिले-जुले प्रभाव से भविष्य में पानी का मांग में जबरदस्त इजाफा होगा.

नीति आयोग ने जून, 2019 में ‘कंपॉजिट वाटर मैनेजमेंट इंडैक्स रिपोर्ट’ जारी की थी, इसमें बताया गया है कि देश में 60 करोड़ लोग अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, सालाना 1700 क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति से कम पानी की उपलब्धता को ‘जलसंकट’ माना जाता है.

मौजूदा चलन के हिसाब से देखा जाए तो 2030 तक जल की मांग में करीबन 40 फीसद की वृद्धि होगी और धारा के विरुद्ध (अपस्ट्रीम) जलापूर्ति के लिए सरकारों को करीबन 200 अरब डॉलर सालाना खर्च करना होगा. इसकी वजह यह होगी कि पानी की मांग जलापूर्ति के सस्ते साधनों से पूरी नहीं हो पाएगी. वैसे, बता दें अभी दुनिया भर में कुल मिलाकर औसतन 40 से 45 अरब डॉलर का खर्च जलापूर्ति यानी वॉटर सप्लाई पर आता है.

टिकाऊ विकास के लिए स्वच्छ जल का विश्वसनीय स्रोत होना बेहद जरूरी है. जब स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होगा, तो दुनिया की गरीब आबादी को अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा इसे खरीदने में खर्च करना होगा, या फिर उनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इसको ढोने में खर्च हो जाएगा. इससे विकास बाधित होगा.

पूरी दुनिया में ताजे पानी के एक फीसद का भी आधा हिस्सा ही मानवता और पारितंत्र (इकोसिस्टम्स) की जरूरतों के लिए उपलब्ध है. जाहिर है, हमें कम मात्रा में इसका इस्तेमाल बेहतर तरीके से करना सीखना होगा. मिसाल के तौर पर, दुनिया भर में ताजे पानी का खर्च का 70 फीसद हिस्सा कृषि सेक्टर में इस्तेमाल में लाया जाता है. दुनिया भर में आबादी बढ़ने के साथ ही, कृषि क्षेत्र भी जल संसाधनों पर दबाव बढ़ाने लगेगा.

ऐसे में हमें उन जल संरक्षण परंपराओं को ध्यान में रखना और विकसित करना होगा, जिसको हमारे पुरखे अपनाते आए हैं. पर हमें खास खयाल रखना होगा कि नदियां बची रहें. हमने लापरवाही की वजह से, और कई बार जान-बूझकर कई नदियों को खत्म कर दिया है. बहुत सारी नदियां बारहमासी नदियों से मौसमी नदियों में तब्दील हो गई हैं. ज्यादातर नदियों की पाट में अतिक्रमण करके घर, खेत, फैक्ट्री, रिजॉर्ट बना लिए गए हैं.

असल में, नदियों को लेकर हमारे विचारों में बहुत पोलापन है. या तो हम सीधे मां और देवी कह कर नदियों की आरती करेंगे, चूनर और प्रसाद चढ़ाएंगे, लेकिन अपने घरों का गू भी उसी में बहाएंगे.

आम तौर पर माना जाता है कि नदी का काम पानी ले जाना है, जो आगे जाकर समुद्र में मिल जाती है. लेकिन, क्या हमने कभी यह सुना है कि नदी का काम गाद ले जाना भी है? ख़ासकर गंगा जैसी नदियों के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण है. यह बुनियादी सोच ही शायद योजनाओं और परियोजनाओं में जगह नहीं बना पाई है.

मैं आज, 2023 में आपको अगले पांच सालों में भयावह रूप अख्तियार कर रहे जल संकट की चेतावनी दे रहा हूं. हमारी आबादी पेड़ों और नदियों की दुश्मन हो गई है, अभी भी नहीं चेते तो बाद में मैय्यो-दय्यो करने से कुछ हासिल नहीं होगा.

Monday, March 20, 2023

माइक लेकर चिल्ला दिए तो बन गए अर्णव गोस्वामी?

अभी एक यूट्यूब के गिरफ्तार होने पर बहुत लोग अपने-अपने ध्रुवों पर खड़े हो गए. कुछ लोगो मनीष कश्यप के खांटी विरोधी दिखे, कुछ सपोर्ट में हैं.

पर, पत्रकारिता को लेकर एक गहन विमर्श अब समय की आवश्यकता हो गई है. कौन है पत्रकार? क्या है पत्रकारिता? माइक लेकर खड़े हो गए और बन गए अर्णब गोस्वामी?

सोशल मीडिया पत्रकारिता का सबसे सबल माध्यम है. लेकिन, अभिव्यक्ति की इस आजादी का हम दुरुपयोग तो नहीं कर रहे?

पत्रकार बनने से पहले, व्यक्ति लोकप्रिय होना चाहता है. वह खुद मीम बनाना नहीं, बल्कि मीम का विषय बनना चाहता है. वह चिल्लाना चाहता है जैसे टीवी पर उनके आदर्श चीख रहे हैं.

एक वीडियो में तो कोरोना काल में एक पत्रकार मुखिया प्रत्याशी को थप्पड़ मारता दिखा था मुझे. मुझे पता है वह स्टेज्ड था. वह स्क्रिप्टेड था लेकिन डिस्क्लेमर तो उसने बाद में लगाया. वह वायरल हुआ, लोग हंसे, पर पत्रकारिता की भद पिट गई. पत्रकारिता वाकई में इतनी छोटी चीज नहीं कि माइक लेकर खड़े हो गए और बन गए ....!

मेरे एक फेसबुक मित्र ने, नाम याद नहीं आ रहा, लिखा कि ऐसे यूट्यूबरों से माइक छीन ली जाए. नहीं. कत्तई नहीं. इससे अभिव्यक्ति की आजादी पर बंदिश आयद होगी और उन लोगों की माइक भी छीन ली जाएगी जो वाकई बेहद उम्दा काम कर रहे हैं. जो लोग जमीनी काम कर रहे हैं, जो सिद्धांतो के तहत काम कर रहे हैं.

आपको याद होगा कि कुछ यूट्यूबर पत्रकार स्कूल में कक्षाओं में घुसकर शिक्षकों से अंग्रेजी शब्दों की स्पेलिंग पूछने लगते हैं. ऐसे वीडियो काफी पॉपुलर होते हैं. पर, क्या यह वाकई मापदंडों के तहत पत्रकारिता भी है? क्या उन वीडियोज के बाद पुलिस ने स्कूल में जबरिया घुसने और वीडियोग्राफी करने पर कोई एक्शन लिया? इन पत्रकारों से किसी ने पत्रकारिता के स्तर वाले सवाल पूछे?

लेकिन इसके बरअक्स एक विचार मेरे मन में यह भी है कि अगर फेक न्यूज के मामले में छोटे स्तर के यूट्यूबर धरे जा रहे हैं तो उन अखबारों पर क्या कार्रवाई हुई जिन्होंने यह फेक खबर प्रकाशित की थी. अब तक अखबार में छपी खबरों को हम लगभर विश्वसनीय मान रहे थे. दूसरी बात, क्रेडिबिलिटी की बात हो तो एक नामी एंकर ने दो हजार के नोट में चिप वाली खबर बना दी. वह आज भी प्रतिष्ठित एंकर हैं, कॉमिडी वॉमिडी शो में नमूदार हो रही हैं. उनकी क्रेडिबिलिटी को कोई खतरा नहीं हुआ. क्यों?

जब मैं आइआइएमसी में पढ़ता था तो स्वनामधन्य प्रभाष जोशी हमारी कक्षा लेने आए थे. आजकल के छौने पत्रकारों को प्रभाष जी का नाम भी नहीं पता. (जी हां, मैं मजाक नहीं कर रहा, मैंने अपने छात्रों से पूछा तो प्रभाष जोशी ही नहीं, उन्हें कुलदीप नैय्यर, पी. साईंनाथ वगैरह किसी का कुछ पता नहीं था)

बहरहाल, आदरणीय प्रभाष जोशी ने 2004 के लोकसभा चुनावों में एक्जिट पोल के गलत हो जाने के संदर्भ में एक किस्सा सुनाया था कि मध्य प्रदेश में मालवा इलाके में जानपांड़े हुआ करते थे.

जानपांड़े यानी ज्ञानपांडे.

उन दिनों जब कुआं खोदना ही पानी हासिल करने का एकमात्र विकल्प था, जमीन की छाती खोदने पर पत्थर निकल आए तो खर्चा और मेहनत दोनों बेकार हो जाते. इसलिए लोग ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों को खोजकर लाते थे जो जमीन के कंपन को समझ कर बतला देते थे कि अमुक जगह पर खोदो तो पानी निकलेगा.

अधिकतर मामलों में जानपांड़े सही होते थे.

पत्रकारों को ऐसे ही जानपांड़े होना चाहिए. चीखकर, गाली-गलौज की भाषा के जरिए क्षणिक लोकप्रियता मिल जाएगी. पर, इससे उन लोगों का बुरा होगा, जो जमीनी स्तर पर अच्छी पत्रकारिता कर रहे हैं.

चीखना इस देश की पत्रकारिता का राष्ट्रीय ध्येय बन गया है.

बेशक, मीडिया वाले सेंसरशिप से बिदकते हैं, पर ऐसा ही जारी रहा तो कुछ न कुछ बंदिश तो आयद हो ही जाएगी और फिर आप कहेंगे ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर हमला है. सरकार को चाहिए कि ऐसे यूट्यूबर्स के लिए एक कार्यशाल आयोजित करे. डू ऐंड डोंट्स समझाए.

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अंतर को समझिए. पत्रकारिता में लोकप्रियता से पहले श्रेष्ठता को आने दीजिए.

Monday, December 26, 2022

फिल्म समीक्षाः कांतारा लोककथा और वर्तमान की समस्या के कमाल का मिश्रण है

मंजीत ठाकुर

लोककथाओं को फिल्मी परदे पर उतारना बहुत मुश्किल नहीं है. लेकिन जब उसी लोककथा और आमजनों के विश्वास को आधुनिक समाज की समस्याओं के साथ मिलाकर समाधान के आयाम के तौर पर पेश किया जाए तो मुश्किलें आती हैं.

इस लिहाज से कांतारा देखना विस्मयकारी है. खासकर, इसके शुरुआती बीस मिनट और आखिरी के बीस मिनट तो आह्लादकारी सिनेमाई अनुभव है.

फिल्मों को कहानी के आधार पर खारिज किए जाने का आम चलन है हिंदुस्तान में. खासतौर पर कांतारा में फिल्म में नायिका के प्रति नायक का बरताव नारी विमर्श के झंडाबरदारों के लिए इस फिल्म को खारिज किए जाने का एक आधार बन रहा है. लेकिन, इस मानक पर नब्बे फीसद भारतीय सिनेमा स्त्री-विरोधी है. हां, वामपंथी फिल्मकारों की कथित प्रगतिशील फिल्में भी इसके आधार पर खारिज की जा सकती हैं. पर कांतारा में मुद्दा वह नहीं है.

किसी भी फिल्म के लेखन बारे में सबसे अच्छी बात यही होती है कि पहले आधे घंटे में आपयह अनुमान लगा ही न पाएं कि फिल्म का खलनायक कौन है. कांतारा इस मामले में सौ फीसद बेहतरीन पटकथा है कि आप यह तय ही न कर पाएं कि आखिर खलनायक कौन है और इसके काम का मंतव्य क्या है.

सबसे बेहतर बात यह भी है कि आपको क्लाइमेक्स में जाकर चीजों का पता लगना शुरू होता है.

कांतारा की एक बड़ी खासियत इसकी कमाल की सिनेमैटोग्राफी और इसका रंग संपादन है. कांतारा देखते हुए, मैं दोबारा कहता हूं कि आपको अद्भुत सिनेमाई अनुभव होगा.

इस फिल्म में लोककथा की भावभूमि को लेकर स्थानीय लोगों के अधिकारों की बात की गई है. आरआरआर की भावभूमि भी यही थी लेकिन वह इतिहास के कथ्य की ओर मुड़ गई, कांतारा लोककथा का सहारा लेती है.

आखिर, वनभूमि के अधिकार को लेकर आप बगैर वैचारिक टेक लिए कोई फिल्म बना सकते हैं क्या? साथ ही उसको हिट कराने का माद्दा भी है क्या? इस फिल्म में स्थानीय भूमि माफिया या जमींदारों, सरकार के वन विभाग के कामकाज और स्थानीय लोगों के वनोपज पर अधिकार का संघर्ष बुना गया है और क्या खूब बुना गया है.

एक मिसाल देखिएः फिल्म में एक स्थानीय व्यक्ति अपन झड़ते बालों के लिए किसी पौधे की जड़ लेकर आ रहा होता है और वन अधिकारी मुरलीधर उसको रोकता है और एक थप्पड़ मारते हुए कहता है, ‘तुम्हें क्या लगता है ये जंगल तुम्हारे बाप का है?’ आपको क्या लगता है? इसका उत्तर क्या होन चाहिए?

जिसतरह से हमारे आदिवासी हजारों सालों से जंगल के साथ रहते आए हैं, चाहे वह कूनो-पालपुर के सहरिया हों या नियामगिरि के डंगरिया-कोंध, उस लिहाज से तो इस सवाल का एक ही और संक्षिप्त सा उत्तर हैः हां. आखिर स्थानीय लोगों का जंगल की उपज पर अधिकार होना ही चाहिए, क्योंकि इन आदिवासियों की संस्कृति उस जंगल के नदी-पहाड़ और वनस्पतियों के साथ गुंथी हुई है.

ऐसे में वन अधिकारी और स्थानीय लोगों का संघर्ष शुरू होता है. वन अधिकारी के पास उस जंगल को रिजर्व फॉरेस्ट में तब्दील करने का सरकारी आदेश है और पर्यावरण की रक्षा के लिए यह जरूरी भी है. वन अधिकारी ईमानदार है, वह जंगल के जानवरों की रक्षा करना चाहता है और स्थानीय लोग शिकार. स्थानीय लोगों के मन में भी शिकार किसी द्वेषवश नहीं है, यह तो उनकी संस्कृति का हिस्सा है और आप संस्कृति को बदलने वाले और उसको रोकने वाले होते कौन हैं!

यहां आकर फिल्म आपको सोचने विचारने के लिए एक मुद्दा देती है. आप ऐसे मुद्दे फिल्म के बाद दिमाग में नहीं बिठा पाते तो फिर फिल्म देखने के तौर तरीके बदल लीजिए.

फिल्म के नायक शिवा, जिसकी भूमिका फिल्म के निर्देशक ऋषभ शेट्टी ने निभाई है, भूता कोला की खानदानी परंपरा के हैं. लेकिन शिवा इस अनुशासन में नहीं बंधते. बिहार जैसे राज्यों में भूता कोला की तरह ही कुछ सिद्ध लोगों पर देवी या देवता या स्थानीय देवताओं का आगमन होता है. भगता खेलना कहते हैं उसको.

उधर, वन अधिकारी शिकार खेलने पर बंदिश लगाता है तो उसके साथ ही गांववाले उसका मजाक उड़ाने के लिए शिकार करना बढ़ा देते हैं. क्या आपको ऐसी मिसालें भारत के हर हिस्से के जंगलों से नहीं मिलतीं?

निर्देशक ने कर्नाटत के तुलुनाडु इलाके की लोककथा को कमाल के रंगों के जरिए परदे पर पेश किया है. इस मामले में इसकी जोड़ की दूसरी फिल्म बस मराठी तुंबाड की है, जहां बारिश के मेटाफर का इस्तेमाल किया गया था.

फिल्म के हर फ्रेम में आप कर्नाटक की माटी की खुशबू को देख सकते हैं. जीवनशैली, खानपान और जंगल अपने अदम्य रूप में. खासकर, भूतआराधने से फिल्म में रहस्य का पुट बढ़ता है और हम कांतारा की स्टोरी में अंदर जाते हैं.

सिनेमैटोग्राफी में अरविंद एस. कश्यप ने कमाल किया है और कर्नाटक के उस इलाके के चप्पे-चप्पे को लेंस में कैज किया है. और संगीत भी शानदार है.

लेकिन फिल्म की शुरुआत में जहां नैरेटिव सेट होता है, वहां के क्षण आपको दोबारा आह्लादकारी लगेंगे जब आप आखिरी बीस मिनट को भी गौर से देखेंगे.

आखिरी बीस मिनटों में भीषण संग्राम होता है और तभी कांतारा के वह स्थानीय देवता फिर से प्रकट होते हैं. उन पलो मे ऋषभ शेट्टी ने अतुलनीय अभिनय किया है. आप उसे महसूस कर पाएंगे अगर आप फिल्म में रंगों की अहमियत और कलरिस्ट की मेहनत, शेट्टी के प्रचंड अभिनय के पीछे उसको ऊपर ले जाने वाले संगीत और कैमरे की निगाह को बारीक तरीके से देख पाएंगे.

पटकथा में बेशक, बीच में कुछ हल्की सी ढील है. पर वह न हो तो फिल्म बेहद गंभीर हो जाती.

कुल मिलाकर कांतारा देखना एक आह्लादकारी सिनेमाई अनुभव है.

Monday, December 12, 2022

पुस्तक समीक्षाः अजित राय की किताब बॉलीवुड की बुनियाद भारतीय सिनेमा का दस्तावेज है

भारत में सिनेमा पर गंभीर लेखन का चलन कम है. खासकर हिंदी में सिनेमा पर लेखन को ही गंभीर नहीं माना जाता है. लेकिन, कुछ किताबों को संदर्भ पुस्तकों की तरह हमेशा पढ़ा जाएगा और वरिष्ठ सिनेमा और सांस्कृतिक पत्रकार अजित राय की किताब ‘बॉलीवुड की बुनियाद’ उसी पाए की किताब है.

असल में, यह किताब इस बात को पन्ना-दर-पन्ना दर्ज करती जाती है कि आखिर आज हिंदी सिनेमा के जिस साम्राज्य के बारे में बोलकर, कहकर और सुनकर हम छाती फुलाते हैं, असल में उसके पीछे एक खास परिवार का योगदान था. यह बात अहम इसलिए भी है क्योंकि उस उद्योगपति ‘परिवार’ के किसी सदस्य ने इसका कभी कोई श्रेय लेने की कोशिश भी नहीं की.

बॉलीवुड की बुनियाद किताब के बारे में इसके फ्लैप पर बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार रेहान फजल लिखते हैं, “जिसे हम हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग कहते हैं, वह दुनियाभर में हिंदी फिल्मों की वैश्विक सांस्कृतिक यात्रा का भी स्वर्ण युग था. आज हिंदी फिल्में सारी दुनिया में अच्छा बिजनेस कर रही हैं, लेकिन इसकी बुनियाद 1955 में हिंदुजा बंधुओं ने ईरान में रखी थी. ईरान से शुरू हुआ ये सफर देखते-देखते सारी दुनिया में लोकप्रिय हो गया.”

आज हम फिल्मों के बायकॉट के दौर में हैं. और इन्हीं परिस्थितियों में ‘ब्रह्मास्त्र’ नामक फिल्म की पीआर एजेंसियां फ्लॉप के तमगे से बचने के लिए वैश्विक कारोबार का संदर्भ देती हैं. अगर कथित रूप से वैश्विक कारोबार में ब्रह्मास्त्र ने शानदार बिजनेस किया भी है, तो इसका श्रेय बेशक हिंदुआ बंधुओं का जाता है जिन्होंने पचास के दशक में हिंदी फिल्मों के विदेशों में प्रदर्शिन की व्यवस्था की. हैरतअंगेज बात यह भी है कि इन फिल्मों का प्रदर्शन उस ईरान से हुआ, जिसको आज इस्लामिक कट्टरता की भूमि कहा जाता है और जहां कड़ी परंपराओं के खिलाफ महिलाएं आंदोलनरत हैं.

यह किताब अंग्रेजी और हिंदी दोनों में आई है. अजित राय की इस किताब का बढ़िया अंग्रेजी अनुवाद मुर्तजा अली खान ने किया है और अंग्रेजी में इस किताब का नाम हिन्दुजा एंड बॉलीवुड के नाम से किया गया है.

यह किताब सिने-प्रेमियो के साथ ही सिनेमा के शोधार्थियों के लिए भी महत्वपूर्ण है. अजित राय खुद हिंदी के संभवतया इकलौते पत्रकार हैं जो कान फिल्म फेस्टिवल में रिपोर्टिंग के लिए जाते रहे हैं और उसपर लगातार लिखते रहे हैं.

असल में यह किताब हिंदी सिनेमा के वैश्विक विस्तार का दस्तावेज भी है. आज शायद ही किसी को इस बात का यकीन होगा कि करीबन पचास साल पहले राज कपूर की फिल्म ‘संगम’ जब फारसी में डब होकर ईरान में प्रदर्शित हुई तो यह फिल्म तीन साल तक और मिस्र की राजधानी काहिरा में एक साल तक चली.

महबूब ख़ान की ‘मदर इंडिया’ और रमेश सिप्पी की ‘शोले’ भी ईरान में एक साल तक चली. भारतीय उद्योगपति हिन्दुजा बन्धुओं ने 1954-55 से 1984-85 तक करीब बारह सौ हिंदी फिल्मों को दुनियाभर में प्रदर्शित किया और इस तरह बना ‘बॉलीवुड’.

यह किताब कई नई कहानियां और अंतर्कथाएं पेश करती है. एक तरह से यह भारतीय सिनेमा को दुनियाभर में ले जाने के हिंदुजा बंधुओं के उपक्रम का दस्तावेजीकरण है. बेशक, यह किताब अजित राय ने निजी अंदाज में लिखा है. यह पूरी किताब हिंदुजा बंधुओं के सिनेमा के योगदान पर घूमती है. यह कुछ-कुछ अजित राय के निजी संस्मरण जैसा भी है कि कैसे वह कॉन फिल्म फेस्टिवल में हिंदुजा बंधुओं के शाकाहारी डिनर में आमंत्रित किए गए, कैसे ब्रिटेन के सबसे अमीर आदमी रहे हिंदुजा उनके साथ मुंबई की सड़को पर ऑटो रिक्शा में सफर करने से भी नहीं हिचकिचाए.

इस किताब में, राज कपूर की शराबनोशी की लत का भी जिक्र सुनहरे वर्क में लपेटकर किया गया है कि राज कपूर के कैसे तेहरान की थियेटर से जेल की गाड़ी में बिठाकर निकालना पड़ा. और ऐसी एक फिल्म के बार में भी दिलचस्प किस्सा है कि जिसके प्रदर्शन के दौरान सिनेमा हॉल में दर्शक नमाज पढ़ने लगते थे. हिंदी फिल्मों को विदेशों में प्रदर्शित करने से पहले कैसे गोपीचंद हिंदुजा उसे खुद संपादित करवाकर छोटी करवा लेते थे, यह वाकया भी मजेदार है.

किताब फिलहाल हार्ड कवर में है और इसकी कीमत 395 रुपए है. विषय वस्तु के लिहाज से किताब जरूरी और अनछुए विषय पर है लेकिन किताब के अंदर की सजावट और अधिक बेहतर बनाई जा सकती थी. तस्वीरों को लगाते समय सौंदर्यशास्त्र (एस्थेटिक्स) का ख्याल नहीं रखा गया है.

बहरहाल, आज जब हर व्यक्ति सिनेमा के बारे में अपनी राय रखता है और ओटीटी के जमाने में लोगों के पास वैश्विक सिनेमा का कंटेंट उपलब्ध है, बॉलीवुड कैसे, बॉलीवुड बना यह जानना दिलचस्प है.

सिनेमा के विद्यार्थियों के लिए यह किताब अपरिहार्य है.

किताबः बॉलीवुड की बुनियाद

लेखकः अजित राय

प्रकाशकः वाणी प्रकाशन

कीमतः 395 रुपए (हार्ड कवर)





Saturday, October 15, 2022

आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत मनमाना प्रतीत होता है

मंजीत ठाकुर

बीसवीं सदी की शुरुआत तक इतिहासकार मानते थे कि भारत में पहले असभ्य पाषाणयुगीन लोग रहते थे और करीब 1500 ईसापूर्व में जब आल्प्स की पहाडियों के पास से ‘आर्य’ घोड़ों पर चढ़कर और लोहे के हथियारों के साथ आए तब जाकर यहां पर एक नए युग की शुरुआत हुई. औपनिवेशिक इतिहासकार इस आक्रमण का ही परिणाम भारतीय सभ्यता का विकास मानते हैं. इन इतिहासकारों के मुताबिक, आर्य आक्रमण सिद्धांत ही एकमात्र सिद्धांत है.

लेकिन, इन इतिहासकारों का मुताबिक, 1500 ईसापूर्व में आर्य इधर आए थे (200 बरस के स्टैंडर्ड डेविएशन के साथ भी) तो भी यह तारीख तय करना एकदम से मनमाना था. असल में, इस तारीख के पीछे ‘उनके पास’ कोई पुरातात्विक या लिखित साक्ष्य नहीं था.

इस सिद्धांत के पीछे दो कारक काम कर रहे थे. पहला, बाद के सालों में मध्य एशिया की तरफ से हुआ लगातार आक्रमण. दूसरा, यूरोपीय और (उत्तर) भारतीय भाषाओं के बीच भाषायी समानता. (कुछ लोग इसके पीछे साजिश भी बताते हैं कि बाद के आक्रमणकारियों को डायल्यूट किया जा सके यह कह कर कि, हम बाद के आक्रमणकारी हैं और तुम पहले के)

हमारी गरदन उस वक्त अंग्रेजों के बूटों के नीचे थे इसलिए इतिहासकारों के लिए यह कहना भी मुफीद रहा होगा कि अंग्रेज भी बाद के दौर के आर्य हैं और हम लोगों को ‘सभ्य’ बनाने आए हैं. (हालांकि, यूरोप के इतिहास को ध्यान से पढ़िएगा तो पता चलेगा कि ये लोग, खुद कितने असभ्य लुटेरे थे)

लेकिन हडप्पा-मुएन-जो-दड़ो जैसे शहरों के पता लगने और हडप्पा सभ्यता के शहरों की खुदाई के बाद इस सिद्धांत पर सवालिया निशान लग गए. उसी समय यह पता चल गया कि भारत की सभ्यता के लिए 1500 साल ईसापूर्व पहले का वक्त तो एकदम हाल की घटना है.

आप भी थोड़ा हिसाब लगाइए. अगर आर्य 1500 ईसापूर्व आए थे और उस वक्त वे लोग घोड़ों पर सवार पशुपालक भर थे तो दूसरा प्रस्थान बिंदु आप बुद्ध के जन्म का लीजिए. बुद्ध ईसा से 563 साल पहले हुए. यानी बीच की अवधि बची 900 सालों की.

इन नौ सौ सालों में भारत में आर्य आए, घोड़ो से उतरकर खेती करनी शुरू की. गांव बनाए. उनको शहरों में तब्दील किया. ऋग्वेद से लेकर यजुर्वेद तक की रचना की. सोलह महाजनपद बसाए. हिंदू धर्म फला-फूला और उसमें साथ के साथ इतनी बुराइयां आ गईं कि उसको ठीक करने के लिए बुद्ध और महावीर को नया धर्म बनाना पड़ा! इतनी सारी घटनाएं महज 900 साल में!

लेकिन, साहब वैचारिक रूप से कलर्ड इतिहासकार इतनी आसानी से हार नहीं मानते. उन्होंने तर्क दिया कि हडप्पा की सभ्यता द्रविड़ों की थी (जिनको आप आज का तमिल कहते हैं) और द्रविड़ों ने यह शहर बसाया और ‘आक्रमणकारी आर्यो’ ने उन शहरों को नष्ट कर दिया. इसलिए आर्यों के देवता इंद्र को ‘पुरंदर’ यानी ‘किलों को तोड़ने वाला’ कहा जाता है.

लेकिन, इस थ्योरी में भी झोल है.

असल में इतने बड़े पैमाने पर हुए आक्रमणों का कोई पुरातात्विक साक्ष्य अभी तक नहीं मिला है. दूसरी तरफ, राखीगढ़ी में ईसा से 4500 साल पुराना एक शव मिला है, इससे ‘रंगे’ इतिहासकारों में अलगै सनसनी-खलबली है.

अब हडप्पा शहरों में कोई अचानक तो ध्वंस दिखता नहीं है. हर इतिहासकार आपको कहेगा (एकदम ही ब्लैंक चेक पर न बिका हो तो) कि हड़प्पा के शहरों का विघटन शनैः शनैः हुआ है. शनैः शनैः नहीं समझते? जा मरदे, अंग्रेजी वाला शब्द लिख देंगे तो लोटपोट होते रहोगे. आसान हिंदी में शनैः शनैः का अर्थ है धीरे-धीरे, उर्दू में आहिस्ते-आहिस्ते और अंग्रेजी में आप यूं समझेः Harappan cities suffered a slow decline. अब तो बूझ गए होगे. ठीक?

अब राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू के उम्मीदवार बनते ही आपको राजनैतिक बिसात की याद आ रही होगी और आपको पता चल गया होगा कि वह संताल जनजाति की हैं. मौजूदा राष्ट्रपति दलित हैं.

मने, अगल-बगल नजर दौड़ाइए तो आपको जाति, जनजाति, भाषा और न जाने किस-किस किसिम की विभिन्नता नजर आएगी.

अच्छा, आपको इसके अलावा यहूदी, पारसी, तुर्क और अहोम भी दिखेंगे.

इसके अलावा आप इस बात से शायद ही इनकार कर पाएं कि हजारों सालों से देश के अंदर आंतरिक विस्थापन और पलायन होता रहा है. आज राजस्थानी मारवाड़ी सिलीगुड़ी और अरुणाचल तक में कपड़े से लेकर खिचड़ीफरोश की दुकान लिए बैठा है. सरदार जी का ढाबा कन्याकुमारी में भी है और गोहाटी में भी.

उधर अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में कुछ ऐसी जनजातियां हैं जिनका मुख्यधारा के भारत के साथ मेल-जोल ज्यादा नहीं है. लेकिन हमारे हिंदुस्तान की इस बड़ी और मिली-जुली आबादी को लेकर आनुवांशिक अध्ययनों ने कमाल के नतीजों की तरफ इशारा किया है.

पहली बात, भारत में कोई भी नस्ल शुद्ध नहीं है. चाहे वह दरभंगा महाराज के खरोड़े भौर हों या महाराजा हरिसिंह कर्ण सिंह का खानदान. नस्ल के मामले में नेहरू-गांधी परिवार तो अलग ही मिसाल है.


इस फोटो का इस लेख से ताल्लुक नहीं है.  

फिर भी, हर खानदान में आनुवांशिक मिलावट है आप यह मानकर चलिए.

कुछ न हो तो अपने अगल-बगल चाचा-ताऊ-मामा-मौसा (और सबके स्त्रीलिंग रूपों) को नाप-तौल कर ही देख लीजिए. सबके रंग अलग. चाचा गहरे, पर आपके पिताजी गेहुआं, नानाजी एकदम झक्क अंग्रेज जैसे गोरे तो मौसी थोड़ी सांवली. होगा, चेक करिए.

लेकिन, 2006 में एक अध्ययन किया गया था जिसका नतीजा यह निकला है कि भले ही हम लोग अलग साइज और शेप में हो पर भारतीयों के मोटे जीन पूल में पिछले 10,000 (दस हजार) साल से कोई बड़ा जीन इंजेक्शन नहीं हुआ है.

इसका सीधा मतलब यह हुआ कि अगर इंडो-यूरोपियनों (पढ़ें आर्यों) का कोई बड़ा आगमन हुआ भी होगा तो यह कम से कम 10 हजार साल पहले हुआ होगा. और उस वक्त तक न तो घोड़े पालतू बनाए गए थे और न ही लोहे के हथियार बनाने की कला विकसित हुई थी.

इसी तरह, यही अध्ययन यह भी बताता है कि द्रविड़ भाषी लोग लंबे समय से दक्षिण भारत में रहते आए हैं और उनका ‘कथित’ द्रविड़ जीनेटिक पूल का भी उधर-इच उद्भव ऐंड विकास हुआ होगा.

लेकिन बाद में जो अध्ययन हुए इससे तो इतिहासकारों का खाना गरगट हो गया. (खाना गरगट होना , मैथिली कहावत है मने कौर गले से न उतरना. बिना पानी पिए नहीं उतरेगा)

खैर. हार्वर्ड मेडिकल कॉलेज में डेविड रीख ने एक शोध किया जो नेचर पत्रिका में 2009 में छपा था. उसमें लिखा गया है कि, भारतीय आबादी के अधिकांश हिस्से की पुरखों के दो समूहों (एंसेस्ट्रल ग्रुप) के मिश्रण के रूप में व्याख्या की जा सकती है.

पहला है एएसआइ (Ancestral South Indians) और दूसरा है एएनआइ (Ancestral North Indians).

शोध के मुताबिक, एएसआइ पुराना ग्रुप है और इसका कोई रिलेशन किसी यूरोपीय. पूर्वी एशियाई या इस उपमहाद्वीप के बाहर के किसी समूह से नहीं है.

लेकिन, एएनआइ यानी एनसेस्ट्रल नॉर्थ इंडियन समूह की उत्तर भारत में अधिक हिस्सेदारी है और कश्मीरी पंडितों और सिंधियों में तो इनकी जीन पूल में 70 फीसद से अधिक की हिस्सेदारी है.

अब, आपके मन में लप्प से ख्याल आया होगा वही पुराने आर्य आक्रमण के सिद्धांत पर इस आंकड़े को रख देने का. है न, है न? हे हे.

ऐसा करने का नय. रुको. रुक जाओ. अगले पोस्ट तक रुक जाओ.

Tuesday, October 11, 2022

AWAZ – The Voice offers virtual internships in content writing.

Awaz – The Voice, a Delhi-based multi-media digital platform, has invited applications for a virtual internship in Content Writing. During the three-months long work-from-home internship, the interns will be assigned projects on the themes of inclusive India, communal harmony, spirituality, culture and heritage under the mentorship of senior professionals.  It can be in English, Hindi or Urdu. 



The internship is open to graduate students of Journalism, Literature, History, Design and related fields.

Interested candidates are requested to submit a writing sample on any of the above themes and email it to input@awazthevoice.in by 30 October, 2022.   

The selections shall be made after the scrutiny of the submissions.

A certificate and a letter of appreciation will be given after the successful completion of internship.

Awaz – the Voice is a multi-media digital platform that promotes the idea of inclusive India. Over the period of last two years Awaz – The Voice has done more than 45000 stories that reflect syncretic and pluralistic ethos of India. These stories amplify the narrative of mutual co-existence, harmony, and human flourishing.

Details on www.awazthevoice.in.