Sunday, September 13, 2020

हैप्पी हिंदी डे ड्यूड

हिंदी के साथ कई समस्याएं हैं. पहली समस्या इसके दिवस का मनाया जाना है.

अंग्रेजी भाषा का भी कोई दिवस है इस बारे में मुझे ज्ञात नहीं. हो, तो समझदार लोग ज्ञानवर्धन करें. यह कुछ वैसे ही है जैसे महिला दिवस तो मनाया जाता है पर संभवतया कोई मर्द दिवस नहीं है. एक मतलब यह है कि अपेक्षया कमजोर दिखने वाले के नाम एक दिवस अलॉट कर दो. एनीवे.

हिंदी के साथ दूसरी समस्या यह है कि हिंदी में सामान्य पाठक वर्ग का घनघोर अभाव है. हिंदी में पढ़ते वही हैं जो लिखते हैं यानी लेखक हैं. यानी, या तो साहित्य या राहित्य, जो भी मुमकिन हो लिख डालते हैं.

हिंदी क्षेत्र का सामान्य छात्र हिंदी में लिखे को पढ़ना प्रायः अपमानजनक, या अति अपमानजनक या घोर अपमानजनक मानता है. 

इसको आप पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण की तरह अधिक इंटेंस मानते चलें. वह अंग्रेजी में चेतन भगत पढ़ लेगा पर हिंदी में अज्ञेय, जैनेंद्र या ऐसे ही किसी दूसरे लेखक का नाम सुनकर हंस देगा.

बचे हिंदी के राइटर्स. उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढते हैं (गलत नहीं है अंग्रेजी पढ़ना) अंग्रेजी बोलते हैं (यह भी गलत नहीं) अंग्रेजी से मुहब्बत करते हैं (किसी भी भाषा से मुहब्बत करें गलत नहीं है) पर अपने ही हिंदी में लिखने वाले बाप के लेखन को कुछ तुच्छ-सा, घटिया या दोयम दर्जे का या अत्यधिक शास्त्रीय समझते हैं (हिंदी वाले पिता को चाहिए कि वह अपने ऐसे घातक पुत्रों को जूता सेवन करवाएं, पर भाषा से ज्यादा गाढ़ा पुत्र प्रेम होता है, यह जगसाबित है)

तो स्मार्ट फोन पर पॉर्न वीडियो देखने में ज्यादा दिलचस्पी हिंदी प्रदेश के बालको में है (अन्यों में भी होगी, पर बात हिंदी की हो रही) सो उनका जरा भी मन हिंदी पढ़ने में नहीं लगता. जाहिर है, इतनी देर में आप समझ गए होंगे कि हिंदी से मेरा मतलब महज हिंदी व्याकरण या कविता संग्रह या अभिव्यक्ति की आजादी को सातवे आसमान तक ले जाने वाले उपन्यास से नहीं है. मेरा तात्पर्य हिंदी में लिखे कुछ भी से है. विज्ञान भी, राजनीति भी और इतिहास भी.
पर सामान्य जन का मन हिंदी में लगे भी कैसे? हिंदी में लिखने का मतलब सीधे-सीधे साहित्य वह भी दुरूह भाषा का लगा लिया जाता है.

जो हिंदी में लिखता है वह क्या सिर्फ कविता लिखेगा, या कहानी? या उपन्यास? यह मानिए कि हिंदी में स्तरीय नॉन-फिक्शन खासकर इतिहास, भूगोल, अर्थव्यवस्था, विज्ञान, राजनीति पर लेखन कम होता है. जो होता है उसकी कीमत औसत हिंदी पाठक की जेब से बाहर की होती है. 

एक मिसाल देता हूं, इंडिया टुडे के संपादक अंशुमान तिवारी और पूर्व आइआइएस अफसर अनिंद्य सेनगुप्ता ने एक किताब लिखी. लक्ष्मीनामा. ब्लूम्सबरी ने छापी. हिंदी संस्करण की कीमत थी, 750 रुपए. मुझे बुरी तरह यकीन है कि इतनी महंगी किताब हिंदी का आम पाठक (अगर कोई ऐसा वर्ग है तो) नहीं खरीदेगा. (वैसे मुझे लगता है कि हिंदी में आम क्या, अमरूद, अनानास, केला कोई पाठक नहीं है, जो है सो दस हजार लोगों का एक समूह है.)

एक अन्य बात हिंदी पट्टी के लोगों की मुफ्तखोरी की है. हिंदी वाले जो लोग पढ़ना चाहते हैं, वह खरीदना नहीं चाहते. वह चाहते हैं रिपब्लिक डे परेड या प्रगति मैदान के ट्रेड फेयर के पास की तरह किताब भी उनको मुफ्त में मिल जाए. वह एहसान जताएंः देखो मैंने तुम्हारी किताब पढ़ी.

एक अन्य बड़ी समस्या भाषा की है. हिंदी के ज्यादातर लेखक ऐसी भाषा लिखते हैं (मेरा मतलब दुरूह से ही है) कि सामान्य पाठक सर पकड़कर बैठ जाता है. (ऐसी समस्या अंग्रेजी में नहीं है) हिंदी के विरोधी ज्यादा हैं इसलिए हिंदी में सरल लिखने का आग्रह टीवी और डिजिटल माध्यम में अधिक रहता है. यह आग्रह कई बार दुराग्रह तक चला जाता है.

देश में 3 फीसद अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के लिए सामग्री परोसने वाली अंग्रेजी मीडिया में मीडियाकर्मियों की तनख्वाह हिंदी वालों से कर लें तो उड़ने वाले सभी हिंदी पत्रकार भी औकात में आ जाएंगे. अंग्रेजी में फां-फूं करने वाले औसत छात्र भी इंटरव्यू में शीर्ष पर बैठते हैं. बाकी देश में हिंदी की स्थिति क्या है यह वैसे किसी बालक से पूछिएगा जो हिंदी माध्यम से यूपीएससी वगैरह की परीक्षा में बैठता है. वैसे यूपीएससी में हिंदी की हालत जब्बर खलनायक की बांहों में जकड़ी नरम-नाजुक सुकन्या नायिका से अधिक नहीं है.

खैर, शुक्रिया कीजिए हिंदी सिनेमा का कि हिंदी का प्रसार किया. टीवी का भी. बुरा लगेगा पर, हिंदी के प्रसार खासकर, अंग्रजी की अकड़-फूं में रहने वाले सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों के भाषणों में हिंदी लाने का अहम काम नरेंद्र मोदी ने किया है. आप को चुभेगी यह बात पर सच है. (वैसे, यह काम मुलायम ने भी किया था, जब वह रक्षा मंत्री थे)

आखिरी बात, ऊंचे दर्जे के साहित्यकारों ने हिंदी के प्रसार के लिए कुछ भी नहीं किया है. हो सकता है समृद्धि आई हो हिंदी के खजाने में. पर प्रसार तो नहीं हुआ. आजकल नई वाली हिंदी भी है, जिसमें मैं नयापन खोजता रह गया.

बहरहाल, नई हो, पुरानी हो, तमिल, तेलुगू, बंगाली, बिहारी, मैथिली, ओडिया..चाहे जिस भी लहजे में हो, हिंदी हिंदी ही है. रहेगी. हो सकता है अगले 50 साल में हिंदी विलुप्त हो जाए. कम से कम लिपि तो खत्म हो ही जाए. लेकिन तब तक अगर बाजार ने इसे सहारा दिए रखा तो चलती रहेगी, चल पड़ेगी. 

तब तक के लिए हैप्पी हिंडी डे ड्यूड.