Wednesday, January 28, 2015

आवारापनः कर्नाटक में ग्रोथ की अकथ कथा

अभी तो बंगलोर के उस लाल बाग का जिक्र, जहां हम भरी दोपहरी में गए थे।

गरम धूप चेहरे पर तीखी किरचों की तरह लग रही थी, लेकिन गरमी के बावजूद कुछ फूल अपने अंदाज में मुस्कुरा रहे थे।

इस गरमी में भी कुछ लोग लाल बाग में घूम रहे थे, जाहिर है वो हम जैसे दीवाने तो नहीं थे कि बिना छतरी और टोपी के घूमें। वैसे हमारे कैमरा सहायक टोपी लगाए हुए थे, लेकिन यह जरूरी भी था, सीधी धूप उनके खल्वाट सर पर पड़ती तो मस्तिष्क गरम हो सकता है।

पूरे बाग़ में माहौल पारिवारिक ही था, दिल्ली के लोदी गार्डन या बुद्ध जयंती पार्क या कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल से अलहदा।थोड़ा सूरज तिरछा हुआ, वक्त के साथ, तो बादलों को मौका मिल गया। तालाब जैसी बेकार की चीजें और गुलमोहर जैसे रोज मुलाकात होने वाले पेड़ों और बांस की झुरमुटों को देखकर हमें लगा कि अब हमें बैठ जाना चाहिए।

एक पहाड़ी जैसा है, उस पर कोई मंदिर बना है। जाहिर है, हमारे काम का न था। पत्थर पर बैठे तो लगा कि पिछवाड़ा रोटी की तरह सिंक गया हो, आखिर पत्थर तवे की तरह गरम भी थे। बहरहाल, हम बंगलोर में बहुत तो घूम नहीं पाए, क्योंकि वक्त काफी कम था। लेकिन, हवाखोरी कर ही ली थी।

गुलबर्गा में मेरी बालकनी में झांकता इमली के पत्ते शिकायत कर रहे हैं। कहां गुलबर्गा कहां बंगलोर। मैं डांटने की मुद्रा में हूं, मैं क्या करूं...दिल्ली तक बात नहीं पहुंचती तो मैं क्या करूं...ये कहानी तुम्हारी ही नहीं है, झारखंड, बुंदेलखंड, जंगल महल, दंतेवाड़ा, अबूझमाड़, मेवात, कालाहांडी...विकास की खाई हर जगह मौजूद है।
कर्नाटक के जबार्गी के पास एक जनजातीय महिला। फोटोः मंजीत ठाकुर
इमली का पेड़ आशाभरी निगाहों से देख रहा है। मैं कहता हूं, मैं महज क़िस्साग़ो हूं, कहानी कह दूंगा, इसके असरात पर मेरा क्या मेरे बाप का भी बस नहीं।


भाप भरी गरमी से पेड़ भी हलकान है..मैं भी। उफ़् गुलबर्गा।

गरमी झेलता हुआ, गुलबर्गा में अपनी बालकनी से डूबते सूरज को देखता हूं। गुलबर्गा में डूबता हुआ सूरज भी दहकता हुआ लगता है।

दिल्ली से बंगलुरु को चले थे, तो मन में कर्नाटक के विकास की एक तस्वीर थी। कर्नाटक का मतलब ही बंगलुरू था।

लेकिन बंगलुरू ही पूरा कर्नाटक नहीं है। बंगलुरू का तो मौसम भी पूरे कर्नाटक से अलहदा है और विकास की गाथा भी।

कर्नाटक के विकास को हमेशा एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है लेकिन विकास की अंतर्गाथा कुछ और ही है। उत्तरी कर्नाटक के जबर्गी और गुलबर्गा के इलाको में पीने का पानी एक बड़ी समस्या है। इस तस्वीर की तस्दीक करते हैं सूखे हुए खेत, जिनका अनंत विस्तार देखने को मिलता है।
उत्तरी कर्नाटक में साल में ज्यादातर वक्त सूखी रहती हैं नदियां फोटोः मंजीत ठाकुर
कपास की फसल पिछले दो साल से खराब हो रही है, क्योंकि दो साल से बारिश ने साथ नहीं दिया। अब तो आस पास के इलाके के लोगों को पीने के पानी के लिए मशक्कत करनी होती है।

लोग छोटे ठेलों पर प्लास्टिक के रंग-बिरंगे मटके लेकर आते हैं। कोई पांच किलोमीटर ले जा रहा है पानी ढोकर, तो कोई सात किलोमीटर, एक बंधु ने तो मोपेड ही खरीद ली है पानी ढोने के लिए ।

पूरा उत्तरी कर्नाटक, खासकर हैदराबाद-कर्नाटक के इलाके में सूखी नदियां और सूखी नहरें सूखे की कहानी कह रही हैं।
पानी का रोना फोटोः मंजीत ठाकुर
नलों के किनारे लगे प्लास्टिक के घड़ों की कहानी भी अजीब है, प्लास्टिक युग में मोबाइल तो उपलब्ध है लेकिन पीने का पानी मयस्सर नहीं। लोगबाग तालाब का पानी पीने पर मजबूर हैं, यह पानी भी तभी आता है जब बिजली हो। बिजली का भी अजीब रोना है, जो दोपहर बाद डेढ़ घंटे के लिए आती है और अलसुबह डेढ़ घंटे के लिए।

दरअसल, लोगों ने तालाब में पानी का मोटर लगवा रखा है। हैंडपंप खराब हैं तो कम से कम तालाब का पानी तो मिले। भूमिगत जल तो न जाने कब पाताल जा छुपा है।

बिजली आती नहीं तो मोटर कैसे चले। ऐसे में दोपहर से ही, मटके नलों के किनारे जमा होने शुरू हो जाते हैं। उस दुपहरिया में जब छांव को भी छांव की जरूरत थी।
किसी दल के घोषणापत्र में नहीं था पानी का वादा फोटोः मंजीत ठाकुर
चुनाव का वक्त था, जब हम वहां थे। कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए स्थायित्व एक अजेंडा था, लेकिन उत्तरी कर्नाटक के गांवों में पीने का पानी मुहैया कराना किसी पार्टी के घोषणापत्र में नहीं था।
जाहिर है कर्नाटक की विकास गाथा की पटकथा में कहीं न कहीं भारी झोल है।

हम पसीनायित हैं...लेकिन हम पानी खरीद कर पी रहे हैं। लेकिन गांववाले...चुनावी दौरे-दौरा में पता नहीं क्या-क्या सब्ज़बाग़ थे...जिक्र नहीं था तो किसानों के लिए सिंचाई के पानी का, न पीने के पानी का।

Tuesday, January 27, 2015

आवारापनः बंगलोर से गुलबर्गा, कुछ तस्वीरें

बंगलोर का लाल बाग, यह है मेरा वाला एंगल फोटोः मंजीत ठाकुर

लाल बाग, बंगलुरू के किसी कोने में खिला था यह फूल, पत्रकार की नज़र तो पड़नी ही थी। फोटोः मंजीत ठाकुर

बंगलुरू से चित्रदुर्ग की तरफ बढ़े, तो मिले सुपारियों के ऐसे झुरमुट, ये समां, समां है ये....फोटोः मंजीत ठाकुर

गुलबर्गा का क़िला, जैसे ढल रहा है सूरज वैसे ही ढल रही है इस क़िले की खूबसूरती भी फोटोः मंजीत ठाकुर

Saturday, January 24, 2015

आवारापनः उफ़! गुलबर्गा

रात गहरा गई है। नीम के पत्तों में गरम हवा सरसरा रही है। मैं काले कोलतार की सड़क पर घूम रहा हूं, अमलतास की पीली पंखुड़ियां पैरों के नीचे कभी-कभी कराह उठती हैं...चांद टेढ़े मुंह के साथ आसमान के कोने में ठिनक रहा है। हवा चल रही है, आसमान में बादल भी हैं...लेकिन आज दिन में गेस्ट हाउस का अटेंडेंट कह रहा था, ये गुलबर्गा है जनाब...गरमी में यहां पत्थर चटकते हैं।

जी हां, ये गुलबर्गा है।

लोगों की बोली में हैदराबादी पुट है। इलाका भी हैदराबाद-कर्नाटक ही कहा जाता है। वही इलाका, जिसके बारे में मैंने गूगल पर छानबीन बहुत की थी, दिल्ली से चलने से पहले...लेकिन ज्यादा कुछ हाथ नहीं आया था।

दिल्ली से चला था तो महीना अप्रैल का था, दिल्ली में गरमी दस्तक दे ही रही थी। कर्नाटक में चुनावी गरमाहट बढ़ गई थी। मुझे चुनाव कवर करना था।

हमने अपना प्यारा लाल गमछा साथ ले लिया था। दोस्त कहते हैं ये एक स्टाइल स्टेटमेंट बन सकता है। हमें स्टाइल से ज्यादा परवाह है अपने आप को उस कड़क धूप से बचने की, जो यहां इस मौसम में पागल कर देने की हद कर तीखी है।

19 अप्रैल की सुबह को हम बंगलोर स्टेशन उतरे तो लगातार दो रात एक दिन के सफ़र ने रीढ़ की हड्डियों पर असर डाल दिया था। बदन का जोड़-जोड़ और पोर-पोर पिरा रहा था।

बंगलोर की सुबह बहुत प्यारी होती है। शायद शामें भी होती हों...हम शाम तक रुके नहीं। फेसबुक पर हमने स्टेटस डाला भी था, कोई मित्र हों तो मिलें...कई एक मित्र असमर्थ थे, एक अभिनय जी ने शाम की चाय का न्योता दिया था....लेकिन उनकी चाय हमारी नसीब में नहीं थी।

दोपहर तीन बजे तक हम बंगलोर से चल चुके थे। आगे भाषा की समस्या आऩे वाली थी...लेकिन हमारा ड्राइवर मणि अच्छा दुभाषिया है। जब वो हंसता है, तो ठहाके में एक खिलखिलाहट होती है। उसके दांत चमकते हैं। उसका हंसना अच्छा लगता है।

रास्ते में बनवारी जी इसरार करते हैं कि कर्नाटक आए तो स्थानीयता का पुट तभी आएगा, जब हम स्थानीय भोजन पर ध्यान दें। नारियल का पानी कर्नाटक में होने की पुष्टि करता है...मैं पके कटहलों की तरफ ध्यान दिलाता हूं। कैमरा सहायक, विनोद बिहार से हैं। उनको कटहल का स्वाद पता है।

बनवारी जी ने भी कटहल लिया है। कटहल की मीठी-मादक गंध...मुझे बचपन याद आ गया। मेरा मधुपुर...सड़क के किनारे नारियल गुल्मों की छटा है, सूरज का रंग बदल रहा है। लेकिन मंजिल दूर है...साढ़े पांच सौ किलोमीटर, भारतीय सड़कों पर। ठठ्ठा नहीं है सफ़र।

लेकिन दक्षिण कर्नाटक हो या उत्तर, सड़कों की हालत नब्बे फीसद तक सही है। अस्सी की रफ़्तार सामान्य है...। रास्ते में आता है, पहाड़ियों की कतार है, शिखरों पर पवनचक्कियों का घूमना जारी है। चित्रदुर्ग हवा की ताकत से पैदा हुई बिजली से रौशन है...रौशनी की कतारें पीछे छूट जाती हैं...

रौशनी की कतार यहां नीचे भी है, गेस्ट हाउस के सुनसान अहाते में...मेरी बालकनी से इमली का एक पेड़ सटा हुआ है। पेड़ पर नई पत्तियों की बहार है, जिनका रंग अभी ललछौंह ही है। मेरे आंगन के सामने मधुपुर में भी इमली का पेड़ था...पोखरे और हमारे घर की दीवार के बीच।

हमको बताया जाता था कि इमली के पेड़ पर भूत हुआ करते हैं, कभी दिखा नहीं। यहां गेस्ट हाउस के अहाते में नागराज का एक छुटका-सा मंदिर नुमा चबूतरा है। सुना है, अहाते में सांप भी बहुत है।
लेकिन इमली के उस पेड़ को हौले से छूकर दुलराता हूं...लगता है अपने ही घर में हूं,। मेरा मधुपुर गुलबर्गा पहुच गया है। मेरा मन उड़ता है, बादलों के साथ। आसमान में बादल हैं, चांद के लुका छिपी जारी है।

गुलबर्गा जिस दिन पहुंचा था, सुबह थी। सुबह में तो कहीं का मौसम बड़ा प्यारा होता है। दिल्ली का भी। सुबह-सुबह पहुंचे और जिस रास्ते से पहुंचे उसके किनारे पेड़ लगे हुए थे। हरियाली थी थोड़ी...

हरियाली और खूबसूरती में बंगलोर ज्यादा बेहतर है। कर्नाटक में जैसे-जैसे उत्तर की तरफ जाएंगे, हरियाली भी कम होती जाती है और संपन्नता भी। उत्तरी कर्नाटक सूखे से त्रस्त होता है। लेकिन वो किस्सा फिर कभी।

आवारापनः किष्किन्धा से बहमनों की धरती की ओर

उस वक्त हम गुलबर्गा में थे। कर्नाटक का हैदराबाद की तरफ वाला इलाका। हंपी से उत्तर। मेरे कमरे में बालकनी है, सामने एक इमली का पेड़। 

मौसम बेहद गर्मी का था। इमली का पेड़ झुलस रहा था...गरमी में। दिल्ली में भी गरमी रही होगी।...झुलसाने वाली तो नहीं...लेकिन उत्तराखंड की बाढ़ के बाद बारिश से सहमे हुए लोगों के बीच उमस की मार है। 


गुलबर्गा की गरमी अजीब है। पत्थर भी चटक जाते हैं। लेकिन फारसी में तो गुल का मतलब है "फूल" और "बर्ग" का मतलब है पत्ता। जाहिर है, जमाना रहा होगा जब गुलबर्गा विलासिता भरे जीवन का केन्द्र रहा ही होगा। 

हमारे गेस्ट हाउस के नजदीक ही है गुलबर्गा का किला...14वीं सदी का। मजबूत रहा होगा किला। लेकिन कई दशकों तक उपेक्षित रहे इस किल में अब कई घर बस गए हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन  होने के बावजूद किले के भीतर अवैध अतिक्रमण है। और किले की हालत का तो कहना ही क्या।

हालांकि कुछ हिस्सों में हालत में सुधार है वो भी सिर्फ एएसआई के कारण। 

वैसे गुलबर्गा की कहानी तो 13वी और 14वीं सदी तक पीछे ले जाती है। दक्कन के इस इलाके में जब बहमनी सल्तनत का प्रभुत्व हुआ। इससे पहले यह इलाका हिंदू राजाओं के अधीन था। इस सूखाग्रस्त इलाके को बहमनी सुल्तानों ने खूबसूरत महलों, किलेबंदियों और सरकारी इमारतों से भर दिया।

आज के गुलबर्गा में भी वही मध्यकालीन किले, अस्तबल, टूट-फूट रहे मकबरे, बड़े दरबार और प्राचीन मंदिर हैं। 

किले के भीतर का जामा मस्जिद की खासियत इसका विशाल गुंबद है। इसके चारों तरफ छोटे-छोटे गुंबद भी हैं। इसका निर्माण सन 1367 में स्पेनी वास्तुविद् ने किया था जिसमें मेहराबदार प्रवेशद्वार है। बताया जाता है कि ऐसी ही कलाकृति स्पेन में कार्दोवा के मकबरे की भी है। 

गुलबर्गा अब किलों, दरबारों और मकबरों को विरासत के रूप में देखता है। मुसलमान आबादी में एक नवाबी ठसक है...लेकिन गांव की आबादी जूझ रही है। रोज़ रोज़ की लड़ाई है, पानी की, खाने की...

इस इलाके की इन कहानियों और तस्वीरों को अगली पोस्ट में शेयर करूंगा। 

Tuesday, January 20, 2015

आवारापनः किष्किन्धा कांड!

गरमियों में कर्नाटक जाना हुआ था। लेकिन आवारगर्दी कहिए या फिर खानाबदोशी की मेरी आदत, एक जगह टिककर रहना नहीं हुआ। बीजापुर, गुलबर्गा वगैरह में सूखे और किसानों की आत्महत्या की ख़बरें कर चुका था, मन और तन दोनों क्लांत हो चुके थे।

हॉसपेट थोड़ा दक्षिण है गुलबर्गा से। बेल्लारी ज़िले में। अरे, वही बेल्लारी ज़िला, अवैध खनन और रेड्डी बंधुओं के लिए आप उत्तर भारत में जानते होंगे। हॉसपेट में हमें राहुल गांधी और जगदीश शेट्टर की रैलियां कवर करनी थी। मेरा लालच कुछ और था। मैं विजयनगर साम्राज्य के खंडहर देखना चाहता था। हंपी में।
हंपी जाते वक्त सड़क के दोनों तरफ मिलते हैं ऐसे पहाड़

हंपी, यानी वह जगह जहां विजयनगर साम्राज्य के अवशेष हैं, हॉसपेट से महज सोलह किलोमीटर दूर है। राहुल की रैली के बाद शेट्टार की रैली थी, और जगदीश शेट्टार की रैली सुबह-सुबह निपट गई थी। अपने ऑफिस के काम से फारिग होने के बाद हम विजयनगर के भग्नावशेष देखने चल दिए थे।
पहाड़ी पर का भग्नावशेष
चाय की दुकानपर किसी दोस्ताना से स्थानीय शख्स ने बताया, कि अगर असल में विजयनगर की झलक देखना चाहते हो तो सीधे हंपी पर धावा मत बोल दो। दोपहर की तेज़ धूप में चाय का आस्वाद लेते हुए हम स्थानीय ज्ञान भी लेते रहे, चाय का भी। क्योंकि चाय का तो क्या है, टी इज़ कूल इन समर....एंड वॉर्म इऩ विंटर।

तो कर्नाटक में होसपेट में उस दिन तकरीबन 46 डिग्री सेल्सियस तापमान था। खाल झुलसी जाती थी, चाय ने पसीने की बूंदों का आमंत्रित कर खाल को सुरक्षा कवच दिया।

उन मित्र ने यह भी बताया कि आप इधर आए हैं तो रीछों की एक सेंचुरी भी देखते जाएँ। लेकिन तपते दोपहर में जब हम दोर्जे में स्थित उस सेंचुरी गए तो वन संरक्षकों ने बताया कि अव्वल तो गेट से अंदर जाने को नहीं मिलेगा। जाने भी दिया तो कुछ दिखेगा नहीं, क्योंकि रीछ दोपहर को आराम करते हैं। इसलिए इधर सुबह को आने का।

हम सुबह की योजना बनाकर खाली हाथ, खाली आंख लौट चले।

बहरहाल, जब उस अपरिचित मित्र के बताए अनुसार हम पचीस किलोमीटर के दायरे में घूमने निकले, तो सड़क के किनारे कई ऐसी खंडहर देखने को मिले, जो हमने किताबों में देखे थे। विजयनगर मार्का अवशेष।

हर जगह गाड़ी रोकी जाती, हम उतर कर फोटो उतारते। फिर गाड़ी आगे बढ़ती।
मंदिर जाने का रास्ता
अचानक एक जगह मेरी नजर गई, तेज़ धूप में सड़क के किनारे बोर्ड लगा था--माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर। मंदिरो में मेरी दिलचस्पी तभी होती है जब वहां भीड़ हो। हमारे कैमरामैन बनवारी लाल का नज़रिया अलग है, बुजुर्ग हो चले हैं। पुण्य कमाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।

हमारी गाड़ी चढाई पर चल दी। एक बोर्ड और लगा था, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का था। बोर्ड में लिखा था कि मान्यता के अनुसार, रामायण में वर्णित किष्किन्धा यही था...।
सामने वाला पर्वत है ऋष्यमूक, सुग्रीव का आश्रय

मंदिर अभी कुछ दूर था। रास्ते में एक प्रवेश द्वार टाइप का बन रहा था। वहां एक बुजुर्गवार भी मिले जो एएसआई की तरफ से उस मंदिर का प्रवेश द्वार बनवा रहे थे।

मैंने उनसे पूछा कि यह कौन सी जगह है तो उनने बताया कि यह इलाका है किष्किन्धा का। और आप जिस जगह पर खड़े हैं वह है माल्यवान या प्रस्रवण गिरि। किष्किन्धा के राजा बालि को मार कर राम ने इसी पर्वत पर वर्षाकाल के चार महीने बिताए थे। मैंने पूछा, तब तो ऋष्यमूक भी होगा?
माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर सभी फोटोः मंजीत ठाकुर

बुजुर्गवार ने तर्जनी सामने कर दी। सामने पत्थरों के आधिक्य वाला पर्वत था, जिसकी ऊंचाई तो बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन वह वही पर्वत था जिसका वर्णन वाल्मीकी रामायण और रघुवंश में है।

'तथा स बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषच्य च वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणब्रवीत्',
--वाल्मीकि रामायण, किष्किंधा पर्व 27,1

एतद् गिरेमल्यिवतः पुरस्तादाविर्भवत्यम्बर लेखिश्रृंगम्, नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्धिप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम्',
--रघुवंश 13,26

यानी यही वह पर्वत माल्यवंत है जिसपर राम रुके थे। उत्सुकता बढ़ गई थी। सामने ऋष्यमूक भी दिख रहा था। बनवारी लाल जी अभिभूत हुए जा रहे थे। अगर राम को भगवान न भी मानें, सिर्फ एक दिलेर इंसान बी मान लें, तो भी इन सभी किताबों में वर्णित जुगराफिये का कायल हुआ जा रहा था।


जारी।