Tuesday, December 24, 2019

झारखंड में हर बार हारते हैं पदासीन विधानसभा अध्यक्ष

भले ही इसे चुनावी आंकड़ों का अंधविश्वास कहा जाए, पर ट्रेंड है कि झारखंड गठन के बाद से हर बार पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना अगला चुनाव हार जाते हैं. इस बार भी निवर्तमान विधानसभा स्पीकर दिनेश उरांव पराजय की कगार पर खड़े हैं

झारखंड में विधानसभा चुनावों के नतीजे आ चुके हैं. आने वाली विधानसभा की तस्वीर भी तकरीबन साफ हो चुकी है कि सूबे की कमान अब झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन के हाथ ही आएगी. इस पोस्ट के लिखे जाने तक राज्य की 81 सीटों में से 47 पर झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन आगे चल रहा था और भाजपा 24 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है. ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) 3 सीटों पर और बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (पी) 3 सीटों पर आगे चल रही है. चार पर निर्दलीय या अन्यों की बढ़त है. इन चार अन्य में एक बड़ा नाम सरयू राय का है, जो मुख्यमंत्री रघुबर दास को पटखनी देने की तैयारी में हैं.

लेकिन एक दिलचस्प बात है कि सन् 2000 में झारखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से यहां की सियासत में कई उतार-चढ़ाव आए. 10 बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ यानी मुख्यमंत्री पद पर बदलाव हुए. लेकिन एक बात हर बार सही होती रही. चुनाव के समय पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना अगला चुनाव हारते रहे. ऐसा 2005, 2009 और 2014 में हो चुका है. अब तक सारे पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना चुनाव जीतने में नाकाम रहे हैं. इस वक्त तक, सिसई विधानसभा सीट से किस्मत आजमा रहे निवर्तमान विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव करीब 29 हजार मतों से पीछे चल रहे हैं. (आखिरकार पराजित भी हुए)

2005 में झारखंड में विभाजन के बाद पहले चुनाव हुए थे और तब विधानसभा अध्यक्ष के पद पर एम.पी. सिंह बैठे थे. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने उन्हें टिकट नहीं दिया था, क्योंकि जमशेदपुर पश्चिम सीट से पार्टी ने सरयू राय को टिकट दे दिया था. एम.पी. सिंह बगावत पर उतर आए और उन्होंने पार्टी छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का दामन थाम लिया और उसके टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे. पर उन्होंने चुनाव मैदान में मात खानी पड़ी थी.

इसी तरह, 2009 के चुनाव से पहले विधानसभा अध्यक्ष की कुरसी पर आलमगीर आलम काबिज थे. पर उस चुनाव में कांग्रेस, राजद और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने गठबंधन की बजाए अलग-अलग चुनाव लड़ा था और पाकुड़ सीट से आलमगीर आलम चुनाव हार गए थे. पाकुड़ में झामुमो ने जीत दर्ज की थी. इसी तरह 2014 में झामुमो कांग्रेस और राजद फिर से किसी गठजोड़ के समझौते पर नहीं पहुंच पे थे और तब के स्पीकर शशांक शेखर भोक्ता देवघर जिले की सारठ विधानसभी सीट से चुनाव हार गए.

हालांकि, यह महज एक संयोग हो सकता है पर हर चुनावी हार के पीछे एक तर्क और मजबूत कारण तो होते ही हैं.

बहरहाल, विधानसभा के निवर्तमान अध्यक्ष दिनेश उरांव सिसई सीट से भाजपा उम्मीदवार हैं. इस खबर के लिखे जाने तक दिनेश उरांव को 42,879 वोट मिले थे जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी और झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार जीगा सुसरन होरो ने 71737 वोट हासिल कर लिए थे. करीब 29 हजार वोटो का यह अंतर इस वक्त पाटना मुश्किल ही लग रहा है.

ऐसे में भले ही पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष के चुनावी प्रदर्शन को अंधविश्वास से जोड़ा जाए, पर लगातार चौथी बार आए नतीजे इस बात को पुष्ट ही करते हैं. आखिर, चुनावी नतीजे आंकड़ों के आधार पर ही तो विश्लेषित किए जाते हैं.

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Thursday, December 19, 2019

नदीसूत्रः सोने के कणों वाली नदी स्वर्णरेखा की क्षीण होती जीवनरेखा

स्वर्णरेखा नदी में सोने के कण पाए जाते हैं, पर मिथकों में महाभारत से जुड़ी स्वर्णरेखा की जीवनरेखा क्षीण होती जा रही है. उद्योगों और घरों से निकले अपशिष्ट के साथ खदानों से निकले अयस्कों ने इस नदी के जीवन पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह नदी सूखी तो झारखंड, बंगाल और ओडिशा में कई इलाके जलविहीन हो जाएंगे

हर नदी के पास एक कहानी होती है. स्वर्णरेखा नदी के पास भी है. झारखंड की इस नदी को वैसे ही जीवनदायिनी कहा जाता है जैसे हर इलाके में एक न एक नदी कही जाती है. पर झारखंड की यह नदी, अपने नाम के मुताबिक ही सच में सोना उगलती है.

यह किस्सा स्वर्णरेखा के उद्गम के पास के गांव, नगड़ी के पास रानीचुआं के लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहां आकर रहे थे, इसीलिए गांव का नाम पांडु है. खास बात यह है कि स्वर्णरेखा के उद्गम का नाम रानी चुआं इसलिए पड़ा क्योंकि एकबार जब इस निर्जन इलाके में रानी द्रौपदी को प्यास लगी तो अर्जुन ने बाण मारकर इसी स्थल से पानी निकाला था, जो आज भी मौजूद है. समय के साथ नदी का नाम स्वर्णरेखा पड़ गया.

वैसे भी मिथक सच या झूठ के दायरे से वह थोड़े बाहर होते हैं. यह पता नहीं कि पांडु गांव, पांडवों के अज्ञातवास और अर्जुन के बाण से निर्मित रानी चुआं की कहानी कितनी सच है? लेकिन यह मिथक कतई नहीं है कि स्वर्णरेखा झारखंड की गंगा की तरह है और गंगा की तरह ही इसको देखना अब रोमांचकारी कम और निराशाजनक ज्यादा हो गया है.

पर स्वर्णरेखा नदी से सोना निकलता जरूर है, पर यह कोई नहीं जानता कि इसमें सोना आता कहां से है. स्वर्णरेखा नदी में स्वर्णकणों के मिलने के कारण इस क्षेत्र के स्वर्णकारों के लिये इस नदी की खास अहमियत है. किंवदन्ती है कि इस इलाके पर राज करने वाले नागवंशी राजाओं पर जब मुगल शासकों ने आक्रमण किया तो नागवंशी रानी ने अपने स्वर्णाभूषणों को इस नदी में प्रवाहित कर दिया, जिसके तेज धार से आभूषण स्वर्णकणों में बदल गए और आज भी प्रवाहमान है.

आज भी आप जाएं तो नदी में सूप लिए जगह-जगह खड़ी महिलाएं दिख जाएंगी. इलाके के करीब आधा दर्जन गांवों के परिवार इस नदी से निकलने वाले सोने पर निर्भर हैं. कडरूडीह, पुरनानगर, नोढ़ी, तुलसीडीह जैसे गांवों के लोग इस नदी से पीढियों से सोना निकाल रहे हैं. पहले यह काम इन गांवों के पुरुष भी करते थे, लेकिन आमदनी कम होने से पुरुषों ने अन्य कामों का रुख कर लिया, जबकि महिलाएं परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए आज भी यही करती हैं.

नदी की रेत से रोज सोना निकालने वाले तो धनवान होने चाहिए? पर ऐसा है नहीं. हालात यही है कि दिनभर सोना छानने वालों के हाथ इतने पैसे भी नहीं आते कि परिवार पाल सकें. नदी से सोना छानने वाली हर महिला एक दिन में करीब एक या दो चावल के दाने के बराबर सोना निकाल लेती है. एक महीने में कुल सोना करीब एक से डेढ़ ग्राम होता है. हर दिन स्थानीय साहूकार महिला से 80 रुपए में एक चावल के बराबर सोना खरीदता है. वह बाजार में इसे करीब 300 रुपए तक में बेचता है. हर महिला सोना बेचकर करीब 5,000 रुपए तक महीने में कमाती है.

395 किलोमीटर लंबी यह बरसाती नदी देश की सबसे छोटी अंतरराज्यीय (कई राज्यों से होकर बहने वाली) नदी है जिसके बेसिन का क्षेत्रफल करीब 19 हजार वर्ग किमी है. यह रांची, सरायकेला-खरसावां, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) और बालासोर (ओडिशा) से होकर बहती है. पर जानकारों का कहना है कि यह नदी अब सूखने लगी है और इसके उद्गम स्थल पर यह एक नाला होकर रह गई है. जानकारों के मुताबिक, इस नदी में कम होते पानी की वजह से भूजल स्तर भी तेजी से गिरता जा रहा है. काटे जा रहे जंगलों की वजह से मृदा अपरदन भी बढ़ गया है.

हालांकि इस नदी पर बनने वाले चांडिल और इछा बांध का आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया और यहां 6 जनवरी, 1979 को हुई पुलिस फायरिंग में चार आदिवासियों ने अपनी जान दे दी. परियोजना चलती रही और 1999 में इस परियोजना पर भ्रष्टाचार की कैग की रिपोर्ट के बाद इसे पूरे होने में 40 साल का समय लगा. परियोजना तो पूरी हुआ लेकिन इसमें चस्पां स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और बिजली मुहैया कराने के वायदे पूरे नहीं हुए.

इस नदी की बेसिन में कई तरह के खनिज हैं. सोने का जिक्र हम कर ही चुके हैं. पर इन सबने नदी की सूरत बिगाड़ दी. खनन और धातु प्रसंस्करण उद्योगों ने नदी को प्रदूषित करना भी शुरू कर दिया है. अब नदी के पानी में घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों के साथ-साथ रेडियोसक्रिय तत्वों की मौजूदगी भी है. खासकर, खुले खदानों से बहकर आए अयस्क इस नदी की सांस घोंट रहे हैं.

ओडिशा के मयूरभंज और सिंहभूम जिलों में देश के तांबा निक्षेप सबसे अधिक हैं. 2016 में किए गिरि व अन्य वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक, सुवर्ण रेखा नदी में धात्विक प्रदूषण मौजूद है. अब नदी और इसकी सहायक नदियों में अवैध रेत खनन तेजी पर है. इससे नदी की पारिस्थितिकी खतरे में आ गई है.

इस नदी बेसिन के मध्यवर्ती इलाके में यूरेनियम के निक्षेप है. यूरेनियम खदानों के लिए मशहूर जादूगोड़ा का नाम तो आपने सुना ही होगा. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, रेडियोसक्रिय तत्व इस खदान के टेलिंग पॉन्ड से बहकर नदी में आ रहे हैं.

जमशेदपुर शहर, जो इस नदी के बेसिन का सबसे बड़ा शहर है, का सारा सीवेज सीधे नदी में आकर गिरता है. और अब इसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटती जा रही है और नदी के पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) तय मानक से अधिक हो गया है, जबकि बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड मानक से कम होना चाहिए. झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्वर्णरेखा नदी के पानी के नमूने की जांच कराई तो पता चला कि अधिकतर जगहों पर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम पाई गई.

स्थिति यह है कि स्वर्णरेखा नदी का पानी जानवरों और मछलियों के लिए सुरक्षित नहीं है. जानवरों और मछलियों के लिए पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा 1.2 मिलीग्राम से कम होनी चाहिए, जबकि 7.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक है. इसकी वजह से काफी संख्या में मछलियां नदी में मर रही हैं इसके साथ ही साथ जानवरों को भी कई तरह की बीमारियां हो रही हैं.

स्वर्णरेखा और खरकई नदियों का संगम, जमशेद पुर के ठीक पास में है और यहां आप लौह अयस्क के कारखानों से निकले स्लग को देख सकते हैं. हालांकि, भाजपा नेता (अब बागी) सरयू राय ने 2011 में इसे लेकर जनहित याचिका दायर की थी, और तब टाटा स्टील ने जवाब में कहा कि यह स्लग शहर की जनता को स्वर्णरेखा की बाढ़ से बचाने के लिए जमा किया गया है. हाइकोर्ट ने टाटा को यह जगह साफ करने को कहा था. हालांकि इस पर हुई कार्रवाई की ताजा खबर नहीं है.

इस इलाके में मौजूद छोटी और बड़ी औद्योगिक इकाइयों, लौह गलन भट्ठियों, कोल वॉशरीज और खदानों ने नदी की दुर्गति कर रखी है.

बहरहाल, खेती, पर्यटन और धार्मिक-आध्यात्मिक केंद्र के नजरिए से सम्भावनाओं से भरे स्वर्णरेखा नदी में उद्गम से लेकर मुहाने तक, इस इलाके में पांडवों से लेकर चुटिया नागपुर के नागवंशी राजाओं से जुड़े मिथकों का प्रभाव कम और हकीकत के अफसाने ज्यादा सुनाई पड़ते हैं. मृत्युशैय्या पर पड़ी जीवनरेखा स्वर्णरेखा की आखिरी सांसों में फंसे अफसाने.

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Wednesday, December 18, 2019

ऋषभ पंत के लिए साल का अंत भला तो सब भला

ऋषभ पंत एक संभावनाओं से भरे खिलाड़ी हैं, पर इस पूरे साल उनके पैर क्रीज पर कंक्रीट में जमे से लगे. आड़ा-तिरछा शॉट चयन और लापरवाही भरा रवैया उनके बल्ले पर जंग लगाता गया. पर अब वेस्टइंडीज के खिलाफ पहले वनडे में पचासा ठोंककर पंत की वापसी की उम्मीदें जागी हैं

यह साल विकेटकीपर-बल्लेबाज ऋषभ पंत के लिए वाकई बेहद बुरा था. ऋषभ पंत एक संभावनाओं से भरे खिलाड़ी हैं, पर इस पूरे साल उनके पैर क्रीज पर कंक्रीट में जमे से लगे. आड़ा-तिरछा शॉट चयन और लापरवाही भरा रवैया उनके बल्ले पर जंग लगाता गया. पर अब वेस्टइंडीज के खिलाफ पहले वनडे में पचासा ठोंककर पंत की वापसी की उम्मीदें जागी हैं. टीम में सम्राट की हैसियत रखने वाले महेंद्र सिंह धोनी की जगह लेने वाले पंत ने वेस्ट इंडीज के खिलाफ खेले गए तीन मैचों की सीरीज के पहले एकदिवसीय मैच में अपने स्वभाव के उलट खेलते हुए अर्धशतक जमाया.

साल की शुरुआत में जनवरी में ऑस्ट्रेलिय़ा के खिलाफ सिडनी टेस्ट का शतक छोड़ दें तो पूरे साल में पंत वनडे क्रिकेट में महज एक अर्धशतक लगा पाए थे. 2019 में पंत ने (वेस्टइंडीज सीरीज से पहले) कुल 9 वनडे मैच खेले थे और इनमें 23.55 की औसत से महज 188 रन बना पाए थे. जबकि 16 टी-20 मैचों में वे 252 रन ही बना पाए थे. टी-20 में 65 के उच्चतम स्कोर के बावजूद उनका औसत महज 21 का था.

जाहिर है, साल के आखिरी समय में पंत ने बताया कि वह स्थिति के मुताबिक खेल सकते हैं. आलोचकों के साथ ही सोशल मीडिया पर लोग लापरवाह रवैये के लिए पंत की काफी आलोचना करते रहे हैं. लेकिन पंत ने इस पारी के बाद कहा कि वह हर दिन अपने खेल में सुधार करने की कोशिश कर रहे हैं.

मैच के बाद पंत ने कहा, "स्वाभाविक खेल जैसा कुछ नहीं होता. हमें स्थिति के हिसाब से खेलना होता है. अगर आप स्थिति के हिसाब से खेलेंगे तो आप अच्छा कर सकते हैं. मेरा ध्यान एक खिलाड़ी के तौर पर बेहतर होने और सुधार करने पर है. आपको अपने आप में विश्वास रखना होता है. मैं सिर्फ इस बात पर ध्यान दे रहा हूं कि मैं क्या कर सकता हूं."

पंत ने जब से सीमित ओवरों में महेंद्र सिंह धोनी का स्थान लिया है तब से उनकी बल्लेबाजी और विकेटकीपिंग के लिए उनकी आलोचना की जाती रही है. पहला वनडे धोनी के दूसरे घर चेन्नै में ही था और इस मैदान पर दर्शकों ने पंत-पंत के नारे लगाए. इसके उलट इससे पहले पंत जब मैदान पर उतरे थे तो धोनी-धोनी के नारे लगे थे.

इस पर पंत ने कहा, "कई बार जब आपको दर्शकों का समर्थन मिलता है तो वो आपके लिए काफी अहम होता है क्योंकि मैं निजी तौर पर बड़ा स्कोर करने की सोच रहा था लेकिन कर नहीं पा रहा था. मैं यह नहीं कह रहा कि मैं उस मुकाम तक पहुंच गया लेकिन मैं कोशिश जरूर कर रहा हूं. एक टीम के नजरिए से, मैं टीम की जीत में जो कर सकता हूं वो करूंगा. मेरा ध्यान इसी पर है और अंत में मैंने कुछ रन किए."

पंत ने बेशक कुछ रन बनाए हैं पर उन्हें अपने नजरिए में सुधार करना होगा. उन्हें उस विरासत का भी खयाल रखना होगा कि जिस जगह को उनके लिए खुद सम्राट धोनी ने खाली किया है, उस पर लोगों की उम्मीद भरी निगाहें जमी हुई हैं.

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Wednesday, December 11, 2019

झारखंड में बाबूलाल मरांडी अभी नहीं तो कभी नहीं

झाविमो के नेता बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं. भाजपा छोड़ने के बाद उन्हें कुछेक सियासी कामयाबियां जरूर मिलीं पर 2009 के बाद से उन्होंने एक भी चुनाव नहीं जीता है. चार चुनावों में लगातार पराजय का मुंह देख चुके मरांडी के लिए झारखंड विधानसभा का यह चुनाव करो या मरो जैसी स्थिति है


झारखंड (Jharkhand) जब बिहार से अलग हुआ था तो पहले मुख्यमंत्री बने थे बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi). तब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) (Bhartiya Janata Party) के वे झारखंड (Jharkhand) के कद्दावर नेता माने जाते थे. पर 2006 में उन्होंने गुटबाजी का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ दी और तब से उके सियासी करियर पर ग्रहण लगना शुरू हो गया है. पिछले दस साल से यानी 2009 के बाद बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi) कोई चुनाव नहीं जीत पाये हैं.

मरांडी (babulal Marandi) लगातार चार चुनाव हार चुके हैं. उन्होंने अपना आखिरी चुनाव 2009 में जीता था. तब वे कोडरमा से सांसद चुने गये थे. कोडरमा से 2004 और 2006 के उपचुनाव में जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में वे दुमका चले गये जहां शिबू सोरेन ने उन्हें हरा दिया था.

2014 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने धनवार और गिरिडीह से परचा दाखिल किया था पर दोनों ही जगह से उनको पराजय का मुंह देखना पड़ा था. 2014 के बाद उनकी पार्टी के छह विधायक टूटकर भाजपा (Bhartiya Janata Party) में शामिल हो गए थे. इससे उनकी पार्टी और छवि दोनों को गहरा धक्का लगा था. लगातार चुनाव हारने से भी मरांडी (babulal Marandi) की छवि कमजोर नेता के तौर पर बनती जा रही है और दिखने लगा है कि अब बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi) वह नेता नहीं रहे जो झारखंड (Jharkhand) स्थापना के वक्त थे.

2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा से फिर से किस्मत आजमाई पर भाजपा (Bhartiya Janata Party) की अन्नपूर्णा देवी ने उन्हें करारी शिकस्त दी थी. और इस बार यानी 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election) में भी उनके लिए मुकाबला कोई बहुत आसान नहीं है.

झारखंड (Jharkhand) के गिरिडीह जिले के राजधनवार विधानसभा क्षेत्र में इस बार झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी (babulal Marandi) की प्रतिष्ठा दांव पर है. इस सीट पर उन्हें तीन मजबूत उम्मीदवारों से चुनौती मिल रही है. इन चुनौतियों को देखकर सवाल पूछा जा रहा है कि क्या बाबूलाल मरांडी को इस बार चुनावी जीत मिल पाएगी? यहां 12 दिसम्बर को मतदान होना है.

अब बाबूलाल मरांडी के सामने अपने राजनीतिक कद को बरकरार रखने के साथ ही अपनी पार्टी झाविमो का अस्तित्व कायम रखने की भी चुनौती है. इस कारण यहां का मुकाबला दिलचस्प बना हुआ है, जिस पर पूरे राज्य की नजर है.

राजधनवार सीट पर अभी तक जो स्थिति उभरकर सामने आई है, उसके मुताबिक इस बार इस क्षेत्र में मुख्य मुकाबला झाविमो के मरांडी और भाकपा (माले) के मौजूदा विधायक राजकुमार यादव के बीच माना जा रहा है. परंतु भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) (Bhartiya Janata Party) के लक्ष्मण प्रसाद सिंह, निर्दलीय अनूप सौंथालिया और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के निजामुद्दीन अंसारी इस मुकाबले को बहुकोणीय बनाने में पूरा जोर लगाए हुए हैं.

मरांडी को इस इलाके में 2014 के विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election) में हार का सामना करना पड़ा था. भाजपा (Bhartiya Janata Party) ने वर्ष 2014 के तीसरे स्थान पर रहे पूर्व पुलिस अधिकारी लक्ष्मण प्रसाद सिंह को एक बार फिर उम्मीदवार बनाया है, जबकि झामुमो ने निजामुद्दीन अंसारी को अपना प्रत्याशी बनाया है. भाकपा (माले) की ओर से मौजूदा विधायक राजकुमार यादव एक बार फिर चुनावी मैदान में हैं.

पिछले विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election) में राजकुमार ने मरांडी को 10 हजार से अधिक मतों से पराजित किया था. असल में, राजधनवार ऐसी सीट है, जिस पर जातीय समीकरण को साधना बेहद अहम है. इस सीट पर यादव, मुस्लिम और भूमिहार के मतदाता यहां निर्णायक साबित होते हैं.

इस चुनाव में इस क्षेत्र में कुल 14 प्रत्याशी हैं. लेकिन चुनाव झाविमो, झामुमो, भाजपा, भाकपा (माले) और निर्दलीय अनूप सौंथालिया को ही जानकार प्रमुख उम्मीदवारों में गिन रहे हैं.

क्षेत्र में सभी प्रमुख उम्मीदवारों की पकड़ अलग-अलग क्षेत्रों में है. आइएएनएस के मुताबिक, इस विधानसभा क्षेत्र में गांवा इलाके में भाकपा (माले) के प्रत्याशी की चर्चा अधिक है तो तिसरी में झाविमो, धनवार बाजार और धनवार ग्रामीण में भाजपा, झामुमो और निर्दलीय अनूप सौंथालिया की चर्चा सर्वाधिक है.

झाविमो के प्रत्याशी और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी आइएएनएस से कहते हैं कि "इस क्षेत्र में विकास कार्य पूरी तरह ठप है. आज भी लोग पानी, सड़क, बिजली और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे हैं. ऐसे में जनता सब देख रही है और चुनाव में जवाब देगी."

लेकिन मौजूदा विधायक राजकुमार यादव जीत का दावा करते हैं. उनका कहना है कि पंचायतों और गांवों में किसानों के लिए तालाब बनाए गए हैं और गांवों में बिजली पहुंचाई गई है. सड़कें बनी हैं. उन्होंने हालांकि यह भी माना कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है.

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Monday, November 25, 2019

नदीसूत्रः कहीं गोवा के दूधसागर झरने का दूधिया पानी गंदला लाल न हो जाए

गोवा की नदियों के पारितंत्र पर खनन गतिविधियों ने बुरा असर डाला है. मांडवी और जुआरी जैसी प्रमुख नदियों में लौह अयस्क की गाद जमा होने लगी है इसके इन नदियों की तली में जलीय जीवन पर खतरा पैदा हो गया है


इन दिनों गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव की धूम हुआ करती है. मांडवी के किनारे कला अकादमी और और पुराने मेडिकल कॉलेज के पीछे आइनॉक्स थियेटर में गहमागहमी होती है. फिल्मों के बीच थोड़ी छुट्टी लेकर लोगबाग मांडवी के तट पर टहल आते हैं. ज्यादा उत्साही लोग दूधसागर जलप्रपात भी घूमने जाते हैं. दूधसागर जलप्रपात पर ही मांडवी नदी थोड़ा ठहरती है और आगे बढ़ती है. दूधसागर यानी दूध का सागर. इस नाम के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है.

बहुत पहले, पश्चिमी घाट के बीच एक झील हुआ करती थी जहां एक राजकुमारी अपनी सखियों के साथ रोज स्नान करने आती थी. स्नान के बाद राजकुमारी घड़ा भर दूध पिया करती थी. एक दिन वह झील में अठखेलियां कर ही रही थी, कि वहां से जाते एक नवयुवक की उन पर नजर पड़ गई और वह नौजवान वहीं रुककर नहाती हुई राजकुमारी को देखने लग गया.

अपनी लाज रखने के लिए राजकुमारी की सखियों ने दूध का घड़ा झील में उड़ेल दिया ताकि दूध की परत के पीछे वे खुद को छुपा सकें. कहा जाता है कि तभी से इस जलप्रपात का दूधिया जल अनवरत बह रहा है.

पर अब यह दूधिया पानी लाल रंग पकड़ने लगा है. लौह अयस्क ने मांडवी को जंजीरों में बांधना शुरू कर दिया है. लौह अयस्क का लाल रंग मांडवी के पानी को बदनुमा लाल रंग में बदलने लगा है.

माण्डवी नदी जिसे मांडोवी, महादायी या महादेई या कुछ जगहों पर गोमती नदी भी कहते हैं, मूल रूप से कर्नाटक और गोवा में बहती है. गोवावाले तो इसको गोवा की जीवन रेखा भी कहते हैं. मांडवी और जुआरी, गोवा की दो प्रमुख नदियां हैं. 

लंबाई के लिहाज से मांडवी नदी बहुत प्रभावशाली नहीं कही जा सकती. जिस नदी की कुल लंबाई ही 77 किलोमीटर हो और जिसमें से 29 किलोमीटर का हिस्सा कर्नाटक और 52 किलोमीटर गोवा से होकर बहता हो, आप उत्तर भारत की नदियों से तुलना करें तो यह लंबाई कुछ खास नहीं है. पर व्यापारिक और नौवहन की दृष्टि से यह देश की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है और यह इसकी ताकत भी है और कमजोरी भी.

इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के तीस सोतों के एक समूह से होता है जो कर्नाटक के बेलगाम जिले के भीमगढ़ में है. नदी का जलग्रहण क्षेत्र, कर्नाटक में 2,032 वर्ग किमी और गोवा में 1,580 वर्ग किमी का है. दूधसागर प्रपात और वज्रपोहा प्रपात, मांडवी के ही भाग हैं.

गोवा में खनिजों में लौह अयस्क सबसे महत्वपूर्ण हैं और राज्य के राजस्व का बड़ा हिस्सा भी. लेकिन लौह अयस्क के गाद ने राज्य की दोनों प्रमुख नदियों की सांस फुला दी है. गोवा की नदियों पर हुए एक हालिया अध्ययन कहता है कि लौह अयस्क की गाद से दोनों नदियां दिन-ब-दिन उथली होती जा रही हैं. और इसका असर नदियों की तली में रहने वाले जलीय जीवन पर पड़ने लगा है.

गोवा विश्वविद्यालय के सागर विज्ञान विभाग के एक अध्ययन में बात सामने आई है कि राज्य की बिचोलिम लौह और मैगनीज के अयस्कों की वजह से बेहद प्रदूषित है वहीं मांडवी नदी के प्रदूषकों में मूल रूप से लौह और सीसा (लेड) हैं.

बिचोलिम उत्तरी गोवा जिले में बहती है और मांडवी की सहायक नदी है. इस अध्ययन में इस बात पर चिंता जताई गई है कि दक्षिणी गोवा जिले में बहने वाली जुआरी नदी और उसके नदीमुख (एस्चुअरी) पर भी धात्विक प्रदूषण का असर होगा.

गोवा में खनिज उद्योग करीबन पांच दशक पुराना है और 2018 में मार्च में उस पर रोक लग गई थी जब सुप्रीम कोर्ट ने 88 लौह अयस्क खदानों के पट्टों का नवीकरण खारिज कर दिया था. गोवा विश्वविद्यालय के शोधार्थियों सिंथिया गोनकर और विष्णु मत्ता ने गोवा की नदियों और उसकी तली के पारितंत्र पर खनन के असर और जुआरी नदी की एस्चुअरी (जहां नदी समुद्र में मिलती है) पर धात्विक प्रदूषण के बारे में अध्ययन किया है.

यह अध्ययन रिसर्च जरनल इनवायर्नमेंट ऐंड अर्थ साइंसेज में छपा है और इसमें कहा गया है कि उत्तरी गोवा में रफ्तार से हुए खनन की वजह से प्रदूषण बढ़ा है. इस में गोवा की तीन नदियों बिचोलिम, मांडवी और तेरेखोल से नमूने लिए गए था.

अध्ययन के मुताबिक, बिचोलिम नदी में लौह और मैगनीज के साथ सीसे और क्रोमियम का भी प्रदूषण बडे पैमाने पर मौजदू है. इनमें से सीसा और क्रोमियम भारी धातु माना जाता है और इसके असर से कैंसर का खतरा होता है. जबकि मांडवी नदी में मैगनीज और सीसे का प्रदूषण है. तेरेखोल नदी (जो हाल तक प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त थी) में तांबे और क्रोमियम (यह भी खतरनाक है) जैसे धातुओं की भारी मात्रा मौजूद है.

गौरतलब है कि इन नदियों में बड़े पैमाने पर जहाजों के जरिए अयस्कों का परिवहन किया जाता है और इससे अयस्क नदी में गिरते रहते हैं. खुले खदानों से बारिश में घुलकर अयस्कों का मलबा भी आकर नदियों में जमा होता है. इससे नदियों की तली में गाद जमा होने गई है और इसने तली के पास रहने वाले या तली में रहने वाले जलीय जीवों का भारी नुक्सान किया है.

अध्ययन के मुताबिक, जुआरी नदी के पानी में ट्रेस मेटल्स (सूक्ष्म धातुओं) की मात्रा खनन के दिनों के मुकाबले खनन पर बंदिश के दौरान में काफी कम रही हैं. इससे साफ है कि यह प्रदूषण खनन की वजह से ही हो रहा है.

मांडवी पर गोवा के लोग उठ खड़े हुए हैं. सरकार भी सक्रिय हुई है और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने भी आदेश दे दिया है. कोशिश यही होनी चाहिए कि मांडवी का जल गाद में जकड़ न जाए और दूधसागर प्रपात का जल दूधिया ही रहे, गंदला लाल न हो जाए.

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Friday, November 22, 2019

अगर चुंबन निजी काम है तो हगना भी, दोनों खुलेआम कीजिए

यह पोस्ट चुंबन पर है. पर साथ ही पाखाने पर भी है. पर मुझे उम्मीद है आप पढ़ेंगे जरूर. आज दो ऐसी बातों पर लिखना चाहता हूं जो निजी मानी जाती हैं. एक है किस. जिसे आप अपनी सौंदर्यदृष्टि के मुताबिक चुंबन, पुच्ची, चुम्मा आदि नामों से अभिहीत कर सकते हैं. इसमें जब तक सामने वाले को पायरिया न हो, बू नहीं आती.

दूसरा निजी काम बदबूदार है. जिसकी बू आप क्या खाते हैं उस पर निर्भर करती है. वैसे यह निजी काम शुचिता से जुड़ा है पर इस विचार में कई पेच हैं. पर यह शरीर का ऐसा धर्म है जिसका इशारा भी सभ्य समाज में अटपटा माना जाता है. राजा हो या भिखारी, कपड़े खोलकर कोई इंसान जब मलत्याग करने बैठता है तो सभ्यता और सांस्कृतिक विकास की धारणाएं फीकी पड़ जाती हैं.

कम से कम हिंदी में मलत्याग के दैनिक कर्म के लिए सीधे शब्द नहीं है. पाखाना फारसी से आया है, जिसका अर्थ होता है पैर का घर. टट्टी आमफहम हिंदी शब्द है जिसका मतलब है कोई पर्दा या आड़ जो फसल की ठूंठ आदि से बना हो. खुले में शौच जाने को दिशा-मैदान जाना कहते हैं. कुछ लोग फरागत भी कहते हैं जो फारिग होने से बना है. आब को पेश करने से बना पेशाब तो फिर भी सीधा है पर लघु शंका और दीर्घ शंका जैसे शब्द अर्थ कम बताते हैं, संदेह अधिक पैदा करते हैं.

मलत्याग के लिए हगना और चिरकना जैसे शब्द भी हैं, मूलतः ये क्रिया रूप हैं और इनका उपयोग पढ़े-लिखे समाज में करना बुरा माना जाता है. इन शब्दों के साथ घृणा जुड़ी हुई है.

बहरहाल, सोचिएगा इस बात पर कि जिन सरकारी अफसरों और संभ्रांत लोगों को गरीबों की दूसरी समस्याओं से ज्यादा मतलब नहीं होता वे उनके शौचालय बनाने की इतनी चिंता क्यों करते हैं. क्या खुले में शौच जाना रुक जाए तो समाज स्वच्छ हो जाएगा?

छोड़िए, इसी के उलट हम बस इतना ही कहना चाहते हैं कि जिस देश में खजुराहो और कोणार्क की परंपरा रही है वहां किस ऑफ लव का विरोध क्यों? सहमत? चुंबन तो प्रेम का प्रतीक है न. पर खुले में चुंबन लेने से समाज में प्रेम का विस्तार होता है? अगर हां, इस प्रेम को खुलेआम अपने पिता और माता के सामने भी प्रकट करिए. अपनी बहन को भी वही करने की छूट दीजिए जो आप कर रहे हैं और अपने पिता और माती जी को भी. जली? खैर बुरा न मानिए. असल में, मसला दो सभ्यताओं के प्रतीकों का हैं. भारत के हिंदू हो या मुसलमान, जब तक हद दर्जे का और छंटा हुआ क्रांतिकारी न हो तब तक खुलेआम चुंबन को तरजीह नहीं देगा.

खुलेआम चुम्माचाटी को प्रेम का प्रतीक बताते हुए लोग कह रहे हैं कि 'किस' निजी चीज है. बिल्कुल. हम भी तो वही कह रहे हैं. किस निजी चीज है तो हगना भी निजी है. चुंबन के साथ-साथ सार्वजनिक स्थलों पर हगने की भी छूट क्रांतिकारियों को दी जाए.

(अगेन हगना शब्द पढ़े-लिखों को बुरा लग सकता है आप उस हर जगह पर मलत्याग पढ़ें जहां मैंने हगना लिखा है)

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Tuesday, November 19, 2019

मधुपुर मेरा मालगुड़ी है

जेहन में एक धुंधली सी तस्वीर उभरती है-जंगलों से घिरा गांव। वह गांव मधुपुर अभी भी काफी हरा है, पहले तो यहां घने जंगल थे। जंगल भी ऐसा कि सूरज की रोशनी भी छन कर ही आती। महुआ, सखुआ, शीशम, जामुन, कटहल और पीपल बरगद के घने पेड़। पास में बहती नदियां पतरो (पात्रो), अजय, जयंती और कितनी ही जोरिया। जंगल ही जंगल। कहीं-कहीं खेत, कुछ झोपड़ियां, कुछ खपरैल की, कुछ ताड़ के पत्तों से ढंकी, पुआल-माटी के बने मकान। 

मेरा वह मालगुड़ी अब एक कस्बा है बल्कि अपने कस्बाई खोल से शहरी ढांचे में बदलने के लिए छटपटा रहा है। लेकिन मेरे मधुपुर के लोगों को नहीं पता कि मेट्रोपॉलिस जीवन में जो संकीर्णता और भागमभाग होती है, वह बारबार पुराने दिनों की याद दिलाती है।

आज जंगल इतिहास हो गया और गांव जवान शहर। पर इस शहर के बसने, जंगलों के विनाश और एक नए भविष्य की नई इबारत के पीछे बरतानिया हुकूमत का षडयंत्र है। उन्हें दरअसल मधुपुर नहीं बसाना था। मधुपुर तो महज एक गांव था जैसे आज साप्तर है या फागो या कुर्मीडीह। पर अंग्रेज बहादुर जब सन 1855 और 1857 में संताल लड़ाकों और भारतीय फौजियों के विद्रोह से परेशान हो गए और हताशा फैलने लगी तब रेल ब्रिटिश हुकूमत का नया हथियार बन गई। 

ईस्ट इंडिया कंपनी की राजधानी कोलकाता से मुगलों की राजधानी दिल्ली तक रेल की पटरियां बिछने लगी। रेल की पटरियों को मधुपुर से गुजरना था, इसलिए वर्ष 1871 में मधुपुर के जंगल कटने लगे। धड़ाधड़ पेड़ काटे और गिराए जाने लगे और कोलकाता-आसनसोल-चित्तरंजन होते ट्रेन की पटरियां मधुपुर में भी बिछाई जाने लगी। 

अचानक एक गांव हरकत में आ गया। रेलवे कांट्रेक्टर नारायण कुण्डू ने मधुपुर में कैंप कर लिया। बाद में उन्होंने 1885 साल में एक अंग्रेज मि. मोनियर से एक रैयती मौजा ही खरीद लिया। फिर अमडीहा मौजा आदि खरीद कर वे जमींदार की हैसियत पा गए। उन्हीं के नाम पर आज भी मधुपुर में एक मुहल्ला ‘कुण्डू बंग्ला‘ के नाम से विख्यात है। एक बात यह भी है कि कुण्डू को पेट की कोई बीमारी थी, मधुपुर के पानी से उनकी बीमारी जाती रही और बंगाली बाबुओं में यहां बसने का क्रेज हो गया। अन्यथा 1855-1857 के इतिहास में मधुपुर कहीं नजर नहीं आता, जबकि 1857 के सैन्य विद्रोह में पड़ोस के गांव रोहिणी ने अपना नाम स्वर्णाक्षरों से अंकित करा लिया था।

मधुपुर का सौभाग्य है कि महात्मा गांधी मधुपुर पधारे और उन्होंने एक ‘राष्ट्रीय शाला ‘(नेशनल स्कूल), तिलक विद्यालय और नगरपालिका का उद्घाटन किया था। एक ज्ञान और राष्ट्रीयता का अलख जगाने वाले केंद्र और एक शहरी जीवन को सिस्टम देने वाला केंद्र। यह बड़ी बात थी। मैंने पांचवी से सातवीं यानी तीन साल की पढ़ाई उसी स्कूल में की है जिसे आज भी लोग गांधी स्कूल के नाम से जानते हैं। बापू उस दौरान आजादी की लड़ाई के साथ-साथ लोगों में स्वदेशी और खादी अर्थशास्त्र के प्रति भी जागरूकता फैला रहे थे। छात्रों में सूत कताई को लोकप्रिय बनाने के प्रति वे काफी संजीदा थे। 

बापू आठ अक्टूबर 1934 को पहली बार मधुपुर आए थे। उन्होंने नौ अक्टूबर 1934 को ऐतिहासिक तिलक कला विद्यालय के विषय में पत्र लिखा था। उसमें इस विद्यालय के बारे में जिक्र किया गया है। कहा गया है कि यहां पर राष्ट्रीय शाला का आयोजन किया गया था। वहीं प्रधानाध्यापक ने अभिनंदन पत्र के माध्यम से तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का जिक्र करते हुए विद्यालय की समस्याओं की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था। कहा गया था कि सूत कताई के कारण विद्यालय में लड़कों की उपस्थिति कम हो रही है। लोगों की तरफ से विद्यालय को कम आर्थिक सहायता मिल रही है। कुछ लोगों ने अपने बच्चों को सिर्फ इसलिए हटा लिया है क्योंकि कार्यशाला में सूत कताई का विषय अनिवार्य कर दिया गया है। इस अभिनंदन पत्र में इन मुश्किलों से बाहर निकलने का मार्ग बापू से पूछा गया था।

बापू का जवाब था कि यदि शिक्षकों को अपने कार्य में श्रद्धा है तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए। सभी संस्थाओं को भले-बुरे दिन देखने पड़ते हैं और यह स्वाभाविक ही है। दृढ़ विश्वास के बल पर भीषण तूफान का भी सामना किया जा सकता है। यदि शिक्षकों को पूर्ण विश्वास है कि वे पाठशाला के जरिए आसपास के लोगों को विकास का संदेश दे रहे हैं तो उन्हें बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए। कुछ ही दिनों में अभिभावकों से अनुकूल सहयोग मिलने लगेगा। लेकिन यदि उनके इस कार्य में वहां के लोगों का जल्दी सहयोग नहीं मिले तो उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है। पाठशाला में एक भी छात्र रहे तब भी उन्हें उसे चलाते रहना है क्योंकि शुरूआत में लोग नए विचार का विरोध जरूर करते हैं।

आजादी से पहले 1925 से 1942 तक तिलक विद्यालय मधुपुर के स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब अंग्रेजों ने कुछ प्रमुख सेनानियों को कैद करने की कोशिश की थी तो वे लोग भूमिगत हो गए और गुस्से में अंग्रेजों ने विद्यालय के पुस्तकालय को ही जला दिया। 1936 में डॉ राजेंद्र प्रसाद मधुपुर आए थे। यहां उनको आजादी के दीवानों से मुलाकात करनी थी। इसी स्कूल में राजेंद्र बाबू ने एक रात बिताई थी। पुआल का बिछौना लगा और पाकशाला में भोजन बना। बाद में प्रांतीय चुनावों (1937) के वक्त भी राजेंद्र बाबू मधुपुर आए थे।

गांधी जी ने तिलक विद्यालय से जाकर मधुपुर के कुदरती सौंदर्य और नगरपालिका पर जो कुछ लिखा, वह ‘संपूर्ण गांधी वांङमय‘, खंड- 28 (अगस्त-नवंबर 1925) में सुरक्षित है। उन्होंने कहा था, ‘‘हमलोग मधुपुर गए। वहां मुझे एक छोटे से सुंदर नए टाउन हाल का उद्घाटन करने को कहा गया था। मैंने उसका उद्घाटन करते हुए और नगरपालिका को उसका अपना मकान तैयार हो जाने पर मुबारकबाद देते हुए यह आशा व्यक्त की थी कि वह नगरपालिका मधुपुर को उसकी आबोहवा और उसके आसपास के कुदरती दृश्यों के अनुरूप ही एक सुंदर माहौल देगी। मुंबई व कलकत्ता जैसे बड़े शहरों में सुधार करने में बडी मुश्किलें पेश आती हैं, मगर मधुपुर जैसी छोटी जगहों में नगरपालिका की आमदनी बहुत ही थोड़ी होते हुए भी उन्हें अपनी सीमा में आने वाले क्षेत्र को साफ सुथरा रखने में मुश्किलों का सामना नहीं करना पडेगा।” लेकिन इधर मैंने सुना है कि मधुपुर के इस ऐतिहासिक तिलक विद्यालय में महात्मा गांधी और भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ी कई स्मृतियां उपेक्षा की वजह से नष्ट हो रही हैं।

1925 की तुलना में आज शहर, साधन और सुविधाएं काफी बदल गई है। जनसंख्या के दबाब और शहरीकरण की दिक्कतें भी बढ़ी हैं। नेता बदल गए हैं। आज का आक्रामक नेतृत्व क्या यह जानता भी है कि गांधी ने मधुपुर के बारे में क्या कहा था? नगरपालिका के कर्ताधर्ताओं ने कभी सोचा भी कि हमें महात्मा गांधी के मधुपुर के संदर्भ में कहे गए विचारों को न केवल वर्तमान ‘नगरपर्षद भवन’ में कहीं शिलालेख पर उत्कीर्ण कराना (लिखाना) चाहिए बल्कि उनके विचारों को समझने और अनुकरण करने का भी प्रयास करना चाहिए? उन्हें न तो समझ होगी, न फुरसत होगी। होती तो करा दिए होते।

मधुपुर में जितने चौक-चौराहे हैं, उन्हें मूर्तियों ने घेर लिया है। मधुपुर के बीच के चौक पर गांधी जी की मूर्ति है। इससे थोड़ा दक्षिण आज का जेपी चैक है। पहले आर्य समाज मंदिर की वजह से यह आर्य समाज चैक कहलाता था। यहां सन् 86 में जेपी की मूर्ति लगा दी गई-आवक्ष प्रतिमा। नीचे नारा भी लिखा है, संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है। नारा संगमरमर की पट्टिका पर शब्दों में दर्ज है बस। आम जनमानस में चैक अब भी आर्य समाज का ही है। 

इसके बाद थाना और थाने के आगे एक तिराहा। तिराहे के एक कोने पर लोहिया जी की मूर्ति है। यह भी आवक्ष, संगमरमर की। लोहिया की मूर्ति के नीचे एक और घोषणा, जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती। इस लिहाज से हमारी कौमें कब की मर चुकी है। हर पांच साल बाद अपनी जाति के लोगों को संसद, विधानसभा भेजकर अपने कलेजे पर दुहत्थड़ मार कर अरण्य रोदन करती रहती है। लोहिया की मूर्ति और विचार दोनों उपेक्षित हैं। वैसे, खुद लोहिया ने भी कहा था कि किसी नेता की मूर्ति उसके मरने के सौ साल बाद ही लगानी चाहिए। सौ साल में इतिहास उसकी प्रासंगिकता का मूल्यांकन खुद कर लेगा। बहरहाल, वह तिराहा अब भी थाना मोड़ ही है।

सड़क के साथ मुड़कर दक्षिण की ओर चलते चलें, तो आधा किलोमीटर बाद ग्लास फैक्ट्री मोड़ आता है। झारखंड आंदोलन के दौरान शहीद हुए आंदोलनकारी निर्मल वर्मा के नाम पर इस चौक पर एक पट्टिका लगा दी गई है। बदलते वक्त में ग्लास फैक्ट्री-जिसमें लैंप के शीशे से लेकर जार और मर्तबान बनते थे, ग्लासें बनतीं थी-बंद हो गई। लोग बड़े पैमाने पर बेरोजगार हो गए, लेकिन ग्लास फैक्ट्री से लोगों का मोह भंग नहीं हुआ। निर्मल वर्मा के नाम पर उस तिराहे को कोई नहीं जानता। वह मोड़ अब भी ग्लास फैक्ट्री मोड़ ही है।

पता नहीं कैसे एक चौराहा जहां भगत सिंह की मूर्ति है उसे भगत सिंह चौक कहा जाने लगा है। भगत सिंह बिरसा की तरह ही मधुपुर की अवाम के मन में बसे हैं। आर्य समाज चौक से दाहिनी तरफ सिनेमा हॉल है-सुमेर चित्र मंदिर। लेकिन उससे पहले एक कोने पर बंगालियों की संस्था तरुण समिति ने सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति लगा दी है। आदमकद प्रतिमा ललकारती-सी लगती है। लेकिन आज की पीढी के लिए बोस की प्रतिमा पर नजर देना भी वक्त की बरबादी लगने लगा है। उधर, आर्य समाज चौक पर ही एक बहुत बड़ा स्कूल है। उसके बोर्ड पर नजर गई तो अजीब लगा। पहले यानी जब हम छात्र रहे थे तब वह स्कूल एडवर्ड जॉर्ज हाई स्कूल था, अब उसे डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय कर दिया गया है। काश, नाम बदलने की बजाय सरकार स्कूल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर कोई पुस्तकालय शुरु कर देती।

जिस वक्त हम शहर छोड़ गए उस वक्त की यादों और आज के हालात में ज्यादा फर्क नहीं। विकास और तरक्की के नाम पर कुछ फैशनेबल दुकानों और मोबाईल टॉवरों के अलावा मधुपुर में कुछ नहीं जुड़ा। हरियाली कम हो गई है, पानी का संकट खड़ा होने लगा है। हमेशा ताजा पानी मुहैया कराने वाले कुएं सूख चले हैं। बढ़ते शहर में पेड़ों की जगह मकानों ने ले ली है। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर में तनाव फैला है, यह तनाव सांप्रदायिक नहीं है, जीवन-शैली का तनाव है। दुखी होने के लिए इतना काफी है।

Friday, November 8, 2019

नदीसूत्रः पूर्णिया की सरस्वती बनने को अभिशप्त है सौरा नदी

ब्रिटिश छाप लिए शहर पूर्णिया में एक नदी है, सौरा. यह नदी बेहद बीमार हो रही है. सूर्य पूजा से सांस्कृतिक संबंध रखने वाली नदी सौरा अब सूख चली है और लोगों ने इसके पेटे में घर और खेत बना लिए हैं. भू-माफिया की नजर इस नदी को खत्म कर रही है और अब नदी में शहर का कचरा डाला जा रहा है.

पूर्णिया की सौरा नदी की एक धारा. फोटोः पुष्यमित्र

देश में नदियों के सूखने या मृतप्राय होते जाने पर खबर नहीं बनती. चुनावी घोषणापत्रों में अमूमन इनका जिक्र नहीं होता. बिहार को जल संसाधन में संपन्न माना जाता है और अतिवृष्टि ने बाजदफा लोगों को दिक् भी किया है. इस बार तो राज्य के उप-मुख्यमंत्री भी बेघर हो गए थे.

पर इसके बरअक्स एक कड़वी सचाई यह भी है कि एक समय में बिहार में लगभग 600 नदियों की धाराएं बहती थीं, लेकिन अब इनमें से अधिकतर या तो सूख चुकी हैं और अपना अस्तित्व खोने के कगार पर पहुंच चुकी हैं. नदी विशेषज्ञों का कहना है कि नदी की इन धाराओं की वजह से न केवल क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया था, बल्कि इससे क्षेत्र का भूजल भी रिचार्ज होता था, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि सिर्फ बिहार में ही लगभग 100 नदियां, जिनमें लखंदी, नून, बलान, कादने, सकरी, तिलैया, धाधर, छोटी बागमती, सौरा, फालगू आदि शामिल हैं, खत्म होने की कगार पर हैं.

पिछले नदीसूत्र में हमने सरस्वती का जिक्र किया था और आज आपको बता रहे हैं भविष्य की सरस्वती बनकर विलुप्त होने को अभिशप्त नदी सौरा का.

बिहार के भी पूरब में बसा है खूबसूरत शहर पूर्णिया, जो अब उतना खूबसूरत नहीं रहा. ब्रिटिश काल की छाप लिए इस शहर में एक नदी सौरा बहती थी. नदी बहती तो अब भी है, पर बीमार हो रही है. बहुत बीमार.

पूर्णिया में नदियों को बचाने के लिए अभियान चलाने वाले अखिलेश चंद्रा के मुताबिक, यह नदी लंदन की टेम्स की तरह थी, जो पूर्णिया शहर के बीचों-बीच से गुजरती थी, अब पूरी तरह सूख चुकी है और यहां अब शहर का कचरा डाला जा रहा है.

अखिलेश अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं, कभी 'पुरैनियां' में एक सौम्य नदी बहती थी सौरा. कोसी की तरह इसकी केशराशि सामान्य दिनों में छितराती नहीं थी. जो 'जट' कभी अपनी 'जटिन' को मंगटिक्का देने का वादा कर 'पू-भर पुरैनियां' आते थे, उन्हें यह कमला नदी की तरह दिखती थी. जटिन जब अपनी कोख बचाने के लिए खुद पुरैनियां आती थी, तो गुहार लगाती थी, "हे सौरा माय, कनी हौले बहो...ननकिरबा बेमार छै...जट से भेंट के बेगरता छै...(हे सौरा माई, आहिस्ते बहिए. बच्चा बीमार है. जट से मुलाकात की सख्त जरूरत है)

...और दुख से कातर हो सौरा नदी शांत हो जाती थी.

अपने लेख में अखिलेश सौरा को 'जब्बर नदी' कहते हैं. जब्बर ऐसी कि कभी सूखती ही नहीं थी. पर बदलते वक्त ने, बदलती जरूरतों, इनसानी लालच और आदतों ने इसे दुबला बना दिया है. नदी का दाना-पानी बंद हो गया है. लोग सांस थामे इसे मरते देख रहे हैं. अखिलेश लिखते हैं, हमारी मजबूरी ऐसी है कि हम शोकगीत भी नहीं गा सकते!

असल में, बदलते भारत की एक विडंबना यह भी है कि हमने जिन भी प्रतीकों को मां का दर्जा दिया है, उन सबकी दुर्गति हो गई है. चाहे घर की बूढ़ी मां हो या गंगा, गाय और हां, पूर्णिया की सौरा नदी भी. इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि हमें जिन प्रतीकों की दुर्गति करनी होती है, उसे हम मां का दर्जा दे देते हैं.

चंद्रा लिखते हैं कि पूर्णिया शहर को दो हिस्सों में बांटने वाली सौरा नदी को सौर्य संस्कृति की संवाहक है. पर पिछले कुछ वर्षों से इस पर जमीन के कारोबारियों की काली नजर लग गई. नतीजतन, अनवरत कल-कल बहने वाली नदी की जगह पर कंक्रीट के जंगल फैल गए हैं.

एक समय था जब सौरा नदी में आकर पूर्णिया और आसपास के इलाकों में सैकड़ों धाराएं मिलती थीं और इसकी प्रवाह को ताकत देती थीं, लेकिन अब ऐसी धाराएं गिनती की रह गई हैं. इन धाराओं के पेटे में जगह-जगह पक्के के मकान खड़े कर दिए गए. नतीजतन सौरा की चौड़ाई कम होती जा रही है.

हालांकि सौरा बेहद सौम्य-सी दिखने वाली नदी है, पर इसका बहुत सांस्कृतिक महत्व है. इसके नामकरण को लेकर अब भी शोध किये जा रहे हैं. लेकिन, यह माना जाता है कि सूर्य से सौर्य और सौर्य से सौरा हुआ, जिसका तारतम्य जिले के पूर्वी अंतिम हिस्से से सटे सुरजापुर परगना से जुड़ा रहा है.

पूर्णिया-किशनगंज के बीच एक कस्बा है सुरजापुर, जो परगना के रूप में जाना जाता है. बायसी-अमौर के इलाके को छूता हुआ इसका हिस्सा अररिया सीमा में प्रवेश करता है. यह इलाका महाभारतकालीन माना जाता है, जहां विशाल सूर्य मंदिर का जिक्र आया है. पुरातत्व विभाग की एक रिपोर्ट में भी सौर्य संस्कृति के इतिहास की पुष्टि है. वैसे यही वह नदी है, जहां आज भी छठ महापर्व के मौके पर अर्घ देने वालों का बड़ा जमघट लगता है.

अररिया जिले के गिधवास के समीप से सौरा नदी अपना आकार लेना शुरू करती है. वहां से पतली-सी धारा के आकार में वह निकलती है और करीब 10 किलोमीटर तक उसी रूप में चलती है. श्रीनगर-जलालगढ़ का चिरकुटीघाट, बनैली-गढ़बनैली का धनखनिया घाट और कसबा-पूर्णिया का गेरुआ घाट होते हुए सौरा जब बाहर निकलती है, तो इसका आकार व्यापक हो जाता है और पूर्णिया के कप्तानपुल आते-आते इसका बड़ा स्वरूप दिखने लगता है.

यह नदी आगे जाकर कोसी में मिल जाती है. एक समय था, जब सौरा इस इलाके में सिंचाई का सशक्त माध्यम थी. मगर, बदलते दौर में न केवल इसके अस्तित्व पर संकट दिख रहा है, बल्कि इसकी महत्ता भी विलुप्त होती जा रही है.

नदी के आसपास के हिस्से पर आज कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं. पूर्णिया में सौरा नदी के पानी के सभी लिंक चैनल बंद हो गए. अंग्रेजों के समय सौरा नदी का पानी निकलने के लिए लाइन बाजार चौक से कप्तान पुल के बीच चार पुल बनाए गए थे. ऊपर से वाहन और नीचे से बरसात के समय सौरा का अतिरिक्त पानी निकलता चला जाता था. आज पुल यथावत है, पर उसके नीचे जहां नदी की धारा बहती थी, वहां इमारतें खड़ी हैं. इधर मूल नदी का आकार भी काफी छोटा हो गया है. नदी के किनारे से शहर सट गया है.

हालांकि सोशल मीडिया पर अब पूर्णियावासी सौरा को बचाने के लिए सक्रिय हो गए हैं. फेसबुक पर सौरा नदी बचाओ अभियान नाम का एक पेज बनाया गया है और पूर्णिया शहर के नाम पर बने पेज पर भी लगातार सौरा के बारे में लिखा जा रहा है. स्थानीय अखबारों की मदद से सौरा से जुड़े अभियानों पर लगातार लिखा जा रहा है और जागरूकता भी फैलाई जा रही है. पर असली मसला तो भू-माफिया के चंगुल से सौरा को निकालना है. और उससे भी अधिक बड़ा दोष तो एक इंच और जमीन कब्जा कर लेने की हम सबकी बुनियादी लालची प्रवृत्ति की तरफ जाता है.

सौरा को संजीवनी देनेवाली धाराओं के मुंह बंद किए जा रहे हैं. ऐसे में लग तो यही रहा है कि अगली पीढ़ी सौरा को 'सरस्वती' के रूप में याद करेगी और उसके अस्तित्व की तलाश करेगी. दुख है कि पूर्णिया की सौरा नदी अगली सरस्वती बन रही है.

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Wednesday, November 6, 2019

सिनेमाई नाटकीयता से भरपूर है कुशल सिंह की किताब लौंडे शेर होते हैं

किताबों और कहानियों के शीर्षक इन दिनों ऐसे हैं कि आप सहज ही आकर्षित होकर किताबों की विंडो शॉपिंग के लिए तैयार हो जाएं. ऐसा लगता है कि हल्की हिंदी पढ़ने के शौकीन नौजवानों के लिए ही यह उपन्यासिका 'लौंडे शेर होते हैं' कुशल सिंह ने लिखी है. 


आप चाहे लाख हिंदी साहित्य का मर्सिया पढ़ दें, पर जिस तरह से किताबें बड़ी संख्या में प्रकाशित हो रही हैं और उनको एक हद तक पाठक भी मिल रहे हैं उससे लगता है कि मौजूदा दौर हिंदी किताबों के प्रकाशन और मार्केटिंग के लिहाज से स्वर्ण युग न भी हो, रजत युग तो जरूर है.

इसी कड़ी में लेखक कुशल सिंह की उपन्यासिका है, लौंडे शेर होते हैं. किताबों और कहानियों के शीर्षक इन दिनों ऐसे हैं कि आप सहज ही आकर्षित होकर किताबों की विंडो शॉपिंग के लिए तैयार हो जाएं. ऐसा लगता है कि हल्की हिंदी पढ़ने के शौकीन नौजवानों के लिए ही यह उपन्यासिका कुशल सिंह ने लिखी है. 

कुशल सिंह की उपन्यासिका लौंडे शेर होते हैं. फोटोः मंजीत ठाकुर


कुशल सिंह मूलतः इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के हैं और स्नातक स्तर पर इन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. कुशल सिंह की साम्यता सिर्फ इंजीनियरिंग तक ही चेतन भगत के साथ नहीं है, इसके बाद उनने प्रबंधन में परा-स्नातक यानी एमबीए भी किया है. हैरत नहीं कि कोल इंडिया में मार्केटिंग में नौकरी करने वाले कुशल सिंह ने बड़ी कुशलता से, किताब का शीर्षक रखने से लेकर, किताब का कंटेंट तय करने तक बाजार का खास खयाल रखा है. और यहां भी चेतन भगत के साथ उनकी खास साम्यता बरकरार रखती है.

असल में, इस दौर में, जब हिंदी साहित्य में कई नवतुरिए हिंदी का चेतन भगत बनने की जुगत में हैं, कुशल सिंह भी इस कुरसी के लिए मजबूत दावा पेश करते हैं. खासकर, जिस हिसाब उनकी यह किताब बिक रही है उससे तो यही लगता है.

इस उपन्यासिका की प्रस्तावना में कुशल सिंह साफ करते हैं, जो कि हालिया चलन के एकदम करीब भी है, कि इस उपन्यासिका में वर्णित कहानियों में कोई साहित्य नहीं है. यह विनम्रता है या पाठकों के लिए चेतावनी, यह तो कुशल खुद ही बता पाएंगे. पर वह अगली पंक्ति में यह भी साफ करते हैं कि इस उपन्यासिका में कोई विचार-विमर्श भी नहीं है. इसका एक अर्थ यह भी पकड़िए कि पढ़ते वक्त आपको खालिस किस्से ही पेश किए जाएंगे.

वे लिखते हैं, दुनिया में वैसे ही बहुत ग़म हैं, इसलिए मैंने आपके लिए हंसी के हल्के-फुल्के पल बुने हैं. प्रस्तावना इस बात और उम्मीद के साथ खत्म होती है कि शायद पाठकों के अंदर लौंडाई बची रही होगी.

किताब का ब्लर्ब कहता हैः क्या होगा जब कैरियर की चिंता में घुलते हुए लड़के प्रेम की पगडंडियों पर फिसलने लग जाएँ? क्या होगा जब डर के बावजूद वो भानगढ़ के किले में रात गुजारने जाएँ? क्या होगा जब एक अनप्लांड रोड ट्रिप एक डिजास्टर बन जाए? क्या होगा जब लड़कपन क्रिमिनल्स के हत्थे चढ़ जाए?

‘लौंडे शेर होते हैं’ ऐसे पांच दोस्तों की कहानी है जो कूल ड्यूड नहीं बल्कि सख्त लौंडे हैं. ये उन लोगों की कहानी है जो क्लास से लेकर जिंदगी की हर बेंच पर पीछे ही बैठ पाते हैं. ये उनके प्रेम की नहीं, उनके स्ट्रगल की नहीं, उनके उन एडवेंचर्स की दास्तान है जिनमें वे न चाहते हुए भी अक्सर उलझ जाते हैं. ये किताब आपको आपके लौंडाई के दिनों की याद दिलाएगी. इसका हर पन्ना आपको गुदगुदाते हुए, चिकोटी काटते हुए एक मजेदार जर्नी पर ले जाएगा.

सवाल यही है कि पांच सख्त लौंडो (यह शब्द आजकल काफी चलन में है, खासकर स्टैंडअप कॉमिडियन जाकिर खान के वीडियो पॉपुलर होने के बाद से) की इस कहानी में किस्सागोई कितनी है और उनके लड़कपन की कहानियों से आप खुद को कितना कनेक्ट कर पाते हैं.

ट्रेन में सफर करते वक्त समय काटने के लिहाज से अगर आप यह किताब पढ़ेंगे तो समय ठीक बीतेगा. लेकिन सावधान, इसमें साहित्य के मोती न खोजिएगा. बाज़दफा, इस उपन्यासिका में कहानी बी ग्रेड की फिल्मों सरीखी हो जाती है और इसका अंत भी उतना ही अति नाटकीय है. ऐसा लगता है कि लेखक कहानी को बस खत्म करने की फिराक में है.

पर कुशल सिंह ने शुरुआत की है तो हिंदी जगत में उनका स्वागत होना चाहिए. यह उनकी पहली किताब है. दिलचस्प होगा यह देखना कि अपनी अगली किताब में कुशल सिंह अपने सिनेमाई ड्रामे को अधिक मांजकर पेश करते हैं या फिर साहित्य में लेखकीय कौशल हासिल करने की कोशिश करते हैं.

किताबः लौंडे शेर होते हैं (उपन्यास)
लेखकः कुशल सिंह
प्रकाशनः हिंद युग्म
कीमतः 150 रु.

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Tuesday, October 29, 2019

चिरकुट दास चिन्गारीः नई हिंदी के अलहदा तेवर

वसीम अकरम का यह उपन्यास नई हिंदी को नए तेवर दे रही है. इसमें देशज शब्दों का धुआंधार और सटीक इस्तेमाल है जो नई हिंदी की बाकी बिरादरी से इस किताब को अलहदा जगह और ऊंचाई पर खड़ी करती है.

हम सबमें, कम से कम हिंदी पट्टी वालों के भीतर एक गांव जिंदा है. शहरी जिंदगी के भागमभाग में अगर हम सबसे अधिक कुछ छूटता और फिसलता-सा महसूस करते हैं तो वह है हमारा गांव, जिसे हम आगे बढ़ने के लिए कहीं पीछे छोड़ आए थे. पर, हम अपने गांव को अब भी वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा हमने छोड़ा था. शहर में हम गांव को 'मिस' करते हैं और गांव जाकर जब उसको बदलता हुआ और शहरी ढब का होता हुआ देखते हैं तो फिर एक नई कसक लेकर लौटते हैं. वसीम अकरम के उपन्यास 'चिरकुट दास चिन्गारी' को पढ़ना इसी कसक को किताब की शक्ल में देखने सरीखा है. 
वसीम अकरम की किताब चिरकुट दास चिन्गारी. फोटोः मंजीत ठाकुर 
वसीम अकरम पेशे से पत्रकार हैं और मिजाज से लेखक, ऐसे में पत्रकारीय नजर और लेखकीय मुलायमियत के साथ उन्होंने जो उपन्यास लिखा है, वह आपको अंदर तक छूता है. मुझे यह कहने में गुरेज़ नहीं है कि 'चिरकुट दास चिन्गारी' पढ़ते समय मुझे यह कई दफा लगा कि उपन्यासकार डॉ. राही मासूम रजा के 'आधा गांव' के असर में है.

अकरम के उपन्यास में हर किरदार जिंदा नजर आता है. परिदृश्य सिरजने में, गांव की तस्वीर पन्नों पर उकेरने में अकरम सिनेमा देखने जैसा अनुभव देते हैं. इसमें कुछ गजब भी नहीं क्योंकि अकरम खुद फिल्मकार भी हैं. ऐसे में, आपको लगता है कि पन्नों पर लिखे अल्फाजों से माटी की खुशबू आ रही हो.

किरदार रचने में संवादों की गंवई शैली एकदम वैसी ही है, जैसे पात्र आपस में बोलते होंगे. असल में एक किरदार रचने के बाद हम उसे कॉलर पकड़कर नहीं चला सकते. किरदारों के नाम भी वैसे ही हैं, जैसे गांवों में होते हैं. मंगरुआ, अंड़वा, टंड़वा...आपको सब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों के लोगों के नामों जैसे लगेंगे. और उनके मुंह से गालियों की बौछार, उनके अपने देशी तकियाकलामों के साथ. थोड़ी देर तक यह उपन्यास आपको इमली को गुड़ की भेली के साथ खाने का मजा देगा.

अपने लेखकीय में अकरम पहले ही आगाह करते हैं कि उपन्यास में भाषा के भदेस होने के साथ कुछ गालियां हैं, निवेदन है कि गालियों को वहां से हटाकर न पढ़ें नहीं तो उपन्यास की ज़बान कड़वी हो जाएगी. और फिर आप मानसिक रूप से घटिया गालियों के लिए तैयार हो जाते हैं. पर पन्नों में गालियां कब आती हैं, और आप संवादों के साथ उसको हजम कर जाते हैं, आपको पता भी नहीं चलता. इतने स्वाभाविक ढंग से गालियों को निकाल ले जाना, यह अकरम की कला है.

उपन्यास ‘चिरकुट दास चिन्गारी’ की भाषा बहुत ही सरल-सहज और गंवई शब्दावलियों से भरी हुई है. यही नहीं, वसीम अकरम ने कुछ ऐसे नए शब्द-शब्दावलियों के साथ कई मुहावरे भी रच डाले हैं. ‘सालियाना मुस्कान’, ‘यदि मान ल कि जदि’, ‘नवलंठ’, ‘पहेंटा-चहेटी’, ‘चिरिक दें कि पलपल दें’, ‘चुतरचहेंट’, ‘रामरस’, ‘परदाफ्फास’, ‘बलिस्टर’, ‘लतुम्मा एक्सप्रेस’, ‘फिगरायमान’, ‘इक्स’, ‘लौंडियास्टिक’, ‘गलती पर सिंघिया मांगुर हो जाना’, ‘कान्फीओवरडेंस’, ये सारे अल्फाज आपको गांवों की सैर पर लिए चलते हैं.

लेकिन, दिक्कत यह है कि उपन्यास में कोई एक केंद्रीय कथा नहीं है. एक गांव है जिसमें कई सारी जगहों पर कई कहानियां होती हैं, घटनाएं होती हैं. आप इससे थोड़ा विचलित हो सकते हैं. आखिर, कथा तत्व में खासकर उपन्यास में एक केंद्रीय पात्र और उसके आसपास सहायक पात्र होने चाहिए. कथा में केंद्रीय रूप से कॉन्फ्लिक्ट की कमी खलती है.

आंचलिकता भरी भाषा के लिए संवादों में आंचलिकता का प्रयोग दाल में हींग के छौंक की तरह होती है लेकिन अगर ज्यादा हींग में कम दाल डालें तो क्या उससे जायका आएगा? शुरु के पन्नों में अकरम अपने ही गढ़े कुछ शब्दों पर रीझे हुए लगते हैं और, मिसाल के तौर पर 'नवलंठ', उनका बारंबार इस्तेमाल करते हैं. इससे पाठक थोड़ा चिढ़ सकता है. दूसरी बात, कथाक्रम में संवादों के अलावा जब भी जरूरत से अधिक भदेस शब्दों का इस्तेमाल होता है वह भोजपुरी से अनजान या कम परिचित पाठकों के लिए बोझिल भी हो सकता है.

लेकिन, अकरम की यह किताब रोमन में अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल वाली आजकल की नई हिंदी को नए तेवर दे रही है. नए तेवर इस अर्थ में कि इसमें देशज शब्दों का धुआंधार इस्तेमाल है जो नई हिंदी के बाकी बिरादरी से इस उपन्यास को अलहदा जगह और ऊंचाई पर खड़ी करती है. अब इंतजार अकरम की अगली किताब का होगा कि आखिर वह अपनी इस भाषा की चमक अपने अगले उपन्यास में बरकरार रखते हैं या नहीं.

किताबः चिरकुट दास चिन्गारी (उपन्यास)
लेखकः वसीम अकरम
प्रकाशकः हिंद युग्म प्रकाशन, दिल्ली
कीमतः 125 रुपये (पेपरबैक)

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Friday, October 25, 2019

नदीसूत्रः कहीं पाताल से भी न सूख जाए सरस्वती

अभी हाल में केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने प्रयागराज के पास गंगा और यमुना को जोड़ने वाली एक भूमिगत नदी की खोज की है. इससे पहले हरियाणा, राजस्थान में भी सरस्वती नदी के जल के भूमिगत जलस्रोत के रूप में जमा होने की खोज की गई थी. पर, जिस तरह से भूमिगत जल का अबाध दोहन हरियाणा में हो रहा है उससे डर है कहीं पाताल में बैठी सरस्वती भी न सूख जाए. 


हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे हैं और लग रहा है जैसे कि कांग्रेस के सूखते जनाधार में निर्मल जल का एक सोता फूटकर उसे फिर से जीवित कर गया हो. हरियाणा ही संभवतया सरस्वती की भूमि भी रही है. हरियाणा का नाम लेते ही कुरुक्षेत्र और सरस्वती नदी, ये दो नाम तो जेह्न में आते ही हैं. तो आज के नदीसूत्र में बात उसी सरस्वती नदी की, जिसके बारे में मान्यता है कि वह गुप्त रूप से प्रयागराज में संगम में शामिल होती है. वही नदी जो वैदिक काल में बेहद महत्वपूर्ण हुआ करती थी.

वैसे, खबर यह भी है कि केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने प्रयागराज में एक ऐसी सूखी नदी का भी पता लगाया है जो गंगा और यमुना को जोड़ती है. राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के मुताबिक, इस खोज का मकसद था कि एक संभावित भूमिगत जल के रिचार्ज स्रोत का पता लगाया जाए.

इस प्राचीन नदी के बारे में मंत्रालय ने बताया कि यह 4 किमी चौड़ी और 45 किमी लंबी है और इसकी जमीन के अंदर 15 मोटी परत मौजूद है. पिछले साल दिसंबर में इस नदी की खोज में सीएसआइआर-एनजीआरआइ (नेशनल जियोफिजिक्स रिसर्च इंस्टिट्यूट) और केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड ने एक जियोफिजिकल हवाई सर्वे के दौरान किया.

बहरहाल, अगर यह सरस्वती है तो वह कौन सी सरस्वती है जिसको हरियाणा और राजस्थान में खोजने की कोशिश की गई थी? क्या सरस्वती ने भारतीय उपमहाद्वीप के विवर्तनिक प्लेट की हलचलों की वजह से अपना रास्ता बदल लिया? वह नदी कहां लुप्त हो गई?

आज से करीब 120 साल पहले 1893 में यही सवाल एक अंग्रेज इंजीनियर सी.एफ. ओल्डहैम के जेहन में भी उभरा था, जब वे इस नदी की सूखी घाटी यानी घग्घर के इलाके से होकर गुजरे थे. तब ओल्डहैम ने पहली परिकल्पना दी कि हो न हो, यह प्राचीन विशाल नदी सरस्वती की घाटी है, जिसमें सतलुज नदी का पानी मिलता था. और जिसे ऋषि-मुनियों ने ऋग्वेद (ऋचा 2.41.16) में ''अम्बी तमे, नदी तमे, देवी तमे सरस्वती” अर्थात् सबसे बड़ी मां, सबसे बड़ी नदी, सबसे बड़ी देवी कहकर पुकारा है.

ऋग्वेद में इस भूभाग के वर्णन में पश्चिम में सिंधु और पूर्व में सरस्वती नदी के बीच पांच नदियों झेलम, चिनाब, सतलुज, रावी और व्यास की उपस्थिति का जिक्र है. ऋग्वेद (ऋचा 7.36.6) में सरस्वती को सिंधु और अन्य नदियों की मां बताया गया है. इस नदी के लुप्त होने को लेकर ओल्डहैम ने कहा था कि कुदरत ने करवट बदली और सतलुज के पानी ने सिंधु नदी का रुख कर लिया. हालांकि उसके बाद सरस्वती के स्वरूप को लेकर एक-दूसरे को काटती हुई कई परिकल्पनाएं सामने आईं.

1990 के दशक में मिले सैटेलाइट चित्रों से पहली बार उस नदी का मोटा खाका दुनिया के सामने आया. इन नक्शों में करीब 20 किमी चौड़ाई में हिमालय से अरब सागर तक जमीन के अंदर नदी घाटी जैसी आकृति दिखाई देती है.

अब सवाल है कि कोई नदी इतनी चौड़ाई में तो नहीं बह सकती, तो आखिर उस नदी का सटीक रास्ता और आकार क्या था? इन सवालों के जवाब ढूंढऩे के लिए 2011 के अंत में आइआइटी कानपुर के साथ बीएचयू और लंदन के इंपीरियल कॉलेज के विशेषज्ञों ने शोध शुरू किया.

इंडिया टुडे में ही छपी खबर के मुताबिक, 2012 के अंत में टीम का 'इंटरनेशनल यूनियन ऑफ क्वाटरनरी रिसर्च’ के जर्नल क्वाटरनरी जर्नल में एक शोधपत्र छपा. इसका शीर्षक था: जिओ इलेक्ट्रिक रेसिस्टिविटी एविडेंस फॉर सबसरफेस पेलिओचैनल सिस्टम्स एडजासेंट टु हड़प्पन साइट्स इन नॉर्थवेस्ट इंडिया. इसमें दावा किया गया: ''यह अध्ययन पहली बार घग्घर-हाकरा नदियों के भूमिगत जलतंत्र का भू-भौतिकीय (जिओफिजिकल) साक्ष्य प्रस्तुत करता है.” यह शोधपत्र योजना के पहले चरण के पूरा होने के बाद सामने आया और साक्ष्यों की तलाश में अभी यह लुप्त सरस्वती की घाटी में पश्चिम की ओर बढ़ता जाएगा.

पहले साक्ष्य ने तो उस परिकल्पना पर मुहर लगा दी कि सरस्वती नदी घग्घर की तरह हिमालय की तलहटी की जगह सिंधु और सतलुज जैसी नदियों के उद्गम स्थल यानी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. अध्ययन की शुरुआत घग्घर नदी की वर्तमान धारा से कहीं दूर सरहिंद गांव से हुई और पहले नतीजे ही चौंकाने वाले आए. सरहिंद में जमीन के काफी नीचे साफ पानी से भरी रेत की 40 से 50 मीटर मोटी परत सामने आई. यह घाटी जमीन के भीतर 20 किमी में फैली है.

इसके बीच में पानी की मात्रा किनारों की तुलना में कहीं अधिक है. खास बात यह है कि सरहिंद में सतह पर ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता जिससे अंदाजा लग सके कि जमीन के नीचे इतनी बड़ी नदी घाटी मौजूद है. बल्कि यहां तो जमीन के ठीक नीचे बहुत सख्त सतह है. पानी की इतनी बड़ी मात्रा सहायक नदी में नहीं बल्कि मुख्य नदी में हो सकती है. शोधकर्ताओं ने तब इंडिया टुडे का बताया कि यहां निकले कंकड़ों की फिंगर प्रिंटिंग से यह लगता है कि यह नदी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. कोई 1,000 किमी. की यात्रा कर अरब सागर में गिरती थी. इसके बहाव की तुलना वर्तमान में गंगा नदी से की जा सकती है.

सरहिंद के इस साक्ष्य ने सरस्वती की घग्घर से इतर स्वतंत्र मौजूदगी पर मुहर लगा दी. यानी सतलुज और सरस्वती के रिश्ते की जो बात ओल्डहैम ने 120 साल पहले सोची थी, भू-भौतिकीय साक्ष्य उस पर पहली बार मुहर लगा रहे थे.

तो फिर ये नदियां अलग कैसे हो गईं? समय के साथ सरस्वती नदी को पानी देने वाले ग्लेशियर सूख गए. इन हालात में या तो नदी का बहाव खत्म हो गया या फिर सिंधु, सतलुज और यमुना जैसी बाद की नदियों ने इस नदी के बहाव क्षेत्र पर कब्जा कर लिया. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सरस्वती नदी का पानी पूर्व दिशा की ओर और सतलुज नदी का पानी पश्चिम दिशा की ओर खिसकता चला गया. बाद की सभ्यताएं गंगा और उसकी सहायक नदी यमुना (पूर्ववर्ती चंबल) के तटों पर विकसित हुईं. पहले यमुना नदी नहीं थी और चंबल नदी ही बहा करती थी. लेकिन उठापटक के दौर में हिमाचल प्रदेश में पोंटा साहिब के पास नई नदी यमुना ने सरस्वती के जल स्रोत पर कब्जा कर लिया और आगे जाकर इसमें चंबल भी मिल गई.

यानी सरस्वती की सहायक नदी सतलुज उसका साथ छोड़कर पश्चिम में खिसककर सिंधु में मिल गर्ई और पूर्व में सरस्वती और चंबल की घाटी में यमुना का उदय हो गया. ऐसे में इस बात को बल मिलता है कि भले ही प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम का कोई भूभौतिकीय साक्ष्य न मिलता हो लेकिन यमुना के सरस्वती के जलमार्ग पर कब्जे का प्रमाण इन नदियों के अलग तरह के रिश्ते की ओर इशारा करता है. उधर, जिन मूल रास्तों से होकर सरस्वती बहा करती थी, उसके बीच में थार का मरुस्थल आ गया. लेकिन इस नदी के पुराने रूप का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के श्लोक (7.36.6) में कहा गया है, ''हे सातवीं नदी सरस्वती, जो सिंधु और अन्य नदियों की माता है और भूमि को उपजाऊ बनाती है, हमें एक साथ प्रचुर अन्न दो और अपने पानी से सिंचित करो.”

आइआइटी कानपुर के साउंड रेसिस्टिविटी पर आधारित आंकड़े बताते हैं कि कालीबंगा और मुनक गांव के पास जमीन के नीचे साफ पानी से भरी नदी घाटी की जटिल संरचना मौजूद है. इन दोनों जगहों पर किए गए अध्ययन में पता चला कि जमीन के भीतर 12 किमी से अधिक चौड़ी और 30 मीटर मोटी मीठे पानी से भरी रेत की तह है. जबकि मौजूदा घग्घर नदी की चौड़ाई महज 500 मीटर और गहराई पांच मीटर ही है. जमीन के भीतर मौजूद मीठे पानी से भरी रेत एक जटिल संरचना दिखाती है, जिसमें बहुत-सी अलग-अलग धाराएं एक बड़ी नदी में मिलती दिखती हैं.

यह जटिल संरचना ऐसी नदी को दिखाती है जो आज से कहीं अधिक बारिश और पानी की मौजूदगी वाले कालखंड में अस्तित्व में थी या फिर नदियों के पानी का विभाजन होने के कारण अब कहीं और बहती है. अध्ययन आगे बताता है कि इस मीठे पानी से भरी रेत से ऊपर कीचड़ से भरी रेत की परत है. इस परत की मोटाई करीब 10 मीटर है. गाद से भरी यह परत उस दौर की ओर इशारा करती है, जब नदी का पानी सूख गया और उसके ऊपर कीचड़ की परत जमती चली गई. ये दो परतें इस बात का प्रमाण हैं कि प्राचीन नदी बड़े आकार में बहती थी और बाद में सूख गई. और इन दोनों घटनाओं के कहीं बहुत बाद घग्घर जैसी बरसाती नदी वजूद में आई.

सैटेलाइट इमेज दिखाती है कि सरस्वती की घाटी हरियाणा में कुरुक्षेत्र, कैथल, फतेहाबाद, सिरसा, अनूपगढ़, राजस्थान में श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, थार का मरुस्थल और फिर गुजरात में खंभात की खाड़ी तक जाती थी. राजस्थान के जैसलमेर जिले में बहुत से ऐसे बोरवेल हैं, जिनसे कई साल से अपने आप पानी निकल रहा है. ये बोरवेल 1998 में मिशन सरस्वती योजना के तहत भूमिगत नदी का पता लगाने के लिए खोदे गए थे. इस दौरान केंद्रीय भूजल बोर्ड ने किशनगढ़ से लेकर घोटारू तक 80 किमी के क्षेत्र में 9 नलकूप और राजस्थान भूजल विभाग ने 8 नलकूप खुदवाए. रेगिस्तान में निकलता पानी लोगों के लिए आश्चर्य से कम नहीं है. नलकूपों से निकले पानी को भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने 3,000 से 4,000 साल पुराना माना था. यानी आने वाले दिनों में कुछ और रोमांचक जानकारियां मिल सकती हैं.

वैज्ञानिक साक्ष्य और उनके इर्द-गिर्द घूमते ऐतिहासिक, पुरातात्विक और भौगोलिक तथ्य पाताल में लुप्त सरस्वती की गवाही दे रहे हैं. हालांकि विज्ञान आस्था से एक बात में सहमत नहीं है और इस असहमति के बहुत गंभीर मायने भी हैं. मान्यता है कि सरस्वती लुप्त होकर जमीन के अंदर बह रही है, जबकि आइआइटी का शोध कहता है कि नदी बह नहीं रही है, बल्कि उसकी भूमिगत घाटी में जल का बड़ा भंडार है.

अगर लुप्त नदी घाटी से लगातार बड़े पैमाने पर बोरवेल के जरिए पानी निकाला जाता रहा तो पाताल में पैठी नदी हमेशा के लिए सूख जाएगी, क्योंकि उसमें नए पानी की आपूर्ति नहीं हो रही है. वैज्ञानिक तो यही चाहते हैं कि पाताल में जमी नदी के पानी का बेहिसाब इस्तेमाल न किया जाए क्योंकि अगर ऐसा किया जाता रहा तो जो सरस्वती कोई 4,000 साल पहले सतह से गायब हुई थी, वह अब पाताल से भी गायब हो जाएगी.

(इस ब्लॉग को लिखने में इंडिया टुडे में पीयूष बबेले और अनुभूति बिश्नोई की रपटों को आधार बनाया गया है)

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Friday, October 18, 2019

मीडिया के नए चलन पर बारीक निगाह का दस्तावेज है साकेत सहाय की किताब

आज के दौर में पत्रकारिता के छात्र ही नहीं, मीडिया को नजदीक से जानने की इच्छा रखने वाले हर शख्स के लिए इस किताब को पढ़ना एक नई दृष्टि हासिल करने जैसा अनुभव होगा. 

यह मानी हुई बात है कि संस्कृति निर्माण की प्रक्रिया में भाषा की जितनी भूमिका रही है उतनी ही संचार माध्यमों की भी. बल्कि संचार माध्यम ही अब यह तय करने लगे हैं कि किसी भाषा का कलेवर क्या होगा? संस्कृति को लेकर तमाम बहसों और विमर्शों के बाद भी इस शब्द पर बायां या दाहिना हिस्सा अपने तरह की जिद करता है. पर यह सच है कि किसी जगह की तहजीब समाज में गुंथी होती है.

आज के दौर में जब पत्रकारिता समाज के प्रति मनुष्य की बड़ी जिम्मेवारी का एक स्तंभ तो मानी जाती है पर उसके विवेक पर कई दफा सवाल भी खड़े किए जाने लगे हैं, तब इस भाषा, संस्कृति और पत्रकारिता के बीच के नाजुक रिश्ते पर नजर डालना बेहद महत्वपूर्ण लगने लगा है. कहीं संस्कृति के लिए पत्रकारिता तो कहीं पत्रकारिता के लिए संस्कृति कार्य करती है. इन दोनों के स्वरूप निर्धारण में भाषा अपनी तरह से महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. भारत के संदर्भ में इसे बखूबी समझा जा सकता है. आज यदि गिरमिटिया मजदूरों ने अपनी सशक्त पहचान अपने गंतव्य देशों में स्थापित की है तो इसमें उनकी सांस्कृतिक और भाषायी अभिरक्षा की निहित शक्ति ही काम करती दिखती है.

वैसे आज के दौर में पत्रकारिता का विलक्षण इलेक्ट्रॉनिक रूप कई दफा संस्कृति, भाषा और पत्रकारिता के इस घनिष्ठ संबंध को तोड़ते नजर आते है. इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की व्यापक प्रगति और हर घर में उनकी पैठ का नतीजा यह हुआ है कि यह समाज के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करने की स्थिति में है. टीवी के मनोरंजन और खबरों के आगे, साइबर या डिजिटल दुनिया में खबर, विज्ञापन, बहस-मुबाहिसे हर चीज हिंदुस्तानी सामाजिक परिवेश, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, भाषा और यहां तक कि लोकतंत्र पर भी अपना असर डाल रहे हैं.

अपनी किताब ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’ में डॉ. साकेत सहाय इन्हीं कुछ यक्ष प्रश्नों से जूझते नजर आते हैं. उनकी इस किताब को कोलकाता के मानव प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. आज के दौर में पत्रकारिता के छात्र ही नहीं, मीडिया को नजदीक से जानने की इच्छा रखने वाले हर शख्स के लिए इस किताब को पढ़ना एक नई दृष्टि हासिल करने जैसा अनुभव होगा.

साकेत सहाय खुद प्रयोजनमूलक हिंदी के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं और वित्तीय, समकालिक और भाषायी विषयों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं.

अपनी किताब की भूमिका में सहाय लिखते हैं, "मीडिया के नए चलन से एक नई संस्कृति का विकास हो रहा है. बाजार के दबाव में यह माध्यम जिस प्रकार से भाषा, साहित्य और संस्कृति की त्रिवेणी को मैला कर रहा है, वह हमारे लोकतंत्र व समाज के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा."

सहाय की यह किताब भाषा, कला, बाजार, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य, सोशल मीडिया और समाज से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नाभिनाल संबंध को गौर से देखती है और इस तथ्य को बखूबी रेखांकित करने का प्रयास करती है. इस किताब में सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की दशा-दिशा, भाषा, संस्कार की वजह से विकसित हो रही एक नई संस्कृति का सूक्ष्म और बारीक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है.

किताबः इलेक्ट्रॉनिक मीडिया: भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’
लेखकः डॉ. साकेत सहाय
प्रकाशकः मानव प्रकाशन, कोलकाता

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Tuesday, October 15, 2019

बारह किस्म की कहानियां

बारह चर्चित कहानियां बारह महिला रचनाकारों की कहानियां का संग्रह है. महिला विमर्श के साथ ही समाज की कहानियों को नए शिल्प और नए रूप में पेश करता यह संग्रह पठनीय है.

कोई कहानी संग्रह हो और उसमें बारह अगर-अलग शैली के रचनाकार हों तो मन अपने-आप खिंच जाता है कि बारह स्वरों को एक साथ पढ़ना अलग किस्म का अनुभव देगा. सुधा ओम ढींगरा और पंकज सुबीर के संपादन में बारह चर्चित कहानियां शायद पाठकों को ऐसे ही जायके देगा.

ये बारह कहानियां विभोम-स्वर के बारह अंकों में प्रकाशित हो चुकी कहानियां है और संयोग यह भी है कि इसमें सभी रचनाकार लेखिकाएं हैं. ऐसे में यह विचार भी आता है कि क्या यह सभी कहानियां एक स्वर या एक व्याकरण के आसपास ही लिखी गई होंगी? लेकिन इस जवाब ना में है.

बारह चर्चित कहानियां संग्रह. फोटोः मंजीत ठाकुर
इस कथा संग्रह की बारहों कहानियों के कथ्य और शिल्प में वैविध्य है. खासकर तौर पर, इनमें से कई रचनाकार प्रवासी भारतीय भी हैं तो भाषा और शिल्प के स्तर पर अलग रंग निखरता दिखता है. वैसे आप चाहें तो इस कथा संग्रह को बारह चर्चित कथाओं के स्थान पर बारह महिला कथाकारों की चर्चित कहानियां या फिर चर्चित लेखिकाओं की बारह चर्चित कहानियां भी मान सकते हैं.

इस संग्रह में आकांक्षा पारे, सुदर्शन प्रियदर्शिनी. पुष्पा सक्सेना, अचला नागर, डॉ. विभा खरे, पारुल सिंह. उर्मिला शिरीष, डॉ. हंसा दीप, अनिल प्रभा कुमार, हर्ष बाला शर्मा, अरुणा सब्बरवाल और नीरा त्यागी की रचनाएं हैं.

पहली ही कहानी आकांक्षा पारे की है. पेशे से पत्रकार पारे की कहानी में नए जमाने की किस्सागोई है. प्रेम को व्यक्त करना और अव्यक्त प्रेम, अपूरित आकांक्षाओं के साथ और फिर एक टीस का बना रह जाना. अगर आपने पलटते हुए भी पारे की कहानी का कुछ अंश पढ़ लिया तो बिना पूरा पढ़े नहीं छोड़ पाएंगे.

खाली हथेली में सुदर्शन प्रियदर्शनी नारियों के शोषण और दमन की बात को नए आयामों में स्वर देती हैं, तो नीरा त्यागी तलाक के तुरंत बाद समाज की प्रतिक्रिया और नायिका के नए बने संबंध में प्रेमी के मां के साथ उसके गरमाहट भरे रिश्तों की कई परते हैं. लेकिन कथ्य और शिल्प के मामले में अच्छा अनुभव महसूस होता है पारूल सिंह की कहानी ऑरेंज कलर का भूत पढ़ते हुए. नायिका का बीमार बच्चा और उसी बहाने मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज के नजरिए पर तल्ख टिप्पणी के साथ ही पारूल कहानियों को कहने का नया संसार खोलती हैं.

इसी तरह तवे पर रखी रोटी डॉ. विभा खरे की कहानी है, जिसके केंद्र में एक प्रश्न हैः वह मुझे इंसान समझता या सिर्फ बीवी? इस संग्रह की तमाम कहानियों में हर कहानी की नायिका इतना इशारा तो करती है ही कि समाज हो या घर, अस्पताल हो या कार्यस्थल तवे पर रखी रोटी हर जगह जल रही है. इन बारह कहानियों में हरेक में स्त्री किरदार अपने तरीके से सवाल पूछ रही हैं. चाहे ये प्रश्न प्रेम से जुड़े हों या रिश्तों के.

बधाई सुधा ओम ढींगरा और बधाई पंकज सुबीर को, कि उन्होंने कथा चयन में सावधानी बरती है. हां, ये बात और है कि किताब का कवर कहानियों के कथ्य के लिहाज से मेल नहीं खाता. इसे और बेहतर बनाया जा सकता था. यह जमाने की मांग है.

किताबः बारह चर्चित कहानियां
विभोम-स्वर के बारह अंकों से
संपादकः सुधा ओम ढींगरा और पंकज सुबीर
शिवना प्रकाशन
कीमतः 200 रुपए

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Monday, October 14, 2019

नदीसूत्रः हर नदी का नाम हमारे विस्मृत इतिहास का स्मृति चिन्ह है

नदियों के नाम के साथ जुड़े किस्से बहुत दिलचस्प हैं. हर नाम के पीछे एक कहानी है और एक ही नाम की नदियां देश के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद हैं.


पिछले कई नदीसूत्र नदियों की जिंदगी पर उठते सवालों पर आधारित थे. आदिगंगा, रामगंगा, खुद गंगा, गोमती... इन सभी नदियों में प्रदूषण और नदियों से सारा पानी खींच लेने की हमारी प्रवृत्ति ने देश भऱ की नदियों के अस्तित्व पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं. फिर एक सवाल कौन बनेगा करोड़पति में दिखा कि दक्षिण की गंगा किस नदी को कहते हैं? जाहिर है इसका उत्तर हममें से कई लोगों को मालूम होगा. पर इस सवाल के बरअक्स कई और सवाल खड़े होते हैं कि अगर गोदावरी दक्षिण की गंगा है तो पूर्व या पश्चिम की गंगाएं भी होनी चाहिए? या फिर कितनी नदियां हैं जिनके नाम गंगा से मिलते जुलते हैं?

मैंने इस बारे में कुछ प्रामाणिक लेखन करने वाले विशषज्ञों और जानकारों का लिखा पढ़ा. तब मुझे लगा कि नदीसूत्र में हम प्रदूषण की बात तो करेंगे ही, पर कुछ ऐसी दिलचस्प बातें भी आपको बताना चाहिए कि नदियों की संस्कृति, उसके किनारे पली-बढ़ी सभ्यता और हमारी विरासत और इतिहास की हल्की-सी झलक आपको मिल सके.

जम्मू-कश्मीर में बहने वाली नदी झेलम. फोटोः इंडिया टुडे

अब इन्हीं सामग्रियों से मुझे पता चला कि देश की कई नदियां ऐसी हैं, या कम से कम उनके नाम ऐसे हैं कि एकाधिक सूबे में उनकी मौजूदगी है. मसलन, परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि हम सभी धौलीगंगा नाम की एक ही नदी का अस्तित्व जानते हैं. पर सचाई यह है कि उत्तराखंड में ही दो धौलीगंगाएं हैं. पहली, जो महाकाली बेसिन में बहती है और दूसरी जो ऊपरी गंगा बेसिन में. दांडेकर लिखती हैं कि धौलीगंगा ही क्यों, काली, कोसी और रामगंगा की भी डुप्लिकेट नदियों के अस्तित्व हैं.

अगर हम नदियों के नामकरण के इतिहास में जाएं तो आपको लुप्त और विस्मृत सभ्यताओं, इस इलाके के इतिहास और भूगोल के बारे में भी नई और अलहदा जानकारियां मिलेंगी. पर इन नदियों के बारे में खोजबीन करना उतना आसान भी नहीं है. इस पोस्ट में शायद मैं एकाध नदियों के नामों के बारे में कुछ जानकारियां साझा कर पाऊं.

छठी कक्षा के इतिहास की किताब में ही हमें यह पढ़ा दिया जाता है कि दुनिया की महान सभ्यताएं नदी घाटियों में विकसित हुई हैं. अपने हिंदुस्तान, या भारत या इंडिया का नामकरण भी तो नदी के नाम पर ही हुआ है. इंडस को ही लें, यह पुराने ईरानी शब्द हिंदू से निकला है. क्योंकि आर्य लोग वहां बहने वाली नदी को सिंधु (यानी सागर) कहते थे. यह शब्द संस्कृत का है और स का उच्चारण न कर पाने वाले शकद्वीप (ईरान) के लोगों ने इस नदी के परली तरफ रहने वालों को हिंदू कहना शुरू कर दिया.

ऋग्वेद के नदीस्तुति सूक्त में सिंधु नदी का लिंग निर्धारण तो नहीं है, लेकिन बाकी की नदियां स्त्रीलिंग ही हैं. दांडेकर लिखती हैं, पश्तो भाषा में सिंधु, अबासिन या पितृ नदी है जिसे लद्दाखी भाषा में सेंगे छू या शेर नदी भी कहते हैं. गजब यह कि तिब्बत में भी इस नदी को सेंगे जांग्बो ही कहते हैं इसका मतलब भी शेर नदी ही होता है और दोनों ही शब्द पुलिंग हैं.

नदियों का लिंग निर्धारण का भी अजीब चमत्कार है. भारत की अधिकांश नदियां (आदिवासी नामों वाली नदियां भी) अधिकतर स्त्रीलिंग ही हैं. साथ ही, भारतीय संस्कृति में कुछ नदियों को पुलिंग भी माना गया है. इसकी बड़ी मिसाल तो ब्रह्मपुत्र ही है. दांडेकर, धीमान दासगुप्ता के हवाले से लिखती हैं कि ब्रह्मपुत्र की मूल धारा यारलांग जांग्बो भी पुलिंग है. इसी तरह इसकी प्रमुख सहायक नदी लोहित भी है. पश्चिम बंगाल में बहने वाली अधिकतर नदियां, मयूराक्षी को छोड़ दें तो, पुरुष नाम वाली ही हैं. मसलन, दामोदर, रूपनारायण, बराकर, बराकेश्वर, अजय, पगला, जयपांडा, गदाधारी, भैरव और नवपात्र.

सवाल है कि इन नदियों के नाम अधिकतर पुरुषों के नाम पर ही क्यों रखे गए?

दांडेकर, दासगुप्ता के हवाले से लिखती हैं, कि इन नदियों का स्वरूप अमूमन विध्वंसात्मक ही रहा है. इसलिए उनको पुलिंग नाम दिए गए होंगे.

चलिए थोड़ा उत्तर की तरफ, सतलज की मिसाल लेते हैं. इसका वैदिक नाम शतद्रु है. शत मतलब सौ, द्रु मतलब रास्ते. यानी सैकड़ों रास्तों से बहने वाली नदी. एक सेमिनार में कभी साहित्यकार काका साहेब कालेलकर इन इन नदियों को मुक्त वेणी या युक्त वेणी (बालों की चोटी से संदर्भ) कहा. बालों की चर्चा चली है तो महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट में बहने वाली नदी हिरण्यकेशी का नाम याद आता है. हिरण्य मतलब सोना होता है. समझिए कि सूरज की किरणों में इस नदी का पानी कैसी सुनहरी आभा से दमकता होगा.

आदिवासी परंपराओं में भी अमूमन नदियों के नाम पुलिंग ही मिलते हैं. सिक्किम में शादियों में रंगीत (पुरुष) नदी और रागेन्यू (स्त्री, प्रचलित नाम तीस्ता) नदियों के प्रेम के गीत गाए जाते हैं. कहानी है कि ये दो प्रेमी नदियां माउंट खानचेंगद्जोंगा का आशीर्वाद लेने पहाड़ों से नीचे उतरी थीं. रंगीत को रास्ता दिखाने के लिए एक चिड़िया आगे-आगे उड़ रही थी और जबकि रांगन्यू को रास्ता दिखा रहा था एक सांप. रांगन्यू ने सांप का आड़ा-तिरछा सर्पीला रास्ता पकड़ा और मैदानों में पहले पहुंचकर रंगीत (तीस्ता) की राह देखने लगी.

भूतिया चिड़िया ने रंगीत को रास्ता भटका दिया जो ऊपर-नीचे रास्ते में भटक गया. उसे आऩे में देर हो गई. सिक्किमी लोककथा के मुताबिक, पुरुष होने के नाते रंगीत ने रांगन्यू को पहले पहुंचकर इंतजार करते देखा तो उसे बहुत बुरा लगा. इसके बाद, रांगन्यू ने रंगीत को बहुत मनाया-दुलराया कि देर से आऩा उसकी गलती नहीं थी. तब जाकर रंगीत माना.

ऐसी ही एक कहानी चंद्र और भागा की भी है, जो मिलकर चंद्रभागा नदी बनाते हैं. यही चंद्रभागा एक तरफ चिनाब भी कही जाती है. पर यह कहानी हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पिति घाटी की है. लोककथा के मुताबिक, चांद की बेटी चंद्रा, जिसका उद्गम चंद्रा ताल से है, भागा नामक नद से प्रेम करती थी. भागा भगवान सूर्य का बेटा था. वह सूरज ताल से निकलता है. इन दोनों ने फैसला किया कि वे बारालाछाला दर्रे तक जाएंगे और विपरीत दिशाओं से होकर वापस आएंगे फिर टंडी में मिलकर विवाह कर लेंगे. चंद्रा बल खाती हुई टंडी तक पहुंच गई जब भागा का रास्ता उतना आसान नहीं था. भागा को नहीं पाकर चंद्रा चिंतित हो गई और वह उसे खोजने के लिए वापस फिर केलांग तक चली गई. चंद्रा ने देखा, भागा एक गहरी खाई के बीच से अपनी राह बनाने की कोशिशों में जुटा था. आखिरकार वे टंडी में मिले और उससे आगे नदी का नाम चंद्रभागा पड़ गया.

दिलचस्प यह है कि पश्चिम बंगाल में भी वीरभूम जिले में एक चंद्रभागा बहती है. दांडेकर लिखती हैं कि एक अन्य चंद्रभागा गुजरात में अहमदाबाद के पास है. पुरी के पास कोणार्क मंदिर के पास से बहने वाली नदी का नाम भी चंद्रभागा है. विट्ठल मंदिर के पास पंढरपुर में बहने वाली नदी तो चंद्रभागा है ही. वैसे एक चंद्रभागा बिहार में भी है, जिसे चानन नदी कहा जाता है.

नदियों के नाम के किस्से बहुत दिलचस्प हैं और कोशिश रहेगी कि अगली दफा नदीसूत्र में कुछ और दिलचस्प किस्से सुना पाऊं.

Monday, October 7, 2019

नदीसूत्रः साबरमती नदी के पानी में पल रहा है सुपरबग

नदियों में प्रदूषण के खतरों के कई आयाम बन रहे हैं. एक अध्ययन बता रहा है कि प्रदूषण की वजह से गुजरात की साबरमती नदी में ई कोली बैक्टिरिया में एंटी-बायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है. जो इसे संभवतया सुपरबग में बदल देगी. यह एक संभावित जैविक बम साबित हो सकता है


भारतीय मनीषा में एक पौराणिक कथा है कि एक बार भगवान शिव देवी गंगा को लेकर गुजरात लेकर आए थे, और इससे ही साबरमती नदी का जन्म हुआ. कुछ सदी पहले इसका नाम भोगवा था. भोगवा का नाम बदला तो इसके साथ नए नाम भी जुड़े.


गुजरात की वाणिज्यिक और राजनीतिक राजधानियां; अहमदाबाद और गांधीनगर साबरमती नदी के तट पर ही बसाए गए थे. एक कथा यह भी है कि गुजरात सल्तनत के सुल्तान अहमद शाह ने एक बार साबरमती के तट पर आराम फरमाते वक्त एक खरगोश को एक कुत्ते का पीछा करते हुए देखा. उस खरगोश के साहस से प्रेरित होकर ही 1411 में शाह ने अहमदाबाद की स्थापना की थी. बाद में, पिछली सदी में साबरमती नदी गांधीवादियों और देशवासियों का पवित्र तीर्थ बना क्योंकि महात्मा गांधी ने इसी नदी के तट पर साबरमती आश्रम की स्थापना की थी.

लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह परिदृश्य भी बदल गया है.

साबरमती नदी का अपशिष्ट साफ करने के लिए बना एसटीपी. फोटो सौजन्यः सोशल मीडिया




साबरमती अब दूसरे वजहों से खबरों में आती है. पहली खबर तो यही कि साबरमती का पेटा सूख गया है और अब इस नदी में इसका नहीं, नर्मदा का पानी बहता है. दूसरी खबर, गुजरात सरकार ने इसके किनारे रिवरफ्रंट बनाया है. और अब इस नदी के किनारे अंतरराष्ट्रीय पतंग महोत्सव से लेकर न जाने कितने आयोजन होते हैं. शी जिनपिंग को भी प्रधानमंत्री ने यहीं झूला झुलाया था. 2017 में विधानसभा चुनाव के वक्त यहीं रिवरफ्रंट पर मोदी जी सी-प्लेन से उतरे थे.

बहरहाल, अगर आप कभी अहमदाबाद गए हों तो खूबसूरत दिखने वाले रिवरफ्रंट पर गए जरूर होंगे. क्या पता आपने नदी के पानी पर गौर किया या नहीं. विशेषज्ञ कहते हैं कि साबरमती में बहने वाला पानी अत्यधिक प्रदूषित है. इस बारे में एनजीओ पर्यावरण सुरक्षा समिति और गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जीपीसीबी) ने एक संयुक्त अध्ययन किया है अपने अध्ययन में साबरमती में गिरने वाले उद्योगों से गिरने वाले अपशिष्ट और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से गिरने वाले पानी से जुड़े तथ्य खंगाले. 

इस साल की शुरुआत में आई डिजास्ट्रस कंडीशन ऑफ साबरमती रिवर नाम की इस रिपोर्ट में कई खतरनाक संदेश छिपे हैं. रिपोर्ट कहती है कि अहमदाबाद के वासणा बैराज के आगे बने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांथट जिसकी क्षमता 160 मिलियन लीटर रोजाना (एमएलडी) उसमें से गिरने वाले पानी में बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्रा 139 मिग्रा प्रति लीटर है. केमिकल ऑक्सी जन डिमांड (सीओडी) 337 मिग्रा प्रति लीटर है और टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 732 मिग्रा प्रति लीटर है. 

वैसे राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) का मानक पानी बीओडी की मात्रा अधिकतम 10 मिग्रा प्रति लीटर तक की है. वैसे नदी के पानी में सल्फेीट की मात्रा 108 मिग्रा प्रति लीटर और क्लोरराइड की मात्रा 186 मिग्रा प्रति लीटर बताई गई है. 

इसी तरह वासणा बैराज के आगे नदी में इंडस्ट्री के गिरने वाले पानी की जांच गई तो सामने आया कि इसमें बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्रा 536 मिग्रा प्रति लीटर है. केमिकल ऑक्सीकजन डिमांड (सीओडी) की मात्रा 1301 मिग्रा प्रति लीटर, टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 3135 मिग्रा प्रति लीटर पाई गई है. सल्फेतट की मात्रा 933 मिग्रा प्रति लीटर है, वहीं क्लोसराइड की मात्रा 933 मिग्रा प्रति लीटर है.

खास बात है कि इंडस्ट्रीफ का केमिकल युक्तम कितना पानी रोजाना साबरमती में गिर रहा है इसका कोई लेखा जोखा नहीं है.

हालांकि, साबरमती में अपशिष्ट जल के ट्रीटमेंट के लिए एसटीपी बनाए गए हैं पर इससे एक अलग ही समस्या खड़ी हो रही है. एक अध्ययन यह भी बता रहा है कि इन एसटीपी में ट्रीटमेंट के दौरान बीमारी पैदा करने वाले सूक्ष्मजीव एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं. जाहिर है, इससे एक बड़ी समस्या खड़ी होने वाली है. 

पर्यावरण पर लिखने वाली वेबसाइट डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट में आइआइटी गांधीनगर में अर्थ साइंसेज के प्रोफेसर मनीष कुमार कहते हैं कि हमने पाया है कि प्रदूषण की वजह से सीवेज और जलाशयों में ई कोली बैक्टिरिया में मल्टी-ड्रग एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस यानी प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है. जो इसे संभवतया सुपरबग में बदल देगी. ई कोली के सुपरबग में बदलने का क्या असर होगा? हालांकि ई कोली की अधिकतर नस्लें बीमारियों के लिए उत्तरदायी नहीं है लेकिन उनमें से कई डायरिया, न्यूमोनिया, मूत्राशय में संक्रमण, कोलेसाइटिस और नवजातों में मनिनजाइटिस पैदा कर सकते हैं.

विशेषज्ञों का मानना है कि यह काम सीवेज ट्रीटमेंट में क्लोरीनेशन और अल्ट्रा-वायलेट रेडिएशन के दौरान बैक्टिरिया के जीन में उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) से हुआ होगा. 

समस्या यह है कि अगर बैक्टिरिया से यह जीन ट्रांसफर किसी अलहदा और एकदम नई प्रजाति को जन्म न दे दे. यह खतरनाक होगा. 

बहरहाल, साबरमती नदी की कोख में पल रहे इन संबावित जैविक बमों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है. भगवान शिव और गंगा की देन यह नदी अब नर्मदा से पानी उधार लेकर बह रही है. मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि साबरमती में पानी नहर के जरिए भरा जा रहा है. रिवरफ्रंट जहां खत्म होता है वहां वासणा बैराज है, जिसके सभी फाटक बंद करके पानी को रोका गया है. ऐसे में रिवरफ्रंट के आगे नदी में पानी नहीं है और न उसके बाद नदी में पानी है. वासणा बैराज के बाद नदी में जो भी बह रहा है वो इंडस्ट्री और नाले का कचरा है. नदी में गिर रहा कचरा बेहद खतरनाक है और इस पानी का उपयोग करने वाले लोगों के लिए यह नुकसान ही करेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अहमदाबाद के बाद अगले 120 किमी तक नदी में सिर्फ औद्योगिक अपशिष्ट सड़े हुए पानी की शक्ल में बहता है और यही जाकर अरब सागर में प्रवाहित होता है. 

पर नर्मदा के खाते में भी कितना पानी बचा है जो वह इस तदर्थवाद के जरिए साबरमती को जिंदा रख पाएगी, यह भी देखने वाली बात होगी.

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Wednesday, October 2, 2019

झारखंड सरकार पर आरोप, मधुपुर में राज्य सरकार ने हड़प ली स्कूल की जमीन

झारखंड में चुनाव की सुगबुगाहट शुरू है और ऐसे में ताबड़तोड़ घोषणाओं और शिलान्यासों का दौर चल रहा है. इसी क्रम में मधुपुर शहर में झारखंड सरकार ने कथित तौर पर एक स्कूल का अहाता ही हड़प लिया है. 


झारखंड में चुनाव की सुगबुगाहट शुरू है और ऐसे में ताबड़तोड़ घोषणाओं और शिलान्यासों का दौर चल रहा है. मधुपुर विधानसभा क्षेत्र में अपनी कमजोर स्थिति से पार पाने के लिए स्थानीय विधायक झारखंड के श्रम मंत्री राज पलिवार भी शिलान्यास पर शिलान्यास किए जा रहे हैं.

पर इस क्रम में झारखंड सरकार ने कथित तौर पर एक स्कूल का अहाता ही हड़प लिया है. 22 सितंबर को झारखंड सरकार के पर्यटन, कला संस्कृति और युवा कार्य विभाग की ओर से मधुपुर विधानसभा क्षेत्र में मधुपुर शहर के मशहूर एमएलजी उच्च विद्यालय के अहाते पर मनमाने ढंग से इंडोर स्टेडियम बनाने के लिए शिलान्यास की खबर आई है. असल में, सरकार स्कूल के अहाते में एक इंडोर स्टेडियम का निर्माण कर रही है. जबकि, जमीन स्कूल की है.

स्थानीय लोग बताते हैं कि स्कूल की जमीन पर इंडोर स्टेडियम बनाने का कोई औचित्य नहीं है और सरकार इसके लिए सरकारी जमीन का इस्तेमाल कर सकती थी. पर शिलान्यास की हड़बड़ी और वाहवाही लूटने के चक्कर में यह काम किया गया है.

पिछले रविवार को एमएलजी स्कूल के अहाते में 1.73 करोड़ की लागत से बनने वाले इंडोर स्टेडियम का शिलान्यास सूबे के श्रम मंत्री राज पलिवार ने कर दिया. इस दौरान उन्होंने कहा कि किसी भी सरकार ने मधुपुर में इंडोर स्टेडियम बनाने का काम नहीं किया. लेकिन भाजपा की रघुबर सरकार ने शहर के खिलाड़ियों की प्रतिभा को देखते हुए मधुपुर में इंडोर स्टेडियम निर्माण की स्वीकृति प्रदान की है. पलिवार ने स्थानीय मीडिया से बातचीत में सरकार की पीठ थपथपाते हुए कहा कि मधुपुर में वर्षों से खिलाड़ी इंडोर स्टेडियम की मांग की जाती रही है जिसे उन्होंने पूरा करने का काम किया है.

उन्होंने कहा कि 12 से 15 माह के अंदर स्टेडियम बनकर तैयार हो जाएगा. यह स्टेडियम अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस होगा. इंडोर स्टेडियम मधुपुर क्षेत्र के खिलाड़ियों की प्रतिभा को विकसित करने में मील का पत्थर साबित होगा. इसमें हर प्रकार की सुविधा मिलेगी.

लेकिन चुनावी समय होने से यह मामला सियासी होने लगा है.

कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष और जामताड़ा विधायक डॉ. इरफान अंसारी ने कहा है, "स्कूल की जमीन पर सरकारी कब्जा अवैध है और वे स्कूल की जमीन हथियाने नहीं देंगे." गौरतलब है कि खुद अंसारी मधुपुर के रहने वाले हैं. अंसारी कहते हैं, "स्टेडियम का शिलान्यास किया गया है, वह राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश मात्र है. वह इलाका शहर का एजुकेशन हब है, वहां आप स्टेडियम बना रहे हैं? सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए कि वह बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करे. कांग्रेस पार्टी वहां ऐसा नहीं होने देगी."

अंसारी का कहना है कि मधुपुर में सरकारी मिल्कियत वाली जमीन की कोई कमी नहीं है और इंडोर स्टेडियम कहीं और भी बनाया जा सकता था. स्थानीय लोगों का कहना है कि स्कूल के अहाते में आसपास के स्कूलों समेत मुहल्ले के बच्चे खेलने आते हैं और स्टेडियम बन जाने से उनका यह मैदान छिन जाएगा.

पर इससे बड़ा मसला यह है कि एमएलजी उच्च विद्यालय को सन 1980 में राज्य सरकार (तब बिहार) ने अधिगृहीत किया था. उससे पहले यह स्कूल विद्यालय प्रबंध समिति के जरिए संचालित किया जाता था.

स्थापना की मंजूरी मिलने के बाद तब के विद्यालय प्रबंध समिति के सचिव राधाकृष्ण चौधरी के जरिए कुल 2.71 एकड़ जमीन विद्यालय के दखल में 1961 से ही है. साथ ही स्थानीय जमींदार से मिले हुकुमनामे के तहत इस स्कूल के पास कोई 6 बीघा 6 कट्ठे से अधिक जमीन स्कूल के पास है.

अधिग्रहण के बाद से यह स्कूल बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के तहत चला गया. स्कूल ही नगरपालिका को मालगुजारी और बाकी के टैक्स भरता रहा है. स्कूल प्रशासन भूमि पर अचानक हुए शिलान्यास को अवैध कब्जा बता रहा है. इस संदर्भ में स्कूल प्रशासन ने जिलाधिकारी को ज्ञापन दिया है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या स्कूल की जमीन पर अचानक ऐसे किसी स्टेडियम का निर्माण कानूनन सही है या फिर इसे सरकार का जबरिया कब्जा माना जाए.

Tuesday, October 1, 2019

जीवन के अद्भुत रहस्य खोलती है गौर गोपाल दास की किताब

आध्यात्मिक गुरु गौर गोपाल दास की किताब, जीवन के अद्भुत रहस्य जीवन जीने के तौर-तरीकों को सुधारने की बात करती है.


इस गेरुआ वस्त्र पहने आध्यात्मिक गुरु की भाव-भंगिमा ऊर्जा से भरी है. देहभाषा सकारात्मक है और वे मौजूदा जिंदगी से जुड़ी मिसालें देकर बात करते हैं. मसलन, खान-पान में सहजता के लिए गुरु गौर गोपाल दास गोलगप्पे का मिसाल देते हैं और बताते हैं कि उसे चम्मच से खाना असहज है. और फिर अपनी मिसाल देकर खिलखिलाकर हंसते हैं, तो साथ में सारे श्रोता भी हंसते है. बोलते समय उनके हाथ भी उनकी बात प्रेषित करने में मदद करते हैं और आवाज़ में नाटकीय उतार-चढ़ाव श्रोता को अपने साथ बहा ले जाती है.

खुद को लाइफ इंजीनियर बताने वाले इस्कॉन से जुड़े गौर गोपाल दास आज की तारीख में काफी ख्यात हो चुके हैं. पिछले दिनों वह अपनी किताब ‘जीवन के अद्भुत रहस्य’ के विमोचन के मौके पर दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में थे. और उनसे बातचीत करने के लिए मंच पर मशहूर अभिनेत्री दिव्या दत्ता थीं. 



आध्यात्मिक गुरु गौर गोपाल दास की किताब का कवर फोटो सौजन्यः पेंग्विन इंडिया

कभी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर रहे दास ने लाइफ कोच बनने का फैसला क्यों किया? हंसते हुए गौर गोपाल दास कहते हैं, “जिस तरह जीवन में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर की जरूरत होती है उसी तरह ह्यूमन इंजीनियर की भी जरूरत होती है. उसे हम कमतर नहीं मान सकते. इसलिए मैंने सोचा कि इंसानों में जो गड़बड़ियां हैं, उसे ठीक करने की कोशिश की जाए.”

गौर गोपाल दास ने कहा कि अक्सर कोई काम करने से पहले हम सोचते हैं कि दूसरा आदमी क्या सोचेगा, जबकि 90 फीसदी मामलों में ये गलत होता है. उन्होंने कहा कि हमने खुद को देखना बंद कर दिया है. हम अक्सर दूसरों के नजरिये से खुद को देखते हैं. यह बड़ी समस्या है. हम सोशल मीडिया पर 5000 दोस्तों के संग तो हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में हमारा एक दोस्त नहीं होता. यह अकेलापन का सबसे बड़ा कारण है. लोग अकेले रहने से घबराते हैं क्योंकि वो एक ऐसा आईऩा है जिसमें खुद का अक्स दिखता है. उन्होंने कहा कि नौजवानों का अकेलापन कृत्रिम है, बुजुर्गों का अकेलापन वास्तविक.

गौर गोपाल दास अपनी बातचीत में श्रोताओं से सीधा संपर्क साधते हैं. वह अपने अनुभवों के साथ अध्यात्म को जोड़ते हैं. मसलन, अपने हालिया अमेरिका प्रवास के कुछ किस्सों को जीवन अनुभवों से जोड़ते हैं. गौर गोपाल दास के बारे में मशहूर अभिनेत्री दिव्या दत्ता कहती हैं, “मेरे लिए प्रभुजी एक ऐसे व्यक्तित्व की तरह रहे हैं जिनकी प्रेरक बातें हमेशा हमारे चेहरों पर खूबसूरत मुस्कान लाती है और जब आप उनको सुनते हैं तो जिंदगी और खूबसूरत हो जाती है.”

जाहिर है चाहे आप संबंधों में मजबूती तलाश रहे हों या अपनी वास्तविक क्षमता को जानने की कोशिश कर रहे हों या फिर इस पर विचार कर रहे हों कि दुनिया को क्या कुछ लौटाया जा सकता है, गौर गोपाल दास की ये किताब उसे समझाने की कोशिश करती है.

गौर गोपाल दास की किताब जीवन के अद्भुत रहस्य के बारे में पेंगुइन की लैंग्वेज पब्लिशिंग एडिटर वैशाली माथुर कहती हैं, ‘यह किताब जिस दिन से लॉन्च हुई है उसी दिन से बेस्टसेलर रही है. जल्दी ही यह किताब छह दूसरी भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध होगी."

गौर गोपाल दास की लिखी यह पहली किताब है, जिसमें उनके अपने जीवन अनुभवों का सार है. किताब की भाषा सरल है लेकिन कथ्य विचारोत्तेजक हैं. मोटे तौर पर यह किताब जीवन जीने के तौर-तरीकों की बात करती है.

गौर गोपाल दास ने पुणे के कॉलेज ऑफ इंजिनीयरिंग से इलेक्ट्रिकल इंजिनीयरिंग की पढ़ाई की और कुछ समय तक ह्यूलेट पैकर्ड में नौकरी की. उसके बाद उन्होंने मुम्बई के एक आश्रम में रहते हुए सन्यासी का जीवन जीना प्रारंभ किया जहां वह बाइस साल तक रहे और प्राचीन दर्शन और समकालीन मनोविज्ञान की आधुनिकता को समझने का प्रयास करते रहे. उसके बाद वह हजारों-लाखों लोगों के लिए लाइफ कोच बन गए. गौर गोपाल दास सन् 2005 से दुनिया भर की यात्राएं कर रहे हैं और कॉरपोरेट हस्तियों, विश्वविद्यालयों और धर्मादा संस्थानों के साथ अपने विचार साझा कर रहे हैं. सन् 2016 में जब वे इंटरनेट पर आए तो उनकी लोकप्रियता का मानो विस्फोट सा हो गया और सोशल मीडिया पर उनके वीडियो को करोड़ो लोगों ने देखा. गौर गोपाल दास को एमआइटी, पुणे की इंडियन स्टूडेंट पार्लियामेंट ने ‘आइडियल यंग स्प्रिचुअल गुरु’ की उपाधि दी है.

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Monday, September 30, 2019

नदीसूत्रः आपका स्मार्ट फोन रामगंगा नदी का गला घोंट रहा है

क्या आपने कभी सोचा भी है कि आपके इस स्मार्टफोन या कंप्यूटर की वजह से मैदानी भारत की एक अहम नदी रामगंगा की सांसे थम रही हैं? मुरादाबाद में देश भर का जमा हो रहा ई-कचरा रामगंगा में भारी धातुओं के प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह और आम लोगों में कैंसर का बड़ा कारण

हो सकता है कि आप यह लेख अपने स्मार्ट फोन पर पढ़ रहे हों. आपके पास दूसरा विकल्प है कि आप इसे अपने लैपटॉप या डेस्कटॉप पर पढ़ें. पर क्या आपने कभी सोचा भी है कि आपके इस स्मार्टफोन या कंप्यूटर की वजह से मैदानी भारत की एक अहम नदी रामगंगा की सांसे थम रही हैं?

सोचिए जरा कि आखिर आपका मोबाइल फोन या टीवी का रिमोट, कंप्यूटर या घर का कोई इलेक्ट्रॉनिक सामान खराब हो जाए, पुराना हो जाए तो आप उसका क्या करते हैं? जाहिर है, हम उसे कबाड़ी वाले को दे देते हैं. देश भर में हम सबके घरों से निकले इस ई-कचरे का पचास फीसदी हिस्सा उत्तर प्रदेश के शहर मुरादाबाद पहुंच जाता है. वही शहर जो कभी, पीतल के बर्तनों के लिए मशहूर था. अब यह शहर भारत के ई-कचरे का सबसे बड़ा कबाड़खाना है. और इसका बुरा असर पड़ रहा है इसके बगल से बह रही बदकिस्मत नदी रामगंगा पर.

गंगा नदी की बड़ी सहायक नदियों में से एक है रामगंगा, जो उद्गम स्थल से दो अलग धाराओं के रूप में शुरू होती है. तब इसे पूर्वी रामगंगा और पश्चिमी रामगंगा कहते हैं और पहाड़ों से उतरकर यह मैदानों तक बहती आती है.

पश्चिमी रामगंगा उत्तराखंड में गैरसैंण के पास निचले हिमालय के दूधा-टोली श्रेणी से निकलती है. यह पटाली दून से होती हुई निचले शिवालिक में उतरती है और मुरादाबाद, रामपुर, बरेली बदायूं और शाहजहांपुर जिलों में बहती हुई फर्रुखाबाद के पास गंगा में मिल जाती है. मार्छूला के पास यह कॉर्बेट नेशनल पार्क में प्रवेश करती है. जंगल में करीब 40 किमी तक इसका बहाव होता है और कालागढ़ के पास यह जंगलों से निकलकर मैदानी स्वरूप में आ जाती है.

जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के लिए यह एक बढ़िया बारहमासी स्रोत है. रामगंगा की प्रमुख सहायक धाराएं पलैन, मंडल और सोनानदी है जो जंगल के भीतर ही इसमें जाकर मिल जाती हैं. इसके बेसिन का आकार करीबन 30.6 हजार वर्ग किमी है और इसकी लंबाई 569 किमी है.

पूर्वी रामगंगा नंदाकोट पहाड़ के नामिक ग्लेशियर से निकलती है. यह पिथौरागढ़ जिले में है और वहां से यह पूर्व की तरफ बहती है. रामेश्वर घाट पर यह जाकर सरजू नदी में मिल जाती है, वहां के बाद इस नदी का नाम सरयू पड़ जाता है. जो आगे चलकर काली नदी में समाहित हो जाती है. काली नदी खुद कुमायूं श्रेणी के मिलन ग्लेशियर से निकलता है और यह नदी भी फर्रुखाबाद के पास गंगा में मिल जाती है.

कालागढ़ बांध तक रामगंगा नदी के पानी में कोई दिक्कत नजर नहीं आती. इसके पानी में सैकड़ों नस्ल की मछलियां पाई जाती हैं इसके अलावा अनोखे किस्म के और भी जीव पाए जाते हैं. कालागढ़ के डाउनस्ट्रीम के बाद से रामगंगा का डाउनफॉल शुरू हो जाता है. कालागढ़ से इसके पानी को सिंचाई के लिए खींचा जाने लगता है और इसकी धारा मुरादाबाद और उसके बाद से पतली और बीमार नजर आने लगती है. घरेलू अपशिष्ट और औद्योगिक गंदगी उत्तराखंड और पूरे यूपी में इसमें गिराई जाती है.

इस नदी के किनारे बढ़ती आबादी और उद्योगों की संख्या ने नदी की हालत पतली कर दी है. आइआइटी, रुड़की के वैज्ञानिकों ने नदी की सेहत का एक अध्ययन किया है. इन्होंने नदी के 16 साइट्स पर पानी के नमूनों का अध्ययन किया है और हर सीजन में पानी की जांच की. अध्ययन में निष्कर्ष निकला कि रामगंगा नदी अपनी निचली धारा में बहुत अधिक प्रदूषित है. इस प्रदूषण में फ्लोराइड, क्लोराइड, सोडियम, मैग्नीशियम और कैल्सियम जैसे तत्वों के यौगिकों की मात्रा काफी अधिक है.

समस्या की असली जड़ मुरादाबाद शहर का कबाड़ उद्योग है.

मुरादाबाद रामगंगा के किनारे बसा है और यह ई-कचरे की रीसाइक्लिंग के लिए भी जाना जाता है. गैर-सरकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस ऐंड इनवॉयर्नमेंट (सीएसई) ने मुरादाबाद के ई-कचरे के अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि इनमें भारी धातु का प्रदूषण का स्तर का काफी ऊंचा है. सीएसई ने नदी के किनारे मिट्टी और पानी के नमूने लिए, क्योंकि शहर के लोग इस पानी का इस्तेमाल कपड़े धोने और पीने के लिए भी करते हैं.

वैसे, भारत में मिट्टी में भारी धातुओं के प्रदूषण के स्तर के मापन के लिए कोई मानक अभी तक तय नहीं किया गया है ऐसे में सीएसई ने जांच के नतीजों की तुलना अमेरिकी और कनाडाई मानकों से की. इन नमूनों में तय मानकों से 15 गुना अधिक जिंक पाया गया जबकि तांबे का स्तर 5 गुना अधिक था. मिट्टी के नमूने में क्रोमियम (कैंसरकारक तत्व) भी कनाडाई मानको के मुकाबले तीन गुना अधिक था जबकि कैडमियम का स्तर 1.3 गुना अधिक था.

यह नतीजे पानी के नमूनों में भी समान निकले. रामगंगा के पानी में पारे का स्तर भारतीय मानकों से आठ गुना अधिक है. पानी के नमूनों में आर्सेनिक भी मिला है. यह सब नमूने नवाबपुरा, करूला, दसवाघाट और रहमत नगर से लिए गए थे. यह वही जगहें हैं जहां ई-कचरे का कामकाज होता है.

प्रशासन का मानना भी है कि देश में कुल प्रिंटेड सर्किट बोर्ड (पीसीबी) का पचास फीसदी मुरादाबाद में आकर जमा होता है. और रोजाना शहर में ई-कचरे की 9 टन मात्रा जमा हो जाती है.

रामगंगा के घाटों पर ई-कचरे के रीसाइक्लिंग की गतिविधियों से न सिर्फ गैस रिलीज होती है बल्कि एसिड सोल्यूशन, जहरीला दुआं और राख भी निकलता है. इनमें भारी धातु होते हैं जो पर्यावरण के लिए काफी खतरनाक हैं. इनसे कैंसर होने का खतरा होता है. ई-कचरे से निकले रसायन जमीन में चले जाते हैं और इस तरह मिट्टी और भूमिगत जल को प्रदूषित कर देते हैं.

असल में, पारा और आर्सेनिक इंसानी सेहत के नजरिए से काफी जहरीले तत्व होते हैं. पारा अगर खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर जाए, जाहिर है जलीय जीवों और मछलियों के जरिए, तो इंसानी मस्तिष्क के कामकाज करने पर बुरा असर डालता है. इससे तंत्रिका तंत्र भी प्रभावित होता है. इनसे होने वाली बीमारियों का इलाज अभी पूरी तरह मुमकिन नहीं हो पाया है.

जानकार कहते हैं कि इस इलाके में रहे वाले लोगों में खासतौर पर पीसीबी को डिसमैंटल करने वाले लोगों में सांस लेने की परेशानियों में इजाफा हुआ है. अमूमन गरीब लोग ऐसी तकलीफों में डॉक्टरी मदद लेने नहीं पहुंचते इसलिए कितने लोगों पर असर हुआ है इसका विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि ई-कचरे का यह काम अधिकतर अवैध है जहां किसी किस्म के सुरक्षा मानकों का भी पालन नहीं किया जाता इसलिए यह समस्या कहीं अधिक घातक है. मानकों का पालन नहीं करने की वजह से भारी धातुओं का आधा हिस्सा कचरे से निकाला नहीं जा सकता और उससे ई-प्रदूषण फैल रहा है.

हालांकि हाल ही में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने उत्तर प्रदेश सरकार पर ई-कचरे के समाधान में उचित कार्रवाई न करने के एवज में 10 लाख रूपए का जुर्माना ठोंका है. पर इसका असर क्या होगा यह देखना बाकी है. फिलहाल, रामगंगा में ई-कचरे की वजह से जमा हो रहे भारी धातुओं ने खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करना शुरू कर दिया है. इसके घातक परिणाम दिखने शुरू हो गए हैं. इससे पहले कि मामला हाथ से निकल जाए, गंगा की इस सहायक नदी की सेहत पर ध्यान देना जरूरी है.

रामगंगा को साफ नहीं किया तो गंगा कभी साफ नहीं होगी.


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Saturday, September 28, 2019

महालया से जुड़ी हैं देवी पूजा की कुछ खास मान्यताएं

रूपं देहि, जयं देहि
यशो देहि, द्विषो जहि.

महालया एक संस्कृत शब्द है, जिसमें 'महा' का अर्थ होता है, महान और 'आलया' का अर्थ है निवास. अर्थात् पृथ्वी पर अपार शक्ति की देवी का राक्षसी शक्तियों के उन्मूलन और भक्तों को आशीर्वाद और कृपा प्रदान करने के लिये महा निवास. महालया अमावस्या दुर्गा पूजा या नवरात्र की शुरुआत को दर्शाता है. महालया से ही नवरात्रों की शुरुआत हो जाती है.

महालया अमावस्या की काली रात को मां दुर्गा की पूजा की जाती है और उनसे प्रार्थना की जाती और 'जागो तुमि जागो ' के मंत्रों के उच्चारण के साथ उन्हें धरती पर आने का आह्वान किया जाता है ताकि अपने भक्तों को आशीर्वाद दें.

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन मां दुर्गा धरती पर आकर असुर शक्तियों से अपने बच्चों की रक्षा करती हैं. यह देवी पक्ष की शुरुआत के साथ पितृपक्ष का अंत भी माना जाता है. महालया के दिन पितर अपने पुत्रादि से पिंडदान और तिलांजलि प्राप्त कर अपने पुत्र और परिवार को सुख-शांति और समृद्धि का आशीर्वाद प्रदान अपने घर चले जाते हैं. 

महालया से देवता फिर अपने स्थान पर वास करने लगते हैं. पितृपक्ष में 15 दिन देवताओं की नहीं, पितरों की पूजा-अर्चना होती है. महालया से देवी-देवताओं की पूजा शुरू हो जाती है. इसलिए इसे देवी पक्ष भी कहा जाता है. 

महालया त्योहार ज्यादातर बंगाली बंधुओं द्वारा मनाया जाता है. महालया नवरात्र या दुर्गा पूजा की शुरुआत मानी जाती है. 

महालया त्योहार का इतिहास तब से जुड़ा है जब श्रीराम ने लंका युद्ध के लिए जाने से पहले देवी मां दुर्गा की पूजा की थी. उन्होंने देवी से आशीर्वाद लिए ताकि वे सीता को रावण के चंगुल से सफलतापूर्वक छुड़ा कर ला सकें.  माना जाता है जब श्रीराम माता दुर्गा की पूजा कर रहे थे तो सभी देवताओं ने भी उनके साथ मिलकर दुर्गा मां की पूजा की थी, इसी दिन देवी दुर्गा ने स्वर्ग से पृथ्वी का सफ़र शुरू किया था.

एक और कहानी जो महालया से जुडी है वो है ,कर्ण की कहानी. कर्ण को दानवीर कहा जाता है, क्योंकि वह भोजन को छोड़कर सब कुछ दान देते थे. उनकी मृत्यु के बाद भी उन्हें पृथ्वी पर 14 दिन का समय दिया ताकि वे जितना ज्यादा हो सके दान कर सकें.

एक अन्य हिंदू मान्यता के अनुसार, मां दुर्गा का भगवान शिव से विवाह होने के बाद जब वह अपने मायके लौटी थीं और उस आगमन के लिए खास तैयारी की गई. इस आगमन को महालया के रूप में मनाया जाता है.  जबकि बांग्ला मान्यता के अनुसार, महालया के दिन मां की मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार, मां दुर्गा की आंखों को बनाते हैं जिसे चक्षुदान भी कहते हैं, जिसका मतलब है आंखें प्रदान करना. 

सौर आश्विन के कृष्णपक्ष का नाम महालया है. इस पक्ष के अमावस्या तिथि को ही महालया कहा जाता है. माता दुर्गा के आगमन के इस दिन को महालया के रूप में भी मनाया जाता है, महालया के अगले दिन से मां दुर्गा के नौ दिनों की पूजा के लिए कलश स्थापना की जाती है , इसके साथ ही देवी के नौ रूपों की पूजा के साथ नवरात्रि की पूजा शुरू हो जाती है. फिर क्रमशः माता शैलपुत्री से लेकर माता सिद्धिदात्री की पूजा-अर्चना की जाएगी.


(यह लेख पंकज पीयूष की अनुमति से उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है)