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Thursday, March 23, 2023

आने वाले दशक भयावह जलसंकट के होंगे

दुनिया पानी में है लेकिन पीने लायक पानी में नहीं. पूरी धरती पर मौजूद कुल पानी का महज 4 फीसद हिस्सा ही पीने लायक है. और कहने वाले कहते हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी की वजह से लड़ा जाएगा.

दुनियाभर के 40 देश गहरे जलसंकट से जूझ रहे हैं और बढ़ती आबादी और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर भारत में भी यह संकट गहरा होता जा रहा है. भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता जा रहा है. जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जाएगी, शहरीकरण भी बढ़ता जाएगा और उसके साथ जलवायु परिवर्तन भी तेज होगा और इसके प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं.

इसके साथ ही लोगों की खाने की आदतों में भी बदलाव आएगा और इन सबके मिले-जुले प्रभाव से भविष्य में पानी का मांग में जबरदस्त इजाफा होगा.

नीति आयोग ने जून, 2019 में ‘कंपॉजिट वाटर मैनेजमेंट इंडैक्स रिपोर्ट’ जारी की थी, इसमें बताया गया है कि देश में 60 करोड़ लोग अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, सालाना 1700 क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति से कम पानी की उपलब्धता को ‘जलसंकट’ माना जाता है.

मौजूदा चलन के हिसाब से देखा जाए तो 2030 तक जल की मांग में करीबन 40 फीसद की वृद्धि होगी और धारा के विरुद्ध (अपस्ट्रीम) जलापूर्ति के लिए सरकारों को करीबन 200 अरब डॉलर सालाना खर्च करना होगा. इसकी वजह यह होगी कि पानी की मांग जलापूर्ति के सस्ते साधनों से पूरी नहीं हो पाएगी. वैसे, बता दें अभी दुनिया भर में कुल मिलाकर औसतन 40 से 45 अरब डॉलर का खर्च जलापूर्ति यानी वॉटर सप्लाई पर आता है.

टिकाऊ विकास के लिए स्वच्छ जल का विश्वसनीय स्रोत होना बेहद जरूरी है. जब स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होगा, तो दुनिया की गरीब आबादी को अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा इसे खरीदने में खर्च करना होगा, या फिर उनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इसको ढोने में खर्च हो जाएगा. इससे विकास बाधित होगा.

पूरी दुनिया में ताजे पानी के एक फीसद का भी आधा हिस्सा ही मानवता और पारितंत्र (इकोसिस्टम्स) की जरूरतों के लिए उपलब्ध है. जाहिर है, हमें कम मात्रा में इसका इस्तेमाल बेहतर तरीके से करना सीखना होगा. मिसाल के तौर पर, दुनिया भर में ताजे पानी का खर्च का 70 फीसद हिस्सा कृषि सेक्टर में इस्तेमाल में लाया जाता है. दुनिया भर में आबादी बढ़ने के साथ ही, कृषि क्षेत्र भी जल संसाधनों पर दबाव बढ़ाने लगेगा.

ऐसे में हमें उन जल संरक्षण परंपराओं को ध्यान में रखना और विकसित करना होगा, जिसको हमारे पुरखे अपनाते आए हैं. पर हमें खास खयाल रखना होगा कि नदियां बची रहें. हमने लापरवाही की वजह से, और कई बार जान-बूझकर कई नदियों को खत्म कर दिया है. बहुत सारी नदियां बारहमासी नदियों से मौसमी नदियों में तब्दील हो गई हैं. ज्यादातर नदियों की पाट में अतिक्रमण करके घर, खेत, फैक्ट्री, रिजॉर्ट बना लिए गए हैं.

असल में, नदियों को लेकर हमारे विचारों में बहुत पोलापन है. या तो हम सीधे मां और देवी कह कर नदियों की आरती करेंगे, चूनर और प्रसाद चढ़ाएंगे, लेकिन अपने घरों का गू भी उसी में बहाएंगे.

आम तौर पर माना जाता है कि नदी का काम पानी ले जाना है, जो आगे जाकर समुद्र में मिल जाती है. लेकिन, क्या हमने कभी यह सुना है कि नदी का काम गाद ले जाना भी है? ख़ासकर गंगा जैसी नदियों के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण है. यह बुनियादी सोच ही शायद योजनाओं और परियोजनाओं में जगह नहीं बना पाई है.

मैं आज, 2023 में आपको अगले पांच सालों में भयावह रूप अख्तियार कर रहे जल संकट की चेतावनी दे रहा हूं. हमारी आबादी पेड़ों और नदियों की दुश्मन हो गई है, अभी भी नहीं चेते तो बाद में मैय्यो-दय्यो करने से कुछ हासिल नहीं होगा.

Monday, March 8, 2021

पंचतत्वः अधिक पड़ता है निचले तबकों और औरतों पर जलवायु परिवर्तन का असर

दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन हो रहा है इस बात में किसी को कोई शक नहीं हो सकता और इसके असरात भी हर तबके पर अलग किस्म से पड़ रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के असर बहुस्तरीय होते हैं और अब यह देखना भी बेहद दिलचस्प होगा कि आखिर महिलाओं की आधी आबादी पर जलवायु परिवर्तन का क्या असर है.

क्या यह महज पर्यावरणीय मुद्दा न होकर सामाजिक न्याय से जुड़ा मसला भी है? क्या इसको सामाजिक-आर्थिक मसले के रूप में देखने क साथ राजनैतिक मुद्दे के रूप में देखा जा सकता है?

पर्यावरण के मुद्दे पर हुए एक बेविनार में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सुचित्रा सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन पर असर डालने वाले कारकों में उन्ही बीमारियों जैसी समानता है जो महामारी में तब्दील हो जाती हैं.”

कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन मौसमी घटनाओं में अचानक और अत्यधिक रूप से आई बढोतरी है और जो कई संक्रामक बीमारियों के फैलने में सहायक होती हैं.

प्रो. सेन ने अपने संबोधन में आगे कहा, “वैश्विक आर्थिक परिदृश्य ऐसा हो चला है कि कोई भी महामारी या संक्रमण अब स्थानीय नहीं रहता, वैश्विक रूप अख्तियार कर लेता है.”

वैसे, यह तय है कि जलवायु परिवर्तन का असर गरीबों और अमीरों पर अलग अंदाज में होता है और आने वाली पीढ़ियों में यह और बढ़ेगा ही. उसी वेबिनार में प्रो. सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए तैयार की गई नीतियां खतरनाक तरीके गैर-बराबरी के नतीजे देंगी और इसमें गरीब और कमजोर लोग नीतियों के दायरे से बाहर हो जाएंगे.”

मानवजनित जलवायु परिवर्तन को स्पष्ट रूप से बढ़ते तापमान, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों के पिघलने, बाढ़, सूखे, हर साल चक्रवात आने की संख्या बढ़ने में देखा जा सकता है, पर जो स्पष्ट रूप से नहीं दिख रहा है कि इन परिवर्तनों का समाज के कमजोर तबको पर क्या खास असर पड़ता है.

चूंकि, यह दिख नहीं रहा है इसलिए यह तबका नीतिगत विमर्शों के दायरे से बाहर है.

असल में सिंधु-गंगा का उत्तरी भारत का मैदान बेहद उपजाऊ है और इस इलाके में खेती में पुरुषों का ही वर्चस्व है. जबकि, समाज में स्त्रियों की दशा की स्थिति में ब्रह्मपुत्र बेसिन में ऊपरी इलाकों में अलग आयाम हैं. पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में कामकाज में महिलाओं की अधिक हिस्सेदारी है और मैदानी भारत की तुलना में पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में महिला साक्षरता की दर भी अलग है.

प्रो सेन ने अपने अध्ययन में भी बताया है कि ब्रह्मपुत्र नदी के नजदीक रहने वालों में गरीबी अधिक है और वह अधिक बाढ़, अपरदन और नदी की धारा बदलने का सामना करते हैं और उनका संपत्ति (भूमि) पर अधिकार भी पारिभाषित नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि कटाव का असर उधर अधिक होता है. दूसरी तरफ नदी से दूर बसे इलाकों में जमीन की मिल्कियत स्पष्ट रूप से चिन्हित होती है.

जलवायु परिवर्तन के सीधे लक्षणों में अमूमन तापमान और बारिश में बढ़ोतरी को ही शामिल किया जाता है. लेकिन नदी के बढ़ते जलस्तर, जब तब होने वाली बारिश और तूफान, मछली, परिंदों और जानवरों के नस्लों का खत्म होता जाना, भूमि की उर्वरा शक्ति घटना यह ऐसी बातें है, जिनका असर हमारी आधी आबादी पर अधिक पड़ रहा है.

मैदानी इलाकों में भी जहां, खेती का नियंत्रण भले ही मर्दों के हाथ में हो लेकिन खेती के अधिकतर काम, बुआई, कटाई और दोनाई में महिलाओं की हिस्सेदारी अधिक होती है, जलवायु परिवर्तन का असर साफ दिख रहा है.

Tuesday, February 23, 2021

पंचतत्वः एक संकल्प हमारे नदी पोखरों के लिए भी

पूरब के महत्वपूर्ण और पवित्र माने जाने वाले त्योहार छठ का एक अभिन्न हिस्सा है नदी तालाबों में कमर भर पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना. सूर्य शाश्वत है, पर समाज ने तालाबों और नदियों को बिसरा दिया है. तालाब-पोखरों और नदियों के अस्तित्व पर आया गंभीर संकट इसी बिसराए जाने का परिणाम है. अगस्त के महीने में आपने बिहार, असम और केरल जैसा राज्यों में भयानक बाढ़ की खबरें भी पढ़ी होंगी, ऐसे में अगर मैं यह लिखूं कि देश की बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं और उनमें पानी कम हो रहा है तो क्या यह भाषायी विरोधाभास होगा? पर समस्या की जड़ कहीं और है.

क्या आपने पिछले कुछ बरसों से मॉनसून की बेढब चाल की ओर नजर फेरी है? बारिश के मौसम में बादलों की बेरुखी और फिर धारासार बरसात का क्या नदियों की धारा में कमी से कोई रिश्ता है? मूसलाधार बरसात के दिन बढ़ गए और रिमझिम फुहारों के दिन कम हो गए हैं. मात्रा के लिहाज से कहा जाए तो पिछले कुछ सालों में घमासान बारिश ज्यादा होने लगी है. पिछले 20 साल में 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में बढोतरी हुई है, लेकिन 10 सेमी से कम बारिश वाले दिनों की गिनती कम हो गई है.

तो मॉनसून की चाल में इस बदलाव का असर क्या नदियों की सेहत पर भी पड़ा है? एक आसान-सा सवाल हैः नदियों में पानी आता कहां से है? मॉनसून के बारिश से ही. और मूसलाधार बरसात का पानी तो बहकर निकल जाता है. हल्की और रिमझिम बरसात का पानी ही जमीन के नीचे संचित होता है और नदियों को सालों भर बहने का पानी मुहैया कराता है. लेकिन नदियों के पानी में कमी से उसका चरित्र भी बदल रहा है और बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदलती जा रही हैं और यह घटना सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं पूरी दुनिया की नदियों में देखी जा रही है.

दुनिया की सारी नदियों का बहाव जंगल के बीच से हैं. इसके चलते नदियां बची हैं. जहां नदियों के बेसिन में जंगल काटे गए हैं वहां नदियों में पानी कम हुआ है. नदियों को अविरल बहने के लिए पानी नहीं मिल रहा है. बरसात रहने तक तो मामला ठीक रहता है लेकिन जैसे ही बरसात खत्म होती है नदियां सूखने लग रही हैं. भूजल ठीक से चार्ज नहीं हो रही है. यह मौसमी चक्र टूट गया है.

पुणे की संस्था फोरम फॉर पॉलिसी डायलॉग्स ऑन वॉटर कॉन्फ्लिक्ट्स इन इंडिया का एक अध्ययन बताता है कि बारहों महीने पानी से भरी रहने वाली नदियों में पानी कम होते जाने का चलन दुनिया भर में दिख रहा है और अत्यधिक दोहन और बड़े पैमाने पर उनकी धारा मोड़ने की वजह से अधिकतर नदियां अब अपने मुहानों पर जाकर समंदर से नहीं मिल पातीं. इनमें मिस्र की नील, उत्तरी अमेरिका की कॉलरेडो, भारत और पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु, मध्य एशिया की आमू और सायर दरिया भी शामिल है. अब इन नदियों की औकात एक पतले नाले से अधिक की नहीं रह गई है. समस्या सिर्फ पानी कम होना ही नहीं है, कई बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं.

वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने पहली बार दुनिया की लंबी नदियों का एक अध्ययन किया है और इसके निष्कर्ष खतरनाक नतीजों की तरफ इशारा कर रहे हैं. मई, 2019 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती पर 246 लंबी नदियों में से महज 37 फीसदी ही बाकी बची हैं और अविरल बह पा रही हैं.

इस अध्ययन में आर्कटिक को छोड़कर बाकी सभी नदी बेसिनों में जंगलों की बेतहाशा कटाई हुई है. अमेज़न के वर्षावनों का वजूद ही अब खतरे में है. सिर्फ अमेज़न नदी पर 1500 से ज़्यादा पनबिजली परियोजनाएं हैं. विकास की राह में नदियों की मौत आ रही है.

इसकी मिसाल गंगा भी है. पिछले साल जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तर प्रदेश के जलकल विभाग को एक चेतावनी जारी करनी पड़ी क्योंकि वाराणसी, प्रयागराज, कानपुर और दूसरी कई जगहों पर गंगा नदी का जलस्तर न्यूनतम बिंदु तक पहुंच गया था. इन शहरों में कई जगहों पर गंगा इतनी सूख चुकी थी कि वहां डुबकी लगाने लायक पानी भी नहीं बचा था. कानपुर में गंगा की धारा के बीच में रेत के बड़े-बड़े टीले दिखाई देने लगे थे. यहां तक कि पेयजल की आपूर्ति के लिए भैरोंघाट पंपिंग स्टेशन पर बालू की बोरियों का बांध बनाकर पानी की दिशा बदलनी पड़ी. गर्मियों में गंगा के जलस्तर में आ रही कमी का असर और भी तरीके से दिखने लगा था क्योंकि प्रयागराज, कानपुर और वाराणसी के इलाकों में हैंडपंप या तो सूख गए या कम पानी देने लगे थे.

पानी कम होने का ट्रेंड देश की लगभग हर नदी में है और नदी बेसिनों में बारिश की मात्रा में कमी भी है. हमने इस पर अभी ध्यान नहीं दिया तो बड़ी संपदा से हाथ धो देंगे.

Friday, February 14, 2020

नदीसूत्रः मुंबई की मीठी नदी का कड़वा वर्तमान और जहरीला भविष्य

मायानगरी मुंबई कुछ महीनों पहले सोशल मीडिया पर आरे के जंगल बचाने जाग गई थी. पर शहर के लोगों ने एक मरती हुई नदी पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया. मुंबई ने एक नदी को मौत की नींद सोने पर मजबूर कर दिया है. नाम है मीठी, पर इसका भविष्य और वर्तमान दोनों कड़वा-कसैला है.

मायानगरी मुंबई कुछ महीनों पहले सोशल मीडिया पर आरे के जंगल बचाने जाग गई थी. पर शहर के लोगों ने एक मरती हुई नदी पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया. मुंबई ने एक नदी को मौत की नींद सोने पर मजबूर कर दिया है. नाम है मीठी, पर इसका भविष्य और वर्तमान दोनों कड़वा-कसैला है. खुद महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने माना है कि मीठी नदी में अवशिष्ट पदार्थ की मात्रा तयशुदा मानकों से 16 गुना अधिक है.

करीब 17.8 किमी लंबी मीठी नदी मुंबई के दिल से गुजरती है और माहीम क्रीक में जाकर मिल जाती है और बोर्ड के मुताबिक इसमें प्रदूषण उच्चतम स्तर का है.

झटके खाने वाली बात यह है कि आरे के जंगलों पर आरा चलने की खबर से एक्टिव मोड में आ गए मुंबईकर मीठी नदी की दुर्दशा पर अमूमन चुप हैं. और सरकार ने इस नदी के पुनरोद्धार पर सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए हैं पर समस्या का निराकरण कहीं दिखता तक नहीं है. इस नदी में अभी फीकल कॉलीफॉर्म, एक बैक्टिरिया जो इंसानों और जानवरों के मल में मौजूद होता है, की उच्चतम मात्रा मौजूद है. 2018 के जनवरी-मार्च महीनों में मीठी नदी में यह बैक्टिरिया 1,600 प्रति 100 मिली था, जबकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मुताबिक यह तयशुदा मात्रा 100 प्रति 100 मिली ही होनी चाहिए.

हालांकि, 2005 में मुंबई में आई बाढ़ के बाद राज्य सरकार ने मीठी रिवर डिवेलपमेंट ऐंड प्रोटेक्शन अथॉरिटी (एमआरडीपीए) का गठन किया था और इसने ताजा जानकारी मिलने तक (2018 तक), इसके मद में 1,156 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं.

करीबन डेढ़ दशक के पुनरोत्थान कार्य के बाद भी नदी की सांस घुट रही है. असल में, इंडिया टुडे में 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में लिखा गया कि इस रकम का अधिकतर हिस्सा नदी को गहरा और चौड़ा करने में खर्च हो गया. साथ में नदी के साथ की दीवारों की भी मरम्मत की गई. महाराष्ट्र सरकार के ताजा आंकड़े के मुताबिक, मीठी नदी को पुनर्जीवित करने का पूरा मद करीबन 2136.89 करोड़ रुपए है. इनमें से करीबन 1156.75 करोड़ रु. को 12 पुल बनाने. नदी को चौड़ा करने, दीवारें खड़ी करने, अतिक्रमण हटाने, सर्विस रोड बनाने और गाद हटाने में खर्च किया जा चुका है.

पर यह तो अगली बाढ़ से बचाव का रास्ता हुआ. यह तो महानगर का स्वार्थ है. नदी के लिए क्या काम हुआ? इस रिपोर्ट में लिखा गया कि उस वक्त मद में बचे 600 करोड़ को नदी पर मौजूद पांच पुलो, माहीम कॉजवे, तान्सा, तुलसी, धारावी और माहीम रेलवे ब्रिज को चौड़ा करने में खर्च किया जाना है. इससे नदी का संकरा रास्ता चौड़ा हो जाएगा.

पर नदी की सेहत की बात करें तो मीठी नदी में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) सुरक्षित स्तर से पांच गुना अधिक है. बीओडी पानी में जलीय जीवन के जीवित रहने के लिए जरूरी ऑक्सीजन की मात्रा होती है. हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित 2019 की एक रिपोर्ट में आइआइटी बॉम्बे और एनईईआरआइ को उद्धृत करते हुए कहा है कि औद्योगिक अपशिष्ट और ठोस कचरे ने मीठी नदी को एक खुले नाले में बदल दिया है.

वैसे इस नदी को साफ करना कोई खेल नहीं है. इसके दोनों किनारों पर करीब 15 लाख लोग झुग्गियों में रहते हैं.

द हिंदू में प्रकाशित जून, 2019 एक लेख में महाराष्ट्र के पर्यावरण मंत्री रामदास कदम को उद्धृत किया गया है जिन्होंने 2015 में कहा था कि मीठी नदी में 93 फीसद अपशिष्ट घरेलू है जबकि बाकी का 7 फीसद ही औद्योगिक कचरा है. पर सचाई यह है कि इस नदी के किनारे करीबन 1500 औद्योगिक इकाईयां है और उनमें से अधिकतर अपना अपशिष्ट सीधे इसी नदी में बहाते हैं.

असल में इस नदी के किनारे की झुग्गियों में कचरा निस्तारण व्यवस्ता ठीक नहीं है. ऐसे में लोगों को सारा अपशिष्ट नदी में ही डालने पर मजबूर होना होता है.

2004 में मीठी नदी के प्रदूषण पर महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में एक रिपोर्ट दाखिल की गई जिसमें कहा गया कि यह नदी अपने उद्गम पर ही प्रदूषित हो जाती है. रिपोर्ट के मुताबिक, "नदी घनी आबादी से होकर बहती है और इस आबादी का सीवेज इस नदी को मुंबई के सबसे बड़े नाले में बदल देता है."


मीठी नदी, मुंबई 
सरकार ने उस वक्त इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया और जब 26 जुलाई, 2005 को शहर को एक ही दिन में 944 मिमी की बरसात झेलनी पड़ी और जिसमें करीबन 1000 लोग मारे गए तो लोगों की आंख खुली. इस सैलाब के पीछे बरसात के साथ साथ नदी का बदला भी था. एक फैक्ट फाइंडिंग कमिटी ने पाया कि मीठी की कम चौड़ाई ही इस सैलाब की बड़ी वजहों में से क थी. बाढ़ के बाद सरकार ने प्रस्ताव पास किया और जैसा कि ऊपर मैंने बताया, एमआरडीपीए की गठन किया गया. इस अथॉरिटी की भूमिका विकास योजनाएं बनाना और इसके किनारे रह रहे लोगों का पुनर्वास वगैरह था.

पर डेढ़ दशक के बाद और हजार करोड़ रुपए बहाने के बाद आज भी मीठी नदी की हालत जस की तस ही है. वैसे महाराष्ट्र में पिछली फड़णवीस सरकार ने मीठी को बचाने के लिए एक रिवर एंदेम बनाया था. पर, नदी को बचाने के लिए घाट, सड़क-पुल-दीवार बनाना झुंझला देने वाली बात है.

हमारी नदियों को आरती और चुनर चढ़ाए जाने की ज़रूरत नहीं है. उनमें सीवर का मल नहीं, साफ पानी बहे, तब उनकी जान बचेगी. मीठी नदी मर गई तो मुंबई के लिए सबक कड़वा होगा.

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Friday, February 7, 2020

नदीसूत्रः स्वर्ग ले जानी वाली नदी वैतरणी आखिर है किधर

हिंदुओं के लिए स्वर्ग के द्वार खोलने वाली वैतरणी नदी ओडिशा में भी है और महाराष्ट्र में भी. रावी, व्यास और सतलज हांगकांग में भी हैं और कर्नाटक की अधिकांश नदियों के नाम वैदिक संस्कृत में हैं. जाहिर है, नदियों के नाम इतिहास के सूत्र छोड़ते हैं. भाषा विज्ञानियों को इस दिशा में काम करना चाहिए.

नदियों के नामों को लेकर पिछली एक पोस्ट पर बहुत दिलचस्प जानकारियां मुझे मिली थीं और आपके साथ साझा भी किया था. इसको आगे बढ़ाने का मन है. 

हिंदुओं के लिए गरुण पुराण बेहद महत्वपूर्ण है. मुमुक्षुओं के लिए इसकी महत्ता काफी अधिक है और आखिरी सांसें गिन रहे लोगों को यह पुराण पढ़कर सुनाया जाता है. गुरुड़ पुराण के मुताबिक, मरने के बाद वैतरणी नाम की नदी पार करनी होती है. बहरहाल, ओडिशा में एक नदी है जिसका नाम वैतरणी है. इसके बेसिन को ब्राह्मणी-वैतरणी बेसिन कहा जाता है. लेकिन इसके साथ ही महाराष्ट्र में भी एक वैतरणी नदी है, जो नासिक के पास पश्चिमी घाट से निकलती है और अरब सागर में गिरती है. अब इसमें से किस नदी को पार करने पर स्वर्ग मिलेगा यह स्पष्ट नहीं है.

वैतरणी से थोड़ी ही दूरी पर मशहूर गोदावरी का भी उद्गम स्थल है, और नासिक के पास से निकलकर यह प्रायद्वीपीय भारत की सबसे लंबी नदी बन जाती है. इसको दक्षिण की गंगा भी कहते ही हैं. लेकिन, एक अदद गोदावरी नेपाल में भी है. वैसे, बुंदेलखंड के चित्रकूट में एक गुप्त गोदावरी भी निकलती है और जो एक पहाड़ी गुफा के भीतर से पतली धारा के रूप में बहती है. गोदावरी की सहायक नदी है इंद्रावती, जो छत्तीसगढ़ में बहती है पर एक इंद्रावती नेपाल में भी मौजूद है.

उत्तर प्रदेश की प्रदूषित नदियों में शर्मनाक रूप से टॉप पर रहने वाली गोमती नदी की बात करें तो एक गोमती त्रिपुरा में भी है जो वहां से आगे बांग्लादेश में घुस जाती है. इसी नदी पर त्रिपुरा में का सबसे बड़ा और बदनाम बांध बना हुआ है. गंगा का नाम तो नदी शब्द का करीबन पर्यायवाची ही बन गया है. आदिगंगा से लेकर गोरीगंगा और काली गंगा से लेकर वनगंगा और बाल गंगा तक नाम की नदियां अस्तित्व में हैं.

पंजाब की रावी का एक नाम इरावती भी है. लेकिन, एक और इरावती है. पर यह इरावती नमाइ और माली नदियों के मिलने से बनती है और म्यांमार में बहती है. यह हिमालयी हिमनदों से शुरू होती है. पंजाब वाली रावी पाकिस्तान होती हुई सिंधु में मिल जाती है और म्यांमार वाली इरावदी अंडमान सागर में.

परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि कावेरी नाम की भी दो नदियां हैं. एक तो वह मशहूर कावेरी नदी, जिसके पानी के लिए तमिलनाडु और कर्नाटक में रार मचा रहता है. जबकि दूसरी कावेरी पश्चिम की तरफ बहने वाली नदी नर्मदा की सहायक नदी है और दांडेकर के मुताबिक, ओंकारेश्वर नर्मदा और कावेरी के संगम पर ही बसा है.

दांडेकर अपने लेख में चर्चा करती हैं कि हांगकांग में सतलज, झेलम और व्यास नदियां मौजूद हैं. संभवतया, यह 1860 के आसपास हुआ जब हांगकांग में तैनात पंजाब के सिख सैनिकों ने वहां की नदियों के नाम अपने पसंद के रख दिए. हांगकांग की सबसे बड़ी ताजे पानी की नम भूमि लॉन्ग वैली को दोआब नाम दिया गया और यह वहां की सतलज और व्यास के बीच की भूमि है. शायद, इन छोटे मैदानों को देखकर सिख फौजियों को अपने वतन की याद आती होगी.

दांडेकर अपने लेख में धीमान दासगुप्ता को उद्धृत करती हैं जो कहते है कि लोग अपने साथ कुछ नाम भी लिए चलते हैं. मसलन, "प्राचीन वैदिक लोग अपने साथ नाम लेकर चले थे. असली सरस्वती और सरयू नदियां (जिनका जिक्र रामायण में है, अफगानिस्तान और ईरान में थीं. असली यमुना फारस की मुख्य देवी थीं." जाहिर है, इतिहास के इस नए नजरिए के साथ भी देखना चाहिए.

नदियों के नामों में वैदिक संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट रूप से कर्नाटक में दिखता है जहां शाल्मला, नेत्रावती, कुमारधारा, पयस्विनी, शौपर्णिका, स्वर्णा, अर्कावती, अग्नाशिनी, कबिनी, वेदवती, कुमुदावती, शर्वती, वृषभावती, गात्रप्रभा, मालप्रभा जैसी नदियों के नाम मौजूद हैं.

गुजरात की नदियों साबरमती और रुक्मावती का नाम याद करिए. कितने सुंदर और शास्त्रीय नाम हैं! लेकिन एक नदी वहां ऐसी भी है जिसका नाम है भूखी. एक अन्य नदी है उतावली. राजस्थान अलवर जिले में एक नदी का नाम जहाजवाली भी है.

कुछ नदियों के नाम भी वक्त के साथ बदले हैं जैसे, गोदावरी आंध्र प्रदेश में गोदारी कही जाने लगती है और पद्मा बांग्लादेश में पोद्दा. चर्मावती चंबल हो जाती है और वेत्रावती, बेतवा.

दांडेकर लिखती हैं, कुछ नदियों के नाम में इलाकाई और भाषायी असर भी आता है. मसलन, तमिल और मलयालम में आर और पुझा (यानी नदी) कई नदियों के नाम में जुड़ा हुआ है. गौर कीजिए, चालाकुडी पूझा, पेरियार, पेंडियार वगैरह. इसी तरह भूटान, सिक्कम और तवांग इलाके में छू का मतलब नदी ही होता है. अब वहां की नदियों हैं, न्यामजांगछू या राथोंग छू. तो अब इसके आगे नदी शब्द मत लगाइए. क्योंकि पहले ही छू कहकर नदी कह चुके हैं. असम में भी नदियों के नाम के आगे कुछ खास शब्द लगाए जाते हैं, और वो हैं दि. दिहांग, दिबांग, दिखोऊ, दिक्रोंग आदि. बोडो में दि शब्द का मतलब होता है पानी और याद रखिए ब्रह्मपुत्र घाटी में सबसे पहले बसने का दावा भी बोडी ही करते हैं.

जाहिर है, नदियों के नाम इतिहास के सूत्र छोड़ते हैं. भाषा विज्ञानियों को इस दिशा में काम करना चाहिए.

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Wednesday, January 29, 2020

नदीसूत्रः ...और जी उठी पौराणिक महत्व की नदी छोटी सरयू

अब तक हमने नदीसूत्र में नदियों की व्यथा कथा ही लिखी थी. पर कुछ लोग वाकई अपनी तरफ से योगदान देकर विरासत बचा रहे हैं. सरयू की पूर्व धारा रही छोटी सरयू भी काल के गाल में समाने वाली थी, पर पवन सिंह जैसे कुछ लोगों ने अथक मेहनत से उसे बचा लिया. लिहाजा, नदी जी गई है.

हाल में खबर आई कि उत्तर प्रदेश शासन ने घाघरा नदी, जिसको अयोध्या के आसपास के टुकड़े को सरयू कहा जाता था, का नाम बदलकर सरयू कर दिया. नाम बदलने में कोई बुराई नहीं. पर आराध्य राम से जुड़ी सरयू नदी पर सरकार की इतनी कृपा है तो थोड़ी कृपादृष्टि तो छोटी सरयू पर भी बनती थी. आजमगढ़ की नदियों पर काम कर रहे और गैर-सरकारी संस्था लोक दायित्व के संयोजक पवन कुमार सिंह ने 2018 में छोटी सरयू को मूल सरयू का नाम देकर इसको बचाने के लिए अभियान प्रारम्भ किया. उनका कहना है कि छोटी सरयू ही मूल सरयू है.

बहरहाल, 2018 तक स्थिति यह थी कि आकार में काफी हद तक सिकुड़ चुकी छोटी सरयू नदी का क्षेत्रफल लगातार सिमटता जा रहा था. (अभी यह बहुत संकरे बरसाती नाले की रूप में है) साफ-सफाई न होने से नदी का प्रवाह थम-सा गया था. आजमगढ़ के लाटघाट से शुरू हुआ 59 किलोमीटर का सफर तय करते-करते नगर की तलहटी में प्रवाहित तमसा तक आते-आते नदी का पानी काला पड़ जाता था. नदी का अस्तित्व मिटने के कगार पर पहुंच गया था पर प्रशासन मौन ही रहा.

आंबेडकर नगर जिले से निकली छोटी सरयू नदी आजमगढ के विभिन्न इलाकों से होते हुए बड़गांव ब्लाक क्षेत्र से होते हुए कोपागंज ब्लाक के सहरोज गांव के पास टौंस नदी में मिल जाती है. एक जमाना था कोपागंज ब्लॉक क्षेत्र के सिंचाई का एकमात्र साधन छोटी सरयू नदी थी. सैकड़ों गांवों के लोग पेयजल के लिए भी इसी पर निर्भर थे.


लेकिन प्रदूषण की मार से कहीं-कहीं नदी का पानी इतना जहरीला हो गया है कि पशु भी इसका पानी पीने से कतराते हैं. इस नदी में पानी की कमी थी और गर्मियों में हालात और भी खराब थे.

आजमगढ़ जिले के महुआ गढ़वल रेगुलेटर से समय-समय पर पानी छोड़ा जाता, तो नदी में थोड़ी जिंदगी लौट आती थी. अतिक्रमण सुरसा की तरह अलग मुंह फाड़े नदी को निगल रही थी (यह संकट अब भी है) लोकदायित्व संस्था के पवन सिंह कहते हैं, "सिकुड़ती नदियां और उनका प्रदूषण आज राष्ट्रीय चिंता का विषय है. गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा आदि बड़ी नदियों पर सरकारी प्रोजेक्ट चल रहे हैं. इन बड़ी नदियों को पोषित करने वाली छोटी नदियों की दुर्दशा पर भी लोगों को और प्रशासन को ध्यान देना चाहिए."

बहरहाल, लोकदायित्व और पवन सिंह ने दायित्व उठाया कि छोटी सरयू को दोबारा जिलाया जाए.

असल में, आजमगढ़ जिले में छोटी-बड़ी मिलाकर लगभग डेढ़ दर्जन नदियां हैं जिनके बेसिन में पानी का ऐसा संकट है कि वहां डार्क जोन बन रहा है. पवन सिंह कहते हैं कि आजमगढ़ जिले के उत्तरी इलाके के तमाम गांव में जलस्तर  काफी नीचे चला गया है और पानी प्रदूषित हो चुका है. जबकि इस क्षेत्र में सरयू नदी का एक बड़ा तंत्र रहा है, जिसके अवशेष आज भी दिखते हैं. ऐसी ही एक नदी है- छोटी सरयू.

लोकदायित्व ने 2018 में छोटी सरयू को मूल सरयू का नाम देकर इसको बचाने के लिए अभियान प्रारम्भ किया.
असल में, मूल सरयू नदी, जिसे सरकारी अभिलेखों में छोटी सरयू के नाम से दर्ज किया गया है, पहले सरयू की मुख्य धारा हुआ करती थी. समय के साथ अपने कटाव और धारा बदलती हुई यह नदी पिछले कुछ सदियों में 15 से 70 किमी तक उत्तर दिशा की ओर बढ़ गयी. इसके छाड़न के रूप में नदी का मार्ग रह गया, जिसे बाद में छोटी सरयू कहा जाने लगा.

छोटी सरयू कम्हरिया घाट से करीब तीन किमी पूर्व की तरफ कम्हरिया मांझा से निकलती है. यहां से कुछ आगे गढ़वल बाजार के पूरब से आती स्थानीय नदी पिकिया इसमें मिलती है. इस संगम पर मोहरे बाबा का स्थान है. आंबेडकर नगर जिले के प्रसिद्ध पौराणिक स्थल भैरव बाबा पर अतरौलिया बाजार की तरफ से एक नदी (जिसे सरकारी अभिलेख में छोटी सरयू भाग-1 कहा गया है) आकर मिलती है. बहवलघाट होते हुए यह नदी प्रसिद्ध सलोना ताल के बाद मऊ जिले में प्रवेश करती है.

छोटी सरयू की पौराणिकता की तरफ इशारा करते हुए श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान दिल्ली के डॉ. रामअवतार शर्मा ने कहा है कि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण इसी के दाहिने किनारे से आगे गए थे. स्थानीय किंवदन्ती है कि 23वें त्रेतायुग में प्रजापति दक्ष ने यहीं पर यज्ञ किया था और यहीं पर यज्ञकुंड में माता सती ने अपने प्राण दिए थे.

छोटी सरयू की व्यथा का आरंभ होता है 1955 में आई बाढ़ से. जब बाढ़ के समाधान के तौर पर इलाके में महुला गढ़वल बांध बनाया गया. इस बांध ने छोटी सरयू को बड़ी सरयू से अलग कर दिया, जिसके कारण छोटी सरयू में प्रवाहित जल से रिश्ता टूट गया, और वह बरसात के जल पर निर्भर हो गयी. जब तक बारिश ठीक होती रही नदी अपने जीवन को किसी तरह बचाती रही. धीरे धीरे जलस्तर गिरता गया नदी सिकुड़ती गयी और नदी का चरित्र बदलता गया. नदी में गिरनेवाले नालों की संख्या बढ़ती गयी जिससे उसमें जलकुंभियां और अन्य वनस्पतियां घर बनाने लगीं.

पवन सिंह कहते हैं, "नदी वेगेन शुद्धयति. नदी को शुद्ध रखना है तो उसकी अविरलता को बचाना होगा. प्रवाह में आने वाली बाधाओं को रोकना होगा. पानी में नालों के माध्यम से गिरने वाले खनिजयुक्त व उर्वर पदार्थों को रोकना होगा. महुला गढ़वल बांध पर रेगुलेटर लगाकर बाढ़ के समय नियंत्रित जल मूल सरयू में छोड़ना होगा. अवैध कब्जों को हटाना होगा. यह सभी कार्य न ही अकेले सरकार कर सकती है और न ही कोई एजेंसी. इसलिए जनजागरूकता फैलाकर लोगों को प्रशिक्षित कर इस अभियान से जोड़ना होगा."



इस नदी की हालत देखकर 25 स्वयंसेवकों की टोली के साथ लोक दायित्व और पवन सिंह ने काम करना शुरू किया. उस समय नदी में जलकुंभी और कचरे की भीषण समस्या थी. लगातार छह महीने की मेहनत से भैरव स्थल पर नदी की सूरत बदल गई है. नदी साफ लगने लगी और लोग उसमें कूड़ा फेंकना भी बंद कर चुके हैं.

इस साफ-सफाई में अच्छी बात यह हुई कि नदी तल में तीन पातालतोड़ कुएं भी निकल आए, जिससे नदी को नवजीवन मिल रहा है.

छोटी सरयू का जी जाना यह यकीन दिलाता है कि जो समाज अपने विरासतों को संभालकर रखना चाहता है, जिसके लिए नदी की पूजा कर्मकांड नहीं है, असल में वही समाज जीवित है.

(इस ब्लॉग के लिए तस्वीरें लोकदायित्व संस्था ने मुहैया कराई हैं)

Tuesday, January 14, 2020

नदीसूत्रः गंगाजल पाइपलाईन योजना बिहार सरकार का मायोपिक विजन है

एक तरफ गंगा खुद अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रही है, वहीं बिहार सरकार गंगा के 50 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी को गया भेजने के लिए भारी-भरकम योजना लेकर तैयार है. गया में भूजल स्तर सुधारने के दूसरे मुफीद तरीके अपनाने की बजाए गंगा का पानी गया तक लाने के पीछे मंशा आखिर क्या है?


सरकारें विकास की योजनाओं को लेकर किस कदर मायोपिक होती हैं इसकी ताजा मिसाल है बिहार सरकार की गंगा वॉटर लिफ्ट योजना. 18 दिसंबर की शाम बिहार सरकार की कैबिनेट की मंजूरी के बाद सूबे के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा ने फूले न समाते हुए ट्वीट कियाः "जल संसाधन मंत्रालय के प्रस्ताव को मिली कैबिनेट मंजूरी से आह्लादित हूं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जल जीवन हरियाली अभियान के तहत यह बहुमुखी और अनूठी योजना गंगा वॉटर लिफ्ट स्कीम गया, बोधगया और राजगीर जैसे शहरों में पेयजल मुहैया कराएगी."

नीतीश कुमार और संजय झा


उनका अगला ट्वीट अधिक सूचनाप्रद था जिसमें बिहार के जल संसाधन मंत्री ने बताया, "गंगाजल लिफ्ट स्कीम के पहले चरण का बजट 2836 करोड़ रुपए है और इससे गया को 43 एमसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) और राजगीर को 7 एमसीएम पानी मुहैया कराया जाएगा. यह जल दोनों ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के दोनों शहरों की जरूरतों के लिहाज से पर्याप्त होगा."

झा का तीसरा ट्वीट यह बताने के लिए काफी था कि गंगा का पानी ही फल्गु नदी में श्रद्धालुओं के नहाने के लिए छोड़ा जाएगा. क्योंकि इस भारी-भरकम बजट वाली योजना का कुछ फायदा तो आम लोगों के लिए दिखना चाहिए था. झा के ट्वीट के मुताबिक, 'यह योजना बिहार सरकार की उस कोशिश का हिस्सा है जिसके तहत सरकार फल्गु नदी में साफ पानी उपलब्ध कराना चाहती है.'

सवाल है कि आखिर इस योजना को लेकर शक क्यों है?

शक इसलिए है कि फल्गु नदी को आखिर गंगा का पानी चाहिए ही क्यों? गया जिले में बारिश कम नहीं होती. मौसम विभाग के साइट पर जाएं तो आंकड़े बताते हैं कि गया के पूरे इलाके में औसतन बरसात 110 सेमी के आसपास होती है. लेकिन सचाई यह है कि गया नगर निगम के तहत आने वाले 70 फीसदी घरों में नल का पानी नहीं आता. पूरे जिले में भूजल तेजी से नीचे गिर रहा है.

यह स्थिति तब है जब गया में फल्गु नदी के साथ ही साथ पड़ोस में दो और नदियां, जमुनी और मोरहर मौजूद हैं. दो साल पहले गया के जिलाधिकारी संजय सिंह ने इन नदियों का पानी शहर तक पहुंचाने की योजना बनाई थी. पर इस योजना का नामलेवा कोई नहीं बचा. आखिर, सरकार पानी के नाम पर वाकई कुछ बड़ा करना चाहती थी.

बिहार सरकार भी कभी फल्गु को गंगा से जोड़ने तो कभी फल्गु को सोन नदी से जोड़ने को लेकर दुविधा में रही.

बहरहाल, गंगा का पानी 170 किलोमीटर लंबे पाइपलाईन के जरिए मोकामा से गया तक लाने का काम किसी को मछली देने जैसा है, जबकि मछली पकड़ना सिखाना बेहतर विकल्प होता. बिहार सरकार ने गया के पानी की समस्या को निबटाने के लिए गया के गिरते भूजल को सुधारने की योजना क्यों नहीं बनाई? खासकर तब, जब गया जैसे इलाके में तालाब और पोखरे बनाकर और वर्षा जल संचयन के जरिए भूमिगत जल का स्तर ठीक किया जा सकता था.

वैज्ञानिक मानते हैं कि पानी को आयात करना समस्या का महज फौरी निवारण ही है. वॉटरशेड मैनेजमेंट, यानी स्थानीय बारिश को रोककर रखना, उससे भूमिगत जल के स्तर को दुरुस्त करना और बारिश के पानी को रोककर शहर में उसकी आपूर्ति करना न सिर्फ दीर्घकालिक समाधान होता बल्कि पाइप लाईन बिछाने से अधिक सस्ता और त्वरित भी होता. सरकार को गया, राजगीर, नवादा जैसे इलाकों में अधिकाधिक तालाब खुदवाने चाहिए थे. इससे मछली उत्पादन भी बढ़ता, खेतों के सिंचाई के लिए भी पानी मिलता और कुओं में भी पानी आ जाता. साथ भी यह ध्यान भी रखना चाहिए था कि गया के इलाके में अभी भी अच्छी खासी खेती होती है, जो बिना पानी के मुमकिन नहीं है. गया का इलाका अभी भी बुंदेलखंड जैसी स्थिति में नहीं पहुंचा है. हां, नदियों को जोड़ना फैशन और चलन में आ गया है तो बात और है.

दूसरी तरफ, खुद गंगा अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है. अगर गर्मियों में उससे 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा, तो खुद इसके पारितंत्र पर क्या असर पड़ेगा इसका क्या कोई अध्ययन बिहार सरकार ने कराया है?

असल में, सरकारों को लगता है कि नदी में पानी बहकर और बचकर निकल जाए तो वह पानी की बरबादी है. जबकि ऐसा है नहीं और मोकामा से अगर 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा तो उसके आगे बड़ी मात्रा में नदी के बेड में गाद भी जमा होगी. क्या राज्य सरकार उसके लिए तैयार है?

गया के आसपास जिस तरह की धरती है वहां वॉटरशेड प्रबंधन बहुत कारगर भी साबित होता. पिछली गर्मियों में मिथिला क्षेत्र के दरभंगा और मधुबनी जैसे जिलों में भी अमूमन सालों भर पानी से भरे रहने वाले पोखरे सूख गए थे, वैसे में उनको जिलाने की कोई योजना सरकार की निगाह में नहीं है. पर, गंगा का पानी गया भेजने की योजना को जिसतरह फटाफट लागू करने की तैयारी है और जिस तरह से उसके लिए रकम भी जारी की गई है, उससे तो सरकार के विकास वाले विजन पर सवालिया निशान और भी गहरा ही हो गया है. 

हां, जद-यू का अगले साल के चुनावी मैदान का विजन स्पष्ट दिख जरूर रहा है.

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Wednesday, January 8, 2020

नदीसूत्रः सोन से रूठी नर्मदा हमसे न रूठ जाए

लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं और बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है

राजा मेखल ने तय किया था, उनकी बिटिया नर्मदा का ब्याह उसी से होगा जो गुलबकावली के दुर्लभ फूल लेकर आएगा. नर्मदा थी अनिंद्य सुंदरी. राजे-महाराजे, कुंवर-जमींदार सब थक गए, गुलबकावली का फूल खोज न पाए. पर एक था ऐसा बांका नौजवान, राजकुमार शोणभद्र. वह ले आया गुलबकावली का दुर्लभ पुष्प.

ब्याह तय हो गया. अब तक नर्मदा ने शोणबद्र के रूप-गुण और जांबाजी के बारे में बहुत कुछ सुन लिया था. मन ही मन चाहने लगी थी. शादी में कुछ दिन बाकी थे कि रहा न गया नर्मदा से. दासी जुहिला के हाथो शोणभद्र को संदेशा भिजवा ही दियाः एक बार मिल तो लो.

शोणभद्र ने भी नर्मदा को देखा तो था नहीं सो पहली मुलाकात में जुहिला को ही नर्मदा समझ बैठा. जुहिला की नीयत भी शोण को देखकर डोल गई. उसने सच छिपा लिया, कहा, मैं ही हूं नर्मदा.

दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो नर्मदा खुद चल पड़ी शोणभद्र से मिलने. वह पहुंची तो देखती क्या है, जुहिला और शोणभद्र प्रेमपाश में हैं. अपमान और गुस्से से भरी नर्मदा वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए.

शोण ने बहुतेरी माफी मांगी पर नर्मदा ने धारा नहीं बदली. आज भी जयसिंहनगर में गांव बरहा के पास जुहिला नदी को दूषित नदी माना जाता है और सोन से इसका बाएं तट पर दशरथ घाट पर संगम होता है. वहीं नर्मदा उल्टी दिशा में बह रही होती है. अब भी शोण के प्रेम में, पर अकेली और कुंवारी...

वही नर्मदा एक बार फिर अकेली पड़ गई है.


नर्मदा की सूखती सहायक नदी का पाट फोटोः सोशल मीडिया

इस बार उसे शोणभद्र ने नहीं, उसकी अपनी संतानों, इंसानों ने धोखा दिया है. लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं और बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है.

मध्य प्रदेश में जंगल का इलाका काफी सिकुड़ा है और आंकड़े इसकी तस्दीक भी करते हैं. 2017 की भारत सरकार का वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में 1991 में जंगल का इलाका 1,35,755 वर्ग किमी था जो 2011 में घटकर 77,700 वर्ग किमी रह गया. इसमें अगले चार साल में और कमी आई और 2015 में यह घटकर 77,462 वर्ग किमी हो गया. 2017 में सूबे में वन भूमि 77,414 वर्ग किमी रहा. जाहिर है, तेजी से खत्म होते जंगलों की वजह से नर्मदा के जलभर (एक्विफर) भरने वाले सोते खत्म होते चले जा रहे हैं.

2018 में नर्मदा कई जगहों पर सूख गई थी. नर्मदा प्रायद्वीपीय भारत की सबसे बड़ी नदियों मे से एक है और मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलती है. इस नदी पर बने छह बड़े बांधों ने इसके जीवन पर संकट पैदा कर दिया है. छह ही क्यों, नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत 30 बड़े और 135 मझोले बांध हैं.

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआइ) की एक रिपोर्ट में इसे दुनिया की उन छह नदियों में रखा है जिसके सामने अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में तो इस नदी में जल का ऐसा संकट आ खड़ा हुआ था कि गुजरात सरकार ने सरदार सरोवर बांध से सिंचाई के लिए पानी लेने पर भी बंदिश लगा दी थी. जानकार बताते हैं, कि इस नदी के बेसिन पर बहुत अधिक दबाव बन रहा है और बढ़ती आबादी की विकासात्मक जरूरतें पूरी करने के लिहाज का नर्मदा का पानी कम पड़ता जा रहा है.

एसएएनडीआरपी वेबसाइट पर परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि महेश्वर बांध पर उन्हें ऐसे लोग मिले जो कहते हैं कि अगर जमीन के बदले जमीन दी जाती है, मकान के बदले मकान, तो नदी के बदले नदी भी दी जानी चाहिए.

नर्मदा ही नहीं तमाम नदियों के अस्तित्व पर आए संकट का सीधा असर तो मछुआरा समुदाय पर पड़ता है. उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता, कोई पुनर्वास नहीं होता, उनके लिए किसी पैकेज का प्रावधान नहीं. रोजगार नहीं.

नर्मदा पर बांध बनने के बाद से, दांडेकर लिखती हैं, कि उन्हें बताया गया कि मछली की कई नस्लें विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं. झींगे तो बचे ही नगीं. गेगवा, बाम (ईल) और महशीर की आबादी में खतरनाक तरीके से कमी आई है.

न्यूज वेबसाइट फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित एक खबर में आइआइटी दिल्ली के शोध छात्र के हवाले से एक आंकड़ा दिया गया है जिसके मुताबिक, मध्य प्रदेश में नर्मदा की 41 सहायक नदियां अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं.

शोणभद्र से रूठी नर्मदा का आंचल खनन और वनों की कटाई से तार-तार हो रहा है. डर है, मां रेवा कहीं अपनी संतानों से सदा के लिए न रूठ जाए.


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Thursday, December 19, 2019

नदीसूत्रः सोने के कणों वाली नदी स्वर्णरेखा की क्षीण होती जीवनरेखा

स्वर्णरेखा नदी में सोने के कण पाए जाते हैं, पर मिथकों में महाभारत से जुड़ी स्वर्णरेखा की जीवनरेखा क्षीण होती जा रही है. उद्योगों और घरों से निकले अपशिष्ट के साथ खदानों से निकले अयस्कों ने इस नदी के जीवन पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह नदी सूखी तो झारखंड, बंगाल और ओडिशा में कई इलाके जलविहीन हो जाएंगे

हर नदी के पास एक कहानी होती है. स्वर्णरेखा नदी के पास भी है. झारखंड की इस नदी को वैसे ही जीवनदायिनी कहा जाता है जैसे हर इलाके में एक न एक नदी कही जाती है. पर झारखंड की यह नदी, अपने नाम के मुताबिक ही सच में सोना उगलती है.

यह किस्सा स्वर्णरेखा के उद्गम के पास के गांव, नगड़ी के पास रानीचुआं के लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहां आकर रहे थे, इसीलिए गांव का नाम पांडु है. खास बात यह है कि स्वर्णरेखा के उद्गम का नाम रानी चुआं इसलिए पड़ा क्योंकि एकबार जब इस निर्जन इलाके में रानी द्रौपदी को प्यास लगी तो अर्जुन ने बाण मारकर इसी स्थल से पानी निकाला था, जो आज भी मौजूद है. समय के साथ नदी का नाम स्वर्णरेखा पड़ गया.

वैसे भी मिथक सच या झूठ के दायरे से वह थोड़े बाहर होते हैं. यह पता नहीं कि पांडु गांव, पांडवों के अज्ञातवास और अर्जुन के बाण से निर्मित रानी चुआं की कहानी कितनी सच है? लेकिन यह मिथक कतई नहीं है कि स्वर्णरेखा झारखंड की गंगा की तरह है और गंगा की तरह ही इसको देखना अब रोमांचकारी कम और निराशाजनक ज्यादा हो गया है.

पर स्वर्णरेखा नदी से सोना निकलता जरूर है, पर यह कोई नहीं जानता कि इसमें सोना आता कहां से है. स्वर्णरेखा नदी में स्वर्णकणों के मिलने के कारण इस क्षेत्र के स्वर्णकारों के लिये इस नदी की खास अहमियत है. किंवदन्ती है कि इस इलाके पर राज करने वाले नागवंशी राजाओं पर जब मुगल शासकों ने आक्रमण किया तो नागवंशी रानी ने अपने स्वर्णाभूषणों को इस नदी में प्रवाहित कर दिया, जिसके तेज धार से आभूषण स्वर्णकणों में बदल गए और आज भी प्रवाहमान है.

आज भी आप जाएं तो नदी में सूप लिए जगह-जगह खड़ी महिलाएं दिख जाएंगी. इलाके के करीब आधा दर्जन गांवों के परिवार इस नदी से निकलने वाले सोने पर निर्भर हैं. कडरूडीह, पुरनानगर, नोढ़ी, तुलसीडीह जैसे गांवों के लोग इस नदी से पीढियों से सोना निकाल रहे हैं. पहले यह काम इन गांवों के पुरुष भी करते थे, लेकिन आमदनी कम होने से पुरुषों ने अन्य कामों का रुख कर लिया, जबकि महिलाएं परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए आज भी यही करती हैं.

नदी की रेत से रोज सोना निकालने वाले तो धनवान होने चाहिए? पर ऐसा है नहीं. हालात यही है कि दिनभर सोना छानने वालों के हाथ इतने पैसे भी नहीं आते कि परिवार पाल सकें. नदी से सोना छानने वाली हर महिला एक दिन में करीब एक या दो चावल के दाने के बराबर सोना निकाल लेती है. एक महीने में कुल सोना करीब एक से डेढ़ ग्राम होता है. हर दिन स्थानीय साहूकार महिला से 80 रुपए में एक चावल के बराबर सोना खरीदता है. वह बाजार में इसे करीब 300 रुपए तक में बेचता है. हर महिला सोना बेचकर करीब 5,000 रुपए तक महीने में कमाती है.

395 किलोमीटर लंबी यह बरसाती नदी देश की सबसे छोटी अंतरराज्यीय (कई राज्यों से होकर बहने वाली) नदी है जिसके बेसिन का क्षेत्रफल करीब 19 हजार वर्ग किमी है. यह रांची, सरायकेला-खरसावां, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) और बालासोर (ओडिशा) से होकर बहती है. पर जानकारों का कहना है कि यह नदी अब सूखने लगी है और इसके उद्गम स्थल पर यह एक नाला होकर रह गई है. जानकारों के मुताबिक, इस नदी में कम होते पानी की वजह से भूजल स्तर भी तेजी से गिरता जा रहा है. काटे जा रहे जंगलों की वजह से मृदा अपरदन भी बढ़ गया है.

हालांकि इस नदी पर बनने वाले चांडिल और इछा बांध का आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया और यहां 6 जनवरी, 1979 को हुई पुलिस फायरिंग में चार आदिवासियों ने अपनी जान दे दी. परियोजना चलती रही और 1999 में इस परियोजना पर भ्रष्टाचार की कैग की रिपोर्ट के बाद इसे पूरे होने में 40 साल का समय लगा. परियोजना तो पूरी हुआ लेकिन इसमें चस्पां स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और बिजली मुहैया कराने के वायदे पूरे नहीं हुए.

इस नदी की बेसिन में कई तरह के खनिज हैं. सोने का जिक्र हम कर ही चुके हैं. पर इन सबने नदी की सूरत बिगाड़ दी. खनन और धातु प्रसंस्करण उद्योगों ने नदी को प्रदूषित करना भी शुरू कर दिया है. अब नदी के पानी में घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों के साथ-साथ रेडियोसक्रिय तत्वों की मौजूदगी भी है. खासकर, खुले खदानों से बहकर आए अयस्क इस नदी की सांस घोंट रहे हैं.

ओडिशा के मयूरभंज और सिंहभूम जिलों में देश के तांबा निक्षेप सबसे अधिक हैं. 2016 में किए गिरि व अन्य वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक, सुवर्ण रेखा नदी में धात्विक प्रदूषण मौजूद है. अब नदी और इसकी सहायक नदियों में अवैध रेत खनन तेजी पर है. इससे नदी की पारिस्थितिकी खतरे में आ गई है.

इस नदी बेसिन के मध्यवर्ती इलाके में यूरेनियम के निक्षेप है. यूरेनियम खदानों के लिए मशहूर जादूगोड़ा का नाम तो आपने सुना ही होगा. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, रेडियोसक्रिय तत्व इस खदान के टेलिंग पॉन्ड से बहकर नदी में आ रहे हैं.

जमशेदपुर शहर, जो इस नदी के बेसिन का सबसे बड़ा शहर है, का सारा सीवेज सीधे नदी में आकर गिरता है. और अब इसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटती जा रही है और नदी के पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) तय मानक से अधिक हो गया है, जबकि बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड मानक से कम होना चाहिए. झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्वर्णरेखा नदी के पानी के नमूने की जांच कराई तो पता चला कि अधिकतर जगहों पर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम पाई गई.

स्थिति यह है कि स्वर्णरेखा नदी का पानी जानवरों और मछलियों के लिए सुरक्षित नहीं है. जानवरों और मछलियों के लिए पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा 1.2 मिलीग्राम से कम होनी चाहिए, जबकि 7.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक है. इसकी वजह से काफी संख्या में मछलियां नदी में मर रही हैं इसके साथ ही साथ जानवरों को भी कई तरह की बीमारियां हो रही हैं.

स्वर्णरेखा और खरकई नदियों का संगम, जमशेद पुर के ठीक पास में है और यहां आप लौह अयस्क के कारखानों से निकले स्लग को देख सकते हैं. हालांकि, भाजपा नेता (अब बागी) सरयू राय ने 2011 में इसे लेकर जनहित याचिका दायर की थी, और तब टाटा स्टील ने जवाब में कहा कि यह स्लग शहर की जनता को स्वर्णरेखा की बाढ़ से बचाने के लिए जमा किया गया है. हाइकोर्ट ने टाटा को यह जगह साफ करने को कहा था. हालांकि इस पर हुई कार्रवाई की ताजा खबर नहीं है.

इस इलाके में मौजूद छोटी और बड़ी औद्योगिक इकाइयों, लौह गलन भट्ठियों, कोल वॉशरीज और खदानों ने नदी की दुर्गति कर रखी है.

बहरहाल, खेती, पर्यटन और धार्मिक-आध्यात्मिक केंद्र के नजरिए से सम्भावनाओं से भरे स्वर्णरेखा नदी में उद्गम से लेकर मुहाने तक, इस इलाके में पांडवों से लेकर चुटिया नागपुर के नागवंशी राजाओं से जुड़े मिथकों का प्रभाव कम और हकीकत के अफसाने ज्यादा सुनाई पड़ते हैं. मृत्युशैय्या पर पड़ी जीवनरेखा स्वर्णरेखा की आखिरी सांसों में फंसे अफसाने.

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Monday, November 25, 2019

नदीसूत्रः कहीं गोवा के दूधसागर झरने का दूधिया पानी गंदला लाल न हो जाए

गोवा की नदियों के पारितंत्र पर खनन गतिविधियों ने बुरा असर डाला है. मांडवी और जुआरी जैसी प्रमुख नदियों में लौह अयस्क की गाद जमा होने लगी है इसके इन नदियों की तली में जलीय जीवन पर खतरा पैदा हो गया है


इन दिनों गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव की धूम हुआ करती है. मांडवी के किनारे कला अकादमी और और पुराने मेडिकल कॉलेज के पीछे आइनॉक्स थियेटर में गहमागहमी होती है. फिल्मों के बीच थोड़ी छुट्टी लेकर लोगबाग मांडवी के तट पर टहल आते हैं. ज्यादा उत्साही लोग दूधसागर जलप्रपात भी घूमने जाते हैं. दूधसागर जलप्रपात पर ही मांडवी नदी थोड़ा ठहरती है और आगे बढ़ती है. दूधसागर यानी दूध का सागर. इस नाम के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है.

बहुत पहले, पश्चिमी घाट के बीच एक झील हुआ करती थी जहां एक राजकुमारी अपनी सखियों के साथ रोज स्नान करने आती थी. स्नान के बाद राजकुमारी घड़ा भर दूध पिया करती थी. एक दिन वह झील में अठखेलियां कर ही रही थी, कि वहां से जाते एक नवयुवक की उन पर नजर पड़ गई और वह नौजवान वहीं रुककर नहाती हुई राजकुमारी को देखने लग गया.

अपनी लाज रखने के लिए राजकुमारी की सखियों ने दूध का घड़ा झील में उड़ेल दिया ताकि दूध की परत के पीछे वे खुद को छुपा सकें. कहा जाता है कि तभी से इस जलप्रपात का दूधिया जल अनवरत बह रहा है.

पर अब यह दूधिया पानी लाल रंग पकड़ने लगा है. लौह अयस्क ने मांडवी को जंजीरों में बांधना शुरू कर दिया है. लौह अयस्क का लाल रंग मांडवी के पानी को बदनुमा लाल रंग में बदलने लगा है.

माण्डवी नदी जिसे मांडोवी, महादायी या महादेई या कुछ जगहों पर गोमती नदी भी कहते हैं, मूल रूप से कर्नाटक और गोवा में बहती है. गोवावाले तो इसको गोवा की जीवन रेखा भी कहते हैं. मांडवी और जुआरी, गोवा की दो प्रमुख नदियां हैं. 

लंबाई के लिहाज से मांडवी नदी बहुत प्रभावशाली नहीं कही जा सकती. जिस नदी की कुल लंबाई ही 77 किलोमीटर हो और जिसमें से 29 किलोमीटर का हिस्सा कर्नाटक और 52 किलोमीटर गोवा से होकर बहता हो, आप उत्तर भारत की नदियों से तुलना करें तो यह लंबाई कुछ खास नहीं है. पर व्यापारिक और नौवहन की दृष्टि से यह देश की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है और यह इसकी ताकत भी है और कमजोरी भी.

इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के तीस सोतों के एक समूह से होता है जो कर्नाटक के बेलगाम जिले के भीमगढ़ में है. नदी का जलग्रहण क्षेत्र, कर्नाटक में 2,032 वर्ग किमी और गोवा में 1,580 वर्ग किमी का है. दूधसागर प्रपात और वज्रपोहा प्रपात, मांडवी के ही भाग हैं.

गोवा में खनिजों में लौह अयस्क सबसे महत्वपूर्ण हैं और राज्य के राजस्व का बड़ा हिस्सा भी. लेकिन लौह अयस्क के गाद ने राज्य की दोनों प्रमुख नदियों की सांस फुला दी है. गोवा की नदियों पर हुए एक हालिया अध्ययन कहता है कि लौह अयस्क की गाद से दोनों नदियां दिन-ब-दिन उथली होती जा रही हैं. और इसका असर नदियों की तली में रहने वाले जलीय जीवन पर पड़ने लगा है.

गोवा विश्वविद्यालय के सागर विज्ञान विभाग के एक अध्ययन में बात सामने आई है कि राज्य की बिचोलिम लौह और मैगनीज के अयस्कों की वजह से बेहद प्रदूषित है वहीं मांडवी नदी के प्रदूषकों में मूल रूप से लौह और सीसा (लेड) हैं.

बिचोलिम उत्तरी गोवा जिले में बहती है और मांडवी की सहायक नदी है. इस अध्ययन में इस बात पर चिंता जताई गई है कि दक्षिणी गोवा जिले में बहने वाली जुआरी नदी और उसके नदीमुख (एस्चुअरी) पर भी धात्विक प्रदूषण का असर होगा.

गोवा में खनिज उद्योग करीबन पांच दशक पुराना है और 2018 में मार्च में उस पर रोक लग गई थी जब सुप्रीम कोर्ट ने 88 लौह अयस्क खदानों के पट्टों का नवीकरण खारिज कर दिया था. गोवा विश्वविद्यालय के शोधार्थियों सिंथिया गोनकर और विष्णु मत्ता ने गोवा की नदियों और उसकी तली के पारितंत्र पर खनन के असर और जुआरी नदी की एस्चुअरी (जहां नदी समुद्र में मिलती है) पर धात्विक प्रदूषण के बारे में अध्ययन किया है.

यह अध्ययन रिसर्च जरनल इनवायर्नमेंट ऐंड अर्थ साइंसेज में छपा है और इसमें कहा गया है कि उत्तरी गोवा में रफ्तार से हुए खनन की वजह से प्रदूषण बढ़ा है. इस में गोवा की तीन नदियों बिचोलिम, मांडवी और तेरेखोल से नमूने लिए गए था.

अध्ययन के मुताबिक, बिचोलिम नदी में लौह और मैगनीज के साथ सीसे और क्रोमियम का भी प्रदूषण बडे पैमाने पर मौजदू है. इनमें से सीसा और क्रोमियम भारी धातु माना जाता है और इसके असर से कैंसर का खतरा होता है. जबकि मांडवी नदी में मैगनीज और सीसे का प्रदूषण है. तेरेखोल नदी (जो हाल तक प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त थी) में तांबे और क्रोमियम (यह भी खतरनाक है) जैसे धातुओं की भारी मात्रा मौजूद है.

गौरतलब है कि इन नदियों में बड़े पैमाने पर जहाजों के जरिए अयस्कों का परिवहन किया जाता है और इससे अयस्क नदी में गिरते रहते हैं. खुले खदानों से बारिश में घुलकर अयस्कों का मलबा भी आकर नदियों में जमा होता है. इससे नदियों की तली में गाद जमा होने गई है और इसने तली के पास रहने वाले या तली में रहने वाले जलीय जीवों का भारी नुक्सान किया है.

अध्ययन के मुताबिक, जुआरी नदी के पानी में ट्रेस मेटल्स (सूक्ष्म धातुओं) की मात्रा खनन के दिनों के मुकाबले खनन पर बंदिश के दौरान में काफी कम रही हैं. इससे साफ है कि यह प्रदूषण खनन की वजह से ही हो रहा है.

मांडवी पर गोवा के लोग उठ खड़े हुए हैं. सरकार भी सक्रिय हुई है और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने भी आदेश दे दिया है. कोशिश यही होनी चाहिए कि मांडवी का जल गाद में जकड़ न जाए और दूधसागर प्रपात का जल दूधिया ही रहे, गंदला लाल न हो जाए.

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Friday, November 8, 2019

नदीसूत्रः पूर्णिया की सरस्वती बनने को अभिशप्त है सौरा नदी

ब्रिटिश छाप लिए शहर पूर्णिया में एक नदी है, सौरा. यह नदी बेहद बीमार हो रही है. सूर्य पूजा से सांस्कृतिक संबंध रखने वाली नदी सौरा अब सूख चली है और लोगों ने इसके पेटे में घर और खेत बना लिए हैं. भू-माफिया की नजर इस नदी को खत्म कर रही है और अब नदी में शहर का कचरा डाला जा रहा है.

पूर्णिया की सौरा नदी की एक धारा. फोटोः पुष्यमित्र

देश में नदियों के सूखने या मृतप्राय होते जाने पर खबर नहीं बनती. चुनावी घोषणापत्रों में अमूमन इनका जिक्र नहीं होता. बिहार को जल संसाधन में संपन्न माना जाता है और अतिवृष्टि ने बाजदफा लोगों को दिक् भी किया है. इस बार तो राज्य के उप-मुख्यमंत्री भी बेघर हो गए थे.

पर इसके बरअक्स एक कड़वी सचाई यह भी है कि एक समय में बिहार में लगभग 600 नदियों की धाराएं बहती थीं, लेकिन अब इनमें से अधिकतर या तो सूख चुकी हैं और अपना अस्तित्व खोने के कगार पर पहुंच चुकी हैं. नदी विशेषज्ञों का कहना है कि नदी की इन धाराओं की वजह से न केवल क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया था, बल्कि इससे क्षेत्र का भूजल भी रिचार्ज होता था, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि सिर्फ बिहार में ही लगभग 100 नदियां, जिनमें लखंदी, नून, बलान, कादने, सकरी, तिलैया, धाधर, छोटी बागमती, सौरा, फालगू आदि शामिल हैं, खत्म होने की कगार पर हैं.

पिछले नदीसूत्र में हमने सरस्वती का जिक्र किया था और आज आपको बता रहे हैं भविष्य की सरस्वती बनकर विलुप्त होने को अभिशप्त नदी सौरा का.

बिहार के भी पूरब में बसा है खूबसूरत शहर पूर्णिया, जो अब उतना खूबसूरत नहीं रहा. ब्रिटिश काल की छाप लिए इस शहर में एक नदी सौरा बहती थी. नदी बहती तो अब भी है, पर बीमार हो रही है. बहुत बीमार.

पूर्णिया में नदियों को बचाने के लिए अभियान चलाने वाले अखिलेश चंद्रा के मुताबिक, यह नदी लंदन की टेम्स की तरह थी, जो पूर्णिया शहर के बीचों-बीच से गुजरती थी, अब पूरी तरह सूख चुकी है और यहां अब शहर का कचरा डाला जा रहा है.

अखिलेश अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं, कभी 'पुरैनियां' में एक सौम्य नदी बहती थी सौरा. कोसी की तरह इसकी केशराशि सामान्य दिनों में छितराती नहीं थी. जो 'जट' कभी अपनी 'जटिन' को मंगटिक्का देने का वादा कर 'पू-भर पुरैनियां' आते थे, उन्हें यह कमला नदी की तरह दिखती थी. जटिन जब अपनी कोख बचाने के लिए खुद पुरैनियां आती थी, तो गुहार लगाती थी, "हे सौरा माय, कनी हौले बहो...ननकिरबा बेमार छै...जट से भेंट के बेगरता छै...(हे सौरा माई, आहिस्ते बहिए. बच्चा बीमार है. जट से मुलाकात की सख्त जरूरत है)

...और दुख से कातर हो सौरा नदी शांत हो जाती थी.

अपने लेख में अखिलेश सौरा को 'जब्बर नदी' कहते हैं. जब्बर ऐसी कि कभी सूखती ही नहीं थी. पर बदलते वक्त ने, बदलती जरूरतों, इनसानी लालच और आदतों ने इसे दुबला बना दिया है. नदी का दाना-पानी बंद हो गया है. लोग सांस थामे इसे मरते देख रहे हैं. अखिलेश लिखते हैं, हमारी मजबूरी ऐसी है कि हम शोकगीत भी नहीं गा सकते!

असल में, बदलते भारत की एक विडंबना यह भी है कि हमने जिन भी प्रतीकों को मां का दर्जा दिया है, उन सबकी दुर्गति हो गई है. चाहे घर की बूढ़ी मां हो या गंगा, गाय और हां, पूर्णिया की सौरा नदी भी. इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि हमें जिन प्रतीकों की दुर्गति करनी होती है, उसे हम मां का दर्जा दे देते हैं.

चंद्रा लिखते हैं कि पूर्णिया शहर को दो हिस्सों में बांटने वाली सौरा नदी को सौर्य संस्कृति की संवाहक है. पर पिछले कुछ वर्षों से इस पर जमीन के कारोबारियों की काली नजर लग गई. नतीजतन, अनवरत कल-कल बहने वाली नदी की जगह पर कंक्रीट के जंगल फैल गए हैं.

एक समय था जब सौरा नदी में आकर पूर्णिया और आसपास के इलाकों में सैकड़ों धाराएं मिलती थीं और इसकी प्रवाह को ताकत देती थीं, लेकिन अब ऐसी धाराएं गिनती की रह गई हैं. इन धाराओं के पेटे में जगह-जगह पक्के के मकान खड़े कर दिए गए. नतीजतन सौरा की चौड़ाई कम होती जा रही है.

हालांकि सौरा बेहद सौम्य-सी दिखने वाली नदी है, पर इसका बहुत सांस्कृतिक महत्व है. इसके नामकरण को लेकर अब भी शोध किये जा रहे हैं. लेकिन, यह माना जाता है कि सूर्य से सौर्य और सौर्य से सौरा हुआ, जिसका तारतम्य जिले के पूर्वी अंतिम हिस्से से सटे सुरजापुर परगना से जुड़ा रहा है.

पूर्णिया-किशनगंज के बीच एक कस्बा है सुरजापुर, जो परगना के रूप में जाना जाता है. बायसी-अमौर के इलाके को छूता हुआ इसका हिस्सा अररिया सीमा में प्रवेश करता है. यह इलाका महाभारतकालीन माना जाता है, जहां विशाल सूर्य मंदिर का जिक्र आया है. पुरातत्व विभाग की एक रिपोर्ट में भी सौर्य संस्कृति के इतिहास की पुष्टि है. वैसे यही वह नदी है, जहां आज भी छठ महापर्व के मौके पर अर्घ देने वालों का बड़ा जमघट लगता है.

अररिया जिले के गिधवास के समीप से सौरा नदी अपना आकार लेना शुरू करती है. वहां से पतली-सी धारा के आकार में वह निकलती है और करीब 10 किलोमीटर तक उसी रूप में चलती है. श्रीनगर-जलालगढ़ का चिरकुटीघाट, बनैली-गढ़बनैली का धनखनिया घाट और कसबा-पूर्णिया का गेरुआ घाट होते हुए सौरा जब बाहर निकलती है, तो इसका आकार व्यापक हो जाता है और पूर्णिया के कप्तानपुल आते-आते इसका बड़ा स्वरूप दिखने लगता है.

यह नदी आगे जाकर कोसी में मिल जाती है. एक समय था, जब सौरा इस इलाके में सिंचाई का सशक्त माध्यम थी. मगर, बदलते दौर में न केवल इसके अस्तित्व पर संकट दिख रहा है, बल्कि इसकी महत्ता भी विलुप्त होती जा रही है.

नदी के आसपास के हिस्से पर आज कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं. पूर्णिया में सौरा नदी के पानी के सभी लिंक चैनल बंद हो गए. अंग्रेजों के समय सौरा नदी का पानी निकलने के लिए लाइन बाजार चौक से कप्तान पुल के बीच चार पुल बनाए गए थे. ऊपर से वाहन और नीचे से बरसात के समय सौरा का अतिरिक्त पानी निकलता चला जाता था. आज पुल यथावत है, पर उसके नीचे जहां नदी की धारा बहती थी, वहां इमारतें खड़ी हैं. इधर मूल नदी का आकार भी काफी छोटा हो गया है. नदी के किनारे से शहर सट गया है.

हालांकि सोशल मीडिया पर अब पूर्णियावासी सौरा को बचाने के लिए सक्रिय हो गए हैं. फेसबुक पर सौरा नदी बचाओ अभियान नाम का एक पेज बनाया गया है और पूर्णिया शहर के नाम पर बने पेज पर भी लगातार सौरा के बारे में लिखा जा रहा है. स्थानीय अखबारों की मदद से सौरा से जुड़े अभियानों पर लगातार लिखा जा रहा है और जागरूकता भी फैलाई जा रही है. पर असली मसला तो भू-माफिया के चंगुल से सौरा को निकालना है. और उससे भी अधिक बड़ा दोष तो एक इंच और जमीन कब्जा कर लेने की हम सबकी बुनियादी लालची प्रवृत्ति की तरफ जाता है.

सौरा को संजीवनी देनेवाली धाराओं के मुंह बंद किए जा रहे हैं. ऐसे में लग तो यही रहा है कि अगली पीढ़ी सौरा को 'सरस्वती' के रूप में याद करेगी और उसके अस्तित्व की तलाश करेगी. दुख है कि पूर्णिया की सौरा नदी अगली सरस्वती बन रही है.

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Friday, October 25, 2019

नदीसूत्रः कहीं पाताल से भी न सूख जाए सरस्वती

अभी हाल में केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने प्रयागराज के पास गंगा और यमुना को जोड़ने वाली एक भूमिगत नदी की खोज की है. इससे पहले हरियाणा, राजस्थान में भी सरस्वती नदी के जल के भूमिगत जलस्रोत के रूप में जमा होने की खोज की गई थी. पर, जिस तरह से भूमिगत जल का अबाध दोहन हरियाणा में हो रहा है उससे डर है कहीं पाताल में बैठी सरस्वती भी न सूख जाए. 


हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे हैं और लग रहा है जैसे कि कांग्रेस के सूखते जनाधार में निर्मल जल का एक सोता फूटकर उसे फिर से जीवित कर गया हो. हरियाणा ही संभवतया सरस्वती की भूमि भी रही है. हरियाणा का नाम लेते ही कुरुक्षेत्र और सरस्वती नदी, ये दो नाम तो जेह्न में आते ही हैं. तो आज के नदीसूत्र में बात उसी सरस्वती नदी की, जिसके बारे में मान्यता है कि वह गुप्त रूप से प्रयागराज में संगम में शामिल होती है. वही नदी जो वैदिक काल में बेहद महत्वपूर्ण हुआ करती थी.

वैसे, खबर यह भी है कि केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने प्रयागराज में एक ऐसी सूखी नदी का भी पता लगाया है जो गंगा और यमुना को जोड़ती है. राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के मुताबिक, इस खोज का मकसद था कि एक संभावित भूमिगत जल के रिचार्ज स्रोत का पता लगाया जाए.

इस प्राचीन नदी के बारे में मंत्रालय ने बताया कि यह 4 किमी चौड़ी और 45 किमी लंबी है और इसकी जमीन के अंदर 15 मोटी परत मौजूद है. पिछले साल दिसंबर में इस नदी की खोज में सीएसआइआर-एनजीआरआइ (नेशनल जियोफिजिक्स रिसर्च इंस्टिट्यूट) और केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड ने एक जियोफिजिकल हवाई सर्वे के दौरान किया.

बहरहाल, अगर यह सरस्वती है तो वह कौन सी सरस्वती है जिसको हरियाणा और राजस्थान में खोजने की कोशिश की गई थी? क्या सरस्वती ने भारतीय उपमहाद्वीप के विवर्तनिक प्लेट की हलचलों की वजह से अपना रास्ता बदल लिया? वह नदी कहां लुप्त हो गई?

आज से करीब 120 साल पहले 1893 में यही सवाल एक अंग्रेज इंजीनियर सी.एफ. ओल्डहैम के जेहन में भी उभरा था, जब वे इस नदी की सूखी घाटी यानी घग्घर के इलाके से होकर गुजरे थे. तब ओल्डहैम ने पहली परिकल्पना दी कि हो न हो, यह प्राचीन विशाल नदी सरस्वती की घाटी है, जिसमें सतलुज नदी का पानी मिलता था. और जिसे ऋषि-मुनियों ने ऋग्वेद (ऋचा 2.41.16) में ''अम्बी तमे, नदी तमे, देवी तमे सरस्वती” अर्थात् सबसे बड़ी मां, सबसे बड़ी नदी, सबसे बड़ी देवी कहकर पुकारा है.

ऋग्वेद में इस भूभाग के वर्णन में पश्चिम में सिंधु और पूर्व में सरस्वती नदी के बीच पांच नदियों झेलम, चिनाब, सतलुज, रावी और व्यास की उपस्थिति का जिक्र है. ऋग्वेद (ऋचा 7.36.6) में सरस्वती को सिंधु और अन्य नदियों की मां बताया गया है. इस नदी के लुप्त होने को लेकर ओल्डहैम ने कहा था कि कुदरत ने करवट बदली और सतलुज के पानी ने सिंधु नदी का रुख कर लिया. हालांकि उसके बाद सरस्वती के स्वरूप को लेकर एक-दूसरे को काटती हुई कई परिकल्पनाएं सामने आईं.

1990 के दशक में मिले सैटेलाइट चित्रों से पहली बार उस नदी का मोटा खाका दुनिया के सामने आया. इन नक्शों में करीब 20 किमी चौड़ाई में हिमालय से अरब सागर तक जमीन के अंदर नदी घाटी जैसी आकृति दिखाई देती है.

अब सवाल है कि कोई नदी इतनी चौड़ाई में तो नहीं बह सकती, तो आखिर उस नदी का सटीक रास्ता और आकार क्या था? इन सवालों के जवाब ढूंढऩे के लिए 2011 के अंत में आइआइटी कानपुर के साथ बीएचयू और लंदन के इंपीरियल कॉलेज के विशेषज्ञों ने शोध शुरू किया.

इंडिया टुडे में ही छपी खबर के मुताबिक, 2012 के अंत में टीम का 'इंटरनेशनल यूनियन ऑफ क्वाटरनरी रिसर्च’ के जर्नल क्वाटरनरी जर्नल में एक शोधपत्र छपा. इसका शीर्षक था: जिओ इलेक्ट्रिक रेसिस्टिविटी एविडेंस फॉर सबसरफेस पेलिओचैनल सिस्टम्स एडजासेंट टु हड़प्पन साइट्स इन नॉर्थवेस्ट इंडिया. इसमें दावा किया गया: ''यह अध्ययन पहली बार घग्घर-हाकरा नदियों के भूमिगत जलतंत्र का भू-भौतिकीय (जिओफिजिकल) साक्ष्य प्रस्तुत करता है.” यह शोधपत्र योजना के पहले चरण के पूरा होने के बाद सामने आया और साक्ष्यों की तलाश में अभी यह लुप्त सरस्वती की घाटी में पश्चिम की ओर बढ़ता जाएगा.

पहले साक्ष्य ने तो उस परिकल्पना पर मुहर लगा दी कि सरस्वती नदी घग्घर की तरह हिमालय की तलहटी की जगह सिंधु और सतलुज जैसी नदियों के उद्गम स्थल यानी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. अध्ययन की शुरुआत घग्घर नदी की वर्तमान धारा से कहीं दूर सरहिंद गांव से हुई और पहले नतीजे ही चौंकाने वाले आए. सरहिंद में जमीन के काफी नीचे साफ पानी से भरी रेत की 40 से 50 मीटर मोटी परत सामने आई. यह घाटी जमीन के भीतर 20 किमी में फैली है.

इसके बीच में पानी की मात्रा किनारों की तुलना में कहीं अधिक है. खास बात यह है कि सरहिंद में सतह पर ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता जिससे अंदाजा लग सके कि जमीन के नीचे इतनी बड़ी नदी घाटी मौजूद है. बल्कि यहां तो जमीन के ठीक नीचे बहुत सख्त सतह है. पानी की इतनी बड़ी मात्रा सहायक नदी में नहीं बल्कि मुख्य नदी में हो सकती है. शोधकर्ताओं ने तब इंडिया टुडे का बताया कि यहां निकले कंकड़ों की फिंगर प्रिंटिंग से यह लगता है कि यह नदी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. कोई 1,000 किमी. की यात्रा कर अरब सागर में गिरती थी. इसके बहाव की तुलना वर्तमान में गंगा नदी से की जा सकती है.

सरहिंद के इस साक्ष्य ने सरस्वती की घग्घर से इतर स्वतंत्र मौजूदगी पर मुहर लगा दी. यानी सतलुज और सरस्वती के रिश्ते की जो बात ओल्डहैम ने 120 साल पहले सोची थी, भू-भौतिकीय साक्ष्य उस पर पहली बार मुहर लगा रहे थे.

तो फिर ये नदियां अलग कैसे हो गईं? समय के साथ सरस्वती नदी को पानी देने वाले ग्लेशियर सूख गए. इन हालात में या तो नदी का बहाव खत्म हो गया या फिर सिंधु, सतलुज और यमुना जैसी बाद की नदियों ने इस नदी के बहाव क्षेत्र पर कब्जा कर लिया. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सरस्वती नदी का पानी पूर्व दिशा की ओर और सतलुज नदी का पानी पश्चिम दिशा की ओर खिसकता चला गया. बाद की सभ्यताएं गंगा और उसकी सहायक नदी यमुना (पूर्ववर्ती चंबल) के तटों पर विकसित हुईं. पहले यमुना नदी नहीं थी और चंबल नदी ही बहा करती थी. लेकिन उठापटक के दौर में हिमाचल प्रदेश में पोंटा साहिब के पास नई नदी यमुना ने सरस्वती के जल स्रोत पर कब्जा कर लिया और आगे जाकर इसमें चंबल भी मिल गई.

यानी सरस्वती की सहायक नदी सतलुज उसका साथ छोड़कर पश्चिम में खिसककर सिंधु में मिल गर्ई और पूर्व में सरस्वती और चंबल की घाटी में यमुना का उदय हो गया. ऐसे में इस बात को बल मिलता है कि भले ही प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम का कोई भूभौतिकीय साक्ष्य न मिलता हो लेकिन यमुना के सरस्वती के जलमार्ग पर कब्जे का प्रमाण इन नदियों के अलग तरह के रिश्ते की ओर इशारा करता है. उधर, जिन मूल रास्तों से होकर सरस्वती बहा करती थी, उसके बीच में थार का मरुस्थल आ गया. लेकिन इस नदी के पुराने रूप का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के श्लोक (7.36.6) में कहा गया है, ''हे सातवीं नदी सरस्वती, जो सिंधु और अन्य नदियों की माता है और भूमि को उपजाऊ बनाती है, हमें एक साथ प्रचुर अन्न दो और अपने पानी से सिंचित करो.”

आइआइटी कानपुर के साउंड रेसिस्टिविटी पर आधारित आंकड़े बताते हैं कि कालीबंगा और मुनक गांव के पास जमीन के नीचे साफ पानी से भरी नदी घाटी की जटिल संरचना मौजूद है. इन दोनों जगहों पर किए गए अध्ययन में पता चला कि जमीन के भीतर 12 किमी से अधिक चौड़ी और 30 मीटर मोटी मीठे पानी से भरी रेत की तह है. जबकि मौजूदा घग्घर नदी की चौड़ाई महज 500 मीटर और गहराई पांच मीटर ही है. जमीन के भीतर मौजूद मीठे पानी से भरी रेत एक जटिल संरचना दिखाती है, जिसमें बहुत-सी अलग-अलग धाराएं एक बड़ी नदी में मिलती दिखती हैं.

यह जटिल संरचना ऐसी नदी को दिखाती है जो आज से कहीं अधिक बारिश और पानी की मौजूदगी वाले कालखंड में अस्तित्व में थी या फिर नदियों के पानी का विभाजन होने के कारण अब कहीं और बहती है. अध्ययन आगे बताता है कि इस मीठे पानी से भरी रेत से ऊपर कीचड़ से भरी रेत की परत है. इस परत की मोटाई करीब 10 मीटर है. गाद से भरी यह परत उस दौर की ओर इशारा करती है, जब नदी का पानी सूख गया और उसके ऊपर कीचड़ की परत जमती चली गई. ये दो परतें इस बात का प्रमाण हैं कि प्राचीन नदी बड़े आकार में बहती थी और बाद में सूख गई. और इन दोनों घटनाओं के कहीं बहुत बाद घग्घर जैसी बरसाती नदी वजूद में आई.

सैटेलाइट इमेज दिखाती है कि सरस्वती की घाटी हरियाणा में कुरुक्षेत्र, कैथल, फतेहाबाद, सिरसा, अनूपगढ़, राजस्थान में श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, थार का मरुस्थल और फिर गुजरात में खंभात की खाड़ी तक जाती थी. राजस्थान के जैसलमेर जिले में बहुत से ऐसे बोरवेल हैं, जिनसे कई साल से अपने आप पानी निकल रहा है. ये बोरवेल 1998 में मिशन सरस्वती योजना के तहत भूमिगत नदी का पता लगाने के लिए खोदे गए थे. इस दौरान केंद्रीय भूजल बोर्ड ने किशनगढ़ से लेकर घोटारू तक 80 किमी के क्षेत्र में 9 नलकूप और राजस्थान भूजल विभाग ने 8 नलकूप खुदवाए. रेगिस्तान में निकलता पानी लोगों के लिए आश्चर्य से कम नहीं है. नलकूपों से निकले पानी को भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने 3,000 से 4,000 साल पुराना माना था. यानी आने वाले दिनों में कुछ और रोमांचक जानकारियां मिल सकती हैं.

वैज्ञानिक साक्ष्य और उनके इर्द-गिर्द घूमते ऐतिहासिक, पुरातात्विक और भौगोलिक तथ्य पाताल में लुप्त सरस्वती की गवाही दे रहे हैं. हालांकि विज्ञान आस्था से एक बात में सहमत नहीं है और इस असहमति के बहुत गंभीर मायने भी हैं. मान्यता है कि सरस्वती लुप्त होकर जमीन के अंदर बह रही है, जबकि आइआइटी का शोध कहता है कि नदी बह नहीं रही है, बल्कि उसकी भूमिगत घाटी में जल का बड़ा भंडार है.

अगर लुप्त नदी घाटी से लगातार बड़े पैमाने पर बोरवेल के जरिए पानी निकाला जाता रहा तो पाताल में पैठी नदी हमेशा के लिए सूख जाएगी, क्योंकि उसमें नए पानी की आपूर्ति नहीं हो रही है. वैज्ञानिक तो यही चाहते हैं कि पाताल में जमी नदी के पानी का बेहिसाब इस्तेमाल न किया जाए क्योंकि अगर ऐसा किया जाता रहा तो जो सरस्वती कोई 4,000 साल पहले सतह से गायब हुई थी, वह अब पाताल से भी गायब हो जाएगी.

(इस ब्लॉग को लिखने में इंडिया टुडे में पीयूष बबेले और अनुभूति बिश्नोई की रपटों को आधार बनाया गया है)

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Monday, October 14, 2019

नदीसूत्रः हर नदी का नाम हमारे विस्मृत इतिहास का स्मृति चिन्ह है

नदियों के नाम के साथ जुड़े किस्से बहुत दिलचस्प हैं. हर नाम के पीछे एक कहानी है और एक ही नाम की नदियां देश के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद हैं.


पिछले कई नदीसूत्र नदियों की जिंदगी पर उठते सवालों पर आधारित थे. आदिगंगा, रामगंगा, खुद गंगा, गोमती... इन सभी नदियों में प्रदूषण और नदियों से सारा पानी खींच लेने की हमारी प्रवृत्ति ने देश भऱ की नदियों के अस्तित्व पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं. फिर एक सवाल कौन बनेगा करोड़पति में दिखा कि दक्षिण की गंगा किस नदी को कहते हैं? जाहिर है इसका उत्तर हममें से कई लोगों को मालूम होगा. पर इस सवाल के बरअक्स कई और सवाल खड़े होते हैं कि अगर गोदावरी दक्षिण की गंगा है तो पूर्व या पश्चिम की गंगाएं भी होनी चाहिए? या फिर कितनी नदियां हैं जिनके नाम गंगा से मिलते जुलते हैं?

मैंने इस बारे में कुछ प्रामाणिक लेखन करने वाले विशषज्ञों और जानकारों का लिखा पढ़ा. तब मुझे लगा कि नदीसूत्र में हम प्रदूषण की बात तो करेंगे ही, पर कुछ ऐसी दिलचस्प बातें भी आपको बताना चाहिए कि नदियों की संस्कृति, उसके किनारे पली-बढ़ी सभ्यता और हमारी विरासत और इतिहास की हल्की-सी झलक आपको मिल सके.

जम्मू-कश्मीर में बहने वाली नदी झेलम. फोटोः इंडिया टुडे

अब इन्हीं सामग्रियों से मुझे पता चला कि देश की कई नदियां ऐसी हैं, या कम से कम उनके नाम ऐसे हैं कि एकाधिक सूबे में उनकी मौजूदगी है. मसलन, परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि हम सभी धौलीगंगा नाम की एक ही नदी का अस्तित्व जानते हैं. पर सचाई यह है कि उत्तराखंड में ही दो धौलीगंगाएं हैं. पहली, जो महाकाली बेसिन में बहती है और दूसरी जो ऊपरी गंगा बेसिन में. दांडेकर लिखती हैं कि धौलीगंगा ही क्यों, काली, कोसी और रामगंगा की भी डुप्लिकेट नदियों के अस्तित्व हैं.

अगर हम नदियों के नामकरण के इतिहास में जाएं तो आपको लुप्त और विस्मृत सभ्यताओं, इस इलाके के इतिहास और भूगोल के बारे में भी नई और अलहदा जानकारियां मिलेंगी. पर इन नदियों के बारे में खोजबीन करना उतना आसान भी नहीं है. इस पोस्ट में शायद मैं एकाध नदियों के नामों के बारे में कुछ जानकारियां साझा कर पाऊं.

छठी कक्षा के इतिहास की किताब में ही हमें यह पढ़ा दिया जाता है कि दुनिया की महान सभ्यताएं नदी घाटियों में विकसित हुई हैं. अपने हिंदुस्तान, या भारत या इंडिया का नामकरण भी तो नदी के नाम पर ही हुआ है. इंडस को ही लें, यह पुराने ईरानी शब्द हिंदू से निकला है. क्योंकि आर्य लोग वहां बहने वाली नदी को सिंधु (यानी सागर) कहते थे. यह शब्द संस्कृत का है और स का उच्चारण न कर पाने वाले शकद्वीप (ईरान) के लोगों ने इस नदी के परली तरफ रहने वालों को हिंदू कहना शुरू कर दिया.

ऋग्वेद के नदीस्तुति सूक्त में सिंधु नदी का लिंग निर्धारण तो नहीं है, लेकिन बाकी की नदियां स्त्रीलिंग ही हैं. दांडेकर लिखती हैं, पश्तो भाषा में सिंधु, अबासिन या पितृ नदी है जिसे लद्दाखी भाषा में सेंगे छू या शेर नदी भी कहते हैं. गजब यह कि तिब्बत में भी इस नदी को सेंगे जांग्बो ही कहते हैं इसका मतलब भी शेर नदी ही होता है और दोनों ही शब्द पुलिंग हैं.

नदियों का लिंग निर्धारण का भी अजीब चमत्कार है. भारत की अधिकांश नदियां (आदिवासी नामों वाली नदियां भी) अधिकतर स्त्रीलिंग ही हैं. साथ ही, भारतीय संस्कृति में कुछ नदियों को पुलिंग भी माना गया है. इसकी बड़ी मिसाल तो ब्रह्मपुत्र ही है. दांडेकर, धीमान दासगुप्ता के हवाले से लिखती हैं कि ब्रह्मपुत्र की मूल धारा यारलांग जांग्बो भी पुलिंग है. इसी तरह इसकी प्रमुख सहायक नदी लोहित भी है. पश्चिम बंगाल में बहने वाली अधिकतर नदियां, मयूराक्षी को छोड़ दें तो, पुरुष नाम वाली ही हैं. मसलन, दामोदर, रूपनारायण, बराकर, बराकेश्वर, अजय, पगला, जयपांडा, गदाधारी, भैरव और नवपात्र.

सवाल है कि इन नदियों के नाम अधिकतर पुरुषों के नाम पर ही क्यों रखे गए?

दांडेकर, दासगुप्ता के हवाले से लिखती हैं, कि इन नदियों का स्वरूप अमूमन विध्वंसात्मक ही रहा है. इसलिए उनको पुलिंग नाम दिए गए होंगे.

चलिए थोड़ा उत्तर की तरफ, सतलज की मिसाल लेते हैं. इसका वैदिक नाम शतद्रु है. शत मतलब सौ, द्रु मतलब रास्ते. यानी सैकड़ों रास्तों से बहने वाली नदी. एक सेमिनार में कभी साहित्यकार काका साहेब कालेलकर इन इन नदियों को मुक्त वेणी या युक्त वेणी (बालों की चोटी से संदर्भ) कहा. बालों की चर्चा चली है तो महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट में बहने वाली नदी हिरण्यकेशी का नाम याद आता है. हिरण्य मतलब सोना होता है. समझिए कि सूरज की किरणों में इस नदी का पानी कैसी सुनहरी आभा से दमकता होगा.

आदिवासी परंपराओं में भी अमूमन नदियों के नाम पुलिंग ही मिलते हैं. सिक्किम में शादियों में रंगीत (पुरुष) नदी और रागेन्यू (स्त्री, प्रचलित नाम तीस्ता) नदियों के प्रेम के गीत गाए जाते हैं. कहानी है कि ये दो प्रेमी नदियां माउंट खानचेंगद्जोंगा का आशीर्वाद लेने पहाड़ों से नीचे उतरी थीं. रंगीत को रास्ता दिखाने के लिए एक चिड़िया आगे-आगे उड़ रही थी और जबकि रांगन्यू को रास्ता दिखा रहा था एक सांप. रांगन्यू ने सांप का आड़ा-तिरछा सर्पीला रास्ता पकड़ा और मैदानों में पहले पहुंचकर रंगीत (तीस्ता) की राह देखने लगी.

भूतिया चिड़िया ने रंगीत को रास्ता भटका दिया जो ऊपर-नीचे रास्ते में भटक गया. उसे आऩे में देर हो गई. सिक्किमी लोककथा के मुताबिक, पुरुष होने के नाते रंगीत ने रांगन्यू को पहले पहुंचकर इंतजार करते देखा तो उसे बहुत बुरा लगा. इसके बाद, रांगन्यू ने रंगीत को बहुत मनाया-दुलराया कि देर से आऩा उसकी गलती नहीं थी. तब जाकर रंगीत माना.

ऐसी ही एक कहानी चंद्र और भागा की भी है, जो मिलकर चंद्रभागा नदी बनाते हैं. यही चंद्रभागा एक तरफ चिनाब भी कही जाती है. पर यह कहानी हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पिति घाटी की है. लोककथा के मुताबिक, चांद की बेटी चंद्रा, जिसका उद्गम चंद्रा ताल से है, भागा नामक नद से प्रेम करती थी. भागा भगवान सूर्य का बेटा था. वह सूरज ताल से निकलता है. इन दोनों ने फैसला किया कि वे बारालाछाला दर्रे तक जाएंगे और विपरीत दिशाओं से होकर वापस आएंगे फिर टंडी में मिलकर विवाह कर लेंगे. चंद्रा बल खाती हुई टंडी तक पहुंच गई जब भागा का रास्ता उतना आसान नहीं था. भागा को नहीं पाकर चंद्रा चिंतित हो गई और वह उसे खोजने के लिए वापस फिर केलांग तक चली गई. चंद्रा ने देखा, भागा एक गहरी खाई के बीच से अपनी राह बनाने की कोशिशों में जुटा था. आखिरकार वे टंडी में मिले और उससे आगे नदी का नाम चंद्रभागा पड़ गया.

दिलचस्प यह है कि पश्चिम बंगाल में भी वीरभूम जिले में एक चंद्रभागा बहती है. दांडेकर लिखती हैं कि एक अन्य चंद्रभागा गुजरात में अहमदाबाद के पास है. पुरी के पास कोणार्क मंदिर के पास से बहने वाली नदी का नाम भी चंद्रभागा है. विट्ठल मंदिर के पास पंढरपुर में बहने वाली नदी तो चंद्रभागा है ही. वैसे एक चंद्रभागा बिहार में भी है, जिसे चानन नदी कहा जाता है.

नदियों के नाम के किस्से बहुत दिलचस्प हैं और कोशिश रहेगी कि अगली दफा नदीसूत्र में कुछ और दिलचस्प किस्से सुना पाऊं.

Monday, October 7, 2019

नदीसूत्रः साबरमती नदी के पानी में पल रहा है सुपरबग

नदियों में प्रदूषण के खतरों के कई आयाम बन रहे हैं. एक अध्ययन बता रहा है कि प्रदूषण की वजह से गुजरात की साबरमती नदी में ई कोली बैक्टिरिया में एंटी-बायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है. जो इसे संभवतया सुपरबग में बदल देगी. यह एक संभावित जैविक बम साबित हो सकता है


भारतीय मनीषा में एक पौराणिक कथा है कि एक बार भगवान शिव देवी गंगा को लेकर गुजरात लेकर आए थे, और इससे ही साबरमती नदी का जन्म हुआ. कुछ सदी पहले इसका नाम भोगवा था. भोगवा का नाम बदला तो इसके साथ नए नाम भी जुड़े.


गुजरात की वाणिज्यिक और राजनीतिक राजधानियां; अहमदाबाद और गांधीनगर साबरमती नदी के तट पर ही बसाए गए थे. एक कथा यह भी है कि गुजरात सल्तनत के सुल्तान अहमद शाह ने एक बार साबरमती के तट पर आराम फरमाते वक्त एक खरगोश को एक कुत्ते का पीछा करते हुए देखा. उस खरगोश के साहस से प्रेरित होकर ही 1411 में शाह ने अहमदाबाद की स्थापना की थी. बाद में, पिछली सदी में साबरमती नदी गांधीवादियों और देशवासियों का पवित्र तीर्थ बना क्योंकि महात्मा गांधी ने इसी नदी के तट पर साबरमती आश्रम की स्थापना की थी.

लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह परिदृश्य भी बदल गया है.

साबरमती नदी का अपशिष्ट साफ करने के लिए बना एसटीपी. फोटो सौजन्यः सोशल मीडिया




साबरमती अब दूसरे वजहों से खबरों में आती है. पहली खबर तो यही कि साबरमती का पेटा सूख गया है और अब इस नदी में इसका नहीं, नर्मदा का पानी बहता है. दूसरी खबर, गुजरात सरकार ने इसके किनारे रिवरफ्रंट बनाया है. और अब इस नदी के किनारे अंतरराष्ट्रीय पतंग महोत्सव से लेकर न जाने कितने आयोजन होते हैं. शी जिनपिंग को भी प्रधानमंत्री ने यहीं झूला झुलाया था. 2017 में विधानसभा चुनाव के वक्त यहीं रिवरफ्रंट पर मोदी जी सी-प्लेन से उतरे थे.

बहरहाल, अगर आप कभी अहमदाबाद गए हों तो खूबसूरत दिखने वाले रिवरफ्रंट पर गए जरूर होंगे. क्या पता आपने नदी के पानी पर गौर किया या नहीं. विशेषज्ञ कहते हैं कि साबरमती में बहने वाला पानी अत्यधिक प्रदूषित है. इस बारे में एनजीओ पर्यावरण सुरक्षा समिति और गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जीपीसीबी) ने एक संयुक्त अध्ययन किया है अपने अध्ययन में साबरमती में गिरने वाले उद्योगों से गिरने वाले अपशिष्ट और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से गिरने वाले पानी से जुड़े तथ्य खंगाले. 

इस साल की शुरुआत में आई डिजास्ट्रस कंडीशन ऑफ साबरमती रिवर नाम की इस रिपोर्ट में कई खतरनाक संदेश छिपे हैं. रिपोर्ट कहती है कि अहमदाबाद के वासणा बैराज के आगे बने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांथट जिसकी क्षमता 160 मिलियन लीटर रोजाना (एमएलडी) उसमें से गिरने वाले पानी में बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्रा 139 मिग्रा प्रति लीटर है. केमिकल ऑक्सी जन डिमांड (सीओडी) 337 मिग्रा प्रति लीटर है और टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 732 मिग्रा प्रति लीटर है. 

वैसे राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) का मानक पानी बीओडी की मात्रा अधिकतम 10 मिग्रा प्रति लीटर तक की है. वैसे नदी के पानी में सल्फेीट की मात्रा 108 मिग्रा प्रति लीटर और क्लोरराइड की मात्रा 186 मिग्रा प्रति लीटर बताई गई है. 

इसी तरह वासणा बैराज के आगे नदी में इंडस्ट्री के गिरने वाले पानी की जांच गई तो सामने आया कि इसमें बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्रा 536 मिग्रा प्रति लीटर है. केमिकल ऑक्सीकजन डिमांड (सीओडी) की मात्रा 1301 मिग्रा प्रति लीटर, टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 3135 मिग्रा प्रति लीटर पाई गई है. सल्फेतट की मात्रा 933 मिग्रा प्रति लीटर है, वहीं क्लोसराइड की मात्रा 933 मिग्रा प्रति लीटर है.

खास बात है कि इंडस्ट्रीफ का केमिकल युक्तम कितना पानी रोजाना साबरमती में गिर रहा है इसका कोई लेखा जोखा नहीं है.

हालांकि, साबरमती में अपशिष्ट जल के ट्रीटमेंट के लिए एसटीपी बनाए गए हैं पर इससे एक अलग ही समस्या खड़ी हो रही है. एक अध्ययन यह भी बता रहा है कि इन एसटीपी में ट्रीटमेंट के दौरान बीमारी पैदा करने वाले सूक्ष्मजीव एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं. जाहिर है, इससे एक बड़ी समस्या खड़ी होने वाली है. 

पर्यावरण पर लिखने वाली वेबसाइट डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट में आइआइटी गांधीनगर में अर्थ साइंसेज के प्रोफेसर मनीष कुमार कहते हैं कि हमने पाया है कि प्रदूषण की वजह से सीवेज और जलाशयों में ई कोली बैक्टिरिया में मल्टी-ड्रग एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस यानी प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है. जो इसे संभवतया सुपरबग में बदल देगी. ई कोली के सुपरबग में बदलने का क्या असर होगा? हालांकि ई कोली की अधिकतर नस्लें बीमारियों के लिए उत्तरदायी नहीं है लेकिन उनमें से कई डायरिया, न्यूमोनिया, मूत्राशय में संक्रमण, कोलेसाइटिस और नवजातों में मनिनजाइटिस पैदा कर सकते हैं.

विशेषज्ञों का मानना है कि यह काम सीवेज ट्रीटमेंट में क्लोरीनेशन और अल्ट्रा-वायलेट रेडिएशन के दौरान बैक्टिरिया के जीन में उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) से हुआ होगा. 

समस्या यह है कि अगर बैक्टिरिया से यह जीन ट्रांसफर किसी अलहदा और एकदम नई प्रजाति को जन्म न दे दे. यह खतरनाक होगा. 

बहरहाल, साबरमती नदी की कोख में पल रहे इन संबावित जैविक बमों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है. भगवान शिव और गंगा की देन यह नदी अब नर्मदा से पानी उधार लेकर बह रही है. मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि साबरमती में पानी नहर के जरिए भरा जा रहा है. रिवरफ्रंट जहां खत्म होता है वहां वासणा बैराज है, जिसके सभी फाटक बंद करके पानी को रोका गया है. ऐसे में रिवरफ्रंट के आगे नदी में पानी नहीं है और न उसके बाद नदी में पानी है. वासणा बैराज के बाद नदी में जो भी बह रहा है वो इंडस्ट्री और नाले का कचरा है. नदी में गिर रहा कचरा बेहद खतरनाक है और इस पानी का उपयोग करने वाले लोगों के लिए यह नुकसान ही करेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अहमदाबाद के बाद अगले 120 किमी तक नदी में सिर्फ औद्योगिक अपशिष्ट सड़े हुए पानी की शक्ल में बहता है और यही जाकर अरब सागर में प्रवाहित होता है. 

पर नर्मदा के खाते में भी कितना पानी बचा है जो वह इस तदर्थवाद के जरिए साबरमती को जिंदा रख पाएगी, यह भी देखने वाली बात होगी.

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Monday, September 30, 2019

नदीसूत्रः आपका स्मार्ट फोन रामगंगा नदी का गला घोंट रहा है

क्या आपने कभी सोचा भी है कि आपके इस स्मार्टफोन या कंप्यूटर की वजह से मैदानी भारत की एक अहम नदी रामगंगा की सांसे थम रही हैं? मुरादाबाद में देश भर का जमा हो रहा ई-कचरा रामगंगा में भारी धातुओं के प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह और आम लोगों में कैंसर का बड़ा कारण

हो सकता है कि आप यह लेख अपने स्मार्ट फोन पर पढ़ रहे हों. आपके पास दूसरा विकल्प है कि आप इसे अपने लैपटॉप या डेस्कटॉप पर पढ़ें. पर क्या आपने कभी सोचा भी है कि आपके इस स्मार्टफोन या कंप्यूटर की वजह से मैदानी भारत की एक अहम नदी रामगंगा की सांसे थम रही हैं?

सोचिए जरा कि आखिर आपका मोबाइल फोन या टीवी का रिमोट, कंप्यूटर या घर का कोई इलेक्ट्रॉनिक सामान खराब हो जाए, पुराना हो जाए तो आप उसका क्या करते हैं? जाहिर है, हम उसे कबाड़ी वाले को दे देते हैं. देश भर में हम सबके घरों से निकले इस ई-कचरे का पचास फीसदी हिस्सा उत्तर प्रदेश के शहर मुरादाबाद पहुंच जाता है. वही शहर जो कभी, पीतल के बर्तनों के लिए मशहूर था. अब यह शहर भारत के ई-कचरे का सबसे बड़ा कबाड़खाना है. और इसका बुरा असर पड़ रहा है इसके बगल से बह रही बदकिस्मत नदी रामगंगा पर.

गंगा नदी की बड़ी सहायक नदियों में से एक है रामगंगा, जो उद्गम स्थल से दो अलग धाराओं के रूप में शुरू होती है. तब इसे पूर्वी रामगंगा और पश्चिमी रामगंगा कहते हैं और पहाड़ों से उतरकर यह मैदानों तक बहती आती है.

पश्चिमी रामगंगा उत्तराखंड में गैरसैंण के पास निचले हिमालय के दूधा-टोली श्रेणी से निकलती है. यह पटाली दून से होती हुई निचले शिवालिक में उतरती है और मुरादाबाद, रामपुर, बरेली बदायूं और शाहजहांपुर जिलों में बहती हुई फर्रुखाबाद के पास गंगा में मिल जाती है. मार्छूला के पास यह कॉर्बेट नेशनल पार्क में प्रवेश करती है. जंगल में करीब 40 किमी तक इसका बहाव होता है और कालागढ़ के पास यह जंगलों से निकलकर मैदानी स्वरूप में आ जाती है.

जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के लिए यह एक बढ़िया बारहमासी स्रोत है. रामगंगा की प्रमुख सहायक धाराएं पलैन, मंडल और सोनानदी है जो जंगल के भीतर ही इसमें जाकर मिल जाती हैं. इसके बेसिन का आकार करीबन 30.6 हजार वर्ग किमी है और इसकी लंबाई 569 किमी है.

पूर्वी रामगंगा नंदाकोट पहाड़ के नामिक ग्लेशियर से निकलती है. यह पिथौरागढ़ जिले में है और वहां से यह पूर्व की तरफ बहती है. रामेश्वर घाट पर यह जाकर सरजू नदी में मिल जाती है, वहां के बाद इस नदी का नाम सरयू पड़ जाता है. जो आगे चलकर काली नदी में समाहित हो जाती है. काली नदी खुद कुमायूं श्रेणी के मिलन ग्लेशियर से निकलता है और यह नदी भी फर्रुखाबाद के पास गंगा में मिल जाती है.

कालागढ़ बांध तक रामगंगा नदी के पानी में कोई दिक्कत नजर नहीं आती. इसके पानी में सैकड़ों नस्ल की मछलियां पाई जाती हैं इसके अलावा अनोखे किस्म के और भी जीव पाए जाते हैं. कालागढ़ के डाउनस्ट्रीम के बाद से रामगंगा का डाउनफॉल शुरू हो जाता है. कालागढ़ से इसके पानी को सिंचाई के लिए खींचा जाने लगता है और इसकी धारा मुरादाबाद और उसके बाद से पतली और बीमार नजर आने लगती है. घरेलू अपशिष्ट और औद्योगिक गंदगी उत्तराखंड और पूरे यूपी में इसमें गिराई जाती है.

इस नदी के किनारे बढ़ती आबादी और उद्योगों की संख्या ने नदी की हालत पतली कर दी है. आइआइटी, रुड़की के वैज्ञानिकों ने नदी की सेहत का एक अध्ययन किया है. इन्होंने नदी के 16 साइट्स पर पानी के नमूनों का अध्ययन किया है और हर सीजन में पानी की जांच की. अध्ययन में निष्कर्ष निकला कि रामगंगा नदी अपनी निचली धारा में बहुत अधिक प्रदूषित है. इस प्रदूषण में फ्लोराइड, क्लोराइड, सोडियम, मैग्नीशियम और कैल्सियम जैसे तत्वों के यौगिकों की मात्रा काफी अधिक है.

समस्या की असली जड़ मुरादाबाद शहर का कबाड़ उद्योग है.

मुरादाबाद रामगंगा के किनारे बसा है और यह ई-कचरे की रीसाइक्लिंग के लिए भी जाना जाता है. गैर-सरकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस ऐंड इनवॉयर्नमेंट (सीएसई) ने मुरादाबाद के ई-कचरे के अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि इनमें भारी धातु का प्रदूषण का स्तर का काफी ऊंचा है. सीएसई ने नदी के किनारे मिट्टी और पानी के नमूने लिए, क्योंकि शहर के लोग इस पानी का इस्तेमाल कपड़े धोने और पीने के लिए भी करते हैं.

वैसे, भारत में मिट्टी में भारी धातुओं के प्रदूषण के स्तर के मापन के लिए कोई मानक अभी तक तय नहीं किया गया है ऐसे में सीएसई ने जांच के नतीजों की तुलना अमेरिकी और कनाडाई मानकों से की. इन नमूनों में तय मानकों से 15 गुना अधिक जिंक पाया गया जबकि तांबे का स्तर 5 गुना अधिक था. मिट्टी के नमूने में क्रोमियम (कैंसरकारक तत्व) भी कनाडाई मानको के मुकाबले तीन गुना अधिक था जबकि कैडमियम का स्तर 1.3 गुना अधिक था.

यह नतीजे पानी के नमूनों में भी समान निकले. रामगंगा के पानी में पारे का स्तर भारतीय मानकों से आठ गुना अधिक है. पानी के नमूनों में आर्सेनिक भी मिला है. यह सब नमूने नवाबपुरा, करूला, दसवाघाट और रहमत नगर से लिए गए थे. यह वही जगहें हैं जहां ई-कचरे का कामकाज होता है.

प्रशासन का मानना भी है कि देश में कुल प्रिंटेड सर्किट बोर्ड (पीसीबी) का पचास फीसदी मुरादाबाद में आकर जमा होता है. और रोजाना शहर में ई-कचरे की 9 टन मात्रा जमा हो जाती है.

रामगंगा के घाटों पर ई-कचरे के रीसाइक्लिंग की गतिविधियों से न सिर्फ गैस रिलीज होती है बल्कि एसिड सोल्यूशन, जहरीला दुआं और राख भी निकलता है. इनमें भारी धातु होते हैं जो पर्यावरण के लिए काफी खतरनाक हैं. इनसे कैंसर होने का खतरा होता है. ई-कचरे से निकले रसायन जमीन में चले जाते हैं और इस तरह मिट्टी और भूमिगत जल को प्रदूषित कर देते हैं.

असल में, पारा और आर्सेनिक इंसानी सेहत के नजरिए से काफी जहरीले तत्व होते हैं. पारा अगर खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर जाए, जाहिर है जलीय जीवों और मछलियों के जरिए, तो इंसानी मस्तिष्क के कामकाज करने पर बुरा असर डालता है. इससे तंत्रिका तंत्र भी प्रभावित होता है. इनसे होने वाली बीमारियों का इलाज अभी पूरी तरह मुमकिन नहीं हो पाया है.

जानकार कहते हैं कि इस इलाके में रहे वाले लोगों में खासतौर पर पीसीबी को डिसमैंटल करने वाले लोगों में सांस लेने की परेशानियों में इजाफा हुआ है. अमूमन गरीब लोग ऐसी तकलीफों में डॉक्टरी मदद लेने नहीं पहुंचते इसलिए कितने लोगों पर असर हुआ है इसका विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि ई-कचरे का यह काम अधिकतर अवैध है जहां किसी किस्म के सुरक्षा मानकों का भी पालन नहीं किया जाता इसलिए यह समस्या कहीं अधिक घातक है. मानकों का पालन नहीं करने की वजह से भारी धातुओं का आधा हिस्सा कचरे से निकाला नहीं जा सकता और उससे ई-प्रदूषण फैल रहा है.

हालांकि हाल ही में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने उत्तर प्रदेश सरकार पर ई-कचरे के समाधान में उचित कार्रवाई न करने के एवज में 10 लाख रूपए का जुर्माना ठोंका है. पर इसका असर क्या होगा यह देखना बाकी है. फिलहाल, रामगंगा में ई-कचरे की वजह से जमा हो रहे भारी धातुओं ने खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करना शुरू कर दिया है. इसके घातक परिणाम दिखने शुरू हो गए हैं. इससे पहले कि मामला हाथ से निकल जाए, गंगा की इस सहायक नदी की सेहत पर ध्यान देना जरूरी है.

रामगंगा को साफ नहीं किया तो गंगा कभी साफ नहीं होगी.


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Friday, September 20, 2019

नदीसूत्रः गोमती अवध की एक नदी के वध की कथा है

गोमती नदी को सजाने के लिए लखनऊ में रिवर फ्रंट बनाया गया, पर अभी भी 36 गंदे नाले गिरते हैं. गोमती के पानी में आर्सेनिक के साथ भारी धातुओं की मात्रा भी पाई गई है. शिवपुराण में गोमती को शिव की पुत्री बताया गया है, पर हम धर्मभीरू भारतीय अवध की इस जीवनरेखा का वध कर रहे हैं

हम तो अब तक यही मानते हैं कि भारतवर्ष में जिस इलाके को कुदरत से जो मिला है, वह ईश्वर का वरदान ही है. पर शिव पुराण में एक नदी को ईश्वर ने खुद आदेश दिया कि वह मां बन कर जनता का लालन-पालन करे. इस पुराण में भगवान शिव स्वयं नर्मदा और गोमती को अपनी पुत्रियां स्वीकार करते हैं. आज की बात उन्हीं में से एक गोमती की. वही गोमती, जिसे ऋग्वेद के अष्टम और दशम मण्डल में सदानीरा बताया गया है. गोमती अवध को मिला ईश्वर का वरदान ही है. पर हमें अब ऐसे वरदानों की परवाह ही कहां है!

असल में, नदियां महज पानी को ढोने वाला रास्ता नहीं होती. इनके किनारे, पूरा इतिहास, पूरी विरासत और एक तहजीब का किस्सा होता है.

गोमती नदी तो साक्षी रही होगी कि कैसे भगवान राम के छोटे भाई ने अपनी नगरी इसके किनारों पर बसाई होगी. गोमती ने देखा होगा कि कैसे लव और कुश ने अपनी मां को जंगल में छोड़ देने के अपने पिता के फैसले का विरोध किया होगा. अगर पौराणिक कहानियों में आपकी आस्था है, तो आपको यह भी पता होगा कि गोमती के किनारे भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम या हलधर ने अपने अपराध का प्रायश्चित किया था. भगवान बुद्ध ने इसके तटों पर विश्राम किया होगा, धम्म के उपदेश दिए होंगे. चीनी यात्री ह्वेनसांग इसके किनारों से होकर गुजरा होगा.

कैसे पृथ्वीराज चौहान के शत्रु बने राजा जयचंद ने मशहूर योद्धा बंधुओं आल्हा- ऊदल को पासी और भारशिवों का दमन करने के लिए यहां भेजा था. मुगल बादशाह अकबर ने यहीं पर तो वाजपेय यज्ञ कराने के लिए एक लाख रुपये ब्राह्मणों को दिये थे और तब गोमती का तट वैदिक ऋचाओं से गूंजा होगा. तुलसी की प्रिय नदी यही धेनुमती तो थी.

यही धेनुमती आज गोमती है, जिसका पानी शोधन के बाद भी इस्तेमाल के लायक नहीं बचा.

इस नदी का यह हाल नालों का पानी बिना ट्रीटमेंट के सीधे नदी में गिराने से हुआ है. नतीजतन, गोमती नदी में पेट की बीमारियों के लिए जिम्मेदार कॉलीफोर्म बैक्टीरिया ट्रीटमेंट को लिए जाने वाले पानी के मानक से 34 गुना अधिक है.

गोमती नदी उत्तर प्रदेश की सबसे अधिक प्रदूषित नदी बन चुकी है. उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) के आंकड़े देखें तो इस पूरे साल यानी 2019 के सभी महीनों में हालात खराब ही मिले है.

जनवरी से जुलाई तक के आंकड़ों के मुताबिक केवल कॉलीफोर्म ही नहीं पानी में जलीय जीवन बनाए रखने के लिए जरूरी घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा भी न्यूनतम हो गई है. वैज्ञानिकों का कहना है कि जलीय जीवन ही नदी के पानी के शुद्ध और प्रदूषणमुक्त होने का संकेत होता है. पानी में ऑक्सीजन नहीं होगी तो जलीय जीवन बच नहीं पाएगा.

इतना ही नहीं, अंग्रेजी के अखबार न्यू इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के मुताबिक, पर्यावरण वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि गोमती नदी में भारी धातुओं की काफी मात्रा मौजूद है. इस साल पहली बार लखनऊ में गोमती नदी के पानी में आर्सेनिक की मात्रा भी मिली है और जाहिर है नदी संरक्षण की तमाम पहलों को इससे धक्का पहुंचा है.

यूपीपीसीबी के मुताबिक, पिछले कई बरसों के दौरान गोमती नदी की धारा में 35 से 40 फीसदी तक की कमी आई है. अखबार में छपी रिपोर्ट कहती है कि गोमती नदी की धारा में लेड, कैडमियम और तांबे जैसे धातुओं की मात्रा की मौजूदगी है जो काफी खतरनाक है. इन धातुओं की मौजूदगी की मात्रा सतही जल के मुकाबले नदी की तली में कई गुना अधिक है.

इनमें भी तांबे की मात्रा कैडमियम, आर्सेनिक और लेड के मुकाबले काफी अधिक है. वैज्ञानिकों का कहना है कि कैडमियम, क्रोमियम, कोबाल्ट, मर्करी, मैंगनीज, निकल, लेड, टिन और जिंक जैसे धातु अगर 5 से अधिक के घनत्व में मौजूद हों तो काफी कम मात्रा में होने पर भी पर्यावरण के लिए काफी घातक होते हैं.

पेयजल के जरिए भोजन श्रृंखला में प्रविष्ट होने वाला आर्सेनिक कैंसर और त्वचा रोग पैदा करता है जबकि कैडमियम लीवर और किडनी को क्षतिग्रस्त कर देता है.

असल में, सिर्फ नवाबों के शहर लखनऊ में ही 36 गंदे नाले गोमती में गिरते हैं. शहर के आसपास के चीनी मिल से निकले अपशिष्ट भी इसी नदी में प्रवाहित होते हैं और जाहिर है इस नदी को काफी गंदा और प्रदूषित कर देते हैं.

गोमती नदी में घुले हुए ऑक्सीजन की मात्रा 1 मिग्रा/लीटर या कहीं-कहीं तो शून्य है. जबकि सामान्य जलीय जीवन के लिए इसे 4 मिग्रा/लीटर होना चाहिए.

गोमती को तो अवध को सींचने का काम दिया गया था, पर इसके जन्मस्थान पीलीभीत में ही इसका वध होने लगता है. गोमती किसी ग्लेशियर का पानी लेकर नहीं चलती, यह भूजल की वजह से बनती है और उसी से रिचार्ज होकर नदी बन जाती है. पर, पीलीभीत में ही इसके उद्गम पर अवैध कब्जों ने इसकी सांसे रोकनी शुरू कर दी हैं.

गोमती की सहायक नदियों का इससे भी बुरा हाल है. बंडा-खुटार रोड पर झुकनिया नदी जलकुंभी, प्लास्टिक की थैलियों और गंदगी से भरी हुई है. जबकि बंडा-पुवायां रोड पर भैंसी नदी पूरी तरह सूख चुकी है.

गमती के बेसिन में साठा धान यानी गरमियों में लगाई जाने वाली धान के लिए जरूरी पानी नदी से ही उलीचा जाता है. नदी को जीवन देने वाले भूजल के स्रोत सूखते जा रहे हैं. नदी का आंचल खाली करके और उसके मौजूदा बहाव में अपनी गंदा जल गिराकर हम उसका वध कर रहे हैं.

हां, उत्तर प्रदेश में सरकारों ने लखनऊ शहर में इस मरती हुई नदी को रिवर फ्रंट के जरिए सुंदर बनाने का काम किया. खूबसूरत घाट बनाकर रंग-रोगन भी किया गया है. कुछ ऐसे ही जैसे हमारे बिहार में एक कहावत हैः ऊपर से फिट-फाट, नीचे से मोकामा घाट. हमें यह जानने की जरूरत है कि गोमती अब अपनी आखरी सांसे गिनने लगी है. गोमती बहे ही नहीं तो काहे की नदी? नदी के घाट ही नदी नहीं होते. उसको सुंदर बनाने की बजाए साफ बनाया जाना जरूरी है. हम अब भी नहीं चेते, तो अवध की इस नदी के वध के भागीदार होंगे.पनी देवी की हत्या पर उतारू हैं.

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Wednesday, September 4, 2019

नदीसूत्रः बेतवा नदी का राख से घुटता दम

बेतवा देश की 38 सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है. इसमें केमिकल ऑक्सीजन डिमांड 250 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से भी अधिक है. यह पानी में प्रदूषण का वह स्तर है जिसे सीवेज ट्रीटमेंट में भेजे जाने की जरूरत है. बेतवा अकाल मौत की तरफ बढ़ रही है


बेतवा नदी को बुंदेलखंड की गंगा कहा जाता है. खेती-बाड़ी, पीने से लेकर उद्योग-धंधे सब बेतवा के भरोसे चलता है यहां. बेतवा नहीं तो कुछ नहीं. इसकी अहमियत कुछ ऐसे समझी जा सकती है कि बुंदेलखंड को सूखे से निजात दिलाने के लिए नदी जोड़ने की परियोजना में केन और बेतवा नदियों को जोड़ा जा रहा है. या कम से कम यह मान लेना चाहिए कि सरकार की सदिच्छा दोनों नदियों को जोड़ने की है.

पर, अगर कभी आप उत्तर प्रदेश के झांसी जिला मुख्यालय से कानपुर हाइवे पर 25 किलोमीटर चलें और परीछा थर्मल पॉवर प्लांट और बेतवा नदी के बीच स्थित रिछौरा और परीछा गांव जाएं तब जाकर आपको पता चलेगा कि विकास की कितनी कीमत खुद नदी और उसके किनारे रहने वाले लोग अदा कर रहे हैं. इन गांवों में आपको एक भी मवेशी दिखाई नहीं पड़ेगा. रिछौरा गांव के 30 वर्षीय अमर सिंह अहिरवार पांच वर्ष पहले दो गाय खरीदकर लाए थे. पर कुछ ही दिन बाद उनकी गायें बीमार रहने लगीं. डॉक्टरों से पता चला कि बेतवा नदी का प्रदूषित पानी पीने से गायों के पेट में राख जमा हो रही है.

कुछ ही दिनों में अमर की दोनों गायें चल बसीं. बुंदेलखंड पैकेज के तहत अमर सिंह को जो तीन बकरियां मिली थीं, उनमें से आखिरी ने पिछले हफ्ते दम तोड़ दिया. बेतवा नदी के किनारे फैली राख को दिखाते हुए अमर सिंह बताते हैं कि पॉवर प्लांट लगने से गांव में बिजली तो मिली लेकिन प्लांट की राख ने बेतवा नदी की सांसें छीन ली हैं.
झांसी-कानपुर हाइवे पर जैसे-जैसे परीछा पॉवर प्लांट के नजदीक पहुंचते हैं, तापघर की ओर जाने वाली सड़कें राख से पटी नजर आती हैं. मकानों की छतों पर राख का साम्राज्य है. हाल में हुई बारिश ने कुछ राहत दी है. छतों पर जमी कोयले की राख को बारिश का पानी बहा तो ले गया पर इसने गांव के किनारे बह रही बेतवा को और "विषैला'' करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

इस राख ने बिजलीघरों के इर्द-गिर्द बसे इलाकों में लोगों का जीवन नारकीय बना दिया है.

परीछा थर्मल पॉवर प्लांट के ठीक पीछे स्थित रिछौरा और परीछा गांवों में पसरा सन्नाटा अलग किस्सा बताता है. 30 वर्ष पहले दस हजार से अधिक आबादी वाले इन गांवों से आधे से ज्यादा लोग पलायन कर गए हैं.

पानी के लिए तरस रहे बुंदेलखंड में नदी का पानी ही जहरीला हो जाए तो इनके किनारे बसे गांवों की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. वर्ष 1984 में काम शुरू करने वाले परीछा थर्मल पॉवर प्लांट में अब छह इकाइयां हैं जहां रोजाना 16,000 मीट्रिक टन कोयले की खपत होती है और रोजाना 14,000 मीट्रिक टन गीली राख निकलती है जिसे डैम में भेजा जाता है.

परीछा थर्मल पॉवर प्लांट के एक अधिकारी बताते हैं, "210 मेगावाट क्षमता वाली इकाइयों से निकलने वाली राख के लिए बने दोनों डैम भर चुके हैं जबकि 110 मेगावाट क्षमता वाली इकाइयों के लिए बने डैम का एक कंपार्टमेंट भर चुका है. अब राख दूसरे कंपार्टमेंट में डाली जा रही है. इसमें भी छह महीने तक ही राख रखने की व्यवस्था है.''

बेतवा में मिलाई जा रही राख से जहरीले हुए पानी ने पिछले दो साल में परीछा और रिछौरा गांवों में 50 से ज्यादा पालतू पशुओं की जान ले ली है. परीछा गांव के जगदीश परिहार बताते हैं, "बेतवा में केमिकल वाली राख मिलने का असर गांव के हैंडपंपों पर भी पड़ा है.

अब इन हैंडपंपों से भी प्रदूषित पानी ही मिलता है.'' रिछौरा गांव के प्रधान कुलदीप सिंह बताते हैं, "बेतवा नदी की तलहटी में 20 से 25 फुट तक राख जमा हो जाने से नदी छिछली हो गई है. जरा-सा पानी बढऩे पर यह गांव में पहुंच जाता है.''

नदी पर बना परीछा बांध भी छिछला हो गया है. झांसी में सिंचाई विभाग में तैनात इंजीनियर श्रीशचंद बताते हैं, "बांध की तलहटी में राख जमने से इसकी भंडारण क्षमता काफी कम हो गई है जिससे आने वाले दिनों में सिंचाई पर संकट हो सकता है.'' परीछा बिजलीघर की राख को ठिकाने लगाने के लिए एक नया ऐश डैम बनाने की भी योजना है. इसके लिए प्लांट से सटे गांव महेबा, गुलारा और मुराटा की 572 एकड़ जमीन अधिग्रहीत की जानी थी. किसानों को जमीन का मुआवजा देने के लिए "सेंट्रल पॉवर फाइनेंस कार्पोरेशन'' से 195 करोड़ रुपए का ऋण भी परीछा थर्मल पॉवर प्लांट को मिल गया.

लेकिन प्रशासन को पर्यावरण मंत्रालय से अनापत्ति प्रमाणपत्र नहीं मिल पाया क्योंकि नियमानुसार डैम की जमीन को नेशनल हाइवे और नदी से 500 मीटर दूर होना चाहिए. लेकिन बेतवा नदी और हाइवे के बीच की दूरी ही 500 मीटर से कम है और इसी के बीच में अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन है.

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पिछले नवंबर में बेतवा नदी की पानी की जांच की और पाया कि बेतवा के पानी में टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 700 से 900 पॉइंट प्रति लीटर और टोटल हार्डनेस (टीएच) 150 मिलीग्राम प्रति लीटर से ऊपर पहुंच गया है.

वैसे इससे पहले मार्च, 2018 में पर्यावरण मंत्रालय ने लोकसभा में बताया कि बेतवा देश की 38 सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है. इसमें केमिकल ऑक्सीजन डिमांड 250 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से भी अधिक है.मंत्रालय ने माना है कि यह पानी में प्रदूषण का वह स्तर है जिसे सीवेज ट्रीटमेंट में भेजे जाने की जरूरत है.

फिलहाल, आप हर घर नल योजना के बारे में सोच-सोचकर पुलकित होइए कि गरीब से गरीब आदमी के किचन में सीधे झर्र से नल का पानी आएगा. पर, इस शोशेबाजी से थोड़ी मोहलत मिले तो सोचिएगा कि झर्र से आने के लिए पानी होना बहुत जरूरी होगा. और पानी का स्रोत रही नदियां तो अकाल मौत का शिकार हो रही हैं.

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Friday, August 30, 2019

नदीसूत्रः मौत के मुहाने पर खड़ी दामोदर नदी

जब प्रदूषण से कराहती दामोदर नदी ही मर जाएगी तो इसके नाम पर चलने वाले बहुद्देश्यीय नदी घाटी परियोजना का उद्देश्य आखिरकार सध जाएगा या फिर वह निरुद्देश्य रह जाएगा? 


नदीसूत्र / मंजीत ठाकुर

यह नदी कभी बंगाल का शोक कही जाती थी. अथाह जलराशि, और उससे भी अधिक रौद्र रूप. बरसात में यह नदी अपने कूल-किनारे तोड़कर बंगाल के मैदानों में फैलकर तबाही ले आती थी. जी, यह दामोदर नदी है. पर दामोदर का सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य, उसकी बाढ़ पर अंकुश लगाने के लिए आजादी के बाद दामोदर घाटी परियोजना (डीवीसी) शुरू हुई. बाढ़ पर तो खैर अंकुश लगा, पर असली नजर थी इसके बेसिन में मौजूद लोहे और कोयले पर. अनगिनत उद्योग लगे और आज की तारीख में दंतकथाओं में मौजूद दामोदर नदी देश की अधिक प्रदूषित नदियों की फेहरिस्त में शामिल है.

दामोदर नदी के किनारे 10 ताप बिजलीघर हैं जो सालाना कोई 24 लाख मीट्रिक टन राख पैदा करते हैं. इन बिजलीघरों में 65.7 लाख मीट्रिक टन कोयले की सालाना खपत होती है और इससे 8,768 मेगवॉट बिजली पैदा होती है.

दामोदर नदी को प्रदूषित करने का खेल रांची जिले के कोल बेल्ट खेलारी में शुरू होता है. फिर रामगढ़ जिले में घुसते ही पतरातू थर्मल पावर स्टेशन और सेन्ट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की कोल वाशरी इस नदी को और भी प्रदूषित करते हैं. कोल वॉशरी से निकले मलबे की मात्रा 30 लाख टन सालाना होती है. बोकारो जिले में घुसते ही ये तीन बिजलीघर दामोदर में कोयले की राख सीधे बहा दिया करते थे.

धनबाद में इस नदी की स्थिति इतनी खराब हो गई कि उद्योग जगत के तमाम दवाबों के बावजूद पर्यावरण मंत्रालय ने धनबाद में नए उद्योगों को मंजूरी देने से मना कर दिया था.

झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जेएसपीसीबी) की वेबसाइट में दामोदर में अपशिष्ट गिराने वाले 94 उद्योगों के नाम दर्ज हैं जिनमें अधिकतर तापबिजली घर और कोल वॉशरी ही हैं.

सन् 2004 में दामोदर बचाओ आंदोलन की शुरुआत करने वाले नेता और झारखंड सरकार में मंत्री सरयू राय का मानना है कि यह हालत तो तब है जब दामोदर के प्रदूषण स्तर में काफी सुधार हुआ है. लेकिन राज्य सरकार की एक इकाई तेनुघाट थर्मल पावर प्लांट आज भी चोरी-छुपे कोयले की राख को सीधे नदी के किनारे डाल देता है क्योंकि इसका ऐश पॉन्ड अब किसी काम का नहीं. पिछले साल दिसंबर (2017) में सीपीसीबी ने तेनुघाट संयंत्र को बंद करने का निर्देश दिया था क्योंकि यह दामोदर नदी को गंभीर नुकसान पहुंचा रहा था.

फिर भी स्थिति यह हो गई है कि बोकारो के आसपास के लोग दामोदर में छठ भी नहीं मनाने जाते. दामोदर का पत्थरों से अठखेलियां करता पानी काले और गंदले सड़न भरे बहाव में तब्दील हो गया है.

हालांकि जेएसपीसीबी के सदस्य सचिव राजीव लोचन बख्शी का दावा है कि पहले के मुकाबले प्रदूषण नियंत्रण के कानूनों को काफी कड़ाई के साथ लागू करवाया जाता है और इन उत्पादक इकाइयों की सतत मॉनीटरिंग चलती रहती है. पर इसका असर नदी की सेहत पर पड़ता दिखा नहीं है.

सन् 2011 में जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने दामोदर नदी की सूरतेहाल पर एक सर्वे करवाया था जिसमें ताप बिजलीघरों की वजह से इस नदी के खराब हालात का ब्योरा मौजूद है. दामोदर घाटी के बिजलीघरों से हवा में गैस के रूप में जा रही गंधक बारिश के साथ तेजाब बन जाती है और नदी में मिल जाती है. सीएसएमई की करीब दो दशक पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक, इस गंधक की मात्रा करीब 65,000 टन सालाना से ज्यादा होती है.

दामोदर नदी घाटी के दायरे में आने वाले झारखण्ड के नौ जिले हैं और इसके किनारे कई शहर बसे हुए हैं. कई पर्यावरणविद तो दामोदर को जैविक रेगिस्तान और काला रेगिस्तान भी कहते हैं. कभी भारत सरकार ने बहुद्देश्यीय दामोदर परियोजना के ऐलान के साथ लोगों को विकास का सब्जबाग दिखाया था. फिलहाल स्थिति यह है कि दामोदर का पानी पीने लायक नहीं बचा है. पानी छोड़िए, यह इतना अधिक प्रदूषित है कि लोग नहाने से भी कतराते हैं.

हजारीबाग, बोकारो एवं धनबाद जिलों में इस नदी के दोनों किनारों पर बड़े कोल वाशरी हैं, जो रोजाना हजारों घनलीटर कोयले का धोवन नदी में बहाते हैं. इन कोलवाशरियों में गिद्दी, टंडवा, स्वांग, कथारा, दुगदा, बरोरा, मुनिडीह, लोदना, जामाडोबा, पाथरडीह, सुदामडीह और चासनाला शामिल हैं. इसके साथ ही इस इलाके में कोयला पकाने वाले बड़े-बड़े कोलभट्ठी हैं जो नदी को लगातार प्रदूषित करते रहते हैं.

चंद्रपुरा ताप बिजलीघर में रोजाना 12 हजार मीट्रिक टन कोयले की खपत होती है और उससे हर रोज निकलने वाला राख दामोदर में बहाया जाता है. नतीजतन, दामोदर नदी के पानी में ठोस पदार्थों का मान औसत से काफी अधिक है.

दामोदर नदी के पानी में भारी धातु, लोहा, मैगनीज, तांबा, लेड, निकल वगैरह मौजूद हैं, पहले यहां के लोगों में मान्यता थी कि दामोदर नदी में नहाने से त्वचा रोग दूर हो जाते हैं. पर आज स्थिति यह है कि आपने हिम्मत करके दामोदर में डुबकी लगाई तो त्वचा रोग होना तय है.

दामोदर नदी में प्रदूषण का असर यहां के लोगों की आजीविका पर भी पड़ा है. कुछ दशक पहले तक इस नदी में बहुत सारी नस्लों की मछलियां होती थीं. पर अब जहरीले पानी में मछली छोड़िए किसी भी किस्म का जलीय जीवन नामुमकिन है. दामोदर नदी के किनारे से सटे खेतों की मिट्टी जहरीली हो गई है और जानकार बताते हैं कि इस इलाके में खेतों में उपज पचास फीसदी कम हो गई है.

दामोदर नदी के दम पर इस नदीघाटी में मौजूद ताप बिजलीघर ही नहीं, कई सारे स्टील प्लांट भी चलते हैं. कई उद्योगों के इस्तेमाल का और शहरों के पीने का पानी दामोदर से मिलता है. जब दामोदर नदी ही मर जाएगी तो क्या इसके नाम पर चलने वाले बहुद्देश्यीय नदी घाटी परियोजना का उद्देश्य आखिरकार सध जाएगा या फिर वह निरुद्देश्य रह जाएगा?

सवाल दुश्वार जरूर है पर जवाब जानना भी उतना ही जरूरी है. आखिर भविष्य से जो जुड़ा है.