Thursday, December 29, 2011

सनीः भारतीय पुरुषों के सपनों की नई रानी

नी लियोनी...ने बिग बॉस में धमाल मचाने के बाद एक नया करिश्मा कर दिया है। टीवी के रियलिटी शो से चुपके से निकल कर इस पॉर्न स्टार ने भारतीय पुरुषों के सपनों में घुसपैठ कर ली है। हाल तक शीला की जवानी मर्दों के सपनों में धमाल मचाती रहती थीं...लेकिन करीना, कतरीना, ऐश्वर्य..सबको पीछे छोड़ दिया, करण मल्होत्रा उर्फ करणजीत कौर वोहरा उर्फ सनी लियोनी ने।
सनी परदे पर हों तो लोग सुनना नहीं, देखना पसंद करते हैं
भारत जैसे देश में जहां आज सेक्स पर बात करना भी वर्जित माना जाता है, वहां बिग बॉस के आयोजकों को भी सनी के सीधे प्रवेश पर शक हो रहा था। उन्हें लग रहा था कि शायद भारतीय लोग सनी के विरोध में सड़कों पर उतर आएं। लेकिन मेरे एक नजदीकी दोस्त की तरह सनी के शैदाई भी कम नहीं।

मेरे सहयोगी और मित्र को सनी की मादक काया के साथ ही उसका मासूम चेहरा तो भाता है ही, हजरत सनी की मीठी आवाज के कायल भी है। कभी लीगल कॉरेस्पांडेंट रहे मेरे इस दोस्त के सपनों पर सनी का कब्जा हो गया है।

मेरे इन रिपोर्टर साथी की आंखों में सनी की कशिश अकेली उनकी ही समस्या नहीं है। इस सूची में सनी को सराहने वाली भारतीय युवा पीढ़ी की एक पूरी तादाद है।

इंटरनेट के जमाने में पॉर्न सामग्री कोई वर्जित फल की तरह नहीं है। ऐसे में सनी लियोनी और प्रिया अंजलि राय, गंदे माने जानेवाले इस धंधे में भारतीय परचम की तरह है।
क्या सनी लियोनी विद्या बालन के इश्कि़या और डर्टी पिक्टर वाले देसी सौन्दर्य का एनआरआई जवाब है?

मैं सनी के सौन्दर्य का निश्चित रुप से प्रशंसक हूं, लेकिन साफ कर दूं कि मैं पॉर्न को महिमा मंडित करने कोशिश नहीं कर रहा। साथ ही उसका विरोध भी नहीं कर रहा।

सवाल है कि एडल्ट फिल्मों में काम कर रही इस सुपरस्टारनी के कदम अब बॉलिवुड में भी पड़ चुके हैं। इससे किसे चिंतित होना चाहिए। महेश भट्ट ने जिस्म-2 सनी को ऑफर भी कर दिया है। इसके साथ ही दर्जनों निर्माता भी सनी से संपर्क साध रहे हैं।

हमें सनी की अभिनय क्षमता पर संदेह नहीं होना चाहिए। लेकिन, भारतीय सेंसक बोर्ड अभिनय के जिन मानकों को पास करता है सनी उस तरह का अभिनय कर पाएंगी, यही सवाल लाख टके का है। क्योंकि सनी के अभिनय के मानक भारतीय सेंसर और दर्शक शायद ही खुले तौर पर हजम कर पाएँ।
कतरीना करीना की नींद उड़ा दी है सनी ने

फिर भी, गूगल पर सर्च के मामले में सनी ने भारतीय पुरुषों के सपनों की रानियों को पछाड़ दिया है। सनी को कतरीना  से दस गुना ज्यादा बार सर्च किया गया है।

भारतीय फिल्म उद्योग में संभावनाओं के देखते हुए सनी ने अपने तमाम वीडियो विभिन्न वेब साइटों से डिलीट करवा दिए हैं। हमें पता है कि हम जैसे चित्रांगदा सिंह के मर मिटने वाले प्रशंसकों को छोड़ दें ( देसी बॉयज़ जैसी दो कौड़ी की फिल्म हमने महज चित्रांगदा के लिए देखी) साथ ही एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की भी है, जिनके लिए सनी के लटके-झटके, चेहरे के अलमस्त हाव-भाव ही काफी हैं।

तो क्या विद्या बालन के देसी सेक्स अपील के जवाब में विदेशी खुलेपन के साथ एनआरआई सेक्स अपील आयात की गई है...क्या एक सिल्क स्मिता पुरानी कहानी में नए ट्विस्ट की तरह फिर से इंडस्ट्री में लाई गई है। जो मजबूरी में नहीं मनमर्जी से हार्डकोर पॉर्न व्यवसाय को करिअर बनाती है।

भारतीय पुरुष नेट पर सनी को तलाश रहे हैं...फिल्मवाले बेकरारी से एक मसाला आय़टम को रुपहले परदे पर पेश करने को तैयार हैं...और सपनों में एक नया मादक रंग आ गया है...यह रंग गुलाबी नहीं, सनी है।


Tuesday, December 27, 2011

मंगल ठाकुर की मैथिली कविता

धानक फुनगी पर मकड़ा के जाली,
जाली में ओसक बून्द,
चमचम चमकै ओसक जाली,
वसुधा ओढ़ने छथि मोतिक चून
ताहि बगल में छोट-छिन डबरा
डबरा में पोठिया के झुंड

डबरा में ठाढ़ भेलि कुमुदिनी लजायल,
सूर्यसन पुरुष के देखितहिं कुमुदनी
लाजे लेलन्हि अपन आंखि मूंदि

कासक  पुष्प, 
सेहो ओघांयल सन
नींदक मातल सन,
भोरक भकुआयल सन
लागल जेना कुमुदिनी के लेता चुमि

इ छैक मिथिला के भोरका सुंदरता
एकरा नजरि ककरो नहिं लागै





हिंदी अनुवादः मंजीत ठाकुर

धान की फुनगी पर,
मकड़े की जाली,
जालों पर शबनम की बूंद...
खेत के पास
छोटा-सा डबरा...
डबरे में खेलती पोठि मछलियों के झुंड...

वहीं खड़ी थी कुमुदिनी लजाई,
सूरज-से प्रिय देख,
आंखें लीं मूंद...

कास के फूल, वो भी अघाए-से,
निंदाया-भकुआया, अल्लसुब्बह लगा कि लेगा
लाज से लाल कुमुदिनी को चूम

(डबरा-पोखरा, पोठी-मछलियों की एक प्रजाति, कास-बरसात के अंत में खिलने वाला घास का एक फूल)

Thursday, December 22, 2011

चंद्रशेखर आजाद की दुर्लभ तस्वीर


क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की मृत देह का ब्रिटिश पुलिस ने सार्वजिनक प्रदर्शन किया था

 क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की ये तस्वीर बेहद दुर्लभ है। उनकी पार्थिव देह को ब्रिटिश पुलिस ने सार्वजनिक तौर पर पेश किया था। यह चेतावनी थी उन क्रांतिकारियों के लिए जो ब्रिटिश सरकार के लिए परेशानियां पैदा कर रहे थे। 27 फरवरी 1931 को एक धोखेबाज मुखबिर की वजह से इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश टुकडी ने चंद्रशेखर आजाद को घेर लिया।

चंद्रशेखर आजाद आखिरी गोली तक लडते रहे। कोई विकल्प सामने न पाकर चंद्रशेखर आजाद  ने आत्मसमर्पण की बजाय ने अपनी जान देनी बेहतर समझी। उनने आखिरी गोली खुद को मार ली थी।

समाज के बेहद अराजक दौर में चंद्रशेखर आजाद  जैसे सपूतों को प्रणाम। इस तस्वीर को शेयर करें, ब्लॉग लिखे...मेल करें।

(तस्वीरः फेसबुक पर जितेन्द्र रामप्रकाश सर के सौजन्य से)

Monday, December 19, 2011

दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्रः बूंद बूंद को तरसेंगे शहर


डीएमआईसी ने नदी के पानी के इस्तेमाल के लिए जो मानदंड तय किए हैं, वो सही हैं और अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान के मानकों के मुताबिक ही हैं। यानी नदी साफ रहे और पर्यावरण सुरक्षित रहे इसके लिए जरुरी है कि नदी में कुल बहाव का आधा पानी बहने दिया जाए। आधे या इससे कम पानी का ही इस्तेमाल किया जाए।



स्कॉट विल्सन के दस्तावेज में बताया गया है कि दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र में पडने वाली नदियों में कुल कितना पानी है, और कुल कितने पानी का इस्तेमाल किया जा सकता है। केन्द्रीय जल आयोग के आँकडों के मुताबिक दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र में कुल 6 नदियां हैं। यमुना, चंबल, माही, साबरमती, नर्मदा और लूनी। इन छहों नदियो का कुल प्रवाह 134 क्युबिक मीटर है। सिद्धांततः इनमें से आधा यानी 67 अरब क्युबिक मीटर पानी इस्तेमाल किया जा सकता है।



लेकिन कठिनाई यह है कि दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र की इन 6 नदियों में से पहले ही 70 अरब क्युबिक मीटर पानी का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस तथ्य़ की अनदेखी दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र प्रपत्र में की गई है।



दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र परियोजना की रिपोर्ट लिखने वालों ने शायद यह मान लिया है कि पूरब की तरफ बहने वाली नदियों का पानी भी इस गलियारे के शहरों के लिए उपलब्ध है।



दस्तावेज में सुझाव दिया गया है कि अगर इंजीनियरिंग के जरिए मुमकिन हो पाए तो, पूरब की तरफ बहने वाली नदियों को 600 मीटर तक ऊंचा उठाकर उसका पानी दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र के नए बस रहे शहरों के लिए उपलब्ध कराया जाए। अगर इन नदियों का पानी 600 मीटर उठा दिया जाए तो गलियारे में बहुत दूर तक ले जाया जा सकता है।



दरअसल, पूरब की तरफ बहने वाली नदियों गोदावरी और कृष्णा का पानी का बंटवारा महाराष्ट्र और आंध्र् प्रदेश के बीच होता है। इऩ राज्यों के बीच पानी के बंटवारे को लेकर झगडा है, दोनों ही राज्यों में किसान सिंचाई की जरुरतो के लिए पानी की कमी से आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र के लिए दोनों  में से कोई भी राज्य पानी छोड़ेगा, इसकी दूर-दूर तक संभावना भी नहीं है।



दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र परियोजना में जिस तरह से संसाधनों और संभावनाओं को लेकर पूर्वानुमान लगाए गए हैं, उस पर पुनर्विचार की जरुरत है। इन तथ्यों का सत्यापन बहुत सावधानी से करना होगा, और उनका मिलान जमीनी हकीकत से भी कराना होगा।



दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र में शहरों का विकास या उनकी स्थापना की कहानी में कोई नई बात होनी चाहिए, इन शहरों को आकार में छोटा होना चाहिए और साथ ही हरा-भरा भी। पर्यावरण से छेड़छाड होगी, तो दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा क्षेत्र पीने के पानी को बूंद-बूंद तरसती आबादी से भरे भीड भाड़ वाले इलाके से ज्यादा कुछ नहीं होगा।


Thursday, December 15, 2011

उत्तर-पश्चिम औद्योगिक गलियारे का प्रस्ताव-कितना मुफीद

यह बेहद महत्वपूर्ण फैसला साबित होने जा रहा है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा-डीएमआईसी- परियोजना के लिए 90 अरब डॉलर मंजूर किए हैं। इस परियोजना की परिकल्पना पांच साल पहले की गई थी और इसे जापान की मदद से अमल में लाया जाएगा।

इससे दिल्ली और मुंबई के रास्ते में औद्योगिक गलियारा बनेगा। इस प्रोजेक्ट को मैंकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट ने अनुमोदन किया है और स्कॉट विल्सन ने इसकी रुपरेखा बनाई है। परियोजना के तहत कई नए शहर बसाएं जाएंगे और ये शहर जाहिर है मुंबई दिल्ली के बीच बसेंगे।

इस गलियारे में 24 औद्योगिक शहर, तीन बंदरगाह, 6 हवाई अड्डे, और डेढ हजार किलोमीटर लंबी हाइ स्पीड रेल लाईन और सडके बनाई जाएँगी। यह गलियारा 6 राज्यों से होकर गुजरेगी।
प्रस्तावित दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर


2009 में इस इलाके की आबादी 23.10 करोड़ थी, जो 2019 में 31 करोड और 2039 में करीब 52 करोड हो जाएगी। मैंकेजी की भविष्यवाणी है कि भारत को जल्द ही ऐसी कई परियोजनाओं की जरुरत होगी, क्यों कि पलायन के बढ़ते चलन और शहरीकरण की दर में आ रही तेजी से ऐसा करना जरुरी भी होगी।

वैसे मुझ जैसे शंकालुओं को इस योजना के इतनी तेजी से बढाए जाने पर शक हो रहा है। इस बारे में ज्यादा लोगों को पता भी नहीं है। शहरी भूगोल के पारंगत भी इस बारे में शायद ही कुछ ज्यादा जान पाएं, आप खुद भी देख लें कि इस बारे में जो दस्तावेज www.scottwilsonindia.com नाम की वेबसाइट पर डाली है।

मुझे इस परियोजना के कामयाब होने में इसलिए भी संदेह है क्योंकि ऐसी परियोजनाओं के लिए जरुरी पानी इस इलाके में शायद बहुत ज्यादा या पर्याप्त मात्रा में नहीं है। डीएमआईसी की इस परियोजना के लिए-यानी नए बसे शहरों और आबादी के लिए पानी नदी से -कुल जरुरत का दो-तिहाई-और पहले से ही रिस रहे भू-जल(कुल जरुरत का एक तिहाई) से लिया जाएगा।

उत्तर-पश्चिम भारत में नदियां प्रदूषित हैं और भू-जल रिस चुका है

नदियां पहले से ही प्रदूषित है और भू-जल दूषित भी है और जरुरत से ज्यादा निकाला भी जा रहा है। शक इसलिए भी है क्योंकि नासा और श्रीलंका के अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान-आईड्ब्ल्यूएमआई- के आंकडों के मुताबिक, उत्तर-पश्चिम भारत का यह दिल्ली-मुंबई गलियारा दुनिया के भूमिगत पानी के कमी वाले इलाकों में से एक है।

मालूम हो कि इस इलाके में 6 नदियां बहती हैं, यमुना, चंबल, माही, साबरमती, लूनी, तापी और नर्मदा। इन सभी नदियों का कुल प्रवाह 134 अरब क्युबिक मीटर है।

-----जारी

Monday, December 12, 2011

दिल्ली कैसे बनी राजधानी


साल 1911, 12 दिसंबर, दिन मंगलवार, किंग जॉर्ज पंचम के राज्यारोहण का उत्सव मनाने और उन्हें भारत का सम्राट स्वीकारने के लिए दिल्ली में एक दरबार आयोजित किया गया। दरबार में ब्रिटिश भारत के शासक, भारतीय राजकुमार, सामंत, सैनिक और अभिजात्य वर्ग के लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे। दोपहर बाद 2 बजे वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग ने उपाधियों और भेंटों की घोषणा के बाद राजा जॉर्ज पंचम को एक दस्तावेज़ सौंपा। अंग्रेज राजा ने वक्तव्य पढ़ते हुए पूर्व और पश्चिम बंगाल को दोबारा एक करने समेत कई प्रशासनिक बदलावों का ऐलान किया, लेकिन सबसे हैरतअंगेज फैसला था राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने का।





इस घोषणा ने एक ही झटके में एक सूबे के शहर को एक साम्राज्य की राजधानी में बदल दिया, जबकि 1772 से ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता थी। 1899 से 1905 के दौरान भारत के वॉयसराय रहे लॉर्ड कर्ज़न, ने इस खबर पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया दी थी। कर्जन ने दिल्ली कोवीरान खंडहर और कब्रों का ढेर कहा था।


यह सच है कि अपने समृद्ध और गौरवशाली अतीत के बावजूद जिस समय दिल्ली को राजधानी बनाने का फ़ैसला किया गया, उसवक्त वह किसी भी लिहाज़ से एक प्रांतीय शहर से ज़्यादा नहीं थी। किंग जॉर्ज पंचम की घोषणा से हर कोई इसलिए भी हैरान था, क्योंकि यह पूरी तरह गोपनीय रखी गई थी।


जॉर्ज पंचम की भारत यात्रा के छह महीने पहले ही ब्रिटिश भारत की राजधानी के स्थानांतरण का फैसला किया जा चुका था लेकिन इससे इंग्लैंड और भारत में दर्जन भर व्यक्ति ही वाक़ि़फ थे।



सात दिसंबर, 1911 को जार्ज पंचम और क्वीन मेरी दिल्ली पहुंचे। शाही दंपत्ति को एक जुलूस की शक्ल में शहर की गलियों से होते हुए विशेष रूप से लगाए गए शिविरों के शहर यानी किंग्सवे कैंप में गाजे-बाजे के साथ पहुंचाया गया। एक बहुत बड़े अर्द्धचंद्राकार टीले से क़रीब 35,000 सैनिक और 70,000 दर्शक दरबार के चश्मदीद गवाह बने।


25 गुणा 30 मील के घेरे में फैले क्षेत्र में 223 तंबू लगाए गए, जहां 60 मील की नई सड़कें बनाई गईं और क़रीब 30 मील लंबी रेलवे लाइन के लिए 24स्टेशन। दरअसल, दिल्ली दरबार का आयोजन एक जनवरी, 1912 को होना था,पर इस दिन मुहर्रम होने की वजह इसे कुछ दिन पहले करने का फैसला किया गया।


बहरहाल, 15 दिसंबर, 1911 किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मेरी ने नई दिल्ली शहर की नींव के पत्थर रखे। लेकिन असली समस्या शहर बसाने की जगह को लेकर आई।


लॉर्ड हार्डिंग, रॉबर्ट ग्रांट इर्विंगंस की पुस्तक-इंडियन समर में कहते हैं, हमें मुगल सम्राटों के उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता के प्राचीन केंद्र में अपने नए शहर को बसाना चाहिए. वायसराय ने बतौर राजधानी दिल्ली के चयन का ख़ुलासा करते हुए कहा कि यह परिवर्तन भारत की जनता की सोच को प्रभावित करेगा।





नई दिल्ली के लिए कई जगहों के बारे में सोचा और नामंजूर किया गया। दरबार क्षेत्र को अस्वास्थ्यकर माना गया जहां बाढ़ का भी ख़तरा था। अपेक्षाकृत बेहतर सब्जी मंडी के इलाक़े को फैक्ट्री मालिकों और सिविल लाइंस में यूरोपीय आबादी की नाराज़गी के डर से अपनाया नहीं गया।


बहरहाल, इमारत निर्माण से जुड़ी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं का जिम्मा अंग्रेज वास्तुकार एडविन ल्युटियन्स और उनके मित्र हार्बर्ट बेकर को सौंपा गया। लुटियन के नेतृत्व में मौजूदा पुराने शहर शाहजहांनाबाद के दक्षिण में नई दिल्ली के निर्माण का कार्य 1913 में शुरू हुआ, जब नई दिल्ली योजना समिति का गठन किया गया।


-----जारी

Monday, December 5, 2011

देवानंद के साथ मेरी मुलाकातः एक यादगार शाम

...देव साहब चले गए। सबको जाना होता है एक दिन। लेकिन हर फिक्र को धुएं में उड़ाने वाले शख्स के ऐसे जाने का ग़ुमां किसी को नहीं था। अभी कुछ ही दिन पहले मैं नीता प्रसाद से बात कर रहा था, इस साल हमने बहुत से बड़े लोगों को खो दिया है। जगजीत सिंह, पंडित भीमसेन जोशी...उस्ताद सुलतान अली खां..हमसे दूर चले गए लोगों की लिस्ट बड़ी लंबी हो गई है। साल 2011 बहुत बुरा गुजरा है।
देव साहब सिर्फ आप हैं, आप  हैं और आप...


देव साब का जाना पेड़ से एक हरी टहनी के टूटने जैसा है। उन जैसी सदाबहार शख्सियत के लिए 88 की उम्र है ही क्या..। सामने इंडियन एक्सप्रैस पड़ा है...कवर पर पहली ही खबर है। सिनेमा के फॉरएवर यंग का जाना....। देव,साब का हंसता, शोख मुस्कुराहट भरा चेहरा। श्वेत-श्याम।

देव साहब की जिंदादिली की बात कईय़ों ने की है। कल शाम यानी रविवार की शाम 8 बजे हमने एक खास कार्यक्रम किया था..रोमांसिंग लिद लाइफ। देव साब जिदंगी के साथ रोमांस ही तो करते रहे। संदीप सिंह ने उनकी जिंदादिली पर उम्दा पैकेज लिखा था। रात को साढे ग्यारह बजे इसे रिपीट टेलिकास्ट किया गया। रितु जी पहले 8 बजे वाले प्रोग्राम में थोड़ा हिचकिचाते हुए लिंक्स पढ़ रही थी, बाद में खुल गईं।

देव साहब की जिंदादिली पर, उनके व्यक्तित्व पर टिप्पणी करने के लिए मैं शायद बहुत जूनियर हूं। लेकिन उनके साथ मुलाकात का जिक्र करता हूं। गोवा में साल 2007..भारत का अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव। फेस्टिवल की रिपोर्टिंग के लिए मैं अकेला गया था दिल्ली से। डीडी की तरफ से।

देव साहब से आधे घंटे के विशेष इंटरव्यू के लिए मैंने उनके सेक्रेटरी से बातें की। शाम को बुलावा आय़ा। जब मैं डीडी की टीम लेकर पहुंचा, एक कैमरामैन, एक लाइटिंग असिस्टेंट  और एक साउंड इंजीनियर...। झुटपुटा होने लगा था। देव साब होटल ताज में रुके थे। सामने समंदर लहरा रहा था। उनने पूछा, लाइटिंग कैसी है। हमारी लाइटिंग बहुत उम्दा नहीं थी, क्योंकि किसी को अंदाजा नहीं था कि वह बाहर बैठ कर इंटरव्यू देंगे।

मेरा चेहरा उतर गया। लेकिन मुझे देखकर देव साब हंस पड़े। बोले, यंगमैन, निराश मत होओ, मै तुम्हे इंटरव्यू दूंगा और जरुर दूंगा। लेकिन पहले चाय पियो। फिर मेरी पूरी टीम को चाय-नाश्ता करवाया। मुझसे ही पूछते रहे कहां से हो, फिल्मों में इंटरेस्ट कैसे हुआ। फिर लाहौर से बॉम्बे की अपनी पूरी जर्नी के बारे में बताया।

मैंने यूं ही पूछ भी लिया, सर आप इस उम्र में भी काम क्यों करते हैं, जबकि आपकी उम्र के लोग रिटायर हो गए। जवाब में वही चिरपरिचित मुस्कान। यंगमैन, मै काम क्यों करता हूं, जो लोग देवानंद नहीं है वो इसे नहीं जान सकते।

फ्लॉप पर फ्लॉप फिल्मों के बाद भी नई फिल्में बनाते जा रहे है। उन्होंने तब बताया कि  जब वो लाहौर से बॉम्बे आए थे तो उनकी जेब में महज 30 रुपये थे। देवसाहब बहुत भावुक होकर बताते रहे कि यही 30 रुपये उनके हैं, बाकी तो सब इसी इंडस्ट्री का है, जिसे अपने योगदान से वापस करने की कोशिश करते है वो।

...और भी बहुत सी अनौपचारिक बातें। गलीउन्होंने मुझे अगली सुबह 7 बजे आने का कहा। उन्हें 8 बजे मडगाव जाना था, नेवी के यहां कुछ कार्यक्रम था। मुझसे पूछा, 7 बजे आ तो जाओगे ना...। मैंने हां कह दिया, लेकिन मुझे खुद पर भरोसा नहीं था।

इतना ही नही अगली सुबह 6 बजे मोहन जी का फोन आया, आप जाग तो गए ना। देवसाब पूछ रहे हैं। मैं अभिभूत हो गया। बहरहाल, मुझे आधे घंटे से ज्यादा का इंटरव्यू उन्होंने दिया..। वो पल मेरे लिए अनमोल हैं, जो मैंने उनके साथ बिताए।

इतना ही नहीं अगले साल जब मै अपने बाकी के सहयोगियों, वीडियो एडिटर मनीष शर्मा, और प्रोडक्शन एक्जीक्यूटिव श्रीकांत तिवारी के साथ गोवा गया, तो उन्होंने न मुझे सिर्फ पहचाना, बल्कि हमने उऩके साथ तस्वीरें खिंचवाने की इच्छा प्रकट की तो बड़ी खुशी से साथ भी आ खड़े हुए।

ये तस्वीरें श्रीकांत के पास है, उनसे कहूंगा कि फेसबुक पर पोस्ट करे।

आखिर, मुझ जैसे न्यूकमर जर्नलिस्ट के लिए उन्होंने इतना प्रेम भाव क्यों दिखाया...जो देवानंद नहीं है, उन्हें इसका अंदाजा भी नहीं होगा। देवसाहब, मैं ताजिंदगी आपको कभी भुला नहीं पाऊगा।