Friday, November 23, 2018

क्या सारे मनुष्य आनुवंशिक रूप से एक हैं या हमारी नस्लें अलग हैं?

आज की दुनिया में मौजूद सभी मनुष्य होमो सेपियन्स (आत्मश्लाघा से ग्रस्त हम लोगों ने खुद को होमो जीनस से ताल्लुक रखने वाले सेपियन्स यानी बुद्धिमान मान लिया है) हैं. लेकिन इसके अलावा और भी आदिम प्रजातियां रही हैं जो हम जैसी थीं.

25 लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका में वानरों का प्रारंभिक जीनस ऑस्ट्रालोपीथिकस था. मजबूत कद-काठी के निएंडरथल्स थे. इंडोनेशिया के होमो सोलोऐंसिस थे. इसके अलावा होमो रुडोल्फेंसिस, होमो एर्गास्टर (कामकाजी मनुष्य) और सीधे खड़े होने वाले होमो इरेक्टस थे. अमूमन भ्रांतिवश इन सबको एक ही सीधी वंशावली के पूर्वज मान लिया जाता है, जिससे हम विकसित हुए. (मनु-शतरूपा, आदम-हव्वा, एडम-ईव वाले प्लीज इस पोस्ट को नजरअंदाज करें)

पाठ्यपुस्तकों में अभी तक माना जाता है कि एर्गास्टर ने इरेक्टस को जन्म दिया, इरेक्टस ने निएंडरथल्स को और फिर निएंडरथल्स से हम लोग हुए. यह एकरैखीय मॉडल इस गलत धारणा को जन्म देता है कि किसी खास क्षण में किसी एक ही किस्म के मनुष्य पृथ्वी रहते थे.

तो फिर उनका क्या हुआ? इस बारे में दो परस्पर विरोधी सिद्धांत है या ठीक-ठीक कहें तो अनुमान हैं. पहला है संकरण सिद्धांत (इंटरब्रीडिंग थियरी) जो आकर्षण, सेक्स और दो प्रजातियों के आपस में घुलने-मिलने की कहानी है. जैसे ही अफ्रीका से आए लोग दुनिया में फैले (कैसे, यह अगली किसी पोस्ट में) उन्होंने दूसरी मनुष्य आबादियों के साथ मिलकर प्रजनन किया और आज के लोग इसी संकरण का नतीजा हैं.

इसके उलट, प्रतिस्थापन सिद्धांत (रिप्लेसमेंट थियरी) बिलकुल अलहदा कहानी कहता है--असामंजस्य, विकर्षण और शायद जाति संहार की कहानी. इस अनुमान के मुताबिक, सेपियन्स और दूसरे मानव प्रजातियों की शारीरिक रचनाएं भिन्न थीं, संभावना है कि इनके सहवास के ढंग और शारीरिक गंध भी अलग रही होगी. अगर एक निएंडरथल जूलिएट और सेपिसन्स रोमियो के बीच इश्क़ भी हो जाता तो वे जननक्षम बच्चे पैदा नहीं कर सकते थे. दोनों आबादियां पूरी तरह विलग बनी रहीं और निएंडरथल या तो मार दिए गए या मर गए और उनके जीन भी उन्हीं के साथ मर गए. यानी सेपियन्स ने पिछली तमाम प्रजातियों की जगह ले ली. इस तरह आज के हम सब मनुष्यों का उद्गम पूरी तरह पूर्वी अफ्रीका में आज से 70 हजार साल पहले हुआ.

लेकिन अगर प्रतिस्थापन सिद्धांत सही है तो हम सब जिंदा लोगों का आनुवंशिक वजन एक जैसा है और इसतरह नस्लीय रूप से भेदभाव गलत ठहरता है. लेकिन अगर संकरण सिद्धांत सही है तो अफ्रीकियों, यूरोपियनों और एशियाईयों के बीच हजारों साल पुराने आनुवंशिक भेद हैं. यह राजनैतिक डायनामाइट है, जो विस्फोटक नस्लभेदी सिद्धांतों के लिए पर्याप्त बारूद मुहैया करा सकता है.


Thursday, November 15, 2018

राजनीतिक पार्टियों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती सरकार?

अभी हाल ही में एक मीम आया था, जिसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लोगों से चंदा मांगते दिखते थे और बाद में वेलकम-2 का एक सीन और परेश रावल का एक संदे्श आता है. यह मीम अरविंद केजरीवाल की हंसी उड़ाने के लिए था. और कामयाब रहा था. 

पर आपको और हमें, सोचना चाहिए कि आखिर राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, उनका खर्च कैसे चलता है? आपने कभी किसी पार्टी को चंदा दिया है? कितना दिया है? चुनावों पर उम्मीदवार और सियासी दल कितना खर्च करते है? जितना करते हैं उतना आपको बताते है और क्या वह चुनाव आयोग की तय सीमा के भीतर ही होता है? और अगर आपके पसंदीदा दल के प्रत्याशी तय स्तर से अधिक खर्च करते हैं (जो करते ही हैं) तो क्या वह भ्रष्टाचार में आएगा? प्रत्याशी जितनी रकम खर्च करते हैं वह चुनाव बाद उन्हें वापस कैसे मिलता है? और आपके मुहल्ले को नेता, जो दिन भर किसी नेता के आगे-पीछे घूमता रहता है उसके घर का खर्च कौन चलाता है?

अभी चार महीनों के बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. इन दिनों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में चुनाव प्रक्रिया चल रही है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले चुनावी वादा किया था, न खाऊंगा न खाने दूंगा. ऐसा नहीं कि सरकार ने शुचिता के दायरे में राजनीतिक दलों को लाने की कोशिश नहीं की, पर प्रयास नाकाफी रहे. सरकार के हालिया प्रयासों के बावजूद भारत में चुनावी चंदा अब भी अपारदर्शी और काले धन से जुड़ी कवायद बना हुआ है. इसकी वजह से चुनाव सुधारों की प्रक्रिया बेअसर दिखती है.

अभी आने वाले लोकसभा चुनाव में अनुमान लगाया जा रहा है कि 50 से 60 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे. यह खर्च 2014 में कोई 35,000 करोड़ रु. था. जबकि हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 9.5 से 10 हजार करोड़ रु. खर्च हुआ. 2013 में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में इसकी ठीक आधी रकम खर्च हुई थी. 

जरा ध्यान दीजिए कि राजनैतिक पार्टियां चंदा कैसे जुटाती हैं. आमतौर पर माना जाता है कि स्वैच्छिक दान, क्राउड फंडिंग (आपने कभी दिया? मैंने तो नहीं दिया) कूपन बेचना, पार्टी का साहित्य बेचना (उफ) सदस्यता अभियान (कितनी रकम लगती है पता कीजिए) और कॉर्पोरेट चंदे से पार्टियां पैसे जुटाती हैं. 

निर्वाचन आयोग के नियमों के मुताबिक, पार्टियां 2000 रु. से अधिक कैश नहीं ले सकतीं. इससे ज्यादा चंदे का ब्योरा रखना जरूरी है. ज्यादातर पार्टियां 2000 रु. से ऊपर की रकम को 2000 रु. में बांटकर नियम का मखौल उड़ाती हैं क्योंकि 2000 रु. तक के दानदाता का नाम बताना जरूरी नहीं होता. एक जरूरी बात है कि स्थानीय और ठेकेदार नकद और अन्य सुविधाएं सीधे प्रत्याशी को देते हैं न कि पार्टी को.

कंपनियां चुनावी बॉन्ड या चुनाव ट्रस्ट की मार्फत सीधे चंदा दे सकती हैं, दानदाता के लिए यह बताना जरूरी नहीं है चंदा कि पार्टी को दिया, पार्टियों के लिए भी किससे चंदा लिया यह जाहिर करना जरूरी नहीं है.

तो अब यह भी जान लीजिए कि सियासी दल पैसे को खर्च कहां करती हैं. दल, पार्टी और इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में, चुनावी रैली, खाना, परिवहन, और ठहरने में, कार्यकर्ताओं को तनख्वाह देने में, प्रिंट, डिजिटल और टीवी में विज्ञापन देने में खर्च करते हैं. चुनाव के दौरान प्रत्याशी नकद, सोना, शराब और अन्य चीजें भी बांटते हैं. मसलन फोन, टीवी. फ्रिज वगैरह. नया तरीका लोगों के मोबाइल रिचार्ज कराना और बिल भरना भी है. अब आप बताएं कि यह किसी एजेंसी की पकड़ में नहीं आएगा.

मोदी सरकार के उपाय

नरेंद्र मोदी सार्वजनिक जीवन में शुचिता का समर्थन करते रहे हों, पर उनकी सरकार के उपायो से भी यह शुचिता आई नहीं है. मसलन, सरकार ने पार्टियों द्वारा बेनामी नकद चंदे की सीमा पहले के 20,000 रु. से घटाकर 2,000 रु कर दी लेकिन नकद बेनामी चंदा लेने के लिए पार्टियों के लिए एक सीमा तय किए बगैर यह उपाय किसी काम का नहीं है.

पहले विदेशों से या विदेशी कंपनियों से चंदा लेना अपराध के दायरे में था. कांग्रेस और भाजपा दोनों पर विदेशों से धन लेने के आरोप थे. मोदी सरकार ने 1976 के विदेशी चंदा नियमन कानून में संशोधन कर दिया है जिससे राजनीतिक दलों के विदेशों से मिलने वाले चंदे का जायज बना दिया गया. यानी 1976 के बाद से राजनैतिक पार्टियों के चंदे की जांच नहीं की जा सकती. राजनैतिक दल अब विदेशी कंपनियों से चंदा ले पाएंगे. लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इससे दूसरे देश हमारे चुनावों में दखल देने लायक हो जाएंगे? 

शायद भारतीय चुनाव अभी तक विदेशी असरात से बचा रहा है, लेकिन चुनावों पर कॉर्पोरेट के असर से इनकार नहीं किया जा सकता. पार्टियों को ज्ञात स्रोतों से मिले चंदे में 2012 से 2016 के बीच कॉर्पोरेट चंदा कुल प्राप्त रकम का 89 फीसदी है.

मोदी सरकार ने 2017 में कॉर्पोरेट चंदे में कंपनी के तीन साल के फायदे के 7.5 फीसदी की सीमा को हटा दिया. कंपनी को अपने बही-खाते में इस चंदे का जिक्र करने की अनिवार्यता भी हटा दी गई.  हटाने से पार्टियों के लिए बोगस कंपनियों के जरिए काला धन लेना आसान हो जाएगा. लग तो ऐसा रहा है कि यह प्रावधान फर्जी कंपनियों के जरिए काले धन को खपाने का एक चोर दरवाजा है.

कुल मिलाकर राजनैतिक शुचिता को लेकर भाजपा से लेकर तमाम दलों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसको लेकर भी एक आंकड़ा है, 2016-17 में छह बड़ी राजनैतिक पार्टियों के कुल चुनावी चंदे का बेनामी स्रोतो से आया हिस्सा 46 फीसदी है. समझ में नहीं आता कि अगर सरकार वाक़ई पारदर्शिता लाना चाहती है तो सियासी दलों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती?

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Thursday, November 8, 2018

दीवाली-होली का विरोध महज हिंदुफोबिया है

 सत्ताओं के पास आम आदमी को लड़ाने के लिए जब भूगोल नहीं बचता, तो वह इतिहास के नाम पर लड़ाता है. द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद भूगोल कमोबेश स्थिर हो गया है. इसलिए सत्ताओं के पास हमने लड़ाने के लिए कोई चारा नहीं, सिवाए इतिहास के. इसलिए आने वाले संघर्ष अस्मिताओं के होंगे.


''उमराव जान का फ़ैज़ाबाद अब अयोध्या कहलाया जायेगा...हिंदुस्तान की रगों में सांप्रदायिकता का ज़हर भरकर, सैकडों साल पुरानी मुस्लिम विरासत को तबाह करने की ये साज़िश कामयाब नहीं होगी... ‪शहरों के नाम बदलने से तारीख़ नहीं मिटा करती. ‪हिंदुस्तान जितना हिंदू है, उतना मुस्लिम भी है.''


फेसबुक पर यह स्टेटस एक मशहूर मुस्लिम महिला एंकर और पत्रकार न लिखा. मुझे मुस्लिम नहीं लिखना चाहिए था, पर उनका यह पोस्ट वाकई मुस्लिम विरासत के लिए था. एकपक्षीय़ था इसलिए लिखना पड़ा. बहरहाल, मुझे भी शहरों, नदियों के नाम बदलने पर दिक्कत थी. लेकिन मेरी दिक्कत के तर्क अलग थे. मसलन मैं चाहता हूं कि कोलकाता का नाम भले ही लंदन कर दिया जाए, लेकिन फिर उसके साथ विकास के तमाम काम किए जाएं. हमारे मधुबनी का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया जाए पर वहां तरक्की भी हो.

शहरों और राजधानियों के नाम तय करना हमेशा सत्ताधारी पक्ष के हिस्से में होता है. पहले भी नाम सियासी वजहों से बदले गए थे. मसलन कनॉट प्लेस का राजीव चौक. बंबई का मुम्बई और मद्रास का चेन्नै. अब भी सियासी वजहों से बदले जा रहे हैं. आपके मन की सरकार आए तो वापस अय़ोध्या को फैजाबाद, प्रयागराज को इलाहाबाद कर दीजिएगा. 

यकीन कीजिए, रोटी की चिंता करने वाले लोगों को बदलते नामों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आपको पड़ेगा. जिनके लिए धर्म और दीन रोटी से ऊपर है, उनको उस विरासत की चिंता होगी. आप जैसों के स्टेटस से ही किसी गिरिराज सिंह को दहाड़ने का मौका मिलता है कि इनको पाकिस्तान भेजो. भारतीय संस्कृति की जो दुहाई आप दे रही हैं न, वह सिर्फ एक संप्रदाय की विरासत की बात नहीं करता. जैसा कि फैजाबाद के नाम पर आपको एक नगरवधू का इतिहास भर दिखा.

जैसा कि ऊपर के उद्धृत पोस्ट में, फैज़ाबाद का नाम अयोध्या पर उक्त एंकर को कष्ट हुआ, और उन्हें लगा कि यह सैकड़ों साल की मुस्लिम विरासत को तबाह करने की साजिश है. मोहतरमा, आपको पुराने नाम बदलने पर दिक्कत है, तो आप यह तो मानेंगी कि फैजाबाद कोई नया शहर नहीं था. अयोध्या उससे पुराना मामला है. (खुदाई में एएसआइ कह चुका है) तो फैजाबाद भी किसी को बदलकर रखा गया था.

और जिस तारीख पर इतना नाज है न आपको, भारत में वह हजार साल पुरानी ही है. आपकी ही बात, अयोध्या का नाम फैजाबाद रखने से उसका इतिहास नहीं बदल गया. वैसे भी हिंदुस्तान नाम का यह देश ही नहीं है. यह भारत दैट इज इंडिया है.

आप काफी विद्वान हैं, पर पूर्वाग्रहग्रस्त लग रही हैं. आप जैसे विद्वानों की वजह से खीजे हुए हिंदुओं ने कल दिल्ली में रिकॉर्ड आतिशबाजी की. मान लीजिए कि यह हिंदुओं की गुस्सैल प्रतिक्रिया थी. मुझे जैसे इंसान ने, जिसने करगिल के युद्ध के बाद आतिशबाजी बंद कर थी, कल तय समय सीमा में ही सही, खूब पटाखे छुड़ाए. पता है क्यों? क्योंकि सेकुलर जमात की न्यायिक सक्रियता एकपक्षीय है. दीवाली पर प्रदूषण सूझता है. होली पर पानी की कमी दिखती है.

आपको तो पता भी नहीं होगा कि जिस विदर्भ में पानी की कमी की वजह से किसान रोजाना आत्महत्य़ा कर रहे हैं वहां सरकार ने 47 नए तापबिजली घरों के निर्माण को मंजूरी दी है. पहले ही वहां बहुत सारे तापबिजलीघर हैं. ताप बिजलीघरों में एक मेगावॉट बिजली बनाने के लिए करीबन 7 क्यूबिक मीटर पानी खर्च होता है. यानी, ताप बिजलीघरों का हर 100 मेगावॉट सालाना उत्पादन पर करीबन 39.2 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी का खर्च है. देश भर में 1,17,500 मेगावॉट के कोयला आधारित ताप बिजलीघरों को पर्यावरणीय मंजूरी दे दी गई है. इतनी मात्रा में बिजली पैदा करने के लिए 460.8 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी खर्च होगा. इतने पानी से 920,000 हेक्टेयर खेतों की सिंचाई की जा सकती है, या 8.4 करोड़ लोगों की सालभर की पानी की जरूरते पूरी की जा सकती हैं.

होली पर पानी की बचत का ज्ञान तो घर में जेट पंप से कार धोने वाले भी देने लगते हैं. लगता है देश में होली की वजह से ही सूखा पड़ता है. इसे सेकुलरिज्म नहीं, हिंदुफोबिया कहते हैं. एसी में बैठकर हमें कार्बनफुट प्रिंट का ज्ञान दिया जा रहा है. कभी सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल नहीं करेंगे, घर में चार कारें रखेंगे और चिंता प्रदूषण की करेंगे. अब इस हिप्पोक्रेसी का क्या किया जाए. आपके वैचारिक पतन की यही वजह है.

आपकी नजर इस पर गई ही नहीं होगी, क्योंकि आपको होली-दीवाली के आगे कुछ दिखेगा ही नहीं. अगर प्रदूषण के मामले में दिल्ली दीवाली से पहले एकदम साफ-सुथरी होती तो पटाखों के खिलाफ सबसे पहले मैं खड़ा होता. पर, दीवाली को साफ-सुथरा मनाने की सलाह देने के पीछे मंशा उतनी ही कुत्सित है जितनी सबरीमला में खून से सना सैनिटरी पैड ले जाने की, तो यकीन मानिए, आपके विरोध में उठी पहली आवाज भी मेरी होगी.

वैसे यह भी मानिए कि सत्ताओं के पास आम आदमी को लड़ाने के लिए जब भूगोल नहीं बचता, तो वह इतिहास के नाम पर लड़ाता है. द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद भूगोल कमोबेश स्तिर हो गया है और दुनिया के कुछेक इलाकों, इज्राएल-फिलीस्तीन, पाकिस्तान-बारत सरहद जैसे क्षेत्रों को छोड़ दें तो भूगोल के नाम पर लड़ाईय़ां नहीं होती. इसलिए सत्ताओं के पास हमने लड़ाने के लिए कोई चारा नहीं, सिवाए इतिहास के. जनता लड़ेगी नही तो सत्ता के लिए प्रेरणाएं कहां से हासिल होंगी. इसलिए आने वाले संघर्ष अस्मिताओं के होंगे. इसलिए कभी शहरों के नाम बदले जाएंगे, कभी सदियों पहले के अत्याचारों का बदला लिया जाएगा और कभी आप अपनी कथित मुस्लिम विरासत की रक्षा के लिए जिहाद को उठ खड़ी होंगी.

विरासत को छोड़िए, भविष्य बचाइए. शहरों के नाम बदलने पर आपको जिस संप्रदाय की विरासत के खत्म होने का खतरा महसूस हो रहा है, उनके भविष्य के लिए रोजगार और शिक्षा की मांग कीजिए. वैसे चलते-चलते एक डिस्क्लेमर दे ही दूं, खैर छोड़िए उससे कोई फायदा तो है नहीं.











Monday, November 5, 2018

बिहार में भाजपा जद-यू के आगे क्यों झुकी?

एक और सहयोगी को खो बैठने के डर से बिहार में भाजपा 2019 के लिए संसदीय सीटों की नीतीश की मांग के आगे झुकी 

बिहार के मामले में आखिरकार, भाजपा और उसके अध्यक्ष अमित शाह को नरम होना पड़ा. अमित शाह और जद (यू) प्रमुख और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह घोषणा की कि वे बिहार में 2019 लोकसभा चुनाव में बराबर सीटों पर लड़ेंगे. सीटों पर बराबरी की यह बात गौर से देखें तो साफ लगता है कि भगवा पार्टी काफी झुक गई. फिलहाल राज्य में उसके पास लोकसभा की सबसे ज्यादा सीटें हैं. जीत के लिहाज से उसे सीटें ज्यादा मिलनी चाहिए थीं.

राज्य में 2014 में भाजपा को 40 में से 22 पर जीत मिली थी, जबकि अकेले लडऩे वाले जद (यू) को सिर्फ दो सीटें हासिल हुई थीं. नए तालमेल का मतलब यह है कि भाजपा के कम से कम पांच मौजूदा सांसदों का टिकट कट सकता है. राज्य में एनडीए के पास फिलहाल 33 सीटें हैं, जिनमें रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के पास छह और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के पास तीन सीटें हैं.

खबर है कि भाजपा को यह घोषणा करने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि नीतीश कुमार ने गठबंधन की किसी भी बैठक में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था. मौजूदा गणित में भाजपा और जद-यू 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. इस तरह लोजपा के लिए सिर्फ चार और आरएलएसपी के लिए सिर्फ दो सीटें बचेंगी. आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा तो खुलकर खीर बनाने की कोशिशें करते नजर आ सकते हैं. दो सीटों के विकल्प के साथ उनके पास नाक बचाने के लिए एनडीए छोड़ने के सिवा ज्यादा चारा है नहीं.

भाजपा के झुकने की वजह यह मानी जा रही है कि बिहार में अच्छे नतीजों के लिए भाजपा नीतीश कुमार पर निर्भर है. तो क्या यह माना जाए कि चंद्रबाबू नायडू के कांग्रेस के पाले में चले जाने के बाद भाजपा नहीं चाहती कि नीतीश से उनका ब्रोमांस खत्म हो जाए.

बिहार में नीतीश अपरिहार्य हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि 2005 से 2015 के बीच (सिर्फ 2014 में नरेंद्र मोदी लहर को छोड़ दें तो) हुए चार विधानसभा और दो लोकसभा चुनाव के दौरान जीत उसी धड़े को हासिल हुई जिसकी तरफ नीतीश कुमार थे. साथ ही यह बात भी समझिए कि 2014 में जहां भाजपा मोदी लहर और सत्ताविरोधी रूझान को साथ लेकर उड़ रही थी अब 2019 में हमें उसे खुद सत्ताविरोधी रुझान का सामना करना है. जनता के एक तबके में मोदी से मोहभंग जैसा माहौल भी है, उससे निपटना भी आसान नहीं होगा.

शायद यही वजह है कि भाजपा ने बिहार में एनडीए के लोकसभा अभियान का नेतृत्व नीतीश को सौंप दिया है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की हार और मोदी लहर के ठंडे पड़ते जाने से भगवा पार्टी के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है. इसके साथ ही कीर्ति आजाद जैसे कई कमजोर खिलाड़ियों का पत्ता साफ हो सकता है. दरभंगा के मौजूदा सांसद आजाद वैसे भी अरूण जेटली की हिट लिस्ट में हैं. आजाद उन पांच भाजपा सांसदों में होंगे जिनकी जगह जद-यू के किसी प्रत्याशी को दी जा सकती है. संजय झा जद-यू के महासचिव और नीतीश कुमार के काफी करीबी हैं.

जो भी हो, फिलहाल भाजपा ने ध्वज नीतीश के हाथों में पकड़ा दिया है.