Thursday, September 27, 2012

ओह माई गॉडः साधारण तकनीक, उत्कृष्ट कथ्य

बहुत दिनों से फिल्में देख रहा हूं, देशी सुपर मैनों की फिल्में भी देखीं...ज्यादातर में हीरो अपने बाप या अपने परिवार की मौत का बदला लेता है या हीरोइन को बचाता है। पिछली कुछ फिल्में इस गड़बड़झाले से अलहदा दिखी हैं। अच्छा लग रहा है।

बर्फी के बाद ओह माई गॉड भी ऐसी फिल्म है जो मन को छूती है।

हिंदी फिल्मों में पेड़ों के इर्द गिर्द नाचना और गाना एक पवित्र परंपरा है, इसी फिल्म ओह माई गॉड में एक गोंविदा आयटम गाने को छोड़ दें, जिसमें मादक होती जा रहीं बिहारी बाला सोनाक्षी कूल्हे मटका रही हैं तो बाकी की पूरी फिल्म बहुत तर्कपूर्ण है।

फिल्म नास्तिक तर्क और आस्तिक आस्था और धर्म के दुकानदारों के त्रिकोण के बीच झूलती है। चूंकि फिल्म है, कल्पना है इसलिए नास्तिक बने परेश रावल के तर्कों के बरअक्स निर्देशक उमेश शुक्ला खुद भगवान को ही ले आते हैं।

यह फिल्म भावेश मांडलिया के नाटक ‘कांजी वर्सेज कांजी’ नाटक पर आधारित है। कैमियो के रुप में फिल्म ‘ओह माय गॉड’ में अक्षय कुमार कृष्ण बनकर आते हैं। दोनों ने अभी तक 32 फिल्मों में एक साथ काम किया है। दोनों की केमिस्ट्री देखते ही बनती है।

अक्षय के पास भी वैसी ही मारक मुस्कान है जैसी कृष्ण की होगी बताई जाती है। फिल्म मूल रूप से हिंदू धर्म के ठेकेदारों को घेरती है, मिथुन चक्रवर्ती श्री श्री रविशंकर जैसे किरदार की धज में है लेकिन बेहद हास्यास्पद और फूहड़ दिखते हैं। गोविंद नामदेव बनारस के पंडे के किरदार में बेहतरीन हैं और हर बात में आपा खो देते दिखते हैं। जबकि एक अन्य महिला किरदार राधे मां या ऐसी ही किसी मादक महिला धर्म कथावाचक के तौर पर दिखती हैं।

फिल्म ऐसे दौर में आई है जब एक फिल्म ने पूरे मुस्लिम जगत को आंदोलित कर रखा है। यह तो अच्छा है कि अभी बजरंगी हुड़दगी और भगवा ब्रिगेड ज्यादा सक्रिय नहीं है।

फिल्म में बार-बार पूरे फ्रेम में एबीपी न्यूज़ का लोगो आ जाता है जो फिल्म के प्रवाह को रोक देता है। संपादन भी दुरुस्त नहीं है, हालांकि कहानी में झोल है तो इतना ही अदालत में ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देते परेश रावल को लकवा मार जाता है और फिर ईश्वर ही उसे ठीक करते हैं।

यहां निर्देशक एक बार फिर ईश्वर की शरण में चले जाते हैं। फिल्म को मध्यांतर तक थामे हुए तर्क यहां आकर फिसड्डी साबित होते हैं। खैर, परेश रावल ने पूरे फिल्म को अपने कंधों पर ढोया है, हालांकि प्रोमो में भगवान अक्षय ही ज्यादा दिखते हैं।

फिल्म के संवाद बहुत मेहनत से लिखे गए हैं, जो हंसाते भी हैं और चुटीले भी हैं। धर्म के टेकेदारों की जमकर हंसी उड़ाई गई है। फिल्म आप किसी भी एक वजह से देख सकते हैं- बढिया कहानी, चुटीले संवाद, या ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाते तर्क, या फिर धर्म के ठेकेदारों को कठघरे में खड़ेकर शर्मसार करने के दृश्यों पर।

सबसे बेहतर तो लगता है जब एबीपी न्यूज़ की एंकर बनी टिस्का चोपड़ा परेश से पूछती हैं, धर्म या मज़हब इंसान को क्या बनाता है...परेश सोचकर  जवाब देते हैं....बेबस या आतंकवादी।

बात चुभती जरूर है लेकिन है सच।

Monday, September 24, 2012

सुशासन का तेज़ाबी चेहराः ज्योति को इंसाफ चाहिए

बिहार के सुशासन का बड़ा शोर है, लेकिन इसका असली चेहरा कुछ और ही है। जाति के बंधनों में जकड़े इस सूबे के हालात पर चाहे जितना लिखा जाए, कम ही होगा। लेकिन जाति ने कानून के हाथ भी बांध दिए हैं। 

22 सितंबर की शाम मेरे मित्र गौरव गया के दौरे पर थे। शाम में उनकी बातचीत शहर के मंगला गौरी मंदिर के पुजारी से हो रही थी। बातचीत के क्रम में ही प्रमोद कुमार वैद्य (पुजारी) फफक कर रोने लग गए। गौरव के बहुत पूछने पर उन्होंने बताया तो कुछ नहीं, बस अपनी बेटियों की तस्वीर आगे कर दी। गौरव तस्वीर देखकर सन्न रह गए। 

उनकी बेटी ज्योति पर एक मनचले ने तेज़ाबी हमला कर दिया था। हमले में ज्योति और उनकी छोटी बहन श्रुति बुरी तरह घायल हो गए। ज्योति करीब 70 फीसद जल गई। 
ज्योतिः हमले से पहले


लेकिन इस मामले में दो साल बीत जाने पर अब तक कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है।

हुआ यों कि गया शहर की ज्योति से मुहल्ले के एक मनचले टुनटुन कुमार को प्यार हो गया था। आए दिन वह ज्योति का पीछा किया करता था। लेकिन ज्योति के विरोध के बाद एक दिन, अहिंसा के पुजारी बापू के जन्मदिवस 2 अक्तूबर को अहिंसा के जन्मदाता महात्मा बुद्ध के स्थल गया में ज्योति पर तेजाबी हमला कर दिया गया। इस हमले में ज्योति बुरी तरह जल गई और उनकी बहन श्रुति भी बुरी तरह घायल हो गई। यह घटना साल 2010 की है।

ज्योति तेजाबी हमले के बाद

जब श्री वैद इसकी शिकायत लेकर कोतवाली थाने गए तो थाना प्रभारी सी के झा ने प्राथमिकी दर्ज करने के एवज़ में दस हज़ार रूपयों की मांग की और नहीं देने पर प्राथमिकी दर्ज करने से मना कर दिया। टुनटुन (अभियुक्त) के पिता प्रदीप कुमार झा ने श्री वैद को जान से मारने की धमकी भी दी। 

अब इस घटना को दो साल बीत चुके हैं, लेकिन आर्थिक रूप से असहाय वैद के सामने कोई रास्ता नहीं बचा। ज्योति अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई को जारी रखने का मन बना चुकी है, लेकिन उसके पास इसका रास्ता नहीं...उसे नहीं पता कि आखिर उसे न्याय कैसे हासिल होगा।

आप सब इस पोस्ट को फेसबुक, ब्लॉग अपने अखबारों और बाकी सोशल साइट्स पर शेयर करें और ज्योति को कानूनी सहायता देने के लिए आगे आएं।


Saturday, September 15, 2012

रजनी सेन की एक कविताः तेरी मेरी बात मिले

(रजनी सेन डीडी न्यूज़ में एंकर हैं, लेकिन उनके भीतर एक मखमली कवयित्री भी है। आज उनकी एक कविता आप लोगो ंके साथ शेयर कर रहा हूं)



न की दीवारें जब भी दरकीं
न थामने वाले हाथ मिले,
खुद में उलझे उलझे रहे वो
जब भी मेरे साथ मिले

                            भरी दुपहरी जब भी देखा
                             देखा अजनबी आंखों से
                             कहने को सपनों से उनके
                             सपने मेरे हर रात मिले

पूछती है दुनिया ये सारी कौन हूं मैं
और   कौन है  वो?
सुबह जिनके तकिये के सिहराने
मेरे भीगे जज़बात मिले

                      अफसानों का लंबा रस्ता
                      सफर अभी करना है बहुत
                       क्या जाने किस मोड़ पर फिर से
                       तेरी मेरी बात मिले।

माननीय पीएम के नाम एक खत

माननीय प्रधानमंत्री जी, 

सुना आपने कुछ सुधार किए हैं।

कहते हैं कि सुधार बहुत जरूरी हैं, देश में सुधार लाने के लिए मंहगाई बढ़ानी जरूरी है। अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र अनर्थशास्त्र में बदल गया लगता है। कई बीट रिपोर्टर बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के लिए और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बढ़ती कीमतों के मद्देनजर डीज़ल के दाम बढ़ाने की मजबूरी थी।

किसको बेवकूफ समझ रहे हैं। अगर सरकार डीज़ल की सब्सिडी का बेजा फायदा उठाने वाले कार मालिकों से हलकान थी तो क्यों नहीं आपने डीज़ल कारों की कीमतें बढ़ी दीं? गांव का किसान तो डीज़ल वाली कार लेकर नहीं जाएगा ना? आपने डीज़ल कारों पर शेस क्यों नहीं लाद दिय़ा। आपको कीमत बढ़ानी थी आपने बढ़ा दी।

महंगाई, मुद्रास्फीति पर देसी मीडिया चीखता-चिल्लाता रहा, आपको कुछ नहीं सूझा। विदेशी मीडिया में आपकी आलोचना हुई, आपको अंडरअचीवर कहा गया, तो चुभ गया? पश्चिम  जिन सुधारों की अपेक्षा आपसे कर रहा था, आपने किए नहीं थे। गठबंधन धर्म निभाने के नाम पर, या महज आलस्य के मारे होकर, तो पश्चिम की आलोचना कौन झेलेगा?

अब आपने ठान लिया कि सारे सुधार एकसाथ लागू कर दिए जाएं। एकाएक सिंह अवतार ले लिया आपने। मुझे एफडीआई से कोई दिक़्क़त नहीं है। हालांकि होनी चाहिए थी। लेकिन रसोई गैस की कीमत आपने यह सोचते हुए बढ़ा दी कि एक गरीब परिवार को सिर्फ छह सिलिंडर की जरूरत होगी साल भर में।

प्रधानमंत्री जी कहीं आपको यह पता तो नहीं चल गया कि गरीब लोग (यह मान लीजिए कि देश के आधे लोग  गरीब है, और चौथाई लोग ऐसे हैं जो टेकेदार और नेता हैं, और नेता कभी गरीब नहीं हो सकते) एक ही सांझ खाते हैं। इसलिए पकाएंगे भी एक ही जून?

मनमोहन जी, आपने एक तरह से पर्यावरण को चुनौती दे दी है। रसोई गैस की बचत करने के लिए लोग अब सरकंडे-उपले और लकड़ियां जलाएंगे। वन काटे जाएंगे, तो आपको जो बाघ परियोजना बहुत प्यारी है, वे बाघ कहां रहेंगे।

आपकी घोषणा के बाद देख रहा हूं कि शेयर बाजार चार सौ अंक ऊपर खेल रहा है, अंबानी-टाटा-मुंजाल-बिड़ला-माल्या खुश होंगे,सीआईआई-एसोचैम-फिक्की खुश हैं...मित्तल-अम्बानी-मुंजाल-बिडला-माल्या सब खुश हैं...सब आपको को इस ‘साहसिक’, ‘दूरदर्शी’ और ‘ऐतिहासिक’ फैसले पर बधाई दे रहे हैं।

इसलिए डरिए मत प्रधानमंत्री जी,  किसी तृणमूल-सपा से लेकर भाजपा तक में इतनी हिम्मत नहीं है कि इस ‘राष्ट्रहित’ में काम करनेवाली सरकार को गिरा दे..?

यह तय है कि आपने यह काम राष्ट्रहित-किसानहित-उपभोक्ताहित में किया है। डीज़ल का क्या है, पश्चिमी देशों में तो वो पेट्रोल से ज्यादा महंगा बिकता है। है कि नहीं, प्रधानमंत्री जी। देखिए मेरे पेट में बल पड़ रहे है, हंसाइए मत।

Wednesday, September 12, 2012

पुस्तक समीक्षाः भारतः गांधी के बाद

अकादमिक रूप से इतिहास को अगर कोई पढ़ना चाहे, तो सारी पाठ्य-पुस्तकें सन 47 में यूनियन जैक उतारकर और लाल किले पर तिरंगा लहरा कर चुप बैठ जाती हैं। रामचंद्र गुहा की किताब इस आजादी के दौर से शुरु होकर आज तक की कहानी को विश्वसनीय तरीके से बयान करती है।

रामचंद्र गुहा ने जो किताब मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी थी, उसका हिंदी अनुवाद नहीं,रूपांतर किया है सुशांत झा ने। मैं इस किताब को अनुवाद नहीं, रूपांतर इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अनुवाद जैसी बोझिलता किताब के किसी अनुच्छेद में दिखती नहीं।
इस किताब का हिंदी रूपांतर सुशांत झा ने किया है।


मूल किताब में एक ही खंड है और उसका नाम भी एक ही है, इंडियाः आफ्टर गांधी। लेकिन सुविधा को ध्यान में रखते हुए हिंदी में किताब के दो खंड हैं, पहला है भारतःगांधी के बाद और दूसरा है भारतः नेहरू के बाद।

हिंदी में यह किताब प्रवाहमान भाषा में लिखी गई है। एक अनुच्छेद से दूसरे अनुच्छेद तक कथ्य बहता-सा लगता है। भाषा में भी साहित्यक कड़ापन या गाढ़ापन नहीं है। शायद, भारतीय जनसंचार संस्थान से रेडियो टीवी पत्रकारिता का डिप्लोमा कर चुके सुशांत की यह आसान लेकिन असरदार भाषा उनके टेलिविज़न में काम करने के तजुरबे से हासिल हुआ है।

यह किताब उन वाकयो से शुरु होती  जहां से लगता है कि आजाद भारत सांप्रदायिकता , अभावों और गृहयुद्ध जैसे हालातों में बिखर कर रह जाएगा। लेकिन अपने पहले ही अध्याय '...और कारवां बनता गया' से लेखक स्थापित करते हैं कि भारत पहले विचार और बाद में मूर्त रूप में जरूर आया लेकिन यह विचार एक मजबूत लोकतांत्रिक सच्चाई में बदल चुका है।

गुहा ने अपनी किताब में क़द्दावर सूबाई क्षत्रपों के जीवन पर भी रोशनी डाली है। ये ऐेसे इलाकों के नेता थे जो यूरोपीय देशों से भी बड़े थे। वैसे, नेता के तौर पर रामचंद्र गुहा नेहरू के प्रेम में दिखते हैं और पटेल की भी तारीफ की गई है। वैसे हिंदू कोड बिल को लेकर लेखक अंबेदकर के पक्ष में दिखते हैं। फिर भी, लेखक ने पूरी किताब में इतिहासकारनुमा निष्पक्ष नज़रिया बरकरार रखा है , जो उनकी किताब को ऑथेंटिक बनाता है।

अंग्रेजी में गुहा कि भाषा निश्चित रूप से उन लोगों को अपली करेगी जिनके पास अंग्रेजी के संदर्भ होंगे और जिनके पास एक इतिहासबोध होगा, लेकिन सुशांत की हिंदी इस किताब को उन हिंदीवालों के लिए संदर्भ-पुस्तक के तौर पर खड़ी करती है, जो प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करते हों, या फिर आजादी के बाद के भारत की राजनीतिक घटनाओं पर अपनी बारीक निगाह रखना चाहतें हों।

सामान्य लोगों, यानी जिनकी हिंदी की समझ बहुत क्लिष्ट या साहित्यक  किस्म की नहीं है वो भी गांधी के बाद के भारत की घटनाओं पर अपनी समझ पैनी कर सकते हैं। दरअसल, रूपांतरकार ने संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बजाय हिंदुस्तानी लिखने को तरज़ीह दी है, जो स्वागतयोग्य है।

हालांकि, कई जगह प्रूफ की गलतियां हैं और हालांकि को हलांकि और ऐसी ही कई हिज्जे की गलतियां है। लेकिन छपाई बढ़िया है और कलेवर भी। अंग्रेजी वाली मूल किताब की तुलना में हिंदी रूपांतर का कवर ज्यादा बेहतर बन पड़ा है और रंग संयोजन भी। उम्मीद है प्रकाशक इस किताब के अगले संस्करण में हिज्जे संबंधी गलतियों को सुधार देंगे।

किताबः भारतःगांधी के बाद
लेखकः रामचंद्र गुहा
हिंदी रूपांतरकारः सुशांत झा
प्रकाशक- पेंग्विन
मूल्यः 399 रुपये (फ्लिपकार्ट और होमशॉप 18 पर 33 फीसद छूट के साथ उपलब्ध)