Sunday, June 19, 2022

रघुबीर यादव का मैसी साहब से लेकर पंचायत के प्रधानजी का सफर अद्भुत भी है और चक्रीय भी

मंजीत ठाकुर

रघुबीर यादव के साथ तस्वीर सोशल मीडिया पर डालने के साथ ही कई सौ टिप्पणियां सिर्फ इस बारे में आईं कि ‘प्रधानजी साथ में कौबला लौकी लाए थे या नहीं?’ आगे बढ़ने से पहले बता दूं कौबला मतलब खिच्चा, ताजा एकदम नाजुक लौकी.

15 मिनट की लोकप्रियता के इंटरनेटी दौर में भला कोई किरदार यूं लोगों के जेहन में समाए तो उस एक्टर के रेंज की तारीफ करनी हो होगी. और रघुवीर यादव कमाल के एक्टर हैं यह कहना भी बस, क्लीशे पंक्ति ही होगी. आखिर, पंचायत वेबसीरीज के दोनों सीजन में अपनी ट्रेडमार्क मुस्कुराहट के साथ प्रधानजी, ओह माफ कीजिएगा प्रधान-पति दूबे यानी रघुवीर यादव लोगों के जेहन में बस गए.

हल्की दाढ़ी और स्क्रीन पर दिखने वाले सामान्य हेयर कट की तुलना में कहीं अधिक लंबे बालों के साथ प्रधानजी का नाम का सुनते ही रघुवीर यादव की आंखों में चमक आ जाती है. वह कहते हैं, “हमलोग गंगा-जमुनी तहजीब की जो बात करते हैं, यही है. इसमें आप देख लीजिए, रिलेशंस हैं लोगों के. हर इंसान की खूबी सहजता और सरलता में ही है. जिस सहज तरीके से बढ़े हैं लोग... लेकिन जिंदगी में कहां से कहां पहुंच गए. हम उस विरासत को छोड़ते जा रहे हैं इसी वजह से हम बिखरते भी जा रहे हैं. हमारी इंसानियत खोती चली जा रही है.”

एक दर्शक के तौर पर आपको रघुवीर यादव की सबसे पुरानी याद क्या है? याद है जब ब्लैक ऐंड व्हाइट टीवी का जमाना था और जोहरा सहगल बच्चों को मुल्ला नसीरुद्दीन की कहानियां सुनाया करती थीं. जब एक हंसोड़ चरित्र परदे पर आता था और परदे पर उसके खींसे निपोरते ही क्रेडिट शुरू हो जाता थाः मुल्ला नसीरुद्दीन. वह रघुवीर यादव थे.

उन्हीं दिनों, एक और चरित्र लोगों के दिलो-दिमाग पर छा रहा था जो अपने रिटायर्ड पुलिसिया ससुर से परेशान था, जो सामान्य व्यक्ति था और जो नाकाम इसलिए था क्योंकि सीधा और सरल था, जिसकी परेशानियों का हल व्यावहारिक जिंदगी में नहीं बल्कि उसके सपनों में था. जहां उसके सारे दुश्मन मात खा जाते थे और उसकी हसीन इच्छाएं पूरी होती नजर आती थीं. नाम थाः मुंगेरी लाल के हसीन सपने.

प्रकाश झा का यह टीवी सीरियल इतना प्रसिद्ध हुआ कि यह हिंदी में एक कहावत ही बन गया और बाद में झा ने इसका एक सीक्वेल भी बनाया था, मुंगेरी के भाई नौरंगी लाल (इसमें राजपाल यादव मुख्य किरदार में थे)

बहरहाल, टीवी से शुरू हुआ अभिनय का चक्र फिर से टीवी (इस बार ओटीटी की शक्ल में) पर आ गया है. अच्छी कहानियों और स्क्रिप्ट की तलाश में रघुबीर पहले ही चुनिंदा फिल्में किया करते थे. पर इसकी तलाश उन्हें पंचायत तक ले आई. सहज-सरल किरदार, सहज सरल परिवेश, जिसमें सायास नहीं, एकाध गालियां आती भी हैं तो धारा में बहकर निकल जाती हैं. जहां गांव के समाज के छोटे-छोटे डिटेल्स हैं.

यादव कहते हैं, “पंचायत कहानी सुनकर तो किया ही था, लेकिन उसमें जो माहौल रचा जा रहा था, तो मैंने कहा इस सीरीज को तो किया ही जाना चाहिए. किसी ने कह दिया था कि बहुत कॉमिक है, तो मैंने कहा कि ये कॉमिक तो कत्तई नहीं है. इसमें तो ट्रेजिडी भरी हुई है. पहले से कॉमिडी सोचकर क्यों हाथ-पैर हिलाना, किरदार को बस निभाते रहो.”

लेकिन पंचायत के दोनों सीजन आम लोगों की पसंद है. खासकर, एक्शन और थ्रिलर वेबसीरीज के दौड़ में, जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गेम ऑफ थ्रोन्स से लेकर हाउस ऑफ कार्ड्स तक और वाइकिंग्स से लेकर फौदा जैसी कड़क सीरीज मौजूद हो और हिंदुस्तानी ऑडियंस को सेक्रेड गेम्स, पाताललोक, द फैमिली मैन और मिर्जापुर का जायका लग चुका हो, वैसे में सीधी-सादी कहानी पंचायत की लोकप्रियता का क्या राज है भला!

यादव कहते हैं, “सहजता, सरलता यही गुण है जो मुझे नजर आता है. असल में, सरलता बहुत मुश्किल से आती है. सरलता से काम करना बहुत मुश्किल काम है. जैसे ही बड़े प्रोडक्शन हाउस जुड़ते है तो एक्टिंग-विक्टिंग सब खत्म हो जाता है. फिर वो नोचने लगते हैं कि ऐसे करोगे तो ऐसे कमाई होगी. यह पंचायत में नहीं था.”

पंचायत के बारे में रघुवीर यादव कहते हैं कि अब तो शादी-ब्याह में बारातों में लोग पंचायत सीरीज देख रहे हैं, पूरा परिवार वेबसीरीज बैठकर देखने लग गया है. यादव कहते हैं, “पंचायत के विलेन से भी मुहब्बत होती है. विलेन भी कैसा जो सड़कों के बारे में बात कर रहा है, जो कहता है कि सड़कों पर गड्ढा है और इसको ठीक करवाइए. वो विलेन कैसे हो गया... वह तो कायदे की बात कर रहे हैं. लेकिन अब जो है विधायक, उसमें थोड़ा रंग है लेकिन कोई नफरत नहीं कर रहा है. चाहते सब हैं कि ऐसा कुछ हो कि उसको भी बिठाया जाए. अब लोग मेरे पीछे पड़े हैं कि क्या चुनाव लड़ोगे?”

पंचायत की खासियत है कि उसमें पंचायत सचिव और प्रधानजी की बिटिया का प्रेम भी बहुत महीन तरीके से चलता है. पंचायत की कामयाबी इसके संवादों की भाषा का बेहद ऑथेंटिक होना है. यादव कहते हैं, “पंचायत में पूर्वांचल-बिहार की भाषा को बहुत ऑथेंटिक रखा गया है. पूरे बिहार में ‘हम जाता हूं’ कही नहीं बोला जाता. कई लोगों ने फिल्मों में मुझसे ऐसी भाषा बोलने को कहा भी तो मैंने हमेशा मना किया. वो कहते रहे कि ये पंच है, पर भाषा का कैरिकेचर बनाना कहां तक उचित है?”

आने वाले 25 जून को रघुवीर यादव 65 साल के हो जाएंगे. इस उम्र में सामान्य लोग रिटायर हो जाते हैं, सरकारी हुए तो पेंशन खाने लगते हैं और गैर-सरकारी हुए तो जिंदगी में थोड़ा रुककर आने वाले बचे हुए सालों की जिंदगी की थाह लेने लग जाते हैं. बचत, परिवार, अब तक किया काम, छूटे हुए का दुख और आने वाली दुश्वारियों से बच निकलने की तरकीबें. पर, अभिनेता के लिए ऐसा करने की छूट नहीं होती. खासकर, तब जब आप मुख्यधारा के सोकॉल्ड स्टार न हों और व्यापक रेंज और गहराई वाले अभिनय के बावजूद फिल्मी पोस्टर पर आपका चेहरा नमूदार न होता हो. शो बिज सामान्य लोगों के लिए कुछ अधिक ही बेरहम होता है.

लेकिन जो लोग खुद अभिनय के स्कूल हैं, और सिनेमा में कोई पैंतीस-छत्तीस बरस बिता चुके हैं, उनके लिए मील का पत्थर वाला मुहावरा बेमानी है.

वह कहते हैं, “संघर्ष शब्द मैं कभी इस्तेमाल नहीं करता. ये जो तजुर्बे होते हैं ये मेरी पाठशाला थी. अगर मैं नहीं करता तो मुझे कुछ हासिल होता क्या. क्या लगता है कि गलीचे पर और गद्दे तकिए पर सोकर आप कुछ हासिल कर लोगे? आपको जमीन पर तो उतरना पड़ेगा कभी न कभी.”

जबलपुर के पास के रांझी गांव से कभी भागकर पारसी थिएटर कंपनी में शामिल हुए बेहद विनम्र और संकोची रघुबीर यादव में एक गंवई सादगी मौजूद है. खुद की खामियों पर हंसने के मामले में वे चार्ली चैप्लिन की एक झलक दे जाते हैं.

पारसी कंपनी में भर्ती के मौके पर उनके गंवई उच्चारण को लेकर जब मालिक ने 'तलफ्फुज़ (उच्चारण)" ठीक न होने की शिकायत की तो उन्होंने सफाई दी कि तबले पर गाऊंगा तो ठीक हो जाएगा. उन्हें लगा कि तलफ्फुज़ का ताल्लुक तबले से है. यह किस्सा वे मजे लेकर सुनाते हैं.

लेकिन, अपने उन दिनों की याद में खोते हुए यादव भावुक हो जाते हैं. वह कहते हैं, “पारसी थियेटर के दिनों में जब भूखे मरते थे हम तो ज्यादा मजा आता था मुझे. हमें रोज का डेढ़ रुपया मिलता था तो बारह आने का आटा ले आते थे और बारह आने का टमाटर. कहीं से तवा लेकर आए और कोने में बैठकर रोटी लगा देते थे, टमाटर की चटनी बना लेते थे. आधी खा लेते थे और आधी लपेटकर पेड़ पर रख देते थे कि शाम को खाएंगे.” ठहाका लगाते हुए रघुवीर कहते हैं, “वहां कुछ जुआरी रहते थे जो जुए में हार जाते थे और वे लोग हमारी रोटी खा जाते थे. और उस शाम हमें भूखा सोना पड़ता था.”

रघुवीर यादव पारसी थियेटर के जमाने का एक किस्सा भी बड़े मौज में आकर सुनाते हैं. मध्य प्रदेश के राघोगढ़ में रघुवीर अपने समूह के साथ मंचन के लिए गए थे और तब उनके निर्देशक थे मशहूर रंगकर्मी रंजीत कपूर.

टीम के खाने के लाले पड़े थे. अपनी खिलखिलाती हंसी के साथ यादव बताते हैं, “पूरी टीम के गाल पिचक गए थे. बस एक मैं था कि मेरे गाल और लाल हुए जा रहे थे.”

असल में, जहां यह टीम मैदान में रिहर्सल करती थी वहीं तालाब के पास एक मंदिर था और वहां साधुओं की एक टोली ठहरी थी. टोली के साधु दिनभर आसपास के गांवों से आटा वगैरह मांगकर लाते, उनमें से एक सारा आटा एकसाथ गूंथकर मोटी रोटी सेंकने के लिए रख देता. यादव गाने में उस्ताद थे और वह रोज शाम को मंदिर में साधुओं के साथ भजन गाते. यादव पुलकते हुए बताते हैं, “मैं रोज गाता था सांवरे आ जइयो, नदिया किनारे तेरा गांव... और भजन खत्म होते ही साधु मंडली मुझसे कहती कि चलो कुंवर जी भोजन कर लो और हर शाम मैं उनके साथ भरपेट खा लेता.”

वह कहते हैं, “एक दिन रंजीत कपूर ने छिपकर मेरी कारस्तानी देख रहे थे. साधुओं ने उनको छिपे हुए देख लिया और कहा कि आपके साथी उधर हैं उनको भी बुला लीजिए. मैंने रंजीत कपूर को आवाज दी, वो तो नहीं आए पर बाद में मुझे बहुत डांटा कि एक तो ये साधु भीख मांगकर लाते और तुम उसमें भी हिस्सा खा लेते हो. मैंने कहा, कि मैंने तो मेहनत की है. कपूर ने पूछ लिया कि क्या मेहनत की तुमने, तो मैंने कहा, मैंने भजन नहीं गाए डेढ़ घंटे! उसके बाद भी मैंने गाना और खाना नहीं छोड़ा.”

पारसी थियेटर के बाद यादव ने कठपुतलियों से नाता जोड़ा था. यादव उसका भी एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं. बिहार के हाजीपुर में वह कठपुतलियों के एक शो के सिलसिले में हाजीपुर गए थे और महेश ऐंड पार्टी में वह गाने के लिए जाते थे. महेश खुद रेलवे में टिकट कलेक्टर था.

अपनी ही यादों में खोते हुए रघुवीर यादव बार-बार खिलखिलाते हैं. लल्लन, जगदीश जैसे दोस्त थे जो शो से जुड़े थे. यादव रेलवे क्वॉर्टर के बाहर खटिए पर सोते थे. रघुवीर कहते हैं, “महेश रात को पहलेजा घाट से महेंद्रू के बीच चलने वाले स्टीमरों के टिकट की पंच की गई तारीख के निशानों को बेलन से मिटा देते थे और उसी टिकट पर हम सबकी यात्रा करवाते थे.”

वह कहते हैं, “हमलोगों को अंधेरे में जाना पड़ता था. हाजीपुर के चौहट्टा के पास रहते थे और रास्ते में खेत बहुत थे. यादव बताते हैं, एक रोज हमलोग ढाई बजे रात को गुजर रहे थे और घर में खाने को कुछ था नहीं तो महेश ने गोभी के खेत से कुछ गोभी उखाड़ लिए और आधी गोभी तो हम कच्चा खा गए और बाकी का सब्जी पकाया.

अगली सुबह खुद महेश खेत पर आए और लल्लन को बुलाया, ऐ लल्लन, हियां आ रे. और फिर गोभी चुराने वाले को खूब गालियां दीं. रघुवीर बताते हैं, मैंने पूछा खुद को क्यों गालियां दे रहे हो. तो बोले, गालियां खा ली पाप कट गए.”

उसके बाद यादव ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का रुख किया. वह कहते हैं, “मेरा असल जीवन तो रंगमंच है, फिल्में तो मैं बस कर लेता हूं.”

वह बताते हैं, “सत्तर के दशक में बहुत गुलजार रहती थी दिल्ली. दिल्ली में सीखने को मिलता बहुत था. बिष्णु दिगंबर जयंती... बाल गंधर्व... बहुत सारे म्युजिक और थियेटर हुआ करते थे. बहुत खूबसूरत माहौल था. अस्सी के बाद वो धीरे-धीरे बिखरना शुरू हुआ. फिर मीडियोकर लोग घुस गए. मीडियोकर कौन होता है, लेजी लोग जो मेहनत नहीं करना चाहते. हमें अल्काजी चौबीस में बाइस घंटे काम करवाते थे. क्योंकि वह काम के प्रति दीवानगी पैदा करवा देते थे. जुनून पैदा कर देते थे.”

मैसी साब, सलाम बॉम्बे, लगान, पीपली लाइव, न्यूटन जैसे उम्दा सिनेमा करते आए यादव, दोस्तों के बीच रघु भाई के नाम मशहूर हैं और उनके रचना संसार मे अभिनय तो बस एक ही आयाम है. उनकी जीवन यात्रा में सुर भी हैं और ताल भी. अनुषा रिजवी की फिल्म ‘पीपली लाइव’ में व्यंग्य गहरे धंसता है और उसका एक गाना बेहद लोकप्रिय भी है. निर्देशक ने रघुवीर की आवाज में एक लोकगीत को फिल्म में इस्तेमाल किया था.

यादव कहते हैं, “लोकसंगीत की एक खासियत होती है कि इसके दायरे के अंदर आप इसको इंप्रोवाइज कर सकते हैं. इसको बदला जा सकता है. पीपली लाइव के इस गाने के साथ जब निर्देशक आईं तो उनके पास महज दो लाईनें थीं, सखी सैयां तो खूबै कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है...वो महंगाई पर जोर दे रहे थे...”

हमारी टीम में से किसी ने टोचन दिया आपने डायन पर जोर दिया... रघुवीर अपने अंदाज में ठठाकर हंसते हैं और कहते हैं, “नहीं, मैंने सैंया पर जोर दिया था. आखिर सारी तकलीफ तो सैंया से ही है न. तो उसका पूरा मूड ही बदल गया और जो हारमोनियम लेकर आए थे उसके बीच की कुंजियां ही सही थीं, बाकी काम की नहीं थी. तो मैंने बाकी के सुर बंद कर दिए और बीच के स्केल का मैंने सुर लगाया और गांव से सारे पतीले और कड़ाहियां मंगाईं... उसी के बीच से हमने सुर ढूंढे.”

रघुवीर ने गाने के मुखड़े को रखा और अंतरे में कुछ पंक्तिया जोड़ी. वह कहते हैं, “हर महीना उछले पेट्रोल...डीजल का भी बढ़ गया मोल...शक्कर बाई के क्या बोल... बाद में फिर मेरे जेहन में आया कि साल घसीटा लग गया जून...महंगाई मेरो पी गई खून...और हाफ पैंट हो गई पतलून...” और कहकर कहकहा लगाते हैं.

मुंबई के गोरेगांव वेस्ट में ओबेरॉय वूड्स कॉलोनी के एक टावर की बीसवीं मंजिल के उनके टू बेडरूम आशियाने की बैठक में दीवार पर रैक में विश्व सिनेमा की क्लासिक फिल्मों की डीवीडी हैं, पर अपनी फिल्मों की नहीं.

रघुवीर का इन दिनों का प्यार संगीत है और उनके घर में बनी, अधबनी बांसुरियों का ढेर है. बांस के 5-5 फुट तक के लट्ठे, पीवीसी पाइप की भी बांसुरियां, यहां तक कि कोल्ड ड्रिंक पीने के काम आने वाले स्ट्रॉ भी बांसुरियों में बदल दिए गए हैं,

बांसुरी बजाना उन्होंने खुद ही सीखा है और बनाना भी, उनके संग्रह में ईरानी बांसुरी 'नेय और मिस्र की बांसुरी कवाला भी है. 2013 में आई उनकी फिल्म क्लब 60 के निर्देशक ने उन्हें स्लोवाकिया की बांसुरी फुजरा बनाते हुए देखा तो उसे बाकायदा उस फिल्म का हिस्सा बना लिया.

इन दिनों रघुवीर यादव प्रधानजी की अपनी धज में खुश हैं, पटकथाएं लिख रहे हैं, बांसुरियां बजा रहे हैं और उतने ही सहज और सरल हैं, जितनी लौकी होती है. सामान्य और बगैर मसालों के मिलावट के.

Wednesday, June 15, 2022

असली कहानी पर आधारित रॉकेट बॉयज में विलेन काल्पनिक और मुस्लिम क्यों है

रॉकेट बॉयज सीरीज बहुत अच्छी है, पर इसमें एक विलेन की जरूरत पड़ी तो उसको मुस्लिम बनाया गया, जबकि असल जिंदगी में संभवतया वह मेघनाद साहा थे. रॉकेट बॉयज पर एक त्वरित टिप्पणी,

कहानी कितनी भी अच्छी क्यों न हो उसमें एक बुरे खलनायक की जरूरत होती है. अपनी तरह के एकदम अलहदा वेब सीरीज रॉकेट बॉयज को भी एक विलेन की जरूरत पड़ी, तो उसने एक मुस्लिम भौतिकीविद् डॉ. रज़ा मेहदी को गढ़ लिया.

गढ़ लिया इसलिए, क्योंकि रॉकेट बॉयज में हर किरदार वास्तविक है. सीवी रमन, पंडित नेहरू, एपीजे एब्दुल कलाम, होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, मृणालिनी रामनाथन (जो बाद में साराभाई हो जाती हैं).

पर, असली दुनिया में डॉ. रजा मेहदी नहीं हैं कहीं. वेब सीरीज में हमारे डॉ. रजा मेहदी भौतिकीविद (फिजिसिस्ट) हैं, जो साइक्लोट्रोन बनाते हैं. जिन्हें लगता है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू होमी भाभा के प्रति अधिक अनुराग रखते हैं और इसलिए वह न सिर्फ नाराज होते हैं बल्कि एक किस्म की ईर्ष्यागत प्रतिशोध की भावना से भी ग्रस्त हो जाते हैं. बाद में वह कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में पश्चिम बांकुड़ा से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में पंडित नेहरू से सवाल भी करते हैं. और बाद में अमेरिकी खुफिय़ा एजेंसी सीआइए उनको फांसने की कोशिश भी करती है.

लेकिन बिंदु से बिंदु मिलाया जाए तो कोलकाता के यह असली भौतिकीविद मेघनाद साहा थे. उन्होंने ही साइक्लोट्रॉन का निर्माण किया था.

डॉ. रज़ा मेहदी पहले एपिसोड में ही नेहरू की चीन नीति को 'फ्लॉप' कहकर खारिज करते दिखते हैं. यहीं पर निर्देशक यह स्थापित कर देता है कि होमी भाभा के प्रति उनके मन में अरुचि है. 

पटकथा लेखक और निर्देशक बहुत बारीक तरीके से डॉ. रज़ा को और अधिक स्याह दिखाते हैं और इससे भाभा का कद बढ़ता हुआ दिखता है. बेशक भाभा को थोड़े तुनुकमिजाज या सनकी की तरह भी दिखाने की कोशिश की गई है पर डॉ. रजा के नमूदार होते ही भाभा का नायकत्व स्थापित होता जाता है. डॉ. रज़ा भाभा के भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक बनने की दिशा में एक महत्वपूर्ण बाधा साबित होते हैं.

 असल में यहीं पर दोनों की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले पटकथा लेखकों की तारीफ करनी होगी. डॉ. रज़ा की पृष्ठभूमि दी गई है कि वह असाधारण वैज्ञानिक हैं और उनके माता-पिता शिया-सुन्नी दंगों में मारे गए हैं. इससे उनके मनोविज्ञान पर असर पड़ता है.

अब बात, मेघनाद साहा की. मेघनाद साहा ने दुनिया को 'थर्मल आयोनाइजेशन इक्वेशन' दिया, जिसे 'साहा समीकरण' भी कहा जाता है. उनके इस सिद्धांत ने तारों के वर्णक्रमीय वर्गीकरण की व्याख्या की जा सकी.

1943 में स्थापित साहा इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स, उस वैज्ञानिक को श्रद्धांजलि है, जो उत्तर पश्चिमी कलकत्ता निर्वाचन क्षेत्र से संसद सदस्य बने. यानी विलेन को साहा का बनाया जाना था. साहा भी मुखर और सीधे-सादे थे. सीरीज में दिखाए डॉ. रजा भी वैसे ही हैं.

बहरहाल, सीरीज के अंत में जाकर आपको पता लगता है कि भाभा की खुफियागिरी करने में डॉ. रजा की बजाए भाभा के निकटस्थ सहयोगी का हाथ होता है. और डॉ. रज़ा असल में डॉ. भाभा से जितनी नफरत करते थे उससे कहीं अधिक हिंदुस्तान से मुहब्बत करते थे.

सीरीज के निर्देशक पन्नू ने एक चैनल के साथ इंटरव्यू में बताया कि एक तरह से रजा के चरित्र का निर्माण भी इस्लामोफोबिया को प्रतिबिंबित करने के लिए था.

लेकिन पूरी सीरीज़ में डॉ. रजा भले ही विलेन की तरह दिखाए गए हों पर यह किरदार नेहरू से भी सवाल करता है और भाभा से भी. आखिर लोकतंत्र सवालों पर ही तो टिका होता है. यहीं पर सीरीज में कलाम की शानदार एंट्री होती है. वह भारत के आशाओं के प्रतीक पुरुष के रूप में आते हैं. और वह साराभाई के नवजात अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम में शामिल होते है.

बेशक, रॉकेट बॉयज में उन्माद के क्षण नहीं हैं. और निर्देशक और लेखकों ने इसमें कुछ किरदार रचने की स्वतंत्रता ली हो. पर सवाल यही है कि विलेन बनाने के लिए भाभा के प्रतिद्वंद्वी वैज्ञानिक का मुस्लिम होना कितना जरूरी था?

बहरहाल, सीरीज के अंत में दो सुखद बातें होती हैं. पहली, विश्वासघाती वैज्ञानिक डॉ. रज़ा मेहदी नहीं, विश्वेस माथुर होता है. दूसरा, थैंक गॉड, डॉ. रज़ा का किरदार काल्पनिक है.


Sunday, June 5, 2022

फिल्म समाक्षाः जिद, जुनून और कामयाबी का किस्सा है फिल्म कौन प्रवीण तांबे

प्रवीण तांबे! कौन प्रवीण तांबे! क्रिकेटर? यह नाम, जिस पर बायोपिक बन गई, हर शख्स के मुंह से पहला सवाल यही, कौन था प्रवीण तांबे. और बेशक, इस फिल्म का शीर्षक शानदार है.

भारत में इन दिनों आइपीएल का महोत्सव चल रहा है और इन्हीं दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म डिज्नी+ हॉटस्टार रिलीज हुई है फिल्म कौन प्रवीण तांबे. क्रिकेट पर इन दिनों बहुत सारी फिल्में आई हैं और बहुत सारी कतार में भी हैं. क्रिकेटरों पर बायोपिक के लिहाज से, धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी सबसे बड़ी हिट रही. डाक्यूमेंट्री के लिहाज से सचिन पर बनी डॉक्यूमेंट्री भी अपने किस्म का शायद पहला ही मामला था कि लोग थियेटर में वृत्तचित्र देखने गए. हालांकि, सचिन पर बनी फिल्म देर से बनी थी. उस फिल्म को 1999 में बनना चाहिए था.

कौन प्रवीण तांबे में निर्देशक सफल रहे हैं क्योंकि इस फिल्म के बायोपिक होते हुए भी इसमें एक ठोस कहानी है. कहानी में उतार और चढ़ाव है, ट्विस्ट है. और इसी के बरअक्स 83’ बतौर निर्देशक कबीर खान की नाकामियों में गिनी जाएगी, क्योंकि उसमें एक इमोशनल आर्क नहीं था. हालांकि, संभावनाएं अपार थी.

बहरहाल, कौन प्रवीण तांबे एक खिलाड़ी की जिद और जुनून की कहानी है. क्रिकेट में सैकड़ों लोग अगर नाम कमाते हैं तो हजारों लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें कहीं मौका नहीं मिलता. और उसके पीछे कई वजहें होती हैं. प्रवीण तांबे की खास बात यह थी कि उनकी लड़ाई अपनी बढ़ती उम्र से थी.

इस फिल्म की खासियत यह भी है कि खेलों पर बनी अन्य बायोपिक के मुकाबले इसका ट्रीटमेंट अलहदा किस्म का है. इस फिल्म का क्राफ्ट अलग है. खिलाड़ियों को (मेरी कॉम से लेकर कपिल तक) लार्जर दैन लाइफ चित्रित करने के लिए उनके हीरोइज्म की घटनाओं को और भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है. फिल्म कौन प्रवीण तांबे में यह सब कुछ नहीं है. फिल्म की खासियत इसकी कहानी का तानाबाना है. बेशक, जो थोड़ा लंबा है, और इसको संपादन के जरिए और अधिक चुस्त बनाया जा सकता था लेकिन इसके बावजूद यह फिल्म आपको अपने साथ लेकर सुख और दुख की यात्रा पर चलती है.

इस फिल्म में अचानक कुछ नहीं घटता. इसमें आपको लगता है कि एकदम साधारण दिखने वाला नायक आखिर कामयाब होगा भी या नहीं. श्रेयस तलपड़े इससे पहले नागेश कुकूनूर की फिल्म इकबाल में भी क्रिकेटर की भूमिका निभा चुके थे और इसलिए उनके लिए यह भूमिका बहुत मुश्किल नहीं थी. लेकिन तलपड़े ने भावप्रवण एक्टिंग की है. संवाद एकदम सामान्य हैं और उनको कहीं भी नाटकीयता से बचाया गया है. वैसे, श्रेयस तलपड़े को प्रॉस्थेटिक्स का कहीं सहारा नहीं लेना पड़ा. वह अपने चेहरे पर बहुत आसानी से मासूमियत, हंसी और बेचारगी के भाव प्रकट करते हैं.

इस फिल्म की खासियत इसके सभी किरदारों का सहज अभिनय है. चाहे वह नायिका (फिल्म मे तांबे की पत्नी) अंजलि पाटिल हों या कोच की भूमिका में आशीष विद्यार्थी. लेकिन इस फिल्म में एक किरदार ऐसा है जिसके बगैर यह फिल्म अधूरी मानी जाएगी. वह हैं खेल पत्रकार की भूमिका में परमब्रत चटर्जी. गोल और मासूम चेहरे वाले इस अभिनेता को आप विद्या बालन वाली कहानी समेत कई फिल्मों में देख चुके होंगे. लेकिन, इस में वह खेल पत्रकार बने हैं जिनके चरित्र की कई परतें हैं. उनमें नेगेटिव शेड भी है पर वह कहीं भी अतिनाटकीय नहीं हुए. बल्कि अंडर प्ले ही किया है. चेहरे के मांसपेशियों में उतना ही खिंचाव, उतनी ही गति, जितनी की जरूरत है. कई सीन में मुझे चटर्जी में इरफान की झलक दिखाई दी.

असल में, इस फिल्म में कहीं भी कहानी से भटकती नहीं है. जयप्रद देसाई ने बायोपिक में जीवन के हर पहलू को समेटने में थोड़ी ढील नहीं दी होती तो फिल्म और अधिक चुस्त भी हो सकती थी. पर अभी भी आपको कहीं से बोर नहीं करेगी.

लेकिन इस फिल्म का टेक अवे क्या है? टेक अवे है नायक के रूप में, एक कॉमन मैन का उभार. बिना हवा में उड़े, बिना तूफान लाए, बिना माथे पर पत्थर उठाए, बिना प्रॉस्थैटिक और वीएफएक्स के नायक आपके दिल में सहजता से उतर जाता है. आपको अपने मुहल्ले के, अपने बहुत सारे प्रतिभावान खिलाड़ियों की याद आएगी, जो शायद रणजी तक खेल सकते थे, पर नौकरी, परिवार और समाज ने उनको रोक दिया होगा.

प्रवीण तांबे के जीवन की एक ही साध थी, उनको बस एक रणजी मैच खेलना था. उम्र की वजह से उनका चयन रणजी में नहीं हो चुका और तब आया आईपीएल का दौर. राजस्थान रायल्स की तरफ से उनका चयन राहुल द्रविड़ ने 2013 के आइपीएल संस्करण में किया. अपने पहले मैच में पहले ओवर में तांबे ने हैटट्रिक विकेट लेकर रॉयल्स को जीत दिलाई थी. और उस वक्त उनकी उम्र 41 साल की थी.

बाद में वह रणजी में भी चुने गए. और आईपीएल के कई संस्करणों में अलग अलग टीमों से खेले. अभी वह कोलकाता नाइट राइडर्स की टीम में सपोर्ट स्टाफ में हैं. बेशक, यह फिल्म यह भी स्थापित करती है कि उम्र तो महज एक संख्या और आईपीएल ने देश की बहुत सारी क्रिकेटिंग प्रतिभाओं को उचित स्थान दिलाया है.

जिद और जुनून आखिरकार कैसे कामयाबी भी दिलाती है, यह देखना और प्रेरणा भी हासिल करनी हो तो यह फिल्म देखनी चाहिए.

फिल्मः कौन प्रवीण तांबे?

ओटीटीः डिज्नी+हॉटस्टार

निर्देशकः जयप्रद देसाई

अभिनेताः श्रेयस तलपड़े, अंजलि पाटिल, आशीष विद्यार्थी, परमब्रत चटर्जी, छाया कदम, हेमंत सोनी, अरुण नालावड़े.