Wednesday, January 29, 2020

नदीसूत्रः ...और जी उठी पौराणिक महत्व की नदी छोटी सरयू

अब तक हमने नदीसूत्र में नदियों की व्यथा कथा ही लिखी थी. पर कुछ लोग वाकई अपनी तरफ से योगदान देकर विरासत बचा रहे हैं. सरयू की पूर्व धारा रही छोटी सरयू भी काल के गाल में समाने वाली थी, पर पवन सिंह जैसे कुछ लोगों ने अथक मेहनत से उसे बचा लिया. लिहाजा, नदी जी गई है.

हाल में खबर आई कि उत्तर प्रदेश शासन ने घाघरा नदी, जिसको अयोध्या के आसपास के टुकड़े को सरयू कहा जाता था, का नाम बदलकर सरयू कर दिया. नाम बदलने में कोई बुराई नहीं. पर आराध्य राम से जुड़ी सरयू नदी पर सरकार की इतनी कृपा है तो थोड़ी कृपादृष्टि तो छोटी सरयू पर भी बनती थी. आजमगढ़ की नदियों पर काम कर रहे और गैर-सरकारी संस्था लोक दायित्व के संयोजक पवन कुमार सिंह ने 2018 में छोटी सरयू को मूल सरयू का नाम देकर इसको बचाने के लिए अभियान प्रारम्भ किया. उनका कहना है कि छोटी सरयू ही मूल सरयू है.

बहरहाल, 2018 तक स्थिति यह थी कि आकार में काफी हद तक सिकुड़ चुकी छोटी सरयू नदी का क्षेत्रफल लगातार सिमटता जा रहा था. (अभी यह बहुत संकरे बरसाती नाले की रूप में है) साफ-सफाई न होने से नदी का प्रवाह थम-सा गया था. आजमगढ़ के लाटघाट से शुरू हुआ 59 किलोमीटर का सफर तय करते-करते नगर की तलहटी में प्रवाहित तमसा तक आते-आते नदी का पानी काला पड़ जाता था. नदी का अस्तित्व मिटने के कगार पर पहुंच गया था पर प्रशासन मौन ही रहा.

आंबेडकर नगर जिले से निकली छोटी सरयू नदी आजमगढ के विभिन्न इलाकों से होते हुए बड़गांव ब्लाक क्षेत्र से होते हुए कोपागंज ब्लाक के सहरोज गांव के पास टौंस नदी में मिल जाती है. एक जमाना था कोपागंज ब्लॉक क्षेत्र के सिंचाई का एकमात्र साधन छोटी सरयू नदी थी. सैकड़ों गांवों के लोग पेयजल के लिए भी इसी पर निर्भर थे.


लेकिन प्रदूषण की मार से कहीं-कहीं नदी का पानी इतना जहरीला हो गया है कि पशु भी इसका पानी पीने से कतराते हैं. इस नदी में पानी की कमी थी और गर्मियों में हालात और भी खराब थे.

आजमगढ़ जिले के महुआ गढ़वल रेगुलेटर से समय-समय पर पानी छोड़ा जाता, तो नदी में थोड़ी जिंदगी लौट आती थी. अतिक्रमण सुरसा की तरह अलग मुंह फाड़े नदी को निगल रही थी (यह संकट अब भी है) लोकदायित्व संस्था के पवन सिंह कहते हैं, "सिकुड़ती नदियां और उनका प्रदूषण आज राष्ट्रीय चिंता का विषय है. गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा आदि बड़ी नदियों पर सरकारी प्रोजेक्ट चल रहे हैं. इन बड़ी नदियों को पोषित करने वाली छोटी नदियों की दुर्दशा पर भी लोगों को और प्रशासन को ध्यान देना चाहिए."

बहरहाल, लोकदायित्व और पवन सिंह ने दायित्व उठाया कि छोटी सरयू को दोबारा जिलाया जाए.

असल में, आजमगढ़ जिले में छोटी-बड़ी मिलाकर लगभग डेढ़ दर्जन नदियां हैं जिनके बेसिन में पानी का ऐसा संकट है कि वहां डार्क जोन बन रहा है. पवन सिंह कहते हैं कि आजमगढ़ जिले के उत्तरी इलाके के तमाम गांव में जलस्तर  काफी नीचे चला गया है और पानी प्रदूषित हो चुका है. जबकि इस क्षेत्र में सरयू नदी का एक बड़ा तंत्र रहा है, जिसके अवशेष आज भी दिखते हैं. ऐसी ही एक नदी है- छोटी सरयू.

लोकदायित्व ने 2018 में छोटी सरयू को मूल सरयू का नाम देकर इसको बचाने के लिए अभियान प्रारम्भ किया.
असल में, मूल सरयू नदी, जिसे सरकारी अभिलेखों में छोटी सरयू के नाम से दर्ज किया गया है, पहले सरयू की मुख्य धारा हुआ करती थी. समय के साथ अपने कटाव और धारा बदलती हुई यह नदी पिछले कुछ सदियों में 15 से 70 किमी तक उत्तर दिशा की ओर बढ़ गयी. इसके छाड़न के रूप में नदी का मार्ग रह गया, जिसे बाद में छोटी सरयू कहा जाने लगा.

छोटी सरयू कम्हरिया घाट से करीब तीन किमी पूर्व की तरफ कम्हरिया मांझा से निकलती है. यहां से कुछ आगे गढ़वल बाजार के पूरब से आती स्थानीय नदी पिकिया इसमें मिलती है. इस संगम पर मोहरे बाबा का स्थान है. आंबेडकर नगर जिले के प्रसिद्ध पौराणिक स्थल भैरव बाबा पर अतरौलिया बाजार की तरफ से एक नदी (जिसे सरकारी अभिलेख में छोटी सरयू भाग-1 कहा गया है) आकर मिलती है. बहवलघाट होते हुए यह नदी प्रसिद्ध सलोना ताल के बाद मऊ जिले में प्रवेश करती है.

छोटी सरयू की पौराणिकता की तरफ इशारा करते हुए श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान दिल्ली के डॉ. रामअवतार शर्मा ने कहा है कि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण इसी के दाहिने किनारे से आगे गए थे. स्थानीय किंवदन्ती है कि 23वें त्रेतायुग में प्रजापति दक्ष ने यहीं पर यज्ञ किया था और यहीं पर यज्ञकुंड में माता सती ने अपने प्राण दिए थे.

छोटी सरयू की व्यथा का आरंभ होता है 1955 में आई बाढ़ से. जब बाढ़ के समाधान के तौर पर इलाके में महुला गढ़वल बांध बनाया गया. इस बांध ने छोटी सरयू को बड़ी सरयू से अलग कर दिया, जिसके कारण छोटी सरयू में प्रवाहित जल से रिश्ता टूट गया, और वह बरसात के जल पर निर्भर हो गयी. जब तक बारिश ठीक होती रही नदी अपने जीवन को किसी तरह बचाती रही. धीरे धीरे जलस्तर गिरता गया नदी सिकुड़ती गयी और नदी का चरित्र बदलता गया. नदी में गिरनेवाले नालों की संख्या बढ़ती गयी जिससे उसमें जलकुंभियां और अन्य वनस्पतियां घर बनाने लगीं.

पवन सिंह कहते हैं, "नदी वेगेन शुद्धयति. नदी को शुद्ध रखना है तो उसकी अविरलता को बचाना होगा. प्रवाह में आने वाली बाधाओं को रोकना होगा. पानी में नालों के माध्यम से गिरने वाले खनिजयुक्त व उर्वर पदार्थों को रोकना होगा. महुला गढ़वल बांध पर रेगुलेटर लगाकर बाढ़ के समय नियंत्रित जल मूल सरयू में छोड़ना होगा. अवैध कब्जों को हटाना होगा. यह सभी कार्य न ही अकेले सरकार कर सकती है और न ही कोई एजेंसी. इसलिए जनजागरूकता फैलाकर लोगों को प्रशिक्षित कर इस अभियान से जोड़ना होगा."



इस नदी की हालत देखकर 25 स्वयंसेवकों की टोली के साथ लोक दायित्व और पवन सिंह ने काम करना शुरू किया. उस समय नदी में जलकुंभी और कचरे की भीषण समस्या थी. लगातार छह महीने की मेहनत से भैरव स्थल पर नदी की सूरत बदल गई है. नदी साफ लगने लगी और लोग उसमें कूड़ा फेंकना भी बंद कर चुके हैं.

इस साफ-सफाई में अच्छी बात यह हुई कि नदी तल में तीन पातालतोड़ कुएं भी निकल आए, जिससे नदी को नवजीवन मिल रहा है.

छोटी सरयू का जी जाना यह यकीन दिलाता है कि जो समाज अपने विरासतों को संभालकर रखना चाहता है, जिसके लिए नदी की पूजा कर्मकांड नहीं है, असल में वही समाज जीवित है.

(इस ब्लॉग के लिए तस्वीरें लोकदायित्व संस्था ने मुहैया कराई हैं)

Wednesday, January 22, 2020

पुस्तक समीक्षाः एक थे फूफा में उपन्यास होने की संभावना है

एक थे फूफा, एक फूफा का रसदार ब्यौरा है जो एकदम भदेस किरदार हैं, और अस्पष्ट से ब्यौरों के बीच उनके बचपन से लेकर उनके हैं से थे होने का सफर पूरा होता है. 32 पृष्ठों की इस किताब में उपन्यास होने की संभावना है


पुरातत्व विशेषज्ञ और संस्कृतिकर्मी कई दफा समाज की नब्ज पकड़ने वाला हो तो इसका असर उसकी भाषा पर पड़ना लाजिम सा लगता है. ऐसे ही हैं छत्तीसगढ़ के पुरातत्व विशेषज्ञ और संस्कृतिकर्मी राहुल कुमार सिंह. उनकी पतली सी कितबिया है एक थे फूफा, जो लंबी कहानी या रेखाचित्र सरीखी है और उसमें एक बढ़िया उपन्यास का शानदार कथ्य और शैली तो है ही, संभावना भी है.

बहुत मुमकिन है कि राहुल कुमार सिंह अपने पाठकों की नब्ज टटोल रहे हों.



राहुल कुमार सिंह की किताब एक थे फूफा का कवर
महज 32 पृष्ठों और 50 रुपए कीमत वाली यह किताब आप एक ही बैठक में खत्म कर देंगे. वजह इसका आकार नहीं है, वजह है फूफा का रसदार ब्यौरा. फूफा एकदम भदेस किरदार हैं, और अस्पष्ट से ब्यौरों के बीच उनके बचपन से लेकर उनके हैं से थे होने का सफर पूरा होता है. असल में किताब की पहली पंक्ति है, एक थे फूफा (और यही शीर्षक भी है) और साथ ही में यही किताब की आखिरी पंक्ति भी है.

गांवों-कस्बों से ताल्लुक रखने वाले पाठक फूफा जैसे किरदारों से मिले जरूर होंगे और जाहिर है, फूफा से उनका जुड़ाव भी पन्ना-दर-पन्ना बढ़ता जाएगा.

फूफा समझिए गांव के रसिक व्यक्ति हैं जो पंचायत में पंच की कुरसी पर बैठते हैं, आस-पड़ोस की खबर रखते हैं. बचपन से कुशाग्र रहे हैं और दादाजी के बाद जायदाद की साज-संभाल में सत्ता हस्तांतरण पिता को शामिल किए बिना खुद कूद कर ताज हथिया लेते हैं. उनके जगत फूफा होने में कहीं कोई संदेह नहीं.

उनके पास जिंदगी का खासा तजुर्बा है और वह इस कदर है कि बैठे-ठाले जीवंत किस्से गढ़कर 'सच की लय' में सुना दें.
पर फूफा का 'फू-फा' और 'फूं-फा' और इसी तरह के अन्य शाब्दिक खिलवाड़ रोचक है, जिस तरह फूफा का अपने अधिकारों के प्रति सचेत होना 'जागते रहो' फिल्मप देखकर और पारिवारिक मिल्कियत हाथ में लेना 'लैंडलार्ड' धोती पहनते हुए.

भाषा में रवानगी तो गजब है पर छत्तीसगढ़ी भाषा की वजह से आंचलिकता का यह पुट कुछ अधिक होने पर अखरता भी है. पर, छत्तीसगढ़ के पाठकों को इसमें रस मिलेगा, अपनत्व भी.

एक थे फूफा में बीड़ी (किताब में बिड़ी) का सविस्तार और सप्रसंग विवरण है और इतना बारीक है कि ऐसी मिसाल सिर्फ एक जगह और मिलती है, वह है ज्ञान चतुर्वेदी की बारामासी. पर वहां बुंदेलखंड का ब्यौरा है, यहां छत्तीसगढ़िया तहजीब का. पर, एक थे फूफा में बीड़ी को सजाने और इसको पीने की परंपरा का अगली पीढ़ी तक जाने का ब्यौरा वाकई कमाल है.

कहानी अमूमन एकरेखीय नहीं है. यह कई पाठकों को भटका सकता है पर रसरंजन के शौकीनों के लिए अलग किस्म का शिल्प का मजा साबित हो सकता है. कुल मिलाकरः गागर में सागर, जिसमें एक उपन्यास होने की पूरी संभावना है.

किताबः एक थे फूफा
लेखकः राहुल कुमार सिंह
कीमतः 50 रुपए
प्रकाशकः वैभव प्रकाशन

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Tuesday, January 14, 2020

नदीसूत्रः गंगाजल पाइपलाईन योजना बिहार सरकार का मायोपिक विजन है

एक तरफ गंगा खुद अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रही है, वहीं बिहार सरकार गंगा के 50 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी को गया भेजने के लिए भारी-भरकम योजना लेकर तैयार है. गया में भूजल स्तर सुधारने के दूसरे मुफीद तरीके अपनाने की बजाए गंगा का पानी गया तक लाने के पीछे मंशा आखिर क्या है?


सरकारें विकास की योजनाओं को लेकर किस कदर मायोपिक होती हैं इसकी ताजा मिसाल है बिहार सरकार की गंगा वॉटर लिफ्ट योजना. 18 दिसंबर की शाम बिहार सरकार की कैबिनेट की मंजूरी के बाद सूबे के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा ने फूले न समाते हुए ट्वीट कियाः "जल संसाधन मंत्रालय के प्रस्ताव को मिली कैबिनेट मंजूरी से आह्लादित हूं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जल जीवन हरियाली अभियान के तहत यह बहुमुखी और अनूठी योजना गंगा वॉटर लिफ्ट स्कीम गया, बोधगया और राजगीर जैसे शहरों में पेयजल मुहैया कराएगी."

नीतीश कुमार और संजय झा


उनका अगला ट्वीट अधिक सूचनाप्रद था जिसमें बिहार के जल संसाधन मंत्री ने बताया, "गंगाजल लिफ्ट स्कीम के पहले चरण का बजट 2836 करोड़ रुपए है और इससे गया को 43 एमसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) और राजगीर को 7 एमसीएम पानी मुहैया कराया जाएगा. यह जल दोनों ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के दोनों शहरों की जरूरतों के लिहाज से पर्याप्त होगा."

झा का तीसरा ट्वीट यह बताने के लिए काफी था कि गंगा का पानी ही फल्गु नदी में श्रद्धालुओं के नहाने के लिए छोड़ा जाएगा. क्योंकि इस भारी-भरकम बजट वाली योजना का कुछ फायदा तो आम लोगों के लिए दिखना चाहिए था. झा के ट्वीट के मुताबिक, 'यह योजना बिहार सरकार की उस कोशिश का हिस्सा है जिसके तहत सरकार फल्गु नदी में साफ पानी उपलब्ध कराना चाहती है.'

सवाल है कि आखिर इस योजना को लेकर शक क्यों है?

शक इसलिए है कि फल्गु नदी को आखिर गंगा का पानी चाहिए ही क्यों? गया जिले में बारिश कम नहीं होती. मौसम विभाग के साइट पर जाएं तो आंकड़े बताते हैं कि गया के पूरे इलाके में औसतन बरसात 110 सेमी के आसपास होती है. लेकिन सचाई यह है कि गया नगर निगम के तहत आने वाले 70 फीसदी घरों में नल का पानी नहीं आता. पूरे जिले में भूजल तेजी से नीचे गिर रहा है.

यह स्थिति तब है जब गया में फल्गु नदी के साथ ही साथ पड़ोस में दो और नदियां, जमुनी और मोरहर मौजूद हैं. दो साल पहले गया के जिलाधिकारी संजय सिंह ने इन नदियों का पानी शहर तक पहुंचाने की योजना बनाई थी. पर इस योजना का नामलेवा कोई नहीं बचा. आखिर, सरकार पानी के नाम पर वाकई कुछ बड़ा करना चाहती थी.

बिहार सरकार भी कभी फल्गु को गंगा से जोड़ने तो कभी फल्गु को सोन नदी से जोड़ने को लेकर दुविधा में रही.

बहरहाल, गंगा का पानी 170 किलोमीटर लंबे पाइपलाईन के जरिए मोकामा से गया तक लाने का काम किसी को मछली देने जैसा है, जबकि मछली पकड़ना सिखाना बेहतर विकल्प होता. बिहार सरकार ने गया के पानी की समस्या को निबटाने के लिए गया के गिरते भूजल को सुधारने की योजना क्यों नहीं बनाई? खासकर तब, जब गया जैसे इलाके में तालाब और पोखरे बनाकर और वर्षा जल संचयन के जरिए भूमिगत जल का स्तर ठीक किया जा सकता था.

वैज्ञानिक मानते हैं कि पानी को आयात करना समस्या का महज फौरी निवारण ही है. वॉटरशेड मैनेजमेंट, यानी स्थानीय बारिश को रोककर रखना, उससे भूमिगत जल के स्तर को दुरुस्त करना और बारिश के पानी को रोककर शहर में उसकी आपूर्ति करना न सिर्फ दीर्घकालिक समाधान होता बल्कि पाइप लाईन बिछाने से अधिक सस्ता और त्वरित भी होता. सरकार को गया, राजगीर, नवादा जैसे इलाकों में अधिकाधिक तालाब खुदवाने चाहिए थे. इससे मछली उत्पादन भी बढ़ता, खेतों के सिंचाई के लिए भी पानी मिलता और कुओं में भी पानी आ जाता. साथ भी यह ध्यान भी रखना चाहिए था कि गया के इलाके में अभी भी अच्छी खासी खेती होती है, जो बिना पानी के मुमकिन नहीं है. गया का इलाका अभी भी बुंदेलखंड जैसी स्थिति में नहीं पहुंचा है. हां, नदियों को जोड़ना फैशन और चलन में आ गया है तो बात और है.

दूसरी तरफ, खुद गंगा अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है. अगर गर्मियों में उससे 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा, तो खुद इसके पारितंत्र पर क्या असर पड़ेगा इसका क्या कोई अध्ययन बिहार सरकार ने कराया है?

असल में, सरकारों को लगता है कि नदी में पानी बहकर और बचकर निकल जाए तो वह पानी की बरबादी है. जबकि ऐसा है नहीं और मोकामा से अगर 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा तो उसके आगे बड़ी मात्रा में नदी के बेड में गाद भी जमा होगी. क्या राज्य सरकार उसके लिए तैयार है?

गया के आसपास जिस तरह की धरती है वहां वॉटरशेड प्रबंधन बहुत कारगर भी साबित होता. पिछली गर्मियों में मिथिला क्षेत्र के दरभंगा और मधुबनी जैसे जिलों में भी अमूमन सालों भर पानी से भरे रहने वाले पोखरे सूख गए थे, वैसे में उनको जिलाने की कोई योजना सरकार की निगाह में नहीं है. पर, गंगा का पानी गया भेजने की योजना को जिसतरह फटाफट लागू करने की तैयारी है और जिस तरह से उसके लिए रकम भी जारी की गई है, उससे तो सरकार के विकास वाले विजन पर सवालिया निशान और भी गहरा ही हो गया है. 

हां, जद-यू का अगले साल के चुनावी मैदान का विजन स्पष्ट दिख जरूर रहा है.

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Monday, January 13, 2020

कार्बन उत्सर्जन और पानी की कमी के बहाने ऊंटों को मारने का ऑस्ट्रेलिया का प्रपंच

ऑस्ट्रेलिया ने तय किया है कि अगले पांच दिनों में दस हजार ऊंटों को गोली मार की खत्म कर दिया जाएगा. वजह इतनी है कि ऊंट पानी बहुत पीते हैं. ऑस्ट्रेलिया ऊंटों को मारने के पीछे अपना कार्बन फुटप्रिंट कम करने की वजह भी बता रहा है. पर क्या यह वाकई तार्किक है या बहाना है?


खबर ऑस्ट्रेलिया से है और बेहद हृदय विदारक है. ऑस्ट्रेलिया में अधिकारियों ने तय किया है कि अगले पांच दिनों में दस हजार ऊंटों को गोली मार कर खत्म कर दिया जाएगा. वजह इतनी है कि ऊंट पानी बहुत पीते हैं. ऑस्ट्रेलिया ऊंटों को मारने के पीछे अपना कार्बन फुटप्रिंट कम करने की वजह भी बता रहा है. पर क्या यह वाकई तार्किक है या बहाना है?

अधिकारियों की योजना है कि इन ऊंटों को मारने के लिए हेलिकॉप्टर लगाए जाएंगे. पर दावानल से परेशान ऑस्ट्रेलिया का यह कदम अबूझ मालूम पड़ रहा है.



प्रतीकात्मक तस्वीर

न्यूज एजेंसी आइएएनएस को अनांगू पित्जानत्जारा यान्कुन्त्याजारा (एबोरिजनल आबादी के लिए बना स्थानीय और विरल आबादी का इलाका) के कार्यकारी बोर्ड सदस्य मारीटा बेकर ने बताया है कि कान्यपी के उनके इलाके में ये ऊंट उनके समुदाय के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे थे.

बेकर के मुताबिक, ये ऊंट उनके एयरकंडीनर तोड़ देते थे (पानी की तलाश में) और घरों की बाड़ को भी नुक्सान पहुंचा रहे थे.

एक ऐसे देश (और महादेश) में, जहां, बकौल सिडनी विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के, नवंबर से लगी दावानल में 4.80 करोड़ जानवर जलकर मर गए हों, बेकुसूर ऊंटों का जान से मारने का फैसला समझ से परे है.

असल में ऐसे संकटग्रस्त देश में जिसका मुखिया अभी हवाई में छुट्टियां मना रहा है, आखिर ऊंटों को मारना कितना न्यायसंगत है? वजह और तर्क सिर्फ वही नहीं है जो बताई जा रही हैं.

ऑस्ट्रेलिया में ऊंटो को हमेशा से नफरत की निगाह से ही देखा जाता रहा है. उनको आक्रमणकारी प्रजाति (इनवैसिव स्पीशीज) माना जाता है और उनके साथ करीबन वैसा ही बरताव होता है जैसा हम भारत में खर-पतवार या चूहों के साथ करते हैं.

ऊंट एक बार में, वो भी तीन मिनट में करीब 200 लीटर पानी पी जाते हैं. समझिए 20 बाल्टी. पानी के संकट से जूझते महादेश में इतना पानी वाकई काफी है. यही नहीं, ऑस्ट्रेलिया के अधिकारियों का कहना है कि वहां के दस लाख ऊंट सालाना 20 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं. यानी हर ऊंट के लिहाज से दो टन सालाना. इसको ध्यान में रखें तो एक और दिलचस्प आंकड़ा है, एक छोटी कार सालाना 4.6 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती है. एक बेचारे ऊंट से करीबन दोगुना. इसलिए अगर एक ऊंट को मारकर आप कार्बन क्रेडिट हासिल करना चाहते हैं तो इस आंकड़े पर निगाह डालिए.

चूंकि ऑस्ट्रेलिया दुनिया भर में अमेरिका के बाद दूसरा सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जक देश है तो उस पर कार्बन उत्सर्जन कम करने का भी दबाव है. पर इसके लिए कार की संख्या कम करने की बजाए उसे ऊंटों को मारना अधिक मुफीद लग रहा है.

विडंबना यह है कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार कार्बन उत्सर्जन कम करने के वास्ते न तो अपने कोयला आधारित उद्योगों पर लगाम लगाने को तैयार है न ऑटोमोबाइल्स पर. गौरतलब यह भी है कि ऑस्ट्रेलिया में कोयला आधारित उद्योग सालाना करीबन 53.4 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन करता है. कोयला खनन ऑस्ट्रेलिया के लिए बेहद अहम है, पर कार्बन और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में इसका हिस्सा इसकी पूरी अर्थव्यवस्था से भी अधिक है.

दुनिया भर में अगर यह तर्क चल निकला तो सोचिए जरा दक्षिण एशिया में क्या होगा. इस तर्क के मुताबिक तो भारत-बांग्लादेश-थाईलैंड-श्रीलंका-नेपाल जैसे धान उत्पादक देशों के किसानों को भी गोली मारनी होगी क्योंकि उनके धान के खेतों में पानी की भी खपत होती है और धान के खेतों के साथ उनके पशुधन से सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित होता है. यह बात दूर की कौड़ी है पर फिलहाल जान ऊंटों की जा रही है क्योंकि ऊंट न तो विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं, न बोल सकते हैं. उनको दौड़ाकर गोली मारना आसान भी है.

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Thursday, January 9, 2020

खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ी और उनकी आत्महत्या की गिनती भी

देश में 86 लाख किसानों की संख्या कम हो गई और विरोधाभासी रूप से खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ गई. साफ है कि किसान, मजदूर बन गए. इसके साथ यह आंकड़ा भी देखिए, जिसे एनसीआरबी ने लंबे अंतराल के बाद जारी किया है कि देश में किसानों की तुलना में खेतिहर मजदूर अधिक आत्महत्या करने लगे हैं

देश में तमाम किस्म की उथल-पुथल और विरोध प्रदर्शनों के बीच एक आंकड़ा आया और आकर चला गया. अधिक लोगों ने उस पर ध्यान नहीं दिया. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने लंबे समय बाद देश भर में 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के लिहाज से देश भर में कतिपय कारणों से कृषि श्रमिकों की आत्महत्या में बढ़ोतरी हुई है.

8 नवंबर को वर्ष 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में कृषि क्षेत्र (किसान और खेतिहर मजदूर) में कुल 11,379 आत्महत्याएं हुईं. इस आंकड़े को विस्तारित करें तो हर महीने करीब 948 और रोजाना करीबन 31 आत्महत्याएं देश भर में हुईं.

एनसीआरबी के मुताबिक, देश में 2015 के मुकाबले किसानों की आत्महत्याओं में 11 फीसद की कमी आई है.

गौरतलब है कि साल 2016 में देश भर में कुल 6,270 किसानों ने आत्महत्या की है. साल 2015 में यह आंकड़ा 8,007 था. दूसरी तरफ खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की गिनती में बढ़ोतरी हुई है. इस बीच, एक आंकड़ा यह भी है कि देश में किसानों की संख्या (अंदाजन 86 लाख) में कमी आई है तो कृषि मजदूरों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है.

इस समस्या की जड़ हमारी व्यवस्था में है और किसानों की मौत का आंकड़ा सिर्फ एक संख्या ही नहीं है. ओपी जिंदल विश्वविद्यालय में सार्वजनिक नीति पढ़ाने वाले स्वागतो सरकार लिखते हैं, "भारत में जमींदारो किसानों के एक राजनैतिक वर्ग का उदय इसके पीछे एक बड़ा कारण है. जिन्होंने राज्य सब्सिडी और मुफ्त वस्तुओं पर कब्जा करने और सरकारी खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ उठाने वाला एक विस्तृत तंत्र विकसित किया है." जाहिर है, सरकारी नीतियों का फायदा किसानों के निचले और जरूरतमंद तबके तक नहीं पहुंच पाता है.

आंकड़े यह बताते हैं कि देश में शीर्ष 10 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास कुल कृषि योग्य भूमि का 54 फीसद का मालिकाना हक है जबकि नीचे की 50 फीसद भूमि 3 फीसद (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 399) से कम है. आधी आबादी के इसी निचले वर्ग का भविष्य अनिश्चित है और उन्हें मौत के कुएं की तरफ धकेल रहा है.

नेशनल सैंपल सर्वे 2014 बताता है कि एक औसत किसान परिवार अपनी सालाना आमदनी का सिर्फ आधा हिस्सा ही खेती से कमाता है. इसके अलावा खेती में सुधार और आमदनी बढ़ाने के लिए सार्वजनिक बैंकों के पीछे हटने इन किसानों को साहूकारों के सामने ला खड़ा किया है. सिंचाई की कमी, जलवायु परिवर्तन, मिट्टी की उर्वरता में कमी और फसलों की कीमतों में अस्थिरता (मिसाल के लिए टमाटर, आलू और प्याज) जैसी समस्याओं ने किसानों की स्थिति डांवाडोल कर दी है.





2011 की जनगणना बताती है कि देश में कृषि अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे विघटन की ओर जा रही है. किसानों की संख्या में आई गिरावट और खेतिहर मजदूरो की संख्या में बढ़ोतरी साफ संकेत है कि किसान अब मजदूर बन रहे हैं. 
खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या का आंकड़ा 2015 में 4,595 था जो 2016 में बढ़कर 5,109 हो गया. एक लाख की आबादी पर आत्महत्या की राष्ट्रीय दर 10.3 है. 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह दर राष्ट्रीय स्तर से अधिक है. सिक्किम में यह सर्वाधिक 40.5 है.

एनसीआरबी के अनुसार, 2016 में देशभर में कुल 1,31,008 लोगों ने आत्महत्या की. इसमें कृषि क्षेत्र में की गई आत्महत्या 8.7 फीसद है. 2015 की तरह 2016 में भी महाराष्ट्र में सबसे अधिक किसानों ने आत्महत्या की. किसानों की कुल आत्महत्या में महाराष्ट्र की हिस्सेदारी 32.2 फीसद है. इसके बाद कर्नाटक (18.3 फीसद), मध्य प्रदेश (11.3 फीसद), आंध्र प्रदेश (7.1 फीसद) और छत्तीसगढ़ (6 फीसद) सर्वाधिक आत्महत्या वाले राज्यों में शामिल हैं.

आत्महत्या करने वाले 6,270 किसानों में 275 महिलाएं हैं. वहीं कृषि श्रमिकों में 633 महिलाओं ने आत्महत्या की. रिपोर्ट के अनुसार, बिहार, बंगाल और नगालैंड जैसे राज्यों में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की.

संकट में पड़ा किसान, कर्ज में फंसा किसान, जमीन खो रहा किसान मजदूर बनकर आत्महत्या कर रहा है. यह मर्ज इतना बड़ा है कि सरकार आंकड़े जारी करने में देरी कर रही है और इसकी दवा सिर्फ और सिर्फ साहसिक और तत्काल सुधार हैं लोकलुभावन बजटीय प्रावधान नहीं.


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Wednesday, January 8, 2020

नदीसूत्रः सोन से रूठी नर्मदा हमसे न रूठ जाए

लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं और बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है

राजा मेखल ने तय किया था, उनकी बिटिया नर्मदा का ब्याह उसी से होगा जो गुलबकावली के दुर्लभ फूल लेकर आएगा. नर्मदा थी अनिंद्य सुंदरी. राजे-महाराजे, कुंवर-जमींदार सब थक गए, गुलबकावली का फूल खोज न पाए. पर एक था ऐसा बांका नौजवान, राजकुमार शोणभद्र. वह ले आया गुलबकावली का दुर्लभ पुष्प.

ब्याह तय हो गया. अब तक नर्मदा ने शोणबद्र के रूप-गुण और जांबाजी के बारे में बहुत कुछ सुन लिया था. मन ही मन चाहने लगी थी. शादी में कुछ दिन बाकी थे कि रहा न गया नर्मदा से. दासी जुहिला के हाथो शोणभद्र को संदेशा भिजवा ही दियाः एक बार मिल तो लो.

शोणभद्र ने भी नर्मदा को देखा तो था नहीं सो पहली मुलाकात में जुहिला को ही नर्मदा समझ बैठा. जुहिला की नीयत भी शोण को देखकर डोल गई. उसने सच छिपा लिया, कहा, मैं ही हूं नर्मदा.

दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो नर्मदा खुद चल पड़ी शोणभद्र से मिलने. वह पहुंची तो देखती क्या है, जुहिला और शोणभद्र प्रेमपाश में हैं. अपमान और गुस्से से भरी नर्मदा वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए.

शोण ने बहुतेरी माफी मांगी पर नर्मदा ने धारा नहीं बदली. आज भी जयसिंहनगर में गांव बरहा के पास जुहिला नदी को दूषित नदी माना जाता है और सोन से इसका बाएं तट पर दशरथ घाट पर संगम होता है. वहीं नर्मदा उल्टी दिशा में बह रही होती है. अब भी शोण के प्रेम में, पर अकेली और कुंवारी...

वही नर्मदा एक बार फिर अकेली पड़ गई है.


नर्मदा की सूखती सहायक नदी का पाट फोटोः सोशल मीडिया

इस बार उसे शोणभद्र ने नहीं, उसकी अपनी संतानों, इंसानों ने धोखा दिया है. लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं और बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है.

मध्य प्रदेश में जंगल का इलाका काफी सिकुड़ा है और आंकड़े इसकी तस्दीक भी करते हैं. 2017 की भारत सरकार का वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में 1991 में जंगल का इलाका 1,35,755 वर्ग किमी था जो 2011 में घटकर 77,700 वर्ग किमी रह गया. इसमें अगले चार साल में और कमी आई और 2015 में यह घटकर 77,462 वर्ग किमी हो गया. 2017 में सूबे में वन भूमि 77,414 वर्ग किमी रहा. जाहिर है, तेजी से खत्म होते जंगलों की वजह से नर्मदा के जलभर (एक्विफर) भरने वाले सोते खत्म होते चले जा रहे हैं.

2018 में नर्मदा कई जगहों पर सूख गई थी. नर्मदा प्रायद्वीपीय भारत की सबसे बड़ी नदियों मे से एक है और मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलती है. इस नदी पर बने छह बड़े बांधों ने इसके जीवन पर संकट पैदा कर दिया है. छह ही क्यों, नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत 30 बड़े और 135 मझोले बांध हैं.

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआइ) की एक रिपोर्ट में इसे दुनिया की उन छह नदियों में रखा है जिसके सामने अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में तो इस नदी में जल का ऐसा संकट आ खड़ा हुआ था कि गुजरात सरकार ने सरदार सरोवर बांध से सिंचाई के लिए पानी लेने पर भी बंदिश लगा दी थी. जानकार बताते हैं, कि इस नदी के बेसिन पर बहुत अधिक दबाव बन रहा है और बढ़ती आबादी की विकासात्मक जरूरतें पूरी करने के लिहाज का नर्मदा का पानी कम पड़ता जा रहा है.

एसएएनडीआरपी वेबसाइट पर परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि महेश्वर बांध पर उन्हें ऐसे लोग मिले जो कहते हैं कि अगर जमीन के बदले जमीन दी जाती है, मकान के बदले मकान, तो नदी के बदले नदी भी दी जानी चाहिए.

नर्मदा ही नहीं तमाम नदियों के अस्तित्व पर आए संकट का सीधा असर तो मछुआरा समुदाय पर पड़ता है. उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता, कोई पुनर्वास नहीं होता, उनके लिए किसी पैकेज का प्रावधान नहीं. रोजगार नहीं.

नर्मदा पर बांध बनने के बाद से, दांडेकर लिखती हैं, कि उन्हें बताया गया कि मछली की कई नस्लें विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं. झींगे तो बचे ही नगीं. गेगवा, बाम (ईल) और महशीर की आबादी में खतरनाक तरीके से कमी आई है.

न्यूज वेबसाइट फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित एक खबर में आइआइटी दिल्ली के शोध छात्र के हवाले से एक आंकड़ा दिया गया है जिसके मुताबिक, मध्य प्रदेश में नर्मदा की 41 सहायक नदियां अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं.

शोणभद्र से रूठी नर्मदा का आंचल खनन और वनों की कटाई से तार-तार हो रहा है. डर है, मां रेवा कहीं अपनी संतानों से सदा के लिए न रूठ जाए.


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Tuesday, January 7, 2020

एक था पीयूष

पीयूष नाम था उसका. जिसके नाम का अर्थ ही अमृत था, वह नहीं रहा. उसके जाने की खबर पर यकीन नहीं हो रहा. वह जब मुस्कुराता था तो उसके गालों पर गड्ढे पड़ते थे. इतना खुशमिजाज कि साथ में चलते चलते भी चुटीली बातें करके उदास से उदास दिन को जिंदादिली में बदल जाता. 

पीयूष और धीरज (नीले टीशर्ट में)


हमने बचपन साथ गुजारा था. उससे पहली बार मुलाकात तो तब हुई जब उसका परिवार मधुपुर के एक दूरस्थ मुहल्ले में कुमार साहब नाम के प्रतिष्ठित अध्यापक के यहां किराए में रहता. तब मेरी उम्र पांच-छह साल की रही होगी. फिर कुछ महीनों बाद 1986 या 87 में वे लोग हमारे घर में आ गए थे. 
बचपन के दोस्त विजय की गोद में पीयूष

और उसके बाद से हमारी दोस्ती गाढ़ी हो गई. फिर हाइस्कूल तक पढ़ाई हो या क्विज कंपीटिशन और चित्रकला प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना, हम साथ रहे. वह मन से चित्रकार था, उसकी गणित की कापियों में समीकरणों की बजाए चित्र खिंचे होते थे. उसका मन कवि का था...बेहतरीन लिखता था. 
मधुपुर के पास के गांव पननिया में घुघनी खाने पहुंचे सारे बैचमेट. पीयूष नीली कमीज में है


उसने मुझसे वायदा लिया था कि वह एक कविता संग्रह प्रकाशित करवाएगा और उसका संपादन मुझे करना होगा. जब हम छोटे थे तब भी उसके खेल निराले थे, वह दीवार पर जमने वाले हरे मॉस (काई) उखाड़ लाता और रेत पर उससे सजाकर महलें और पार्क बनाता...
दोस्तों के झुंड में

सोशल मीडिया पर आने के बाद वैचारिक रूप से हममें तकरारें भी हुईं, पर हर बार गर्मागर्म बहस के बाद वह फोन करता था, भाई, प्यार अपनी जगह. तर्क अपनी जगह. फोन रखते समय हम दोनों मुस्कुराते हुए बात खत्म करते थे. मधुपुर की सड़कों पर बिना बात, बेमकसद घूमने से लेकर अपनी किसी कहानी के प्लॉट तक के बारे में बात करने के लिए पीयूष से निकट मित्र नहीं मिला था मुझे. 

पीयूष और अरविंद

मुझे नहीं मालूम कि प्रेम में आकंठ डूबकर जीवन के बेहतर तरीके से जीने में यकीन रखने वाले, पीयूष की तबीयत दिन ब दिन कैसे बिगड़ती गई. दो बरस पहले मधुपुर गया था तो वह सख्त बीमार था और चाचाजी (उसके पिता) उसे बरेली से वापस मधुपुर ले गए थे. चाचाजी ने मुझसे कहा, स्टेशन पर से उसने जिद करके इंडिया टुडे मैगजीन खरीदवाई और तुम्हारी रपट देखकर खुश हो गया था. मानो उसी के नाम से खबर छपी हो. 


उस साल मधुपुर के हमारे दोस्तों के वॉट्सऐप ग्रुप में उसको जोड़ा, जबरिया. क्योंकि वह बीमार पड़ने के बाद से ग्रुप्स में जोड़े जाने से सकुचाने लगा था. पर, फिर ग्रुप में दोस्तों के साथ ठठाकर हंसते देखा उसको...तो लगा भाई ठीक होने लगा है. पर अचानक आज जो खबर आई वह स्तब्ध कर गई. 

इतनी हिम्मत नहीं कि मौसी (उसकी मां) को फोन कर पाऊं...एक मां के दिल पर क्या बीत रही होगी, इसका अंदाजा लगाकर ही सन्न रह जाता हूं. पीयूष अपना वादा तोड़कर चला गया. उसकी कविताओं के संग्रह का संपादन बाकी ही रह गया. बड़े गौर से सुन रहा था ज़माना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते. लौट आओ दोस्त पीयूष, नए साल का यूं आगाज़ बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा. तुम ताजिंदगी याद आओगे.