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Saturday, June 14, 2025

विश्व टेस्ट चैंपियनशिप फाइनलः चोकर्स के चैंपियन बनने के पीछे की दास्तान

क्रिकेट की दुनिया में दक्षिण अफ्रीकी टीम के बारे में मशहूर है कि बड़ी प्रतिस्पर्धाओं में वह अहम मौके पर जाकर दिशा भटक जाती है. जीत के लिए महत्वपूर्ण लगने वाले मोड़ों पर उसके पांव फिसलते हुए देखे गए हैं और इसलिए इस टीम को चोकर्स कहा जाने लगा.

दक्षिण अफ्रीका की टीम के दामन पर आईसीसी इवेंट्स में महत्वपूर्ण मैचों में बारंबार पराजित होने का दाग ढाई दशकों से लगा हुआ था, पर क्रिकेट विश्व टेस्ट चैंपिशनशिप के फाइनल में दक्षिण अफ्रीका ने इस धब्बे को छुड़ा लिया.

इससे पहले दक्षिण अफ्रीका को आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी के सेमीफाइनल में पांच बार (साल 2000, 2002, 2006, 2013 और 2025) पराजय का सामना करना पड़ा था. इसीतरह वह आईसीसी एकदिवसीय विश्वकप के सेमीफाइनल में चार बार (साल 1992, 2007, 2015, 2023) में पराजित हो चुकी है. टीम ने पिछले साल टी-20 विश्वकप का ख़िताब भारत के हाथों गंवाया था.
फाइनल के फिसड्डी अब टेस्ट के सरताज है

क्रिकेट प्रेमियों को याद होगा कि ही टी-20 विश्वकप के फाइनल में किसतरह मैच भारत के हाथ से फिसलता हुआ लग रहा था. हेनरिक क्लासेन के विस्फोटक अंदाज और डेविड मिलर के सहयोग से उस रोज ऐसा लग रहा था कि दक्षिण अफ्रीका चोकर्स वाला स्टिकर दामन से छुड़ाकर मानेगी. इस जोड़ी ने 14वें और 15वें ओवर में 38 रन बनाकर दक्षिण अफ्रीका को विश्वकप खिताब के नजदीक पहुंचा दिया था.

दक्षिण अफ्रीका को 30 गेंदों में 30 रन बनाने थे और उसके छह बल्लेबाज अभी आउट होने बाकी थे. लेकिन सूर्यकुमार यादव के सीमारेखा पर लपके डेविड मिलर के बेहतरीन कैच, बुमराह के आखिरी दो बेहतरीन ओवरों के साथ हार्दिक पांड्या के दो विकेट ने निश्चित नजर आ रही जीत को हार में बदल दिया.

लेकिन दक्षिण अफ्रीका के लिए निराशाओं के काले बादलों का किस्सा बहुत पुराना रहा है. 1999 के वनडे विश्वकप में दक्षिण अफ्रीका को ऑस्ट्रेलिया से जीत के लिए 214 रन बनाने थे. लांस क्लूजनर ने झन्नाटेदार बल्लेबाजी से इस काम को आसान कर दिया था. मैच की आखिरी चार गेंदों पर जीत के लिए दक्षिण अफ्रीका को सिर्फ एक रन बनाना था. लांस क्लूजनर का आखिरी बल्लेबाज के रूप में एलन डोनाल्ड साथ दे रहे थे. आखिरी ओवर की चौथी गेंद पर क्लूजनर रन लेने के लिए दौड़े पर डोनाल्ड गलतफ़हमी की वजह से दौड़े ही नहीं और विकेटकीपर एडम गिलक्रिस्ट ने क्लूजनर को रन आउट कर दिया और मैच टाई हो गया. दक्षिण अफ्रीका ग्रुप मैच में ऑस्ट्रेलिया से हार गया था, इस कारण ऑस्ट्रेलिया फाइनल में चला गया.

2015 के वनडे विश्वकप का ऑकलैंड में खेले जा रहे सेमीफाइनल में खेला जा रहा था. न्यूजीलैंड को आखिरी ओवर में जीत के लिए 12 रन बनाने थे. यह ओवर उस दौर के अगिया बैताल गेंदबाज डेल स्टेन फेंकने वाले थे, जिन्हें गति के साथ सटीक गेंदबाजी के लिए जाना जाता था. इस कारण इतने रन बनाने कतई आसान नहीं लग रहे थे. लेकिन बारिश आ जाने के कारण लक्ष्य घटैकर 298 रन कर दिया गया. यानी बदले हुए लक्ष्य ने न्यूजीलैंड के लिए मैच आसान कर दिया.

दक्षिण अफ्रीका महत्वपूर्ण मैचों में दुर्भाग्य तो बुरे प्रदर्शन का शिकार होती रही. लेकिन उनके नए कप्तान ने जीत का यह सूखा खत्म कर दिया. ऐसे में अफ्रीकी जीत के नायक तेम्बा बावुमा को हो माना जाना चाहिए. हालांकि, टेस्ट चैंपिशनशिप के फाइनल में एडन मारक्रम ने योद्धा की तरह 136 रनों की पारी खेली, लेकिन तेम्बा बावुमा ने दिलेरी से 66 रन बनाए. किसी भी विश्व टेस्ट चैंपियनशिप के फाइनल में यह सबसे बड़ी कप्तानी पारी है. दिलेरी इसलिए क्योंकि बावुमा का हैमस्ट्रिंग खिंच गया था फिर वह टीम के हित के लिए विकेट पर जमे रहे और भागकर रन बनाते रहे. अपनी पारी में 46 रन उन्होंने दौड़कर बनाए.

यह सच है कि बावुमा नायक की तरह उभरे हैं. खासकर इसलिए क्योंकि कप्तान बनने से पहले की उनकी बल्लेबाजी औसत के लिए, उनकी शारीरिक बनावट के लिए, उनके नाम से मिलती-जुलती गाली के लिए उन्हें शर्मिंदा करने की कोशिश की जाती रही.

तेम्बा का नाम का जुल भाषा में अर्थ होता है उम्मीद. निरंतर पराजय की परछाइयों से त्रस्त दक्षिण अफ्रीका को लिए तेम्बा बावुमा ने उस उम्मीद को साकार कर दिखाया है. कभी चोकर्स कही जाने वाली टीम अब चैंपियन है.

Tuesday, May 30, 2023

यार ! धोनी भी इमोशनल होते हैं

हम बचपन से इस गलतबयानी पर यकीन करते आए हैं कि भावुकता कमजोरी की निशानी है. पराजय के बाद गुस्से से बल्ला पटकना और जीत के बाद हवा में मुट्ठियां लहराना, हल्के-फुल्के खिलाड़ियों के लक्षण हैं, लेकिन महेंद्र सिंह धोनी के नहीं.

लेकिन, आइपीएल के फाइनल में जीत का मौका ऐसा आया कि धोनी भी जज्बाती हो उठे. आखिरी दो गेंदों में दस रन चाहिए थे और जाडेजा ने वह असंभव कर दिखाया. इस जीत के बाद, धोनी ने जाडेजा को गले से लगाया और फिर गोद में उठा लिया. और कैमरा जूम होकर जब धोनी के चेहरे पर फिक्स हुआ तो पता चला कि धोनी की आंखें नम हैं. यह दुर्लभ क्षण था.


जीत के बाद भी सामान्य बने रहने में धोनी को अगर कोई टक्कर दे सकता है तो वह इकलौता भारतीय है अभिनव बिंद्रा. क्रिकेट में शांत बने रहने की जरूरत नहीं होती, उसके बावजूद धोनी ने अपने धैर्य से अपनी शख्सियत को और आभा ही बख्शी है. 

जाडेजा को गले से लगाने के बाद क्षणांश के लिए भावुक हुए धोनी एक बार फिर से अपने मूल अवस्था में लौट आए और ट्रॉफी लेने के लिए जाडेजा और रायुडू को आगे भेज दिया. सेनानायक ने एक बार फिर जीत के बाद खुद नेपथ्य में रहना चुना. उस्ताद रणनीतिकार ने जीत का श्रेय एक बार फिर हरावल दस्ते को दे दिया.



यह एक परिपक्व और स्थिर मस्तिष्क का संकेत है, जो इस बात को समझता है कि कामयाबी कोई एक बार में बहक जाने वाली चीज नहीं, इसे लगातार बनाए रखना पड़ता है. ऐसे लोग अतिउत्साहित नहीं होते. वे अपनी खुशी को अपने तक रखते हैं, इस तरह औसत लोगों से ज्यादा उपलब्धियां हासिल करते हैं. उन्होंने हमेशा आलोचकों का मुंह बंद किया है और सीनियर खिलाड़ियों से अपनी बात मनवाई है. उन्होंने छोटे शहरों की एक समूची पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम किया है. धोनी की कहानी शब्दों में बयां करना आसान नहीं. उनकी पारी अब भी जारी है. (उन्होंने कल कहा भी)

पहले एक किस्साः बात थोड़ी पुरानी है. एक दफा धोनी नए खिलाड़ियों को क्रिकेट प्रशिक्षक एम.पी. सिंह से बल्लेबाजी के गुर सीखता देख रहे थे. बता रहे थे कि कैसे बैकलिफ्ट, पैरों का इस्तेमाल और डिफेंस करना है. सत्र के बाद उन्होंने क्रिकेट प्रशिक्षक एम पी सिंह से कहा कि वे दोबारा उन्हें वह सब सिखाएं. सिंह अकचका गए. उन्होंने कहा, ''तुम इंडिया के खिलाड़ी हो, शतक मार चुके हो और ये सब अब सीखना चाहते हो? धोनी ने सहजता से कहा, ''सीखना जरूरी है, कभी भी हो.” जाहिर है, खेल धोनी के स्वभाव में है और क्रिकेट उनके लिए पैदाइशी बात है.

फिल्म धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी का वह दृश्य याद करिए, जब अपनी मोटरसाइकिलों की देख-रेख करते वक्त धोनी वह चीज हासिल कर लेते हैं, जो उनको कामयाब होने से रोक रही थी. धोनी रक्षात्मक खेल के लिए नहीं बने हैं. यही बात फिल्म में भी उनसे कही गई थी, और यही बात शायद धोनी ने इस बार समझ भी ली, पर इस दफा तरीका अलहदा रहा.

बढ़ती उम्र का तकाजा था कि उन्हें अपनी टाइमिंग पर काम करने की जरूरत थी. धोनी ने अपने बल्लों (वह अमूमन अपनी पारियों में दो वजन के अलग-अलग बल्लों का इस्तेमाल करते हैं) के वजन को कम कर लिया. इसी से उनकी टाइमिंग बेहतर हो गई. और शायद इस वजह से धोनी इस बार के आइपीएल में वही शॉटस लगा पाए हैं, जिसके मुरीद हम सभी रहे हैं.

आपको 2004 के अप्रैल में पाकिस्तान के खिलाफ विशाखपट्नम के मैच की याद है? नवागंतुक और कंधे तक लंबे बालों वाले विकेट कीपर बल्लेबाज महेंद्र सिंह धोनी ने पाकिस्तानियों को वॉशिंग पाउडर से धोया और 123 गेंदों में 148 रन कूट दिए थे. फिर तो आपको 2005 के अक्टूबर में जयपुर वनडे की भी याद होगी, जब श्रीलंका के खिलाफ धोनी ने 145 गेंदों में नाबाद 183 रन बनाए थे. पाकिस्तान के खिलाफ 2006 की फरवरी में लाहौर में नाबाद 72 रन की पारी हो, या फिर कराची में 56 गेंदों में नाबाद 77 रन.

यहां तक कि 2011 विश्व कप फाइनल में भी आखिरी छक्का उड़ाते धोनी का भावहीन चेहरा आपके चेहरे पर मुस्कुराहट ला देता होगा.

इस बार के आइपीएल में महेंद्र सिंह धोनी भले ही कम गेंदें खेलने के लिए आते थे—कभी-कभी तो महज दो गेंद—लेकिन वह अपने पुराने अवतार में दिखे. इस बार उन्होंने ऐसे छक्के उड़ाए जैसे उस्ताद कसाई चापड़ (बड़ा चाकू) चलाता है. इस बार के आइपीएल में धोनी के आते ही जियोसिनेमा पर लॉग इन करने वाले लोगों की संख्या लाखों की तादाद में बढ़ जाती थी. स्टेडियम में धोनी के आते ही हजारों की संख्या में मोबाइल की बत्तियां रोशन हो उठती थीं. लोग धोनी के विकेट पर आने के लिए जाडेजा के आउट होने की प्रार्थना करते थे. लेकिन, जाडेजा... उफ्. उनकी इस बार की गाथा भी अद्भुत रही.

सीजन की शुरुआत मे जाडेजा लय में नहीं थे. दो मैच पहले बुरी तरह पिटे जाडेजा को कप्तान धोनी ने कुछ कहा भी था और सोशल मीडिया पर लोग इसबात को लेकर उड़ गए. जाडेजा ने एक बार कहा भी थाः लोग उनके आउट होने की प्रार्थना करते हैं. पर जाडेजा ने बुरा नहीं माना क्योंकि सम्राट जब स्वयं युद्ध भूमि में उतर रहे हों तो सिपहसालारों के लिए को-लैटरल डैमेज अनहोनी बात नहीं.


बहरहाल, उम्र के चौथे दशक में चल रहे अधेड़ धोनी के हाथों में हरक्यूलीज वाली ताकत अभी भी बरकरार है. और इस बार धोनी ने उस ताकत का बखूबी इस्तेमाल किया.

हेलीकॉप्टर शॉट लगाने वाले धोनी ने खुद को इस बार रॉकेट की तरह स्थापित किया है. शुभमन गिल को स्टंप करने में चीता भी पीछे रह जाता. धोनी ज्यादा तेज साबित हुए.

अब भी कमेंटेटर उनकी तेज नजर को धोनी रिव्यू सिस्टम कहकर हैरतजदा हो रहे हैं, तो कभी धन धनाधन धोनी कहकर मुंह बाए दे रहे हैं. कभी उनको तंज से महेंद्र बाहुबली कहने वाले सहवाग जैसे कमेंटेटर भी खामोश हैं. खामोश तो धोनी भी हैं, पर इस बार उनके बल्ले से जैज़ के धुन निकले हैं.

धोनी का नायकत्व अभी भी चरम पर है, शायद पहले से कहीं ज्यादा. यह एक ऐसा तिलिस्म है जिस से निकलने का जी नहीं करता.

कल रात धोनी भावुक थे, जब धोनी रिटायर होंगे तो उनके सभी प्रशंसक और पूरा देश भावुक होगा.

Wednesday, September 14, 2022

लेग ग्लांस शॉट के जनक और भारतीय क्रिकेट के पितामह महाराजा रणजीत सिंह की डेढ़ सौवीं जयंती

इससे पहले कि अपन मेन सब्जेक्ट पर आएं, एक सवाल. हिंदुस्तान में किस क्रिकेटर को आप कलाइयों का जादूगर मानते हैं? बैकफुट पंच और पैडल स्वीप में तेंडुलकर, कवर ड्राइव में विराट कोहली और स्क्वॉयर कट के लिए गावस्कर के नाम की कसमें खाई जाती हैं, ऑफ साइड का ईश्वर बेशक गांगुली को माना जाता है लेकिन कलाइयों का जादूगर? वीवीएस लक्ष्मण? या मोहम्मद अजहरूद्दीन? छोड़िए, बताइए कौन था जिसने लेग ग्लांस शॉट का आविष्कार किया? ब्रिटिश प्रेस में किसकी कलाइयों की तारीफ में उसे स्प्रिंग बताया गया?

ढेर सारे सवाल. जवाब एक ही है. पर उससे पहले थोड़ा इतिहास में पीछे चलते हैं.


आज से कोई सवा सौ साल पहले भारत के एक कमाल के क्रिकेटर ने टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण किया. उस वक्त भारत की टीम नहीं थी इसलिए वह क्रिकेटर इंग्लैंड की टीम से खेल रहा था. इंग्लैंड की टीम में शामिल किया गया वह शख्स पहला एशियाई खिलाड़ी था. उनका नाम था महाराजा रणजीत सिंह.

असल में, बात उन दिनों की है जब क्रिकेट को भलेमानसों को खेल कहा जाता है और मैचों में विरोधी टीम का कप्तान कभी लेग साइड में क्षेत्ररक्षक तैनात नहीं करता था. यह माना जाता था कि बल्लेबाज भद्रजन होगा और ऑफ साइड में ही स्ट्रोक खेलेगा. अगर कोई बल्लेबाज लेग साइड की ओर शॉट लगाता था तो वो गेंदबाज और विरोधी टीम से माफी मांगता था.

लेकिन महाराजा रणजीत सिंह ने इस धारणा को बदल दिया और वह अपनी कलाइयों का कमाल का इस्तेमाल करते थे.

महाराजा रणजीत सिंह ने ही लेग ग्लांस शॉट का आविष्कार किया. लेग ग्लांस यानी मिड्ल या लेग स्टंप पर आ रही गेंद को बल्ले के सहारे अपने पैरों के थोड़ा कोण बनाकर बाउंड्री की तरफ धकेलना. 

यह गेंद विकेट कीपर के एकदम पास से तेजी से बाऊंड्री की तरफ निकल जाती है. बहरहाल, स्क्वॉयर लेग और ऑन साइड में अपनी कलाइयो की बदौलत रणजीत सिंह काफी रन जुटा लेते थे.

महाराजा रणजीत सिंह के इसी हस्त-कौशल के कारण इंग्लैंड के चयनकर्ताओं को उन्हें अपनी टीम में शामिल करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

रणजीत टेस्ट क्रिकेट के पहले खिलाड़ी थे, जिन्होंने अपने करियर के पहले टेस्ट मैच में ही शतक ठोंक दिया और नॉट आउट रहे.

इसी 10 सितंबर को उन्हीं महाराजा रणजीत सिंह का जन्मदिन था. लेकिन यह जन्मदिन इसलिए भी खास रहा क्योंकि इसके साथ ही महाराजा रणजीत सिंह के जन्म के डेढ़ सौ वर्ष भी पूरे हुए हैं. यह देश के क्रिकेटरों और क्रिकेट प्रेमियो के लिए खास मौका है.

महाराजा रणजीत सिंह को भारतीय क्रिकेट का पितामह माना जाता है. रणजीत सिंह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने वाले पहले भारतीय थे. 

उनका जन्म 10 सितंबर, 1872 को गुजरात के जामनगर में हुआ था. अपने क्रिकेटीय जीवन में उन्होंने काफी उपलब्धियां हासिल की, यहां तक कि उन्होंने क्रिकेट को खेलने का तौर-तरीका भी बदल दिया. 

आज भारत में प्रथम श्रेणी क्रिकेट की सबसे अग्रणी प्रतियोगिता रणजी ट्रॉफी उन्हीं के नाम पर खेली जाती है.

महाराजा रणजीत सिंह के बल्लेबाजी कौशल का लोहा तो क्रिकेट के जनक कहे जाने वाले डब्ल्यूजी ग्रेस भी मानते थे. ग्रेस ने एक बार कहा था कि दुनिया को अगले 100 साल तक रणजी जैसा शानदार बल्लेबाज देखने को नहीं मिलेगा.

महाराजा रणजीत सिंह अपना पहला टेस्ट मैच 1896 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेला था. यह टेस्ट मैच मैनचेस्टर में खेल गया था और इस टेस्ट की पहली पारी में उन्होंने 62 और दूसरी पारी में नाबाद 154 रन बनाए.




इस तरह रणजीत सिंह क्रिकेट के इतिहास में पहले ऐसे खिलाड़ी बन गए, जिसने अपने पदार्पण टेस्ट में अर्धशतक और शतक लगाया. साथ ही वह पदार्पण टेस्ट में नाबाद शतक ठोंकने वाले पहले खिलाड़ी भी बने.

लेकिन यह तो सिर्फ एक कारनामा था. महाराजा रणजीत सिंह ने एक कमाल और किया. अगस्त, 1896 में रणजी ने होव के मैदान पर एक दिन में दो शतक ठोक डाले. फर्स्ट क्लास मैच में एक दिन में दो शतक पहले किसी बल्लेबाज ने नहीं ठोके थे. महाराजा रणजीत सिंह ने इस मैच में 100 और नाबाद 125 रनों की पारी खेली थी.

रणजीत सिंह को रणजी और स्मिथ के नाम से भी पुकारा जाता था.

1897 में जब इंग्लिश टीम ऑस्ट्रेलिया दौरे पर गई तो रणजी ने सिडनी में पहले टेस्ट मैच में 7वें नंबर पर बल्लेबाजी के लिए उतरकर 175 रन की बेहतरीन पारी खेली. उनकी इस पारी की वजह से इंग्लैंड जीत दर्ज करने में कामयाब रहा. रणजीत सिंह इस मैच से पहले बीमार थे और वह कमजोरी महसूस कर रहे थे, लेकिन इंग्लैंड की टीम उन्हें बाहर नहीं रखना चाहती थी.

मशहूर क्रिकेट पत्रिका विजडन ने उनकी इस पारी के बारे में लिखा था कि उनकी शारीरिक स्थिति को देखते हुए यह बल्लेबाजी का बेहतरीन नमूना था क्योंकि वह पहले दिन 39 रन बनाने के बाद बहुत कमज़ोरी महसूस कर रहे थे. दूसरे दिन सुबह का खेल शुरू होने से पहले तक डॉक्टर उनका इलाज कर रहा था.

महाराजा रणजीत सिंह ने काउंटी क्रिकेट भी काफी खेली और उनको काउंटी क्रिकेट का बादशाह कहा जाता है. रणजीत सिंह ने लगातार 10 सीजन में 1000 से ज्यादा रन बनाए. 1899 और 1900 में तो रणजी ने एक सीजन में 3 हजार से ज्यादा रन बना डाले.


महाराजा रणजीत सिंह ने इंग्लैंड की तरफ से कुल 15 टेस्ट मैच खेले और उन्होंने 44.95 के औसत से 989 रन बनाए. 

रणजीत सिंह ने इंटरनेशनल क्रिकेट में 2 शतक ठोके और फर्स्ट क्लास क्रिकेट में उनके बल्ले से 72 शतक निकले. 

प्रथम श्रेणी क्रिकेट में उनका औसत 56 से भी ज्यादा था. प्रथम श्रेणी क्रिकेट में उन्होंने 307 मैच खेले जिनमें 56.37 की औसत से 24,092 रन बनाए. इसमें 72 शतक और 109 अर्धशतक भी शामिल हैं.

महाराजा रणजीत सिंह पांच साल तक ससेक्स काउंटी के कप्तान रहे और इसके बाद उन्होंने 1904 में भारत लौटने का फैसला किया. 

महाराजा ने अपने भतीजे दलीप को क्रिकेट की बारीखियां सिखाई. दलीप सिंह ने भी कैंब्रिज में पढ़ाई की और इंग्लैंड के लिए खेलते हुए उन्होंने भी ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ लॉर्ड्स के मैदान पर 173 रन ठोके. महाराजा दलीप सिंह के नाम पर दलीप ट्रॉफी का आयोजन भी किया जाता है.

इस महान क्रिकेटर का 60 वर्ष की उम्र में 2 अप्रैल, 1933 को जामनगर में निधन हो गया.

Wednesday, December 18, 2019

ऋषभ पंत के लिए साल का अंत भला तो सब भला

ऋषभ पंत एक संभावनाओं से भरे खिलाड़ी हैं, पर इस पूरे साल उनके पैर क्रीज पर कंक्रीट में जमे से लगे. आड़ा-तिरछा शॉट चयन और लापरवाही भरा रवैया उनके बल्ले पर जंग लगाता गया. पर अब वेस्टइंडीज के खिलाफ पहले वनडे में पचासा ठोंककर पंत की वापसी की उम्मीदें जागी हैं

यह साल विकेटकीपर-बल्लेबाज ऋषभ पंत के लिए वाकई बेहद बुरा था. ऋषभ पंत एक संभावनाओं से भरे खिलाड़ी हैं, पर इस पूरे साल उनके पैर क्रीज पर कंक्रीट में जमे से लगे. आड़ा-तिरछा शॉट चयन और लापरवाही भरा रवैया उनके बल्ले पर जंग लगाता गया. पर अब वेस्टइंडीज के खिलाफ पहले वनडे में पचासा ठोंककर पंत की वापसी की उम्मीदें जागी हैं. टीम में सम्राट की हैसियत रखने वाले महेंद्र सिंह धोनी की जगह लेने वाले पंत ने वेस्ट इंडीज के खिलाफ खेले गए तीन मैचों की सीरीज के पहले एकदिवसीय मैच में अपने स्वभाव के उलट खेलते हुए अर्धशतक जमाया.

साल की शुरुआत में जनवरी में ऑस्ट्रेलिय़ा के खिलाफ सिडनी टेस्ट का शतक छोड़ दें तो पूरे साल में पंत वनडे क्रिकेट में महज एक अर्धशतक लगा पाए थे. 2019 में पंत ने (वेस्टइंडीज सीरीज से पहले) कुल 9 वनडे मैच खेले थे और इनमें 23.55 की औसत से महज 188 रन बना पाए थे. जबकि 16 टी-20 मैचों में वे 252 रन ही बना पाए थे. टी-20 में 65 के उच्चतम स्कोर के बावजूद उनका औसत महज 21 का था.

जाहिर है, साल के आखिरी समय में पंत ने बताया कि वह स्थिति के मुताबिक खेल सकते हैं. आलोचकों के साथ ही सोशल मीडिया पर लोग लापरवाह रवैये के लिए पंत की काफी आलोचना करते रहे हैं. लेकिन पंत ने इस पारी के बाद कहा कि वह हर दिन अपने खेल में सुधार करने की कोशिश कर रहे हैं.

मैच के बाद पंत ने कहा, "स्वाभाविक खेल जैसा कुछ नहीं होता. हमें स्थिति के हिसाब से खेलना होता है. अगर आप स्थिति के हिसाब से खेलेंगे तो आप अच्छा कर सकते हैं. मेरा ध्यान एक खिलाड़ी के तौर पर बेहतर होने और सुधार करने पर है. आपको अपने आप में विश्वास रखना होता है. मैं सिर्फ इस बात पर ध्यान दे रहा हूं कि मैं क्या कर सकता हूं."

पंत ने जब से सीमित ओवरों में महेंद्र सिंह धोनी का स्थान लिया है तब से उनकी बल्लेबाजी और विकेटकीपिंग के लिए उनकी आलोचना की जाती रही है. पहला वनडे धोनी के दूसरे घर चेन्नै में ही था और इस मैदान पर दर्शकों ने पंत-पंत के नारे लगाए. इसके उलट इससे पहले पंत जब मैदान पर उतरे थे तो धोनी-धोनी के नारे लगे थे.

इस पर पंत ने कहा, "कई बार जब आपको दर्शकों का समर्थन मिलता है तो वो आपके लिए काफी अहम होता है क्योंकि मैं निजी तौर पर बड़ा स्कोर करने की सोच रहा था लेकिन कर नहीं पा रहा था. मैं यह नहीं कह रहा कि मैं उस मुकाम तक पहुंच गया लेकिन मैं कोशिश जरूर कर रहा हूं. एक टीम के नजरिए से, मैं टीम की जीत में जो कर सकता हूं वो करूंगा. मेरा ध्यान इसी पर है और अंत में मैंने कुछ रन किए."

पंत ने बेशक कुछ रन बनाए हैं पर उन्हें अपने नजरिए में सुधार करना होगा. उन्हें उस विरासत का भी खयाल रखना होगा कि जिस जगह को उनके लिए खुद सम्राट धोनी ने खाली किया है, उस पर लोगों की उम्मीद भरी निगाहें जमी हुई हैं.

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Tuesday, September 3, 2019

बूम बूम बूमराह

भारत ने वेस्टइंडीज को टेस्ट सीरीज में हरा दिया. पहला टेस्ट मैच 318 रनों के अंतर से हराना बड़ी बात है. पर बड़ी बात यह भी है कि भारत ने दूसरा टेस्ट मैच भी 257 रनों से जीत लिया. पर यह ऐसी खबर है जिसे आपने सुबह से पढ़-सुन लिया होगा.

पर असली खबर हैं भारत के यॉर्करमैन जसप्रीत बूमराह. एंटीगा टेस्ट में बूमराह ने महज 7 रन खर्च करके 5 विकेट उड़ा लिए. पहली पारी में भले ही इशांत शर्मा जलवाफरोश हुए हों पर दूसरी पारी में भारत का हाथ ऊंचा किया बूमराह ने ही. दूसरे जमैका टेस्ट में बूमराह ने पहली पारी में हैटट्रिक समेत 6 और दूसरी पारी में एक विकेट लिया.

बुमराह टेस्ट में हैटट्रिक लेने वाले तीसरे भारतीय गेंदबाज बने, जबकि कैरेबियाई धरती पर यह कारनामा करने वाले वह पहले भारतीय गेंदबाज हैं. दूसरे टेस्ट के दूसरे दिन शनिवार को उन्होंने वेस्ट इंडीज के खिलाफ हैटट्रिक सहित 6 विकेट झटके, वह भी सिर्फ 16 रन देकर. बुमराह ने यह कारनामा पारी के 9वें ओवर की दूसरी गेंद पर डारेन ब्रावो (4), तीसरी गेंद पर शाहमार ब्रूक्स (0) और चौथी गेंद पर रोस्टन चेज (0) को आउट कर किया. 

इस तरह जसप्रीत बुमराह टेस्ट में हैटट्रिक लेने वाले तीसरे भारतीय गेंदबाज बने, जबकि वेस्ट इंडीज में हैटट्रिक लेने वाले पहले भारतीय बने. 

बुमराह से पहले भारत के लिए हरभजन सिंह (रिकी पॉन्टिंग, एडम गिलक्रिस्ट और शेन वॉर्न) ने 2001 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ कोलकाता में हैटट्रिक ली थी. वह टेस्ट में हैटट्रिक लेने वाले पहले भारतीय बने थे. उनके बाद यह कारनामा तेज गेंदबाज इरफान पठान (सलमान बट्ट, यूनिस खान और मोहम्मद यूसुफ) ने 2006 में पाकिस्तान के खिलाफ किया था. यह मैच कराची में खेला गया था. ओवरऑल यह टेस्ट क्रिकेट की 44वीं हैटट्रिक है.

कम रन देकर ज्यादा से ज्यादा विकेट लेना किसी भी गेंदबाज का सपना होता है. एंटीगा में कारनामा करना जसप्रीत बूमराह के लिए कोई पहली बार का मसला नहीं था. बुमराह सबसे कम रन देकर टेस्ट की एक पारी में 5 या इससे ज्यादा विकेट लेने वाले भारतीय गेंदबाज बन गए. बुमराह से पहले यह रिकॉर्ड वेंकटपति राजू के नाम था, जिन्होंने 1990 में श्रीलंका के खिलाफ चंडीगढ़ में 12 रन देकर 6 विकेट चटकाए थे.

टेस्ट मैच की एक पारी में जसप्रीत बूमराह ने ऐसा कारनामा चौथी बार किया है जब उन्होंने पांच या इससे ज्यादा विकेट हासिल किए हैं. उनको यह उपलब्धि चार अलग-अलग दौरों में हासिल हुई है. उन्होंने दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और अब वेस्टइंडीज दौरे पर यह उपलब्धि हासिल की. बुमराह भारत ही नहीं, एशिया के पहले ऐसे गेंदबाज बन गए हैं, जो इन चार देशों के हर दौरे में पांच विकेट लिए हैं.

जरा बूमराह की गेंदबाजी देखिए, बगूले की तरह उड़ान भरते और रन अप लेते समय उनकी देहभाषा देखिए. किसी भी तेज़ गेंदबाज की बनिस्बत उनका रन अप छोटा है पर तेजी कम नहीं. और जितनी तेजी है उससे भी अधिक सटीक गेंदे डालते हैं. खासकर यॉर्कर.

अभी भारत की गेंदबाजी में धार आई है. मोहम्मद शमी भले ही पारंपारकि अंदाज में गेंदबाजी करते हैं लेकिन वह एक छोर पर बल्लेबाजों की नकेल डाले रहते हैं. जाहिर है, उसके बाद बूमराह अपनी नेज़े जैसी तीखी गेंदों से बल्लेबाज को पवेलियन भेजने पर उतारू रहते हैं. इशांत की स्विंग और जाडेजा की स्पिन अपने तरीके से रन रोके रहते हैं.

एक दफा पांच विकेट ले लेना शायद उतनी बड़ी बात नहीं, पर कप्तान अगर मुश्किल घड़ी में बारंबार बूमराह को ही गेंद पकड़ाए तो मैदान में उनकी भूमिका की अहमियत साफ हो जाती है.

बूमराह पर विश्वास इसलिए भी है कि वह सिर्फ रफ्तार की सौदागरी नहीं करते. गेंदें सटीक भी डालते हैं और हवा में उसे घुमाते भी हैं. अमूमन उनकी गेंद टप्पा खाने के बाद कांटा भी बदलती है. विकेट भारतीय परिस्थितियों का हो या फिर विदेशी सरजमीं पर भारी मौसम वाला, बूमराह ने लाल और सफेद दोनों गेंदों को अपने मन मुताबिक स्पीड और घुमाव दिया है.

पर बूमराह ने क्रिकेट के तीनों फॉरमेट में अपनी गेंदबाजी से चमत्कृत किया है. आऩे वाले दिनों में भारतीय क्रिकेट उन पर अपनी निगाह बनाए रखेगा बल्कि आंख मूंदकर भरोसा भी करता रहेगा.

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Monday, January 21, 2019

धोनी का नया अवतार धीमा पर महीन पीसता है

ऑस्ट्रेलिया के वनडे सीरीज में महेंद्र सिंह धोनी अपने पुराने अवतार में दिख रहे हैं. किरदार थोड़ा बदला है. धुनाई के उस्ताद, लेकिन कुटाई जरा करारी नहीं है. अब वह कसाई की तरह चापड़ (बड़ा चाकू) नहीं चलाते, अब वह शल्य चिकित्सक की तरह नजाकत से नश्तर फेरते हैं. बल्ला अब ऐसे चल रहा है जैसे चित्रकार कैनवास पर कूची फेर रहा हो. वही धोनी, जिसके लिए हम उनकी कद्र करते आ रहे हैं.


पहले एक किस्साः एक दफा धोनी नए खिलाड़ियों को क्रिकेट प्रशिक्षक एम.पी. सिंह से बल्लेबाजी के गुर सीखता देख रहे थे कि कैसे बैकलिफ्ट, पैरों का इस्तेमाल और डिफेंस करना है. सत्र के बाद उन्होंने क्रिकेट प्रशिक्षक एम पी सिंह से कहा कि वे दोबारा उन्हें वह सब सिखाएं. सिंह अकचका गए. उन्होंने कहा, ''तुम इंडिया के खिलाड़ी हो, शतक मार चुके हो और ये सब अब सीखना चाहते हो? धोनी ने सहजता से कहा, ''सीखना जरूरी है, कभी भी हो.” जाहिर है, खेल धोनी के स्वभाव में है और क्रिकेट उनके लिए पैदाइशी बात है.

फिल्म धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी का वह दृश्य याद करिए, जब अपनी मोटरसाइकिलों की देख-रेख करते वक्त धोनी वह चीज हासिल कर लेते हैं, जो उनको कामयाब होने से रोक रही थी. धोनी रक्षात्मक खेल के लिए नहीं बने हैं. यही बात फिल्म में भी उनसे कही गई थी, और यही बात शायद धोनी ने इस बार समझ भी ली, पर इस दफा तरीका अलहदा है.

बढ़ती उम्र का तकाजा था कि उन्हें अपनी टाइमिंग पर काम करने की जरूरत थी. धोनी ने अपने बल्लों (वह अमूमन अपनी पारियों में दो वजन के अलग-अलग बल्लों का इस्तेमाल करते हैं) के वजन को कम कर लिया है. इसी से उनकी टाइमिंग बेहतर हो गई है. और शायद इस वजह से धोनी वही शॉटस् लगा पा रहे हैं, जिसके मुरीद हम सभी रहे हैं.

आपको 2004 के अप्रैल में पाकिस्तान के खिलाफ विशाखापत्तनम के मैच की याद है? नवागंतुक और कंधे तक लंबे बालों वाले विकेट कीपर बल्लेबाज महेंद्र सिंह धोनी ने पाकिस्तानियों को वॉशिंग पाउडर से धोया और 123 गेंदों में 148 रन कूट दिए थे. फिर तो आपको 2005 के अक्तूबर में जयपुर वनडे की भी याद होगी, जब श्रीलंका के खिलाफ धोनी ने 145 गेंदों में नाबाद 183 रन बनाए थे. पाकिस्तान के खिलाफ 2006 की फरवरी में लाहौर में नाबाद 72 रन की पारी हो, या फिर करांची में 56 गेंदों में नाबाद 77 रन.

यहां तक कि 2011 विश्व कप फाइनल में भी आखिरी छक्का उड़ाते धोनी का भावहीन चेहरा आपके चेहरे पर मुस्कुराहट ला देता होगा, जब 91 रन की नाबाद पारी के लिए धोनी ने महज 79 गेंदो का सामना किया था. हमारा वही धोनी वापस आ गया लगता है.

ऑस्ट्रेलिया के वनडे सीरीज में महेंद्र सिंह धोनी अपने पुराने अवतार में दिख रहे हैं. किरदार थोड़ा बदला है. धुनाई के उस्ताद, लेकिन कुटाई जरा करारी नहीं है. अब वह कसाई की तरह चापड़ (बड़ा चाकू) नहीं चलाते, बल्कि अब शल्य चिकित्सक की तरह नजाकत से नश्तर फेरते हैं. बल्ला अब ऐसे चल रहा है जैसे चित्रकार कैनवास पर कूची फेर रहा हो. वही धोनी, जिसके लिए हम उनकी कद्र करते आ रहे हैं. धोनी वही माही नजर आ रहे हैं, जिसे बरसों पहले हमने देखा था, तब, जब उनके बाल कंधों तक आते थे और थोड़े बरगैंडी कलर में रंगे होते थे. तब धोनी नौजवान थे. पर आज के धोनी के हाथों कुट-पिसकर गेंदबाज जब गेंद को हवा में उड़कर दर्शकों के बीच गिरते देख रहे होते हैं, तब जाकर उन्हें यकीन होता है कि अरे, उम्र के चौथे दशक में चल रहे अधेड़ धोनी के हाथों में हरक्यूलीज वाली ताकत अभी भी बरकरार है. और धोनी उस ताकत का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं. बस आप ऑस्ट्रेलिया सीरीज के दूसरे वनडे के आखिरी और तीसरे वनडे के 49वें ओवर में उड़े छक्के और चौके में लगी ताकत को याद भर कर लीजिए.

इस सीरीज में माही ने साबित कर दिया कि बड़े खिलाड़ी को बस एक दफा गियर बदलना होता है.

37 साल की उम्र में महेंद्र सिंह धोनी ने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ इस वनडे सीरीज में कुल 193 रन बनाए हैं और उन्हें इस शानदार प्रदर्शन के लिए 'मैन ऑफ द सीरीज' चुना गया. इससे पहले धोनी को चयनकर्ताओं ने वेस्टइंडीज और ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ टी-20 टीम से ड्रॉप किया था, लेकिन माही ने कंगारुओं के खिलाफ जोरदार वापसी करते हुए अपने आलोचकों को करारा जवाब दिया है.

इस सीरीज में धोनी दो बार नाबाद रहे और एक बार वह अंपायर के बेहद खराब फैसले का शिकार हुए थे. सिडनी में खेले गए 3 मैचों की वनडे सीरीज के पहले मैच में धोनी ने 51 रन बनाए. उस मैच में धोनी को अंपायर ने एलबीडब्ल्यू करार दे दिया जबकि गेंद लेग स्टंप के बाहर पिच हुई थी. सिडनी में भारत को 34 रनों से हार मिली, लेकिन धोनी ने एडिलेड में खेले गए दूसरे वनडे मैच में नाबाद 55 रन बनाकर भारत को 6 विकेट से जीत दिलाई.

मेलबर्न में खेले गए सीरीज के आखिरी और निर्णायक मैच में महेंद्र सिंह धोनी ने उस हालात में नाबाद 87 रन बनाए जब टीम इंडिया के टॉप 3 बल्लेबाज पचास तक नहीं बना पाए. महेंद्र सिंह धोनी (नाबाद 87) और केदार जाधव (नाबाद 61) के बीच चौथे विकेट के लिए हुई 121 रनों की साझेदारी के दम पर भारत ने आस्ट्रेलिया को मेलबर्न में सात से विकेट मात दी.

इस ऐतिहासिक जीत के बाद धोनी को 8 साल बाद वनडे इंटरनेशनल सीरीज में 'मैन ऑफ द सीरीज' चुना गया. आखिरी बार धोनी को 'मैन ऑफ द सीरीज' का खिताब इंग्लैंड के खिलाफ साल 2011 में खेली गई 5 मैचों की घरेलू वनडे इंटरनेशनल सीरीज में मिला था. यह धोनी का वनडे इंटरनेशनल सीरीज में 7वां 'मैन ऑफ द सीरीज' का अवॉर्ड है.

मेलबर्न में धोनी ने 114 गेंद खेलते हुए छह चौके की मदद से नाबाद 87 रन की पारी खेली जबकि जाधव ने 57 गेंद में सात चौके से नाबाद 61 रन बनाए. निजी तौर पर वैसे तो विराट कोहली ने भी उम्दा खेल दिखाया है, पर इस बार पहले वनडे में कई आलोचकों ने धोनी के धीमे खेलने पर सवाल उठाए थे. पर धोनी ने फिर भी पचासा ठोंका था. दूसरे वनडे में वह जीत के खेवनहार रहे और तीसरा वनडे तो बल्लेबाजी में उनके ही नाम रहा. केदार जाधव उनकी छाया में खेले और बेहतर ही खेले.

जीत के बाद भी सामान्य बने रहने में धोनी को अगर कोई टक्कर दे सकता है तो वह इकलौता भारतीय है अभिनव बिंद्रा. क्रिकेट में शांत बने रहने की जरूरत नहीं होती, उसके बावजूद धोनी ने अपने धैर्य से अपनी शख्सियत को और आभा ही बख्शी है. यह एक परिपक्व और स्थिर मस्तिष्क का संकेत है, जो इस बात को समझता है कि कामयाबी कोई एक बार में बहक जाने वाली चीज नहीं, इसे लगातार बनाए रखना पड़ता है. ऐसे लोग अतिउत्साहित नहीं होते. वे अपनी खुशी को अपने तक रखते हैं, इस तरह औसत लोगों से ज्यादा उपलब्धियां हासिल करते हैं.

उन्होंने हमेशा आलोचकों का मुंह बंद किया है और सीनियर खिलाड़ियों से अपनी बात मनवाई है. उन्होंने छोटे शहरों की एक समूची पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम किया है. धोनी की कहानी शब्दों में बयां करना आसान नहीं. उनकी पारी अब भी जारी है.

हेलीकॉप्टर शॉट लगाने वाले धोनी ने खुद को इस बार रॉकेट की तरह स्थापित किया है. धोनी के दीवाने एक दफा खुश हैं. छक्के लग रहे हैं पर गगनचुंबी नहीं हैं. पर क्या फर्क पड़ता है ज्यादा जोर से मारो तो भी बाउंड्री के बाहर गिरती गेंद कितनी भी दूर जाए रन तो छह ही मिलते हैं. सनसनाते चौकों की बरसात से गेंदों के धागे खुलते देख रहे हैं. कमेंटेटर उनकी तेज नजर को धोनी रिव्यू सिस्टम कहकर हैरतजदा हो रहे हैं, तो कभी धन धनाधन धोनी कहकर मुंह बाए दे रहे हैं. कभी उनको तंज से महेंद्र बाहुबली कहने वाले सहवाग जैसे कमेंटेटर भी खामोश हैं. खामोश तो धोनी भी हैं, पर उनका बल्ला बोल रहा है. पर इस बार बल्ले से जैज़ नहीं शास्त्रीय संगीत के सुर निकल रहे हैं.

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Wednesday, January 9, 2019

रिकॉर्ड के पायदानों पर चढ़ते ऋषभ पंत को तय करना है लंबा रास्ता

ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर बढ़िया प्रदर्शन से ऋषभ पंत ने अपनी टेस्ट रैंकिंग में गजब का सुधार किया है. वह महेंद्र सिंह धोनी से भी आगे निकल गए. साझेदारियो के रिकॉर्ड भी बनाए, पर उनकी बल्लेबाजी में अब भी जल्दबाजी दिखती है. गलत शॉट चयन भी एक बड़ी बाधा.

अब कोई उनकी तुलना ऑस्ट्रेलियाई खब्बू विकेट-कीपर एडम गिलक्रिस्ट से करने लगा है तो कोई उन्हें भविष्य का महेंद्र सिंह धोनी बता रहा है. अब पंत की बल्लेबाजी की चमक के चौंध के आगे अपेक्षाकृत ढीली विकेट कीपिंग की बात दब गई है. उनकी तुलना एडम गिलक्रिस्ट से इसलिए भी की जा रही है क्योंकि दोनों के बल्लेबाजी का मिजाज भी तकरीबन एक जैसा है, दोनों आक्रामक और जोरदार शॉट खेलते हैं और दोनों ही खब्बू भी हैं.

फिलहाल, पंत ने आइसीसी टेस्ट रैकिंग में 673 अंक हासिल करके भारतीय विकेटकीपर बल्लेबाजों में सबसे अधिक रैंकिंग अंक हासिल करने का रेकॉर्ड अपने नाम कर लिया है. उनसे पहले खुद धोनी ही इस कुरसी पर काबिज थे जिन्हें 662 अंक मिले थे.

ऑस्ट्रेलिया को उसके घर में घुसकर पराजित करने का इतिहास रचने वाली भारतीय टीम के खिलाड़ियों को उनके प्रदर्शन का फायदा आइसीसी टेस्ट रैंकिंग में भी मिला है. और पंत आइसीसी टेस्ट रैंकिंग में अब 17वें पायदान पर पहुंच चुके हैं. दौरे की शुरुआत से पहले पंत टेस्ट रैंकिंग में 59वें पायदान पर थे. मैच दर मैच उनकी रैंकिंग में फायदा हुआ और उन्होंने 17वें पायदान पर पहुंचकर फारुख इंजीनियर की बराबरी कर ली. पंत से पहले इंजीनियर ने जनवरी, 1973 में 17वीं रैंकिंग हासिल की थी.

हालांकि धोनी शानदार फीनिशर थे पर उनका असली जलवा एकदिवसीय मैचों में दिखता था. धोनी कभी भी टेस्ट रैकिंग में 17वें पायदान तक नहीं पहुंच पाए थे. करियर के शिखर दिनों में धोनी को सर्वोच्च 19वीं रैकिंग ही हासिल हो पाई थी. वैसे ऑस्ट्रेलिया दौरे से पहले पंत ने महज 5 टेस्ट मैच ही खेले थे. लेकिन पाताल लोक में 4 मैच खेलने के बाद ऐसा लगता है पंत लंबे समय तक जलवाफरोश रहेंगे. ऑस्ट्रेलिया दौरे में पंत ने कुल 350 रन बनाए, एक पारी में 159 बनाकर नाबाद रहे और 20 कैच भी लपके. ऑस्ट्रेलिया में टेस्ट शतक जड़ने वाले पंत पहले भारतीय विकेट-कीपर हैं. इससे पहले फारुख इंजीनियर ने 1967 में एडिलेट में अपने सर्वोच्च 89 रन ठोंके थे. इससे पहले 2018 में पंत ने एक और ऐसा ही कारनामा किया था. वह पिछले साल इंगलैंड की धरती पर शतक उड़ाने वाले पहले भारतीय विकेट कीपर भी बने थे.

वैसे किसी भारतीय विकेट-कीपर से सर्वोच्च स्कोर से पंत अभी भी थोड़े पीछे हैं और इस कुरसी पर अभी भी धोनी काबिज हैं. विकेट-कीपर के तौर पर सबसे लंबी पारी धोनी की ही है. उनका सर्वोच्च स्कोर 224 था जबकि दूसरे पायदान पर बुद्धि कुंदरन हैं जिन्होंने 192 का स्कोर खड़ा किया था. ऑस्ट्रेलिया की धरती पर किसी भी मेहमान विकेट-कीपर का भी सर्वोच्च स्कोर एबी डिविलियर्स का है जिन्होंने 2012-13 में वाका में 169 रन बनाए थे. जाहिर है, पंत अब दूसरे नंबर पर हैं.

वैसे ऑस्ट्रेलिया में सातवें नंबर पर बल्लेबाजी करने मेहमानों में भी पंत दूसरे नंबर पर आ गए हैं. इससे पहले के.एस. रंजीतसिंहजी ने एससीजी के मैदान पर 1897 में 175 रन बना डाले थे. पंत और रवींद्र जाडेजा ने सातवें विकेट के लिए 204 रन की साझेदारी की जो ऑस्ट्रेलिया में किसी भी विकेट के लिए बनी साझेदारी में सबसे लंबी है. इससे पहले 1983-84 में एमसीजी में ग्रेग मैथ्यू और ग्राहम यालोप ने पाकिस्तान के खिलाफ 185 रन का साझेदारी की थी. भारत के लिहाज से विदेशी धरती पर यह सातवे विकेट के लिए दूसरी सबसे बड़ी साझेदारी है.

वैसे पंत 21 साल की उम्र में दो टेस्ट सेंचुरी बनाने वाले, वो भी दोनों के दोनों एशिया से बाहर, पहले विकेटकीपर है. इन उपलब्धियों के बरअक्स, पंत के शॉट चयन में अभी भी थोड़ी जल्दबाजी का भाव दिखता है. टेस्ट मैच में, हालांकि स्कोर बोर्ड अब उन्हें ज्यादा स्थिर बता रहा है, लेकिन अब भी उत्तरदायित्व से भरी पारियां उनका इंतजार कर रही हैं.

आक्रामकता उनकी बल्लेबाजी का मिजाज है. पर हर विकेट पर यह कामयाब ही होगा, ऐसा कहना ठीक नहीं होगा. वैसे भी जल्दबाजी और आक्रामकता में फर्क होता है, ठीक वही जो गैर-जिम्मेदारी और मंजिलें तय करने के दृढ़ संकल्प में होता है.

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Monday, January 16, 2017

सही वक़्त पर सही फ़ैसले का नाम धोनी

यह बात और है कि हम भारतीय पर्याप्त नाशुक़रे हैं और अपने नायकों को तभी तक याद रखते हैं जब तक उनमें चमक रहती है। लेकिन कुछ ग़लती तो हमारे इन नायकों की भी रही ही है। सौरभ गांगुली हों या कपिल देव या फिर कोई भी और मिसाल ले लीजिए, उन्होंने तब तक संन्यास की घोषणा नहीं की, जब तक उनका करिअर घिसता रहा।

लेकिन, धोनी तो अपवादों की मिसाल हैं।

याद कीजिए कि साल 2014 में बीच श्रृंखला में धोनी ने टेस्ट की कप्तानी और टेस्ट मैचों से संन्यास की घोषणा की थी। टी-20 और एकदिवसीय मैचों की कप्तानी छोड़ने का ऐलान भी उसी बेसाख़्ता अंदाज़ में हुआ है।

ऐसा नहीं है कि लोगों ने कप्तानी छोड़ने के उनके इस फ़ैसले के कयास नहीं लगाए थे, लेकिन तटस्थ होकर कहें तो धोनी का फ़ैसला बिलकुल सही वक़्त पर आया है।

इस वक्त जब बल्ले से भी और कप्तानी में भी विराट कोहली जगमगा रहे हैं, धोनी ने खेल के सभी फ़ॉर्मेट में कप्तानी उनके हवाले करके अपनी निस्पृहता का सूबूत भी दिया और सटीक फ़ैसले लेने की अपनी क्षमता का भी। अभी कोहली शानदार रंगत में हैं और उनके फ़ैसले भी सही साबित हो रहे हैं। विराट कोहली की कप्तानी में भारत की जीत का प्रतिशत 63 फीसद से अधिक का है। 18 मैचों से भारत अजेय रहा है और बल्ले से भी विराट ने अच्छे हाथ दिखाए हैं। वह तीन दोहरा शतक बनाने वाले भारत के एकमात्र कप्तान भी हैं।

विराट कोहली ने सचिन तेंदुलकर और उनसे पहले से चले आ रहे उस विचार और आशंका को भी खत्म कर दिया है कि कप्तानी का भार निजी प्रदर्शन पर असर डालता है। हालांकि, कैप्टन कूल धोनी के कप्तानी का अंदाज़ दूसरा था और विराट का अलहदा। विराट आक्रामक कप्तानी करते हैं और धोनी चतुर लोमड़ी की तरह मौके का फायदा उठाते थे, दांव लगाते थे।

सिर्फ हम भारतीय ही नहीं, पूरी दुनिया धोनी की कप्तानी सूझबूझ की कायल रही है। लेकिन सिर्फ कप्तानी के दम पर आप टीम में हमेशा नहीं बने रह सकते। धोनी की पहचान बना हेलिकॉप्टर शॉट खो गया है। मैच फिनिशर की उनकी विश्व-प्रसिद्ध पहचान भी संकच में है। वनडे मैचों में धोनी की रनों की रफ्तार भी साल-दर-साल धीमी पड़ती गई है। धोनी ने 2012 में करीब 65 की औसत से बल्लेबाज़ी की थी जो अब 2016 में करीब-करीब 29 के आसपास है। टी-20 में धोनी का औसत करीब 47 है।

यह औसत धोनी की हैसियत के आसपास भी नहीं ठहरता। इसी के बरअक्स विराट कोहली ने वनडे में 92 और टी-20 में 106 की औसत से रन कूटे हैं। यानी, विराट अपने सबसे बेहतरीन दौर में हैं और धोनी की करिअर ढल रहा है।

सबसे अच्छी बात वैसे यह है कि धोनी ने सिर्फ कप्तानी छोड़ी है और अभी संन्यास नहीं लिया है। उनमें कम से कम दो साल का क्रिकेट बचा हुआ है, और अब जब वह विपक्षी टीमों के खिलाफ रणनीतियां बनाने के दवाब से दूर रहेंगे तो शायद हमें वह धोनी वापस मिल जाए जिसका बल्ला, बल्ला नहीं तोप था, और जिसकी धमक से गेंदबाज़ों के पसीने छूट जाते थे।

पैरलल छक्के, और शानदार चौकों (हेलिकॉप्टर शॉट तो बहुत चर्चा में हैं, तो वह तो उम्मीदों की लिस्ट में है ही) की बरसात एक बार फिर शुरू हो, यह दर्शक भी चाहेंगे और खुद धोनी भी।

धोनी की शख्सियत का कमाल है कि आठ साल तक भारतीय क्रिकेट के शीर्ष पर रहने, कप्तानी करने और साथी खिलाडियों को डांटने-डपटने से परहेज़ नहीं करने वाले कैप्टन कूल अपने से जूनियर खिलाड़ी के मातहत खेलने को तैयार हैं।

वक्त के साथ, नायक बदल जाते हैं, बस ईश्वर नहीं बदलते। सचिन की जगह कोई नहीं ले सकता, लेकिन धोनी ने सचिन का नायकों वाला रुतबा हासिल कर लिया था। यह ताज अब कोहली के सिर है। अच्छी बात यह कि इसे धोनी ने जल्दी मान लिया।



मंजीत ठाकुर

Saturday, October 22, 2016

धोनी की ढलान

महेन्द्र सिंह धोनी जब विकेट पर बल्लेबाज़ी करने आते थे तो दुनिया के किसी भी हिस्से में हो रहे मैच में किसी भी स्कोर का पीछा करना नामुमकिन नहीं लगता था। दुनिया के सबसे बेहतरीन फीनिशर धोनी का करिश्मा शायद अब चुकने लगा है।

चार महीने के आराम के बाद महेन्द्र सिंह धोनी ज़रूर वनडे मैचों के ज़रिए क्रिकेट की दुनिया में जलवा दिखाने को बेताब होंगे। लेकिन, न्यूज़ीलैंड के साथ बीते दोनों मैचों में महेन्द्र सिंह धोनी का वह जादू गायब था, जिसके दम पर एक फ़िल्म बनकर तैयार हो गई और जिसके तिलिस्म में सुशांत सिंह राजपूत भी अपनी फिल्म को सौ करोड़ के सुनहरे क्लब में शामिल कराने में कामयाब हो गए।

जब टीम मुसीबत में होती थी तो धोनी बल्ला थामकर आते थे और जब वह वापस पवेलियन लौट रहे होते तो चेहरे पर विजयी मुस्कान चस्पां होती थी। यही विजयी मुस्कान गायब हो गई है।

धोनी को अपनी इस जिताऊ भूमिका को निभाए, अगर आपको याद हो, एक अरसा गुज़र गया है। अरसा, यानी पूरा एक साल, जब इंदौर वनडे में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ धोनी ने नाबाद 92 रन बनाए थे।

हैरत की बात नहीं, कि अब तक उनके जिम्मे रहे फिनिशर के इस काम के लिए टीम इंडिया दूसरे विकल्पों की तरफ ताक रही हो। इस सूची में रैना भी रहे लेकिन उनके फॉर्म में उतार-चढ़ाव आता रहा और वह इस रोल के लिए फिट नहीं पाए गए। अब इस फेहरिस्त में नया नाम हार्दिक पंड्या के रूप में देखा जा रहा है। पंड्या ने शुरूआत तो ठीक की है, लेकिन दिल्ली वनडे में वह खेल को अंत तक नहीं ले जा सके।

इन सब बातों के बाद भी, धोनी की स्थिति पर हमें सहानुभूति से विचार करना होगा। उनकी उम्र 35 साल से अधिक की हो चुकी है, अपने टेस्ट करियर को उन्होंने अलविदा कह दिया है। उनके खेल में ढलान आ रहा है और इंदौर वनडे के 92 रनों वाली उस धमाकेदार पारी के बाद से धोनी ने एक भी पचासा तक नहीं लगाया है।

शायद यह बदलते वक्त का इशारा है। धोनी की बल्लेबाज़ी में वह धमक नहीं रही, जिसने उनको लाखों-करोड़ो लोगो के दिलों की धड़कन बना दिया था।

दूसरी पारी में लक्ष्य का पीछा करते हुए धोनी ने 119 पारियों में 50 से अधिक के औसत से रन कूटे थे और करीब 4 हजार रन इकट्ठे किए। गौरतलब यह भी है कि अपने अंतरराष्ट्रीय खेल जीवन में धोनी ने अपने सभी 20 मैन ऑफ द मैच पुरस्कार तभी हासिल किए हैं, जब भारत ने लक्ष्य का पीछा किया है।

लेकिन वह दौर शायद गुजर गया जब गेन्दबाज़ धोनी के सामने गेन्दबाज़ी करने से सहमते थे और कुट-पिसकर ड्रेसिंग रूम में लौटते तो अगले मैच में होने वाली कुटाई से बचने की कोशिशों पर चर्चा करते। धोनी अब उतने घातक और मारक नहीं रहे। इस बात की पुष्टि कर दी दिल्ली वनडे ने, जिसमें भारत 6 रनों से हार गया।

धोनी को शतक लगाए तीन साल बीत गए हैं। याद कीजिए उन्होंने 19 अक्तूबर 2013 में मोहाली में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सैकड़ा लगाया था। साल 2014 की जनवरी के बाद से धोनी का औसत 41 से थोड़ा ही ऊपर रहा है। वैसे, यह आंकड़े बहुत बुरे नहीं हैं, लेकिन धोनी के स्तर के तो नहीं ही हैं।

शायद यह उम्र का तकाजा है। शायद धोनी खेलते-खेलते थक गए हों। शायद, कप्तानी के बोझ ने उनकी बल्लेबाज़ी पर असर डाला हो। शायद, हम उनसे बहुत ज्यादा उम्मीद लगाए बैठे हैं। शायद...लेकिन हमारी इन उम्मीदों को धोनी ने ही बढ़ाया है। धोनी को, और हमें भी यह मान लेना चाहिए कि वक्त बदल गया है।

भारत में बुढ़ाए खिलाड़ियों को बेइज़्ज़त करके टीम से बाहर बिठाने की बड़ी बदतर परंपरा रही है। उम्मीद है कि धोनी ऐसा नहीं होने देंगे।



मंजीत ठाकुर

Thursday, July 21, 2016

बीसीसीआई को कोर्ट का इनस्विंगर

भारत एक मात्र देश है जहां क्रिकेट की देखरेख करने वाली संस्था क्रिकेट को कंट्रोल करती है। आखिर, बीसीसीआई का पूरा नाम भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड है। देश की सबसे धनी खेल संस्था कालिख पुतकर बाहर निकली थी जब खेल पर सट्टेबाज़ी का साया था और उसके पास पूरा मौका था कि वह सुधरने की पहल करता। तब वह देश की दूसरी खेल संस्थाओं के सामने पारदर्शिता और जवाबदेही की मिसाल बन जाता। नब्बे के दशक के बाद से ही मैच फिक्सिंग, हितों के टकराव और आईपीएल में गड़बड़ियों की शिकायत के बाद से साफ-सफाई की जरूरत सिरे से महसूस की ही जा रही थी। 

जस्टिस मुकुल मुद्गल समिति की रिपोर्ट के बाद मामला शीशे की तरह साफ था। बाद में, जस्टिस आरएम लोढ़ा समिति की रिपोर्ट आई, वह क्रिकेट की सफाई के लिए थी लेकिन बीसीसीआई को उस पर भारी एतराज था। हो भी क्यों न, दशकों से क्रिकेट के प्रशासन पर कब्जा किए नेता-नौकरशाह-प्रशासकों को क्रिकेट में विकेट के 22 गज का होने के सिवा सिर्फ रूपयों का लेन-देन ही तो आता है। वरना उनमें से कोई भी यह बता दे कि क्रिकेट की गेंद का वज़न कितना होता है? और उसकी परिधि कितनी होती है?

अब सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा समिति की अधिकांश सिफारिशों को लागू करने के आदेश दिए हैं। अब बीसीसीआई के सामने आदेश मानने के सिवा कोई चारा नहीं। लेकिन बीसीसीआई को सूचना के अधिकार के तहत लाने और सट्टेबाज़ी को कानूनी रूप देने की समिति की सिफारिशों को सुप्रीम कोर्ट ने संसद पर छोड़ दिया है।

अब हम जैसे क्रिकेट प्रेमियों और दीवानों की उम्मीद है कि इन उपायों से क्रिकेट प्रशासन में बदलाव आएंगे। मसलन, अब आईपीएल को बीसीसीआई के नियंत्रण से अलग करना होगा, कोई मंत्री या नौकरशाह बीसीसीआई का सदस्य नहीं रहेगा, 70 साल से अधिक के व्यक्ति बीसीसीआई के पदाधिकारी नहीं बन सकेंगे और हर राज्य को बीसीसीआई में सिर्फ एक वोट देने का हक होगा। इसतरह बोर्ड पर गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों का अतिरिक्त प्रभाव खत्म होगा। गुजरात के पास बीसीसीआई में तीन और महाराष्ट्र में चार वोट हैं। बिहार के पास एक वोट और झारखंड के पास तो वह भी नहीं है।

साफ है, बीसीसीआई के रसूखदार और मनमाने ढंग से चलाने वाले लोग अब इसको चला नहीं पाएंगे।

वैसे, सरकार एक कानून बनाने की तैयारी मे तो रही लेकिन हुआ कुछ नहीं। वैसे डेढ़ दशक पहले जब दक्षिण अफ्रीका के कप्तान हैंसी क्रोनिये पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था, तब 2001 में प्रिवेंशन ऑफ डिसऑनेस्टी इन स्पोर्ट्स बिल तैयार किया गया था, किंतु कुछ दिन बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। बता तो चुका ही हूं कि उस आरोप को डेढ़ दशक बीत गए, हुआ कुछ नहीं।

यूरोप की तरह हमारे देश में खेलों पर सट्टा नहीं लगाया जा सकता। फिक्की का अनुमान है कि भारत में हर साल सिर्फ क्रिकेट पर तीन लाख करोड़ का सट्टा लगता है, जो देश में काले धन का सबसे बड़ा ज़रिया है। अलग कानून न होने से सट्टेबाजों पर धोखाधड़ी और आपराधिक षड्यंत्र की धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाता है। ऐसे में वे अकसर बच जाते हैं या मामूली सजा पाकर छूट जाते हैं।

याद दिला दूं कि देशभर के खेल संगठनों की जवाबदेही तय करने और उनके चुनाव निष्पक्ष कराने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने स्पोर्ट्स डेवलपमेंट बिल पारित कराने का प्रयास किया था। इस बिल में बीसीसीआई को सूचना के अधिकार के तहत लाने का प्रावधान भी था, जिसका तब के कैबिनेट के करीब आधा दर्जन मंत्रियों ने कड़ा विरोध किया। ये सभी मंत्री सीधे-सीधे बीसीसीआई से जुड़े थे और किसी भी सूरत में देश के सबसे धनी खेल संगठन को जवाबदेही और पारदर्शिता की ज़द में लाने को राजी नहीं थे। लेकिन अब यदि सरकार पुराना विधेयक ही ले आए, तब उसका खुलेआम विरोध करने का साहस शायद ही कोई नेता कर पाए।

बताते चलें कि बीसीसीआई एक गैर-मुनाफे वाली निजी संस्था के तौर पर रजिस्टर्ड है, जिसका संचालन गैर-पेशेवर लोगों के हाथों में है। संस्था निजी है फिर भी जो टीम चुनती है, वह भारतीय क्रिकेट टीम कहलाती है। हिंदुस्तान दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसके खिलाड़ी अपनी टोपी पर राष्ट्रीय चिह्न नहीं, बीसीसीआई का लोगो लगाते हैं। बोर्ड का मकसद मुनाफा कमाना नहीं है, फिर भी उसके खाते में अरबों रुपये हैं। वह हर साल अपनी इकाइयों को करोड़ों रूपये बांटता है, फिर भी उसकी दौलत बढ़ती जाती है।

जिस अनुपात में बोर्ड का मुनाफा बढ़ रहा है, उसी अनुपात में नेताओं और उद्योगपतियों की क्रिकेट में दिलचस्पी बढ़ रही है और इसी हिसाब से झगड़ों में इजाफा भी हो रहा है। अब बड़े मंत्रियों-नेताओ-नौकरशाहों में इतना अधिक क्रिकेट को लेकर दिलचस्पी इसी रूपये को लेकर है। सौरभ-सचिन-लक्ष्मण की तिकड़ी ने क्रिकेट का कोच चुनने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वक्त आ गया है कि खेल से जुड़े लोगों को ही अब बीसीसीआई चलाने की जिम्मेदारी भी दी जाए।

मंजीत ठाकुर

Monday, November 26, 2012

हा सचिन! हा हा सचिन

बात तब की है जब हमारी मूंछों के बाल उगे नहीं थे। तब तक सन् 94 नहीं आया था। तब तक सचिन ने सिंगर कप में पहला सैकड़ा नहीं जड़ा था। लेकिन तब भी, वो अपने खेल और अपने अंदाज़ और अपनी प्रतिबद्धता से इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि बूस्ट का विज्ञापन करती और लोकप्रिय क्रिकेट पत्रिका क्रिकेट सम्राट में छपा उनका पोस्टर  हमारी पढ़ने की मेजो के सामने आकर चिपक गया था।

पोस्टर बनकर चिपकने वाले सचिन आज कहां चिपक रहा है, कहां खो गया है हमारा सचिन। हमें लग रहा था कि कुछ खराब प्रदर्शनों के बाद सचिन अपनी लय में लौटेंगे। न्यूज़ीलैंड के खिलाफ़ हमें लगा था कि सचिन शतक न जड़ें, लेकिन अच्छा खेलेंगे। हम 4-0 से हारे।

मैं पराजयों के आंकड़ो में यकीन नहीं करता। लेकिन सचिन का इस तरह पराजयी भाव दिखाना, एक राष्ट्र के रूप में हमें पस्त करता है। हमने महंगाई झेल ली, हम बेरोजगारी झेल गए, हम तस्करी घोटाले सब झेल गए, क्योंकि परदे पर पहले अमिताभ ने हमारे गुस्से को आवाज दी, और फिर इन्ही निराशा-हताशाओं से उबारने के लिए ज्यादा आक्रामक सचिन तेंदुलकर हमें मिला।

वही, तेंदुलकर, जिसने  ऑस्ट्रेलिया से लेकर इंगलैंड सबको धुना...पाकिस्तान के सामने, जिसे हम धुर विरोधी मानते आए हैं, हमारी पराजय का सिलसिला खत्म किया...आज घुटने टेक रहा है।

यह मसला सिर्फ एक शख्स के संन्यास का नही। चालीस की उम्र के पास पहुंच रहे व्यक्ति को जिसने राष्ट्र के लिए और अपने लिए भी ढेर सारी इज़्ज़त कमाई हो, उसे संन्यास का फ़ैसला खुद लेने देने की छूट मिलनी चाहिए। लेकिन, क्या सचिन 200 टेस्ट मैच खेलने का रेकॉर्ड कायम करने के लिए रूके हैं।

मैं सचिन को लेकर भावुक हो जाता हूं क्योंकि एक आम हिंदुस्तानी की तरह सचिन हमारे दिलों में बसते हैं। रणजी मैच में कितना अच्छा खेले थे सचिन। अब क्यों छीछालेदर करवा रहे हैं।

हम ये कत्तई नहीं चाहते कि सचिन हर मैच में सैंकड़ा ठोंके। हम चाहते हैं कि अगर लोग उन्हें सम्राट, या गॉड कहते हैं, तो उस पदवी के साथ वो खुद न्याय करें। जिस पिच पर पुजारा खेल सकते हैं, जिसपर गंभीर रूके रहे...इन दोनों क्रिकेटरों का कुल अनुभव सचिन के रणजी अनुभव से ज्यादा नहीं।

अब या तो सचिन ज्यादा सावधानी के चक्कर में पिट रहे हैं, या फिर उम्र उन पर हावी होती जा रही है।

अपने नायक की ऐसी दुर्गति मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही...सचिन, मैं अपने बेटे को अज़हर, मोंगिया, या जडेजा नहीं बनाना चाहता था. मैं उसे धोनी या सहवाग भी नहीं बनाना चाहता था। आप ऐसे विहेब करेगे, तो मैं उसे कैसा बनने को कहूंगा।

याद रखिए सचिन, ईश्वर एक वर्चुअल पद है...और उसे भी एक दिन संन्यास ले लेना चाहिए, वो भी बाइज्ज़त।




Tuesday, August 21, 2012

ये लक्ष्मण नहीं, कारीगर का संन्यास है...

मुझे नहीं पता कि ज्यादातर लोग वीवीएस लक्ष्मण की किस छवि को याद रखेंगे...मुझे उऩकी वही छवि याद है जो बल्ले के इस कलाकार के लिए सबसे मुफीद है। पीले हैंडल वाले बल्ले को एक हाथ से  और दूसरे में अपना हैलमेट उठाए हुए दर्शकों का अभिवादन स्वीकार करते हुए।

लक्ष्मण विजेता नहीं रहे, वो पूरी टीम के बिखर जाने  पर आखिर कोशिश कर रहे योद्धा रहे। जब क्रिकेट के बड़े बड़े सूरमा नाकाम हो जाते, तब किसी द्रविड़ के साथ लक्ष्मण  को जूझते देखा। ऑस्ट्रेलिया जैसी विजेता टीम के मंह से फॉलोऑन के बाद मैच खींच लेना बस लक्ष्मण  के बूते की ही बात थी।


लक्ष्मण हैदराबाद की कलाईयों के जादू की रवायत के हकदार रहे थे, उनके बाद अब कौन....

हमने उन्हें कभी छक्का उड़ाते नहीं देखा। शायद उड़ाया भी हो, लेकिन ऐसे लॉफ्टेट शॉट खेलना उनकी शैली के विपरीत था। हम तो उन्हे कलाईय़ों के जादूगर के रूप में जानते रहे। गेंद पैड की तरफ आई नहीं कि सीमारेखा के पार।

करिअर में कई बार चोटिल होने और टीम से बाहर होने के बाद लक्ष्मण को खुद की अहमियत साबित करने में वक्त लगा था। लेकिन एक बार जब स्थापित हो गए, तो लक्ष्मण टेस्ट टीम के लिए अपरिहार्य हो गए।

गांगुली की टेस्ट टीम को स्थापित करने में और माही की टीम के नंबर एक तक ले जाने मे लक्ष्मण की भूमिका पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। बस मुझे दिक्कत हुई तो यही कि अब जबकि 20-ट्वेंटी से हम जैसे क्रिकेट प्रशंसकों का मोह भंग हो गया है और वनडे में कोई मज़ा रहा नहीं, तो टेस्ट में ही क्रिकेट अपने शास्त्रीय रूप में मौजूद है।

लक्ष्मण जैसे कारीगर के, जो छेनी हथौड़ी से बारीकी से नक्शबंदी की तरह अपनी पारी की नक्काशी करते थे, उनके विलो के बल्ले के प्रहार और लेदर की गेंद के टकराहट से जो संगीत पैदा होता था, अब कहां मिलेगा। गेंद पर प्रहार सहवाग भी करते हैं, लेकिन उनके प्रहार में मारक कर्कशता होती है, लक्ष्मण के प्रहार में संगीत होता था।

लक्ष्मण का संन्यास लेना तय था। बढ़ती हुई उम्र आज नहीं तो कल, उन्हे संन्यास लेने पर मजबूर करती ही, लेकिन क्या ही अच्छा होता कि इतने बड़े खिलाडी़ को एक उम्दा पारी खेलने के बाद संन्यास लेने दिया जाता।




Tuesday, March 13, 2012

क्रिकेट-एक भलेमानस का सन्यास

आज नीलम शर्मा के साथ क्रिकेट पर एक बहुत संक्षिप्त बातचीत हुई। जब कल के सचिन के संभावित महाशतक की बात की, तो उन्होंने मुझसे कहा कितने धैर्यवान् हो कि अब भी सचिन के महाशतक बल्कि क्रिकेट की बातें कर लेते हो।

यह बात छेद गई। उन दिनों जब किशोरवय सचिन बूस्ट के विज्ञापन में कपिल के साथ आया करते थे और स्टारडम उन्हें छू भी न गया था। क्रिकेट सम्राट ने सोने की प्रॉमिनेंट जंजीर दिखाता उनका एक पोस्टर छापा था। तब से मेरे पढ़ने वाली मेज के सामने सचिन आ जमे थे। सचिन देखते-देखते क्रिकेट के भगवान हो गए। उन्हीं कुछ सालों बाद द्रविड़ और गांगुली टीम में आए थे। भारत की मजबूत दीवार बन गए द्रविड़ ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया है।
विजयी दीवार
बच्चे थे तो द्रविड़ की धीमी बल्लेबाज़ी हमें बोर करती थी। दरअसल, सचिन की आक्रामकता ने बल्लेबाजी को नए आयाम दिए थे। लेकिन द्रविड़ की बल्लेबाजी ने क्रिकेटीय कौशल की गहराई और गहन धैर्य की मिसाल पेश की। क्रिकेट से मोहभंग के दौर में भी राहुल द्रविड़ एक विश्वास की डोर की तरह रहे, जिनकी नीयत पर किसी को संदेह न था। यहां तक कि भगवान तेंद्या पर भी लोगों ने अपने लिए खेलने के आरोप जड़े, लेकिन द्रविड़ पर धीमा खेलने के सिवा कोई छींटा तक नहीं।

अपने करिअर की शुरुआत में समझबूझ कर शॉट चयन की आदत से वह एकदिवसीय टीम से बाहर हो चुके थे और तब उनने हर गेंद पर शॉट लगानेवाला अपना बयान दिया था। टेस्ट में द्रविड़ भरोसे का प्रतीक बनते चले गए। लेकिन इस भरोसे के बावजूद किसी ने उनसे चमत्कार की उम्मीद नहीं की थी। आखिर, वीवीएस वेरी वेरी स्पेशल बने जब ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उनने कोलकाता टेस्ट फॉलोऑन के मुंह से खींच लिया था, लेकिन किसी को याद भी है कि उसी पारी में वीवीएस को राहुल ने 180 रन का साथ दिया था। राहुल को कभी किसी ने लारा या सचिन जैसा महान नहीं माना। हमने भी नहीं। राहुल बल्ले का जादूगर नहीं, बल्ले का मजदूर था।

अगर वह फंसे हुए मैच में शतक लगा देता तो भी, या शतक पूरा करने के पांच रनों के लिए 20-25 गेंद खेलकर झिलाता तो भी। कभी 21 गेंदों में 50 रन ठोंक देता या ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ 233 रन बनाकर पासा पलट देता। भारत का पहला विकेट जल्दी गिर जाता- और विदेशों में प्रायः पहला विकेट जल्दी गिर ही जाता था-यही निकलता- अरे, द्रविड़ है ना! हमने उसे हमेशा फोर ग्रांटेट लिया। और खिलाड़ी जहां एक एक रन से हीरो हो गए, द्रविड़ शतक ठोंककर भी हमारे जश्‍न का कारण नहीं बन पाया।

सचिन व लारा महान होने के लिए ही पैदा हुए थे। द्रविड़ ने अपनी किस्मत खुद लिखी। द्रविड़ के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए मैं कोई आंकड़ा नहीं दूंगा, 2001 का कोलकाता,  2002 का जॉर्ज टाउन, 2002 में ही लीड्स, 2003 में एडीलेड और 2004 में रावलपिंडी के विकेटों पर उसके पसीने की बूंदों ने वहां की माटी में द्रविड़ की दास्तान बिखरी है।

द्रविड़,टेस्‍ट क्रिकेट का वह बेटा रहा जिसने कभी कोई मांग नहीं की। जो मिला उसी में खुश होता गया। वह हमारे दौर या पूरे इतिहास में टेस्‍ट क्रिकेट का सबसे होनहार, मेहनती व अनडिमांडिंग बेटा रहा है।

द्रविड़ के टेस्ट मैचों को अलविदा कहने के बाद हमारे पास कितने खांटी क्रिकेटर रह जाएंगे? विज्ञापनी बादशाह धोनी तो टेस्ट खेलना ही नहीं चाहतेबाकी बच्चे लोगों को न तो टेस्ट की समझ है और न ही उनका टेस्ट  वैसा है

अभी द्रविड़ का जाना शायद उतना न खले, क्योंकि अभी टेस्ट मैच हैं नहीं। लेकिन कुछ महीनों बाद जब टेस्ट मैच में सहवाग हमेशा की तरह अपना विकेट फेंक कर पवेलियन लौट जाएंगे, तब तीसरे नंबर पर बल्लेबाजी करने वाले की रक्षा प्रणाली की व्याख्या करते समय हर कोई यही कहेगा, द्रविड़ होते तो इस गेंद को ऐसे खेलते, ऐसे डिग करते, या वैसे मारते।

भलेमानसों के खेल से एक और भलामानस कम हो गया है....।

Saturday, August 13, 2011

हार या हाराकिरीः क्रिकेट के रणछोड़

भारत की टीम के तीसरे टेस्ट मैच भी हारने के बाद, मैं कोई विशेषण नहीं जोड़ूंगा, कुमार आलोक ने अपने फेसबुक स्टेटस को कुछ यूं अपडेट किया है, "भारतीय क्रिकेट टीम की इस हार ने स्पस्ट कर दिया कि खूब खेलो आपीएल..देश को झोंक दो ...कोइ शब्द नही है मेरे पास ..फैज का ये कलाम काफी होगा।

जब अर्जे खुदा के काबे से ।
सब बुत उठाये जायेंगे ।
हम अहले-सफा- महदूदे करम।
...मनसद पे बिठाये जायेंगे।
सब ताज उछाले जायेंगे ।
सब तख्त गिराये जायेंगे। "
हम भारतीय इतने भावुक हैं  कि अपनी टीम के हारते ही उसे जमकर कोसते हैं। उन्हीं खिलाडियों को जिन्हे विश्वकप का ताज पहनते ही, और टेस्ट में भी दुनिया की अव्वल टीम बनते ही हमने उन्हें सर-आंखों पर बिठाया था।
इंग्लैंड के हाथों तीसरे टेस्ट में एक पारी और 242 रनों की करारी हार के बाद भारत ने टेस्ट टीम में नंबर वन की हैसियत खो दी है। इसके साथ ही आईसीसी टेस्ट रैंकिंग शुरु होने के बाद 32 वर्षों में इंग्लैंड पहली बार टेस्ट रैंकिंग में पहले नंबर पर पहुँचा है।

भारत की सबसे बुरी हारों में से एक है नॉटिंघम की हार

बहरहाल, ये ऐसी खबरें हैं जो आप तक पहुंच गई होंगी और टीवी चैनलों ने इसे विभिन्न कोणों से खींचा और ताना भी होगा।

लेकिन, इस श्रृंखला में कुछ ऐसा हुआ है वह अनोखा है। हार-जीत भले ही खेल का हिस्सा होता है लेकिन भारत की टीम जिस तरह से छितरा गई, वह भौंचक्का कर देने वाली है। हार जीत को खेल का हिस्सा मानने वाले भी यह जरुर मानते हैं कि जीत या हार का तरीका ही जीत या हार को शालीन बना देता है।

इंगलैंड में भारत की करारी हार संभवतः शालीन तो नहीं कही जाएगी।

मुकाबला होने से पहले हार मान लेना, या इच्छाशक्ति की कमी, इसी ने हारों को अशालीनता में तब्दील कर दिया। टेस्ट मैचों में दुनिया की नंबर एक टीम से यह उम्मीद की जा रही थी, कि वह अगर उम्दा टीम है तो वह मुश्किल हालातों से जूझने का दम दिखाए। प्रतिकूल हालातों में ढल जाने की बात तो दूर, ज्यादातर विज्ञापनों में दिखते रहने वाले भारत के बल्लेबाज, विकेट पर टिकते कम ही दिखे। पांच दिन...तीनों मैच तयशुदा वक्त से पहले खत्म हो गए।

हवा में कलाबाजियां खाती गेंदों पर चम्मच भिडाकर हमारे बल्लेबाज़ पवेलियन लौटते रहे। पहले दो मैचों में प्रतिष्ठा के अनुरुप प्रदर्शन करने वाले द्रविड़ और लक्ष्मण ने भी तीसरे मैच में हथियार डाल दिए।

सहवाग के नाम का बहुत हल्ला था। लेकिन तीसरे मैच में दोनों पारियां मिला कर कुल दो गेंदें वो खेल पाए। शेर है, बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, काटा तो कतरा-ए-खूं न निकला। दोनों पारियों में शून्य। तीसरे मैच में सिर्फ और सिर्फ धोनी ही बल्लेबाजी कर पाए वह भी ठेठ अपने अंदाज में ही। इससे साबित यही होता है कि अपने अंदाज को बदले बिना भी बैटिंग की जा सकती है।

सचिन पर लोग जरुर उंगली उठाएंगे। लेकिन यही सही वक्त है जब ऐसी जिम्मेदारियां सचिन के अलावा बाकी के लोगों पर भी डाली जाएं। सचिन के अवकाश के वक्त में बहुत देर नहीं है।

पूरे दौरे में, हवा में घूमती गेंदों ने टीम को परेशान रखा है। साथ ही, बदतर फुटवर्क, और छोटी  गेंदों को खेलने में हो रही परेशानियां...रैना की असलियत खुलकर सामने आ गई। रैना ने हर बार पसलियों पर आती गेंद को डक करने की बजाय हुक करने की कोशिश की। रैना की तकनीक में बड़ी गंभीर खामी है। युवराज भी उछलती गेंदों की उछलकर पिच पर गिराने की हास्यापद कोशिश करते हैं।

जीत के लिहाज से इयान बेल को वापस बुलाने का फैसला भी गलत रहा। ऐसे नैतिकता भरे फैसले 30 साल पहले किए जाते थे। यह काम अब अंपायरों के लिए ही रहना चाहिए।

टेस्ट क्रिकेट में नंबर एक टीम के लगातार इस तरह हारने से लाज और ताज दोनों गए हैं। जूझने और इंस्टिक्ट की जो कमी हमें दिखी है, और अपने विकेट फेंकने की जो कला भारतीय कला भारतीय खिलाड़ियों ने दिखाई है। वह सिर्फ हार या हाराकिरी से नहीं जुड़ी है। डर है कि कहीं हमारे खिलाड़ीयों में क्रिकेट को लेकर संजीदगी तो कम नहीं हो गई?