Friday, April 26, 2019

क्या उपेंद्र कुशवाहा नाकाम मौसम विज्ञानी साबित होंगे?

भारतीय राजनीतिक पत्रकारिता के हालिया शब्दावलियों में एक शब्द ने आजकल आया राम, गया राम जैसे पद का स्थान ले लिया है और वह हैः मौसम वैज्ञानिक. जाहिरा तौर पर इस शब्द का इस्तेमाल रामविलास पासवान के लिए किया जाता है क्योंकि हवा के रुख को जितनी चतुराई से पासवान भांप जाते और इसी के मुताबिक आले पर दिया रख देते हैं, वैसी मिसाल कम ही है.

बिहार में कुशवाहा (पढ़ें, कोयरी, एक खेतिहर जाति) के स्वयंभू नेता उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने इस बार एनडीए का दामन छोड़कर महागठबंधन का पल्लू थाम लिया और उन्हें पांच सीटें मिल भी गईं. रालोसपा को इतनी अधिक सीटें मिलना एक तरह से साबित करता है कि कुशवाहा ने तेजस्वी से कड़ा मोलभाव किया होगा और तेजस्वी विपक्षी दलों के गठजोड़ को लेकर इतने बेचैन थे कि उन्होंने शर्तें मान भी लीं.

पर सियासी तौर पर शायद कुशवाहा ने थोड़ी अपरिपक्वता दिखा दी है. खासतौर पर तब, जब सीटें जीतना भी उतना ही महत्वपूर्ण हो. ज्यादा वक्त नहीं बीता जब समता पार्टी में नीतीश कुमार के बाद कुशवाहा नंबर दो की कुरसी पर काबिज थे. 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद जब बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड, भाजपा से बड़ी पार्टी बनी थी तो नीतीश ने कुशवाहा को विपक्षी दल का नेता बनवा दिया था. उस वक्त कुशवाहा की राजनीतिक जमीन उतनी पुख्ता नहीं थी. कुशवाहा पहली बार साल 2000 में विधायक बने थे और पहली बार में ही वह विपक्षी दल के नेता बन बैठे. तब नीतीश कुमार ने कुशवाहा में शायद कोई सियासी समीकरण देख लिया था.

लेकिन, 2005 में राजद के खिलाफ बिहार में नीतीश की लहर चली तो उस लहर में भी एनडीए के उम्मीदवार रहे कुशवाहा चुनाव में खेत रहे.

इस घटना ने नीतीश को कुशवाहा से दूर कर दिया. उपेंद्र कुशवाहा मत्री बनना चाहते थे पर जदयू ने उनकी जगह संगठन में तय कर दिया. पर शायद यह कुशवाहा को अधिक भाया नहीं और 2006 में वह राकांपा में शामिल हो गए.

हाल में, एनडीए से अलग होने पर बंगला खाली करने पर कुशवाहा ने विरोध प्रदर्शन किया था और लाठी चार्ज में कुशवाहा को चोट भी आई थी. उनकी जख्मी हालत में तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब देखी-दिखाई गई. पर कुशवाहा का यह पैंतरा पुराना है. 2005 में चुनाव हारने के बावूजद, कुशवाहा विरोधी दल के नेता के तौर पर मिले बंगले में तीन साल तक काबिज रहे थे और 2008 में उनसे जबरिया यह बंगला खाली करवाना पड़ा था. उस वक्त भी उनकी तब की पार्टी राकांपा ने बिहार में धरना-प्रदर्शन किया था. तब भी बंगला खाली करने को इन्होंने कोयरी समाज के अपमान से जोड़ दिया था.

पर, कुशवाहा के कामकाज से राकांपा प्रमुख शरद पवार कत्तई संतुष्ट नहीं थे और 2008 में पवार ने न सिर्फ कुशवाहार को पार्टी से बर्खास्त कर दिया बल्कि पार्टी की बिहार इकाई को ही भंग कर दिया. तब कुशवाहा ने अपनी नई पार्टी गठित की थी. नई पार्टी कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पाई और कुशवाहा राजनीतिक बियाबान में चले गए. 2010 के विधानसभा चुनावों में जद-यू के तब के अध्यक्ष और कभी नीतीश के प्रिय पात्र ललन सिंह और नीतीश में खटपट हुई और ललन सिंह ने पार्टी छोड़ दी. मौका भांपकर कुशवाहा नीतीश की छत्रछाया में लौट आए. पर 2012 में ललन सिंह की पार्टी में वापसी के साथ ही कुशवाहा ने न सिर्फ पार्टी छोड़ी और राज्यसभा से भी इस्तीफा दे दिया.

फिर अस्तित्व में आई राष्ट्रीय लोक समता पार्टी यानी रालोसपा. 2014 में जब नीतीश की भाजपा के साथ कुट्टी हो गई थी तब कुशवाहा ने एनडीए में जुड़ जाना बेहतर समझा. नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर में एनडीए ने रालोसपा को तीन सीटें दी और पार्टी तीनों जीत गई. हैरतअंगेज तौर पर सीतामढ़ी सीट से कुशवाहा ने अज्ञातकुलशील राम कुमार शर्मा को टिकट दिया जो एक गांव के मुखिया भर थे. आज भी यह रहस्य ही है कि कुशवाहा ने एक मुखिया को सीधे सांसदी का टिकट कैसे दे दिया.

2015 में विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे में काफी कलह के बाद कुशवाहा की पार्टी महज 2 सीटें ही जीत पाई. खुद अपने कुशवाहा समाज का वोट भी वे एनडीए में ट्रांसफर करा पाने में नाकाम रहे.

अब जबकि, कुशवाहा को पांच सीटें मिल चुकी हैं और उन पर उनकी ही पार्टी के नेता टिकट बेचने तक का आरोप लगा चुके हैं...यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि क्या उपेंद्र कुशवाहा ने सीटों की संख्या बढ़ाने के लालच में जीतने लायक सीटें छोड़ दी हैं?

सियासी हवा का रुख भांपने में माहिर पासवान एनडीए में ही बने हुए हैं और ओपिनियन पोल भी जो आंकड़े दे रहे हैं वह बिहार में महागठबंधन के लिए बहुत उत्साहजनक तस्वीर पेश नहीं कर रही. खुद रालोसपा तीनेक सीटें जीत भी जाए और खुदा न खास्ता केंद्र में एनडीए सरकार ही बनी तो फिर उपेंद्र कुशवाहा 23 मई के बाद क्या करेंगे?



Thursday, April 11, 2019

सत्ता की हसरत में कसरत करते पटनायक

ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बहत्तर साल के हैं, फिर भी जिम में हिंदी फिल्मों के नायकों की तरह सारी कसरतें कर रहे हैं. बीजू पटनायक से विरासत में सत्ता हासिल करने वाले तकरीबन राजकुमार और संपूर्ण मितभाषी नवीन पटनायक को आखिर अपनी कसरत करते हुए वीडियो क्यों जारी करना पड़ा. उनकी पार्टी ने यह वीडियो जारी किया, कई पत्रकारों को बुलाकर वर्जिश करते हुए वीडियो बनवाए, इंटरव्यू भी दिया. सवाल हैः क्यों? जवाब है सियासत. सियासत ऐसी शै है जो, नेताओं से जो न करवा ले सो कम.

बहत्तर साल की उम्र में नवीन पटनायक अपनी सेहत को लेकर परेशान हों न हों (आसमान उनके अच्छी सेहत बख्शे), अलबत्ता सेहत को लेकर चल रही अटकलों से पटनायक परेशान थे.

सोमवार को उन्होंने एक टीवी चैनल को एक्सरसाइज करते हुए भी इंटरव्यू दिया. बाद में टहलते हुए (वाक दि टाक) भी बातचीत की. पटनायक बेहद सावधान हैं कि ऐसा कुछ न दिखे जिससे किसी को उनकी सेहत पर टिप्पणी का मौका मिल पाए. तो फिर उनके स्वास्थ्य पर यह चर्चा कैसी? पटनायक इसका ठीकरा पूर्व सांसद भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष और केंद्रपाड़ा से लोकसभा प्रत्याशी बैजयंत पांडा पर फोड़ते हैं. पटनायक कहते हैं, सेहत को लेकर अफवाह फैलाने उन्हीं ने फैलाई है.

ओडिशा के मुख्यमंत्री अभी लोकसभा और विधानसभा दो मोर्चे पर भाजपा की चुनौती से मुकाबिल हैं. और जनता के बीच उनके बीमार होने की खबरें, उनके सियासी भविष्य पर सवालिया निशान लगा सकती थीं. पहले भी उनकी सेहत पर सवाल उठाए जाते रहे हैं. सवाल यह भी उठते थे कि नवीन पटनायक के बाद कौन. जाहिर है ऐसे सवाल चुनाव से जूझ रहे नेता को परेशान करने के लिए काफी होते हैं. इन सवालों पर पटनायक का जवाब होता थाः वारिस तो बीजेडी और ओडिशा के लोग तय करेंगे. पर सियासी गलियारों में उनकी बहन गीता मेहता का नाम उछलने लगा था.

अटकलें थीं कि नवीन पटनायक की गिरती सेहत के कारण हो सकता है कि गीता मेहता कमान संभाल लें. पर पहले तो पटनायक ने गीता मेहता के राजनीति में न आने की बात कही, फिर अपनी फिटनेस को साबित करने वाले वीडियो के साथ आए.

बहरहाल, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उनकी सेहत और ओडिया ज्ञान को चुनावी मुद्दा बना डाला है. पिछली कुछ सभाओं में शाह ने यह भी कहा कि अबकी बार सीएम ऐसा हो जिसे खूब ओडिया आती हो.

पटनायक इस पर भी रक्षात्मक मुद्रा में आए और एक टीवी चैनल को बताया कि उनकी ओडिया भाषा कुछ लोग नाहक सवाल उठाते हैं. जबकि उन्हें ओडिया आती है. बदले में वह भाजपा पर कंधमाल का मामला उछाल रहे हैं. सवाल घूम-फिरकर यही आता है कि बजाए जनता की सेहत के ओडिशा में नवीन पटनायक की सेहत चुनावी मुद्दा क्यों है और अगर है तो उसका जवाब देने की जरूरत क्या थी?

असल में, ओडिशा में भाजपा धुआंधार रैलियां कर रही हैं और उसकी रणनीति है कि वह इस बार ओडिशा में अपनी सीटों की गिनती बढ़ाए. पिछली लोकसभा में ओडिशा से भाजपा को महज एक सीट मिली थी. बाकी की बीस सीटें नवीन पटनायक के खाते में थीं. खराब सेहत का सवाल नवीन पटनायक के जादू को कमजोर कर सकता है और लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनावों में अब तक वोट उन्हीं के नाम पर पड़ते रहे हैं.

अगर सियासत के रणक्षेत्र में नवीन पटनायक जैसा महारथी सेहत के नाम पर कमजोर दिखा तो जाहिर है वोट भी कम पड़ेंगे. वोटर यह तो नहीं चाहेगा कि उनका नेता बीमार हो.

ऐसे में ओडिशा में जब कांग्रेस नई तैयारी के साथ मैदान में है और भाजपा नई चुनौती के रूप में सामने है. नवीन पटनायक खुद को फिट बताने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. वीडियो उनकी फिटनेस साबित भी कर रहा है, पर उसके साथ ही यह भी साबित कर रहा है कि इस बार पटनायक के लिए चुनावी चुनौती पिछली बार की तुलना में कहीं अधिक कठिन है और वे उसे हल्के में नहीं ले सकते.

बहरहाल, बिना इस बात पर कोई शक किए कि नवीन पटनायक चुस्त-दुरुस्त हैं. जिम वाली सारी कसरतें ठीक-ठाक कर ले रहे हैं. वजन उठा पा रहे हैं. यह कसरत पांचवीं बार लगातार मुख्यमंत्री बनने और सत्ता में लौटने की उनकी हसरत भी पूरी कर देगा. चुनांचे, हमें बस एक सवाल कोंच रहा है कि सेहतमंद मुख्यमंत्री की जनता की सेहत की हालत क्या है.