Tuesday, April 7, 2009

''अच्छे-अच्छे काम करते जाना-3

वरुण देवता का प्रसाद गांव अपनी अंजुली में भर लेता था.

और जहां प्रसाद कम मिलता है? वहां तो उसका एक कण, एक बूंद भी भला कैसे बगरने दी जा सकती थी. देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हजारों गांवों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं. गांवों के नाम के साथ ही जुड़ा है 'सर'. सर यानी तालाब. सर नहीं तो गांव कहां? यहां तो आप तालाब गिनने के बदले गांव ही गिनते जाएं और फिर इस जोड़ में 2 या 3 से गुणा कर दें.

जहां आबादी में गुणा हुआ और शहर बना, वहां भी पानी न तो उधार लिया गया, न आज के शहरों की तरह कहीं और से चुरा कर लाया गया. शहर ने भी गांवों की तरह ही अपना इंतज़ाम खुद किया. अन्य शहरों की बात बाद में, एक समय की दिल्ली में कोई 350 छोटे-बड़े तालाबों का जिक्र मिलता है.गांव से शहर, शहर से राज्य पर आएं. फिर रीवा रियासत लौटें. आज के मापदंड से यह पिछड़ा हिस्सा कहलाता है. लेकिन पानी के इंतज़ाम के हिसाब से देखें तो पिछली सदी में वहां सब मिलाकर कोई 5000 तालाब थे.

नीचे दक्षिण के राज्यों को देखें तो आज़ादी मिलने से कोई सौ बरस पहले तक मद्रास प्रेसिडेंसी में 53000 तालाब गिने गए थे. वहां सन् 1885 में सिर्फ 14 जिलों में कोई 43000 तालाबों पर काम चल रहा था. इसी तरह मैसूर राज्य में उपेक्षा के ताजे दौर में, सन् 1980 तक में कोई 39000 तालाब किसी न किसी रूप में लोगों की सेवा कर रहे थे.

इधर-उधर बिखरे ये सारे आंकड़े एक जगह रख कर देखें तो कहा जा सकता है कि इस सदी के प्रारंभ में आषाढ़ के पहले दिन से भादों के अंतिम दिन तक कोई 11 से 12 लाख तालाब भर जाते थे- और अगले जेठ तक वरुण देवता का कुछ न कुछ प्रसाद बांटते रहते थे. क्योंकि लोग अच्छे-अच्छे काम करते जाते थे.

आज भी खरे हैं तालाब एक किताब पढी है हाल में... गांधी शांति प्रतिष्ठान की, जानकारी भी बढ़ी। ऐसी जानकारियां जो मेरे घर की हैं लेकिन खुद नहीं जानता था मैं... सो सोचा कुछ आप लोगो से भी बांट
लूँ


2 comments:

शोभा said...

jaankari dene ke liye shukriya

डॉ .अनुराग said...

सच में प्रकति का संतुलन हमी लोगो ने बिगाडा है ,अंधाधुंध दोहन करके .आने वाली नसले हमें कभी माफ़ नहीं करेगी...