Wednesday, February 15, 2012

शहरयार का जाना..

कल शाम रितु वर्मा का मेसेज आय़ा...शहरयार पर कुछ लिख रहे हो? तब तक ये पता न था कि शहरयार नहीं रहे...फिर नेट पर ही शहरयार को बहुत पढा।


मुझे लगा कि शहरयार जैसे ब़ड़े शायर पर लिखने के लिए मैं बहुत छोटा इंसान हूं।

जिस शायर की शायरी, जिनकी पोएट्री बरगद के पेड़ सरीखी थी, जिसकी छांव में उदासी ही उदासी ही बिखरी नजर आती है, जिनके जिंदगी को देखने का अंदाज ही अलहदा था, उसके बारे में मैं क्या लिखूं।

शहरयार ने जिंदगी के भी एक अलग अंदाज में पेश किया. उनका यही अलहदा लहजा उनकी पहचान भी रहा। जिनके तईं हम शहरयार को जानते रहे। याद आ  रहा है, सीने में जलन दर्द का तूफ़ान-सा क्यूं है, इस शहर में हर शख्स परेशां-सा क्यूं है....सवाल अब भी अनुत्तरित है शहरयार साब।

अपने खास  लहजे में उन्होंने नज्में भी कहीं और खूबसूरत गजलें भी। 

इसे हमारे दौर की विडंबना ही कहना चाहिए कि एक बड़े शायर को शोहरत फिल्मों में इस्तेमाल की गई उनकी गजलों से मिली। जबकि वे गजलें एक अरसे से लिख रहे थे। बहरहाल अच्छा शायर इस शोहरत व नाम की परवाह करता तो शायद कुछ और करता शायरी न करता। शहरयार ने शायरी की और हमारे दौर के दर्द, उदासी, खालीपन समेत अनेक चीजों को उसमें पिरोते गए :

चमन दर चमन पायमाली रहे
हवा तेरा दामन न खाली रहे।
जहां मुअतरिफ हो तेरे कहर का
अबद तक तेरी बेमिसाली रहे।

---(स्रोत-कविताकोश)

यह पूरी गजल कुदरत के गुस्से का बयान करती है और शहरयार अपनी जुबां से कहते हैं कि जैसी जिंदगी हम जीने लगे हैं मुमकिन है उसका अंजाम कुछ ऐसा हो। वैसे इसका आखिरी शेर अलग मिजाज का है :

न मैली हो मेंहदी कभी हाथ की
सदा आंख काजल से काली रहे।

या फिर,

तू ही मुझसे अजनबी बनकर मिला हर मोड़ पर
मेरी आंखों में तो था रंगे शनासाई बहुत।

शेर उन्होंने किसी भी मूड के कहे हों उनमें गहरी उदासी का हिस्सा जरूर होता है। देखिए रात का जिक्र वे किस दर्द में डूबकर करते हैं :

पहले नहाई ओस में, फिर आंसुओं में रात
यूं बूंद-बूंद उतरी हमारे घरों में रात।
आंखों को सबकी नींद भी दी, ख्वाब भी दिए
हमको शुमार करती रही दुश्मनों में रात।


शहरयार की ही कविता थी, जिसमें जीना भी एक कारे-जुनूं है, उनके जाने के बाद याद आता है कि किसी को कभी मुकम्मल जहां नही मिलता, कहीं ज़मी तो कहीं आसमां नहीं मिलता.....शहरयार साब का जाना हमारे लिए हतोत्साहित होने की एक और बड़ी वजह है। हमें रौशनी दिखाने वाली मीनारें एक-एक कर गुजरती जा रही हैं। जोशी जी गए, जगजीत चले गए, देव साहब...और अब शहरयार...।


बड़े गौर से सुन रहा था ज़माना...तुम्ही सो गए दास्तां कहते कहते

1 comment:

प्रज्ञा पांडेय said...

shaharyaar saaheb ki gazalen aur nazmen unakii shaayari khud men alhadaa hai .unhen hamari vinmra shraddhanjali arpit hai