Sunday, July 15, 2012

सुनो ! मृगांका:17: जड़ो की ओर


आसमान में हल्की चांदनी का उजास आ गया। खडंजे के दोनों ओर खेत थे और वह खेतों से तकरीबन मीटर भर ऊंचाई पर था। चांद से लुका-छिपी खेलते हुए बादल के टुकड़े...। दोनों ओर खेतों में शकरकंद की कुछ लताएं आपस में लिपट-चिपट रही थीं, कुछ में यूं ही घास उग रही थी..लेकिन ज्यादातर खेत परती पड़े थे। दो महीने पहले ही गेहूं की कटाई हो गई थी और खेत उसकी याद को सीने से चिपटाए रो रहे थे। कुछ खेतों में मूंग की फसल जवान थी।

रिक्शे की खड़-खड़ अभिजीत को परेशान नहीं कर रही थी, बल्कि वह इस पूरे माहौल का मज़ा ले रहा था। हवा उसके बालों को उलझाए दे रही थी। लेकिन वह इन सबसे बेखबर था। अमराईयों में कोयल की कूकें थीं, झींगुर बोल रहे थे....जुगनुओं की आमद अच्छी थी। जुगनू कुछ  टोही विमानों की तरह इधर-उधर उड़ रहे थे। लग रहा था हीरे के टुकड़े हवा में बिखर गए हों। आम और जामुन के पेड़ों से आती खुशबू के बीच घोरन अपने सुर में गा रहे थे, कोरस की तरह। इन खेतों के बीत कहीं-कहीं कुछेक घर भी थे। बांस के फट्टों से बने, कभी-कभार ईँटों के भी।

कुछ घर ढिबरियों से रौशन थे। उनकी पीली रोशनी सफेद चांदनी के खजाने में सेंध की तरह थे। वह मुस्कुरा उठा। चुपचाप रिक्शे पर बैठा रहना अभिजीत को बहुत अखर रहा था। मुमकिन है कि रिक्शेवाले को भी..। जो भी हो, बातचीत की पहल रिक्शेवाले ने की।

" मालिक, आहां कतॅ सं आएल छी..?"  रिक्शेवाले  के मुँह में गुटखा भरा था, सो मुँह से आवाज़ साफ-साफ नहीं निकली, सो अभिजीत बेवकूफ की तरह उसका चेहरा देखता रहा। रिक्शेवाले ने अपना सवाल दुहराया- ' आप कहां से आए हैं..?'

'तुमने पहले क्या पूछा था मुझसे...?'

' मैथिली में पूछा था सर '

'क्या..?'

" कि आप कहां से आए हैं.." रिक्शेवाले ने पैडल मारना जारी रखा, लेकिन मुंह में भरे गुटखे के थूक को सड़के के किनारे सादर समर्पित कर दिया।
." दिल्ली से..."
." कहां जाएंगे मालिक.. मेरा मतलब है कि किसके घर जाना है आपको...."


" अरे भाई, अपने ही घर। पाकड़ के पेड़ के नीचे वाला। दुर्गाथान (थानः स्थान) के पास।

." कोई बात नहीं मालिक, बसदस मिनिट और .........।" रिक्शावाला अपनी रौ में था। अभिजीत से पूछते ही उसने अपना नाम बिसेसर मड़र बताया। मूल रूप से यह नाम विश्वेश्वर मंडल था। थोडी़ देर तक चुप्पी रही। फिर अभिजीत ही पूछा, ."अच्छा भई, कुछ बदला है कि नहीं लक्ष्मीपुर में?

." गांव तो हुजूर अच्छा ही है.. रामचंद्र भगवान को भी अपना ही गांव अच्छा लगता था.. कहते थे कि जनमभूमि जो है सो सुअर्ग से भी सुन्नर है।"

सो तो है बिसेसर...." अभिजीत को पहली बार लगा कि उसने क्या खो दिया है। अपना नाम, अपनी पहचान..अपनी जड़ें..और मृगांका...कुछ महीनों में ये जिंदगी भी....। लेकिन उसने मड़र को फिर  कुरेदा,." लेकिन कितना बड़ा हो गया है गांव अब....?"

."..तीन-साढे तीन हज़ार अबादी है, हुजूर। बाभन, हरिजन ,जादव, पासी कुम्हार सब तरह के लोग हैं।."

."क्या करते हैं लोग..."
." खेती और क्या...बाभन लोगों के बच्चे सहर में नौकरी करते हैं। खेती का काम बंटाई पर दिए हुए हैं। गांव में ज्यादातर जमीन आज भी बाभन-राजपूतों के हाथ में हैं, इधर गुआर मने जादब लोग भी बहोत तरक्की किया है और ऊ लोग भी बहोत जमीन खरीदा है।."

."सरकार कोई काम-वाम कर रही है...."

."नईं... सरकार काम तो करिये रही है..आज लछमीपुर में बैंक है, इस्कूल है, पोस्ट ऑफिस है, इधर उधर जाने के लिए दिन में दू बार बस मिलता है, कहते हैं कि बिकास नै हुआ है.. बिकास तो हुआ है। ...और एक छोटा सा चौक भी है.. छोटा-मोटा सामान मिल जाएगा आपको..."

." ...और ब्राह्मण लोग कैसे बिहेव करते हैं...."

." नईं पुराने लोग उनको देखके पायलागी करते हैं अभी भी.." रिक्शा बदस्तूर चल रहा था। ."लेकिन दिल्ली और पंजाब से कमाकर आया लड़का लोग ई सब नईं मानता है। पहिले भी इ सब होबे करता था, लेकिन जब से पटना में लालू परसाद मुखमंतरी बना है..तब से ई लोग बाबरी सीटने लगा है... हमरा बाई लोग भी बाभन लोग से झगड़ा फसाद करते रहते हैं.. हम तो समझाते हैं उनको लेकिन जबान खून मानता है कहीं.. न बाभन लोग का.. न हमरे लोगों का..."

."आप देखिएगा न.. जो आदमी इधर आया होगा दस साल पहिले.. उसको ऊपर से सबकुछ वैसा ही दिखाई देगा..बाढ के बाद का अटका हुआ पानी, ऊबड-खाबड, टूटल-फाटल रोड...वैसे नीतीस मुखमंतरी बना तो रोड बनबाया, लेकिन रोड बनाने से का होगा....रोड का मरम्मती नहीं कराइएगा तो रोडवा बरसात के पानी में टूटिए जाएगा...लेकिन भीतरे-भीतर बहुत चीज बदल गया है मालिक..।"

."जो काम सहर में सरकार पचास साल में नहीं कर सका है ऊ काम तो एके साल में पिराविट कंपनी कर दिया है.. एके साल में एयरटेल और रिलांयस का टावर गांव में लग गया है, बाभन लोग मोबाईल खरीद लिए हैं..राजपूतटोला में भी कुछ लोग के पास गुअरटोली में भी...."

." गांव में स्कूल भी है..?."

." हां जी है ना.. अब तो उसमें चार शय लड़का लोग पढ़ते हैं.. हमरी बचिया भी जाती है.. इस्कूल में छोटा जात लोग ही ज्यादा पढ़ते हैं..."

."क्यो..ब्राह्मणों के बच्चे पढ़ते नहीं..?."

." नहीं ऊ लोग तो बहुत पहिले ही सहर चले गए.. तो गाऊं के इस्कूल में हमीं लोग बचे हैं।."





क्रमशः 

6 comments:

Soumitra Roy said...

नईं पुराने लोग उनको देखके पायलागी करते हैं अभी भी.." रिक्शा बदस्तूर चल रहा था। ."लेकिन दिल्ली और पंजाब से कमाकर आया लड़का लोग ई सब नईं मानता है। पहिले भी इ सब होबे करता था, लेकिन जब से पटना में लालू परसाद मुखमंतरी बना है..तब से ई लोग बाबरी सीटने लगा है... बिसेसर की जबान से आपने अपनी बात बखूबी कहलवा दी है है मंजीत भाई। बहुत अच्‍छा लिखा है।

Soumitra Roy said...

नईं पुराने लोग उनको देखके पायलागी करते हैं अभी भी.." रिक्शा बदस्तूर चल रहा था। ."लेकिन दिल्ली और पंजाब से कमाकर आया लड़का लोग ई सब नईं मानता है। पहिले भी इ सब होबे करता था, लेकिन जब से पटना में लालू परसाद मुखमंतरी बना है..तब से ई लोग बाबरी सीटने लगा है... बिसेसर की जबान से आपने अपनी बात बखूबी कहलवा दी है है मंजीत भाई। बहुत अच्‍छा लिखा है।

sushant jha said...

गुड वन। बदलते बिहार की तस्वीर लिखी है तुमने। अब बराबरी का जमाना है और विकास का भी। ये ब्लॉग महज ब्लॉग नहीं है..हम अपने युग का दस्तावेज भी लिख रहे हैं।

प्रवीण पाण्डेय said...

सामाजिक सनसनाहट की हवा हर दीवार से टकरा रही है, सुन्दर आलेख..

दीपक बाबा said...

इस पोस्ट के लिए यही कोमेंब्ट्स ठीक है :

सामाजिक सनसनाहट

eha said...

जड़ो की ओर लौट कर कहानी को नया लुक दिए है आप..... बेहतरीन