Thursday, November 22, 2012

सुनो ! मृगांका :26: अब मुझको भी हो दीदार मेरा

मृगांका और प्रशांत जब ड्रॉइंग रूम में आए तो देखा सोफे पर एक महिला बैठी हैं। गौर वर्ण, हिमालय की बर्फ सी धवल केशराशि, भौंहे भी सफेद हो चलीं थीं, सफेद तांत (सूती) साड़ी में लिपटीं महिला...। मृगांका को देखते ही उठ खड़ी हुईं।

प्रशांत ने मिलवाया, भाभी, अभिजीत की मां हैं ये..

जानती हूं...मृगांका मिली नहीं थी कभी अभिजीत की मां से। लेकिन तस्वीरों के जरिए पहचानती थी। मृगांका ने पैर छू लिए। बुजुर्ग महिला ने सिर पर हाथ फेर कर पता नहीं क्या आशीर्वाद दिया, लेकिन उसके ठीक बाद आंखों की कोर से मोतियां झिलमिलाने लगीं।,

बेटा अभि कहां है?

मृगांका चुप रही। प्रशांत ही बोला, चाचीजी, अभिजीत को लेकर ही हम भी परेशान हैं।

तुम क्यों परेशान हो, तुम तो साथ रहते थे, तुम्हें भी नहीं पता? अभिजीत की मां ने एक वक्र दृष्टि प्रशांत पर डाली, तो वह सकपका गया। लेकिन मृगांका से मुखातिब होते ही मां की आवाज़ में मुलायमियत आ गई।

बेटा तुम्हें तो पता होगा...दो महीने पहले घर आया था अभिजीत...अपनी सारी जमापूंजी हमें सौंप गया। बैंक-बैलेंस, फ्लैट की चाबी...उस वक्त तक तो मैं अपने धर्म-कर्म में ऐसी लीन थी, कि कभी याद ही नहीं रहा कि बेटे की तरफ, जवान बेटे की तरफ भी ध्यान देना मेरा धर्म ही है...पता नहीं कहां चला गया। न फोन मिलता है ना कुछ...

प्रशांत को लगा वह यहां से नहीं हटा, तो कलेजा फट जाएगा। मृगांका के पिताजी और प्रशांत किनारे जाकर खड़े हो गए। मृगांका, मां को अपने कमरे में ले गई।

रात के खाने के बाद जब अभिजीत का मां और मृगांका की मां अपने-अपने हिस्से की बातें करने लॉन में चले गए, तो मृगांका बिस्तर पर औंधी मुंह लेटी रही...और पता नहीं कब तक लेटी रही।

...फिर चांद निकल आया और कहीं से उड़ता आया एक बादल का टुकडा

औंधी मुंह ही लेटी थी मृगांका...चांद को चारों ओर से उस मेघ ने घेर रखा था...समझ लीजिए उजाला था भी नहीं भी...सन्नाटा-सा पसरा था। और दिल्ली में तो ससुरे झींगुर भी नहीं बोलते। एकदम चुप्पी...। मृगांका के घर से थोड़ी दूर सड़क पर कुछ अंतराल पर किसी बिगड़ैल रईसज़ादे की कोई कार सर्र से निकल जाती थी.

अचानक, मृगांका को खिड़की पर कोई आहट हुई।

मृगांका ने नजरअंदाज़ कर दिया। उसने अपनी खिड़की में ग्रिल नहीं लगा रखा था...और अभी खिडकी को दोनों पट खुले थे।

उसे याद आया, पापा-मम्मी से मिलने के बाद अभिजीत खिड़की के रास्ते ही मिलने आया था उससे। वेंलेटाईन डे था वो...रात 12 बजे मिलना जरूरी था..और उस समय तक पापा-मम्मी से उतना खुल नहीं पाई थी कि रात के 12 बजे अभिजीत से मिल ले।

अभिजीत खिड़की से कूद कर आया था, उसने कहा था कहा चोरी से मिलने का मज़ा हमेशा मीठा होता है।

अचानक मृगांका को लगा कि उसकी गरदन के पीछे किसी ने हल्का किस किया है। एक दम हल्का। कुछ ऐसा ही स्पर्श था, जैसे अभिजीत करता था। वह लेटी ही रही। फिर अचानक हाथ सरकता हुआ उसके कमर के इर्द-गिर्द लिपट गया। वह चिहुंकी, वह पलटी तो  देखा....

अरे, अभिजीत तुम?


...जारी

1 comment:

eha said...

आपकी ये कहानी संवेदना को छू रही है।