Wednesday, October 7, 2015

और अब जीएम सरसों

जीएम मतलब जेनेटिकली मॉडिफाइड। इस शब्द के ज़रिए हम उस टर्म से बावस्ता होते हैं जिनके जीन में कुछ बदलाव लाकर उन्हें कीट प्रतिरोधी, सूखा प्रतिरोधी, लवणता प्रतिरोधी या अधिक उत्पादक बनाया जाता है। पिछले कई हफ़्तों से हमलोग लगातार बिहार में गठबंधनों की बातें करते आ रहे हैं। बिहार के यह चुनावी गठजोड़ भी आनुवंशिक अभियांत्रिकी से बनाए गए हैं। आप सीधी ज़बान में, जोड़-तोड़ मान लें। बिहार चुनाव पर एकरस बातें हो रही हैं। मन उकता गया है। वोटिंग होने से पहले ही चुनाव से जी उकता जाना लोकतंत्र के लिए अच्छे आसार नहीं हैं।

बहरहाल, मैं इस बार जीएम सरसों की बात करना चाह रहा हूं क्यों पर्यावरण और वन मंत्रालय जीएम सरसों की एक किस्म डीएमएच-11 के व्यावसायिक उत्पादन को अनुमति देने जा रही है। साल 2010 में मंत्रालय ने बीटी बैंगन के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया था, नहीं तो बैंगन आनुवंशिक रूप से परिवर्तित पहली फसल होती।

जीएम सरसों के पक्ष में तर्क यही है कि देश को हर साल 60 हज़ार करोड़ रूपये का खाद्य तेल आयात करना पड़ता है। अगर सरसों का देशज उत्पादन बढ़ जाएगा तो आयात का भार कम होगा। लेकिन इस तर्क में एक झोल है। असल में, इतनी भारी मात्रा में आय़ात की एक बड़ी वजह आयात शुल्क का 300 फीसद से घटकर शून्य तक आना है।

तथ्य यह भी है कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान देश में तिलहन टेक्नॉलजी मिशन की शुरूआत हुई थी। उस वक्त हमारे कुल जरूरतों का तकरीबन 50 फीसद खाद्य तेल आयातित हुआ करता था। लेकिन इस मिशन की वजह से नब्बे के दशक के मध्य तक भारत तिलहन उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो गया था। तो अब आयात का बिल इतना बड़ा कैसे हो गया?

डब्ल्यूटीओ के मानको के हिसाब से हम 300 फीसद तक आयात शुल्क लगा सकते हैं लेकिन शून्य क्यों है यह समझ के परे है। वैसे, बताते चलें कि साल 2010-11 में देश में तिलहन का 81.8 लाख टन रेकॉर्ड उत्पादन हुआ था। यह भी मौजूदा खेतिहर परिस्थितियों में। अगर सरकार खेती में लागत की कमी को थोड़ा प्रोत्साहन दे तो परिस्थितियां और बेहतर हो सकती हैं। उत्पादन के बाद तिलहन खरीद की स्थिति कितनी बदतर है राजस्थान इसकी मिसाल है। जहां जरूरत से अधिक उत्पादन और गिरती कीमत की वजह से नाफेड स्थिति संभालने के लिए आगे आती है।

अब जीएम सरसों के पक्ष में दावा यह किया गया है कि सरसों की यह नई किस्म पारंपरिक नस्लों के बनिस्बत 20-25 फीसद अधिक पैदावार देती है और इससे निकले तेल की क्वॉलिटी भी बेहतर होगी। मैं निजी तौर पर अधिक उत्पादन वाली नस्लों के पक्ष में हूं। आखिर हमें अपने सवा सौ करोड़ देशवासियों का पेट भरना है। तथ्य यह है कि जब बीटी बैंगन के पक्ष में हवा बनाई जा रही थी तब यह तर्क दिया जा रहा था कि बैंगन की फसल को एक खास किस्म का कीट नुकसान पहुंचाता है। इससे किसानों को बड़ा नुकसान झेलना पड़ता है।

लेकिन बीटी बैंगन ऐसे किसी भी नुकसानों के मद्देनज़र किसानों का तारणहार साबित होने वाला था। बीटी बैंगन नहीं आया, और पिछले पांच साल से हमने भी बैंगन उत्पादक किसानों के किसी संकट के बारे में भी नहीं सुना।

तो नया उत्पाद लाने के मामले में बीटी बैंगन जैसे दावे भी सात हफ्तों में गोरा बनाने वाली क्रीम जैसा ही फर्जी लग रहा है। वैसे भी तेल की गुणवत्ता मे सुधार उसके पौधे मे सुधार लाने से अधिक उत्पादन की मशीनरी और प्रक्रिया से जुड़ा मसला है। इस तरफ खाद्य प्रसंस्करण महकमे को ध्यान देना चाहिए।

सरसों का तेल शब्द से हम जैसे मिथिलावासी उसमें तले जाते रोहू माछ का ध्यान ही करते हैं। लेकिन इसे आप बिसराए जा चुके ड्रॉप्सी से भी जोड़ सकते हैं।

बहरहाल, जीएम कपास और बैंगन के बाद सरसों की बारी है। अधिक उत्पादन का लालच हमें अपनी खींच जरूर रहा है लेकिन आनुवांशिक अभियांत्रिकी से बने सरसो, मक्के और चावल का मानव शरीर पर क्या असर होगा इसका अध्ययन होना बाकी है। या अगर अध्ययन हुआ होगा भी, तो वह कितना संपूर्ण होगा यह पता नहीं।

मैं तो बड़ी दिलचस्पी से बिहार के चुनावी गठबंधनों और जीएम फसलों के परिणाम की ओर ध्यान लगाए बैठा हूं। आखिर, दोनों के जीन में कुछ बदलाव तो लाया ही गया है। क्य पता बड़े शानदार परिणाम हों? या शायद टांय-टांय फिस्स? देखते हैं।

1 comment:

जसवंत लोधी said...

शुभ लाभ Seetamni. blogspot. in