Thursday, September 14, 2017

ठर्रा विद ठाकुरः जलते हैं दुश्मन तो खिलते हैं फूल

गुड्डू भैया अपने दालान में लकड़ी की कुरसी पर उकडूं बैठे हुए थे. मेरे वहां जाते ही
चिल्लाएः ओ ठाकुर ब्रो, कम एंड हैव टी विद मी.
मैं चकरा गयाः भिया आज चौदह सितंबर है. हिंदी दिवस है आज अंग्रेजी क्यों छांट रहे हैं?गुड्डू मुस्कुरा उठे. बोले,
30 के फूल 80 की माला,
बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला
अरे, भैया हिंदी को बचाने वाले दिन आप क्या सड़कछाप शायरी कर रहे हैं. यह तो ट्रक और ऑटो वगैरह पर लिखा होता है. आपको तो पंत-निराला-प्रसाद-बच्चन जैसो की बात करनी चाहिए. इनकी वजह से हिंदी बची हुई है.
गुड्डू ने गिलास में मौजूद सोमरस का लंबा घूंट भरा और कहाः हिंदी कौन सी मर रही है बे? बाजार में कामयाब होगी तो हिंदी बची रहेगी. तुम सेमिनार करके हिंदी नहीं बचा पाओगे. अगर हिंदी का सिनेमा चल रहा है, तो हिंदी बची हुई है. अगर ट्रक, बसों और ऑटो के पीछे हिंदी में कविताएं लिखी जा रही हैं तो समझो आम आदमी की हिंदी वही है. बाकी तुम जो कर रहे हो वह हिंदी की चिंदी है.
क्या बात कर रहे हैं आप, इन गाड़ियों पर लिखे की आप उच्चस्तरीय साहित्य से तुलना कर रहे हैं?उन्होंने तपाक से जवाब दिया: क्यों न करें? सड़क पर लिखी हर इबारत का अपना समाजशास्त्र होता है. देश में इतनी भीड़ है तो लिखाः
जय शिव शंकर, भीड़ ज़रा कम कर
देश में इतनी नफरत है कि गाड़ियों के पीछे लिखना पड़ाः
देखो मगर प्यार से
मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता कि इन गाड़ियों पर लिखे कई जुमले बड़े पुराने और घिसे-पिटे हो चुके हैं. लेकिन तुम ड्राइवरों और कंडक्टरों में छिपे उस शायर के आगे क्यों सजदा नहीं करना चाहते जो ऐसी चीजों को चुनने की और उन्हें गाड़ी पर लिखवाने की नजर रखता है. तुम उनके अनगढ़ मगर सच्चे काव्यबोध से इत्तफाक क्यों नहीं रखते?
नीयत तेरी अच्छी है तो किस्मत तेरी दासी है
कर्म तेरे अच्छे हैं तो घर में मथुरा काशी है
या फिर यह देखो,
फानूस बनकर जीसकी हीफाजत हवा करे
वो शमां क्या बुझे जिसे रौशन खुदा करे
देखो ठाकुर, हिज्जे पर मत जाना पर सड़क के तनाव को कम करने में इन कविताओं का भारी योगदान है. रोड रेज से तपती सड़कों पर ये फुटकर शेर ठंडी छांव का काम करते हैं. हल्की, कच्ची और रूखी तुकबंदी ही सही, लेकिन कविता तो इन लाइनों में होती ही है. ये लोग अपने किस्म के कबीर हैं भाई. कहते तो थे कबीरः जो जो करूं सो पूजा. तो यह जो लिखें, सो कविता….
हमें जमाने से क्या लेना, हमारी गाड़ी ही हमारा वतन होगा
दम तोड़ देंगे स्टियरिंग पर, और तिरपाल ही हमारा कफन होगा…
यह क्या आत्मवंचना और दया नहीं है? क्या यह तुम्हारे साहित्य का के लघु मानव का बयान नहीं है? अनजान और अंदेशों से भरी लंबा यात्राओं में किस तरह ड्राइवर भाई सिर पर कफन बांध लेते हैं, इसका जायजा भी लोः
रात होगी, अंधेरा होगा और नदी का किनारा होगा
हाथ में स्टियरिंग होगा, बस मां का सहारा होगा….
पता नहीं यह पंक्ति जन्म देने वाली मां के लिए है या किसी देवी मां के लिए लेकिन उसके जोखिम कबूल करने का अंदाज तो देखो.चिलचिलाती धूप में जब तपते बोनट की बगल में बैठे ड्राइवरों-हेल्परों को देखो तो पता चलेगा कि सबसे मुश्किल, सबसे खानाबदोश नौकरी इनकी ही होती है. उनकी तकलीफ ‌सिर्फ जिस्मानी ही नहीं होती, उसमें बाल-बच्चों से दूर होने की टीस भी घुली मिली होती है… तुमने भी तो देखा ट्रकों के पीछे बनी तस्वीर में नदी किनारे एक युवती अपने घुटनों में सिर छिपाए बैठी है. साथ में लिखा होता है… घर कब आओगे…और शेर भी हैः
जब परदेस लिखा है किस्मत में
तब याद वतन की क्या करना…
भावनाओं की इस दुनिया में हमें भोगा हुआ यथार्थ और जीवन-दर्शन भी मिलता है, खूब सारी नसीहतें भी. कुल मिलाकर सड़कीय जीवन की सूक्तियां और सुभाषित हैं ये नारे, जिसमें 'स्ट्रीट-स्मार्ट विज़्डम' अर्थात गली-सुलभ बुद्धि है. सुनोः
अपनों से सावधान
दोस्ती पक्की, ख़र्चा अपना-अपना
मांगना है तो ख़ुदा से मांग बंदे से नहीं,
दोस्ती करनी है तो मुझसे कर, धंधे से नहीं.
देते हैं रब, सड़ते हैं सब,
पता नहीं क्यों.
'दुनिया मतलब की' जैसे नारे अगर ज़माने से ठोकर खाए लोगों का चीत्कार है, तो 'अपनों से बचकर रहेंगे, ग़ैरों को देख लेंगे' में एक साथ अपने अस्तित्व का निचोड़ है, तो धमकी भी.
मतलब की है दुनिया कौन किसी का होता है,
धोखा वही देते हैं जिन पर ऐतबार होता है.
नेकी कर जूते खा,
मैंने खाए तू भी खा.
ठाकुर, यह जो ट्रक-साहित्य है न, इसे हल्के में मत लो. इसमें विज़डम है तो मां-बाप जैसी हिदायतें भी. मोहल्लों में, जब ऑटो धीरे चल रहे होते हैं तो बच्चे उसमें लटकने की कोशिश करते हैं. उन्हें वैसे ही डांटा गया है, जैसे हमारे समाज में बच्चों को डांटते हैः
चल हट पीछे!
-लटक मत टपक जाएगा!
-लटक मत पटक दूंगी!
इसका एक झारखंडी संस्करण भी है:
बेटा छूले त गेले
सटले त घटले!
मुझे लगा कि गुड्डू को सही रास्ते पर लाने का यही एक वक्त है. उनसे शराब छुड़वाने वाली शायरियां बुलवा कर. मैंने कहाः भिया, आप शराब छोड़ दीजिए फिर तो, काहे कि गाड़ियों में हर जगह तो इसकी बुराई ही लिखी है.पीकर जो चलाएगा, परलोक को जाएगा
चलाएगा होश में तो ज़िंदगी भर साथ दूंगी,चलाएगा पीकर तो ज़िंदगी जला दूंगी.
बड़ी ख़ूबसूरत हूं नज़र मत लगाना,ज़िंदगी भर साथ दूंगी पीकर मत चलाना.
राम जन्म में दूध मिला, कृष्ण जन्म में घी,
कलयुग में दारू मिली, सोच समझ कर पी.
और भी है,
ऐ दूर के मुसाफ़िर, नशे में चूर गाड़ी मत चलाना।
बच्चे इंतजार में है, पापा वापस ज़रूर आना।।
गुड्डू हंसने लगे. इस ख़राब दुनिया में जो माशूकाएं दिल तोड़ती हैं तो पीसी बरुआ के देवदास से लेकर संजय लीला भंसाली के देवदास और अनुराग कश्यप के देवडी से मुझ जैसे आशिक तक, सहारा सिर्फ इसी मय का है ठाकुर. सुन लो,
शराब नाम ख़राब चीज़ है, जो कलेजे को जला देती है,
उसे बेवफ़ा से तो सही है, जो ग़म को भुला देती है.
ठाकुर तुम ख्वामखा शराब को बदनाम कर रहे हो. एक ट्रक के पीछे लिखा थाः
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल.
और,
खुशबू फूल से होती है, चमन का नाम होता है,
निगाहें क़त्ल हैं, हुस्न बदनाम होता है.
बूझे? मैंने समझने का इशारा देते हुए सिर हिलाया. तो गुड्डू भैया बोले, जब तक आम आदमी के पास हिंदी जिंदा है तब तक हिंदी-फिंदी दिवस से कुछ नै होगा. हिंदी जिंदा है और जिंदा रहेगी. और तुम जो हर बात पर शराब की बुराई करते हो, जाओ पंकज उधास की आवाज में मशहूर गज़लें सुनोः जिसके बोल हैः
हुई महंगी बहुत ही शराब कि थोड़ी-थोड़ी पिया करो.
फूंक डाले जिगर को शराब, कि थोड़ी थोड़ी पिया करो...
मैं समझ गया कि गुड्डू भैया काले कंबल है. इन पर कोई रंग न चढ़ेगा. मैं जाने के लिए मुड़ा तो गुड्डू भैया कि आवाज़ आई. अऱे ठाकुर गुस्सा हो कर जा रहे हो, तो एक ट्रक साहित्य का शेर पेश-ए-नजर हैः
चलती है गाड़ी तो उड़ती है धूल
जलते हैं दुश्मन तो खिलते हैं फूल !

1 comment:

pushpendra dwivedi said...

वाह बहुत खूब बेहतरीन रचनात्मक अभिव्यक्ति