Friday, December 20, 2024

वायरल मीम और रील का दौर मेहनती बच्चों के लिए अच्छा मौका है

इंटरनेट पर वायरल कंटेंट मेहनती लोगों के लिए राह आसान कर रहा है. यह किसी बात को कहने का एक तरीका है. मसलन, इंटरनेट में ऐसे लोग वायरल हो रहे हैं, जिनका असल जीवन में कहीं कोई मूल्य नहीं था. इसे आप शोहरत पाने के तरीके का लोकतंत्रीकरण भी कह सकते हैं.

पर लोकतंत्रीकरण इसका सिर्फ बाय-प्रोडक्ट है. असल है, बेइंतहा सस्तेपन की व्यापकता. अभी मेरे एक युवा साथी ने आज एक व्यक्ति का वीडियो दिखाया, और बताया कि यह आदमी 'बदो-बदी' नामक गीत को निहायत बेसुरे अंदाज में गाने वाला व्यक्ति काफी वायरल है.

ऐसे ही बेसुरे अंदाज में गाने वाले बहुत सारे लोग. ठुमके लगाकर नाचने वाले लोग काफी लोकप्रिय हो रहे हैं. यहां तक कोई बुराई नहीं है. बेसुरे लोगों को भी गाने का हक है. पर उनके अंदाज को पसंद करने वाले लोग भी हैं यह जानकर हैरत हुई. पर असल खतरा यहां नहीं है.

मेरी एक सखी हैं, पहले बाकायदा लेखक थीं. अब लिखने-पढ़ने का पूर्णतया त्याग करके रील बना रही हैं. उन्होंने मुझे इसकी सूचना दी तो मुझे धक्का-सा लगा. क्या वाकई ज्ञान आधारित सामग्री (कॉन्टेंट) आउट ऑफ डिमांड हो गया?

अभी एक और वायरल मीम दिखा जिसमें लगभग मादक सिसकारी मारती हुई महिला स्वर किसी से पूछता है, 'किस कलर की कमीज पहने हो.' हां आपने सही पढ़ा, कमीज ही. (या कुछ और?)

इसी तरह स्तनपान वाले वीडियो उछलकर आ रहे हैं, जिसमें बच्चों को दुग्धपान कराने की चिरंतर परंपरा पीछे है और पूरे कपड़े उतार कर शरीर उघाड़ देने का मकसद प्राथमिक. यह चहुंओर व्याप्त कंटेंट है.

खुलेआम अज्ञानता का प्रदर्शन करना आजकल फैशन है. पूरा देश आज मजे लेने के मूड में है. लोग मजे-मजे में रील बना रहे हैं और मजा लेने के लिए लोग देखते हैं. पर, सोशल मीडिया में इनके वायरल होने के अलावा, अन्य किन मंचों पर इनका इस्तेमाल हो सकता है? क्या असल जिंदगी में भी इनका कोई मूल्य है?

इसलिए कहता हूं आज जब ज्यादातर नौजवान रील्स देखने, बनाने में व्यस्त हैं. असली मेहनती बच्चे अपने लक्ष्य की ओर ध्यान केंद्रित करें तो उनके लिए सफलता के मार्ग में बाधाएं कम ही आएंगी. रील्स के जरिए प्रसिद्ध हुए लोग एमएलए बन जाएंगे, पर वह मंत्री भी बनेंगे इसकी गारंटी नहीं है.
 
जो लोग इस चलन से बचे रहेंगे, देश को चलाने का जिम्मा (सत्ता की बात नहीं कर रहा) उनके हाथों में ही आएगा.

Thursday, November 21, 2024

घर बैठे नॉवेल लिखकर लाखों कमाने का वादा फरेब है भाई!

कोई आपको बरगलाए कि हिंदी में लिखकर लाखों कमा सकते हो और वह भी घर बैठे तो उसके बहकावे में नहीं आना है। कुछ कथित आला दरजे के लेखकों ने हिंदी पाठकों को ऐसा दिक किया है कि लोगों ने पढ़ना ही छोड़ दिया है। वैसे भी हिंदी का लेखक लेखन का काम पार्टटाइम ही करता है। और अगर होल टाइमर है तो अमूमन दलिद्दर ही होता है। 

आजतक हिंदी का कोई 'सर्टिफाइड साहित्यकार' किताब की कमाई से लखपति नहीं बना है। तो ऐसे किसी भी भ्रमजाल में फंसना नहीं है। है कि नहीं. 




Wednesday, November 20, 2024

फूहड़ हिंदी फिल्मों के दौर में सोंधी हवा का झोंकाः मेझियागन

मेइयाझागन में निर्देशक ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं जिनके जवाब आपको लगता है कि सदियों पहले मिल चुके हैं. मसलन, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके जन्मस्थान को आपका गृहनगर क्यों कहा जाता है?

ब्रोमांसः फिल्म मेझियागन के एक दृश्य में कार्ति और अरविंद स्वामी


सिंघम अगेन और भूलभुलैया-3 जैसी हिंदी फिल्में ऊब पैदा करती हैं. हाल में रिलीज कथित बड़ी हिंदी फिल्मों में नौ लेखक, कई सितारे और धूम-धड़ाका तो था, पर कहानी नहीं थी. ऐसी स्थिति में, कई दक्षिण भारतीय फिल्में हैं जो आपको पुरसुकून अंदाज में पूरे सिनेमाई व्याकरण के साथ किस्सागोई का मजा देती हैं.

कुछ वक्त पहले मैंने तमिल फिल्म कदैसी विवासायी के बारे में लिखा था (इस फिल्म ने झकझोर दिया था) और मलयालम फिल्म भ्रमयुगम ने अपने बेहतरीन ट्रीटमेंट से दिल छू लिया था. इसमें मम्मूटी अपने सधे अभिनय से दिल जीत ले गए. वैसे भी मलयालम में अडूर गोपालकृष्णन की फिल्मों ने मेरे मन में अलग ही छाप छोड़ रखी है.
बहरहाल, कुछ वक्त हुआ जब मैंने एक और तमिल फिल्म देखी. नाम है मेयाझागन (या मेझियागन?).

सिनेमा के मामले में अधिकांश फिल्मकार बड़े परदे के अनुभव की कहावत को सिद्ध करने के वास्ते कहानी के बड़े पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं. लेकिन मेझियागन फिल्म के निर्देशक सी प्रेम कुमार ने बारीक बातों और सूक्ष्म पलों को पकड़ा है. इस फिल्म ने जीवन के अंतरंग (ऊंह, वो वाला ‘अंतरंग’ नहीं) पल परदे पर उकेर दिए हैं. प्रेम कुमार पहले सिनेमैटोग्राफर थे और शायद इसी वजह से उनकी फिल्म के दृश्य एनिमेटेड स्टिल फोटोग्राफ्स की तरह दिखते हैं.

मेइयाझागन में निर्देशक ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं जिनके जवाब आपको लगता है कि सदियों पहले मिल चुके हैं. मसलन, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके जन्मस्थान को आपका गृहनगर क्यों कहा जाता है? मेइयाझागन की शुरुआत 1996 से होती है (ध्यान रहे, निर्देशक प्रेम कुमार की पहली फिल्म का नाम 96 था) जब एक युवा अरुणमोझी वर्मन उर्फ अरुल को एक ऐसे दर्द से गुजरना पड़ता है जिसे शायद ही कभी सेल्युलाइड पर कैद किया है. हिंदी तो छोड़ दीजिए, अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों में भी यह दर्द नहीं दिखेगा.

फिल्म के नायक अरुल की पैतृक संपत्ति पर धोखे से किया उनके कुछ रिश्तेदारों के कब्जे की बैक स्टोरी है जिसकी वजह से अरुल का परिवार शहर में रहने लगा है और वह भूले से भी अपने गांव का रुख नहीं करते. 1996 में उनके साथ यह घटना होती है और 2018 में जाकर अरुल को अपनी ममेरी बहन की शादी में गांव जाना होता है. वह इस यात्रा को संक्षिप्त रखना चाहते हैं विवाह में बहन को आशीर्वाद देकर रात को लौट आना चाहते हैं. लेकिन, शादी की रात को उनका परिचय एक युवा रिश्तेदार से होता है, जो अपना नाम नहीं बताता और अरुल उसका नाम याद नहीं कर पाते. बहरहाल, एक शहरी आदमी गांव जाकर अपनी जड़ो की तलाश करे यह प्लॉट निर्देशक के लिए लुभावना हो सकता था, इसकी बजाए अरुल वहां दिलचस्पी नहीं दिखाता.

कहानी की शुरुआत में, कुछ ऐसे सूत्र छोड़े गए हैं जो बाद में आकर अपनी अहमियत साबित करते हैं. मसलन, अरुल गांव छोड़ते वक्त एक साइकिल छोड़ आते हैं, और कहते हैं कि कोई इसका इस्तेमाल कर लेगा. वह साइकिल वाकई एक जिंदगी को सिरे से बदल देता है.

निर्देशक ने फिल्म के सेकेंड लीड को कई दफा फ्रेम पर कब्जा करने की छूट दी है. फिल्म में अरुल बने अरविंद स्वानी और कार्ति के अलावा अन्य किरदार गौण ही हैं. लेकिन लेखक ने बाकी किरदार भी ऐसे रचे हैं कि उन पर लंबी चर्चा हो सकती है. इन किरदारों के संपाद ऐसे हैं कि सहज लगते हैं. चाहे वह शादी के दौरान मिली एक महिला, जो कहती है कि अगर उसकी अरुल के शादी होती तो उसकी जिंदगी अलग होती. ऐसे बहुत सारे किरदार हैं, जो अपनी अलग छाप लेकर चलते हैं. छोटे दृश्य हैं जो किरदारों को उभारते हैं.

मेझियागन में कई दफा बैल और सांप के सहज इस्तेमाल से लगता है कि कहीं निर्देशक शिव की तरफ तो इशारा नहीं कर रहे!

पर असल चीज है कि फिल्म में मानवीय संबंध उकेरे गए हैं. हर फिल्म में रोमांस ही हो यह जरूरी तो नहीं. इस फिल्म में दो दूर के रिश्ते के भाइयों के बीच के प्रेम को सहजता से उकेरा गया है.

अरविंद स्वामी और कार्ति के किरदारों के बीच के रिश्ते को खूबसूरत बनते देखना वाकई एक बेहतरीन अनुभव है. यह फिल्म यकीनन अरविंद स्वामी के करियर में सबसे उम्दा अभिनय के लिए जानी जाएगी.

कार्ति का किरदार—जिसका कोई नाम नहीं—उसके मासूम, शरारती व्यवहार में एक निरंतरता है, जबकि अरुल के किरदार में अपने रिश्तेदार को ख़तरा मानने से लेकर धीरे-धीरे उसके स्नेही स्वभाव को अपनाने तक का इमोशनल आर्क है.

तो अगर आप हिंदी फिल्मों में दोहराव भरे कथानकों (कथा तो खैर होती ही नहीं) से ऊब गए हैं, तो साउथ का रुख करिए. आप निराश नहीं होंगे.

Tuesday, November 5, 2024

वेब सीरीज- वाइल्ड वेस्टर्न सिनेमा के जॉनर में 1883 कविता सरीखा है

मुझे अमेरिकन काऊ बॉयज, वाइल्ड वेस्टर्न फिल्में पसंद हैं. खासकर, ऐसी फिल्में जिनमें अमेरिकन रेल बिछाने का या उसकी यात्राओं के दृश्य हों. काऊ बॉयज फिल्मों में तो बहुत-सी फिल्में देख रखी हैं. बस बी ग्रेड वाली ही बची होंगी.

इसी तरह अमेरिकी गृहयुद्ध पर बनी, रेड इंडियन्स से झगड़ों पर बनी सीरीज और यहां तक कि वेस्ट वर्ल्ड नाम की साइ-फाइ वेब सीरीज भी देख डाली जो हॉटस्टार पर थी और अब वहां नहीं है.

1883 का एक दृश्य


कहने का गर्ज यह है कि मोटे तौर पर हॉलिवुड ने वेस्टर्न के नाम पर अच्छा और कूड़ा जो भी बनाया है, उससे मैं मोटे तौर पर परिचित हूं. चाहे वह 1930 के दशक में बनी स्टेजकोच हो या फिल्म संस्थानों में पाठ्यक्रम में शामिल ‘वन्स अपॉन ए टाइम इ द वेस्ट.’

ऐसी ही एक सीरीज है येलोस्टोन. और इसका प्रीक्वल है 1883.

और आज मैं इसी 1883 की बात करने वाला हूं, क्योंकि सिनेमा अपने-आप में एक पेंटिंग और कविता भी होती है. वाइल्ड वेस्ट की कहानियों में कविता! यह खोजना ही मूर्खता है. क्या आप मिथुन की उन फिल्मों में कविता या बढ़िया सिनेमा की उम्मीद कर सकते हैं जो उन्होंने 2 साल में 40 रिलीज के दौर में बनाए थे?

एल्सा के किरदार में इशाबेल मे 


80 फीसद वाइल्ड वेस्टर्न और काउ बॉयज फिल्में लाउड और मेलोड्रैमेटिक होती हैं. और जो काऊ बॉय नायकत्व, लार्जर दैन लाइफ छवि हॉलीवुड ने गढ़ी है 1883 के दस एपिसोड उसको किरिच-किरिच तोड़ डालते हैं.
असल में, अमेरिकन वेस्ट के इतिहास को इतना रोमांटिसाइज किया गया और उसके नायक इतना खब्ती और रफ दिखाया गया कि उसकी नकल हिंदुस्तान में भी की गई. फिरोज खान का अपीयरेंस देख लें या फिर सत्ते पर सत्ता का अमिताभ बच्चन का रेंच.

1883 के निर्देशक टेलर शेरिडन हैं. और 1883 में यूरोपीय अप्रवासियों की टेक्सास से ओरेगन की यात्रा की रुखड़े और क्रूर असलियत को सामने लाती है.

इसमें डटन परिवार के पूर्वजों की गाथा है (जिन्होंने यलोस्टोन सीरीज देखी है, वह जानते हैं कि वह डटन परिवार के रेंच की आधुनिक समय की कहानी है).

1883 के एक दृश्य में इसाबेल मे

 
बहरहाल, यलोस्टोन सीरीज के नायक के परदादा जेम्स डटन की यह कहानी है.

असल में, डटन परिवार एक सपना लेकर टेक्सास से ओरेगन जा रहा है. और साथ में जर्मन और स्लोवाक भाषा बोलने वाले दो दर्जन परिवार भी साथ में चल रहे हैं. डटन ने अपनी पत्नी को वादा किया है कि वह उसके लिए इतना ब ड़ा घर बनाएगा कि वह उस घर में खो जाएगी.

लेकिन वह घर कहां बनेगा यह बड़ा प्रश्न है. इसके लिए डटन को पश्चिम की ओर की यात्रा करनी है. असल में डटन, अमेरिकन सिविल वार में कॉनफेडरेट आर्मी में कैप्टन रहा है. और इसलिए वह टेक्सास के मार-दंगे और क्रूर समाज से दूर निकल जाना चाहता है.

और इस यात्रा में वह एक कारवां के साथ जुड़ जाता है. वह यूरोपीय अप्रवासियों की मदद करने वाले दो एंजेट्स कैप्टन और थॉमस की ग्रुप के साथ बढ़ता है.



यूरोपीय अप्रवासियों के पास अमेरिकी वेस्टर्न की दुनिय में उत्तरजीविता के बुनियादी कौशल नहीं हैं. न घुड़सवारी आती है, न बंदूक चलाना आता है. यहां तक कि शिकार को काटकर मांस पकाना भी नहीं. और फिर छुद्र निजी लालच भी हैं.

डटन परिवार की बेटी किशोरी है. पूरी कहानी कई दफा उसके वॉइस ओवर से आगे बढ़ती है और उसके वॉइस ओवर ने इस सीरीज को सिनेमाई कविता में ढाल दिया है. अपने एक वॉइस ओवर में एल्सा (इशाबेल मे) कहती है, “डेथ इज एवरीवेयर इन प्रेयरी. इन एवरी फॉर्म यू कैन इमैजिन ऐंड फ्रॉम ए फ्यू योर नाइटमेयर्स कुडनॉट मस्टर.”
उदासियों, दुख, विषाद और पीड़ा से भरी यात्रा के बीच एल्सा का अपीयरेंस बादलों में बिजली का तरह होता है. वह खूबसूरत हैं और कई दफा आलिया भट्ट सरीखी दिखती हैं. उनके गालों में भी भट्ट की ही तरह डिंपल पड़ते हैं.
इस कथा क्रम में पीड़ा और मृत्यु के साथ, प्रेम है. एल्सा को प्रेम होता है. वह मुस्कुराती है. वह प्रेम को स्वीकार करती है.

1883 में अपनी सेटिंग और इपने किरदारों के इमोशनल कर्व को कमाल तरीके से पेश करता है और इसमें पश्चिमी रुखाई के साथ साथ प्रेम के कोमल पल भी हैं.

मेरे जो मित्र अच्छा सिनेमा देखने के शौकीन हैं, और खासकर अगर अमेरिकन वेस्टर्न फिल्मे देखने में मजा आता है, उनके लिए 1883 सरप्राइज पैकेज की तरह है.

#cinema #wildwest #western #Webseries 

Wednesday, August 28, 2024

फिल्म कदैसी विवासायीः कृषि के नाम लिखा गया निर्देशक का प्रेमपत्र

मैं रोजाना आधा घंटा फिल्म (या वेब सीरीज़) देखता हूं. नियमित तौर पर. इस नियमितता में बहुत ऐसी चीजें देख लीं, जिससे मन उचाट हो गया. फिर कुछ अच्छी भी देखीं. इनमें विजय सेतुपति की हालिया रिलीज फिल्म महाराजा थी और उसके बाद ओटीटी के एआइ ने इशारा किया सेतुपति की अगली फिल्म देखें. नाम था कदैसी विवासायी. फिल्म 2021 की है इसलिए फिल्म देखने के बाद मुझे अफसोस हुआ कि यह फिल्म मैंने पहले क्यों नहीं देखी!

कदैसी विवासायी का दृश्य, सौजन्यः गूगल



मेरे लिए फिल्म की भाषा महत्वपूर्ण नहीं है. और मैं डबिंग की बजाए मूल भाषा में फिल्म देखना पसंद करता हूं. बहरहाल. कदैसी विवासायी में विजय सेतुपति सिर्फ कैमियो में हैं.

अमूमन हम दक्षिण भारतीय फिल्मों से उम्मीद रखते हैं कि वह काफी लाउड होगी. जिसमें जलती चिता से नायक उठ खड़ा होता, जिसमें पैर घुमाकर वह बवंडर उठा सकता है, जिसमें महिला उपभोग की सामान है. पर कदैसी विवासायी अलग है.

निर्देशक एम. मणिकंदन की मैं पहली फिल्म देख रहा था. इंटरनेट से सर्च किया तो पता चला कि उन्होंने काका मुत्तई, कुट्टरामे थंडानई और आंदावन कट्टलाई नाम की तीन और फिल्में बना रखी है. और मैंने तय किया है उनकी यह तीन फिल्में भी देखूंगा.

बहरहाल, अभी कदैसी विवासायी की बात. कदैसी विवासायी तमिल शब्द है, जिसका अर्थ है आखिरी किसान.

निर्देशक किसी हड़बड़ी में नहीं दिखते. फिल्म में पहले दस मिनट तक एक भी संवाद नहीं है. क्रेडिट के साथ निर्देशक बहुत आराम से, और उससे भी अधिक बारीकी से आपको ले जाकर एक ठेठ तमिल गांव में बिठा देता है. और इस बीच वह आपको इस गांव के खेत-खलिहानो, गली-गलियारों, मवेशियों और पगडंडियों, मुरगों और मैनाओं, बकरियों और यहां तक कि पत्थरों से परिचित करवा देता है.

यह फिल्म एक त्रासदी की कथा कहती है, लेकिन यह त्रासदी नल्लांडी नाम के इस आखिरी किसान (कदैसी विवासायी) की नहीं है, यह त्रासदी उस समाज, हमारे गांवों और किसानों की है. उनके छिनते परिवेश, उनकी जीवनशैली, उनके पारंपरिक बीज भंडारों, उनके सदियों पुराने कीट प्रबंधन के तरीकों, खेती के तौर तरीकों के खत्म होते जाने की है. यह फिल्म इशारा करती है कि यह सब बड़े एहतियात के साथ, बड़े बारीकी से और व्यवस्थित तरीके से खत्म किया गया है.

फिल्म की शुरुआत में मुरुगन (यानी उत्तर के कार्तिकेय) की बेहद पुरानी स्तुति के बीच गांव का परिवेश स्थापित किया गया है. जिसमें उड़ानें भरते मोर हैं, खेतों में उतरती भेड़ें हैं, पैनोरमिक व्यू में पूरा गांव है. एक ठेठ हिंदुस्तानी गांव, जिसमें खपरैल के मकान हैं, जिसमें कद्दू-खीरा है, जहां हाट लगता है और वहां से हमारा नायक नल्लांडी सांप काटे का इलाज करने वाले कुछ पारंपरिक बूटियां और कुछ सब्जियां तो खरीद लाता है लेकिन खाद-बीज की दुकान में उसका सामना अजीब परिस्थिति में होता है.

यहां फिल्म अपना पहला पक्ष रखती है. किसान दुकान में खल्ली (मुझे लगता है कि वह नारियल की खल्ली थी या सरसों की) चखकर देखता है और कहता है कि इसमें तो तेल बचा ही नहीं, मेरे बैल क्या खाएंगे. यह ग्रामीण संसाधनों के दोहन पर संक्षिप्त टीप है क्योंकि दुकानदार कहता है कि आजकल के कोल्हू में बूंद-बूंद तेल निकाल लिया जाता है. बहरहाल, उस बीज की दुकान में किसान को टमाटर के पारंपरिक बीज नहीं मिलते. संकर बीज ऐसे हैं जिनके टमाटरों में आगे बीज नहीं होंगे...

यह जीएम बीजों के बढ़ते चलन पर इशारा है जिसकी गिरफ्त में हमारा किसान समाज आता जा रहा है.

वैसे, इस फिल्म का केंद्रीय विषय आत्मनिर्भरता की ओर है. फिल्म किसानी को किसी बहुत ऊँचे आसन पर बिठाने की कोशिश नहीं करती कि किसान ऐसे हैं जिसकी कभी आलोचना नहीं की जा सकती या अन्नदाता किसान की श्रद्धा में हम सबको झुक जाना चाहिए. यह फिल्म सीधा कहती है कि किसानों के साथ जो हजारों साल की परंपराएं चली आ रही हैं उस सहज और सरल जीवन को यूं ही, उपभोक्तावाद खत्म न कर दे.

हालिया वक्त में हमारे ऊपर किसानहितैषी फिल्मों की बमबारी-सी हुई थी. ऐसी फिल्में जिसमें माचो हीरो छाती ठोंककर खुद को किसान कहता है. लेकिन, इससे न किसान का भला हुआ न फिल्म के दर्शक का.

कदैसी विवासायी आपके अपने पंखों में अंदर छिपाकर ले जानी वाली फिल्म है, जो सीन-दर-सीन रगों में उतरती है. इसके हरियाले रंग, इसके ड्रोन एरियल शॉट्स, इसके ट्रैक शॉट्स... कैमरे का काम कमाल का है. यह फिल्म असल में कृषि के नाम लिखा गया निर्देशक का प्रेम पत्र है.

कदैसी विवासायी में कोई विलेन नहीं है. इसमें कोई आततायी नहीं है. बेशक आप कुछ किरदारों पर शैतान होने का लेबल चस्पां कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर, वह पुलिस अधिकारी जो किसान (नल्लांडी) को सवाल-जवाब के लिए थाने ले जाता है और इसका अंत हमारे कथानायक किसान की न्यायिक हिरासत होती है.

कोई और फिल्म होती तो ये पुलिस अधिकारी, सिपाही, थानेदार शैतान की चरखी होते. और हमारा कथानायक किसान एक पीड़ित और मजबूर व्यक्ति. लेकिन निर्देशक मणिकांदन इस मोह से बच निकले हैं.

इस फिल्म में हर किरदार मानवीय है. और यही वजह है कि अदालत में न्यायिक हिरासत में उस किसान को भेजने वाली सत्र न्यायाधीश एक पुलिस वाले को इस किसान के खेतों को सींचने का आदेश देती है. अनिच्छुक पुलिसवाला सींचने जाता है और फिर उसको इसका आनंद मिलता है. पुलिस के मानवीय चेहरे को दिखाता हुआ एक ही शॉट काफी हैः सिंचाई के लिए खेत पर पहुंचा पुलिसवाला अपनी वर्दी उतारकर पंप सेट के नीचे नहाता है और मुदित मन दिखता है.

नायक किसान, नल्लांडी को खुद आत्मदया से पीड़ित बेचारा किसान नहीं है. वह थोड़ा ऊंचा सुनता है और अगर सिनेमाई मेटाफर समझते हैं तो समझिए कि आसपास की बदलती दुनिया के शोर को वह न सुन रहा है न समझ रहा है और इसलिए चकित है.

वह समझ नहीं पाता कि भेड़े चराने के लिए जा रहा चरवाहा दूसरे साथी को व्हॉट्सऐप लोकेशन क्यों मांग रहा है, वह चकित है कि उसके खानदान के पोते क्यों किसानी का क-ख-ग भी नहीं जानते. उसके कुछ नौजवान परिजन हैं जो उसे दादा कहते हैं, पर उन्हें खेतों में धान की सिंचाई के बारे में नहीं पता.

यह फिल्म बहुत सरल और नर्म है. जैसे गोयठे की आग होती है. लेकिन यह परंपराओं से कटे समाज की तरफ एक सख्त संदेश देती है. फिल्म में सूखाग्रस्त गांव में बारिश के लिए लोकदेवता की पूजा होनी है. पर लोकदेवता की पूजा की शर्त होती है कि गांव के हर जाति के लोग इसमें शामिल होंगे, तभी पूजा सफल होगी.

नल्लांडी को उस लोकदेवता के भोग के लिए धान उपजाने का जिम्मा दिया जाता है. और उसकी खेती की जो डिटेलिंग निर्देशक ने पेश की हैः भई, वाह.

पर गांव में पूजा के लिए कुम्हार से बरतन और मूर्तिंयां बनवानी है. पर कुम्हार तो अपना पेशा छोड़ चुका है. उसके चाक की मरम्मत और धो-पोंछ को बड़े करीने से निर्देशक ने पेश किया है. रासायनिक कीटनाशकों ने किस तरह नुक्सान पहुंचाया है, वह सब एक स्टेटमेंट की तरह आता है.

असल में, यह फिल्म ही सरल नहीं है, यह सरल लोगों के बारे में कही गई एक कहानी भी है. यहां तक कि फिल्म में एक मोर की हत्या करने वाला शख्स भी असल में शैतान नहीं है.

इस फिल्म में बार-बार मुरुगन का संदर्भ आता है. मुरुगन यानी कार्तिकेय. यह भी है कि किस तरह विनायागर (गणेश जी) ने माता-पिता का चक्कर लगाकर मुरुगन को हराया था. इस फिल्म में यह संदर्भ बहुत दिलचस्प है. मोरों का रेफरेंस बारंबार आता है. पर शायद इसलिए नहीं है कि फिल्म हमें मुरुगन की पूजा करने की ओर प्रवृत्त करती है. ऐसा इसलिए क्योंकि तमिलनाडु के कई हिस्सों में मुरुगन कृषि के देवता भी माने जाते हैं.

मोटे तौर पर फिल्म सतत विकास के संदर्भ में परंपरागत खेती की अहमियत को दिखाती है.

फिल्म में इस कथा के समांतर एक कथा रामैय्या की भी है. थोड़े सनक से गए सात्विक प्रेमी के किरदार में विजय सेतुपति दिखते हैं. उन्हें देखना विजुअल डिलाइट है. कैमियो किरदार है, पर जितनी देर हैं आपको बांधे रखते हैं.

फिल्म की खास बात है कि इसमें ज्यादातर अभिनेताओं ने पहली बार अभिनय किया है. पर वह सभी कई दफा बगैर संवाद के भी भाव संप्रेषित करने में सफल रहे हैं. हमारा 83 वर्षीय किसान अपनी बर्बाद हो चुकी फसल के सामने जब जाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी है. न चीखना, न चिल्लाना, न आंसू... पर कैमरा जब चेहरे को क्लोज-अप में ले जाता है तो ऐसा भाव दिखता है जो कलेजे को छील देगा. उसकी बात आप गांठ बांध कर रख लीजिए कि चावल का एक दाना भी जीवित प्राणी है.

फिल्म में कोई नाटकीय मोड़ नहीं है. यह कथा नदी के प्रवाह की तरह बहती है. आपमें सिनेमा देखने का शऊर पैदा करती है ये फिल्म. कुछ फिल्में आप फॉरवर्ड कर-करके देखते हैं, लेकिन मेरा दावा है कि इस फिल्म को आप पीछे करके देखेंगे. कुछ दृश्य और कुछ संवाद आपको ऐसा करने के लिए मजबूर कर देंगे.

अगर दृश्यों के जरिए आप संकेत समझें तो आपके लिए मेरी तरफ से एक गौरतलब दृश्य हैः हमारे किसान नल्लांडी को अपनी देह में लगी धूल-मिट्टी से कोई फर्क नहीं पड़ता, पर अंगूठे का निशान देने के लिए लगी स्याही को वह हर हाल में मिटाने की कोशिश करता है. यह अकेला शॉट... एक पन्ने के संवाद पर भारी है. यह निर्देशक के दस्तखत हैं.

#filmreview #cinemaupdates #tamilcinema #KadaisiVivasayi 

Wednesday, May 1, 2024

लापता लेडीज अच्छे विषय पर बनी अच्छी फिल्म, पर निर्देशकीय कपट साफ दिखता है

मंजीत ठाकुर
लापता लेडीज का एक दृश्य. साभारः गूगल



लापता लेडीज को जिसतरह हिंदी जगत के उदार बुद्धिजीवियों का समर्थन मिला है, वह दो वजहों से है- पहला, कुछ झोल के बावजूद कहानी सार्थक विषय पर बनी है. दूसरा, फिल्म की निर्देशक किरण राव हैं. 

एक बात कहूं? मुझे ये समझ में नहीं आया, फिल्म के पहले सीन में परदे पर 'निर्मल प्रदेश' लिखकर क्यों आता है? मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश लिखने में क्या परेशानी थी? क्योंकि छत्तीसगढ़ का जिक्र तो बार-बार आया है!

चूंकि, किरण राव पाए की निर्देशक हैं, इसलिए उन्होंने ऐसा अनजाने में किया होगा ऐसा लगता नहीं है.

एक और अहम बात, क्या फूल और पुष्पा (नाम की ओर ध्यान दीजिए, दोनों के नाम पर्यायवाची हैं, पटकथा में इतनी महीन बात का ध्यान रखा गया है) का नाम 'शबनम' और 'शगुफ्ता' हो सकता था! क्या फिल्म का एक किरदार 'घूंघट' के खिलाफ और दूसरा 'हिजाब' के खिलाफ लड़ सकता था!

नहीं लड़ सकता था.

नहीं लड़ सकता था क्योंकि ऐसा करते ही किरण राव कट्टर उदारवादी ब्रिगेड की लाडली नहीं रह पातीं.

लापता लेडीज को सोशल मीडिया पर स्वयंभू आलोचकों की काफी तारीफ मिल ररही है. तारीफ के लिए पोस्टों की भरमार के बीच--हालांकि, मैंने इस फिल्म को पिछले दो दिनों में दो बार देखा, और मुझे बहुत पसंद आई. लेकिन, विषय और संदेश और फिल्म को बरतने को लेकर लेकिन मैं देश की 140 करोड़ जनता का ध्यान फिल्म की एक गलती की तरफ दिलाना चाहता हूं. 

आरक्षी अधीक्षक एसपी को कहते हैं, इंस्पेक्टर को नहीं


गांव के दारोगा के नाम के आगे लिखा है, 'श्री श्याम मनोहर, पुलिस अधीक्षक.' देहात के थाने में पुलिस अधीक्षक क्या कर रहा है? आप करोड़ों की लागत से फिल्म बना रहे हैं, आप हिंदी प्रदेश के हृदय स्थल से एक मार्मिक विषय उठा रहे हैं और आपको हिंदी शब्दावली में पुलिस अधीक्षक नहीं पता? एसपी समझते हैं? ऊंचे दरजे की निर्देशक और आला किस्म के पटकथा लेखक लोग भाषा के मामले में मार खा जाए. जा के जमाना. हिंदी की यही गति?

किरण राव के प्रशंसकों को बुरा लगेगा. बेशक फिल्म पर्दा प्रथा पर है. सशक्त और मजबूत है. कैमरा वर्क बढ़िया है. लेकिन... लेकिन मेरे दोस्तों और सखियो, कहानी में झोल ये है कि फूल कुमारी की देवरानी ने बारात में जाकर फूलकुमारी को देखा था. कैसे? 

कहानी जिस इलाके में बुनी गई है वहां बारात में औरते नहीं जाती हैं, क्योंकि समाज दकियानूसी है (और यही बात तो निर्देशक बता रही हैं, है न?) तो फिर फूलकुमारी की देवरानी ने उसका स्केच कैसे बना दिया? शब्दभेदी बाण की तर्ज पर शब्दभेदी स्केच? कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि शादी से पहले देख आई होगी. इसका सीधा अर्थ है आपको सिनेमा का व्याकरण नहीं पता. सिनेमा में दर्शक को दिखाना पड़ता है, कोई किरदार ईमानदार है तो बताना नहीं, दिखाना होता है. एक्ट के जरिए.

साथ ही, प्रदीप (जो कि ब्राह्मण है), यानी जया का हसबैंड, उसकी मां भी बारात गई थी. इतने दकियानूसी समाज में मां बारात जाने लगी? कब से?  इसको कहते हैं कहानी में झोल. आप पहले से निष्कर्ष निकाल कर बैठेंगे तो ऐसे ही जबरिया मोड़ लाने होंगे कहानी में. 

बहरहाल, जिन दिनों फिल्म बन रही थी, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकारें थीं और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की. उदार निर्देशक ने इसी वजह से छत्तीसगढ़ का तो नाम लिया लेकिन इन दोनों राज्यों का नहीं.

बहरहाल, फिल्मों के किरदार अधिकतर उच्चवर्गीय सवर्ण हैं, इसलिए इस कंप्लीट फिल्म के तौर पर यह फिल्म मुझे मुत्तास्सिर नहीं कर पाई है. हां, निर्देशकीय कपट के बावजूद बेशक देश के बहुसंख्यक हिंदू समाज में मौजूद पर्दाप्रथा पर यह एक नश्तर चुभोती है और उस लिहाज से उल्लेखनीय है.

आपको मेरी दृष्टि संकीर्ण लगेगी. हो सकता है कुछ लोग मुझे कुछ घोषित भी कर दें. पर जब आप कहानी को छीलते हैं तो ऐसे छीलन उतरती है. 

किसी एक ने मुझसे कहा भीः फिल्म मनोरंजन के लिए देखते हो या इन सब बातों पर गौर करने? दूसरे ने टिप्पणी कीः बड़े संदेश के पीछे छोटी बातों पर ध्यान मत दो.

हम देते हैं ध्यान. क्योंकि हमें एफटीआइआइ में यही सिखाया गया हैः हाउ टू रीड अ फिल्म.

Friday, April 26, 2024

पुणे में मैथिली फिल्मों की स्क्रीनिंग, मैथिली सिनेमा को नई पहचान दिलाने में साबित होगा मील का पत्थर





शनिवार, 27 अप्रैल को पुणे में मैथिली फिल्मों का प्रदर्शन किया जा रहा है. पुणे के डीवाई पाटिल अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में यह आयोजन होना है. इस प्रदर्शन से मराठीभाषी पुणे में मैथिली सिनेमा में हो रहे काम और प्रयोगों पर लोगों की निगाहें जाएंगी.

इस प्रदर्शन की कर्ताधर्ता विभा झा कहती हैं, “मैथिली सिनेमा की पहली पारी भले ही फणी मजूमदार, सी. परमानंद और रवींद्रनाथ ठाकुर (गुरुदेव नहीं) जैसे दिग्गज फिल्मकारों और साहित्यकारों से संरक्षण में हुआ हो, फिर भी यह सिनेमा अपना बाज़ार खड़ा करने में असफल रहा. मैथिली के इतिहास में निर्देशक मुरलीधर के हाथों बनी ‘सस्ता जिनगी महग सिंदूर’ के अलावा कोई ऐसी फ़िल्म अभी तक बड़े परदे या बॉक्स ऑफ़िस पर ब्लॉक बस्टर हिट साबित नहीं हो पाई.”

बहरहाल, मैथिली सिनेमा में हो रहे कुछ नए कामों और नई फिल्मो को सिर्फ मैथिली भाषी लोगों ही नहीं, बल्कि दूसरे दर्शकों को उससे रू ब रू करवाने के मकसद से झा ने देश के अलग-अलग हिस्सों में इन फिल्मों का प्रदर्शन करना शुरू किया है.

पुणे में डीवाई पाटिल अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में यह आयोजन वहां के कुलपति प्रभात रंजन एवं उनके मास मीडिया विभाग की सहायता किया जा रहा है.

बाईस्कोप वाली के नाम से मशहूर झा, फ़िल्म शोधार्थी हैं. इन्होंने पुणे यूनिवर्सिटी भारतीय फ़िल्म अध्ययन के तहत, मैथिली सिनेमा के सीमित सफलताओं के कारणों का अध्ययन पर शोध किया है.

वह कहती हैं, “लगभग 70 वर्षों पुराना इतिहास होने के बावजूद इसके बतौर उद्योग स्थापित न होने के कारण एवं इससे जुड़े कलाकारों, फिल्मकारों का साक्षात्कार करने के दौरान जो तथ्य मिले, उन्होंने इन्हें विवश किया की इसपर काम किया जाना चाहिए.”

झा बताती हैं कि अध्ययन के दौरान 21वीं सदी से जिन युवा फिल्मकारों का मैथिली सिनेमा क्षेत्र में आगमन हुआ और जो इस भाषा में सार्थक फिल्में बना रहे हैं, उनके काम को इसके दर्शकों तक पहुंचाना उन्हें अहम काम लगा. इसके तहत सबसे पहले उन्होंने अपना शोध पूर्ण करने के बाद 2021-22 से सोशल मीडिया पर मैथिली सिनेमा पर विमर्श शुरू किया.

मैथिली सिनेमा में फिल्मों के विषयवस्तु का गैर-मैथिली भाषी दर्शकों पर क्या प्रभाव है, यह जानने के लिए मार्च, 2023 में मुंबई विश्वविद्यालय के मास मीडिया एवं सिनेमा के अध्येताओं पर वह एक अध्ययन भी कर चुकी हैं.

मैथिली सिनेमा, अभी भोजपुरी की तरह अधिक लोकप्रिय नहीं है. लेकिन कुछ लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं. विभा झा जैसे लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं. लेकिन इस सिनेमा को पूंजी-निवेश और ताजा-टटके विषयों के चयन की जरूरत है.


Friday, March 8, 2024

महाशिवरात्रिः आज विश्व को शिव की जरूरत है.

आज के समय में जब निजता की अवधारणा ही संदेहों के घेरे में है. न तो आपकी निजता का सम्मान कोई प्रतिष्ठान करता है और न ही आप खुद गोपन रहना चाहते हैं. प्रतिष्ठान को आपकी सूचना चाहिए और आपको अपने हर काम को शेयर करना है, ऐसे में शिवत्व बेहद महत्वपूर्ण है.

वह, उनका परिवार, उनका कल्याण बेहद गोपन है. आप सहज शिव को जान नहीं सकते, पर इसके साथ ही शिव हमेशा हर किसी के लिए उपलब्ध हैं. स्वर्णाभरणों से ढंकी अन्य देवमूर्तियों को छूना जहां मुश्किल है, शिव की पूजा की महत्ता स्पर्शपूजा में है. कुछ ऐसे ही जैसे कोई बहुत बड़ा आदमी हमेशा आपके साथ सेल्फी के लिए मुस्कुराता बैठा रहे.

पर मैंने कहा कि आज शिव की जरूरत है. कोई भी पूछ सकता है कि इस औघड़दानी, महादेव, भोलेबाबा की ज़रूरत क्यों है? कपड़ों को महत्व देने वाले इस समय में बेहद बुनियादी कपड़ों में रहने वाले को कौन पूछेगा भला? असल में, जरूरत इसी वास्ते है.

शिव मुझे बहुत पसंद हैं. एक ईश्वर के रूप में, सभी समुदायों में समन्वयकारी मध्यस्थ के रूप में, एक सुखी परिवार के मुखिया के रूप में.

जरा गौर से देखिए, रहते हैं हिमालय की ऐसी जगह पर जहां घास का तिनका तक नहीं उगता. और उनका वाहन नंदी (बैल) कैसे रहता होगा? देवी पार्वती का वाहन बाघ है, उसका भोजन बैल हो सकता है. गणेश जी का वाहन मूषक है, वह शिवजी के गले में लिपटे रहने वाले नाग का भोजन हो सकता है.

बड़े बेटे कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जो नाग को ग्रास बना सकता है. पर, सब एक साथ रहते हैं. निस्पृह शिव की पत्नी सौभाग्य की देवी हैं. एक पुत्र देवों का सेनापति है और एक बुद्धि का. सभी समुदायों के मिलजुल कर रहने का यह ऐसा पावन उदाहरण है, जिसको अभी भारत में सख्त ज़रूरत है.

आइए, शिव का महज जलाभिषेक ही न करें, बल्कि उनके गुणों पर चलने का प्रयास भी करें. हर हर महादेव.

Saturday, February 10, 2024

सबके रामः देश के अलग हिस्सों में राम की कथा के अलग स्वरूप प्रचलित

रामायण या रामकथा की परंपरा न केवल भारत में, बल्कि पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में मौजूद है. भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के इर्द-गिर्द घूमती कहानियां ग्रामीण हो या शहरी हर परिवेश में मौजूद हैं. रामकथाओं के तहत कलाएं न तो लोककथाएं रहती हैं और न ही शास्त्रीय कलाएं.

रामकथाएं साहित्यिक रूपों के साथ ही अलग-अलग स्वरूपों में दंतकथाओं, चित्रकलाओं और संगीत हर ललित कला में उपस्थित है. हर रामकथा का अपने खालिस देसी अंदाज में मौलिकता लिए हुए भी और उसमें स्थानीयता का भी शानदार समावेश है.

रामकथा के उत्तरी भारत, दक्षिण भारत या पूर्वी तथा पश्चिम भारत में मौजूद साहित्यिक स्वरूपों के अलावा यह दंतकथाओं के मौखिक रूप में और किस्से-कहानियों के रूप में भी प्रचलित है. श्रीराम की कहानी स्थानीय रिवाजों, उत्सवों, लोकगायन, नाट्य रूपों, कठपुतली और तमाम कला रूपों में समाई हुई है.

रामकथा का वाचन करने वाले कथाकार तो पूरे भारत भर में फैले हैं ही. हिंदी पट्टी में कथाकार और रामायणी (रमैनी), ओडिशा में दसकठिया (दसकठिया शब्द एक खास वाद्य यंत्र काठी या राम ताली से निकला है. यह लकड़ी का एक क्लैपर सरीखा वाद्य है जिसे प्रस्तुति के दौरान बजाया जाता है. राम कथा की इस प्रस्तुति में पूजा की जाती है और प्रसाद को दास यानी भक्त की ओर से अर्पित किया जाता है) एक खास परंपरा है. इसके साथ ही, बंगाल में कथाक और पंची, मणिपुर में वारी लीब, असम में खोंगजोम और ओझापाली, मैसूर में वेरागासी लोकनृत्य, केरल में भरत भट्टा और आंध्र में कथाकुडुस प्रमुख हैं.

बंगाल की पांचाली, पावचालिका या पावचाल से निकला शब्द है, जिसका अर्थ होता है कठपुतली. मणिपुर के वारी लिब्बा परंपरा में सिर्फ गायन का इस्तेमाल होता है और इसमें व्यास आसन पर बैठा गायक किसी वाद्य की बजाए तकिए के इस्तेमाल से रामकथा गाकर सुनाता है.

असम के ओझापल्ली में एक अगुआ होता है जिसे ओझा कहते हैं और उसके साथ चार-पांच और गायक होते हैं जो मृदंग आदि के वादन के जरिए रामकथा कहते हैं. मैसूर के वीरागासे लोकनृत्य को दशहरे के वक्त किया जाता है.

मेवात के मुस्लिम जोगी भी राम की कहानी के इर्द-गिर्द रचे गए लोकगीत गाते हैं और उन रचनाओं के रचयिता थे निजामत मेव. निजामत मेव ने इन्हें आज से कोई साढ़े तीन सौ साल पहले लिखा था. राम की कथा पर मुस्लिम मांगनियार गायकों के लोकगीत कुछ अलग ही अंदाज में गाए जाते हैं.

रामकथा के जनजातीय समाज के भी अलग संस्करण हैं. भीलों, मुंडा, संताल, गोंड, सौरा, कोर्कू, राभा, बोडो-कछारी, खासी, मिजो और मैती समुदायों में राम की कथा के अलग संस्करण विद्यमान हैं. इन कथाओं का बुनियादी तत्व या ढांचा तो वही है लेकिन इन समुदायों ने इन रामकथाओं में अपने क्षेपक और उपाख्यान जोड़ दिए हैं.

रामायण की कथा में स्थानीय भूगोल और रिवाजों का समावेश किया गया है और स्थानीय खजाने से लोकगीत और आख्यानों को भी रामायण की कथा में जोड़ दिया गया है. स्थानीय समुदायों के नैतिक मूल्यों को भी इन कथाओं में जगह दी गई है. कई समुदायों के अपने रामायण हैं और वहीं से इन समुदायों ने अपनी उत्पत्ति की कथा भी जोड़ रखी है.

रामायण के जनजातीय और लोक संस्करणों के साथ ही बौद्ध और जैन प्रारूप भी हैं. पूर्वोत्तर की ताई-फाके समुदाय की कथाओं में भगवान राम बोधिसत्व बताए गए हैं.

यद्यपि असमिया में वाल्मिकी रामायण का सबसे पहला अनुवाद 14वीं शताब्दी में माधव कंडाली ने किया था, लेकिन इस क्षेत्र में राम की कथा से जुड़ी एक जीवंत लोकप्रिय और लोक परंपरा है.

असम में, संत-कवि शंकरदेव द्वारा रचित और माधव कंडाली की रामायण पर आधारित नाटक राम-विजय बहुत लोकप्रिय है और इसका मंचन अंकिया नट और भाओना शैली में किया जाता है. रामायण-गोवा ओजापालिस की एक और परंपरा में गीत, नृत्य और नाटक शामिल हैं. कुसान-गान एक प्रचलित लोकनाट्य है और इसका नाम राम के पुत्र कुश से जुड़ा है.

राम कथा के संस्करण बोडो-कचारी, राभा, मिसिंग, तिवेस, करबीस, दिमासा, जयंतिया, खासी, ताराओन मिशमिस के बीच भी लोकप्रिय हैं. मिज़ो जनजातीय समुदाय में भी राम कथा से प्रभावित कहानियां हैं. मणिपुर में राम कथा वारी-लीबा (पारंपरिक कहानी कहने), पेना-सक्पा (गाथा गायन), खोंगजोम पर्व (ढोलक के साथ कथा गायन) और जात्रा (लोक-नाट्य) शैलियों में प्रदर्शित की जाती है.

पूर्वी भारत की बात करें तो, उड़ीसा में बिसी रामलीला का आयोजन होता है. यह 18वीं शताब्दी में विश्वनाथ कुंडिया की विचित्र रामायण पर आधारित और सदाशिव द्वारा नाटक में बदले नृत्य नाटिका का एक रूप है. बिसी रामलीला के अलावा, उड़ीसा में उपलब्ध एक और शानदार रूप साही जात्रा का है, जो एक जात्रा का ही एक रूप है, इसको जगन्नाथ मंदिर के सामने प्रदर्शित किया जाता है.

गौरतलब है कि उड़ीसा कोसल नामक प्राचीन क्षेत्र का हिस्सा था. छत्तीसगढ़ के साथ इसके सटे हिस्सों में रामायण के कई प्रसंग घटे हैं. यह क्षेत्र रामकथा के कई लोक और जनजातीय संस्करणों से भरपूर है.

इनमें से सबसे शानदार और रंग-बिरंगी शैली है छऊ. छऊ की तीन शैलियां हैं- मयूरभंज छऊ (ओडिशा) पुरुलिया छऊ (पश्चिम बंगाल) और सरायकेला छऊ (झारखंड). पुरुलिया और सरायकेला छऊ में बडे और सुंदर मुखौटों का प्रयोग किया जाता है. इस शैली में रामकथा का मंचन बेहद लोकप्रिय है.

पश्चिम बंगाल में जात्रा नाटकों, पुतुल नाच (कठपुतली नृत्य) और कुशान रामायण की बेशकीमती परंपरा है. बंगाल के मुस्लिम पटुआ लोग रामकथा को कागज पर उकेरते हैं और कथा गाते हुए एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं. कठपुतली परंपरा में छड़ी कठपुतलियों का उपयोग किया जाता है और इसकी कहानी जात्रा शैली से प्रभावित ग्रंथों पर आधारित है. कुषाण रामायण इस क्षेत्र में उपलब्ध एक जीवंत नाटक रूप है.

कर्नाटक में गोंबेयट्टम भी कठपुतली नृत्य का प्रकार है जिसमें रामकथा दिखाई जाती है. छाया नृत्यों में तोल पावाकुट्टू केरल की और तोलू बोम्मलाता आंध्र के छाया नृत्य हैं. ओडिशा में रावण छाया, बंगाल में दांग पुतुल भी कठपुतलियों के छाया नृत्यों के प्रकार हैं जिनमें राम और रावण के युद्ध का वर्णन किया जाता है.

कर्नाटक में यक्षगान और वीथीनाटकम, तमिलनाडु में तेरुक्कट्टू और भगवतमेला, केरल में कुट्टीयट्टम आदि ऐसी नृत्य शैलियां हैं जिनमें रामकथा का प्रदर्शन होता है. आज कथकली काफी मशहूर है लेकिन सातवीं सदी में इसकी जब शुरुआत हुई थई तो इसका नाम रामानट्टम (राम की कथा) ही था.

उत्तर प्रदेश में नौटंकी, महाराष्ट्र में तमाशा और गुजरात में भवई लोकनाट्य रूप हैं जिनमें रामकथाओं का मंचन किया जाता रहा है.

हिमालयी इलाके में कुमाऊंनी रामलीला रागों के आधार पर प्रस्तुत की जाती है. गढ़वाल इलाके में रामवार्ता (ढोलक पर) और रम्मन (मुखौटे के साथ लोकनृत्य) में स्थानीयता के पुट के साथ रामकथा सुनाई जाती है. हिमाचल में ढोल-धमाऊं में रामायनी गाई जाती है. गद्दी रमीन, कांगड़ा में बारलाज, शिमला में छड़ी, कुल्लू रमायनी, लाहौल में रामकथा, रामायण की कहानियों की स्थानीयता की कुछेक मिसाले हैं.

विलक्षणता यह है कि राम को भी नायक, अवतार, खानाबदोश सांस्कृतिक नायक और राजा के रूप में तो पेश किया ही जाता है कई जनजातीय समुदायों में रामायण के असली नायक लक्ष्मण हैं. कई रामकथाओं में लक्ष्मण शांत, धीर-गंभीर और युवा हैं और उनके स्वभाव में जरा भी आक्रामकता नहीं है.

मध्य भारत में बैगा जनजाति की कथाओं में, एक कथा प्रचलित है कि लक्ष्मण को अग्निपरीक्षा देकर अपनी शुद्धता साबित करनी होती है. कई लोककथाओं में सीता माता ही काली का अवतार धारण करती हैं और रावण समेत अन्य राक्षसों का वध करती हैं.

कहते हैं राम कण-कण में है तो रामकथा भी भारत ही नहीं दुनिया के अलग-अलग स्थानों पर अपने अलग स्वरूप में मौजूद हैं. हर किसी के लिए राम का अपना रूप है. पर सबका मौलिक संदेश एक ही हैः मर्यादा, न्याय और समानता.