Thursday, August 13, 2015

विकास की रफ्तार से कुचले जाते लोग

इस बार के स्तंभ में कायदे से मुझे कांग्रेस सांसदो के लोकसभा से निलंबन पर या फिर एक आतंकवादी को दी गई फांसी पर टिप्पणी करनी चाहिए। लेकिन यह ऐसे मसले हैं जिनपर न जाने कितनी चर्चा हो गई है। इसलिए मैं इस दफा इस स्तंभ में ऐसा मसला उठा रहा हूं जो वाक़ई अभी तक नक्कारखाने में तूती सरीखी ही है।

मसला भी ऐसा है जिसमें कोई ग्लैमर नहीं। कोई राजनीतिक दल इसे चुनावी घोषणापत्र में भी जगह नहीं देगा, क्योंकि इससे वोट बटोरे जाने की उम्मीद भी नहीं है।

मध्य प्रदेश के घने जंगलों के बीच बसा पन्‍ना का एक गांव है उमरावन। पन्‍ना जिले के देवनगर ग्राम पंचायत के तहत इस गांव में अप्रैल 2014 के सर्वे के मुताबिक 102 पुरुष, 137 महिलाएं और 43 बच्‍चे (0-6 साल के हैं)।

गांव के लोग पास की पत्‍थर खदानों में सौ-दो सौ रुपये रोजाना की मजदूरी या फिर जंगल से सूखी लकड़ियां बटोरकर बाजार में बेचकर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं।

यह गांव एनडीएमसी की पन्‍ना डायमंड माइंस के अंतर्गत आता है। अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने एनडीएमसी को पहले पन्‍ना टाइगर रिजर्व में अपनी खदान बंद करने को कहा, लेकिन फिर उसे जारी रखने की अनुमति भी दे दी। लेकिन जिला प्रशासन अब उमरावन गांव के लोगों को वहां से हटाना चाहता है। यानी खदान चल सकती है, पर गांव के लोग नहीं रह सकते।

पन्‍ना टाइगर रिजर्व की अपनी मुआवजा व्‍यवस्‍था है। इसके तहत 10 लाख रुपए का एकमुश्‍त पैकेज दिया जाता है। जमीन के बदले जमीन की कोई मांग उन्‍हें मंजूर नहीं होती, क्‍योंकि इस प्रक्रिया में कई पेंच हैं। एक तो जमीन नहीं है, दूसरे पुनर्वास का पूरा कानून इसमें लागू होता है, जो कि राज्‍य सरकार की आदर्श पुनर्वास नीति भी है। पुनर्वास को लेकर राजनीति भी होती है, इसलिए प्रशासन और वन विभाग हमेशा यही चाहता रहा है कि किसी तरह मामला एकमुश्‍त पैकेज देकर निपट जाए।

उमरावन गांव के लोगों के लिए भी वन विभाग से 10 लाख रुपए प्रति व्‍यक्‍ति (परिवार में 18 साल से ज्‍यादा के विधवा और तलाकशुदा लोग भी हो सकते हैं) मुआवजा तय किया है। दो माह पहले गांव में सुबह साढ़े पांच बजे जन-सुनवाई हुई। गांव के लोगों के साथ दूसरे गांव के भी लोग थे। जमीन या मुआवजा राशि, इन दो सवालों पर राय मांगी गई। चूंकि मुआवजा राशि के पक्ष में हाथ उठाने वाले 4 लोग अधिक थे, लिहाजा कलेक्‍टर ने उनके ही पक्ष में फैसला लिया।

जनसुनवाई में कुछ ऐसे परिवार भी थे, जो चार पीढ़ियों से वहां रह रहे हैं। वे गांव नहीं छोड़ना चाहते, लेकिन बहुमत मुआवजा लेकर गांव छोड़ने के पक्ष में है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, गांव में तकरीबन सभी परिवारों के पास खेती की जमीन है। गांव के 71 परिवारों में से 14 के पास वनाधिकार कानून के पट्टे भी हैं।

पत्‍थर खदानों में काम करने वाले गांव के कई पुरुष सिलिकोसिस बीमारी से पीड़ित हैं। गांव के 14-15 साल के बच्‍चे सुबह पांच बजे से खदानों में काम करने पहुंच जाते हैं। 30 साल की उम्र तक पहुंचते उन्‍हें सिलिकोसिस बीमारी घेर लेती है। बाद में वे 15-20 साल और जी पाते हैं।

गांव में पांचवीं तक एक स्‍कूल और मिनी आंगनबाड़ी है। गांव की राशन दुकान छह किमी दूर बड़ौड़ में है, जो माह में केवल दो दिन ही खुलती है। अब कलेक्‍टर ने सभी विस्‍थापितों के बैंक खाते में मुआवजा राशि जमा कर दी है, लेकिन सभी लोगों के पास बैंक खाते भी नहीं हैं। गांव का बिजली कनेक्‍शन काट दिया है, ताकि वे गांव छोड़ने पर मजबूर हो जाएं।

गांव वालों को वन विभाग के मुआवजे पर यकीन नहीं है, क्‍योंकि अब तक उनके मवेशियों को टाइगर रिजर्व से जितना नुकसान हुआ, उसका एक पैसा भी नहीं मिला है। दूसरी तरफ वन विभाग आए दिन जंगल से सूखी लकड़ियां लाने वाली महिलाओं को पकड़कर उनसे 1500 से 5000 रुपए तक वसूलता है।

मेरे जेहन में दो तीन सवाल हैं। अव्वल, अगर खदान को सशर्त अनुमति दी जा सकती है तो क्या गांववालों का विस्थापन अपरिहार्य है? दोयम, जन-सुनवाई सुबह साढ़े पांच बजे क्यों हुई? तीसरी बात, ज़मीन पर वनाधिकार के पट्टों की सुनवाई कैसे होगी?

बाघ और जंगल जरूरी हैं, लेकिन जड़ से उखाड़े जा रहे लोगों के भविष्य का ध्यान रखा जाना जरूरी है। बात, इतनी सी है कि विकास की रफ़्तार में कहीं कोई तबका कुचल न दिया जाए।




No comments: