Monday, February 8, 2016

खेती के विकास का टिकाऊ रास्ता

इन दिनों एक लंबी यात्रा पर हूं। इस सफ़र के ज़रिए भारत के विकास की रफ़्तार को नापने की कोशिश कर रहा हूं। इस सफ़र में चार राज्यों में घूमने की योजना है। लेकिन आज किस्सा पंजाब का।

देश में हरित क्रांति आई तो पंजाब और हरियाणा खेती के नए तरीकों को गले लगाया और अनाज की कमी से जूझ रहे देश का पेट भरने के लिए भरपूर पैदावार दी। लेकिन हरित क्रांति के हल्ले में एक गलती हो गई, होती चली गई।

पैदावार बढ़ाने के लिए रासायनकि खाद और कीटनाशकों का भरपूर इस्तेमाल हुआ। वैज्ञानिकों ने उस समय बताया, और खेतिहर अपनाते गए। संकर बीज, रसायन, रासायनिक खाद। उपज बढ़ गई, लेकिन उसका असर पड़ा ज़मीन पर, लोगों पर, उनकी सेहत पर और पानी पर।

आज की तारीख में देश में रासायनिक खाद के इस्तेमाल का औसत 128 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। लेकिन दक्षिणी पंजाब और उत्तरी हरियाणा में उर्वरकों के इस इस्तेमाल का आंकड़ा कुछ ज्यादा ही है। पूरे पंजाब राज्य में औसत रूप से 250 किलो प्रति हेक्टेयर और हरियाणा में 207 किलो की खपत होती है।

नतीजा यह हुआ कि सिंचाई के लिए खेतों में खुला पानी छोड़ देने की आदत और पंजाब-हरियाणा में पहले से पानी की कमी से रासायनिक खाद और कीटनाशकों का जहर जानवरों से होता हुआ और अनाज के ज़रिए भी इंसानों में प्रवेश कर गया।

पंजाब में इस जहर के असर लोगों की सेहत पर पड़ना शुरू हो गया। कैंसर के रोगियों की तादाद यहां सबसे अधिक है। बठिंडा के आसपास के कई गांव तो ऐसे हैं जहां कैंसर के रोगी सैकड़ों की तादाद में हैं। बठिंडा से चलकर बीकानेर तक जाने वाली एक ट्रेन का नाम ही कैंसर एक्सप्रेस हो गया है। इस ट्रेन में सफर करने वालों में कैंसर के रोगियों की संख्या बहुत अधिक होती है। यह लोग इलाज के लिए बीकानेर जा रहे होते हैं।

बहरहाल, कैंसर एक्सप्रेस के बारे में फिर कभी। आज तो पंजाब के इस विकास को अब टिकाऊ शक्ल देने के बारे में सोचने वाले कुछ किसानों की कहानी।

हम बठिंडा के कलालवालाँ गांव पहुंचे तो वहां मुलाकात हुई भोला सिंह, जगदेव सिंह और उनके भतीजे रॉबिन सिंह से। इन लोगों ने जैविक खेती शुरू की। सब्जी हो या गेहूं, या फिर गुलाब, इन लोगो ने रासायनिक खादों का इस्तेमाल बंद कर दिया।

लेकिन जैविक खेती तो बहुत सारे लोग करते हैं। जगदेव सिंह के परिवार ने ऐसा खास क्या किया? खास है उनका जैविक कीटनाशक। इन लोगों ने जीव अमृत नाम से एक ऐसा खास घोल तैयार किया है, जो मिट्टी के पोषक तत्वों को बढ़ा देता है।

हमारे कहने पर इन लोगों ने वह मिश्रण बनाना हमें भी सिखा दिया है। उनके मुताबिक, यह मिश्रण को कोई कोकाकोला का रहस्य नहीं और देश के हर राज्य के किसानों के काम आना चाहिए।

जीव अमृत के लिए 10 किलो देसी (संकर नहीं) गाय का गोबर, 10 किलो गोमूत्र, दो मुट्ठी नदी या नहर की बिना रसायन वाली मिट्टी, एक किलो गुड़ या दो लीटर गन्ने का रस, एक किलो फलीदार आटा, (समझिए सोयाबीन), और इसमें 200 लीटर पानी मिलाकर छाया में 48 घंटे के लिए छोड़ दीजिए और हर बारह घंटे में एक बार लकड़ी से चला दें। ठीक 48 घंटे बाद इस जीव अमृत को 15 लीटर पानी में 2 लीटर मिलाकर एक एकड़ में छिड़काव करने से फसल पर दस दिनों के भीतर असर दिखने लगता है।

मेरी सलाह है कि इसको बनाने का खर्च बेहद कम है तो क्यों न इस्तेमाल कर के देखा जाए। रसायनों पर सब्सिडी के लिए हो-हल्ला नहीं होगा। सरकार का बोझ दो तरफ से कम होगा। रसायनों के इस्तेमाल से होने वाले सेहत के नुकसान पर दवाओं का खर्च कम होगा सो घलुए में।



1 comment:

जसवंत लोधी said...

जेविक खेती ही करना पडेगा तभी होगा विकास ।
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