Tuesday, January 24, 2017

उज्जवल करती उज्जवला

जब हम गांव की बात करते हैं तो जेहन में एक तस्वीर ज़रूर घूम जाती है, शाम के वक्त हवा में घुलता और हर घर से उठने वाला चौके का धुआं। एक तस्वीर और कौंधती है, वह है चूल्हा फूंकती औरतें।

बात गांव की करें, और साथ में अनुसूचित जाति या जनजाति के गांवों की करें तो स्थिति और बदतर हो सकती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले साल के मई महीने में इस स्थिति को सुधारने के लिए एक योजना शुरू की थी, नाम था उज्जवला योजना। योजना में देश के गरीब घरों तक गैस कनेक्शन देने की बात कही गई थी। शायद इससे प्रदूषण पर भी लगाम लगाई जा सकती है लेकिन बड़ा फायदा यही गिनाया गया कि घर में चूल्हा फूंकने वाली औरते हर रोज़ धुएं की उतनी ही मात्रा फेंफड़े में लेती हैं, जो 40 सिगरेट के बराबर होती है।

चूल्हे के धुएं में कार्बन मोनोक्साइड, सल्फर और तमाम ऐसी गैसे होती हैं, जिनको ज़हरीली गैस कहा जाता है। निजी तौर पर मैं मानता हूं कि कोई योजना तभी कामयाब मानी जा सकती है, जब उसका फायदा समाज के सबसे वंचित तबके को मिले। उज्जवला योजना की कामयाबी को ग्राउंड लेवल पर जांचने हम मध्य प्रदेश-राजस्थान की सरहद पर शिवपुरी पहुंचे थे। यह इलाका सहरिया जनजाति का है, जो पहले जंगलों के भीतर थे और विस्थापित होकर अब नए बसाए गांवों में या फिर इधर-उधर अस्थायी ठिकाना बनाकर रह रहे हैं।

मध्य प्रदेश घाटीगांव के ऐसे ही एक अस्थायी पुरवे में मेरी मुलाकात हुई थी रज्जोबाई से। रज्जोबाई अमले को देखते ही डर गई, लेकिन जब हमने उनसे गैस चूल्हा दिखाने को कहा तो फिर उनका डर धीरे-धीरे कम हुआ। यह बात और है कि उस वक्त उनके पास गैस चूल्हे पर उबालने के लिए कुछ नहीं था, लेकिन उस सहरिया बस्ती में रज्जोबाई समेत तकरीबन सभी के पास गैस कनेक्शन पहुंच चुका था। योजना में बीपीएल परिवारों को गैस कनेक्शन और पहली बार भरा हुआ सिलिंडर मुफ्त मिलता है।

असल में, इस योजना के तहत तीन साल के भीतर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले कुल 5 करोड़ परिवारों को गैस कनेक्शन दिए जाने वाले थे। इसके तहत पहले साल डेढ़ करोड़, दूसरे साल डेढ़ करोड़ और तीसरे साल दो करोड़ गैस कनेक्शन बांटे जाने का लक्ष्य तय किय़ा गया था। लेकिन योजना की कामयाबी यही है कि अभी तक यानी लागू होने के नौ महीने के भीतर ही करीब 1 करोड़ 70 लाख कनेक्शन वितरित कर दिए गए हैं।

लेकिन, इस योजना को लागू कराने में कुछ ज़मीनी स्तर की परेशानियां भी हैं। योजना के तहत, दिए जा रहे कनेक्शन साल 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना पर आधारित हैं और उनमें लाभार्थियों के पूरे पते नहीं है। ऐसे में लाभार्थी को खोज निकालना मुश्किल काम है। यह कठिनाई जनजातीय इलाकों में बढ़ जाती है जहां विस्थापन जीवन का स्थायी भाव बन गया है।

वैसे भी इस योजना की कामयाबी देश की भी ज़रूरत है क्योंकि देश के कुल 24 करोड़ घरो में से 10 करोड़ घर अब भी ऐसे हैं जो जलावन क लिए लकड़ी, कोयले, गोयठे या उपलों पर निर्भर हैं।

मुझे इस योजना की कामयाबी पर हैरत इसलिए भी हुई क्योंकि इस के तहत बांटे जाने वाले गैस सिलिंडर वही होने थे जो प्रधानमंत्री के गिव-अप स्कीम के तहत अमीर लोगों की सब्सिडी वाले सिलिंडर के तौर पर एजेंसियों को वापस मिलने वाले थे। याद कीजिए, साल 2014 का लोकसभा चुनाव, कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में सब्सिडी वाले 9 सिलिंडरों की जगह 12 सिलिंडर देने का वायदा जनता से किया था। लेकिन केन्द्र सरकार ने इसके उलट लोगों से सब्सिडी छोड़ने की अपील की। हर चीज़ मुफ्त पाने को ललायित भारतीयों में से डेढ़ करोड़ लोगों ने अगर प्रधानमंत्री की अपील पर रसोई गैस की सब्सिडी छोड़ दी, तो हैरत तो होनी ही है।

अब, पहले 9 महीने में इस योजना ने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया है तो बारी पूर्वोत्तर राज्यों की है जहां सिर्फ असम से ही एक 1.74 लाख गैस कनेक्शन के आवेदन आ चुके हैं।

उज्जवला योजना में फिलहाल तो वोट बैंक की सियासत दिखती नहीं है। गांव के गरीबों के घर में गैस चूल्हे की नीली लौ जलने लगी है यह संतोष की बात है। अब यह सवाल तो बिलकुल अलहदा है न कि उस पर पकेगा क्या?


मंजीत ठाकुर

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