Wednesday, August 22, 2012

सुनो ! मृगांका: 19: है इश्क़ सलामत मेरा


अब तक आपने पढ़ाः अभिजीत अपने सारे बैंक-बैलेंस वगैरह अपने रिश्तेदारों के नाम करके गांव लौट रहा होता है। खजली स्टेशन पर उसने रिक्शा पकड़ा, और जब घर गया तो पता चला गांव के बंद मकान की चाबी उसके पास नहीं..फिर वह रिक्शेवाले के ही घर पर रुकता है।-मंजीत)

फिर सुबह हुई...

कंधे झिंझोड़ने से वह जाग गया। 'सुनो ...टुम डाग डाओ.. ' बिसेसर की छोटी बच्ची ने उसे
झिंझोडा़ था।

इहां पर टुमारा टाय रखा है( यहां पर तुम्हारी चाय रखी है) पी लो रे...बच्ची ने कपड़े के बाजू से अपनी बहती नाक पोंछने की नाकाम कोशिश की। अभिजीत ने लेटे-लेटे ही ग्लास उठा लिया। सफर की थकान अब भी तारी थी। स्टील की ग्लास में चाय तकरीबन पूरा ही भरा था।

"तुम्हारे बाबूजी कहां हैं..?" अभिजीत ने पूछा।

"खेट गए हैं...."

अभिजीत ने हैरत से देखा। सुबह अभी पूरी तरह से हुई भी न थी। लेकिन हवा में चूल्हा चलने की खुशबू तिर रही थी। जहां दालान पर वह लेटा था, वहां से सड़क तक दिखाई नहीं दे रही थी।

पूरा दृश्य ऐसा दिख रहा था मानो एक चित्रकार का सारा सफेद रंग कैनवास पर गिर गया हो और उसे ठीक करने के वास्ते उसने पेंसिल से लकीरें खींच दी हों।

"इतनी सुबह में 'खेट' क्यों गए हैं?"  अभिजीत ने लड़की के तुतलाते उच्चारण में बात करने की कोशिश की। उस यह उच्चारण भला लगने लगा था। "अरे, दीसा करने गए हैं रे.." कहकर लड़की खिलखिला पड़ी। वह अपने भाई से यह बताने में मशगूल हो गई कि शहर से आए आदमी को यह पता ही नहीं कि आदमी भोर में 'खेट' में 'दीसा' करने जाता है। लड़का ज्यादा चंट था। उसने अभिजीत को बताया कि दिशा करना या खेत जाने का मतलब सुबह-सुबह खेत में फसल
देखने जाने जैसी बेहद प्रतिबद्ध भकलोलबाजी और बेहूदगी नहीं बल्कि बेहद कूथकर संपन्न की जाने वाली निष्कासन क्रिया है।

"ऐ.." लड़की ने फिर टोका।

"हूं.."

"टुम टाय पीने से पहले मूं नहीं धोटा है क्या..?" लड़की ने दातुन की ओर इशारा किया। लड़की ने अभिजीत को दातुन दिया। दातुन करते-करते ही अभिजीत ने लड़की की तरफ देखा। उस बच्ची को देखते ही उसे अचानक मृगांका याद आ गई।

बेहद प्यार के पलों में उसके लिए ऐेसे ही चाय लाकर मृगांका ने पूछा था--ए अपने कितने बच्चे होगे।

कितने होने चाहिएं मृग? अभिजीत ने मु्सकुरा कर कहा था।
 कम से कम नौ। 
तुम्हें नहीं लगता कि देश की आबादी पहले से ही ज्यादा है।
अरे नहीं, हमारे सारे नेताओं को तो बच्चे पैदा करने की छूट है, हमें भी मिलनी चाहिए। मृगांका एकदम से बचकाने लाड़ से बोली थी।

लेकिन नौ? 
हां, नौ। आठ प्लांड और एक अनप्लांड।
अनप्लांड अभिजीत सुनकर हंसते-हंसते बेहाल हो गया। मृगांका भी अचानक शर्मा-सी गई। दातुन अभिजीत के मुंह से रखा था। स्थिर। 
ऐ इसको खाएगा क्या, चबाके कूची बनाओ ना, तभी ना दातुन करेगा। बिसेसर की बेटी उसे वापस वर्तमान में ले आई।

और वह दातुन को चबाकर कूची बनाने का काम कर ही रहा था कि मड़र अवतरित हुआ। अभिजीत ने उससे दिशा संपन्न करने की जगह पूछी तो मड़र ठठाकर हंस पड़ा, और खेतों की ओर उसे ले चला।

बिसेसर उसे उन खेतों की ओर ले चला, जो पोखरे के पास थे। सुबह-सुबह की इस अत्यावश्यक क्रिया से निपट कर अभिजीत कुछ और कहता तभी बिसेसर ने खुद कहा कि अब दोनों यहां के महंत के पास चलने वाले हैं, जो काशी हिंदू विश्विद्यालय में काफी पुराने ज़माने में पड़कर आए हैं और उनको ज़माने की हर बात पता है। इस गांव का इतिहास, भूगोल सब कुछ .. महंत जी हाथ की रेखाएं देखकर लोगों का भूत-भविष्य बतादेते हैं। बहुत पढे-लिखे हैं. महंतजी। 


अभिजीत को जो बात पता चली वह हे कि महंत जी गांव के मठ जिसे 'कुट्टी' भी कहा जाता है-के मालिक हैं। 'कुट्टी' यानी भव्य मंदिर के तहत पचासों बीघे ज़मीन है। उनका सारा प्रबंध खुद महंत जी करते हैं..इतनी उम्र होने पर भी महंत जी सक्रिय हैं।

"मठ कहां हैं.."

"यहीं पोखरे के मोहार (किनारे) पर मंदिर है.. इस पोखरे को महंतजी का पोखर..महंजी पोखर कहा
जाता है.. वहीं है।" मड़र ने इशारा किया। दोनो महंत जी के पोखरे की तरफ़ बढ़ चले। विशाल पोखरा... लेकिन ऐसा लगा रहा था कि साद भर रही है पोखरे में। किनारे बने हुए घाट को छोड़ दें, तो एक किनारा जलकुंभियों से अंटा था। सेवार और काई ..एक हिस्से में पुरैन (कमल) के फूल खिले थे.. जितने फूल नहीं उससे कहीं ज्यादा झाड़-झंखाड़।

वहां जाकर बिसेसर ने उसे बताना शुरु किया, ये जो पेड़ देख रहे हैं मालिक, पाकड का..ये हमारे ग्राम देवता हैं, भैरव बाबा। इसके चारों तरफ जो मैदान है पहले बहुत बड़ा था अब थोड़ा सिकुड़ गया है। भैरव बाबा से जो मनौती मांगिएगा, पूरा हो जाता है। हमरी दो-दो लड़कियां हो गईं, तो हमारी मां ने सोंगर कबूल किया। तब हमारा बचवा पैदा हुआ..।

सोंगर.. 
हां सोंगर माने लोहे का छड़ जैसा चीज़.. यहां यही चढाया जाता है भैरव बाबा को। साथ में कुछ परसाद भी चढ़ा दीजिए। गांव के लोग की हर मानता(मन्नत) पूरी करते हैं और रोग-सोक, मरनी-हरनी और दुख-दलिद्दर से दूर रखते हैं. सबको..
 
अच्छा.. अबिजीत को मड़र के अगाध विश्वास पर आश्चर्य हो रहा था। मड़र चालू रहा,
यहां से पश्चिम जो रेलवे लाईन है वो उत्तर की तरफ खजौली होते हुए जयनगर तक चला जाता है। दक्खिन में मधुबनी-दरभंगा तक। एक वक्त था जब इस लाईन पर जानकी एक्सप्रैस जैसी ट्रेन कोयले के इंजन से चलती थी। ...धुआं उड़ाती ट्रेन शुरु में तो सबके लिए मजा़ का चीज था लेकिन बाद में वह घड़ी का काम करने लगा। नौबजिया, दसबजिया और चरबजिया जैसे नाम पड़ गए रेलगाडियों के..। लोग बाग अपने काम रेल के आने-जाने के वक्त से तय करते थे। जैसे कि शाम में झाड़ा फीरना यानी दिशा-मैदान से फारिग होना चार बजे शाम की ट्रेन यानी चरभजिया से तय होता।

पाठकों को बता दें कि जिस रेलवे लाईन का ज़िक्र बिसेसर मड़र कर रहे हैं, उन दिनों यहां छोटी लाईन थी। खजौली, मधुबनी या दरभंगा-जयनगर जाने वाले वोग, छात्र, कुंजड़िनें(सब्जी वाली) मयसामान के, बिना टिकट, बड़ी सहूलियत से, गंतव्य तक बेरोकटोक जाते थे।

भारतीय रेल की छोड़ दें, दुनिया भर के किसी टीटीई की क्या मज़ाल की छात्रों और कुंजड़िनों से टिकट मांगने की गुस्ताखी कर दे। अगर किसी ने यह हिमाकत कर भी दी तो सब्ज़ी के टोकरों से भरे डब्बे में कुंजडि़नें मुमुनाना, भुनभुनाना और झगड़ा करने लगतीं। भुनभुनाहट सोलो यानी एकल शुरु होता और ड्युएट होते हुए कोरस पर ख़त्म होता। इस झगड़े में शाइस्तगी या पाकीज़गी जैसी बेहूदा चीजे सिरे से नदारद होतीं। होनी भी चाहिए।

झगड़े के इस महाप्रकरण में ऐसे शब्द होते जिन्हें महज असंसदीय कहना उनकी महत्ता को अपमानित करने जैसा होगा। टीटीई महोदय को भगिनीभंजक, मातृ-उत्पीड़क आदि कहना तो आम बात थी। यहां से शुरु कर कुंजड़िनें आहिस्ता-आहिस्ता उसके सात पुश्तों का उद्धार करती हुई  टीटीई के परिवार की तमाम स्त्रियों का संपर्क किसी अनजान क़िस्म के जानवर या अपने किसी प्रिय व्यक्ति से करवा देतीं। शब्द ऐसे जिन्हें सुनकर कानों में ख़ून उतर आए।

और छात्रों की बात... वे बेहद शरीफ हुआ करते हैं। उन पर कोई तोहमत लगाया ही नहीं जा सकता। वे चुपचाप कुंजड़िन- टीटीई कांड को स्थितप्रज्ञ भाव से देखते रहते हैं। एकबार ज्योहिं कुजडिनों का अध्याय समाप्त हुआ, वे अपनी पर उतरते हैं। 

इस इलाके में नोंक-झोंक में एक खास गाली (बेटी से जुड़ा).. सबकी जुबान पर आम है। इसे आपसी प्यार का

प्रतीक माना जाता है। मित्र या बाप से प्यार के स्तर पर इस पावन शब्द की वही महिमा है जो प्रेमी-प्रेमिका के बीच ताजमहल की है। सोटीटीई महोदय अगर छात्रो के हत्थे चढ़ गए तो ये पहले उनकी पुत्री अथवा भगिनी(बहन) से शब्दों के ज़रिए रिश्ता गांठते हैं और फिर दो-एक लप्पड़ रसीदकर छोड़ देते हैं कि आज तुमने टिकट मांगने की हिमाकत कर ली सो कर ली,. आगे से ऐसा कुकर्म नहीं होना चाहिए। कम शब्दों में यह रेल लाईन टीटीई के संक्रमण से मुक्त बेटिकट लोगों के स्वस्थ
विचरण का क्षेत्र था। 

उसी बेटिकट यात्रियों के अभयारण्य के रेलवे लाईन की पटरी के किनारे पड़े हर पत्थर से गांव वाले वाकिफ हो चुके हैं। नीचे उतरती पगडंडी के दोनों और मूंज की झाड़ से और नीचे पहले खेत हुआ करते थे, जिनमें गाव के लोग मूंग-मटर उगाया करते। पता नहीं किस अधिकारी के भेजे में कहां से दूरंदेशी की बात आ गई और उन्होंने वहां जंगल उगाने का फरमान जारी कर दिया। रेलवे या वन अधिकरी जो भी अपराधी हों, लेकिन उन्होंने पता नहीं यूकेलिप्टस बोया या गुलमोहर.. फिलहाल वहां बबूल का जंगल खड़ा है। 

इस इलाके के लिए न तो यूकेलिप्टस मुफीद है और ना ही गुलमोहर। यूकेलिप्टस तो पर्यावरण का समझें कि आतंकवादी ही है, ज़मीन को बंजर बनाने के लिए बेहतरीन विकल्प। जमीन की नमी चूसने उसकी जड़े पाताल तक जाती है और उसके पत्ते गिरकर अगल-बगल की मिट्टी को बंजर बना देती हैं। गुलमोहर भी ऐसा फूल कि.. न जानवरों के चारे लायक पत्ता , न लकड़ी का जलावन। तो समझिए कि गांव कि किस्मत अच्छी थी कि न गुलमोहर पनप पाया न यूकेलिप्टस.. पनपा तो क्या... बबूल। लेकिन गांववालों की इतनी अच्छी किस्मत कहां। अब गांववाले सांझढ़ले निबटने के लिए उसी जंगल में जाते हैं, लेकिन लहुलुहान होकर वापस आते हैं।

बबूल के उस जंगल के बाद कई खत्ते है, ये खत्ते सड़क बनाने के दौरान किए गए गड्ढे हैं,जिनमें बरसात में पानी भर जाता है। यए पानी मार्च के अंत तक भरा ही रहता है।

बबूल के जंगलों के रास्ेते जाने वाली पगडंडी भैरवथान के पास सड़क मे मिल जाती है। कोने पर कदंब का पेड़ सीना ताने खड़ा है। कदंब के इसी पेड़ की जड़ में बभनटोली के कुलदीपक अल सुबह या दोपहर को या जब भी सहूलियत हो-- मलत्याग की क्रिया सादर संपन्न करते हैं। कदंब का पेड़ यूं तो बरसात में ही फलता फूलता है।  बभनटोली के बच्चों के पीले-पीले गू थोड़ा गीला होकर फैल जाते हैं। घास में पड़े उन पाखानों पर नारंगी-पीले रंग के कदंब के फल और पुराने पत्ते गिरते रहते हैं। 

हरी-हरी घास पर बेलबूटों के समान यत्र-तत्र छितरे गू एक टुकड़े...।   अहा...कैसा मनोरम दृश्य होता है। सूर याद आते हैं- हरित बांस की बांसुरी। ठीक उसी गू-गडि़या के बगल से सड़क गुजरती है, जो उत्तर की तरफ जाकर पीपल के नीचे से गुजरती हुई रेलवे लाईन पार करती है और आगे सांप की जीभ की तरह दो फांक हो जाती है। उत्तर की तऱफ खजौली..और दूसरा सिरा कलुआही की ओर। लक्ष्मीपुर गांव भी सड़क का पीछा करता हुआ थोड़ी दूर तक चलता है  और फिर ठिठक जाता है।

यह गांव भी अनेकता में एकता के पांचवी क्लास के  बच्चों के निबंध की तरह विभिन्न जातियों और समुदायों का बना तो है, लेकिन यहां अनेकता के बावजूद एकता नहीं है। एकता भी होती है, पर कुछ खास मुद्दों पर..। आमतौर पर लोग आपस में लड़ते रहते हैं, विभिन्न मुद्दों पर। लडाई-झगड़े के मसले पर जाति कभी आड़े नहीं आती.. हर आदमी एक-दूसरे से लड़ने को आजाद है। जाति के भीतर लड़े, जाति से बाहर लड़े, फिरी (फ्री) है बिलकुल फिरी।

अभिजीत और बिसेसर मड़र शौचक्रिया से निबटकर और पोखरे में ही मिट्टी से लोटे को मांजकर पवित्र कर लेने के बाद कुट्टी की तरफ बढ़े। वहां एक नौकर महंत जी की चौकी पर कुश की आसनी बिछा रहा था।

बिसेसर ने खाली चौकी को ही दंडवत् किया।



 जारी.....

1 comment:

eha said...

बहूत दिनों बाद उनकी जिंदगी में झांकने का मौका मिला है। घटनाएं सजीव हो गई। देश और काल को पूरी ईमानदारी से बताया गया है। सुंदर।