Tuesday, August 28, 2012

सुनो ! मृगांका:20 : हादसों की ज़द पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें?

अब तक आपने पढ़ाः अभिजीत अपने सारे बैंक-बैलेंस वगैरह अपने रिश्तेदारों के नाम करके गांव लौट रहा होता है। खजली स्टेशन पर उसने रिक्शा पकड़ा, और जब घर गया तो पता चला गांव के बंद मकान की चाबी उसके पास नहीं..फिर वह रिक्शेवाले के ही घर पर रुकता है। रिक्शेवाले के घर पर सुबह उठकर अभिजीत गांव के पोखरे तक जाता है और महंत जी के घर के पास जाता है-मंजीत)
 
बिसेसर ने झुककर खाली चौकी को ही दंडवत् किया। 

उसे झुककर प्रणाम करता देख, अभिजीत के मन में एक अजीब सी भावना जगी। संभवतः उसके मन के किसी कोने में मृगांका की याद हो आई थी, और वह याद कुछ ऐसी थी कि उसका रोम-रोम मुस्कुरा उठा था। 

हादसों की ज़द पे है तो मुस्कुराना छोड़ दें
ज़लज़लों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें,

तुमने मेरे घर न आने की कसम खाई तो है
आंसुओं से भी कहो आंखों में आना छोड़ दें.

बारिशें दीवार धो देने की आदी हैं तो क्या
हम इसी डर से तेरा चेहरा बनाना छोड़ दें! 

थोड़ी देर बाद अंदर से महंत जी आ गए। बिसेसर ने एक बार फिर से प्रणाम किया, शिष्टाचारवश अभिजीत के हाथ भी जुड़ गए। अभिजीत ने देखा महंत जी अब भी बहुत तेजस्वी व्यक्तित्व के स्वामी थे। 
 
अभिजीत ने हमेशा धार्मिक कर्मकांडो की खिल्ली उड़ाई थी, अपने जीवन में। हमेशा ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दी थी। मंदिर देखकर उसे याद आया। 
 
किसी असाइनमेंट पर निकलने का वक्त था। अगले अलसभोर की कोई फ्लाइट थी, मृगांका ने उसे मिलने के लिए खान मार्केट बुलाया था। कैफे कॉफी डे में जब अभिजीत उससे मिलने के लिए पहुंचा, तब तक करीब एक घंटे इंतजार कर चुकी मृगांका का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया था। वैसे अगर कहावत में आठवें या नवें आसमान का ज़िक्र होता तो शायद गुस्सा भी वहां पहुंच गया होता। 
 
मृग, कॉफी?
नहीं पीनी कॉफी-वॉफी, पियो अपने दोस्त प्रशांत के साथ।
अरे ये क्या
दरअसल, प्रशांत, अभिजीत का खास दोस्त था। दोनों भयंकर दारूबाज़। लेकिन खासियत ये कि दोनों में से कोई कभी भी दारू का ग़ुलाम न था, न ही पी के कभी बहके दोनों, न किसी से गाली गलौज की। बल्कि, पीने के बाद दोनों के दोनों, शांत, संयत, सुशील और शिष्ट हो जाते थे। अभिजीत की सृजनात्मकता तत्वसेवन के बाद चरम पर आ जाती थी। खैर..ये तो किस्सा और है लेकिन फिलहाल प्रशांत के साथ लेट होने की वजह से मृगांका बहुत गरम थी।
 
बेहद मान-मनौव्वल के बाद मृगांका थोड़ी नरम पड़ी। लेकिन यह थोड़ी सच में थोड़ी ही थी। कैफे में सौ लोगों की मौजूदगी में कान पकड़ कर माफी मांगने के बाद ही अभिजीत छूट पाया था। साथ में, उस शाम की बातचीत में मृगांका ने जगत्, ईश्वर, ब्रह्म और चर अचर जैसे विषयों पर एक लंबा व्याख्यान दिया था। जबकि उस रोज अभिजीत की इच्छा मृगांका को अपने बांहों में समेट लेने की थी।

उसे लग रहा था कि मृगांका इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती है। लेकिन सयाने अभिजीत ने देख लिया कि इन बातों से उसकी झुंझलाहट का वह पूरा मजा ले  रही है और अपनी ट्रेड मार्क होंठ दबा कर मुस्कुराने का कोई मौका नहीं छोड़ रही। बातों ही बातों में मृगांका की उंगलियां अपने ही केश की लटों से खिलवाड़ करने लग जातीं।

सीसीडी की सीढ़ियों से उतरते वक़्त अभिजीत ने उसकी कलाई पकड़ ली थी। सुनो, मृगांका...

हां, कहो अभि...
 
कुछ गिफ्ट लाना चाहता हूं तुम्हारे लिए...अभिजीत ने उसे और अपनी तरफ खींचते हुए कहा।
तो कुछ ऐसा लाना जिसकी तुमसे मुझे उम्मीद भी न हो।
 
जरूर, कुछ ऐसा लाऊंगा जिसकी तुम उम्मीद भी नहीं करती होओगी...कहकर अभिजीत ने हल्के से उसके गालों पर चुंबन ले लिया। मृगांका उसे परे धकेलती हुई सीढियों से नीचे ले गई। बहुत बड़े गधे हो तुम...पब्लिक प्लेस है ये।
 
जस्ट फॉरगेट द पास्ट। 
 
अभिजीत की आंखों में पूरा पानी भर गया। एक गलत समीकरण...और पूरा जीवन तहस-नहस। न सिर्फ उसका बल्कि मृगांका का भी। क्या लग रहा होगा...क्या कर रही होगी मृगांका। 

महंत जी के साथ चलता हुआ अभिजीत गांव की सड़क पर आ गया। कच्चा रास्ता...कभी धूप कभी छांव का सा माहौल था। माहौल में ऊमस थी। 

दोनों एक तालाब के मुहार पर खड़े हो गए। गांव के लोग इस भीड भी कहते हैं। उसी भीड़ पर एक स्कूल है और स्कूल के दूसरे तरफ चौक है। ऐसे चौक परंपरानुसार हर गांव में होते हैं। चौक की दुकानों पर जरुरत के कुछ सामान बिस्कुट, हवा-मिठाई और दालमोठ वगैरह मिल जाते हैं। चौक है तो चाय की दुकाने है और चाय है तो पान कैसे नहीं।

चाय और पान की इन दुकानों में विश्वस्तर की राजनीति पर चर्चा होती है। साथ ही यह गृह कलह निवारण केंद्र भी है। यहां स्थानीय राजनीति और ऐसे ही कई दूसरे शगल पूरे किए जाते हैं। 

गांव में पुस्तकालय भी है। गांव में एकाध पढे-लिखे बचे लोग और पढाकू बच्चे वहां पढ़ने जाते हैं-ऐसी मान्यता है। पढ़ने कौन जाता है, कब जाता है और क्या पढ़ता है, यह शोध का विषय है। हां, कुछ बच्चे ज़रुर कांख में लोटपोट, नंदन और चंपक जैसी पत्रिकाएं लेकर निकलते हैं। कुछ तो गुलशन नंदा और वेदप्रकाश शर्मा के शौकीन हैं। आजकल रीमा भारती और केशव पंडित का क्रेज़ है.. जैनेन्द्र और प्रेमचंद की कहानियां पाठ्य पुस्तकों में ही ठीक लगती हैं। कोई इस पर ध्यान नहीं देता।


उसी पोखरे के किनारे एक मंदिर भी था, शिव का। अभिजीत को याद आया, ऐसे ही महाकाल के मंदिर का प्रसाद उसने अपने फोटोग्रफर के जरिए मंगवाया था। महाकाल के मंदिर के सामने मार्केट में  खड़े होकर वह सिगरेट फूंकता रहा। फोटोग्रफर थोड़ा अधेड़ था, इतना तो था ही कि मंदिर जाने के विचार मन में आने लगें (अभिजीत के हिसाब से)....वापस आकर उसने बताया कि महाकाल का जो प्रसाद लिया है वो चार-पांच दिन में खराब हो सकता है।

अभिजीत के लिए इस घटना की कोई  अहमियत नहीं थी, लेकिन बात मृगांका से जुड़ी थी। वापस लौटकर उसने मृगांका से कहा था, तुम्हारे लिए प्रसाद लाया हूं।

मृगांका चौंकी थीं...अच्छा, तुमने की पूजा?

पूजा तो नहीं की, प्रसाद लाया हूं लेकिन...

ठीक है, मैं ले लूंगी। कल आ जाना आईएऩए...दिल्ली हाट। ठीक पांच बजे शाम को। आजकल छुट्टी पर चल रही हूं...दीदी-जीजा आए हैं।

ओके

लेकिन अगले सात दिनों तक पांच नहीं बजा, रोज़ अभिजीत जाकर दिल्ली हाट पर खड़ा होता रहा, लेकिन कभी मृगांका आई नहीं। हर रोज़ अपने उस काले बैग को उठाए अभिजीत दफ्तर चला जाता, जिसमें प्रसाद भरा था। शाम को जाकर वह प्रसाद फिर से फ्रिज की शरण में रख दिया जाता। लेकिन भले ही भगवान् का हो, लेकिन उस प्रसाद का भी एक जीवन था, और जिसका जीवन होता है उसकी मृत्यु भी होती है।

प्रसाद आखिरकार सड़ गया। अभिजीत ने उसे कूड़े के हवाले कर दिया।

आठवें दिन मृगांका का फोन आया तो घर में चहलकदमी करते हुए अभिजीत ने उसे प्रसाद के खराब होने की बात बताई। मृगांका ने पूछा, फैंक दिया तुमने..?

नहीं, नहीं मृगांका फेंकता कैसे...खा लिया मिठाई समझ कर खा लिया।

महंत जी के साथ चलते -चलते अचानक अभिजीत को पेट में आग का तेज़ गोला बनता महसूस हुआ...लगा कि मौत नजदीक है। वह सड़क पर गिर पड़ा।


 
 

2 comments:

eha said...

शब्द नहीं बचे मेरे पास..........

प्रवीण पाण्डेय said...

बीच बीच के भाग छूटे हैं, जो हाथ में आये, प्रभावित कर गये।