Friday, November 20, 2015

लेह में आवारगी पार्ट 2

लेह के जिस सर्किट हाउस में हम ठहरे थे वह सरकारी था और जाहिर है उसमें टीवी था तो लेकिन उसके डीटीएच का पैसा नहीं दिया गया था। यानी टीवी देखना बेकार था।


फोटोः तेजिन्दर सिंह
एक पूरा दिन आराम व दूसरा पूरा दिन वहीं लेह में घूमना सबसे अच्छा तरीका है लेकिन हमारे पास वक्त बेहद कम था, और काम काफी ज्यादा। दूसरे दिन सुबह-सुबह मेरी नींद खुल गई। दिल्ली में जब तक दफ्तर न जाना हो मैं आदतन साढ़े 8 तक सोता रहता हूं और उगता हुआ सूरज कम ही देख पाता हूं। लेकिन यहां तो रात को खिड़की का पर्दा लगाना भूल गया था और 6 बजे बिस्तर पर पड़े-पड़े ही आंखें चौंधिया गईं।

सूर्य की पहली किरण भूरे पहाड़ों के शिखर पर जमी बर्फ पर पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो किसी सुनहरी काया पर मलमल का आंचल भर डाल दिया हो। 15 मिनट तक मैं बस सब कुछ भूल कर इस नजारे को देखता ही रह गया। साथ ही खिड़की से बाहर लॉन में आसमान जाने किस नस्ल की चिड़िया गा रही थी।

सुबह को, सर्किट हाउस के केयर टेकर ने हमारे लिए ऑमलेट और ब्रेड का नाश्ता तैयार कर दिया था। उस दिन शायद लेह में बाजार कुछ बंद थे।

फोटोः सौरभ, मैं और तेजिन्दर, ऑमलेट के इंतजार में


इसी से गुज़ारा करना था। हमें लेह के आसपास के हिस्सों में कुछ शूटिंग पूरी करनी थी और इसके लिए हम शांति स्तूप से लेकर न जाने कितने गोम्फाओं के दर्शन कर लिए। सड़क के बाईं तरफ पहाड़, नीचे हरा-भरा लेह, और पूरा शहर...मानो घरौंदों की बस्ती हो।


शांति स्तूप फोटोः सौरभ
फिल्म 3 इडियट्स ने इस जगह को और भी चर्चा में ला दिया है। कैसे इसकी चर्चा तो आगे, लेकिन शहर से पूर्ब सात-आठ किलोमीटर बढ़ते ही एक स्कूल हैः रैंचो स्कूल। जी हैं, आमिर खान का नाम थ्री इडियट्स में रैंचो ही था और अब एक स्कूल है जिसको उनके ही नाम से जाना जाता है।

इस स्कूल तक जाने के लिए आप एक सड़क पकड़ते है, जो सीधे मनाली की तरफ जाती है। शहर से बाहर निकलते ही इस सड़क को कई बारे आड़ी काटती हुई एक पतली सी नहर है, जो शहर के लिए पानी की आपूर्ति का शायद एकमात्र साधन है।


फिर बाई तरफ आप देखते हैं, रेतों के ढूह...पथरीले पहाड़। न जाने कितने मोड़ हैं उसमें। ऐंठन से भरे चट्टान। लगता है किसी ने मचोड़कर-मरोड़कर रख दिया हो। जाहिर कुदरत ने मरोड़ा है। कुदरत से बड़ी ताकत है क्या कोई।

इंसान कितना भी ताकतवर हो ले, आखिरी बोली तो कुदरत की होती है। यह बात, चाहे आप दिल्ली-मुंबई-अहमदाबाद-बंगलुरू में शायद महसूस न कर पाएं लेकिन लेह-लद्दाख जाकर आप इस बात से इतफाक रखेंगे।

रैंचो स्कूल के बगल में ही स्तूप जैसी सफेद आकृतियां बनाई गई है। सैकड़ो की संख्या में। फिल्मों के शौक़ीन हैं तो बंटी और बबली फिल्म का गीत देख लीजिए, जिसमें अभिषेक और रानी इन्ही आकृतियों के बगल में प्रेम भरे गीत गा रहे हैं। फिल्म दिल से में, शाहरुख और मनीषा कोईराला के प्रेम का उद्गार भी इधर ही व्यक्त हुए हैं।

बहरहाल, सूरत तेजी़ से ढल रहा था और हम वहां से फोटो खिचवाकर, क्योंकि शूटिंग हमने निबटी ली थी, शांति स्तूप की तरफ चल पड़े। वह हमारे सर्किट हाउस से ढाई किलोमीटर उत्तर था।

शांति स्तूप तक पहुंचते-पहुंचते थकान हम पर तारी हो चुकी थी। ढलते हुए सूरज का सौन्दर्य..सफेद स्तूप पर। वाह क्या दृश्य था। और जब हम हांफते हुए ऊपर शांति स्तूप तक पहुंचे...दक्षिण में बादलों का साम्राज्य हिममंडित शिखरों को अपने आगोश में ले चुका था।

फिर भी हमने हिस्से के काम निबटाए। शूटिग का। लेकिन उसके साथ अपने फोटो शूट भी तो जरूरी काम हुआ करते हैं। वह भी किया गया।

शाम को 7 बजे तक हमें वापस सर्किट हाउस पहुंचना था, क्योंकि डॉक्टर साहब आकर हमारी जांच करने वाले थे कि क्या हमारा मैदानी इलाके की जलवायु का अभ्यस्त शरीर आगे ऊंचाई पर चढ़ाई के लायक है या नहीं।

मैं डरा हुआ था। काश कि मेडिकल रिपोर्ट मुझे लेह में रूकने को मजबूर न कर दे। जिस हिमालय के बारे में हमने किताबों में पढ़ा था उसको एकदम नजदीक से देखने का मौका मैं गंवाना नहीं चाहता था।

1 comment:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, हिन्दी फिल्मों के प्रेरणादायक संवाद - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !