Saturday, June 16, 2012

जंगल, बारिश, सम्मोहन और भूलभुलैया

मध्य प्रदेश के जिस इलाके में हूं, जंगल अपने शबाब पर है। इलाका अर्ध-शुष्क है। राजस्थान नजदीक है। यहां के जंगल भूगोल की भाषा में उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों में आते हैं। जब हम जंगलों से मिलने गए तो ज्यादातर पेड़ों ने अश्लील तरीके से कपड़े उतार रखे थे।

नहीं, अश्लील नहीं। शायद, वनवासी ऐसे ही रहते हैं। कूनो पालपुर के जंगल ठूंठ से खड़े हैं। एक अदद बारिश का इंतजार था उनको।


कूनो पालपुर के जंगल में, फोटोः नीलेश कालभोर

जमीन पथरीली है। खेती अनाथ है।

हम श्योपुर और शिवपुरी के बीच में हैं। सुना है रणथंबौर से टी-38 नाम का बाघ टहलता हुआ इधर आ गया है। कूनो नदी के आसपास होगा, हम उसकी एक झलक पाने को बेताब हैं। वन अधिकारी बता रहे हैं कि जंगल में तेंदुए हैं, भालू हैं, लकड़बग्घे हैं...सांभर, चीतल और मृग खानदान के सारे जानवर हैं (बारहसिंघे को छोड़कर) हमें शाकाहारी जानवर तो खूब मिले लेकिन मांसाहारी जानवर दिखे नहीं थे। (वो दिल्ली शिफ्ट हो गए हैं ऐसा मुझे एक गाइड ने बताया, हालांकि ये बात उसने हमें मुस्कुराते हुए  कही...अलबत्ता बात एक हद तक सही थी)

हमें एक तेंदुआ शिकार करता हुआ दिख गया। 47 डिग्री सेल्सियस के तापमान में गले में लाल गमछा लपेट कर और उबला हुआ पानी घूंटो में भरते हम कुछ और जीव देख लेने की उम्मीद में थे तभी हमें पहले एक सियार दिखा। सियार के किनारे एक गिद्ध भी दिखा।

गिद्ध भी विलुप्तप्राय जीवों की श्रेणी में है। बचपन में हमने बहुत देखे थे, लेकिन अब यहां उसे देखना सुकूनबख्श था। अचानक झाडि़यो में एक हिरन के छौने के पीछे हमने तेंदुआ भी देख लिया। कैमरे कि क्लिक अनवरत चलने लगी। शटर  की आवाज़ के सिवा कोई और आवाज़ नहीं।

हम सब बहुत खुश थे। सिर्फ एक बाघ को खोज पाना, वो भी 348 वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल में...नामुमकिन है। हम तेंदुआ देखकर ही खुश थे। हां, जैसे-जैसे शाम होती गई...मृग परिवार हमें ज्यादा दिखे। मैदान में। गायें भी बहुत थीं, लगा इन गायों को यहां के भावी राजाओं (सिंहों) के भोजन के लिए ही पालपोस कर बड़ा किया गया है।

हम श्योपुर से कूनो की तरफ बढ ही रहे थे कि रास्ते में बूंदा-बांदी ने स्वागत किया। धीरे-धीरे बारिश जोर पकड़ती गई।

लगा विधवा जंगल की मांग किसी ने भर दी। लगा कि जिंदगी लौट आई। लगा कि अपने साजन के इंतजार में सूनी आंखों से निहारते जंगल का सजन लौट आया और उसने हुमक कर जंगल को आलिंगन में कल लिया हो।

मेरे मित्र नीलेश जी को कविता सूझने लगी। मेरे मन में अब भी पथरीला जंगल बसा था। उसका भी एक अग सौंदर्य है। बारिश से अघाए जंगल और जून की तपती-कड़क धूप में तने हुए जंगल के एटीट्यूड में अतर होगा ना। मुझे एटीट्यूड वाला जंगल पसंद आय़ा।

लड़ता हुआ जंगल, सहता हुआ जंगल अच्छा होता है।

बारिश गुजर गई तो एक अन्य मित्र अश्विनी कुमार बालोठिया स्थानीय हैं, श्योपुर के। उनने कहा चलिए आपको डूब दिखा आते हैं। डूब में वो पत्थर के पिजरे हैं जहां सिधिया खानदान के राजा बाघों को कैद करके रखते थे।

कराल से ऐन पहले वो जंगल में बाईँ ओर मुड़ गए, कहा कोई 7 किलोमीटर आगे जाकर पीएमजीएसवाई वाली सड़क पर बाईं ओर मुड़ना है, वहीं तीन किलोमीटर आगे है डूब।

अब क्या बताएं, सात किलोमीटर तो क्या सत्रह किलोमीटर बाद भी कोई सड़क वहां से नहीं निकली। बाईं ओर कोई कट ही नहीं मिला। बहरहाल, कुछ और आगे जाकर जब कट नहीं मिला तो निराशा होने लगी। अश्विनी जी की हिम्मत टूट गई। उनने कहा कि चलो आगे से सी दे कराल ही निकल लेते हैं..वहां से टिकटोली चलेंगे।

टिकटोली में हमें कुछ काम था। बादल छाए थे, और बारिश हमारा पीछा कर रही थी। नीलेश जी कविताई मूड में थे। यह प्रकरण उनको अभी मजेदार ही लग रहा था।

गाड़ी के म्युजिक सिस्टम में सीडी लगातार सुर अलापे हुई थी। अचानक हनुमान चालीसा आ गया उस सीडी में...हमने कहा ये वक्त हनुमान चालीसा पढ़ने का तो कत्तई नहीं है। अगला गाना, झूम बराबर झूम शराबी (कव्वाली) था। शब्द कह रहे थे...आजा अंगूर की बेटी से मुहब्बत कर लें, शेक साहब की नसीहत

लेकिन जिस कराल से जाकर हमें टिकटोली जाना था वह कराल ही नहीं आया। आगे जाकर सड़क खत्म हो गई, कच्चा रास्ता शुरु हो गया। एक घर के बुजुर्गवार से पूछा गया कराल जाने का रास्ता...अब तक अश्विनी जी का आत्मविश्वास खलास हो चुका था। एक दम्मे बुझ से गए।

हम रास्ता भटक गए थे। करीब बीस किलोमीटर तक हमें कच्चे रास्ते पर भटकते हुए हो गए। मैंने हतोत्साहित हो रहे लोगों का उत्साह बढ़ाने की कोशिश की। उनका कहना था कि हनुमान चालीसा का निरादर करने से ऐसा हुआ है।

ड्राइवर से कहा मैंने, हनुमान चालीसा चला लो फिर से, और गाड़ी खड़ी कर लो, रास्ता मिल जाएगा? ड्राइवर मुस्कुरा उठा। मुझे उसके मुंह पर यही मुस्कुराहट चाहिए थी। दरअसल, वो इलाका किडनैपिंग के इलाके के रूप से मशहूर है, और तेंदुए और जंगली जानवरों का भी डर है। मित्रों को टी-38 (बाघ) का भी खौफ था।

गाड़ी बदस्तूर चलने लगी। रास्ता गीला-सा था, डर था कि कहीं पहिए न फंस जाएं कीचड़ में। एक बार तो पूरी गाड़ी पत्थर पर कुछ इस तरह उछली की लगा हम हवा में तैर रहे हैं। मैं इस स्थिति का पूरा आनंद ले रहा था और अश्विनी और नीलेश के चेहरे पर उड़ती हवाइयों का भी।

नीलेश की कविता कपूर होकर हवा गई थी, और वो लगातार हंसने की कोशिश कर रहा था...खिसियानी हंसी थी वो...उस पर मेरा बदतमीज ठहाका गूंजता। हम दोनों की इस हंसी से सबसे ज्यादा शर्मसार अश्विनी बालोठिया हो रहे थे।

आखिरकार, फिक्र को धुएं में उड़ाते हुए हमें आखिरकार तीस किलोमीटर कच्चे रास्ते, यानी जंगल के बीच रास्ता खोजते और साढ़े तीन घंटे खर्च करने के बाद रास्ता मिल ही गया। सूरज अब भी बादलों की बीच छिपा था। खुद को बीयप ग्रिल्स से कम नहीं समझ रहा था।

झूबराबर झूम शराबी गाने ने हिम्मत दी, माहौल हल्का बनाए रखा। बीच में एक बार सौमित्र भाई के इसरार करने पर हनुमान चालीसा भी बजाया गया था। अब जंगल से सही सलामत लौटने के लिए या तो आप ड्राइवर को धन्यवाद दें, या फिर मेरे झूम बराबर झूम शराबी वाले गाने को श्रेय दें, या फिर हनुमान चालीसा के महात्म्य को...आप पर है।

मैंने तो इस खो जाने का खूब मजा लिया, लगा जंगल से प्यार हो गया है. जंगल ने सम्मोहित कर लिया। एक ऐसी जगह भी देखी जो इस सूखेपन के बीच हरेपन की मिसाल थी, जहां से आपको प्यार हो सकता है।

सम्मोहन की सी स्थिति में हूं। जंगल का ये सपना न टूटे।

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

जंगल रोचक हैं, मोहक हैं।

rashmi ravija said...

हम भी भटकते रहे, जंगल में.....ये यात्रा वृत्तांत जारी रहे....

Anonymous said...

जंगल का आपका ये सपना यू ही बना रहे......