Tuesday, June 12, 2012

मुसाफिर हूं यारो...एमपी में

कभी-कभी रतजगा उतना बेरहम नहीं होता। यूपी में रहते हों, रात में लगातार छह घंटे तक बिजली न आए, कहीं जाने के लिए सामान पैक करना हो, अँधेरा हो, कैंडल की औकात से ज्यादा घना अंधेरा...ट्रेन अलसभोर की हो...तब भी आपका अगर उत्साह बना रहता है, तो यकीन मानिए आप मुसाफिर किस्म के इंसान हैं, कहीं न कहीं यायावर हैं दिल से। आज मुझे भी ऐसा ही लगा।

रात कब सुबह में तब्दील हो गई, इसका पता नहीं चला। ऐसा नहीं कि बेकरारी किस्म की कोई चीज़ थी, बस यूं समझिए कि बेकरारी थी लेकिन वह कपार (कपाल) का पसीना गरदन-पीठ होते हुए इधर उधर बहते जाने की वजह से थी।

अस्तु, सुबह ऑफिस के गाड़ीवान् ने कॉल किया तो लगा कि अब निकल लेना चाहिए।

स्टेशन पहुंचा तो पूरब में लाली छा गई थी। नीलेश भाई ने फोन करके बताया कि वो पहाड़गंज की तरफ हैं। मैं अजमेरी गेट की ओर से आया था। सामान लेकर मॉर्निंग वॉक करने का मजा ही कुछ और है। सीढ़ियां चढ़ते -उतरते।

नीलेश भाई खासे ताज़े-दम दिख रहे थे। बहरहाल, हमें भोपाल शताब्दी से ग्वालियर पहुंचना था। ऐन सवा छह बजे गाड़ी छूट गई। मैं और नीलेश भाई बतियाने में मशगूल हो गए। फेसबुक से पता चला कि सुशील झा का टिकट कन्फर्म नहीं हो पाया। रेल को गरिया रहे थे। इतने दिन के बाद उन्हें रेल की असलियत पता क्यों चली।

ग्वालिर पहुंचने के बाद दैनिक भास्कर के पत्रकार विभावसु तिवारी से मुलाकात हुई। सज्जन व्यक्ति हैं। उनसे दुआ सलाम करके और सौमित्र भाई को साथ लेकर हम चल पड़े शिवपुरी की ओर निकल पड़े। ग्वालियर के आगे निकलते ही पेड़ों की आबादी बढ़ जाती है।

इधर उधर चाय पीते, ऊंघते झपकी लेते, और कुछ घाटों का मजा लेते हम शिवपुरी पहुंचे। शिवपुरी में हमें अश्विनी भालोटिया नहीं मिले। उन्हें हमारे लिए कैमरा चलाना था। वो मिले श्यौपुर में, जो करीब 120 किलोमीटर दूर है।

तीन बजे हमलोग श्योपुर पहुंचे। लेकिन हमारे कदमों में उलझ गए कैसे लाल फीते फिर कभी...। फिलहाल जंगलों में हमने सूरज को डूबते देखा, अँधेरा घिरते देखा। लेकिन सच में, एमपी गजब है।



3 comments:

Anonymous said...

वाह........

sushant jha said...

लाजवाब। मैंने पहले भी लिखा था कि तुम्हारी लेखनी में जिंदगी की उम्मीद झलकती है। तुम गदगद कर देते हो। जारी रहो। साधु।

प्रवीण पाण्डेय said...

मध्य प्रदेश में प्रकृति के तत्व विखरें है सौन्दर्य रूप में..