Friday, February 29, 2008

फिल्मों में भी फिसड्डी




यह हफ्ता फिल्मी दुनिया के लिए पुरस्कारों का हफ्ता था। पिछले दिनों दुनिया भर में मशहूर ऑस्कर पुरस्कार और भारत में भी फिल्म फेयर पुरस्कार दिए गए। 80वें ऑस्कर पुरस्कारों में चार खिताब तो कोएन बंधुओं के निर्देशन में बनी फिल्म नो कंट्री फॉर ओल्ड मैन की झोली में गए। अमेरिकी अभिनेता डेनियल डे लुईस को देअर विल बी ब्लड के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का और फ्रेंच फिल्म लां वियां रोज़ के लिए अभिनेत्री मेरियन कोटियार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया। बहरहाल पूरा समारोह कामयाबी के साथ पूरा हुआ । लेकिन इस बार भी ऑस्कर में भारत की ओर से नॉमिनेटेड फिल्म की दुर्गति हुई।

एक ओर हमारी आधिकारिक फिल्म आखिरी नौ प्रतियोगियों में जगह बनाने में नाकाम रही है, लेकिन हमारी इंडस्ट्री के निर्देशक शेखर कपूर की अंग्रेजी फिल्म द गोल्डन एज बेस्ट कॉस्ट्यूम डिज़ाइन का पुरस्कार जीत लिया। ऑस्कर को लेकर भारतीय मीडिया में जोरदार उत्साह बना रहा और ऑस्कर पुरस्कार सुर्खियों में बने रहे। लेकिन ऐसी कोई बड़ी चर्चा अंतरराष्ट्रीय मीडिया को छोड़ ही दिया जाए, राष्ट्रीय मीडिया में भी फिल्म फेय़र पुरस्कारों को लेकर नहीं हुई।

आखिर भारत दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म बनाने वाला देश होने के बावजूद ऑस्कर की तुलना में हमारे फिल्म पुरस्कार कमतर साबित क्यों होते हैं। आखिर क्या वजह है कि ऑस्कर जैसी प्रतिष्ठा हमारे यहां दिए जाने वाले किसी पुरस्कार की नहीं है।

एक वजह तो यही है कि ज्यादातर पुरस्कार निजी फिल्मी पत्रिकाओं और निजी टीवी चैनलों की ओर से दिए जाते हैं। ऐसे में पुरस्कार बांटने में निजी फायदे की बात से इंकार नहीं किया जा सकता। साथ ही पार्दर्शिता की कमी की वजह से पुरस्कारों पर सवालिया निशान उठते रहे हैं।

खुद फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग भी पुरस्कारों की तटस्थता पर शक करते रहे हैं, और यही वजह है कि आमिर खान जैसे कई बड़े अभिनेता तो पुरस्कार समारोहों में शामिल भी नहीं होते। पूरी फिल्म इंडस्ट्री में सारा खेल पैसे पर टिका होता है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या पुरस्कार भी मैनेज किए जाते हैं।

ऑस्कर पुरस्कारों पर लोगों को इस लिए यकीन है क्योंकि बेहतरीन फिल्मों को लोगों की राय से चुना जाता है। जबकि भारतीय फिल्म पुरस्कारों में चार या पांच लोगों की जूरी यह तय कर देती है कि नॉमिनेटेड फिल्मों में से सबसे बेहतर कौन है। ज़ाहिर है, जब तक पुरस्कारों में लोकतंत्र नहीं आएगा, लोगों का विश्वास भी उस पर नहीं जमेगा। तबतक, पुरस्कारों पर आरोप लगता रहेगा कि ये अपने करीबियों को खुश करने के लिए दिए जाते हैं, तब तक ये पुरस्कार महज फिल्मी सितारों के नाचगाने से मनोरंजन और तीन घंटे के टेलिविज़न शो का सबब बना रहेगा।

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