Sunday, June 20, 2010

तारीफ और हक़ीक़त

आज शहंशाह का जन्मदिन था। एक चमकता हुआ दिन..। एक पुरानी रस्म के मुताबिक हर महीने जन्म दिन वाली तारीख को सभी वजीर, ओहदेदार, आलिम और शायर इकट्ठा होते थे और शहंशाह की तारीफ करने में होड़ करते थे । इनमें से जो अव्वल आता उसे इनाम इकराम मिलता, मनसबदार बना दिए जाते।


बहरहाल, उस दिन, दिन भर तमाम तरह के और हरेक के कसीदा पढ़ने के बावजूद अमीर को तसल्ली नहीं हुई। वह बोले, -- पिछली दफा भी तुम लोगों ने यही बातें बोली थीं। हम देखते हैं कि तारीफ करने में तुम लोग माहिर और मुकम्मल नहीं हो। तुम लोग अपने दिमागो पर ज़ोर डालने को तैयार नहीं हो। लेकिन आज हम तुमसे काम लेकर मानेंगे। हम सवाल करेंगे और तुम्हें इस तरह का जवाब देना है कि हमारी तारीफ भी हो और जवाब में सचाई का पुट भी हो।

ग़ौर से सुनो, हमारा सवाल है कि अगर हम इतने ही बड़े हैं, कतवर हैं और जैसा कि तुम लोगों का दावा है, तानाकाबिले-फतह हैं, तो पड़ोसी सूबे की महारानी ने और तमाम देशो के सुल्तानों ने  हमारी शहंशाहियत मानकर अपनी उम्दा सौगातें क्यों नहीं भेजीं। हम तुम्हारे जवाबों का इंतजार कर रहे हैं। कहकर शहंशाह ने अपनी राजमाता की तरफ देखा, जिनके गरवीले चेहरे पर बेटे की ताकत और बुद्धि का दर्प था।

वजीर की पगड़ी कमजोर होने लगी। जवाब के लिए वह बगले झांकने लगे। पहले वह वजीरे-खज़ाना हुआ करते थे, अब वजीर बने हैं, सो परेशानी में डूब गए।

वजीर और दूसरे दरबारी सीदा जबाव न देकर भिनभिनाने लगे, अकेला नसरु्ददीन बिना घबराए अपनी जगह बैटा रहा। उसकी बारी आई तो बोला,  अमीरे-आजम। मेरे हकीर लफ़्ज़ों को सुनने की मेहरबानी अता फरमाएं। शहंशाह के सवाल का जवाब आसान है। पड़ोस के सभी मुल्कों के सुल्तान हमारे आका की ताकत के डर से हमेसा कांपते रहते हैं। वे सोचते हैं कि अगर हम बढिया सौगात भेजेंगे तो बुखारे का तकतवर अजीमुश्शान अमीर समझेंगे कि हमारा मुल्क रईस है, जिससे उन्हें फौज लेकर यहां आने और हमारे मुल्क पर कब्जा करने का लालच होगा। लेकिन अगर हम उन्हें मामूली सौगात भेजेगे तो वह नाराज होकर अपनी फौज भेज देंगे। बुखारा के अमीर ताकतवर हैं, अजीमुश्शान हैं, सो हिफाजत इसी में है कि अपनी नाचीज हस्ती की उन्हें याद ही न दिलाई जाए।

( इस कहानी का भारत के युवराज राहुल बाबा के जन्मदिन से कोई संबंध न जोड़ा जाए। ऐसा करना बेतुका होगा)- गुस्ताख

Thursday, June 17, 2010

कविता-हवा का रुख

हवा का रुख़,
भांपते हैं रखे पेपरवेट,
और कलमें कर रही हैं,
काग़ज़ी आखेट।

सुरक्षित खुद को समझते,
पहनकर इस्पात,
राष्ट्र को संदेश, करते
सौ टके की बात।

सुनों उनकी,
अक्षरों से नहीं जिनकी भेंट
बोलती लू,
वनस्पतियों पर कठिन हमला,

किंतु उनका क्या कि जिनके
घर स्वयं शिमला

ये हरे हैं

भले सिर पर तप रहा हो जेठ