Monday, October 15, 2007

बुद्धिजीवी होने के पेंच

आपने मेरी तस्वीर, जिसे मैं प्यार से फोटू कहता हूं, देख ही ली होगी। इस तस्वीर को खिंचवाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी मुझे। मुझे लगा कि ऐसी तस्वीर के ज़रिए लोग मुझे भी बुद्धिजीवी समझने लगेंगे। मैं सीधे तोप हो जाऊंगा। टाइमबम। किसी ने छेड़ा नहीं कि सीधे फट पड़ने वाला...। तो श्रीमानों, महानुभावों, श्रीमंतों, कृपानिधानों नौजवानों ऐसा अभी तक तो हुआ नहीं है अभी तक।

दरअसल, तस्वीर खिंचवाने और मन की स्थिति को बुद्धिजीवियों के स्तर तक लाने में बहुत झख मारनी पड़ती है। लेकिन मन में बैठी उस बात का क्या किया जाए। बचपन से देखता आया हूं कि जिस किसी को भी मन ही मन यह यक़ीन हो कि उसमें भी इंटेलेक्चुअलत्व है ज़रा भी। वह अपनी खुद की प्रायोजित किताब में ऐसी ही तस्वीरें चस्पां करवाते हैं। जितने विचारक जाति के लोग हैं, साहित्यकारनुमा लोग, प्रोफेसर इत्यादि हैं, वह ऐसी ही तस्वीर खिंचवाते हैं। हाथ गाल पर.. ठुड्डी पर। आंखें उधर .. जिधर फोटोग्राफर के स्टूडियों में कंघी-शीशा टांगने की जगह होती है।

पहले तो मैंने भी वैसा ही करने का पूरा प्रयास किया था। हाथ को ठुड्डी पर टिकाया, लेकिन ससुरा टिका ही नहीं। हाथ और ठुड्डी में यदुरप्पा और देवेगौड़ा जैसा रिश्ता...। मेरे चेहरे पर दाढ़ी भी वैसे ही उगती है, जैसे चुनाव के ऐन पहले क्षेत्रीय पार्टियां उग आती हैं। ये पार्टियां जैसे जीतनेवाले मजबूत उम्मीदवारों की आंखों में गड़ती हैं ना, वैसे ही दाढीं के कड़े बाल मेरे हथेलियों में गड़ने लगे। बुद्धिजीवी की तरह त्स्वीर खिंचवाने के मेरे प्रण का कौमार्य भंग होने लगा।

मुट्ठी खोलने की कोशिश की तो हथेलियों से चेहरा छिपने लगा, कैमरावाला मोबाईल फोन हाथ में लिए दोस्त फिकरा कसने लगा, यार मनोज कुमार की तरह लग रहे हो। अब ये मत बोलना कि हमारे देश की हर लड़की मां है, बहन है, बेटी है...। मै पस्त हो गया। लेकिन मैं भी बुद्धिजीवी बनने के लिए उतारू था।

हाथ में कलम लेकर उपर की तरफ ताकना..शून्य में निहारना..मानों दुनिया में सुकरात के अब्बा और अफलातून के दादा मेरे कंधो पर सारी दुनिया की समस्याओं का बोझ डालकर निंश्चिंत हो गए हों, निश्चिंत होकर ज़न्नत की अप्सराओं के साथ चांदनी रात में नौका विहार कर रहे हों..। मेरा स्वबाव भी कुछ ऐसा ही ऐं-वईं हंसी आने लगती है। सोनिया माताश्री, आडवाणी (सावधान, पिताश्री नहीं बोल रहा हूं उन्हें.. अपनी तरफ से कुछ भी बाईट मत सोच लिजिए.. कलाकार हैं आपलोग कुछ भी कर सकते हैं। वरना झज्जर की सभा में माताश्री के बयानों को तोड़-मोड़ कर ऐसे पेश नहीं करते कि यूपीए और वाम दलों में कबड्डी मैच आयोजित करवाने की ज़रूरत पड़ने लगती।) , प्रकाश करात जैसे बिना ज़िम्मेदारी के सत्तासुख का पान करने वाले महादेशभक्त और मधुकोड़ा जैसे छींका टूटने से सत्ता पाने वाले से लेकर हरकिशन सिंह सुरजीत पर ऐसे ही हंसी आने लगती हैं।

आम आदमी हूं..आम आदमी अपनी बुरी दशा में भी हंसता है, नेताओं की चूतियागिरी पर हंसता है। हंसता नहीं होता तो हम खुश रहने वालों के सूचकांक में इतने ऊपर होते क्या। हमें तो रोटी के साथ नमक मिल जाता है तो हम खुश हो जाते हैं। ध्यान दीजिए. प्याज और तेल नहीं जोड़ा है मैंने। सरकार की महती कृपा से मैं पूर्णतया शाकाहारी हो गया हूं। सब्जियां उबालकर खा रहा हूं, मां को शक हो गया है कि घर के सभी लोगों को पेट की कोई गंभीर बीमारी हो गई है, जभी मैंने सबके तेल और प्याज खाने पर रोक लगा दी है। कौन समझाएगा कि बीमारी किसको हुई है पेट की.. बीजेपी की तरह मुझे एक बीमारी ज़रूर हो गई है, मुद्दे से भटकने की। माफी चाहूंगा...बात मैं कर रहा था, तस्वीर खिंचवाने की।

तो जनाब, तस्वीर खिंचवाने के लिए गंभीर होना सबसे बड़ी समस्या थी। वैसे किसी दोस्त ने सलाह दी कि कुरता पहनो , बुद्धिजीवा लगोगे..बुद्धिजीवी होने के लिए कुरता पहनना बहुत ज़रूरी है। लेकिन हमारे शरीर की ढब कुछ ऐसी है कि कुरता पहनूं तो लगता है, खूंटी में टांग दी गई है। सो यह ख़्याल हमने तत्काल प्रभाव से खारिज कर दी, ठीक वैसे ही जैसे सरकार बचाने के लिए कॉंग्रेस एटमी करार को ठंडे बस्ते में डालने पर राजी हो गी है। वैसे जहां तक गंभीरता का सवाल है, वह तो हम आजतक हुए ही नहीं.. बहुत कोशिश की गौतम गंभीर ही हो जाएं, कभी तोला कभी माशा की तरह टीम में रहें, कम से कम मेरे नाना के घर पर भी आयकर महकमे का एक छापा तो पड़ ही जाए। लेकिन आसमान को यह मंजूर ही नहीं।

गोया गंभीर हम तब हो गए, जब किसी खराब स्टोरी की कवरेज के लिए दबाव आया कि यह पीआर स्टोरी है, करनी ही है। जी नहीं चाहता था कुछ भी करने का, पीआर का मतलब.. ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान से दंडवत् करते हुए स्टोरी पेलना, और खराब स्टोरी इतने बड़े होने जा रहे यानी भावी बुद्धिजीवी से पीआर कवरेज करवाना न्याय है क्या? सुनकर हम गंभीर (संजीदा गुरु.. गोतम वाला नहीं) हो गए, दोस्त मेरा पियोर खांटी दोस्त है, इसी मौके की तलाश में था, चट् से फोटू टांक दी। तबसे हर जगह यही तस्वार टांकता चलता हूं, ताकि लोगों को लगता रहे कि यह जो चंट जैसा इंसान पिचके गालों को ढंकने के लिए चेहरे पर हाथ रखे हुए है, छंटा हुआ बुद्धिजीवी है।

पैगाम

दुर्गा मित्रा युवा लेखिका हैं, अंग्रेजी में कविताएं लिखती हैं। बंगलाभाषी होते हुए भी हिंदी में कविता लिखना हिंदी के लिए अच्छा शगुन है। उनकी ताज़ा कविता को छाप रहा हूं। प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार तो दुर्गा को भी होगा, मुझे भी। और हां, उनकी बेहद कम उम्र के मद्देनज़र कविता की शैली से कम-से-कम मैं बेहद प्रभावित हूं। पढ़ें और बताएं..


खुदा का करिश्मा है ये,
या क़िस्मत की इनायत..
लफ़्जों को सिखाया है बोलना उनका नाम,
जिनकी तस्वीर है इन आंखों में सुबह-शाम,
दिल से करते हैं हम उन्हें सलाम,
और भेज रहे हैं ये पैगाम,
ख़ुदा की खुदी भी क्या चीज़ है.
का नाम लिखा है इस इश्क़ के मयखाने में,
तोड़ बंदिशें याद करते हैं हम,
अफसानों में

Thursday, October 11, 2007

क्षणिकाएं..

सुधाकर दास दूरदर्शन न्यूज़ के घुटे हुए पत्रकार हैं। गृह मंत्रालय की बीट देखने के साथ कभी कभी कविता करने की कोशिश भी करते हैं, उनकी कुछ क्षणिकाएं पेश है, हंसी लगे तो भी न लगे तब भी, प्रतिक्रिया देंगे तो कभी किसी लफड़े में पड़ने पर वो आपका गृह मंत्रालय में काम करवा देंगे, इसका वायदा वो कर रहे हैं- गुस्ताख़

पत्नी

पत्नी,
अर्थात्-
पहले नरम,
फिर तनी

क्षणिकाएं..

पत्नी-2



फेरों में पति के पीछे रहना,


पत्नी को हुआ न सहन,


क्योंकि पत्नी है,


सौ मीटर की राष्ट्रीय चैंपियन।

Tuesday, October 9, 2007

प्यार के नाम कविता-२

प्यार की कई परिभाषाएं होती हैं,
कोई प्यार को जीना-
कोई जीने को प्यार समझता है,
सोच लो,
तुम किसे क्या समझते हो,
फिर अपनी जगह
इन ऐतिहासिक परिस्थितियों में तुम्हें मिल जाएगा।।

कौन देशभक्त, कौन देशद्रोही...

लो जी लो... कर लो फैसला। कौन है देशभक्त और कौन देशद्रोही... महर्षि मार्क्स के चेले चपाटी कह रह हैं, अमेरिका से एटमी करार करने वाले देशद्रोही हैं। मयडम जी फरमा रही हैं, करार पर तकरार करने वाले देश के विरोधी हैं। गुरु हम तो नरभसा गए हैं। हम तो आज तक तय ही नहीं कर पाए कि हम एटमी करार के पक्ष में हैं या विपक्ष में। अमेरिका के साथ करार हो जाएगा, तो यकीन मानिए भारत के हर नागरिक को बिना लिंगभेद, बिना जाति भेद और बिना किसी अन्य भेदभाव के रोज़गार मिल जाएगा। रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या हल हो जाएगी। दिल्ली की सड़कों पर ब्लू लाईन बसें तांडव नहीं मचाएंगी। हर पत्रकार के लिए एक प्लैट अलॉट किया जाएगा... हम्म।लेकिन ज़रा देशभक्त लोगों के बारे में, उनके अतीत के बारे में पढ़ता हूं तो दिमाग़ का शक्की कीड़ा कुलबुलाने लगता है। १९६२ में इन्होंने ही चीन के साथ जाने या फिर उसे नैतिक समर्थन देने की बात की थी ना। कहीं ऐसा तो नहीं कि चीन के ही सपोर्ट पर गुरुघंटाल लोग फिर समर्थन वापसी(?) का वितंडा खड़ा कर रहे हों? और समर्थन वापसी.. हिम्मत है क्या? अरे वापस लेना होता तो इंतज़ार किस बात का? जियांग जेमिन ने हरी झंडी नहीं दी है क्या? चलो मान लेते हैं कि करार गलत है, लेकिन इतने दिनों का इंतजार किस लिए? वोट पाकर मदमस्त हुए वामपंथियों .. जनता के बीच क्या कह कर जाओगे? सरकार किस लिए गिराई? प्याज मंहगे होने लगे हैं उस मुद्दे पर? राम सेतु पर संप्रदायवादियों के खिलाफ? गरीबों के कितने हितकारी-शुभाकांक्षी हो, नंदी ग्राम में देख चुका है पूरा भारत। कम्युनिस्ट हो, तो उसे जीवन में उतारकर दिखाओ यारों। बोतलबंद पानी पीकर, रीड एंड टेलर के सूट मेंसज कर किस विचारधारा (जो भी है, उधर की ही है) को फॉलो कर रहे हो, उसकी कलई खुल रही है। माफ करना महर्षि मार्क्स आपके चेले चपाटी आपके ही विरोध में हैं। अपने अनुयायियों से कहो आपके नाम की रोटी सेंकना बंद करें। आपके सच्चे चेले तो किसी बेर सराय में पागल कहे जाक अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य हैं। (देखे राजीव की क़िस्सागोई)वैसे बिना ज़िम्मेदारी के सत्ता सुख पाने वाले काहिल वामपंथी नेताओं आपका अच्छा वक्त खत्म होता अब..।

यारों कोई कहे उनसे कि करार के पक्ष या विपक्ष में खड़ा होने वाला आदमी द्रोही या भक्त नहीं है देश का। वह तो खालिस राजनेता हैं। देशभक्त तो सरहद पर शहीद होने वाले जवान हैं, संसद पर हमले के वक्त जान देने वाले सिपाही। ईमानदारी से देश के लिए सपने देखने और उसे साकार करने वाला हर कोई... डॉक्टर, इंजीनियर, सॉफ्टवे.यर प्रफेशनल, पत्रकार,...ट्रेन सही वक्त पर ले आने वाला ड्राईवर.. हर इंसान जो देश के सोचता है। ....

Sunday, October 7, 2007

पाकिस्तानी लोकतंत्र के लड्डू

पाकिस्तान को नया राष्ट्रपति मिलने वाला है। राष्ट्रपति कितना नया होगा, वर्दी में होगा..( सेना की वर्दी जनाब, अपने दिमागड का कूड़ेदान न खोले कृपया) या बिना वर्दी का, इस सवाल का जवाब उतना ही साफ है, जितना बीजेपी का राम मुद्दा। भारत के लोग, भारत की मीडिया और भारत के नेता... एक साथ गला फाड़ कर चिल्लाते हैं, अमेरिका के सामने साबित करने पर तुले रहते हैं. देखिए मालिक... हम सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। अबे..क्या खाक लोकतंत्र हैं? आपको चुनाव के ठीक बाद पता होता है कि किस उम्मीदवार को कितने फीसद वोट मिले हैं? नहीं पता ना....। अजी नज़रें पश्चिम पर रखने वालों बुद्धिमानों, देखों पाकिस्तान के मुख्य चुनाव आयुक्त को वोटिंग के ठीक बाद पता चल गया कि जनाब मुशर्रफ को सबसे ज़्यादा वोट मिलें हैं। जीतने वाले वही हैं। आपके माननीय चुनाव आयुक्त कैसे हैं... एक्जिट पोल करने तक पर गोपनीयता का पहरा बिठा रखा है। चैनलों को मनाही है। नहीं दिखा सकते। दिखाया तो कारण बताओ नोटिस जारी हो जाएगा। वैसे एक बात और .. कुछ बेकार के चैनलों को छोड़कर किसी को एक्जिट पोल दिखाने का वक्त भी नहीं। अरे यार, देखते नहीं रोज़ाना पब्लिक सड़क पर उतर रही है... हमें राखी सावंत को देखना है, राखी का इंटरव्यू हंसते हुए पत्रकार के साथ आए तो स्क्राल हटाओ. हमें देखने लायक और नहीं देखने लायक हर चीज़ देखने दो। बहरहाल, बात लोकतंत्र की हो रही थी। हमारे यहां लोकतंत्र बुढा गया है। साठ साल का हो गया है। सठिया रहा है यह। इसे सही राह पर ले जाने के लिए वाइग्रा की ज़रूरत है। कर्नाटकी नाटक देखिए.. वाइग्रा खाकर हमारा लोकतंत्र यौनाचार के नए आसन आजमा रहा है। पाकिस्तान में लोकतंत्र ओढ़ा जा रहा है, हम जन्मजात लोकतंत्र की चुसनी के साथ पैदा हुए हैं, उसे ही चुभला रहे हैं। टीवी चैनलों, एफएम चैनलों पर पाबंदियों के साथ हम अपने गणराज्य को वाइग्रा खिला रहे हैं...पाकिस्तान में अवाम बदल-बदलकर रस लेती है। कभी तानाशाही, कभी मूर्ख सियासयदां, जिनका अपनी ही फौज और अवाम पर कंट्रोल नहीं..कभी कभी लोकतंत्र की नौटंकी भी।हम ऐसे है कि विविधता से भरे हैं। केसरिया भारत अलग. हरा हिंदोस्तां अलग ..सफेद तो खैर अलग है ही...। हमारी जनता को भी कोई चूतिया नहीं बना सकता सिर्फ नेता उनकी जात का, तो फिर अवाम यह नहीं देखती कि चुना जाने वाला नेता किस पार्टी का है, उसकी पृष्ठभूमि क्या है। हमारे लोकतंत्र का फलक बेहद बड़ा है.. उनकी तरह नहीं। आमीन

Friday, October 5, 2007

आस्थाओं के प्रति अनास्था का दौर..

यह आस्थाओं के प्रति अनास्था का दौर है। कम से कम मेरे व्यक्तिगत अनुभव यही कहते हैं। राम का सेतु था, या नहीं था। राम थे या नहीं थे? सवाल बड़े हैं, जवाब गोलमोल। मेरा मानना है कि हम वैचारिक अराजकता के दौर में हैं। राम हैं या नहीं है.. मेरे छोटे से दिमाग़ में नहीं आता। लेकिन मेरी विधवा मां अब भी जब राम मंदिर या उससे पहले भी जब मंदिर-कमंडल का मुद्दा सामने था ही नहीं तब भी कुछ घट-अघट होने पर राम के सामने ही रोती थी। मूर्ति के सामने । इस्लाम इसे कुफ्र क़रार देगा। यह उनकी आस्था है कि मूर्तिपूजा काफिरों का काम है। आपकी आस्था ( जो राम को मानते हैं उनके लिए) राम में है, मूर्तिपूजा में है।

हिंदू संस्कृति में कोई एक धर्म नहीं है। लोग शैव हैं, वैष्णव हैं, शाक्त है, लेकिन हिंदू हैं या नहीं इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है। हम मानते हैं कि कुछ ऐसी बाते हैं, जो दकियानूसी कठघरे मे आती हैं, उनसे छुटकारा पाना ही ठीक है। लेकिन उस के बराबर ही यह मानना ही होगा कि आस्था या विश्वास को हथौड़े से नहीं तोड़ा जा सकता। गणेश की पत्थर की मू्र्तियां दूध पी सकती हैं। पत्थर के हनुमान के आंसू निकल सकते हैं। पटना में पत्थर पानी पर तैर सकता है। साइंस कहता है कि पत्थर पानी पर तैर सकता है। कुछ पत्थरों में अंदर ज्वालामुखी की गैस भरी होता है, जिससे वह पानी पर तैर सकते हैं। लेकिन छद्म सेकुलर लोगों के लिए कोई साइंस सत्य नहीं। सत्य तो केवल वोट है, वही शाश्वत है, चिरंतर है।

क्या वजह हो सकती है कि राम सेतु मुद्दे को बीजेपी हवा दे रही है। देश भर में बंद करवा रही है। उसी के बराबर करुणानिधि अपनी गोटी फिट करने में लेगे हैं, क्यों कि द्क्षिण में उनकी गोटी ही राम विरोध पर चलती है। फिट होती आई है। राम के नाम पर हलफनामा देने वाली सरकार को दिखा ही नहीं कि कुछ साल पहले उनके ही एक बेहद लोकप्रिय नेता ने राम लला के मंदिर के ताले खुलवाए थे। उनके ही के मौनी बाबा ने भ्रष्टाचार के आरोप पर कहा था कि इस अग्निपरीक्षा से मैं सीता मैया की तरह निकल आऊंगा। राम ही नहीं तो काहे की सीता मैया गुरु?तो घट-घट में बसने वाले राम पर टीका -टिप्पणी का दौर जारी है। राम अगर कहीं होंगे, तो जन्म स्थान (माफ कीजिएगा, राम ते ही नहीं तो जन्म किसका और कौन सा जन्म स्थल?) फिर भी अगर कहीं हों, तो हंस रहे होंगे कि देखो बेट्टा, मेरे नाम पर कैसे पब्लिक को चू..तिया बना रहे हो। चलिए राम की तो खैर मनाइए..ऐतिहासिक सुबूत मांगे जाएंगे, तो क्या पेश करेंगे आप। लेकिन गांधी का क्या। उनके अपनों ने ही उनको पराया कर दिया है। गांधी आज संजय दत्त की गांधीगीरी के मुहताज हो गए हैं। राजघाट पर आने वाले लड़के, लड़के नहीं लफाडिए होते हैं। लड़कियां ब्यायप्रेंड से मिलने आती है। (सारी नहीं,, लेकिन ज्यादातर)। गांधी स्मृति संग्रहालय में आए बच्चे टीचर को कोस रहे थे, कहां फंसा दिया। अच्छा होता कि किसी पीवीआर में जाकर हे बेबी में उघड़े हुए बदन वाली लड़कियां टापता।
हम अराजक हो रहे हैं। अपनी संस्कृति के तौर पर भी, और अपीन आस्थाओं के लिहाज से भी। प्रचलित परंपराओं का विरोध करना ही ठीक नहीं है। पहले यह जांच लेना ठीक होगा कि उनमें से कुछ परंपराएं हमारी आस्था भी हो सकती है। सच हो न हो, उनका अतीत में कोई अस्तित्व रहा हो., न रहा हो।

मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कई बंधु तो सिर्फ सेकुलर दिखने, या वैचारिक लड़ाई में हाथ ऊपर रखने के लिए राम का विरोध कर रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे चंदा देते वक्त लोग मार्क्सवादी और प्रसाद-भोग लेते वक्त आस्तिक हो जाते हैं। धिक्कार है।

Thursday, October 4, 2007

एक्सक्लूसिव बिहारी शब्द संग्रह...कुछ और

कुछ और हिंदी-मैथिली गालियों का संग्रह छाप रहा हूं। राजीव को पहले ही भेज चुका हूं। आने वाली नादान गालीविहीन पीढ़ियों के काम आएंगी ताकि दुश्मनों के कान से खून चूने (टपकने ) लगे-

इटेवा- ईंटकुटेव-बुरी आदत
मुंहझौंसा- जो मुंह में आग लगा दिए जाने लायक हो
शरधुआ- जिसका श्राद्ध किया जाए
रोगढुकौना- जिसे रौग बलाएं लगें
निरवंशा- जो निर्वंश मरे
बाढ़िन झट्टा- जिसे बाढ़न यानी झाडू से पीटा जाए
निपूतरा- जिसे बेटा न हो
ढीढ़वाली- नाजायज़ औलाद पेट में रखने वाली
बोंगमरना- अप्राकृतिक यौनाचार करवाने वाला पुरुष
कुछ अन्य शब्द हैं-
सजमइन- लौकी, अरिकोंच-कच्चू,
बूट- चना, छीमी-मटर,
कोंहड़ा- दिल्ली में सीताफल,
ढेपा-पत्थर, भैंसुर-जेठ,
लताम-अमरूद,
खखुआना- चिढ़ना,
भकुआना-तंद्रा में रहना
बुड़बक-बेवकूफ़
चमरछोंछ-कंजूस
लीच्चड़- कंजूस
झिंगड़ी-हरा चना
टाल- ढेर
नार-पुआल
ढेंकी-चावल कूटने का लकड़ी का उपकरण
गोर- पैर
गोर लगना- प्रणाम करना
गांती- ठंड से बचने के लिए गले में भंधा कपड़ा
झपसी-बहुत दिनों तक आकाश में बादल छाए रहना
लाका लकना- बिजली चमकना
घोरन- एक तरह की चींटी
बेंग- मेंढक
जरना या जारइन- जलावन
इनार- कुंआ
इजोत- उजाला
भगजोगनी- जूगनू
फेनूगिलास-जलतरंग के तरह का वाद्य यंत्र
गंगोती- गंगा की मिट्टी
डबरा- छोटा पोखरा
गूंह-पैखाना
हगना- पाखाना करना
छेरना- दस्त की शिकायत होना
तेतर-इमली

बिहारी शब्दकोष..

राजीव मिश्र आजकल लेखन में कमाल कर रहे हैं। उनके ब्लॉग पर एक अत्यंत उपयोगी लेख देखा. छापना समुचित जान पड़ा। राजीव को आभार व्यक्त करते हुए हम जस का तस छाप रहे हैं। आपके पास कुछ और हो जोड़ने के लिए तो जोड़ सकते हैं- गुस्ताख़



आरकुट पर बिहारी कम्यूनिटी पर एक पोस्ट में एक्सक्लूसिव बिहारी शब्द सुझाने को कहा गया था। मतलब ऐसे शब्द या वाक्य जो सिर्फ़ बिहार में बोली और समझी जाती है। कुछ शब्द वहीं से कंट्रोल सी कर लिया और कुछ को स्वयं अपने मेमोरी से जोड़ा। और तैयार हो गया यह मिनी डिक्शनरी। बिहार स्पेशल शब्दकोष। अधिकतर शब्द तदभव ही हैं। मगह, मैथिली, अंगिका, भोजपूरी और मसाले के रूप में पटनिया। लोगों का मानना है कि पटना में मगही भाषा बोली जाती है। लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। पटना में पटनिया बोली जाती है जो पूरे राज्य की भाषाओं और राष्ट्रभाषा हिंदी का मिश्रण है। पेश है शब्दकोश के कुछ जाने-पहचाने शब्द:


" कपड़ा फींच\खींच लो, बरतन मईंस लो, ललुआ, ख़चड़ा, खच्चड़, ऐहो, सूना न, ले लोट्टा, ढ़हलेल, सोटा, धुत्त मड़दे, ए गो, दू गो, तीन गो, भकलोल, बकलाहा, का रे, टीशन (स्टेशन), चमेटा (थप्पड़), ससपेन (स्सपेंस), हम तो अकबका (चौंक) गए, जोन है सोन, जे हे से कि, कहाँ गए थे आज शमावा (शाम) को?, गैया को हाँक दो, का भैया का हाल चाल बा, बत्तिया बुता (बुझा) दे, सक-पका गए, और एक ठो रोटी दो, कपाड़ (सिर), तेंदुलकरवा गर्दा मचा दिया, धुर् महराज, अरे बाप रे बाप, हौओ देखा (वो भी देखो), ऐने आवा हो (इधर आओ), टरका दो (टालमटोल), का हो मरदे, लैकियन (लड़कियाँ), लंपट, लटकले तो गेले बेटा (ट्रक के पीछे), की होलो रे (क्या हुआ रे), चट्टी (चप्पल), काजक (कागज़), रेसका (रिक्सा), ए गजोधर, बुझला बबुआ (समझे बाबू), सुनत बाड़े रे (सुनते हो), फलनवाँ-चिलनवाँ, कीन दो (ख़रीद दो), कचकाड़ा (प्लास्टिक), चिमचिमी (पोलिथिन बैग), हरासंख, चटाई या पटिया, खटिया, बनरवा (बंदर), जा झाड़ के, पतरसुक्खा (दुबला-पतला आदमी), ढ़िबरी, चुनौटी, बेंग (मेंढ़क), नरेट्टी (गरदन) चीप दो, कनगोजर, गाछ (पेड़), गुमटी (पान का दुकान), अंगा या बूशर्ट (कमीज़), चमड़चिट्ट, लकड़सुंघा, गमछा, लुंगी, अरे तोरी के, अइजे (यहीं पर), हहड़ना (अनाथ), का कीजिएगा (क्या करेंगे), दुल्हिन (दुलहन), खिसियाना (गुस्सा करना), दू सौ हो गया, बोड़हनझट्टी, लफुआ (लोफर), फर्सटिया जाना, मोछ कबड़ा, थेथड़लौजी, नरभसिया गए हैं (नरवस), पैना (डंडा), इनारा (कुंआ), चरचकिया (फोर व्हीलर), हँसोथना (समेटना), खिसियाना (गुस्साना), मेहरारू (बीवी), मच्छरवा भमोर लेगा (मच्छर काट लेगा), टंडेली नहीं करो, ज्यादा बड़-बड़ करोगे तो मुँह पर बकोट (नोंच) लेंगे, आँख में अंगुली हूर देंगे, चकाचक, ससुर के नाती, लोटा के पनिया, पियासल (प्यासा), ठूँस अयले (खा लिए), कौंची (क्या) कर रहा है, जरलाहा, कचिया-हाँसू, कुच्छो नहीं (कुछ नहीं), अलबलैबे, ज्यादा लबड़-लबड़ मत कर, गोरकी (गोरी लड़की), पतरकी (दुबली लड़की), ऐथी, अमदूर (अमरूद), आमदी (आदमी), सिंघारा (समोसा), खबसुरत, बोकरादी, भोरे-अन्हारे, ओसारा बहार दो, ढ़ूकें, आप केने जा रहे हैं, कौलजवा नहीं जाईएगा, अनठेकानी, लंद-फंद दिस् दैट, देखिए ढ़ेर अंग्रेज़ी मत झाड़िए, लंद-फंद देवानंद, जो रे ससुर, काहे इतना खिसिया रहे हैं मरदे, ठेकुआ, निमकी, भुतला गए थे, छूछुन्दर, जुआईल, बलवा काहे नहीं कटवाते हैं, का हो जीला, ढ़िबड़ीया धुकधुका ता, थेथड़, मिज़ाज लहरा दिया, टंच माल, भईवा, पाईपवा, तनी-मनी दे दो, तरकारी, इ नारंगी में कितना बीया है, अभरी गेंद ऐने आया तो ओने बीग देंगे, बदमाशी करबे त नाली में गोत देबौ, बड़ी भारी है-दिमाग में कुछो नहीं ढ़ूक रहा है, बिस्कुटिया चाय में बोर-बोर के खाओ जी, छुच्छे काहे खा रहे हो, बहुत निम्मन बनाया है, उँघी लग रहा है, काम लटपटा गया है, बूट फुला दिए हैं, बहिर बकाल, भकचोंधर, नूनू, सत्तू घोर के पी लो, लौंडा, अलुआ, सुतले रह गए, माटर साहब, तखनिए से ई माथा खराब कैले है, एक्के फैट मारबौ कि खुने बोकर देबे, ले बिलैया - इ का हुआ, सड़िया दो, रोटी में घी चपोड़ ले, लूड़ (कला), मुड़ई (मूली), उठा के बजाड़ देंगे, गोइठा, डेकची, कुसियार (ईख), रमतोरई (भींडी), फटफटिया (राजदूत), भात (चावल), नूआ (साड़ी), देखलुक (देखा), दू थाप देंगे न तो मियाजे़ संट हो जाएगा, बिस्कुट मेहरा गया है, जादे अक्खटल न बतिया, एक बैक आ गया और हम धड़फड़ा गए, फैमली (पत्नी), बगलवाली (वो), हमरा हौं चाहीं, भितरगुन्ना, लतखोर, भुईयां में बैठ जाओ, मैया गे, काहे दाँत चियार रहे हो, गोर बहुत टटा रहा है, का हीत (हित), निंबुआ दू चार गो मिरची लटका ला चोटी में, भतार (पति शायद), फोडिंग द कापाड़ एंड भागिंग खेते-खेते, मुझौसा, गुलकोंच(ग्लूकोज़)।"

कुछ शब्दों को आक्सफोर्ड डिक्शनरी ने भी चुरा लिया है। और कुछ बड़ी-बड़ी कंपनियाँ इन शब्दों को अपनें ब्रांड के रूप में भी यूज़ कर रही हैं। मसलन -


- देखलुक - मतलब "देखना" - देख --- लुक (Look)-

किनले - मतलब "ख़रीद" - KINLEY (Pepsi Mineral Water)-

पैलियो - मतलब "पाया" - Palio (Fiat's Car)-

गुच्ची - मतलब "छेद" - Gucci (Fashion Products)


अब बिहार में आपका नाम कैसे बदल जाता है उसकी भी एक बानगी देखिए। यह इस्टेब्लिस्ड कनवेंशन है कि आपके नाम के पीछे आ, या, वा लगाए बिना वो संपूर्ण नहीं है। मसलन....

राजीव - रज्जीवा-
सुशांत - सुशांतवा-
आशीष - अशीषवा-
राजू - रजुआ
रंजीत - रंजीतवा-
संजय - संजय्या-
अजय - अजय्या-
श्वेता - शवेताबा

कभी-कभी माँ-बाप बच्चे के नाम का सम्मान बचाने के लिए उसके पीछे जी लगा देते है। लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं कि उनके नाम सुरक्षित रह जाते हैं।-

मनीष जी - मनिषजीवा-
श्याम जी - शामजीवा-
राकेश जी - राकेशाजीवा

अब अपने टाईटिल की दुर्गति देखिए।-

सिंह जी - सिंह जीवा
झा जी - झौआ
मिश्रा - मिसरवा
राय जी - रायजीवा
मंडल - मंडलबा
तिवारी - तिवरिया
ठाकुर-ठकुरवा

ऐसे यही भाषा हमारी पहचान भी है और आठ करोड़ प्रवासी-अप्रवासी बिहारियों की जान भी। डिक्शनरी अभी भी अधूरी है। आप इसमें अपने शब्द जोड़कर और भी समृद्ध बना सकते है। तरीका बेहद आसान है। नीचे लिखे केमेंट्स पर क्लिक् करें। अपना संदेश लिखे....फिर अपने ज़ी-मेल आई-डी भरकर पब्लिश क्लिक कर दे।

प्याज महंगे होने का सकारात्मक पहलू.

लोग प्याज के मंहगे होने पर चिल्ला रहे हैं। कह रहे हैं सरकार को ध्यान देना चाहिए। सरकार ध्यान दे रही है। सरकार कामकाज छोड़कर प्याज बिकवा रही है। अब पुलिस वाले घर-घर जाकर प्याज बांटेंगे। धमकाकर कहेंगे.. प्याज ले जा किलो भर वरना थाने आकर हाजिरी बजानी होगी, हफ़्ते में दो बार। लोग पहले प्याज काट कर रोते थे। अब प्याज खरीदते वक्त रोते हैं। रोना लोगो की आदत में शुमार है। हर वक्त रोना , सरकार कुछ करे तब भी, ना कर तब तो रोएंगे ही। बहरहाल, ग्लास के खाली होने की तरह क्यों नहीं लेते हम इस घटना को। सरकार असली रामभक्त है। जय श्री राम रमेश की तरह। हिंदू धर्म का मर्म जानने वालों से पूछिए... प्याज गरम भोजन माना जाता है। विधवाओं के लिए प्याज पहले ही वर्जित है। मांस बनाएंगे तो प्याज डाले बिना काम चलेगा क्या? प्याज महंगा होगा तो लोग खरीदेंगे नहीं। सरकार को प्याज विदेशो में बेचने के लिए मुहैया हो जाएगा। देश में विदेशी मुद्रा की आमद बढ़ेगी। देश का विकास होगा। और आप कैसे देश भक्त हैं जो देश का विकास नहीं चाहते। प्याज न खरीद कर आप जिन रुपयों की बचत करेंगें उसे बैंक में डाल दें। मुंडी में बात घुसी कूढ़मगज....प्याज के दाम ब़ढ़ेंगे तो किसानों का फायदा होगा। भारत गांवों और किसानों का देश है, शषहर का पैसा दल्लो क मार्फत किसानों तक पहुंचेगा। धन का विकेंद्रीकरण होगा। लेनिन के केशविशेषों, देखो सरकार गरीबों के हित में किस तरह से काम कर रही है। चोरी-चोरी, चुपके-चुपके। किसी को पता भी नहीं चलेगा और छिपे छिपे देश का विकास भी होता रहेगा। प्याज-लहसुन नहीं खाना, मांसाहार न करना, मदिरापान न करना ये सब तो हिंदू धर्म की प्रमुख निशानियां हैं। सरकार उसी को बढ़ावा दे रही है। यह वही सरकार है, जिसने कुछ साल पहले राम लला के मंदिर का ताला खुलवाया था। जिसके एक और मुखिया ने विवाद्स्पद ढांचे के गिरने पर चुप्पी साध ली थी। अब वही सरकार प्याज मंहगा करके तुम्हे जीवन शैली की शुद्ध हिंदूवादी शैली सुझ रही है। और तुम हो कि मानने को तैयार नहीं, हल्ला मचाने वाले बेवकूफों सरकार की मंशा को समझो..... प्याज मंहगा होने दो। देश केविकास में अपना मौन योगदान दो।

Wednesday, October 3, 2007

कुछ और भी...इच्छाएँ जो छूट गईं..

सुशांत झा एक संवेदनशील पत्रकार हैं। मेरी गांधीगीरी.. पर उनने कुछ और जोड़ा है, हम सादर उनकी उन इच्छाओं को जो मेरी भी हैं, और कलमबद्ध होते-होते रह गई थीं- और जिसे उनने लिख भेजा है-छाप रहे हैं।


भाई कुछ और क़समें रह गई हैं..जैसे..मैं डीलमेकर बनूंगा. हाईवे से लेकर डिफेंस तक में कुलांचे भरूंगा. मैं हार्स ट्रेडिंग करूंगा। मैं मिशन (???) पत्रकारिता करूंगा। मैं क्रिश्चियन से लेकर .. संघ के कुनबे तक की सैर करूंगा...और कम से कम एक अदद एनजीओ तो होगा ही..जिसकी मेंबर सिर्फ मेरी पत्नी और मेरी मां होगी..

मैं किसी एजुकेशनल ट्रस्ट से लेकर कृषि विकास केंद्र तक का चेयरमैन हो सकता हूं...उम्र के अंतिम दशक में मैं किसी मास क़ॉम इंस्टिट्यूट में प्रोफेसर या किसी पॉलिटिकल पार्टी या नामी पॉलिटिशयन का स्पोकपर्सन भी हो सकता हूं। मैं शपथ खाता हूं कि मैं अपने हिंदी मीडियम में पढ़ने का कलंक धो दूंगा और मेरे बच्चे किसी स्कॉलरशिप पर विदेशी डिग्री ही हासिल करेंगे। मेरी एक मात्र अंतिम इच्छा राज्य सभा में मनोनीत सदस्य बनने की है। या नहीं तो प्रसार भारती के मेंबरशिप से भी मैं संतुष्ट हो सकता हूं।

मैं बहुत लालची नहीं हूं...मैं चाहूंगा कि लोग मुझे मरने के बाद एक प्रसिद्ध बुद्धिजीवी के रूप में याद करें जिसने समाज और पत्रकारिता को नई ऊंचाईयां दी...और कि मेरे मरने के बाद ये शून्य लोगों को बहुत खलेगा...आमीन।।

मुहब्बत की राह में...

आज हमने टीवी पर एक एंकर को देखा। टीवी दे्खे तो एंकर ही दिखती है। एकर पुलिंग भी हैं, और स्त्रीलिंग भी। लेकिन मज़ा सिर्फ स्त्रीलिंग को ही देखने में आता है। हमारे एक दोस्त हैं, बेसाख्ता उनके मुंह से कुछ असंसदीय निकल गया। स्त्री-पुरुष संबंधों पर उनके बेबाक बयानों और उन अंतरंग क्षणों का विवरण सुनकर कान मधुमय ोह जाते हैं. लब्बोलुआब ये कि हमारे जिगर पर छुरी चल गई।
लड़कों के पास एक अदद जिगर होता है। जो आम तौर पर छुरियों के नीचे पड़ा होता है। लड़की देखी नहीं कि जिगर पर छुरी चल जाती है। मेरे एक और दोस्त है। (मेरे दोस्तों की संख्या पर कृपया सवाल खड़े न करें, वे बहुत सारे और बहुत तरह के हैं।) तो हजरत, मेरे दोस्त लड़कियों को लेकर बहुत उत्साहित रहते हैं। कैंटीन ले जाकर उन लड़कियों को चाहे वे इंटर्न ही क्यों न हो चाय पिलाना उनका शगल है। ये बात दीगर है कि हमें ये हमारी तरह के लद्दू दूसरे लड़कों को उन्होंने पानी तक के लिए नहीं पूछा है। अस्तु, लड़की ने उन्हें देखा, लड़की ने जींस पहनी है, लड़की ने खांसा, लड़की के बाल लंबे हैं, लड़की के बाल छोटे हैं, लड़की सलवार सूट में है, लड़की छत पर आई, लड़की ने दुपट्टा पहना है, नहीं पहना है, लड़की ने उन्हें देख कर थूका नहीं, लड़की ने समय बताया, लड़की लड़की है. बस इतना ही काफी है। लड़की का लड़की होना ही काफी है, बाकी उद्दीपन वे खुद स्थापित कर लेते हैं।
लड़कियों को हम भी टापते रहे उम्र भर। लेकिन किसी ने घास नहीं डाली। उनमें क्या कला है, कि वे सीधे लड़कियों को लेकर अंसल प्लाजा का रुख कर लेते हैं। हम फ्रस्टिया रहे हैं। फ्रस्टियाए भी क्यों न... दरअसल, उम्र के एक खास मोड़ तक आदमी हीर-रांझा, लैला-मजनूं के उल्टे-सीधे किस्से पढ़कर इसी गफलत में रहता है कि प्यार किया नहीं जाता हो जाता है। लेकिन बाद में जब लड़कियां धड़ाधड़ दूसरे लोगों की बांहो इत्यादि में जाने लगती हैँ। तो उसे इस बात का , इस शाश्वत सत्य का भान होता है कि प्यार होता नहीं, वरन तिकड़म और जुगाड़ की हद तक जाकर किया जाता है। उसके लिए फील्डींग करवानी होती है। प्यार हो जाना एक बात है और उसे निभा पाना जिसे खराब भाषा में खींच पाना दूसरी बात है। क्यों कि इसमें पैसे लगते हैं।
महर्षि मार्क्स ने बहुत पहले कह दिया था कि लव इज़ मॉडिफाइड इकॉनमिक रिलेशन... यानी प्यार रूपांतरित आर्थिक संबंध हैं। आपका क्या विचार है?....

Tuesday, October 2, 2007

मेरी गांधीगीरी.....

गांधी जी की जय। मेरी भी। गांधी जी का जन्मदिन सारे देश ने मनाया। लोगों ने भाषण दिए। मेरी मां भी मेरा जन्मदिन मनाती है। खीर और गाजर का हलवा हर हिंदी फिल्म के नायक की तरह मुझे भी पसंद है, सो वह बना देती है। कहती है, निठल्ले ठूंस ले। मैं कहता हूं कि अम्मां, अब मैं निठल्ला नहीं ठहरा.. काम करता हूं। लेकिन दूसरों की तरह मेरी मां भी मेरे काम को अहमियत नहीं देती। बहरहाल, मेरी गांधीगीरी वहीं से शुरु होती है। मैं सारे का सारा मयगाली के खा जाता हूं। बिना शिकायत किए।

तो गांधी की इस जयंती पर मैं अपनी गांधीगिरी चालू रखने की कसम खाता हूं। मैं कसम खाता हूं कि मैं हमेशा दूसरे चैनलों के भूत-प्रेत, नाग-नागिन, हनुमान के आंसू, भीम की शर्ट-पैंट, नालियों में हिरे-पड़े बच्चों, मियां-बीवी की बेडरूम में होने वाली लड़ाईयों की, झांसी की रानी के पुनर्जन्म की कहानियों पर आधारित आधा घंटा खिंचाऊं घंटा टाइफ प्रोग्रामोंं की न सिर्फ निंदा करूंगा। बल्कि खिल्ली उड़ाने की हद तक करूंगा। साथ मन ही मन मैं उस चैनल में काम करने की जुगत भिडा़ता रहूंगा। मैं हमेशा उन्हें यह कह कर कोसूंगा कि चूतियों ने पत्रकारिता का तिया-पांचा कर रखा है। लेकिन मैं हर महीने अपना सीवी उनके चैनल हैड को फारवर्ड किया करूंगा।

मैं ये भी कसम खाता हूं कि राइटर्स से आने वाले फीड में शकीरा और ब्रिटनी स्पियर्स जासी मादक मादाओं के गुदाज़ बदन का, उनके मांसल बदन का सिर्फ एडिट बे में छिपकर लाग किया करूंगा, गो कि यह हमारे चैनल में दिखाया नहीं जा सकता। बाद में मैं सीना ठोंक कर कह सकता हूं कि बहन..चो.. हम उल्टा-सीधा नहीं दिखाते।
बाद में जब मैं सीनियर हो जाऊंगा, तो अपने जूनियरों को यह कह कर हड़काऊंगा कि जो कवरेज जो रिपोर्ट हमने की तुम क्या तुम्हारे पुरखे भी नहीं कर सकते। अगर जूनियर २३-२४ साल का हुआ तो उसे यह कहूंगा कि जितनी तुम्हारी उमर नहीं, उतने दिनों से तो मैं मीडिया में कवरेज कर रहा हूं। मैं कोशिश करूंगा कि सभी मंत्रियों, सभासदो, पार्षदों, सांसदों, विधायकों, उन सबकी पत्नियों, सालों, बहनोईयों के चरण रज का वंदन किया करूं, ताकि वक्त आने पर वो मुझे बाईट दे दिया करें।
मैं ये भी कसम खाता हूं कि कभी किसी प्रकाश झा की तुलना राम गोपाल वर्मा से करके अपनी भद नही पिटवाऊंगा। ताकि दोनों के प्रशंसक मुझसे नाराज़ न हों। और मेरी हर जगह पैठ बनी रहे। आगे से मैं जो भी लिखूंगा, लोगों को खुश करने के लिए लिखूंगा। किसी को नाराज़ नहीं करूंगा। हां, मशहूर होने के लिए रचनाएं ( अच्छी हो या बुरी, कोई फरक नहीं पड़ता) चुरा कर छपवाऊंगा, क्योकि कि पुरस्कार लोगों को मशहूर बनाता है। इसके लिए मैं हिंदी का क्षेत्रीय भाषाई होने का पुरस्कार भी बिना विरोध किए ले लूंगा, क्योंकि मुझे तो मशहूर बनना है।
हां एक और आइडिया है.. सार्वजनिक मंचो पर और नोबेल प्राप्त सर विदिया की तरह बापू की बुराई करके भी मैं मशहूर हो सकता हूं। तो आप मेरे मशहूर होने का इंतज़ार कीजिए। मैं किसी अच्छी रचना की जुगाड़ में हूं।

संजय की लो ( वो वाला नहीं)..

आज ऐसा हुआ कि ... माफ कीजिए, भावनाओं में बहकर ५ डब्ल्यू और १ एच को भूल गया। प्राईवेट चैनलों की तरह। गुस्ताख़ जो हूं। बहरहाल, संजय दत्त को गांधीगीरी के लिए स्पाइस ने ग्लोबल स्प्लेंडर अवार्ड दिया। जगद्-गुरु शंकराचार्य दिव्यानंद को भी दिया। गांधी जी के विचारों को फैलाने के लिए ये पुरस्कार दिया जाता है। मोहसिना किदवई बूटा सिंह जैसे बुजुर्ग और ज्योतिरादित्य जैसे नौजवान नेता भी थे और विचारवान् संपादक मृणाल पांडे जैसी शख्सियत भी। प्राईवेट चैनलों में संजू बाबा को लाइव करने की होड़ मची थी। टिक-टैक के लिए मारा-मारी। नेताओं को लोग भूल गए। शंकराचार्य को बोलने का बुलावा मिला। चैनलों की सुंदर-युवा-कमसिन-नाजुक बदन-मीठी आवाज़ वाली-तेज़तर्रार रिपोर्टरों ने तुरंत हाथ.... माफ करें ऊंगलियों से कैंची बनाकर अपने कैमरामैन को रिकार्डिंग रोक देने को कहा। शंकराचार्य ने पहले संस्कृत में फिर अंग्रेज़ी मे धाराप्रवाह गांधीवादी विचारधारा पर बोलना शुरु किया। रिपोर्टर कहने लगी, बोल तो अच्छा रहा है, लेकिन इसे कवर करने में कोई न्यूज़ सेंस नहीं। खैर... थोड़ी देर बाद संजू बाबा वल्द सुनील दत्त मंच पर नमूदार हुए। रिपोर्टरों के बीच हल्ला मच गया। लो.. लो .. संजय की लो। मैंने कहा ले लो, ले लो, संजू की ले लो। लेकिन गुरु घंटालों, न्यूज़ की मत लो। संजय की जय। बाकी सब परास्त।

Monday, October 1, 2007

स्वयंवर के मेले में...

स्वयंवर के मेले में...
बहरहाल, ताबीज पहनने की मेरी ज़िद के बाद हम मय गाड़ी दूरदर्शन अहमदाबाद पहुंचे। यह कहने में मुझे कोईगुरेज़ नहीं कि डीडी के इस केंद्र की स्थिति दूसरे रीज़नल न्यूज़ यूनिट के मुकाबले बेहतर है। मेरे कहने का गर्ज ये कि कैंटीन के खानें में मुझे काकरोच नहीं दिखे। खाने से बास भी नहीं आ रही थी। मुझे निराशा हुई। अहमदाबाद डीडी के गेस्ट हाउस में बहुत झिझकते हुए मुझे एक कमरा दे दिया गया। कमरा कोई खास तरह से साफ़ नहीं था। बरसात का मौसम था यह साफ दिख रहा था क्योंकि कमरे को खोलते ही कई मेंढक मेरी तरफ लपके।
खैर काफी जद्दोजहद करने के बाद मुझे तरनेतर- जो कि ज़िला सुरेंद्रनगर में है. राजकोट के पास- भेजने के लिए इंतज़ामात किए गए। उनका कहना था कि हमने इसे स्थानीय स्तर पर सन १९९४ में खूब कवर किया था और अब इसे दोबारा २००७ में कवर करने का कोई औचित्य नहीं। पर मेरे गुणसूत्रों का दोष.. मैंने फिर ज़िद पकड़ ली। कि यह सवरेज तो मुझे करनी बही है। मैं अपने बास से वादा कर आया था। एक नई तरह की रिपोर्टर्स डायरी देने का।
गाड़ी मिली। ड्राइवर भी। वही जिसने मेरे ताबीज पर बवाल काटा था। एक कैमरा-कम-लाइटिंग असिटेंट। एक साउंड तकनीशियन। और हां... एक उनींदा कैमरामैन .. जो सारी राह मुझे इस बेकार की मगजमारी में न पड़ने की सलाह देता रहा। धूप सीधे चेहरे पर पड़ती रही। शाम के वक्त हम तरनेतर पहुंचे। शानदार सड़क। चौड़ी। हरियाली..गो कि बरसात का मौसम था। लेकिन पेड़ ज़्यादा बड़े नहीं। नाटे। सीधे मेले की जगह पर पहुंचे। मेले की जगह में सुगबुगाहट शुरु हो चुकी थी। चरखियां लगने लगीं थी। दुकानों के लिए बल्लियां लगाई जा रही थी। लोग बाग एक खास तरह की गाड़ी छकड़े से आ जा रहे थे। आगे से मोटरसाइकिल, पीछे से उसमें तांगा जोड़ दिया जाए तो क्या दोगली गाड़ी बनेगी.. वही। एक गाडी में पचीस-सत्ताइस लोग। उस भीड़ में घुस कर पिसते हुए सफर करने का लुत्फ ही क्या है।
मेले की जगह पर ज़्यादा कुछ नहीं थी। हमें पीने का पीन भी नहीं मिला। जो भी था खारा। लेकिन लोग बड़े मीठे थे। बाहर से आया जानकर और अधिक मदद करते। दुकानें भी देखी। हर जगह मौदी के कट-आउट। बड़ी होर्डिंग्ज़। मौदीमय गुजरात। कहीं गांधी नहीं। मन बुझ गया।
जारी....

सुपर्ब, फैंटास्टिक, माइंडब्लोइंग...चौथा क्या था...

सुपर्ब, फैंटास्टिक, माइंडब्लोइंग...चौथा क्या था... चौथा विशेषण जो एक रियलिटी शो के माननीय जज इस्तेमाल में लाते हैं वह खुद अपने लिए ही इस्तेमाल करें तो बेहतर। वैसे ज़ी टीवी का यह शो उसके मक़ाबले में खड़े दूसरे चैनलों की बनिस्पत ठीक है, लेकिन महोदय क्या ऐसे शो सचमुच टैलेंट यानी प्रतिभा की खोज कर सकते हैं।

जानकारों का (कु)तर्क होगा कि ऐसे ही एक शो की वजह से श्रेया घोषाल और कुणाल गंजावाला जैसी प्रतिभाएं आज लोगों की नज़र में आई हैं। अजी हजरत, उन शोज़ के जज कौन थे यह ग़ौर किया है कभी आपने? पं जसराज ौर रविशंकर जैसे संगीत के जानकार। वैसे हम ये भी नहीं मानते कि दुनिया का सबसे अच्छा संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत ही है, न ही हम ये मानते हैं कि पश्चिमी संगीत में कोई खामी है। लेकिन बड़ी संजीदगी से हम ये मानते हैं कि संगीत जैसी कठिन विधा के लिए रियाज़ की बहुत ज़रूरत होती है। ये सत्रह-अठारह साल के लौंडे कल .. माफ कीजिएगा आज ही इतने मशहूर हो गए हैं कि आज के बाद तो उन्हें लाइव कंसर्ट से फुरसत नहीं मिलेगी। रियाज़ कब करेंगे?

बहरहाल, बात जजों की...। ज़ी टीवी की बात पहले क्यों कि उसका शो टीआर पी रेंटिंग में मेरी जानकारी के मुताबिक अव्वल नंबर पर है। इसके जजेज़ थे, बप्पी लाहिरी, विशाल-शेखर, इस्माइल दरबार, हिमेश बाबा... जिनने अस्सी की दशक के फिल्मी संगीत को सुना है, उनको खयाल होगा कि भारतीय खासकर हिंदी फिल्मों में संगीत के स्तर पर गंद मचाने का सेहरा बप्पी दा के सिर पर ही सजेगा। धुन चोरी के उस्ताद। फिल्में अब कोई देता नहीं.. गुरु उनसे बड़े धुन चोर आ गए हैं इंडस्ट्री में ..ऐसे में कौन पूछेगा उनको? सो अब इन शोज़ के ज़रिए अपनी दुकान फिर सजाने की फिराक में हैं। अस्तु..

इस्माइल दरबार.. बाल बड़े कर लेने से कोई संगीतकार हो जाता तो हमारे गांव का फेंकू भी संगीतकार है। हारमोनियम पर जब दिल ही टूट गया पिछले चौदह साल से बजा रहा है। बाल उसके इस्माइल दरबार से भी बड़े हैं। दाढी भी बढी हुई है। जिस निंबूड़ा-निंबूड़ा गाने को अपना बना कर दरबार ने इंडस्ट्री में अपनी गोटी फिट कर ली है, वह राजस्थान की बहुत लोकप्रिय धुन और लोकगीत है। आने वाली फिल्म सांवरिया का संगीत भी उनने ही दिया है। टाइटस सांग तो साधारण ही लग रहा है मुझे।

विशाल-शेखर संगीत के मामले में इन सबके मुक़ाबले बेहतर हैं. लेकिन यह जज बनने की उनकी योग्यता साबित नहीं करता। बचे हिमेश बाबा.. घर पर चिमटा भूल आएं. तो जनाब से गुनगुनाया भी ना जाए। उनके संगीत को बेहद लोकप्रिय माना जाता है। है भी। लेकिन ज़्यादा नहीं.. ठीक तीन साल बाद उनके गाने कितने लोगों को याद रहेंगे.. हम भी देखेंगे। आप भी देखिएगा।

बचे प्रतियोगी। इन रि.यलिटी शोज़ ने उन्हें लोकप्रिय बेशक बनाया है। अलबत्ता, ये लोकप्रियतता कितने दिन कायम रहती है, ये देखना दिलचस्प होगा। क्या आपको पहले इंडियन आइडल का नाम याद है? और जो रनर अप रहा था उसका? इंडियन आइडल- द्वितीय के विजेता और रनर अप का? नहीं ना? तो इन लड़कों को भी उसी कतार में शामिल हुआ मान लीजिए। रियाज़ का कोई विकल्प नहीं। कामयाबी का कोई शार्टकट नहीं होता। आप परदे से गायब हुए और जनता बिसरा जाएगी उसको। देश के लिए जान देने वाले गांधी को भूलने में देर नहीं करती है हमारी जनता तो बीकानेर के राजा और लखनऊ के गुटखा साईज़ पावर प्लांट पूनम यादव को कौन याद रखेगा? हम तो नहीं...।