Tuesday, March 31, 2009

जोरा-जोरी चने के खेत में

हमने बहुत से गाने सुने हैं, जिनमें चने के खेत में नायक-नायिका के बीच जोरा-जोरी होने की विशद चर्चा होती है। हिंदी फिल्मों में खेतों में फिल्माए गए गानों में यह ट्रेंड बहुत पॉपुलर रहा था। अभी भी है, लेकिन अब खेतों में प्यार मुहब्बत की पींगे बढ़ाने का काम भोजपुरी फिल्मों में ज्यादा ज़ोर-शोर से हो रहा है। उसी तर्ज पर जैसे की एक क़ॉन्डोम कंपनी कहीं भी, कभी भी की तर्ज पर प्रेम की पावनता को प्रचारित भी करती है।

या तो घर में जगह की खासी कमी होती है, या फिर खेतों में प्यार करने में ज्यादा एक्साइटमेंट महसूस होता हो, लेकिन फिल्मों में खेतो का इस्तेमाल प्यार के इजहार और उसके बाद की अंतरंग क्रिया को दिखाने या सुनाने के लिए धडल्ले से इस्तेमाल में लाया जा रहा है।

एक बार फिर वापस लौटते हैं, जोरा-जोरी चने के खेत में पर। प्रेम जताने के डायरेक्ट एक्शन तरीकों पर बनी इस महान पारिवारिक चित्र में धकधकाधक गर्ल माधुरी कूल्हे मटकाती हुई सईयां के साथ चने के खेत में हुई जोरा-जोरी को महिमामंडित और वर्णित करती हैं। सखियां पूछती हैं फिर क्या हुआ.. फिर निर्देशक दर्शकों को बताता है कि जोरा-जोरी के बाद की हड़बड़ी में नायिका उल्टा लहंगा पहन कर घर वापस आती है।

अब जहां तक गांव से मेरा रिश्ता रहा है, मैं बिला शक मान सकता हूं कि गीतकार ने कभी गांव का भूले से भी दौरा नहीं किया और गीत लिखने में अपनी कल्पनाशीलता का जरूरत से ज़्यादा इस्तेमाल कर लिया है।

ठीक वैसे ही जैसे ग्रामीण विकास कवर करने वाली एक टीवी पत्रकार ने मुझे बताया कि धान पेड़ों पर लता है। धान के पेड़ कम से कम आम के पेड़ की तरह लंबे और मज़बूत होते हैं। मेरा जी चाहा कि या तो अपना सर पीट लूं, या कॉन्वेंट में पढ़ी उस अंग्रेजीदां बाला के नॉलेज पर तरस खाऊं, या जिसने भी रूरल डिवेलपमेंट की बीट उसे दी है, उसे पीट दूं। इनमें सबसे ज़्यादा आसान विकल्प अपना सिर पीट लेने वाला रहा और वो हम आज तक पीट रहे हैं।

बहरहाल, धान के पेड़ नहीं होते ये बात तो तय है। लेकिन चने के पौधे भी इतने लंबे नहीं होते कि उनके बीच घुस कर नायक-नायिका जोरा-जोरी कर सकें। हमें गीतकारों को बताना चाहिए कि ऐसे पवित्र कामों के लिए अरहर, गन्ने या फिर मक्के के खेत इस्तेमाल में लाए जाते या जा सकते हैं।

लेकिन गन्ने के खेत फिल्मों में मर्डर सीन के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं। उनमें हीरो के दोस्त की हत्या होती है। या फिर नायक की बहन बलात्कार की शिकार होती है। उसी खेत में हीरो-हीरोइन प्यार कैसे कर सकते हैं? उसके लिए तो नर्म-नाजुक चने का खेत ही मुफीद है।

हां, एक और बात फिल्मों में सरसों के खेतों का रोमांस के लिए शानदार इस्तेमाल हुआ है। लेकिन कई बार यश चोपड़ाई फिल्मों में ट्यूलिप के फूलों के खेत भी दिखते हैं। लेकिन आम आदमी ट्यूलिप नाम के फूल से अनजान है।

उसे यह सपनीला परियों के देश जैसा लगता है। अमिताभ जब रेखा के संग गलबहियां करते ट्यूलिप के खेत में कहते हैं कि ऐसे कैसे सिलसिले चले.. तो गाना हिट हो जाता है। अमिताभ का स्वेटर और रेखा का सलवार-सूट लोकप्रिय हो जाता है। ट्यूलिप के खेत लोगों के सपने में आने लगते हैं, लेकिन यह किसी हालैंड या स्विट्जरलैंड में हो सकता है। इंडिया में नहीं, भारत में तो कत्तई नहीं।

फिर कैमरे में शानदार कलर कॉम्बिनेशन के लिए सरसों के खेत आजमाए जाने लगे। लेकिन यह जभी अच्छा लगता है, जब पंजाब की कहानी है। क्योंकि सरसों के साग और मक्के दी रोटी पे तो पंजावियों का क़ॉपीराईट है। फिर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के बाद सरसों के खेत का इस्तेमाल करना भी खतरे से खाली नही रहा। सीधे लगता है कि सीन डीडीएलजे से उठा या चुरा लिया गया है।

बहरहाल, मेरी अद्यतन जानकारी के मुताबिक, चने के पौधों की अधिकतम लंबाई डेढ फुट हो सकती है, उसमें ६ फुटा गबरू जवान या पांच फुटी नायिका लेटे तो भी दुनिया की कातिल निगाहों से छुपी नहीं रह सकती। इससे तो अच्छा हो कि लोगबाग सड़क के किनारे ही प्रेमालाप संपन्न कर लें। यह भी हो सकता है कि हमारे यशस्वी गीतकार गन्ने या मक्के के खेत की तुकबंदी न जोड़ पा रहे हों।


हमारी सलाह है राष्ट्रकवि समीर को कि हे राजन्, गन्ने और बन्ने का, मक्के और धक्के का तुक मिलाएं। अरहर की झाड़ी में उलझा दें नायिका की साड़ी फिर देखें गानों की लोकप्रियता। एक दो मिसाल दे दिया है.. क्या कहते हैं मुखड़ा भी दे दूं..

चलिए महाशय सुन ही लीजिए-

गांव में खेत, खेत में गन्ना, गोरी की कलाई मरोड़े अकेले में बन्ना,
या फिर,

कच्चे खेत की आड़, बगल में नदी की धार,

धार ने उगाए खेत में मक्का,

साजन पहुंच गए गोरी से मिलने

अकेले में देऽख के मार दिया धक्का..


एक और बानगी है-

हरे हरे खेत मे अरहर की झाडी़,

बालम से मिलने गई गोरी पर अटक गई साड़ी


अब ब़ॉलिवुड के बेहतरीन नाक में चिमटा लगा कर गाने वाले संगीतकारों-गायकों से यह गाना गवा लें। रेटिंग में चोटी पर शुमार होगा। बस ये आवेदन है कि हे गीतकारों, सुनने वालों को चने की झाड़ पर मत चढ़ाओ... गोरियों से नायक की जोरा जोरी कम से कम चने के खेत में मत करवाओ हमें बहुत शर्म आती है।

Monday, March 30, 2009

उस शाम बारिश के साथ..

उस शाम मैं अकेला नहीं था, घर शिफ्ट करने की मेहनत के बाद मैं बेहद थक गया था। बेतरह..। शाम पांच बजे नहाने के और चाय पीने के बाद इच्छा हुई कि थोड़ा घूम फिर लिया जाए। इससे पहले घूमने के नाम पर हम मुहल्ले की सड़कों के चक्कर काट लिया करते। पता नहीं मन में क्या विचार आया कि कपड़े डालकर सीधे, मंडी हाउस निकल लिए। क्योंकि उस शाम मैं अकेला नहीं रहना चाहता था।

ऐसे ही घूमते रहे। कई कप चाय सुड़क लिए। क्यों कि उस वक्त तक हम अकेले थे। फोन पर बतिआए, कई सिगरेटें फूंक डालीं, क्यों कि उस वक्त तक अकेले ही घूम रहे थे। कमानी में घुसकर कथक महोत्सव का थोड़ा आनंद लिया, बाहर निकले ही थे कि तभी बारिश ने दस्तक दी। बारिश के आसार पहले से ही नज़र आ रहे थे। लेकिन दिल्ली कोई मुंबई तो है नहीं कि जब-तब बारिश हो।

बारिश फुहारों के रुप में हो रही थी। हम अकेले थे। भगवान दास रोड की ओर निकल लिए, मंडी हाउस के पीछे वाईट हाउस के पास छोटी गोल्ड फ्लेक सुलगा ली। तन-मन गीला होने लगा, तब तक अकेले ही जो थे।

बारिश ने मेरी ही लिखी पुरानी कविता दिल्ली में बारिश की याद ताजा करा दी, हवा भी चलने लगी थी तेज़ तबतक, लेकिन हम तब तक अकले ही थे। थोड़ी ही देर में हवा के साथ खुशबू के झोंका आया, हम अकेले नहीं रहे। बारिश में भीगते हुए खुशबू के साथ लगभग उड़ते-से हम ज्योति-बा फुले मार्ग पर थोड़ी दूर तक गए। सुनसान सड़क पर चलना अच्छा तो लग रहा था, लेकिन ज्यादा दूर नहीं गए क्यों कि अब अकेले नहीं थे।

तन-मन पूरी तरह भींग चुके थे..शर्ट से पानी चू रहा था। सिगरेट बुझ चुकी थी.. मदमस्त खुशबू को नाक में बसाए अम्मा की रसोई तक गए। चाय पी। अकेले जो नहीं थे।

फिर मन हुआ ऐसे ही भींगते हुए, घूमा जाए। थोड़ी देर घूमते हुए, बारिश का मज़ा लिया। एक ऑटोवाले का ऑटो खराब था। कमानी के सामने पहुंचकर उसकी ऑटो में शरण ली, भींगने से बचने की कोशिश की पहली बार क्योंकि अब अकेले नहीं थे। मैं देख रहा था, हवा के उस झोंके को जिसके अलको-पलकों और ठुड्डी से पानी रिस-रिस कर नीचे गिर रहा था, मेरी पैंट पर। मैंने हवा को अपना रुमाल दिया। पोंछने के लिए...हवा में सोंधी खूशबू थी..बरसते पानी की वजह से..वह खुशबू आज भी बसी है मेरे रुमाल में..। क्यों कि मैं अकेला नहीं था।

रात देर हो चुकी थी। पतझड़ के उड़ते पत्तों पर बारिश ने लगाम लगा दी। पत्ते सड़क पर चित्त पड़े थे। फिर से भगवान दास रोड़ होता हुआ मैं वापस घर लौट रहा था, बारिश अभी भी रुकी नहीं थी, मै उड़ रहा था। क्यों कि मैं अब अकेला नहीं थी। बारिश में भीगा हुआ मैं और माटी की शानदार खुशबू... ऐसी बारिश दिल्ली में कभी नहीं देखी। क्यों कि इस बार मैं अकेला नहीं था।

Friday, March 27, 2009

गुलज़ार की एक नज़्म

एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
गोल तिपाही के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
नज़्म के हल्के हल्के सिप मैं
घोल रहा था होठों में
शायद कोई फोन आया था
अन्दर जाकर लौटा तो फिर नज़्म वहां से गायब थी
अब्र के ऊपर नीचे देखा
सूट शफ़क़ की ज़ेब टटोली
झांक के देखा पार उफ़क़ के
कहीं नज़र ना आयी वो नज़्म मुझे
आधी रात आवाज़ सुनी तो उठ के देखा
टांग पे टांग रख के आकाश में
चांद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया भर को अपनी कह के
नज़्म सुनाने बैठा था

Thursday, March 26, 2009

आज का विचार

सुना है कि जॉन बुकानन ने गांगुली को दंतहीन करने के वास्ते मल्टीकेप्टेंसी का फॉर्म्युला सामने रखा है, लेकिन ये आइडिया उन्हें मिला कहां से होगा? यकीनन तीसरे मोर्चे से..।

गांधी बनाम गांधी

एक ने दूसरे से मुस्किया कर कहा- चुनाव से इतने पहले ही सारी मीडिया पर छाए रहोगे तो चुनाव में क्या करोगे? दूसरा जल-भुन गया, सब कुछ के बावजूद आखिरकार भाई थे। उसने कटखने सुर में कहा, -अग्रिम ज़मानत मिल गई है, और कुछ भी करुं न करुं, कम से कम जेल नहीं जाऊंगा?

वे जुड़वां नहीं थे , मगर भाई थे। सगे नहीं थे, मगर भाई थे। अलग-अलग महलों में रहते थे, मगर भाई थे। ठीक-ठाक अलग नज़र आते थे, गुजारे लायक अलग-अलग चल भी लेते थे, मगर एक दूसरे न टोकते थे, ना एक दूसरे का रास्ता काटते थे, क्योंकि भाई थे। घूम फिरकर उन्ही-उन्हीं जगहों पर पहुंच जाते थे, आखिरकार भाई थे। संयोग नहीं था कि दोनों गांधी थे, भाई थे।

एक दिन एक साथ, एक ही हवाई अड्डे पर पहुंचे, भाई जो थे। एक ही जगह के लिए एक ही हवाई जहाज में पहुंचे आखिर भाई थे। एक ही क्लास में एगल-बगल की सोटों पर बैठे, भाई जो थे। पीलीभीत हो चुका था। एक ने दूसरे से मुस्किया कर कहा- चुनाव से इतने पहले ही सारी मीडिया पर छाए रहोगे तो चुनाव में क्या करोगे? दूसरा जल-भुन गया, सब कुछ के बावजूद आखिरकार भाई थे। उसने कटखने सुर में कहा, -अग्रिम ज़मानत मिल गई है, और कुछ भी करुं न करुं, कम से कम जेल नहीं जाऊंगा?
बात कड़वाहट की तरफ जाती दिखी, तो दूसरे ने संभालने की कोशिश की, भाई जो थे।

चुनावी पॉलिटिक्स में कभी-कभी ऐसी समस्याए भी आती है। मगर ये रास्ता पकड़ ही लिया है तो जो भी समस्या सामने आए, धीरज से उसका मुकाबला करना चाहिए। एक बार जो गलती हो गई, दुबारा उसे दोहराना नहीं चाहिए। पहली वाली शक्ल में तो हरगिज नहीं। पहले को लगा, दूसरा ऊंचाई से खडे होकर बात कर रहा है,. सो बात संभलने से और दूर हो गई, भाई जो थे। पहले ने कुढ़कर कहा, नसीहत के लिए शुक्रिया। वैसे मुझे नहीं लगती कि मैंने कुछ गलती की है। जिसे दोहराने से मुझे बचना चाहिए।
पहले की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी और सुरक्षित थी। वह उदारता अफोर्ड कर सकता था, वैसे भी भाई जो थे। समझाने लगा बात सिर्फ करने या ना करने की नहीं होती है। ये डिमोक्रैसी है, इसमें सबसे ज्यादा मैटर ये करता है कि करने वाला कौन है? वही दूसरा करे तो कोई ध्यान तक नहीं देता, मगर हम करे तो मार तमाम आसमान सिर पर उठा लेंगे। कि हाय, ऐसा कर दिया। अपन गांधी जो हैंः डिमोक्रैसी के राजकुमार।

दूसरे को गांधी में तंज दिख गया। और बात संभलते-संभलते बिगड़ गई। कहने लगा- अब किसी को भला लगे कि बुरा, गांधी होना तो मुझसे कोई छीन नहीं सकता है। एरक बार गांधी, सो हमेशा के लिए गांधी। पर करूंगा मैं अपने मन की। दूसरे की अकड़बाजी, पहले को बेजा लगी। उसने घुमाकर तीर चलाया। गांधी होना कोई छीन भले न सकता हो, कई बार बहुत भारी ज़रुर पड़ सकता है। दूसरे के स्वर में तेज़ी आ गई- माने? पहले ने शब्द चबाते हुए कहा- गांधी होकर अगर कोई मारने-काटने बात करे, तो लोग इसे कैसे मंजूर करेगे? बार-बार यही सुनने को मिलेगा- राम, राम, गांधी नाम और ऐसे काम?
अब दूसरा उखड़ गया- आप लोगों की धद्म-धर्मनिरपेक्षता की ही तरह, आप लोगों का गांधी भी धद्म गांधी है। हम असली गांधी वाले हैं। हमारी अहिंसा अन्यायी हाथ काटने वाली, वीर की हिंसा है। कायर की अहिंसा नहीं। पहले ने आपत्ति की, मगर गांधी की वह दूसरा गाल आगे करने वाली बात।

दूसरे ने उसकी नादानी पर हंसते हुए कहा- जब तमाचा मारने वाला हाथ ही नहीं रहेगा,तो दूसरा गाल आगे करने न करने का सवाल ही क्यों उठेगा? पहले ने खीझ कर प्रहार किया- हमें भी पता है कि तुम लोगो की वीरता की तलवार कैसे अन्याय और किन अन्यायियों के खिलाफ है। दूसरे ने झट झुककर वार की काट की- मुश्किल अन्याय और अन्यायी कोजना नहीं, वीर खोजना है। वीर तो हाथ या सर कलम करने के लिए सैकड़ों साल पुराने इतिहास में से भी अन्याय और अनयायी खोज निकालाता है।
पहले ने बिगड़ कर कहा, यह तो गांधी धर्म नहीं है। दूसरे ने लापरवाही से कहा- मगर हम तो चुनावी कर्म की बात कर रहे हैं। फिर शिकायत करने लगा- चुनाव के लिए तुमन दलित की झोंपड़ी में रात बिताओ, तुम दलित के घर खाना खाओ, तो ठीक। मैं जय श्री राम का नारा लगाऊं, हिंदुओँ पर अन्याय करने वाले के हाथ काटने की कसम खाऊं तो गलत। यह कहां का न्याय है?

पहले ने समझाइश दी- तुम्हारा रास्ता गलत है। दूसरा भी अड़ गया- रास्ता तो मेरा भी वही है, संसद का। हां, हमारा रास्ता ज़रा अलग है। मगर रास्ते अलग हैं, तभी तो डिमोक्रैसी है। लेकिन, अलग रास्ते को गलत कहने वाले डिमोक्रैट नहीं होसकते। पहले ने टोका- मैंने गलत कहा क्योंकि यह गांधी का रास्ता नहीं है। वैसे भई गांधी के रास्ते से तो राजघाट तक पहुंचा जा सकता है, राजपाट तक नहीं।
तभी एयर होस्टेस आ पहुंची- मोहनदास नाम के बुजुर्ग ने आप लोगों के लिए संदेश भेजा है। संदेश संक्षिप्त किंतु स्पष्ट था- मैं गांधी नाम छोड़ रहा हूं। यह कैसा मजाक है- दोनों के मुंह से एक साथ निकला, आखिरकार भाई जो थे।

साभार-राजेंद्र शर्मा, दैनिक भास्कर

Wednesday, March 25, 2009

कुटाई के किस्से-स्वेटर पेड़ पर, हम नीचे

स्कूल से लौटते वक्त रास्ते में एक बागीचा पड़ता था। लड़कियों के स्कूल का पिछला हिस्सा था वह। किसी जज साहब की कोठी थी जो बाद में जज साहब ने मरने के वक्त स्कूल के लिए दान कर दी थी। अंग्रेजो़ के ज़माने में। सो, पिछवाड़े में बेल, बेर, आम, जामुन और कटहल, शरीफे के बहुत सारे पेड़ थे। शीशम, सागवान और बेतरह झाडियां भी।

स्कूल का कुछ हिस्सा खंडहर भी था। बहरहाल, उन्हीं पेड़ो में एक-दो काग़ज़ी बेल भी थे। यानी ऐसे बेल जो कच्चे होने पर भी मीठे लगते और उनके बीज भी कम होते। बीजों में गोंद भी कम होता।

स्कूल आने के दौरान किसी एक दिन की बाद है। जनवरी या फरवरी का महीना था। बेल अपने कच्चेपन मे ही थे। अपने दोस्तों के साथ हम चढ़ गए पेड़ पर। बेल का मजा लिया और पेड़ से उतरने लगे। लेकिन थोड़ी जल्दी में थे। आधी दूर उतरने के बाद लगा, नीचे कूदना ही ठीक रहेगा। बस, हम कूद गए। कमी ये रह गई कि हमारे स्वेटर का हत्था बेस के कांटे में उलझ गया । भाई साहब फिर क्या रहा, स्वेटर का हाथ ऊपर, हम नीचे।

लेकिन इतना होने पर भी, हमने धीरज नहीं खोया। घर पहुंचे.. स्वेटर छिपा दिया। लेकिन अगले दिन फिर स्कूल जाना था, दीदी को स्वेटर मिल नहीं पा रहा था। बिना स्वेटर ही हम स्कूल गए। लेकिन जनाब दिन थे हमारे खराब। दीदी उसी रास्ते से वापस आ रही थीं, हमें स्कूल छोड़कर कि बस उन्हें पेड़ पर टंगा हमारे स्वेटर का हत्था दिख गया। फिर तो शाम को जो हमारी कुटाई हुई कि बस कलेजा मुंह को आ जाएगा आपका। इसीलिए तफशील नहीं दे रहा। कुटाई के किस्से ऐसे ही याद आते रहे तो फिर सुनाऊंगा।

Tuesday, March 24, 2009

नॉस्टेल्जिया- वेद प्रकाश शर्मा का कोख का मोती

वेद प्रकाश शर्मा का नाम लुगदी साहित्य के पढाकूओं के लिए ऐसे ही होगा जैसे हिंदी वालों के लिए तुलसी या सूर या कबीर। लेकिन अगर कोई तुलसी के मानस की बजाय विनय पत्रिका को बड़ा माने तो? जी हां, हमारे लिए तो वेद प्रकाश शर्मा के वर्दी वाला गुंडा से बड़ी याद उसके कम फेमस उपन्यास कोख का मोती की है।

जब हम नवीं क्लास में पहुंचे, तो हमारी भाभी की बड़ी बहन का लड़का किट्टू भी हमारे साथ रहने आ गया। वजह- भागलपुर में उसकी संगति गलत हो गई थी। हालांकि वह बदमाशियों में रहता था चुनांचे उसका आईक्यू मेरे से कई गुना ज्यादा था। और हिंदी, संस्कृत और इतिहास में मुझे जब चाहे ट्यूशन पढ़ा सकता था। मैथ्स और साइंस में मेरे ठीक-ठाक मार्क्स आते। तो सिंबायसिस जैसा हो गया दोनों में, आर्ट्स वो और साइंस मैं..।

हमारे घर के बाहरी हिस्से में एक कमरा एक स्टूडेंट को किराए पर दिया गया था। दिलीप.. पढ़ने में मुझसे भी ज्यादा लिद्दड़। भुसकोल..। हमसे एक दरजा आगे पढ़ता।

बहरहाल, बड़े भाई साहब हमतीनों को कुछ होमवर्क देकर सुबह देवघर चले जाते और सीधे रात ८ बजे ही वापस आते। अब मैं और किट्टू जल्दी-जल्दी काम पूरा कर लेते शाम को और अपने क्रिस-क्रॉस ौर गपशप में मशगूल हो जाते। भाई साहब आते तो देखते कि उनके दो स्टूडेंट पढाई छोड़ किन्ही और ही गतिविधियों में संलग्न है। तो भाई साहब हमें दचक कर कूटते। दिलीप बचा रहा जाता। कैसे? वह भी बडा़ मज़ेदार है।

दिलीप साहब,-मुझे याद है वो जाड़े के दिन थे- किरोसिन लैंप के सामने पालीथी मार कर बैठते थे। दोनों हथेलियां गालों पर टिका कर नागरिक शास्त्र की किताब में परिवार अध्याय निकाल कर बैठते। याद रहे नागरिक शास्त्र की किताब मे यह पहला ही अध्याय था। दिलीप आराम से बैठे-बैठे सो जाता। लेकिन दिलीप की नींद बड़ी कच्ची थी। जैसे ही किसी के आने का खटका होता, वह अपनी बड़ी-बड़ी आंखें खोलकर सीधे किताब पर ताकने लगता। भाई साहब को लगता कि कि दिलीप पढ़ रहा है, वह बच जाता। मारे जाते हम.. फड़कर भी भाई साहब की बेदर्द छड़ियों का निशाना बनते।

इन्ही हालातों से आजिज़ आकर एक दिन हम दोनों ने तय किया कि इस लौंडे का भेद खोल दिया जाए। लौंडा सोता हुआ पकड़ा जाए. रंगे हाथ। लेकिन कैसे? इसका हल मेरे पास था। किट्टू को उपन्यास पढ़ने की लत थी। किराए पर वह हर किस्म की किताबें लाता। उन दिनों वह कोख का मोती पढ़ रहा था।

तो उन्ही दिनों में, किसी बेहद सुहानी शाम.. जब हम लोग अपनी पढाई पूरी कर चुके थे और हमारा मन किसी शैतानी की ओर हमें प्रेरित कर रहा था। हमने अपने मन को मारा.. मैं संस्कृत में और किट्टू गणित में सिर धुनने लगे। दिलीप जी बेखबर सो रहे। उसके सोने के बाद मैं चुपके से उठा और किट्टू की कोख का मोती उठा लाया। नागरिक शास्त्र की किताब दिलीप की पहुंच से बहुत दूर कोने में छिप गई। उपन्यास उसके सामने आन पड़ा। खुला हुआ। केशव पंडित के कारनामे जहां थे, एक्शन वाले।

भाई साहब आए। हमें पढ़ता देख संतुष्ट हुए। दिलीप के किताब पर नज़र पड़ी तो कहा, क्या पढ़ रहे हो। देखा, वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास- कोख का मोती। मार पड़नी शुरु ही हुई थी कि दिलीप ने कहा, किताब वह नहीं फड़ रहा था, हमदोनों में से किसी ने रख दी है। अब जनाब उसके बाद तो बेभाव की पड़ी हजरत को। मजा़ आ गया।

अगले तीन-चार दिन तक वह हम दोनों से बोला तक नहीं, लेकिन बाद में मौन टूटा। और अपने कारनामों में हमें भी शामिल करने की बात माना, तो समझौता हो गया।

Monday, March 23, 2009

आपबीती- जब सर ने कहा, सीताराम भजो


बहुत पहले की बात है मैं तब आठवीं में पढ़ता था। शनिवार का दिन, पहले दो पीरियड पढाई और बाकी के दो पीरियड सांस्कृतिक कार्.क्रम के लिए। पहले दो पीरियड्स से पहले योग या व्यायाम की कक्षा होती थी। ब्रजनारायण झा थे ड्रिल मास्टर। सुबह उठकर ड्रिल बेहद बेकार लगता था। लेकिन पढाई के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम वाले हिस्से में हमारी मौज होती थी। करीब ढाई हज़ार बच्चों का सरकारी स्कूल और उनपर १४ टीचर,स दो क्लर्क थे। इनके जिम्मे भी थी हमारी पढाई।


लेकिन इसकी शिकायत नहीं, क्योंकि किरानी के रुप में काम कर रहे दोनों सर हमारे लिए बहुत कुछ करते थे और हमारे रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंच गए मास्टरों से ज्यादा जानते थे। बस पदनाम उनका शिक्षक नहीं था। बहरहाल, दो किरानियों में से एक सुबल चंद्र सिंह थे जिनकी जोरदार आवाज़ कमजोर बच्चों की पैंट गीली कराने के लिए काफी थी।


सांस्कृतिक कार्यक्रम वाले हिस्से में हम लोग-हम पांच लड़के- बिलकुल पीछे बैठकर क्रिस-क्रॉस या ऐसा ही कुछ खेलते थे। या दोपहर छुट्टी के बाद क्रिकेट मैच की योजना में व्यस्त होते। हम पांच गाने-बजाने के मामले में साफ फिसड्डी थे। बहरहाल, एक दिन ऐसे ही दिन, सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान माइक से मेरे नाम का ऐलान हुआ। बकौल सुबल चंद्र सिंह, मंजीत ठाकुर एक गाना सुनाने वाले थे।
ऐलान मैंने सुना ही नहीं। हम ऐसे एलानों पर ध्यान ही कब देते थे। बाद में, अगल-बगल बैठे साथियों ने बताया कि हमारे नाम की घोषणा हो रही है, तो फिर भारी कदमों से हम उधर चले जो मंच जैसा कुछ था।

माइक के पास पहुंचे, तो सर की कड़कदार आवाज सुनाई दी- गाओ( एक बात और बताना भूल गया- हमारे स्कूल के ठीक पास लड़कियों का भी स्कूल था। उसकी छत से लड़कियां ये सांस्कृतिक आयोजन देखने को लटकी रहती थीं।)


अब तो हमारे लिए दोहरी समस्या हो गई। अपने स्कूल के साथ-साथ लड़कियों के स्कूल में अपमान का भय। अपने स्कूल में तो हम मैनेज कर लेते, लेकिन लड़कियों के सामने हम सर उठा चल पाते क्या अगले दिन से? कितना बड़ा सवाल था..?

बहरहाल, हमने मरियल आवाज़ में सर को जवाब दिया- सर हमें गाना नहीं आता।

सर ने रहम खाकर आदेश दिया- हिंदी की कोई कविता सुना दो।

भाईयों, हिंदी कविता का तो ये हाल था कि परीक्षा की रात हम आठ पंक्तियां याद कर शुद्ध-शुद्ध लिखने का अभ्यास कर लेते थे और अगले दिन एद्जाम हॉल में वोमिट कर आते थे। बस... । आज तो हद हो गई.. कविता सुनानी थी। परीक्षा का वक्त नही था, लेकिन उसे सुनाना था सस्वर। सुर और स्वर के मामले में हम आज तक बेसुरे ही ठहरे। तब तो बात ही कुछ और थी। लड़कियों के सामने, खासकर उनमें से कई हमें अच्छी लगती थीं।

सर, याद नही हैं..। हम मिनमिनाए

सर ने ऊपर से नीचे हमें घूर कर देखा। हम सिहर गए।


हनुमान चालीसा याद है? चलो वही सुनाओ,

हमने देखा मेरे दोस्त गंभीर हो चले हैं। सुबल सर बेतरह कूटकर पीटने के लिए समूचे मधुपुर में मशहूर थे। गार्जियन अपने बच्चों को उनकी छत्रछाया में डालकर निश्चिंत हो लेते थे कि अब वह सही हाथों में हैं। सुबल सर के हाथ बहुत सही थे। बिलकुल सही, उनके हाथों से सखुए की संटी हृदय तक घाव करती। अंग्रेजी में जिसे बट .या हिंदी में जो नितंब हैं, सर के सामने डर से सूख जात थी।


- हम शुरु हुए, श्रीगुरु चरन सरोज रज, निजमन मुकुरी सुधार, बरनौं रघुवर बिमल जस, जो दायक फल चारि......िसके बाद क्या, हलक सूख गया।


बामन का बच्चा होकर हनुमान चालीसा तक याद नहीं.. गदहा.. मूर्ख, उल्लू, पटपट, टमटम टमाटर.. .ये उनकी ऐसी गालियां थी, जिसके बाद छडियों के झंझावात की आशंका होती थीं।
लेकिन भाग्य... छडियों को मौका नहीं मिला.. सर ने आदेश देकर हमारे सभी साथियों को मंच तक बुलाया। पांचों को एक लाईन में बिटाकर कहा, चलो सीताराम-सीताराम ही भजो, जैसा अष्टयाम में भजते हैं।


अगले सात-आठ मिनट तक सीताराम के भजने के बाद हमारी जान छूटी। लोग हंसते रहे। हम कटत रहे। लेकिन हमें सबक मिल गया। अगले ही दिन पांचों दोस्तों ने कॉमन मिनमम प्रोग्राम तैयार किया। सभी ने एक -एक कविता याद कर ली। एक दोस्त ने तीन-चार फिल्मी गीत याद कर लिए। हम सुर में लिद्दड़ हैं, तो पंद्रह-सतरह साफ-सुथरे चुटकुले और एक दोस्त ने इकबाल वाला सारे जहां से अच्छा हिंगोस्तां हमारा पूरा गाना रट लिया।


हमें जलील कर हमारे पर कतरने वाले सर बूढे हो चले हैं। उनकी सेवा के कुछ ही दिन बचे हैं। आजकल बच्चे बताते हैं कि अब सर बिलकुल नहीं मारते। कहते हैं, पेंशन प्लान कर रहा हूं।

Tuesday, March 17, 2009

यूपी- परिसीमन की धार, दिग्गजों पर वार

परिसीमन के चलते उत्तर प्रदेश में राजनैतिक घमासान पिछले चुनावों की बनिस्बत इस बार कहीं ज्यादा तेज रहने वाला है। 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में परिसीमन के बाद सात संसदीय क्षेत्र बलरामपुर, बिलहौर, खुर्जा, शाहाबाद, चायल, जलेसर और पडरौना खत्म हो गए हैं। इनकी जगह धौरहरा,अकबरपुर, कुशीनगर,कौशांबी, फतेहपुर सीकरी, गौतमबुद्धनगर और श्रावस्ती अब नए संसदीय क्षेत्र हैं।

परिसीमन का असर आरॿित सीटों की संख्या पर भी बड़ा है। पिछले चुनाव में आरॿित रहीी अंबेडकरनगर, बिजनौर, फिरोजाबाद और बस्ती नए परिसीमन के बाद सामान्य सीटें बन चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में अब कुल 17 आरक्षित संसदीय क्षेत्र हो गए हैं। जिनमें पिछले चुनाव में सामान्य सीटों में शामिल रही बुलंदशहर, इटावा, आगरा, मछलीशहर, शाहजहांपुर और बहराइच संसदीय क्षेत्र हैं। इस वजह से अपने-अपने क्षेत्र के धुरंधरों को अब नई जगहों का रुख करना पड़ रहा है।

भाजपा के दिग्गज रहे और अब निर्दलीय हो चुके बुलंदशहर के सांसद कल्याण सिंह एटा से चुनाव मैदान में उतरेंगे। वहीं राज बब्बर अब आगरा के बजाए फतेहपुर सीकरी से और खुर्जा से सांसद रहे अशोक प्रधान बुलंदशहर से चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं। इसी तरह शाहजहांपुर के आरक्षित हो जाने के बाद जितिन प्रसाद धौरहरा की ओर रुख कर रहे हैं।नए परिसीमन से कई संसदीय क्षेत्रों में मतदान के समीकरण बदले नजर आ रहे हैं और इन बदले समीकरणों में उम्मीदवारों को अपनी जीत तय करने के लिए ऐडी चोटी का जोर लगाना पड़ सकता है।

विकास सारथी

Saturday, March 14, 2009

कविताएँ

मैं रहूं या ना रहूं,

मेरा पता रह जाएगा,

शाख पर यदि एक भी पत्ता हरा रह जाएगा,

मैं भी दरिया हूं मगर सागर मेरी मंज़िल नहीं,

मैं भी सागर हो गया तो मेरा क्या रह जाएगा?

Tuesday, March 3, 2009

अथ कुत्ता महात्म्य...

सुशांत जी ने आम्रपाली में लिखा है...पटना में दिल्ली से ज्यादा कुत्ते हैं। गंगा के तट पर रोज कम से कम दस हजार से कम कुत्ते क्या बैठते होंगे। मैंने विरोध किया कि नहीं, दिल्ली के वसंत विहार में ही उतने के करीब कुत्तें होंगे। लेकिन मित्र ने उन कुत्तों को ‘कुत्ते’ मानने से इनकार कर दिया। एक आइडिया ये भी था कि अगर कुत्ते, मनुष्य मात्र के सबसे प्राचीन और भरोसेमंद साथी हैं तो अलग-अलग इलाकों के कुत्ते अलग जुबान बोलते होंगे। मसलन पटना के कुत्तें मगही और झांसी के कुत्ते बुंदेलखंडी।

संजीव का दावा है कि जेएनयू के कुत्तों को मार्क्स की थ्योरी पूरी रटी रटाई होगी और झंडेवालान के कुत्ते जुबान से क्या रंगरुप से भी भगवे होंगे। कोई ताज्जुब नहीं कि ऐसा किसी शोध में सामने आ ही जाए।
बहरहाल एक बात जो तय है कि बड़े शहर ‘कुत्तों’ के लिहाज से ज्यादा मुफीद नहीं हैं। यहां उनके लिए लोकतंत्र नहीं है। यहां ‘कुत्तें’ नहीं रह सकते, अलबत्ता ‘भेड़ियों’ के लिए ये जगह काफी सही है।


शानदार कुत्ता पुराण..। हे सू(शां) जी. अब संभवतः आपने ये भी ध्यान दिया होगा कि कुलीन नस्लों की जितनी पहचान कुत्तों के मामले में रह गई है उतनी तुच्छ मानवों में रही नहीं। मानव अब संकर नस्लों को ज्यादा महत्वपूर्ण मानकर विजातीय विवाह को अच्छा मानने लगे है। वैसे भी अपने यहां पाश्चात्य परंपराओं, और किस्सों, और लोगों और साहित्य और फिल्मों और विचारधारा के साथ कुत्तों को ज्यादा अहमियत मिलती है। पता नहीं देसी कुत्तों को विदेशों में कितनी अहमियत मिलता है।

इस पर भी कुछ उचारें.. वैसे कुछ मामलों में इंसान कुत्तों को फॉलो करने लगे हैं कुछ मामलों में कुत्तागीरी को खराब मानने लगे हैं। मसलन, वफा को खराब मानकर टांग उठा कर मूतना उत्तम माना जाने लगा है।

कुत्तागीरी एक बेहद आम परंपरा है, लेकिन वफा जैसी आउटडेटेड चीजों को उनके डीएनए से डिलीट किया जाना ज़रूरी है। कुत्तों में एक खराबी आ गई है वो ये कि उनमें कुछ कुछ इंसानी गुण आने लगे हैं। भारतीय राजनीति के एक बेहद बड़े दल ने पूंछ हिलाने वालों को पुरस्कृत करने का आंदोलन चलाया हुआ है।

सुशांत ने कुत्तों को और उनकी समस्याओं को सतही तरीके से ही सही उठाया जरूर है, लेकिन कई मसलों पर सूत जी ने मारक लाईनें लिखी हैं। शहर में कुत्तों से ज्यादा भेडि़ए हो गए हैं।

बड़े शहर ‘कुत्तों’ के लिहाज से ज्यादा मुफीद नहीं हैं। यहां उनके लिए लोकतंत्र नहीं है। यहां ‘कुत्तें’ नहीं रह सकते, अलबत्ता ‘भेड़ियों’ के लिए ये जगह काफी सही है। कुत्ता होना एक साथ फायदे मंद भी है, और बुरा भी।