Friday, November 30, 2012

सुनो! मृगांका:27: तारे सब बबुना, धरती बबुनिया

अभिजीत खिड़की से कूद कर आया था, उसने कहा था कहा चोरी से मिलने का मज़ा हमेशा मीठा होता है।

अचानक मृगांका को लगा कि उसकी गरदन के पीछे किसी ने हल्का किस किया है। एक दम हल्का। कुछ ऐसा ही स्पर्श था, जैसे अभिजीत करता था। वह लेटी ही रही। फिर अचानक हाथ सरकता हुआ उसके कमर के इर्द-गिर्द लिपट गया। वह चिहुंकी, वह पलटी तो  देखा....

अरे, अभिजीत तुम?

अभिजीत की आंखों में शरारत नाच उठी थी। उसने देखा, मृगांका ने बहुत गहरे रंग की लिपस्टिक लगाई थी..लापरवाही से पहनी एक टी शर्ट...शायद हल्के पीले रंग का।

अभिजीत ने कहा, सरसों का फूल लग रही हो।

श्शशश....तुम्हारी मां आई है।
कहां
मेरी मां के कमरे में सो रही होंगी...या शायद गपें मार रही होंगी....लेकिन तुम्हें नहीं पता, अभि...मां तुमसे कितना प्यार करती हैं। तुमको हमेशा लगता रहा कि वो तुमसे प्यार नहीं करतीं...तुम हमेशा कहते रहे कि मां को अचार के मर्तबान मुझसे ज्यादा प्यारे हैं...तुम हमेशा अकेलेपन की शिकायत करते रहे...अभि...मां बहुत दुखी थीं...अभि...

और तुम मृग...

जवाब नहीं दिया मृगांका ने। बस फफक पड़ी।

कमरे में इस रुलाई से कोई भारी पन नहीं आय़ा था। मृगांका जारी रही, अभि, पता है तुम्हारे बिना मैं कितनी अधूरी थी। कहां चले गए थे, क्यों चले गए थे...तुमसे कभी कुछ नहीं कहा...तुमसे हमेशा कहा तुम अपनी तमाम अच्छाईयों और बुराईयों के साथ मेरे हो...फिर क्यों चले गए थे बिना बताए....

अभिजीत ने अपने दोनों हाथों में बस मृगांका का चेहरा पकड़ रखा था। मृगांका के गरम आंसू उसकी हथेलियों की कोर भिंगो रहे थे।

बाहर आसमान में चौदहवीं का चांद पूरे शबाब पर था। बादल का कोई आवारा टुकड़ा कहीं दूर तलक न था। साहिर लुधियानवी से लेकर गुलज़ार और जालेद अख्तर से लेकर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना तक की,तमाम बड़े और शानदार कवियों की कविताएं एक साथ साकार हो रही थीं।

हवा में नमी थी। मौसम गरम था। अभिजीत के सीने को मृगांका भिगोए जा रही थी।

कमरे में बत्ती मद्धिम जल रही थी। मृगांका के घर के टैरेस पर कई पौधे थे, जिनको अभिजीत के कदमों की आहट की पहचान थी। हर पत्ते को अभिजीत को छुअन की याद थी। अभिजीत की आदत थी, किसी भी पेड़ के पत्तों को छूकर देखना, मृगांका के टैरेस की लता को, उसके हरेपन को अभिजीत की छुअन याद थी...।

दोनों टैरेस पर आ गए थे। तीन साल विरह के, तीन साल दूरियों के, शिकायतों के...कितना कुछ कहना है मृगांका को...कितनी सारी शिकायतें करनी है अभिजीत से...कितना पीटना है उसे उस तकिए से, जिससे मारने से वाकई बहुत चोट आती है। क्या करे मृगांका...रुठ जाए?

नहीं, कितना रोई है अभि के लिए, रूठेगी नहीं। तकिए से पीटेगी उसको...लाख मिन्नतें करे, इस वक्त चाय बनाकर नहीं देगी।

सुबह होते ही मां के सामने खड़ा कर देगी इसे...मां के सामने, जिनने कितने प्यार से सर फेरा था उसके सर पर। अभि के भाई-भाभी को भी अपने दल में कर लेगी, फिर देखेंगे अभिजीत को,....मृगांका न जाने क्या सोच रही थी। अभिजीत की बांहो का घेरा कसता जा रहा था।

...जारी


 

Monday, November 26, 2012

हा सचिन! हा हा सचिन

बात तब की है जब हमारी मूंछों के बाल उगे नहीं थे। तब तक सन् 94 नहीं आया था। तब तक सचिन ने सिंगर कप में पहला सैकड़ा नहीं जड़ा था। लेकिन तब भी, वो अपने खेल और अपने अंदाज़ और अपनी प्रतिबद्धता से इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि बूस्ट का विज्ञापन करती और लोकप्रिय क्रिकेट पत्रिका क्रिकेट सम्राट में छपा उनका पोस्टर  हमारी पढ़ने की मेजो के सामने आकर चिपक गया था।

पोस्टर बनकर चिपकने वाले सचिन आज कहां चिपक रहा है, कहां खो गया है हमारा सचिन। हमें लग रहा था कि कुछ खराब प्रदर्शनों के बाद सचिन अपनी लय में लौटेंगे। न्यूज़ीलैंड के खिलाफ़ हमें लगा था कि सचिन शतक न जड़ें, लेकिन अच्छा खेलेंगे। हम 4-0 से हारे।

मैं पराजयों के आंकड़ो में यकीन नहीं करता। लेकिन सचिन का इस तरह पराजयी भाव दिखाना, एक राष्ट्र के रूप में हमें पस्त करता है। हमने महंगाई झेल ली, हम बेरोजगारी झेल गए, हम तस्करी घोटाले सब झेल गए, क्योंकि परदे पर पहले अमिताभ ने हमारे गुस्से को आवाज दी, और फिर इन्ही निराशा-हताशाओं से उबारने के लिए ज्यादा आक्रामक सचिन तेंदुलकर हमें मिला।

वही, तेंदुलकर, जिसने  ऑस्ट्रेलिया से लेकर इंगलैंड सबको धुना...पाकिस्तान के सामने, जिसे हम धुर विरोधी मानते आए हैं, हमारी पराजय का सिलसिला खत्म किया...आज घुटने टेक रहा है।

यह मसला सिर्फ एक शख्स के संन्यास का नही। चालीस की उम्र के पास पहुंच रहे व्यक्ति को जिसने राष्ट्र के लिए और अपने लिए भी ढेर सारी इज़्ज़त कमाई हो, उसे संन्यास का फ़ैसला खुद लेने देने की छूट मिलनी चाहिए। लेकिन, क्या सचिन 200 टेस्ट मैच खेलने का रेकॉर्ड कायम करने के लिए रूके हैं।

मैं सचिन को लेकर भावुक हो जाता हूं क्योंकि एक आम हिंदुस्तानी की तरह सचिन हमारे दिलों में बसते हैं। रणजी मैच में कितना अच्छा खेले थे सचिन। अब क्यों छीछालेदर करवा रहे हैं।

हम ये कत्तई नहीं चाहते कि सचिन हर मैच में सैंकड़ा ठोंके। हम चाहते हैं कि अगर लोग उन्हें सम्राट, या गॉड कहते हैं, तो उस पदवी के साथ वो खुद न्याय करें। जिस पिच पर पुजारा खेल सकते हैं, जिसपर गंभीर रूके रहे...इन दोनों क्रिकेटरों का कुल अनुभव सचिन के रणजी अनुभव से ज्यादा नहीं।

अब या तो सचिन ज्यादा सावधानी के चक्कर में पिट रहे हैं, या फिर उम्र उन पर हावी होती जा रही है।

अपने नायक की ऐसी दुर्गति मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही...सचिन, मैं अपने बेटे को अज़हर, मोंगिया, या जडेजा नहीं बनाना चाहता था. मैं उसे धोनी या सहवाग भी नहीं बनाना चाहता था। आप ऐसे विहेब करेगे, तो मैं उसे कैसा बनने को कहूंगा।

याद रखिए सचिन, ईश्वर एक वर्चुअल पद है...और उसे भी एक दिन संन्यास ले लेना चाहिए, वो भी बाइज्ज़त।




Thursday, November 22, 2012

सुनो ! मृगांका :26: अब मुझको भी हो दीदार मेरा

मृगांका और प्रशांत जब ड्रॉइंग रूम में आए तो देखा सोफे पर एक महिला बैठी हैं। गौर वर्ण, हिमालय की बर्फ सी धवल केशराशि, भौंहे भी सफेद हो चलीं थीं, सफेद तांत (सूती) साड़ी में लिपटीं महिला...। मृगांका को देखते ही उठ खड़ी हुईं।

प्रशांत ने मिलवाया, भाभी, अभिजीत की मां हैं ये..

जानती हूं...मृगांका मिली नहीं थी कभी अभिजीत की मां से। लेकिन तस्वीरों के जरिए पहचानती थी। मृगांका ने पैर छू लिए। बुजुर्ग महिला ने सिर पर हाथ फेर कर पता नहीं क्या आशीर्वाद दिया, लेकिन उसके ठीक बाद आंखों की कोर से मोतियां झिलमिलाने लगीं।,

बेटा अभि कहां है?

मृगांका चुप रही। प्रशांत ही बोला, चाचीजी, अभिजीत को लेकर ही हम भी परेशान हैं।

तुम क्यों परेशान हो, तुम तो साथ रहते थे, तुम्हें भी नहीं पता? अभिजीत की मां ने एक वक्र दृष्टि प्रशांत पर डाली, तो वह सकपका गया। लेकिन मृगांका से मुखातिब होते ही मां की आवाज़ में मुलायमियत आ गई।

बेटा तुम्हें तो पता होगा...दो महीने पहले घर आया था अभिजीत...अपनी सारी जमापूंजी हमें सौंप गया। बैंक-बैलेंस, फ्लैट की चाबी...उस वक्त तक तो मैं अपने धर्म-कर्म में ऐसी लीन थी, कि कभी याद ही नहीं रहा कि बेटे की तरफ, जवान बेटे की तरफ भी ध्यान देना मेरा धर्म ही है...पता नहीं कहां चला गया। न फोन मिलता है ना कुछ...

प्रशांत को लगा वह यहां से नहीं हटा, तो कलेजा फट जाएगा। मृगांका के पिताजी और प्रशांत किनारे जाकर खड़े हो गए। मृगांका, मां को अपने कमरे में ले गई।

रात के खाने के बाद जब अभिजीत का मां और मृगांका की मां अपने-अपने हिस्से की बातें करने लॉन में चले गए, तो मृगांका बिस्तर पर औंधी मुंह लेटी रही...और पता नहीं कब तक लेटी रही।

...फिर चांद निकल आया और कहीं से उड़ता आया एक बादल का टुकडा

औंधी मुंह ही लेटी थी मृगांका...चांद को चारों ओर से उस मेघ ने घेर रखा था...समझ लीजिए उजाला था भी नहीं भी...सन्नाटा-सा पसरा था। और दिल्ली में तो ससुरे झींगुर भी नहीं बोलते। एकदम चुप्पी...। मृगांका के घर से थोड़ी दूर सड़क पर कुछ अंतराल पर किसी बिगड़ैल रईसज़ादे की कोई कार सर्र से निकल जाती थी.

अचानक, मृगांका को खिड़की पर कोई आहट हुई।

मृगांका ने नजरअंदाज़ कर दिया। उसने अपनी खिड़की में ग्रिल नहीं लगा रखा था...और अभी खिडकी को दोनों पट खुले थे।

उसे याद आया, पापा-मम्मी से मिलने के बाद अभिजीत खिड़की के रास्ते ही मिलने आया था उससे। वेंलेटाईन डे था वो...रात 12 बजे मिलना जरूरी था..और उस समय तक पापा-मम्मी से उतना खुल नहीं पाई थी कि रात के 12 बजे अभिजीत से मिल ले।

अभिजीत खिड़की से कूद कर आया था, उसने कहा था कहा चोरी से मिलने का मज़ा हमेशा मीठा होता है।

अचानक मृगांका को लगा कि उसकी गरदन के पीछे किसी ने हल्का किस किया है। एक दम हल्का। कुछ ऐसा ही स्पर्श था, जैसे अभिजीत करता था। वह लेटी ही रही। फिर अचानक हाथ सरकता हुआ उसके कमर के इर्द-गिर्द लिपट गया। वह चिहुंकी, वह पलटी तो  देखा....

अरे, अभिजीत तुम?


...जारी

Thursday, November 15, 2012

बाल ठाकरे पर कुछ शब्द

महाराष्ट्र के निवासी बाल ठाकरे बीमार हैं. वह पहले कार्टून बनाते थे. अब लोग उनके कार्टून बनाते हैं. बाल ठाकरे ऐसे लोगों को पसंद नहीं करते जो उनकी बात नहीं मानते. उनके पास अपनी एक फौज है. बाल ठाकरे उसे शिवसेना कहते हैं. लोग उसे शिव की फौज नहीं कहते हैं. 200 सालों की गुलामी के बाद भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ, ऐसा इतिहास की किताबें कहती हैं.

बाहर के लोगों को मुंबई नहीं आना चाहिए- ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं. महाराष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है और दुनिया के सभी बड़ी कंपनियों का दफ्तर है-ऐसा सरकारी वेबसाइट कहती है. माइकल जैक्सन नामक एक महान गायक व नर्तक था. वह मराठी मानुष नहीं था. गैर-मराठी भी सम्मान के योग्य होते होते हैं, ऐसा भारत का संविधान कहता है. माइकल को महाराष्ट्र के मुंबई में बुलाया गया.

बाल ठाकरे को माइकल जैक्सन की नृत्य कला पसंद थी. विदेशों से लोग रोजाना मुंबई आते हैं ऐसा पर्यटन विभाग के आंकड़े कहते हैं. माइकल पहला ऐसा गैर-मराठी था जिसे बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र आने का न्योता दिया, ऐसा सभी कहते हैं. माइकल जैक्सन का नाम गिनिज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज है. माइकल को मराठी गीत नहीं याद थे. माइकल सुरक्षित अपने देश पहुंच गया. ऐसा अखबारों की रिपोर्ट कहती है.

बाल ठाकरे ने बंबई का नाम बदलकर मुंबई कराया. नाम का गलत उच्चारण बाल ठाकरे को पसंद नहीं. शास्त्रों में भूल के लिए क्षमा करने को कहा गया है. शास्त्रों का मराठी अनुवाद अभी पूरा नहीं हुआ है. महाराष्ट्र के बाहर के लोग सुंदर नहीं होते. ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं. सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारत के लोगों ने बहुत कम बार खिताब जीता है. ऐसा गूगल कहता है. गैर मराठियों को महाराष्ट्र से चले जाना चाहिए ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं.

कुछ लोग बाल ठाकरे की बात सरलता से समझ लेते हैं. कुछ लोग नहीं समझते हैं. भारत में बात मनवाने के लिए समझाने के अलावा एक और तरीका भी इस्तेमाल किया जाता है. महात्मा गांधी इसे हिंसा कहते हैं. तमिल लोग लुंगी पहनते हैं. बाल ठाकरे लुंगी पहनना पसंद नहीं करते हैं. तमिलनाडु भारत गणराज्य का एक प्रदेश है. तमिलनाडु के लिए मुंबई से कई सीधी ट्रेने हैं.

भारत में पहली रेल महाराष्ट्र में चलाई गई थी. भारतीय रेल का नेटवर्क दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है. बिहार और यूपी महाराष्ट्र से रेलमार्ग से जुड़ा है. बाल ठाकरे का सामान्य ज्ञान औसत से बेहतर है. उत्तर भारतीय गंदगी फैलाते हैं ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं. मुंबई के विकास में उनका भी योगदान है-ऐसा उत्तर भारतीय कहते हैं. मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है, ऐसा विश्व बैंक कहता है. मुंबा देवी के मंदिर के आसपास बसी एक बस्ती की किस्मत बनाने में उत्तर भारतीयों ने अपना खून-पसीना लगाया है, ऐसा गूगल में पड़े रिपोर्ट कहते हैं. यह रिपोर्ट अंग्रेजी में है.

बाल ठाकरे के पूर्वज बिहार से थे, ऐसा दिग्विजय सिंह कहते हैं. दिग्विजय सिंह पढ़े-लिखे हैं ऐसा संसद की वेबसाइट पर छपी उनकी प्रोफाइल कहती है. दिग्विजय सिंह एक किताब रखते हैं. किताब बाल ठाकरे के पिताजी ने संपादित की थी. ठाकरे परिवार बिहार से मध्य प्रदेश होता महाराष्ट्र आया, ऐसा किताब कहती है. यह दुष्प्रचार है ऐसा बाल ठाकरे कहते हैं. महाराष्ट्र के बाहर से हजारों लोग रोजाना रेलगाड़ी से मुंबई आते हैं. बाल ठाकरे इस पर क्रोध करते हैं.

बाल ठाकरे के एक भी सराहनीय कार्य की चर्चा गूगल पर नहीं है. गूगल का मालिक मराठी मानुष नहीं है.



---राजन प्रकाश

बाल ठाकरे पर कविता

बाल ठाकरे के निधन की खबरें आ रही हैं, और बहुत कुछ मन में आ रहा है, वो बाद में सविस्तार लिखूंगा, लेकिन पहले याद आ रही है बाबा नागार्जुन की यह कविताः

बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे !

कैसे फासिस्‍टी प्रभुओं की --
गला रहा है दाल ठाकरे !

अबे संभल जा, वो आ पहुंचा बाल ठाकरे !

सबने हां की, कौन ना करे !
छिप जा, मत तू उधर ताक रे !

शिव-सेना की वर्दी डाटे जमा रहा लय-ताल ठाकरे !
सभी डर गये, बजा रहा है गाल ठाकरे !
गूंज रही सह्यद्रि घाटियां, मचा रहा भूचाल ठाकरे !
मन ही मन कहते राजा जी; जिये भला सौ साल ठाकरे !
चुप है कवि, डरता है शायद, खींच नहीं ले खाल ठाकरे !
कौन नहीं फंसता है, देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे !
बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे !

बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातंत्र के काल ठाकरे !
धन-पिशाच के इंगित पाकर ऊंचा करता भाल ठाकरे !
चला पूछने मुसोलिनी से अपने दिल का हाल ठाकरे !
बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे

Tuesday, November 13, 2012

सुनो ! मृगांका :25: हमारा यार है हम में

मुखिया जी उगना का किस्सा सुनाने लगे। अभिजीत का ध्यान कहीं और ही था।

अभिजीत को पता था, मृगांका उसकी बारीक-से-बारीक आदत पर गहरी निगाह रखती थी। कई दफा तो दफ्तर में ही उसे मेसेज करके चेतावनी भी दे देती थी। ...अभि, बाथरूम से निकलने के बाद क्या मॉइश्चेराजर नहीं लगाया पैरों में...देखो अपने पैर, सफेद-सफेद हो रहे हैं।...अभिजीत की नजर तब अपने पैरों पर पड़ती।

अभिजीत ने दादा-परदादाओं ने कभी भी म़ॉइश्चेराइज़र का नाम तक न सुना था। क़स्बाई माहौल से निकले अभिजीत ने हमेशा जाड़ो में सरसों का तेल चुपड़ने के बाद ठंडे पानी से स्नान करना सीखा था। उसके लिए ये सब चोंचले थे। लेकिन, इसी में कई दफा लापरवाही  हो जाती, तो मृगांका तकरीबन डंडा लिए खड़ी होती थी।

...तो अभिजीत बाबू, उगना जो थे, दरअसल वो शिव थे। महाकवि विद्यापति थे बहुत बड़े शिवभक्त। और शिव को भी पता था कि कितने बड़े भक्त हैं। तो भक्त को चाहिए भगवान और भगवान को भी तो आसरा है बस भक्त का ही। भक्त के बिना भगवान अधूरा और अधूरा है भक्त भगवान के बिना।....

अभिजीत को दुनिया में बहुत-सी चीजों के साथ अपनी लिखावट से भी चिढ़ थी। उसकी लिखावट अपने पिता के लच्छेदार अक्षरों और मां की लहरदार लिखावट के बीच कहीं अटकी-हुई सी लगती थी। अभिजीत को अपने पिता जैसा हस्तलेख चाहिए था।

...तो एक दिन क्या हुआ कि भगवान शिव खुद एक हलवाहे लड़के के रूप में विद्यापति के यहां नौकरी-खबासी में आ गए। विद्यापति को कुछ पता ही नहीं। भगवान से ऐसे काम लेने लगे जैसे वो भगवान न हों, कोई सच के खबास हो। खेतों में काम करवाते, निराई-गुड़ाई, भांग पिसवाते-छनवाते, हाथ-पैर दबवाते.....

कहानी कह रहे मुखिया ने उगना को कहानी के बीच में ही हड़काया, ससुर, पैर मालिश करता रह।

मृगांका ने ही अभि का भी ध्यान उन बिंदुओं की तरफ दिलाया था। अनुस्वार की तरफ। जिसे बजाय बिंदी के अभिजीत गोले की तरह लगाया करता और उन की तरफ जिसकी पूंछ अभिजीत तकरीबन लंगूर की पूंछ की तरह कलात्मक तरीके से खींच दिया करता था।

याद आ रहा है उसे एक लंबे दौरे के बाद दिल्ली वापस लौटने के बाद मृगांका से मिलने का। आसपास का माहौल दीवाली की तैयारियों में जुटा था...बिजली की झालरें जगमगाने लगीं थीं। मृगांका उसे देखती रही थी, फिर वो हंसने लगी--हैरानी और खुशी भरी हंसी--जब वो हंस चुकी तो उसने अपना हाथ अभिजीत के हाथों पर रख दिया था।

'मैंने तुम्हें मिस किया," उसने कहा। तुम वापस आए, अच्छा लग रहा है।

अभिजीत उसके चेहरे को गौर से देखता रहा था। बहुत गौर से। मृगांका के बाएं हाथ पर कलाई से थोड़ा ऊपर एक तिल है। लेकिन, काजल लगाने की वजह से मृगांका की आंखे कुछ ज्यादा ही नुकीली थीं। कुछ ज्यादा ही...।

"चलो जाओ, हम बात नहीं करेंगे आपसे ।'' मृगांका अभिजीत के देखने के इस गहरेपन से लजा टाइप गई थी।

अभिजीत अपनी उंगलियां उसकी उंगलियों में फंसा लेना चाहता था, मगर उसने अपना हाथ संयत रखा, मानो थोड़ी सी हरकत सारे जुड़ाव के तार बिखेर न दे।

सप्तपर्णी पेड़ के नीचे बैठकर मृगांका ने अभिजीत के लिए बैक-टू-बैक दो कप चाय मंगाई थी। आज सिगरेट पीने की भी छूट थी। अभिजीत को दो कप चाय एक साथ पीने की आदत थी और यह मृगांका के बहुत खुश होने का सुबूत था कि उसने दो कप चाय अभिजीत के लिए मंगवाई थी।

चाय खत्म होने तक, अंधियारा घिर आया था। सड़क पर गाड़ियों की चहल-पहल अब ट्रैफिक के शोर में बदल गई थी। "चलो, ' उसने अभिजीत को उठाते हुए कहा था, 'जब तुम वहां की बातें करते हो ना, जहां से तुम आए हो, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है, तुम्हारा शहर, वहां की मिट्टी...वहां के लोग, तुम्हारा बचपन..." उसने अपनी बांहे अभिजीत की बांहों में पिरोते हुए कहा, "तुम एकदम जी उठते हो।" 

मृगांका ने कार का दरवाजा खोला था और तकरीबन अभिजीत के कंधे पर सिर टिकाते हुए ही गाड़ी स्टार्ट की थी। अभिजीत पेशोपेश में था कि मृगांका की हिदायतों के बावजूद उसने अपने फ्लैट का जो कचरा किया हुआ था, उसे देखकर मृगांका उसे उधेड़ देनेवाली थी।

...तो ऐसा हुआ अभिजीत बाबू, भक्त भगवान के यहां नौकरी कर रहे। एक दिन विद्यापति महोदय को जाना पड़ा राज दरबार...बाईस कोस का रास्ता...उगना साथ में खबास। रास्ते में लग गई विद्यापति को प्यास...न खाना न पानी...करें तो करें क्या, रे उगना देख पानी कहां...मारे प्यास के गला सूख जाता है। विद्यापति कवि जहां ठौर पाया बैठ गए.....

अभिजीत को फ्लैट पर जाने से पहले अपने कलेजे की धड़कन साफ-साफ सुनाई दे रही थी। धक्-धक्।

कमरे में जाकर मृगांका ने  न किताबों की ढेर पर नजर डाला, न बिखरे अखबारों पर।  अभि, एक गिलास पानी देना जरा...

सुनो अभि। मृगांका ने उसे अपने पास बुलाया। अभिजीत पास गया। मृगांका ने आंखों में आंखे डालकर कहा, पता है तुम्हारी गरदन पर एक गहरा तिल है।....अभिजीत का हाथ अपने तिल पर चला गया....मृगांका ने पलक झपकाए बिना कहा, मैं इसे किस करना चाहती हूं.....अभिजीत के मन में एक साथ कई भाव आए। उसने अपने हाथों में मृगांका को समेट लिया।

मृगांका ने अपने होंठ अभिजीत की गरदन पर रख दिए। होंठ जैसे जलते अंगारे।

... धूप क्या थी जलता अँगारा ता अभिजीत बाबू, विद्यापति तो धम्म से बैठ गए। पता नहीं, उगना कहां से एक लोटा पानी ले आया था। ठंडा, शीतल, निर्मल.....

ठंडा, शीतल, निर्मल....जलते अंगारों से होंठो की छुअन ने अभिजीत के मन में आग लगाने की बजाय कुछ ऐसे ही भाव पैदा किए थे। लेकिन इन भावों के पीछे एक ज्वार-भाटा भी था। मृगांका ने बिस्तर पर लेटकर आंखें बंदकर लीं, अपनी कोहनियों के सहारे लेट गई, भरोसे से भरी नन्हीं बच्ची जैसी...।

लेकिन अभिजीत का ब्लैडर फटने के करीब आ चुका था। टॉयलेट की तरफ दौड़ने से पहले उसने मृग से कहा था, मृग एक मिनट...और जब तक यूरिनल से निबटकर वह आया था...वो गहरी नींद सो चुकी थी।

मृगांका...अभिजीत ने पुकारा। कोई जवाब नहीं। अभिजीत को समझ में नहीं आया कि आखिर वह करे तो क्या करे। आखिरकार, लाइट बंद करने से पहले वह थोड़ा हिचकिचाया भी...। पर्दे खुले थे, सड़क की रौशनी अंदर आ रही थी और उसी रौशनी में अभिजीत मृगांका के सीने के उतार-चढाव देखता रहा।

फिर, अभि ने उसे एक चादर ओढ़ा दी और अपने लिए फर्श पर एक तकिया उछाल लिया।  अभिजीत थका तो था, लेकिन नामालूम वजहों से ख्वाबों में डूबने के लिए उसे एक लंबा इंतजार करना पड़ा। सुबह वह तब भी नहीं जगा था, जो उसे बाद में मालूम हुआ कि , मृगांका ने जाने से पहले अभिजीत के माथे को चूम लिया था।

अभिजीत जब जगा तो पड़ोसी के यहां कबीर का निरगुन तेज आवाज में बज रहा था...

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या....

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?


....जारी

Monday, November 12, 2012

सुनो ! मृगांका :24: यार ही मेरा कपड़ा-लत्ता, यार ही मेरा गैणा

 अभिजीत पानी पीकर हैरत में था...उसने गौर से देखा...इस लड़के उगना को उसने कहीं देखा है। उसे लगा कि शायद उसका भ्रम हो... ये भ्रम नहीं था। ये तो वही लड़का है जो महंत जी की कुट्टी (कुटी) में खबास (नौकर) है... अरे हां, इसे तो स्कूल पर मिडडे मील वाली भीड़ में भी देखा था।

भैंसवार छौंड़े (भैंस चराने वाले लड़के) के पीछे-पीछे जाता हुआ अभिजीत पाकड़ के पेड़ के पास पहुंच गया। वह अभिजीत की तरफ मुड़ा।

" हय मालिक, आप इहां हैं.." उसने लगभग हैरत से पूछा।
"क्यों...?"
" अरे,  ऊधर आपको महंजी (महंतजी) खोज रहे थे और उधर मड़र काका भी..।" अपनी बात पूरी करने के बाद लड़का अपने वराहतुल्य दांतो को होंठों से ढंकने की पूरी कोशिश करने लगा। लेकिन अभिजीत ने  देखा कि दांत होंठों के बीच से यूं उग आते हैं मानो बादलों को चीरकर सूरज भगवान निकल आए हों। अभिजीत पेशोपेश में पड़ गया, किधर जाए...

उसने शायद अभिजीत की असमंजस को भांप लिया, " अरे कोई बात नहीं है। महंजी पूजा पर बैठ गए होंगे, ऊ आपको सायद मुक्खे झा से मिलवाने वाले हैं।...अभी तो आप मड़र कक्का के डेरा पर चलिए।"

अभिजीत को भी लगा कि मड़र के घर ही चलना चाहिए। लड़का देह से कमज़ोर था। दोनों टांगे टिटहिरी जैसी, पतली। कदम ज़मीन पर ऐसे गिरते की दोनों एडियां आपस में टकरा जातीं। चलने का अंदाज़ अजीबोगरीब.. कदम बढाते ही वही हाथ आगे जाता, जो पैर आगे बढ़ रहा होता। काला खटखट। बिबाइयां फटे पैर, टूटी चप्पल। चप्पल के टूटे फीते को आलपिन से जोड़ा गया था।

" नाम क्या है तुम्हारा..?" अभिजीत ने पूछा। हालांकि नाम उसे पता ही था, फिर भी बातचीत के क्रम को आगे बढाने के लिए सवाला पूछा गया था।

" मेरा नाम.. ? वह चिंहुका। "... उगना.."  उसने ऐसे बताया मानो नाम बताना नहीं चाह रहा हो। "..उगना.." अभिजीत  ने दुहराया। हिंदी में उगना उदित होना होता है, मैथिली में दुलारा..।

" घर में कौन है उगना.." अभिजीत के स्वर में थोड़ा दुलार आ गया था।

" एक ठो बहिन है उसका नाम है आसाबरी.. एक ठो कुतवा (कुत्ता) है और बरद (बैल)"...कुतवा हमरे मीत (मित्र) भैरव का है।

" .. और मां-बाप.." अभिजीत ने ये सवाल ना मालूम क्यों पूछ डाला। " मां-बाप .. बहुत पहिले मर गए.. खजौली टिशन के पास जूता-चप्पल ठीक करने का दुकान था।"

बातें शायद और भी आगे चलतीं, लेकिन तब तक मड़र का घर आ गया था। अभिजीत  ने देखा, उनकी बूढी मां बांस से बने दरवाजे के पास खड़ी थी। मड़र भी आ चुका था।

" माई ने आज बगिया बनाया है, इसलिए आपको खिलाने के बारे में सोच रही थी। उसको लग रहा था कि पता नहीं सहर-बजार के आदमी हैं।... बढिया लगेगा कि नहीं, लेकिन हम तो जानते हैं आपको। हम बोले उगना से कि जाओ बुला लो सर को... आज गांव का बेंजन (व्यंजन) भी आपको खिला ही दें।"

वैसे रात में गांव की तरकारी का स्वाद अभिजीत पा चुका था और ईमानदारी से कही जाए तो इसका जायका उसे शहर के खाने से वाकई अच्छा लगा था।

अभिजीत,  मड़र और उगना के साथ बैठा ही था कि मड़र ने उगना को कोई इशारा किया। उगना उठकर आंगन में खड़ा हो गया। एक औरत, आधा पल्लू सर पर ढांके, कुछ इस तरह  कि परदा है भी और नहीं भी के अंदाज़ में..एक पीतल की थाली में सात-आठ इडली जैसी चीज़ रख गई। सफेद पकवान से भाप उठ रही थी और साथ में एक सोंधी सुगंध भी।

वह औरत मड़र की बीवी नहीं था। मड़र की मां शायद अभिजीत के सवालिया निगाहों को पहचान गई। बोली,--" ये बिसुआ (मड़र) की भावज है। मेरा दूसरा बेटा है न लखिन्दर, उसकी बहू।"

इतना परिचय काफी नही था। मड़र के बेटे, जीवछ ने और विस्तार से बताया,-" मेरे कक्का बंबई गए हैं। कमाने के लिए।"... जीवछ ने उस पकवान में दांत काटते हुए बताया कि बंबई में समुद्र है, हमारे महंजी पोखर (महंत जी वाले पोखरे) से बहुत बड़ा। इतना बड़ा कि उसमें सौ पोखर अंट जाएंगे। और ये भी उसके कक्का का नाम बाला लखिंदर है और काकी का नाम है बिहुला।

अभिजीत  को लगा कि इस पकवान के साथ कोई चटनी भी होनी चाहिए, लेकिन जीवछ ने ऐसे ही दांतों से काटकर खाने का इशारा किया। जैसे ही अभिजीत  ने दांत से पकवान में काटा, उसकी पूरी गाल गुड़ के सोंधे मीठेपन से भर गई।

ऐसा एक बार तब हुआ था, जब मृगांका के बहुत जोर देने पर उसने पित्सा खाया था। दांत से काटकर। खूब लोटपोट होकर हंसी थी मृगांका...खैर...।

उसे ख्याल आया कि उगना अभी नहीं खा रहा है। अभिजीत ने उसे बुलाया, वह हिचकिचा रहा था। मड़र समझ गया।

बिसेसर के घर से बगिया खाकर, अभिजीत फिर से मुखिया जी के घर की ओर गया। शाम गहराने लगी थी...घरो में लालटेने जल गई थी। बिहार में बदले हुए परिदृश्य में गांवों में बिजली के खंभे तो लग गए थे, लेकिन उन खंभों से लटके तार निष्प्राण थे।

मुखिया जी ने जोरदार स्वागत किया। अभिजीत ने देखा, उगना वहीं मुंह लटकाए खड़ा था, अभिजीत से पहले ही पहुंच चुका था वो...।

मुखिया जी ने हांक लगाई, रे उगना पानी ला रे।

...उगना से याद आया अभिजीत बाबू, उगना की कहानी आपने सुनी या नहीं..। अभिजीत ने इनकार में सर हिला दिया। ले भला, चलिए सुनाते हैं...। मुखिया जी ने हथेली पर मसले जा रहे खैनी को चुटकी बनाकर निचले होठों के बीच सुरक्षित पहुंचा दिया, और दास्तानगोई शुरु हो गई।

दिल्ली, मृगांका का घर

कमरा सूना तो था, लेकिन अब बेजान नहीं था। मृगांका ने कुछ आलमारियां खोल रखी थीं, प्रशांत अवाक् सा देख रहा था। सब आलमारियों में अभिजीत की लिखी किताबों की कई प्रतियां थी। कुछ पर अभिजीत के हस्ताक्षर भी थे, जो उसने खुद मृगांका को भेंट किए थे।

प्रशांत अभिजीत का बहुत नजदीती दोस्त था।

प्रशांत, तुम्हें पता है, अभिजीत की लिखावट में क्या खास होता था? मृगांका ने लगभग रूंधी हुआ आवाज में पूछा था।

प्रशांत और अभिजीत तबसे दोस्त थे, जब अभिजीत दिल्ली आया ही था। युगों पुरानी दोस्ती, साथ खाना और साथ पीना। लेकिन लिखावट...। अभिजीत का हस्तलेख पहतान सकता था प्रशांत लेकिन...लिखावट में क्या खास था।

मृगांका ने एक पुरानी पतली-सी किताब निकाली, आखिरी पेज पर एक शेर लिखा था...प्रशांत बेवकूफ की तरह उस लिखावट को देखता रह गया...लिखावट तो अभिजीत की ही है लेकिन इसमें खास क्या है। वह चुप ही रहा।

देखो गौर से, अभिजीत बिंदियों की जगह बड़ा-सा गोला बनाता है। और वह र कैसे लिखता है...मृगांका और न जाने क्या-क्या ब्योरा देती रही। हर बारीक ब्योरा प्रशांत के मन में, अपराधबोध भरता गया।

मृगांका भाभी, मुझे माफ कर दो।

प्लीज प्रशांत, भाभी भी कह रहे हो, और तुमने मुझे अंधेरे में रखा। कहां गुम हो गया है तुम्हारा भाई और तु्म एक फोन नहीं कर सकते थे।

मैं बाहर चला गया था, मेरे पीछे पता नहीं...

चुप रहो,.....मृगांका कुछ और कहने ही वाली थी कि अचानक उसके पिताजी कमरे में आए। बेटा, देखो ड्राइंगरूम में...अभिजीत की मां तुमसे मिलने आईं है।

अभिजीत की मां? मृगांका और प्रशांत दोनों के लिए हैरत की बात थी। दोनों ड्राइंग रूम की तरफ दौड़ पड़े।

जारी.....


Saturday, November 10, 2012

अबूझमाड़ के द्वार पर

अबूझमाड़ के द्वार, नारायणपुर के कुछ बच्चे।

हिंसा, हंसी को खत्म नहीं कर सकती

कुछ आंखें उम्मीद में चमकती हैं


सारे बच्चे, राष्ट्रपति के कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए थे, आरके मिशन के बच्चे हैं सब

 सभी फोटोः मंजीत ठाकुर,









Wednesday, November 7, 2012

काश...नया रायपुर की बजाय नया छत्तीसगढ़ गढ़ते रमन

पिछले दो दिन मैं छत्तीसगढ़ में रहा। रायपुर से हटकर रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में एक नया रायपुर गढ़ डाला है। हालांकि, मंच से यह बात भी मंजूर की गई कि यह योजना अजीत जोगी के मुख्यमंत्रित्व काल में बनाई गई थी, इस पर खुश होने और भारत माता की जय और छत्तीसगढ़ महतारी (माता) की जय के तुमुल नाद में भावुक होने के बीच एक बात किरिच की तरह सीने में घुस गई।

रमन सिंह ने नया रायपुर क्यों बसाया। अगर यह इस बात की प्रतीक है की गरीबी से बदहाल देवभूमि उत्तराखंड और नेताओं की घटिया राजनीति झेल रहे राजनैतिक रूप से नाकाम झारखंड के सामने छत्तीसगढ़ को खुद को साबित करना है, तो इस महज एक नया शहर बसाकर साबित करने की जरूरत नहीं थी।

अगर, इक्कीसवीं सदी में देश का पहला योजनाबद्ध शहर बसाना छत्तीसगढ़ के विकास की दिशा दिखाने के लिए है, तो मूलतः गरीबी और बेरोजगारी की वजह से पैदा हुए और आंतक का पर्याय बन चुके नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने की ऐसी ही बड़ी कोशिश बीजेपी सरकार ने क्यों नहीं की।

देश का बाकी का हिस्सा, छत्तीसगढ़ को धान के कटोरे के रूप में भूलने लगा है और अगर आप मध्य प्रदेश से नहीं है तो कलेजे को हाथ लगाकर कहिए क्या आपको पता है कि छत्तीसगढ़ में राम ने अपनी जिंदगी के दस साल बिताए थे, या कि यह राम की मां कौशल्या का मायका यानी राम की ननिहाल है। शायद पता  न हो। हम और आप, और ज्यादातर लोग छत्तीसगढ़ को दंतेवाड़ा, बस्तर और अबूझमाड़ के लिए जानते हैं।

मुख्यमंत्री का दावा है कि छत्तीसगढ़ ने पिछले दस साल में दो अंकों में विकास हासिल किया है। मुख्यमंत्री जी, छोटा सा सवाल है..इस वृद्धि मेंआपने समाज के कमजोर वर्ग को कितना शामिल किया है। या आप भी अर्थशास्त्रियों की तरह मानने लगे हैं कि ऊपरी तबका विकास कर ले, तो रिस-रिस कर वो विकास निचले तबके तक भी पहुंच ही जाएगा।

मुझे नारायणपुर तक जाने का मौका मिला। अबूझमाड़ के पहाड़ और जंगल को आसमान से देखा...और उसी शाम हमारे काफिले के दोनों तरफ नाच-गा रहे आदिवासियों के चेहरे भी। रायपुर के राजभवन में जनजातियों को नृत्य के लिए बुलाया गया था।

जनजातीय नृत्य अपने उछाह और उत्साह के लिए जाने जाते हैं...मुझे राजभवन में आदिवासियों के नाच में से वो उत्साह गायब नजर आया। लगा कि तहज़ीब की पैकेजिंग की जाएगी, तो हश्र कुछ ऐसा ही होने वाला है।

नया रायपुर में नजारा दीवाली से बेहतर था...लाखो की तो आतिशबाजी छोड़ी गई। रमन सिंह जी, काश इतने का केरोसिन खरीद कर मुफ्त बंटवा देते गरीबों में तो उनकी दीवाली भी रौशन हो जाती।

जिस इनक्लूज़िव ग्रोथ की बात आप और पीएम दोनों करते है, उस ग्रोथ को आप विकास में तब्दील क्यों नहीं करते। रायपुर में नया टर्मिनल बना है एयरपोर्ट का, यहां अंतरराष्ट्रीय उड़ानें भी आएंगी, लेकिन कतार में सबसे पीछे खड़ा आदमी आसमान में हवाई जहाज़ को देखकर आखिर करेगा क्या। शायद सिर धुने।

हवाई जहाज की उड़ानें हो, ऊंची इमारतें हो, मुझे इनके होने से कोई उज्र नहीं, लेकिन अबूझमाड़, दंतेवाड़ा, नारायणपुर...और सारे प्रदेश की जनता के लिए कोई रोजगारपरक काम शुरु करवाते रमन सिंह जी, तो सदियां आपकी शुक्रगुजा़र होतीं।


Sunday, November 4, 2012

टाइम मशीन


टाइम मशीन

चाहता हूं,
वक़्त की मशीन में थोड़ा पीछे चलूं.
कुछ लकीरें खींचू, कुछ मिटाऊं
कुछ तस्वीरें बनाऊं

कुछ साल पीछे चलूं.
बचपन नहीं,
झेल लिया है बहुत कसैलापन पहले ही
नौजवानी भी नहीं,
जब चिंता में घुला करता था रात-दिन

उन दिनों में
ले चले वापस मुझे
टाइम मशीन

पैरों के नीचे चरपराहट हो,
कुछ सूखे पत्तों की
और नंगी टहनियों पर टूसे आ रहे हों,
कुछ कोमल पंखुडियों-से

आहिस्ते से
वह आकर पकड़ ले मेरा हाथ
और चूम ले शाइस्तगी से
मेरी गरदन पर का तिल।
जिसे छूकर कहा था उसने कभी,
पता है तुम्हारी गरदन पर
एक तिल बड़ा खूबसूरत है।

टाइम मशीन,
ले चले मुझे
कुछ वक्त पीछे
शायद मिटा सकूं कुछ
उन धब्बों को
और उन सतरों को,
जहां मैंने जितना लिखा है
उससे कहीं अधिक काटा है।
मेरे जीवन में,
जितना ज्वार है, जितना भाटा है

चाहता हूं
कुछ लाईनों की ही सही, 
कर दूं फेरबदल। 
ऐ वक़्त,
थोड़ी तो मोहलत दे मुझे।
 

सुनो ! मृगांका:23 : नैना भीतर आव तू, नैन झांप तोहे लेउं

अब तक आपने पढ़ाः- (अभिजीत गांव में अपने घर में लेटा है। वह अपने तेज बुखार के दौरे से उबरने की कोशिश कर रहा है। सपने में वह पता नहीं किन-किन जगहों के दौर कर आता है। उसे याद आता है कि किस तरह वह मृगांका के हवेलीनुमा घर पर गया था, और उसके माता-पिता से मिला था। उसे याद आता है कि मृगांका के पिता ने उसे अपना भरपूर आशीर्वाद दिया था और मां ने नेह भरा हाथ फिराया था। एक प्रेम कहानी की इससे बेहतर शुरुआत क्या हो सकती थी भला...) अब आगे पढिए...

बड़े घरों के दिल हमेशा संकरे नहीं होते। जैसा कि अपनी मार्क्सवादी विचार के तहत अभिजीत सोचा करता था। कहानी की यह शुरुआत तो बड़ी शानदार थी...फिर चूक कहां हुई..।

अभिजीत की नींद खुल गई, आँधी के आसार बन रहे थे...।


आंधी तो ख़ैर क्या कहें, अभिजीत के लिए यह तूफ़ान से कम न था। उसने मिचमिचाते हुए आंखें खोली...भीतर जाकर चापाकल (हैंडपंप) चलाकर मुंह धोया...पानी बेहद ठंडा था। गांव की यही खासियत उसे बहुत सुकून देती है। जल्दी ही उसने स्टोव पर चाय का पानी चढ़ा दिया।

अभिजीत ने हमेशा, यही कहा था-टी इज़ कूल इन समर एंड वॉर्म इन विंटर।

पतीली में चाय का पानी खौल रहा था। अभिजीत यादों में डूब गया। अभिजीत की यादों का सिलसिला, उसकी यादों का तानाबाना सिर्फ और सिर्फ मृगांका के आसपास बुना हुआ था। एक बार उसने कॉल किया था, मृगांका बातें करते-करते खांस रही थी। अभिजीत ने उसे कहा कि वो चाय पिए, अदरक की या फिर तेजपत्ते की।

मृगांका हंसने लगी। अभिजीत को अपनी भूल मालूम हुई, मृगांका ने बताया था उसे कि वो चाय नहीं पीती। बस कभी कभार पीती है। चाय का पानी खौल ही रहा था। पूरे फ्रेम में महज चाय की पतीली। अभिजीत को उसमें भी मृगांका का ही चेहरा दिखता है।

उसी बातचीत में अभिजीत ने किसी तरह मनाया था मृगांका को कि वो काली मिर्च और घी ले, तो खांसी रुक जाएगी। अभिजीत को लगा कि वो ये बातें, इतनी छोटी बातें, किसी को बताएगा, तो लोग उसे दीवाना कहेंगे।

तभी दरवाजे पर आहट हुई। बिसेसर था।

अरे बिसेसर बाबू आओ
अभिजीत भैया, आपको महंत जी बुलाए हैं, मुखिया जी से मिलवाने के लिए बुला रहे हैं। दुर्गाथान(दुर्गा स्थान) पर।

चलो, पहले चाय पी लेते हैं। पिओगे?
अरे बाबू, आप बनाएंगे चाय
क्यों हम नहीं बना सकते, हमारे हाथ की चाय पियोगे , तो बाकी चाय भूल जाओगे, हम चाय बहुत अच्छा बनाते हैं, ये तो मृग भी कहती है...

कौन मृग बाबू...

अरे कोई नहीं, ऐसे ही...लो चाय पिओ।

थोड़ी देर बाद दोनों दुर्गा स्थान पहुंच चुके थे। अभिजीत के घर से फर्लांग भर दूर है दुर्गाथान। वहां एक स्कूल है, तालाब है, मंदिर है, और चौक पर कुछ दुकानें हैं। मंदिर के अहाते में, बारामदे पर मुखिया जी और महंत जी समेत कई लोगों की चौपाल-सी बैठी थी।

आइए, अभिजीत बाबू। परिचय करा दें आपका, इन सबों के। भाईयों,ये हैं अभिजीत बाबू...हमारे ही गांव के हैं, दिल्ली में रहते हैं...कल ही आए हैं। पारस्परिक अभिवादनों का आदान-प्रदान हुआ।

मुखिया जी ने आवाज़ दी, अरे उगना, पानी पिलाओ बाबू को...।
अभिजीत को यह नाम सुना-सुना सा लगा। उगना ये नाम कहां सुना है? मुखिया जी ने बताया अरे, अभिजीत जी अपने गांव से थोड़ा दूर है ना उगना महादेव का मंदिर। रेलवे का हॉल्ट भी है, भवानीपुर के पास। वहीं सुना होगा...कहानी सुनी है आपने उगना की?

अभिजीत ने इनकार में सिर हिला दिया।

महंत जी ने कहानी सुनानी शुरु कर दी, 'बहुत पहले विद्यापति ठाकुर नाम के बड़े शिवभक्त कवि हुए थे..आपको तो पता ही होगा?' इस बार अभिजीत ने सहमति में सिर हिला दिया।

'विद्यापति को मैथिल कोकिल भी कहते हैं। उनकी पदावलियां हिंदी और मैथिली साहित्य की धरोहर मानी जाती हैं, और उनको जायसी, तुलसी, सूर के बराबर माना जाता है। भगवान शिव को भी विद्यापति से बड़ा प्रेम था। अपने भक्त के साथ रहने के लिए ईश्वर भी धरती पर उतर आए, और चरवाहे के रूप में उनके खेतों में काम करने लगे। खेतों में हल चलाते...विद्यापति की सेवा करते। उधर, विद्यापति शिव तांडव स्त्रोत का पाठ करते, शिव की पूजा करते, मैथिली में रचनाएं रचते, महाराजा के दरबार भी जाते, लेकिन इस बात से बिलकुल अनजान कि उनका चरवाहा भगवान शिव ही हैं। पता है चरवाहे के रूप में रह रहे भगवान का नाम क्या था? '

अभिजीत ने फिर इनकार में सिर हिलाया।

उगना, उगना नाम था शिव का।

अरे उगना पानी लाया रे। मुखिया जी ने जोर से गरज कर आवाज़ लगाई। उगना पानी भरा लोटा लेकर हाजिर हो गया। उफ़, कितना ठंडा और मीठा पानी था। अभिजीत को दिल्ली के जीवन के तमाम आरओ वाले और बोतलबंद मिनरल वॉटर की बोतलो का पानी फीका लगा था।

उसने फिर आवाज़ लगाई, उगना!

उधर, दिल्ली में;

मृगांका अस्पताल में थी, आरएमएल में पता नहीं किसकी झलक देखकर उसे लगा कि प्रशांत है। कल शाम ही ब्लास्ट के फुटेज़ में पता नहीं क्यों उसे अभिजीत का चेहरा नज़र आया था। आज उसे प्रशांत का चेहरा दिख गया। उसने सर झटकना चाहा। लेकिन उसे लगा मेडिकल सुपरिटेंडेंट से पूछ लेने में हर्ज़ ही क्या है।

मेडिकल सुपरिटेंडेट ने बताया कि उसके यहां एक डॉक्टर है तो प्रशांत नाम का, लेकिन वह धमाके के बारे में कुछ बता नहीं पाएगा। मृगांका को इससे को ई मतलब नहीं था। उसने डॉक्टर से कहा कि प्रशांत उसका परिचित है और उसकी बहुत दिनों से उसकी मुलाकात नहीं हो पाई है, उसका मिलना जरूरी है।

पता नहीं क्यों, मृगांका को आभास हो रहा था कि हो न हो वह प्रशांत ही था...और अब गुत्थी का एक सिरा तो पकड़ में आएगा।

सच में वह प्रशांत ही था। उसने एक झलक में ही मृगांका को देख लिया था, उसकी निगाहों से बचने केलिए ही वह किनारे से निकल गया था। वॉर्ड बॉय ने जाकर प्रशांत को बताया कि उसे दासगुप्ता जी याद कर रहे हैं और साथ में एक टीवी में काम करने वाली लड़की भी है।

अब प्रशांत के सामने कोई चारा न था।

मेडिकल सुपरिटेंडेट के केबिन का परदा हटने से पहले तक प्रशांत का दिल ज़ोरो से धड़क रहा था। उसे बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि वह मृगांका को क्या जवाब देगा।

परदा हटा। लगा कैमरा लॉन्ग शॉट से सीधे जैप़ ट्रैक होता हुआ प्रशांत के चेहरे पर टिक गया, तकरीबन हवाईयां उड़ती हुईं।

कट टू मृगांका। 

हैरत भरी आंखो का एक्सट्रीम क्लोज अप। सिनेमैटिक साइलेंस। कोई जवाब नहीं, कोई सवाल नहीं। लेकिन मृगांका को रुंधी हुआ आंखों में एक हज़ार सवाल थे। प्रशांत की झुकी हुई निगाहें निरुत्तर थीं।

मौन तोड़ा दासगुप्ता जी ने। अरे मृगांका जी यही है हमारा प्रशांत, दिल का डॉक्टर है। हहहह। चलिए आप लोग बात करिए...हम जरा राउंड लगा कर आते हैं।

दासगुप्ता जी निकल गए। प्रशांत ने बस इतना कहा, घर चल कर बात करें।

चलो। मृगांका ने कहा।

गाड़ी गेट से निकली, फ्रेम से बाहर हो गई। सन्नाटा-सा पसरा रहा।