Tuesday, August 26, 2008

एक कहानी

एक थे सेठ जी। जैसा कि आम तौर पर कहानियों में होता है, सेठ जी बड़े दयालु थे। और प्रायः पुण्य इत्यादि करने के वास्ते हरिद्वार वगैरह जाते रहते थे। एक बार वह गंगासागर की यात्रा पर गए।कहते हैं, सब धाम बार-बार गंगासागर एक बार। और ये भी मान्यता है कि गंगासागर जैसी पवित्र जगह में अपनी एक बुरी आदत छोड़कर ही आना चाहिए। इस बाबत सेठ जी अपने दोस्त से बातें कर ही रहे थे॥और उसे बता रहे थे कि इस बार वह अपने बात-बात में गुस्सा हो जाने की आदत को गंगासागर में ही छोड़कर आए हैँ।

सेठ जी का दोस्त बड़ा खुश हुआ, सेठानी भी मन ही मन नाच उठी कि अब तो सेठ जी उसे हर बात पर नहीं डांटेंगे। और ऐसा भी हमेशा होता है कि सेठ जी लोगों का एक नौकर होता है और आमतौर पर उसका नाम रामू ही होता है। इन सेठ जी के भी नौकर का नाम भी रामू ही था।

तो रामू ने सेठ जी के लिए पानी का गिलास रखचे हुए पूछा कि सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? सेठ जी जवाब दिया- गुस्सा।रामू पानी रखकर चला गया। फिर छोड़ी देर बाद जब वह ग्लास उठाने आया तो उसेने फिर पूछा - सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? सेठजी ने मुस्कुराते हुए कहा - गुस्सा छोड़ कर आया हूं।

कुछ देर और बीता रामू फिर सवाल लेकर आ गया- सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? सेठ जी थोड़े झल्लाए तो सही लेकिन उन्होंने अपने-आपको जब्त करते हुए कहा कि मैं गंगासागर में गुस्सा छोड़कर आया हूं।

फिर रात के खाने का वक्त आया- रामू फिर खुद को रोक न पाया, पूछ ही बैठा- सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? अब तो सेठ जी का पारा गरम हो गया। जूता उठा कर नौकर को दचकते हुए उन्होंने कहा कि हरामखोर। तब से कहे जा रहा हूं कि गुस्सा छोड़कर आया हूं तो सुनता नहीं? हर जूते के साथ सेठ जी कहते सुन बे रमुए, गुस्सा छोड़ कर आया हूं, गुस्सा।

इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? पता नहीं आपको क्या शिक्षा मिली, मुझे तो ये मिली कि
नंबर १- किसी सेठ के यहां नौकरी मत करो।
२- नौकरी करनी ही पड़ जाए तो सेठ से सवाल मत पूछो और नियम पालन करो कि सेठ एज़ आलवेज़
राइट३- कभी किसी सेठ की बात का भरोसा मत करो, चाहे वह गंगासागर से ही क्यों न आया हो।

Tuesday, August 19, 2008

मुसलमानों को घर क्यों नहीं मिलता?

ये सवाल पिछले दिनों शबाना आज़मी ने उठाया. कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को घर नसीब नहीं। फिर एक बैठक के दौरान माननीय सईद नकवी ने भी बयान दिया है कि उन्हें इस सेकुलर हिंदुस्तान में कमारा किराए पर नहीं मिला क्योंकि वह मुसलमान थे और गोश्त खाते थे।

क्या सचमुच यह स्थिति है कि मुसलमानो को घर नहीं मिलता? क्या देश के सोलह करोड़ मुसमान बिना घरबार के सड़कों पर रह रहे हैं। पहले नकवी साहब की बात, उनका कहना ता कि दिल्ली के हिंदुओं ने उन्हे रहने के लिए किराए पर मकान नहीं दिया. उनकी बात का समर्थन किया कुलदीप नैयर ने। ये बात तीसेक साल पहले की है, जब इंदिरा जी जिंदा थी और कथित रुप से भारत सेकुलर भी था। उस वक्त कुलदीप नैयर साहब ने स्टेट्समैन के नाम पर किराए पर घर लिया, और उसे नकवी को दिया। ( अब ये तो नैयर साहब ने उस मकान मालिक के साथ धोखा किया)

नकवी साहब गोश्त खाना नहीं छोड़ सकते.. तो क्या उस मकान मालिक को इतनी छूट नहीं कि वह गोश्त नही खाता तो गोश्त खाने वाले को घर न दे।

यह भी तो हो सकता है कि उसने गोश्त खाने वाले हिंदुओं को भी मकान नहीं दिया हो। इसकी क्रास चेकिंग की गई? बहरहाल अब बात शबाना की। आपने हाल ही में कहा कि मुसलमानों के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अख्तियार किया जा रहा है। कहां? क्या हज यात्रियों को सब्सिडी मिलनी बंद हो गई है? क्या हिंदुओं को कैलाश-मानसरोवर यात्रा के लिए कोई छूट दी जा रही है? अल्पसंख्यक होने का फायदा उठाना और बात है?

दरअसल मुसलमानों का आम मानस अब भी मासूम है, और उसाक फायादा सियासतदां उठा रहे हैं। उन्होंने ही फिजां बना दी है कि सिर्फ मुसलमान होने के नाते उनको परेशान किया जा रहा है। क्या इस बात का कोई रेकॉर्ड है कि कितने लोग बेवजह व्यवस्था द्वारा परेशान किए गए? उनकी कोई गिनती है धर्म के आधार पर। गिनती की जाए तो उनमें भी हिंदु ओ की गिनती ही ज्यादा होगी। इस मुद्दे पर खोल में सिमटने की बजाय खुलेमन से देखने की ज़रूरत है। वरना क्या वजह है कि अज़हरुद्दीन क्रिकेट टीम के कप्तान बनते हैं तो ठीक, मैच फिक्सिंग में फंसे तो कहा कि अल्पसंख्यक होने की वजह से उन्हे फंसाया जा रहा है। ऐसा ही सलमान खान ने कहा था। चिंकारा मामले में।

एक और बात, रोज़े-नमाज़ से दूर रहने वाले ये सेलेब्रिटी जेल जाते वक्त तुरत सर पर टोपी पहने लेते हैं। ताकि संदेश ये जाए कि वह मुसलमान है और उन्हे परेशान किया जा रहा है। कल को दाउद इब्राहिम भी कहेगा कि वह मुसलमान है इसलिए भारत में उसे परेशान किया जा रहा है।
इधर जैसे ही हाई कोर्ट ने सिमी परसे पाबंदी बटाने की बात की, मुलायम कह उठे- देक्खा, मैंने तो पहले ही कहा था कि उन्हें परेशान किया जा रहा है। बहरहाल, संतोष की बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने मामले पर स्टे दे दिया और सिमी पर प्रतिबध कायम है। बाद में अहमदाबाद और जयपुर धमाको में उनके रिश्तों की खबरें भी सामने आईं, इनमं सिमी के लोग शामिल बताए जा रहे हैं। अब तुरत-फुरत बयानबाज़ी करने वाले नेताओं के बारे में क्या कहा जाए। मेरे खयाल में तो पहला प्रतिबंध इन नताओँ पर ही लगा दिया जाए।

इस तरह की सोच को बदला जाना ज़रूरी है। खासकर तुष्टिकरण देश का सबसे ज्यादा नुकसान कर रहा है।

Wednesday, August 13, 2008

सेकुलर चैनलों की खुल गई पोल

टीवी देख रहा हूं.. चैनल बम बम भोले की रट लगाते लोगों के एंबियांस से गुंजायमान है। एनडीटीवी पर शेखी बघारते बड़े पत्रकार जम्मू को नजरअंदाज़ करते हुए श्रीनगर की घटना के बारे में जोर देते हुए खबरदार करते हैं- कि १६ प्रदर्शनकारी मार डाले गए। पद्मश्री से नवाजे गए पत्रकार अपने क़द का फायदा उठाते हुए फतवा जारी कर रहे हैं कि जम्मू और घाटी में मुद्दे बदल गए हैं। बड़े पत्रकार महोदय, क्या मुद्दा हमेशा घाटी ही तय करेगा?
संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ स्थिति के बारे में आपकी क्या टिप्पणी है.. जब घाटी में प्रदर्शनकारी पाकिस्तानी झंडे लहरा रहे हैं।

जायका चखते-चखते विनोद दुआ जी आपको नजर नहीं आता कि इसके पीछे की क्या पॉलिटिक्स है? श्रीमान नौसिखिया भी बता देगा कि पीडीपी का जम्मू में कोई आधार नहीं है, उन्होंने हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का एजेंडा उससे छीन लेने की कोशिश की है। ताकि कश्मीर घाटी में उनका आधार और मज़बूत हो सके। इसके बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस में घबराहट फैली और उन्होंने भी इस मुद्दे का समर्थन करने का फ़ैसला किया, इसके बाद दोनों पार्टियों में होड़ लग गई।

डीडी ने साफ कहा कि घाटी में जरूरी चीजों की कोई कमी नहीं, तो आप किसा आधार पर आर्थिक नाकेबंदी की बात करत हैं?
क्या आपको नजर नहीं रहा सेकुलर चैनलों कि धीरे-धीरे यह आंदोलन भाजपा के हाथों से निकलकर एक जनआंदोलन में बदल गया है? आंदोलन का आकार बढ़ता देखकर जम्मू कांग्रेस में घबराहट फैलने लगी है और अब उन्हे अपने कदम पर पछतावा ज़रु हो रहा होगा। ये जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के ताबूत में आखिरी कील साबित होगी।
राजनीतिक गहमागहमी और खेल की ऐसी की तैसी.. लेकिन जिसतरह ये चैनल उससे खेल रहे हैं उस पर बड़ा रंज होता है। खासकर बौद्धइक माने जाने वाले चैनलों के पत्रकार निराश करते हैं। ुन्हें अपने बुद्धिजीवी होने का गुमान है और ये लगने लगा कि वो देश को मिसलीड कर सकते हैं। इन लोंगो की ताजा रिपोर्टिंग से इतना जल गया हूं कि इनके क्रेडिबिलिटी पर सवालिया निशान लगने लगे हैं।
क्रेडिबिलिटी की ए बी सी यानी एक्युरेसी, बैलेंस, और क्लेरिटी की तो इन्होने परवाह ही नही की है. और झंडा बुलंद करते है पत्रकारिता का। एनडीटीवी इंडिया ने साबित कर दिया कि विश्वसनीयता के उसेक लिए कोई मायने नहीं और उसका अपना अजेंडा हैं. किसी खास पार्टी का। हिडन.अजेंडा। लेकिन आगे से आपलोगों के मुंह से १३ पुरस्कारों को की सूची सुनकर बुरा ही लगेगा। इन बड़े नामों ने पत्रकारिता को रखैल बनाकर रख लिया है।
दुखी हूं. पहले यही चैनल देखता था, अब नहीं देखूंगा। किसी धर्म की बात नहीं बात सच्चाई और भरोसे का है।

अभिनव चमत्कार को सलाम

चमत्कार हमारे देश में होते रहते हैं.. और हम चमत्कारों के आगे नतमस्तक भी होते रहते हैं। देश ही चमत्कार की वजह से चल रहा है। जितना दूसरे देशों का बजट होता है उतना तो हम घोटालों में खा जाते हैं। हर मुमकन चीज़ का घोटाला कर लेने और दलाली की सूरत निकाल लेने में हमें महारत हासिल है।
लेकिन एक और चमत्कार ये हुआ कि अभिनव बिंद्रा भारत के लिए अकल्पनीय स्वर्ण जीत लाए। देश उन्हें सलाम कर रहा है,मैं भी। देश को चमत्कारों की और नायकों की ज़रूरत रही है। सदा-सर्वदा से। आज अभिनव है, धोनी हैं,कल सचिन और गावस्कर थे। कपिल थे।
लेकिन इन चमत्कारों के पीछे कितना पसीना बहाना पड़ा है इन नायकों को, ये किसी ने जानने की जहमत नहीं उठाई। एक टीवी न्यूज़ चैनल की मानें, तो अभिनव के राइफल में छेड़छाड़ की कोशिश की बात भी सामने आ रही है। हमार समाने अचानक हीरोज़ उभर कर आते हैं, और हम उन्हे पूजने भी लगते हैं, टेनिस सनसनी सानिया, इरफान पठान, विश्वनाथन आनंद.. इंडिया टुडे जैसी पत्रिका के एक अंक ने तो आगरकर पर कवर स्टोरी कर दी थी.. आगरकर का आविर्भाव। कहां गए आगरकर..। दरअसल हम अपने हीरोज़ से हमेशा जीतने की उम्मीद करत ेहैं.. जो मेरे खयाल से हमेशा मुमकिन होता नहीं दिखता।
जीत को दोनों हाथों से थामना सावाभाविक ही है, लेकिन हार को भी खेल का हिस्सा मानकर आगे की तैयारी में जुट जाना क्या हम नहीं सीख सकते? वो भी तब जब हमें हारने की आदत हो गई हो।

Wednesday, August 6, 2008

ये दोस्ती हम... नहीं...तोडेगें

कहते हैं जिंदगी छोटी है और दोस्तों का होना अपने आप में बड़े भाग्यवान् होने का परिचायक है। पिछले रविवार को मित्रता दिवस था तो लगा कि दोस्तों से दुनिया को परिचित करवाने का इससे बढिया मौका तो मिल ही नहीं सकता। कई मित्र हुए हैं, जिन्हें भलना मेरे लिए ताउम्र मुमकिन नहीं होगा।

मेरे घर में एक किराएदार परिवार था। पति राजनीति शास्त्र के और पत्नी हिंदी की प्रफेसर। दोनों की दूसरी शादी। उन्हें शहर भर में कोई किराए पर घर देने को तैयार नहीं। तलाकशुदा होना और दूसरी शादी करना जघन्य अपराध था उन दिनों खासकर मधुपुर जैसे छोटे क़स्बे में। उनके दोनों के मिलाकर छद बच्चे। छोटा था पीयूष.. जिनकी प्रेम कहानी से मैं पाठकों को पहले ही परिचित करवा चुका हूं। मेरी और उसकी सोच, आदतें वगैरह मिलती थीं.. दोनो दुनिया भर के आवारा थे।

कलात्मक चीजें इकट्ठा करना और नागराज, परमाणु, सुपर कमांडो ध्रुव की कॉमिक्स पढना दोनो का शगल.. साथ में नंदन. पराग और सुमन सौरभ जैसी पत्रिकाओं का शौक। एक अलगाव दोनों मे ये था कि वह बाद में कला पढ़ता गया.. बाद में फाइन आर्ट में एम एफ ए भी किया.. मैं साइंस की ओर झुका था।

दूसार अंतर था दोनो ंदोस्तो ंमें कि उसे एक ही लड़की से मुहब्बत हुई और मुहब्बत मरे लिए खैरात की तरह था उन दजिनों जिसे मैं मुक्त हस्त लड़कियों में बांटता था। अर्थात्, मेरी कई प्रेम कहानियां निबटीं। इस मित्र से संपर्क आज भी है, दूरियां बढीं लेकिन दिलों में कायम न हो पाई हैं।

बारहवीं के दौरान दूसरा मित्र मिला आलोक रंजन, विवेकानंद का अनुयायी.. इसे लड़कियों को देखकर की कंपकंपी लगती थी। एक जगह टिक कर पढ़ने की आदत मुझमें आलोक ने डाली .. हॉस्टल में मेरा रुम मेट था। कई बार उकसा कर और इसकी तरफ से प्रेम पत्र लिखकर मैंने इसकी गाड़ी पटरी पर चढ़ाने की कोशिश की लेकिन बच्चा लड़की को बहनजी कहकर आ जाता। बाद मे कई घंटों तक दुर्गा सप्तशती का पाठ करता। उसेक घर से उसके पिता हॉर्लिक्स भेजते, उसे मैंने सूखा ह़र्लिक्स फांकना सिखाया, आलोक आजतक इस बात पर पछताता है कि क्यों उसने मेरी बात मानी, क्योंकि आज भी उसकी ह़र्लिक्स फांकने की आदत गई नहीं है। मुझे इस बात का संतोष है कि कम से कम एक छात्र मेरा ऐसा है जो मेरी सीख से आज तक पीछा नहीं छुडा़ पाया है।

बाद में एक और मित्र एग्रीकल्चर की पढाई के दौरान मिली, जिसका अहसान मैं आज भी मानने को तैयार हूं क्यों कि खेत की मिट्टी लगी जींस पैंट वगैरह वह बड़े प्यार से धो दिया करती। बड़े शौक से धोती..उसका चेहरा मुझे तब भी और अब भी मौसमी चटर्जी की तरह दिखता रहा है। शायद, मैं मौसमी को बहुत पसंद करता हूं उस खातिर.. लेकिन न तो वह और न मैं, इस रिश्ते को बस दोस्ती ही मानने को तैयार हूं.. शायद यह कुछ और ही था। ... ये कहानी अभी खत्म नहीं हुई है मेरे दोस्त..

जिन चार मित्रों का जिक्र न करुं तो कहानी अधूरी रहेगी..वह थे रामाशंकर, दिलीप, शन्नी और खालिद। मधुपुर के ये दोस्त आज सभी शादीशुदा हैं,। लेकिन अब भी घर जाता हूं तो हमारी क्रिकट टीम तैयार हो जाती है। हमने खूब पिकनिक मनाई.. लाईन मारे.. एक साथ। मधुपुर के पास बहती हुई अजय नदी हमारे कई पिकनिकों की गवाह है। हम पांचो का नाम भी लोग पांच पापी रख चुके थे। बहरहाल, मेरा डिस्क्लेमर है कि हमने कोई पाप किए नहीं, जो मजहबी कसौटी पर खरे पाप होते हों। सिगरेट पीना पहले पहल मैंने इन्ही की सोहबत में सीखा।

फिर आईआईएमसी के दौरान सुधीर नाम का लड़का मिला, ये कई मामलो में मेरा भी उस्ताद निकला। सुधीर की दिलचस्पी लड़कियों में मुझसे भी ज़्यादा थी, है और रहेगी। मामू के नाम से मशहूर रोहित रमण, जो फिलहाल ज़ी स्पोर्ट्स में काम कर रहे हैं, फूफा जी के नाम से मशहूर नितेंद्र सिंह, कई दौस्त हुए।

मेरे करीबी दोस्तों में सुशांत राजनीतिक प्रवक्ता और योगेंद्र यादव की तरह एनालिटिकल हैं तो राजीव किसी बात को चूतियापा कहकर टाल देने में माहिर। उसकी अलग विचारदृष्टि है और उसके विचार में कार्ल मार्क्स भी प्रबुद्ध नहीं। एक और मेरे मित्र हैं ऋषि रंजन काला, जिनके उपनाम में चस्पां हुआ काला उनके उजले मन की ओर संकते करता है। आप पहली नज़र में उन्हे देखें तो आपको लगेगा किसी किसी हलवाई या बनिए से मिल रहा हूं। खाते-पीते खानदान के लगते हैं। पेट यूं लटका हुआ मानो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से खिंचकर धरती पर लोटने लगेगा। ऐस उभरा हुआ मानो दूर क्षितिज से कोई उसे पुकार रहा हो...।लेकिन दुनिया के किसी भी विषय पर वे साधिकार बयानबाज़ी करते हैं, और खासकर इटली के ऑपरा और पावरोत्ती वगैरह की बात जब वह करने लगता है तो हम चित्त हो जाते हैं। दर्शन और आध्यात्म पर वह किसी भी फिलासफर की टुइयां कर सकता है।

बहरहाल, इन सभी मित्रों में मुमकिन है कि विकास, दीपांशु सरीके कई नाम छूट गए हों। लेकिन इन्ही दोस्तों ने मुझे इस जगह तक पहुंचने और कुछ हासिल करने की ललक पैदा की है। उनके भरोसे को कायम रखूं, और नए मित्र बनाते चलूं. यही उम्मीद है।।

Tuesday, August 5, 2008

मंगल ठाकुर की मैथिली कविता

मांगिक पेट भरैय छी यौ
जौं शिव जनताह हमर कलेष
तौं दुख हरताह यौ
एसगर दिवस बिताबैं मंगल
दुख की गाइयब यौ
दुख दारुण अछि हमर महादेव
जौ दुख हरता यौ

क्षणिका

आस भरोसक टाट लगाओल,
आँग समांगक ठाठ बनाओल,
मुदा घुरतइ इ दिन के फेर,
की हरता शिव विधि के टेर


भावानुवाद-

( आश-भरोसे की टाट लगाई,
अपनों के कुछ बांध बनाए,
अब बहुरेगे दिन के फेर,
कभी सुनें शिव मेरी टेर)

मंगल ठाकुर

मैथिली की इस क्षणिका का भावानुवाद करने की कोशिश की है।

Saturday, August 2, 2008

शिबू सोरेन- ना ख़ुदा मिला ना विसाले सनम..

सोरेन के लिए यह लाईन बेहद सटीक बैठती है। ना खुदा मिला ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के... यूपीए के विश्वास मत प्रस्ताव में पक्ष में वोट देकर अपनी गोटी लाल करने का इरादा शिबू ने जाहिर किया। लेकिन सोनिया और सरकार उनपर कोई ध्यान ही नहीं दे रही। गुरुजी ने सोचा था, एक तीर से दो शिकार॥।

झारखंड में मुख्यमंत्री का पद एक नगरवधू की तरह है, खुद उस पर कब्जा जमा लें, और अपने दो सांसदों को केद्र में मंत्री पद दिलवा दें। झारखड में एक निर्दलीय मुख्यमंत्री बना बैठा है। दो दिनों से सोरेन दिल्ली में अपने बाकी के चार सासंदों के साथ लाईन में लगे बैठे हैं॥ पर सोनिया जी भाव ही नहीं दे रहीं। मिलने का वक्त ही नही मिल रहा। अभी कुछ हफ्ते पहले ही विश्वास प्रस्ताव से पहले उनका कथित १२ मांगें मान ली गई थीं।


लेकिन झारखंड मुक्ति मोर्चा को अंदेशा भी न था कि सबकुछ इतनी जल्दी बदल जाएगा। इन्ही सोरेन के लिए पूरी कॉन्ग्रेस ने पलक-पांवडे बिचा दिए थे। अब झारखंड की राजनीति करने की सार्वजनिक इच्छा ज़ाहिर करने के बावजूद यूपीए उन्हे भाव नहीं दे रहा। झामुमो के ही अंदर भारी खींचतान मची है। खुद झारखंड में सोरेन को दूर रखने के लिए कई घटक तैयार हो गए हैं।


पार्टी के भीतर ही महत्वाकांक्षा की टकराहट शुरु हो गई है। सभी सांसद खुद को मंत्रिमंडल में जगह दिलवाने की फिराक में हैं। अब दो-तीन दिनों के भीतर केंद्र उनकी नहीं सुनता है , तो सोरेन क्या करेगे? तीखे तेवर अपनाएंगे? लेकिन कांग्रेस तो उनका इस्तेमाल कर चुकी, अपने वादे से मुकर जाए तो सोरेन करेंगे क्या?


जो भी हो, ऐसी स्थिति में चुप रहना सोरेन के लिए हितकर नहीं होगा। राज्य की कमान उनके हाथ में हो तभी बात बनेगी, वरना झारखंड में एंटी-इंकम्बेंसी फैक्टर उन्हे लील जाएगा। लेकिन यूपीए के लिए तो सोरेन -मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं... वाला गाना गा रहे हैं।

पिता को श्रद्धांजलि..


कल मेरे पिता की पुण्यतिथि थी। मेरे पिता का १९८२ में तब निधन हो गया, जब मैं महज २ साल का था। पिता का चेहरा याद नहीं, लेकिन एक छाया जैसी महसूस करता हूं। पुनर्जन्म में मेरा यकीन नहीं॥ लेकिन अब भी उनकी उपस्थिति महसूस करता हूं।

और किसी परेशानी मे पड़ता हूं, ईश्वर को याद करने से पहले पिता को याद करता हूँ। उनकी ये उपस्थिति मेरे लिए एक देवता जैसी हो जाती है। मेरे पिता, जिन्हे मैं बाबूजी कहता हूं, देवता नहीं थे। लेकिन मेरे ख्याल से मुकम्मल इंसान थे। उनकी डायरी में निजी बातों की बजाय गरीबी और मानवता से पगी बातें हैं।

मेरे पिता कोई बहुत बड़े आदमी नहीं थे, एक क़स्बे के टिपिकल आम आदमी। लेकिन हमारे लिए एक ऐसी जोत, जो हमममें जीने की नई राह बताते चलते हैं।एक पुत्र के तौर पर ऐसा पिता पाकर में बेहद गौरवान्वित हूं। उस वक्त, जो राजनीतिक हलचल थी, उसमें भी राजनीतिक रुप से तटस्थ रहते हुए वे आम आदमी के लिए सोचते थे।

पेशे से शिक्षक मेरे पिता कभी किसी अखबार की सुर्खियों में नहीं आए, न राजनीतिक फतवेबाजी में पड़े, न इमरजेंसी के दौरान जेल जान की नौबत आई,। लेकिन परिवार के प्रति जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी बाबूजी ने सभी बच्चों में यानी हम सभी भाई-बहनों में अच्छे मानवीय मूल्य भरने की कोशिश की। मेरी मां अब भी उनकी बाते कहकर उनका उदाहरण देकर हमें गलत करने से रोकती हैं।

पिता की मृत्यु को २६ साल हो गए, लेकिन आज भी वह हमारे साथ हैं ऐसा लगता है। एक पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के ४२ साल उन्होंने जिए, मेरी प्रार्थना है हर कोई जिए। अगर कहीं ईश्वर हैं, तो मेरी प्रार्थना है कि मेरे पिता ने जो गुण- देशभक्ति, मानवीयता और पर्यावरण के प्रति जारगुकता के गरीबी के प्रति लड़ाई के, - मुंझमें देखने चाहें वे मुझमें अगर हैं तो बने ,रहें नहीं हैं तो मुझमें आएँ।

हर जन्म में बाबूजी मेरे पिता बनें...। नमन